अधो लोक –

सात पृथिवियाँ (सात नरक)
रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयोघनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाःसप्तोऽधोऽधः ॥१॥
संधि-विच्छेद :
रत्न+शर्करा+बालुका+पङ्क+धूम+तमो+महातमः+प्रभा+भूमय:+घन+अम्बु+वात+आकाश+प्रतिष्ठाः+सप्त+ऽधोऽधः
शब्दार्थ-रत्न-रत्नो,शर्करा-शर्करा,बालुका-बालुका,धूम-धूम,पङ्क-कीचड़,तमअन्धकार,महातम-घोरअन्धकार की प्रभा-कांति के समान सात पृथिवीयाँ है,घनाम्बुवाता-घनोदधिवातवलय, घनवातवलय, तनुवातवलय, आकाश-आकाश के, प्रतिष्ठा:-आधार से है !
भावार्थ-अधोलोक में रत्नप्रभा,शर्कराप्रभा,बालुकाप्रभा,पङ्कप्रभा,धूमप्रभा,तमप्रभा और महात्मप्रभा क्रम से एक के नीचे दूसरी ,दूसरी के नीचे तीसरी ;इस प्रकार सात पृथिवियाँ मे क्रमश: धम्मा ,वंशा ,मेधा, अंजना, अरिष्टा,मधवा और माधवी सात नरक,नारकियों के निवास स्थान ८४लाख बिल है !सभी पृथिवियाँ घनोदधि वातवलय के आधार है,घनोदधि ,घनवातवलय के आधार और घनवातवलय तनुवातवलय के आधार है,तनुवातवलय का आधार आकाश है!आकश सबसे बड़ा और अनन्त है इसलिए स्वयं का आधार है इसका अन्य कोई आधार नहीं है !


