जैन पूजन थाली में स्वस्तिक बनाने का क्रम
हे भगवन्! इस त्रन नाली में निगोद से स्वर्गों को यात्रा करते हुए (क्र.-1) अनादिकाल से चारों गतियों की 84 लाख योनियों में जन्म मरण कर रहा हूँ। (क्र.-2) खोटे कर्म करके कभी अधोगति नरक में गया हूँ। (क्र.-3) हे प्रभु! शक्ति देना कि ऐसे कार्य नहीं करूं जिससे नरक जाना पड़े (क्र.-4) कभी छल कपट करके तिथंच गति में गया (क्र.-5) में तिर्यंच गति में न जाने का सकल्प करता हूँ। (क्र.-6) कभी शुभ भावों से मरण कर देव गति को प्राप्त हुआ (क्र.-7) मैं असंयमी देव भी नहीं होना चाहता (क्र.-8) कभी शुभ संकल्प व्रतादि धारण कर मानव पर्याय पाई (क्र.-9) में इसमे उत्कृष्ट संयम पालन करने की भावना करता हूँ। (क्र.-10) यह परिभ्रमण मूलतः अज्ञान मिथ्यात्व मोह एवं विषय कषाय के कारण से हो रहा है – यथा.
अज्ञान मिटाने के लिए मैं सकल्प करता हूँ कि प्रथमानुयोग (क्र.-11) करणानुयोग (क्र.-12), चरणानुयोग (क्र. 13). एवं द्रव्यानुयोग (क्र.-14), का स्वाध्याय करके मैं सुख से शून्य इन चारों गतियों से छूटने के लिए भी सम्यक्दर्शन (क्र.-15), सम्यक्ज्ञान (क्र. 16), एवं सम्यक्चारित्र (क्र-17) को प्राप्त करूँगा तथा रत्नत्रय की पूर्णता करके सिद्ध शिला (क्र.-18), से ऊपर मानव पर्याय के परम लक्ष्य पंचम गति सिद्ध पद को प्राप्त करूंगा (क्र.-19).