सात पृथिवियोँ में नरको(बिलों) की संख्या –
तासुत्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशतसहस्राणिपञ्चचैवयथाक्रममम् ॥२॥
संधि विच्छेद –
तासु+त्रिंशत्+पंचविंशति+पंचदश+दश+त्रि+पंचोनैक+नरक+शत+सहस्राणि+पञ्च+च+एव्+यथाक्रममम्
शब्दार्थ-
तासु-उन-पृथिवियों के नरको में, त्रिंशत्-३x१०=तीस ,पंचविंशति-पच्चीस ,पंचदश-पद्रह,दश-दस,त्रि-तीन,पंचोनैक-पांच कम एक लाख,नरक-बिल,शत(सौ),सहस्राणि-(हज़ार)अर्थातलाख पञ्च-पांच,एव +यथाक्रममम् -क्रमश :!
भावार्थ-अधोलोक में उन पृथिवियों;रत्नप्रभा,शर्कराप्रभा,बालुकाप्रभा,पङ्कप्रभा,धूमप्रभा,तमप्रभा और महातम प्रभा में क्रमश ;३०लाख,२५लाख,१५लाख,१०लाख,३ लाख और एक लाख में ५ कम अर्थात ९५००० तथा ५ बिल है !
विशेष –
१-इस अध्याय में अधोलोक/मध्य लोक का वर्णन आचार्य उमा स्वामी जी ने किया है!आकाश और लोकाकाश दो आकाश है!जहाँ तक आकाश द्रव्य में छ द्रव्य व्याप्त है वह लोकाकाश है,वही ३४३ घन रज्जु का हमारा अकृत्रिम,अनादि निधन,स्वभाव से निर्मित लोक है!लोकाकाश,आकाश के बीचोबीच अवस्थित है!इस लोक के तीन अधो,मध्य और उर्ध्व भाग है!अधोलोक में नारकी ,भवनवासी और व्यंतर देवों ,मध्य लोक में व्यंतर,ज्योतिष्क देवों,तिर्यंच और मनुष्य तथा उर्ध्व लोक में वैमानिक देवों का वास है!!मन्दरांचल के नीचे क्षेत्र ,अधो लोक है इसमें सात पृथिवियाँ में सात नरक है!
२- रत्नप्रभा पृथिवि १,८०,००० योजन मोटी है,ये तीन खर,पंक और अब्बहुल भागों में विभक्त है जिनकी मोटाई क्रमश:१६०००,८४००० और १००००० योजन है !खरभाग के प्रथम और अंतिम १००० योजन छोड़कर १४००० योजन में राक्षसों के अतिरिक्त शेष ९ प्रकार के भवनवासी देव और ७ प्रकार के व्यंतर देव रहते है पंक भाग में असुरकुमार और राक्षस रहते है!अब्बहुल भाग में प्रथम धम्मा नरक है,जिसमे ३०००० बिलों,१३ पटल में १०००० वर्ष की जघन्य आयु और १ सागर उत्कृष्ट आयु के बंध के साथ ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल लम्बे नारकी रहते है !इस पृथ्वी में जीव लगातार ८ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है ,असंज्ञी जीव १ कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
३-शर्करा प्रभा पृथिवि मे ,वंशा नरक है, मोटाई ३२००० योजन है,इसके २५ लाख बिलों,११ पटल में ३ सागर उत्कृष्ट और १ सागर+१ समय जघन्य आयु के बंध के साथ ५ धनुष २ हाथ और १२ अंगुल लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार ७ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है ,सरी सृप जीव २ कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
४ -बालुकाप्रभा पृथिवि में मेधा नरक है,जिस की मोटाई २८००० योजन है,इसके १५ लाख बिलों,९ पटल में ७ सागर उत्कृष्ट और ३ सागर+१ समय जघन्य आयु के बंध के साथ ३१ धनुष १ हाथ लम्बे नारकी रहते है जीव लगातार ६ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर तीर्थंकर बन सकते है,पक्षी ३ कोस उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
५-पङ्कप्रभा पृथिवि में अंजना नरक है, जिस की मोटाई २४००० योजन है,इसके १० लाख बिलों ७ पटल में १० सागर उत्कृष्ट और ७ सागर+१ समय जघन्य आयु के बंध के साथ ६२ धनुष २ हाथ लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार ५ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मोक्षगामी हो सकते है ,भुजङ्गादि जीव १ योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
६-धूमप्रभा पृथिवि में अरिष्टा नरक है जिसकी मोटाई २०००० योजन है,इसके ३ लाख बिलों ५ पटल में १७ सागर उत्कृष्ट और १०सागर+१ समय जघन्य आयु के बंध के साथ १२५ धनुष लम्बे नारकी रहते है! जीव लगातार ४ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मुनि/सकलसंयमी हो सकते है,सिंह जीव २ योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
७-तमप्रभा पृथिवि में मधवा नरक है जिसकी मोटाई १६००० योजन है,इसके ५ कम १ लाख बिलों ३ पटल में २२ सागर उत्कृष्ट और १७ सागर+१ समय जघन्य आयु के बंध के साथ २५० धनुष लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार ३ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर देशविरति हो सकते है,स्त्री जीव ३ योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
८-महातमप्रभा पृथिवी में माधवी नरक है जिसकी मोटाई ८००० योजन है,इसके ५ बिलों, १ पटल में ३३ सागर उत्कृष्ट और २२ सागर+१ समय जघन्य आयु बंध के साथ ५०० धनुष लम्बे नारकी रहते है!जीव लगातार २ बार उत्पन्न हो सकते है,आयु पूर्ण कर मिथ्यादृष्टिं तिर्यंच हो सकते है, मत्सय एवं पुरुष जीव १०० योजन उपपाद व्यास तक उत्पन्न हो सकते है !
९-तीनो वातवलय- घनोदधि ,घनवातवलय और घनवातवलय तनुवातवलय लोक के आधार दक्षिण में २००००-२०००० योजन मोटाई है तीनों की मोटाई कुल ६०००० योजन है !सातवे नरक को दोनों तरफ पार्श्व भाग ऊपर मध्य लोक तक ७,५. और ४ योजन क्रम से है अर्थात घनोदधि ७ योजन मोटा,घन ५ और तनु ४ योजन मोटा है !आगे मध्य लोक में दोनों पार्श्व क्रम से ५,४ योजन मोटाई के तीन वातवलय है ,आगे ५ वे ब्रह्म स्वर्ग के दोनों पार्श्व में तीनो क्रमश:७,५,योजन मोटे है!ब्रह्म स्वर्ग से ऊपर जाते हुए लोक अंतिम भाग में दोनों पार्श्व भाग में तीनो वातवलय की क्रमश :५,४ और ३ योजन कुल १२ योजन मोटाई है !लोक के ऊपर शिखर पर चक्र के आकार घनोदधि वातवलय की मोटाई २ कोस =४००० महा धनुष,घन वातवलय १ कोस =२००० महा धनुष वातवलय १५७५ महा धनुष मोटा है !घनोदधि वातवलय गौ मूत्र के रंग समान वर्ण का है!घनवातवलय मूंग के समान रंग और तनुवातवलय अनेक प्रकार के रंगों वाला है !
१० -मध्य लोक से दुसरे नरक की पृथिवीं का अंतराल,दूसरी से तीसरी ,तीसरी से चौथी , पांचवी से छठी ,छठी से सातवी ,प्रत्येक का अंतराल १ राजू से कुछ कम है !सातवी पृथिवि मध्यलोक से ६ राजू के अंतराल पर है!सातवी पृथिवि के नीचे १ राजू प्रमाण कलकल पृथिवि है जिसमे निगोदिया जीव रहते है !लोक में सारे में निगोदिया जीव ठसा ठस भरे है !
११ – नारकी के निवास स्थान को बिल कहते है !ये तीन प्रकार के होते है !
१-इन्द्रकबिल-सभी बिलो के मध्यस्थ के बिल को इन्द्रक बिल कहते है!ये कुल ४९ है!प्रथम नरक का प्रथम इन्द्रक बिल का विस्तार ४५ लाख योजन ढाई द्वीप के समान है और ठीक उसके नीचे है ! क्रम से घटते घटते सातवे नरक का इन्द्रक बिल जम्बूद्वीप के ठीक नीचे १००००० योजन विस्तार का है !
२-श्रेणीबद्धबिल आकाश प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार,दिशा और विदिशाओं में स्थित बिल को श्रेणीबद्ध बिल कहते है ये २६०४ है !
३-प्रकीर्णकबिल -पुष्पों के समान बिखरे बिलो को प्रकीर्णक कहते है !८४ लाख में शेष ८३९७३४७ है !
१२ -नरक में नारकी जीवों की विक्रिया –
६ठे नरक तक के नारकियों के त्रिशूल ,तलवार,परशु,आदि अनेक आयुध रूप एकत्व विक्रिया होती है !सातवे नरक में गाय बराबर कीड़े ,चींटी आदि रूप से एकत्व क्रिया होती है !
१३ -नारकियों की लेश्य -रत्नप्रभा में जघन्यकापोत,शर्करा में मध्यमकापोत बालुका में उत्कृष्टकापोत और जघन्यनील,पङ्कप्रभा में माध्यमनील,धूमप्रभा में उत्कृष्यनील और जघन्यकृष्ण,तमप्रभा में मध्यमकृष्ण ,महातमप्रभा में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है

नारकीयों की लेश्यादि दुःख:-
नारकानित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया:-!!३!!
सन्धिविच्छेद-
नारका+नित्य+अशुभतर+लेश्या+परिणाम+देह+वेदना+विक्रिया:
शब्दार्थ-
नारका-नरक में नारकीयों की,नित्य-सदैव अशुभतरलेश्या-अशुभतरलेश्या,परिणाम-अशुभतरपरिणाम, देह-अशुभतरदेह,वेदना-अशुभतरवेदन,विक्रिया:-अशुभतरविक्रिया होती है !
भावार्थ-
नारकी जीवों की नरक में हमेशा अशुभतरलेश्या,अशुभतरपरिणाम,अशुभतरदेह,अशुभतरवेदना,अशुभतर विक्रिया के धारक होते है !
अशुभतर से अभिप्राय पहले नरक से सातवे नरक तक जीवों की लेश्याए,परिणाम-पुद्गल का स्पर्श, रस, गंध,रूपऔर शब्द रूप परिणाम से है!देह ,वेदना और विक्रिया उत्तरोत्तर अशुभ होती जाती है !
अशुभतर लेश्या-यहाँ कषाय अनुरंजीत योग प्रवृति को लेश्या कहा है!अत: कषाय और योग के बदलने से वह मर्यादा के अंतर्गत बदल जाती है!प्रथम नरक से सातवे तक लेश्याये अशुतर होती जाती है !
रत्नप्रभा में जघन्यकापोत,शर्कराप्रभा में मध्यमकापोत, बालुकाप्रभा में उत्कृष्टकापोत और जघन्य नील,पङ्कप्रभा में माध्यमनील,धूमप्रभा में उत्कृष्यनील और जघन्यकृष्ण,तमप्रभा में मध्यमकृष्ण , महातमप्रभा में उत्कृष्ट कृष्णलेश्या है!रत्नप्रभा में कपोतलेश्या का जघन्य अंश नहीं बदलता क्योकि मध्यम और उत्कृष्ट अंश वहा नहीं रहता!इसी प्रकार महातमप्रभा पृथिवीं में कृष्णलेश्या का उत्कृष्ट अंश नहीं बदलता !भावलेश्या में परिवर्तन नहीं होता मात्र कषाय और योग के अनुसार तारतम्य भाव होता रहता है क्योकि प्रत्येक नारकी के समान कषाय और योग रहे ऐसा नियम नहीं है!साधारणतया नारकी में तिर्यंच और मनुष्य ही मरकर जन्म लेते है !देव और नारकी उनमे जन्म नहीं लेते !
अशुभतरपरिणाम- सातो नरकों में नारकियों के ये पुद्गल रूप परिणाम उत्तरोत्तर अशुभ होते जाते है !जो की उत्तरोत्तर बढ़ते दुखों के कारण है!
प्रथम नरक से सातवे नरक तक मिटी की दुर्गन्ध क्रमश: १,१.५ ,२,२,५,३,३.५ और ४ कोस तक के जीवों को मारने में सक्षम है !परस्पर में वे लड़ते है !एक दुसरे को मारते काटते है !
अशुभतरदेह-नरको में नारकियों के शरीर अशुभनामकर्मोदय से उत्तरोत्तर अशुभ,देखने में भयकर होते है !
अशुभतरवेदना-असातावेदनीय कर्मोदय से,जन्म लेते समय जीवों के ऊपर उछाल कर गिरने की क्षमता क्रमश:७योजन 3. २५ कोस,१५योजन २,५कोस,३१योजन १कोस,६२योजन २कोस,१२५योजन ,२५०योजन, और ५०० योजन है!रत्नप्रभा पृथ्वी से धूमप्रभा पाचवी पृथ्वी तक ८२२५००० बिल उष्ण भयकर गर्मी के कारण और १२५००० बिल शीत भयकर ठण्ड के कारण वेदना उतपन्न करते है!प्रथम से चौथी पृथ्वी तक समस्त बिल उष्णहै ,पांचवी पृथ्वी के २२५००० बिल उष्ण तथा ७५००० बिल ठन्डे है ,छट्टे और सातवी पृथिवि के समस्त बिल ठन्डे है !इनमे गर्मी और ठण्ड इतनी अधिक होती है की मेरु के प्रमाण का लोहे का गोल पिंड भी उससे क्षण में पिघल जाता है,वह अंतिम नरक तक नहीं पहुँच पाता !नारकी जीव कड़वी मिटटी का आहार लेते है,उससे नीचे के नारकी जीव सड़ा हुआ अशुभ दुर्गन्ध युक्त आहर लेते है !नरको में नारकियों को इतनी भूख की वेदना सताती है की समस्त लोक में उतपन्न अन्न भी खा ले तब भी उनकी भूख शांत नहीं होती!,किन्तु उन्हें एक भी अन्न का दाना उपलब्ध नहीं होता है!प्यास इतनी लगती है की लोक के समस्त सागर का जल भी पी ले तो उनकी प्यास नहीं बुझती,किन्तु जल उपलब्द्ध नहीं होता है !नारकी जीव उप्पाद स्थान से छत्तीस प्रकार के शस्त्रों पर गिरते है,और गिरते ही उछल कर पुन :उसी के ऊपर गिरते है जससे उनकी देह छिन्न भिन्न हो जाती है पारे के समान और पुन: जुड़ जाती है
अशुभतर विक्रिया-नारकियों की विक्रिया बहुत शुभ चाहने पर भी उत्तरोत्तर अशुभ होती है !वे अच्छा कार्य करने की सोचते भी है किन्तु कर नहीं पाते है !
विशेष- १ धनुष ४ हाथ प्रमाण और १ हाथ २४ उंगल प्रमाण होता है,६ अंगुल=१ पाद,२ पाद =१वितस्ति,२ वितस्ति=१हाथ ,२हाथ =१रिंकू,,२ रिंकू=१ धनुष/दंड


नरको में परस्पर उदित दुःख –

परस्परोदीरित दुखा:-४
संधि विच्छेद -परस्पर+ उदीरित +दुखा:
शब्दार्थ-परस्पर-आपस में, उदीरित-उत्पन्न कर देते है , दुखा:-दुःख
अर्थ-नारकी आपस में एक दुसरे को दुःख देते है !
विशेष-नरको में नारकी एक दुसरे को मारते काटते है फिर भी वे आयु पूर्ण करने से पूर्व मरते नही क्यो कि उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती है !अम्बाब्रीष देव तीसरे नरक तक के जीवों को दुखी करते है !
नरको में असुर कुमार देवों कृत दुःख-
संक्लिष्टा सुरोदीरित दुखाश्च प्राक् चतुर्थ्या:-५
संधि विच्छेद-संक्लिष्टा+सुर+उदीरित+दुखा:+च+प्राक्+चतुर्थ्या:-
शब्दार्थ संक्लिष्टा-संक्लिष्ट परिणाम वाले, सुर-असुर कुमार देव द्वारा ,उदीरित-उत्पन्न किये हुए , दुख:-दुःख ,च-और , प्राक् -पाहिले,चतुर्थ्या:-चौथी पृथ्वी से
अर्थ-और अम्ब्रीश जाति के असुरकुमार देव चौथी पृथिवी से पूर्व अर्थात तीसरी पृथिवी तक नारकियों को उनके पूर्व भव के बैर का जातिस्मरण द्वारा याद कराकर,उन्हें लड़वाकर, उनमे परस्पर दुःख उत्प्न्न करवाते है तथा स्वयं आनंदित होते है !इनके इसी प्रकार की कषाय उत्पन्न होती है !

नारकीयों की उत्कृष्ट आयु –
तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमासत्तवानांपरा स्थितिः-॥६॥
संधि विच्छेद-
तेषु+एक+त्रि+सप्त+दश+सप्तदश+द्वाविंशति+त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा+सत्तवानां+परा+स्थितिः
शब्दार्थ –
तेषु-उन,एक-एक,त्रि-तीन,सप्त-सात,दश-देश,सप्तदश-सत्रह,द्वाविंशति, बाईस, त्रयस्त्रिंशत–तैतीस, सागरोपमा-सागर,सत्तवानां-नारकीजीवों की ,परा-उत्कृष्ट ,स्थितिः-स्थिति अर्थात आयु !
अर्थ –
उन नरकि जीवों की रत्नप्रभा पृथिवी में १ सागर,शर्करा प्रभा में ३ सागर,बालुकाप्रभा में ७ सागर,पंकप्रभा में १० सागर,धूमप्रभा में १७ सागर,तमप्रभा में २२ सागर और महातमप्रभा में ३३ सागर उत्कृष्ट स्थिति/ आयु है!
विशेष-नारकी जीवों को ही दुःख है ,उन्हें सुख की अनुभूति क्षण भर के लिए मात्र मध्यलोक में तीर्थंकर के जन्म के अवसर पर होती है अथवा कोई तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर जो नरक में जन्म लेते है तो वहाँ की आयु पूर्ण करने से छः माह पूर्व परस्पर लड़ना बंद कर देते है !
अधोलोक /नरक में नारकियों का जीवन –
उपसंहार-त्रिलोक के अधोलोक में,सात पृथिवियां रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा,बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा,धूमप्रभा, तम प्रभा और महातमप्रभा क्रमश:१८००००योजन,३२००० योजन,२८००० योजन,२४००० योजन,२०००० योजन ,१६०००० योजन ८००० योजन मोटी एक दुसरे से असंख्यात योजन अंतराल पर है!पृथ्वियों में नारकियों के वास क्रमश:३०,२५,१५,१०,३,लाख ,९५००० तथा ५ बिल ४९ पटलों में है।कुल ८४०००० बिल है!ये तीन वातवलय से वेष्ठित है!सातवी पृथिवी से नीचे एक राजू मोटाई में कलकल पृथ्वी में निगोदिया जीवों का वास है!इसके अतिरिक्त निगोदिया जीव सारे लोक में ठसाठस भरे हुए है !
नरक में जीवों के वैक्रयिक शरीर,भव प्रत्यय अवधिज्ञान होने के बावजूद भी उनका जीवन अत्यंत दुखमय एवं कष्टों से परिपूर्ण है इसलिए कोई भी जीव चारों गतियों में मात्र नरकगति को छोड़ना चाहता है इसलिए नरकगति को अशुभ नाम कर्म की प्रकृति में लिया है !
नारकियों को नरक में चार प्रकार के दुःख होते है-
१-क्षेत्रजनित,शारीरिक दुःख,३-मानसिकदुःख,४-असुरकृतदुःख!
जीव अपने पूर्व जन्म के अत्यंत संकलेषित परिणामों,बहु आरंभी व बहु परिग्रही,तीव्र कषायी परिणामों के कारण कृष्णादि अशुभ लेश्यों के माध्यम से नरकगति/नरकायु का बंध करता है !जो की एक बार बंधने पर उसे भोगना ही होता है ,किन्तु विशुद्ध परिणामों से उसकी स्थिति का अपकर्षण एवं संक्लेषित परिणामों की वृद्धि से उउत्कर्षण किया जा सकता है ! ये जीव अपने आयु कर्मबंध के आठ अपकर्षकाल में अपने परिणामों के अनुसार जितनी आयुबंध करते है तदानुसार उनका ,प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के धम्मा नरक, जहाँ जघन्य १०००० वर्ष,उत्कृष्ट आयु १ सागर से सातवे महातमप्रभा पृथ्वी के माधवी नरक में ३३ सागर की आयु तक बंध कर उपपाद शय्या से उपपाद जन्म होता है! इसके बीच की पृथिवीयों शर्कराप्रभा पृथ्वी का वंशा नरक, बालुकाप्रभा पृथ्वी के मेधानरक ,पंकप्रभा पृथिवी के अंजनानरक ,धूमप्रभा पृथिवी के अरिष्टनरक,तमप्रभा पृथिवी के माधवनरक और महातमप्रभा पृथिवी के माधवीनरक में नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयु क्रमश:३,७,१०,१७,२२ सागर है तथा जघन्य आयु पिछले नरक की आयु से १ समय अधिक है!इनकी पहले से ७वे नरक में लम्बाई क्रमश:७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल से दुगनी दुगनी प्रयेक नरक में होती हुई सातवे नरक में ५०० धनुष होती है ,
उक्त नरको में,पहले से सातवे तक क्रमश १३,११,९,७,५,३,१ कुल ४९ पटल है जिनमे नारकियों के निवास स्थानबिल क्रमश३०,२५,१५,१०,३लाख,९५०००,५ कुल ८४लाखबिल है! ये तीन प्रकार के इन्द्रक ,श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिल होते है जो की क्रमश ४९,२६०४ और ८२९७३४७ है !
नारकीजीव उपपाद जन्म स्थान से ३६ प्रकार के शास्त्रों पर गिरते है,फिर गेंद की भांति सात नरकों में क्रमश:७ योजन 3.२५ कोस, १५ योजन २.५ कोस,३१ योजन १ कोस,६२ योजन २ कोस,१२५ योजन ,२५० योजन ५०० योजन ऊँचे उछल कर पुन: उसी स्थान पर गिरने से उनका वैक्रयिक शरीर छिन्न भिन्न हो जाता है किन्तु मृत्यु को प्राप्त नहीं होता क्योकि नारकियों की अकालमृत्यु नहीं होती,वह पारे के समान दुबारा जुड़ जाता है !
नरकों में नारकियों का जन्म अंतर-पहिले से सात नरको में क्रमश: २४ मूर्हत,७ दिन,एक पक्ष,१ माह ,२माह,४ माह और ६ माह है !अंतर से अभिप्राय है की अधिकतम कितने समय तक उस नरक में कोई दूसरा नारकी जन्म नहीं लेगा !
नारकियों को ज्ञान- नारकियों को मति,श्रुत,अवधि ज्ञान तथा कुमति,कुश्रुत,कुअवधि ;विभंग ज्ञान होते है !अवधि ज्ञान के माध्यम से नारकी प्रथम से सातवे नरक तक क्रमश:४,३,५,३,२.५ .२ ,१.५ और १ कोस तक का ज्ञान प्राप्त कर सकते है !
नारकियोंकेगुणस्थान-नारकीजीव चार गुणस्थानवर्ती;मिथ्यादृष्टि, सासदनसम्यकदृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अविरतिसम्यग्दृष्टि होते है!अविरतसम्यग्दृष्टि के क्षायिक सम्यक्त्व,वेदकसम्यक्त्व और उपशम सम्यक्तव हो सकते है!ससादन गुणस्थानवर्ती मरकर नरक में नहीं उत्पन्न होते क्योकि उनके नरक आयु का बंध ही नहीं होता !अविरत्सम्यग्दृष्टि प्रथम नरक तक जन्म ले सकते है बशर्ते उन्होंने सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु का बंध कर लिया हो जैसे राजाश्रेणिक के जीव ने ३३ सागर की सातवे नरकायु का बंध किया था यशोधर मुनिराज के गले में मरा सर्प डालकर किन्तु बाद में सम्यक्त्व होने के कारण वह बंध प्रथम नरक का ८४००० वर्ष का रह गया ! अन्यथा सम्यग्दृष्टि जीव नरक में जन्म नहीं लेते !
नारकी जीवों के देशविरत -पंचम गुण स्थान इसलिए नहीं होता क्योकि उनके अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से हिंसा आनंदित होते है,और नाना प्रकार दुखों के देने में लिप्त ,इसलिए उनके परिणाम पंचम गुणस्थान के योग्य विशुद्धि को कदाचित प्राप्त नहीं करते है !
नरक में संहनन की अपेक्षा जीव का जन्म -वज्रऋषभ नाराच संहनन वाले जीव सातवे नरक तक,वज्रनाराच संहनन,नाराच संहनन और अर्द्धनाराच संहनन वाले छठे नरक तक ,कीलित संहनन वाले पांचवे नरक तक, सृपटिकासंहनन वाले चौथे नरक तक उत्पन्न हो सकते है !
वर्तमानकाल में जीव नरको में जन्म- पंचम काल में जीव पांचवे नरको तक जन्म ले सकते है किन्तु बाहुलयता से तीसरे नरक तक ले सकते है ,स्त्रीया मरकर अधिकतम छटे नरक तक,पुरुष /मत्स्य सातवे नरक तक जन्म ले सकते है !
सिंह पांचवे नरक तक,सर्प चौथे नरक तक,पक्षी तीसरे नरक तक,सरीसृप दुसरे नरक तक और असंज्ञी प्रथम नरक तक जासकते है !
मरण के बाद दूसरे पर्याय में जन्म लेने के बाद लगातार नरक गति में जन्म लेने की जीव की सम्भावनाये –
कोई भी जीव पहले से सातवे नरक में दूसरी पर्याय में जन्म लेने के बाद क्रमश: ८,७,६,५,४,३,२,और १बार जन्म ले सकता है !
नारकी,देवों लभद्र,चक्रवर्ती,तीर्थंकर,प्रतिनारायण,कामदेव के दाढी मूछें नहीं होती !
देव ,नारकी और भगभूमिज मनुष्य उसी पर्याय में जन्म नहीं लेते!
अधोलोक में ७ करोड़ ७२ लाख अकृत्रिम चैत्यालय,व्यंतर देवों के असंख्यात चैत्यालयों के अतिरिक्त है !२
यहां तक अधोलोक के स्वरुप का संक्षिप्त विवरण पूर्ण हुआ !
तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैनागम के अनुसार लोक के स्वरुप का वैज्ञानिक द्वारा पुष्टि का प्रमाण-
अन्य धर्मावलम्बियों और कुछ अपने ही जैन धर्मावलम्बियों को संशय रहता है कि तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित लोक का स्वरुप तदानुसार है या नही!इसमें लेश मात्र संशय नही होना चाहिए! महान वैज्ञानिक, सापेक्षिकसिद्धांत(जैन दर्शनानुसार स्याद्वादसिद्धांत ) के सूत्रधार,प्रोफेसर अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा वैज्ञानिक शोध द्वारा उपलब्ध लोक के आयतन (वॉल्यूम) की तुलना जैन दर्शन में उल्लेखित लोक के आयतन ३४३ राजू से तुलना कर ,लोक की त्रिज्या (रेडियस) की १ राजू से तुलना कर निम्न वैज्ञानिक गणनाओं द्वारा उसका अस्तित्व प्रमाणित किया है !

रज्जु की परिभाषा-द्रुतगति (२,०५७,१५२ महा योजन प्रतिक्षण ) से ६ माह में एक देव द्वारा तय करी गई दूरी एक रज्जु है!
समय, ६ माह =६x३० (दिन)x २४(घंटे)x ६०(मिनट)x ५४०००० प्रतिविपलंश
गति =२,०५७,१५२ महा योजन =२०५७१५२ x ४००० मील प्रतिविपलंश
( ६० प्रतिविपलंश =१ प्रतिविपल ,६० प्रतिविपाल=१ विपल ,६० विपल =१ पल,६०पल =१घडी,१ घडी =२४ मिनट ,
अत:१ मिनट=६० x ६० x ६० x ६० /२४= ५,४०,००० प्रतिविपलांश देव द्वारा तय करी दूरी =समय x गति=६x३०x २४x ६०x ५४०००० x २०५७१५२ x ४०००
१ रज्जु =१. १५ x १० की घात २१ मील

जैन दर्शन अनुसार लोक का आयतन ३४३ घन रज्जु है !
वैज्ञानिक आइंस्टीन द्वारा लोक का आयतन =४/३ x पाई (२२/७) x त्रिज्या की घात ३
लोक की त्रिज्या = १०६८ मिलियन प्रकाश वर्ष ;(१ प्रकाश वर्ष =प्रकाश द्वारा एक वर्ष में तय करी गई दूरी
=५.८८ x १० की घात १२ मील
लोक का आयतन=४/३ x २२/७ x{ १०६८x १० की घात ६ x ५.८८x १० की घात १२}की घात ३ घन मील
=१०३७ x १० की घात ६३
३४३ रज्जु की घात ३ =१०३७ x १० की घात ६३
रज्जु की घात ३ =१०३७ x १० की घात ६३ /३४३ =३.०२३३२३६x१० की घात ६३ =१,४४६x १.४४६x१.४४६ x १० की घात ६३
रज्जु =१,४४६ x १० की घात २१ मील
उक्त गणना में जैन दर्शनानुसार रज्जु का मान १.१५ x १० की घात २१ मील और वैज्ञानिकों द्वारा लोक की त्रिज्या=रज्जु १. ४ ४ ६ x १० की घात २१ आती है जो की परस्पर काफी निकट है !
उक्त गणना से ही प्रमाणित होता है कि किसी लोक का अस्तित्व है ,किसी वस्तु की त्रिज्या निकट केवल तभी निकल सकती है अस्तित्वमें हो !
रज्जु के जैनागम और वैज्ञानिको द्वारा प्राप्त मान में मेरे विचार से जो अंतर आ रहा है उसका कारण प्रोफेसर आइंस्टीन ने लोक का स्वरुप गेंद रूप लिया है जबकि तीर्थंकरों ज्ञान में त्रिलोक के जाने चित्रानुसार है !दूसरा कारण योजन के मान को सम्भवत हम सम्पूर्ण आगाम के अभाव में ,समझने में कोई त्रुटि कर रहे है !

English version
Raju (chain-a linear astrophysical measurement) is the distance deva’s fled in 6 months @2057152 mahayojan per instance of time/kshan
Period 6 months=6x30x24x540000 prtiviplansh
(1 minute=540000 prtiviplansh
Speed=2057152×4000=8228608000mile per prtiviplansh
1rajju=distance traversed by Dev in 6 months at above speed=periods speed
=6x30x24x60X540000x8228608000 mile=1.15×10 to the power 21 miles
This is value of Raju as per jaindarshan muni
Now we calculate Raju in accordance is scientist prod Einstein spherical model of universe equating it with universe volume 343 cubic Raju as per jainagam
Volume of universe spherical model As per
Einstein =4/3×22/7xr to power 3
=4/3×22/7X(1068 million light year) *To power 3
*1 light year is the distance travelled by light in 1 year=5.88×10 to the power 12
Volume of universe=
4/3×22/7x(1068×10 to power6x5.88×10 to power12) to power 3 cubic miles
=1037×10 to power63 cubic miles
Equating this volume to jain Datsun volume of universe
343 Raju to power 3=1037×10 to power63
Raju power 3=1037×10 to power63/343
Rajjuto power3=3.0233236×10 to power 63
Raju=1.446×10 to power 21
Thus we find that the value of Raju as calculated by jaindarshan is 1.15×10 to power 21 quite near to spherical model of universe radius i.e.1.446x 10 to power of 21
Hence we conclude the existence of universe proved by scientifically researches as in accordance of jain scriptures.
I feel the difference in value of Rajju is because of
1-Einstein has taken the universe as spherical where as jain scriptures define it in accordance of fig as shown in the beginning of this chapter
2-their might be some misunderstanding in evaluation of Yojana value 4000 miles
Note 1 minute=540000 prtiviplansh /kshan

मध्यलोक का विस्तार,रत्नप्रभा पृथ्वी के १००० योजन मोटी चित्रा भाग के मूल से,एक लाख ४० योजन ऊँचे सुदर्शन मेरु पर्वत जम्बूद्वीप के केंद्र पर स्थित लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक १ राजू तिर्यक विस्तार का क्षेत्र है अर्थात मध्य लोक १रज्जु x१०००४० योजन तक तिर्यकदिशा में फैला है!ढाई द्वीप;जम्बू द्वीप.लवण समुद्र,धातकीखण्ड,कालोदधि समुद्र और अर्द्धपुष्कवर द्वीप तक का क्षेत्र मनुष्य लोक है !इसके भार मध्य लोक में मनुष्य नही उत्पन्न होते !मनुष्यलोक में ज्योतिष्क देवो का परिवार सुदर्शन मेरु की निरंतर परिक्रमा करते है जिससे व्यवहारकाल समय मिनट दिन आदि का वर्तन होता है !मनुष्यलोक के बहार मध्य लोक में समस्त ज्योतिष्क देव अवस्थित है वे भ्रमण नही करते! समस्त लोक में काल का वर्तन मनुष्य लोक से ही व्यवहारित होता है !

मध्यलोक में सूत्र ७ में आचार्यश्री उमास्वामी जी कहते है –

जम्बूद्वीप का चित्र –

जम्बूद्वीपलवणोदादय:शुभनामानोद्वीपसमुद्रा :-!!७ !!
सन्धिविच्छेद-जम्बूद्वीप+लवण:+आदय:+शुभ+नामानो+द्वीपसमुद्रा:-!!
शब्दार्थ-जम्बूद्वीप आदि+लवण समुद्र+आदि+शुभ,शुभ,नामानो-नामों के ,द्वीप-द्वीप , समुद्र:-और समुद्र है !!
अर्थ-मध्य लोक में जम्बूद्वीप आदि द्वीप और लवण आदि समुद्र है !
भावार्थ-मध्यलोक में शुभनाम वाले जम्बूद्वीपादि और लवण समुद्रादि असंख्यात द्वीप और समुद्र है !
विशेष –
१-बहुवचन ‘द्वीपसमुद्रा:’पद से मध्य लोक में असंख्यात द्वीप समुद्रों का अस्तित्व कहा गया है !

द्वीपों और समुद्रों का विस्तार –
द्विर्द्विर्विष्कम्भाःपूर्वपूर्वपरिक्षेपिणोवलयाकृतयः॥८॥
संधि विच्छेद-द्वि+द्वि+विष्कम्भा:+पूर्व+पूर्व+परिक्षेपिण:+वलयाकृतयः
शब्दार्थ-द्वि-दुगने,द्वि-दुगने,विष्कम्भा:-विस्तारवाले,पूर्व-पहिले,पूर्व-पहिले,परिक्षेपिण:-चारो ओर से घेरे हुए दूसरा (वेष्ठित) वलयाकृतयः -वलयाकार (चूड़ी के सामान आकारवान )
अर्थ-सभी द्वीप समुद्र क्रमश: दुगने दुगने अर्थात एक दुसरे से क्रमश: द्वीप समुद्र दुगने दुगने विस्तार का है;पहिले द्वीप को वलयाकार (चूड़ी के समान आकारवान) समुद्र, पहिले द्वीप से दुगने विस्तार का है और उसे वेष्टित करता है पहिले समुद्र को वेष्टित (घेरते ) हुए वलयाकार (चूड़ी के आकार के समान) दूसरा द्वीप पहिले समुद्र से दुगने विस्तार का है!
जम्बू द्वीप का विस्तार १ लाख योजन है, लवण समुद्र का विस्तार २ लाख योजन है इसी प्रकार क्रमश सभी समुद्र मध्यलोक के अंत,स्वयंभूरमणसमुद्र तक,असंख्यात द्वीप व् समुद्र दुगने दुगने विस्तार के क्रमश पहिले वाले द्वीप/समुद्र को घेरे है!लवण समुद्र को घेरे हुए घातकीखंड द्वीप ४ लाखयोजन,इसे घेरे हुए कालोदधि समुद्र ८ लाख योजन ,इसे घेरे हुए पुष्कवर द्वीप १६ लाख योजन विस्तार का है.!जम्बूद्वीप से अर्द्धपुष्कवर द्वीप तक ,ढाई द्वीप मनुष्य लोक है क्योकि मनुष्य यही तक रहते है !
शब्द संख्यात है किन्तु असंख्यात है इसलिए इनके नामो की पुनरावृत्ति होती है

जम्बूद्वीप का स्वरुप –
तन्मध्येमेरु,नाभिर्वृत्तोयोजनशतसहस्रविष्कम्भोजम्बूद्वीपः ॥९॥
संधि विच्छेद -तन्मध्ये+मेरु+नाभि:+वृत्त:+योजन+शत+सहस्र+विष्कम्भ:+जम्बूद्वीपः
शब्दार्थ-तन्मध्ये-उन(सबद्वीप/समुद्रों)के मध्य में,नाभि:-नाभि:पर,वृत्त:-वृत्ताकार(थाली के आकार समान),योजन-योजन ,शत-सौ,सहस्र-हज़ार,विष्कम्भ:-व्यास ,जम्बूद्वीपः-जम्बूद्वीप है !
अर्थ-उन सब द्वीपों और समुद्रों के मध्यस्थ वृत्ताकार,(थाली के आकार वाला), एक लाख योजन विस्तार का जम्बूद्वीप है जिसके केंद्र पर सुमेरु पर्वत स्थित है !
१ योजन =२००० कोस=४००० मील = ६४०० किलो मीटर
विशेष-
१-इस द्वीप के विदेहक्षेत्र के उत्तरकुरु ,उत्कृष्ट भोगभूमि में अकृत्रिम पृथ्वीकायिक जम्बूवृक्ष इसका नाम जम्बूद्वीप सार्थक है !
२-जम्बूद्वीप के चारों ओर ८ योजन ऊंची रत्नमयी कोट रूप एक बेदी है जिसकी नीव आधा योजन/२ कोस जमीन में है!वह पृथिवी सतह पर १२ योजन,बीच में ८ योजन और ऊपर ४ योजन चौड़ी है!यह बेदी मूलनीव में वज्रमयी , मध्य में सर्वरत्नमयी और अंत में वैडूर्यमणिमयी है!इसके ऊपर २ कोस ऊंची ५०० धनुष चौड़ी सुंदर स्वर्णमयी छोटी बेदी है!इसके दोनों ओर बावड़ी और व्यंतर देवों के निवासस्थान है!यह बेदी गवाक्षजाल, घंटाजाल, कनक रत्नजाल,मुक्ताफलजाल, सुवर्णजाल,मणिजाल, क्षुद्रघंटिकाजाल,पदमपनजाल;नौ प्रकार के जालों से युक्त है
३- इसके पूर्वादि चारो दिशाओं में अनुक्रम से विजय,वैजयंत,जयंत और अपराजित ४ द्वार है,प्रत्येक ८ ऊँचा ,४ योजन चौड़ा है!इन द्वारों के नाम के धारक व्यंतर देवों के निवास इन द्वारों के ऊपर है!पूर्व के विजय द्वार से दक्षिण के वैजयंत द्वार का अंतराल उन्यासी हज़ार ५३ योजन है ,अन्य द्वारो का भी यही अंतराल है !
४-जम्बूद्वीप वेदी सम्बन्धी चार मुख्य द्वारों के अतिरिक्त १४ नदियों संबंधी ,१४ प्रवेश द्वार है ,कुल १८ द्वार है हीनाधिक नहीं !इन १८ द्वारों सहित जम्बूद्वीप की परिधि ३ लाख १६ हज़ार २२८ योजनहै!
५-आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान अनुसार जम्बूद्वीप -मिल्की वे गैलेक्सी वृताकार मोटाई लिए है जिसका व्यास १लाख प्रकाशवर्ष है जिसमे हमारी पृथ्वी,(जैन दर्शनानुसार भरत क्षेत्र का मात्र आर्यखण्ड) भी है!जबकि जैनदर्शन अनुसार जम्बूद्वीप का व्यास एक लाख योजन उपदेशित है!योजन =१ प्रकाश वर्ष तो यह विसंगती दूर हो सकती है!हमारे आगाम का बहुभाग समय के साथ नष्ट हो गया अथवा विद्वेषपूर्वक अन्य धर्मावलम्बियों ने नष्ट कर दिया है,अत: वर्तमान में केवली भगवान के अभाव में वस्तु स्थिति का सही आंकलन असम्भव है! भविष्य में वह दिन दूर नही जब वैज्ञानिक भी अपनी शोध द्वारा जैनागम के निष्कर्षों पर पहुंचेगे !
जम्बूद्वीप में ६ कुलांचलो द्वारा ७ क्षेत्रों का विभाजन

भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाःक्षेत्राणि॥१०॥

सन्धिविच्छेद-(भरत+हैमवत+हरि+विदेह+रम्यक+हैरण्यवत+ऐरावत)+वर्षाः+क्षेत्राणि
शब्दार्थ-जम्बू द्वीप में भरत,हेमवत,हरि,विदेह,रम्यक,हैरण्यवत और ऐरावत सात क्षेत्र है
अर्थ-जम्बू द्वीप में भरतवर्ष ,हेमवतवर्ष,हरिवर्ष,विदेहवर्ष,रम्यकवर्ष,हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष, सात क्षेत्र है!

पर्वत के नाम
तद्विभाजनःपूर्वापरायताहिमवन् महाहिमवन् निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः॥११॥
संधिविच्छेद-तद्विभाजनः+पूर्व+अपर+आयता+(हिमवन्+महाहिमवन्निषध+नील+रुक्मि+शिखरिणSmile+ वर्ष धर+पर्वताः
शब्दार्थ –
तद्विभाजनः-उन क्षेत्रों के बिभाग करने वाले,पूर्व-पूर्व से ,अपर- से आयता- अर्थात पश्चिम तक,हिमवन्-हिमवत् , महाहिमवन्निषध-महाहिमवान,निषध ,नील-नील,रुक्मि-रुक्मी,शिखरिण:शिखरिन ,वर्षधर-कुलाचल,पर्वताः-पर्वत है !
अर्थ-उन सात क्षेत्रो का विभाग करने वाले पश्चिम से पूर्व तक फैले हुए हिमवन् वर्षधर,महाहिमवन वर्षधर,निषधवर्षधर, नीलवर्षधर, रुक्मीवर्षधर, शिखरिनवर्षधर, छ कुलांचल ( पर्वत) है !
जम्बूद्वीप के क्षेत्रों में भोगभूमि,कर्मभूमि और पर्वतों की व्यवस्था –
एक लाख योजन विस्तार (व्यास )के जम्बूद्वीप को हिमवन्,महाहिमवन,निषध,रुक्मि और शिखरिन छः वर्षधर-कुलाँचल;क्रमश:भरतवर्ष,हेमवतवर्ष,हरिवर्ष,विदेहवर्ष,रम्यकवर्ष, हैरण्यवत वर्ष और ऐरावतवर्ष,सात क्षेत्रों में विभक्तकरते है!
विदेह क्षेत्र के मध्य में,जम्बूद्वीप की नाभि पर, सुदर्शन सुमेरु पर्वत है जिसके उत्तर में, उत्तरकुरु और ,दक्षिण में देवकुरु क्षेत्र,विदेह के ही भाग है!इन ७ क्षेत्रों में से ;उत्तरकुरु-देवकुरु,हरी-रम्यक तथा हेमवत-हैरण्यवत में क्रमश उत्तम,माध्यम और जघन्य शाश्वत भोगभूमियों की तथा भरत-ऐरावत के आर्य खंड और विदेह क्षेत्र में कर्मभूमि,भरत-ऐरावत के म्लेच्छ खंड में जघन्य शाश्वत भोग भूमि की व्यवस्था अनादिकाल से है और रहेगी !भरत और ऐरावत के आर्यखंड में अशाश्वत भोगभूमि भी होती है!
भोगभूमि-भोगभूमिज जीवों की नित्य आवश्यकताओं जैसे;गृह,भोजन,वस्त्र,बर्तन,भोजन,संगीत के यंत्र, ज्योति के यंत्र ,आदि सभी वस्तुओं की आपूर्ति १० प्रकार के कल्पवृक्षो,१-मद्यंग, २-वादित्र ,३-भूषणांग, ४-मालंग, ५-दीपांग, ६-ज्योतिरांग, ७-गृहरांग,८-भोजनांग,९-भाजनांग ,१०-वस्त्रांग के नीचे खड़े होकर याचना करने से हो जाती है,उन्हें अपनी जीविका के लिए कर्मभूमि के जीवों की भांति किसी पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती !
भरत /ऐरावत के आर्यखण्ड में भोगभूमि की रचना-अवसर्पिणी के प्रथम,द्वितीय और तृतय तथा उत्सर्पिणी के चतुर्थ,पंचम,और षष्टम काल में भोगभूमि की रचना होती है ,इसलिए ये अशाश्वत भोगभूमि है!
भोगभूमि का काल-इन क्षेत्रों में भोगभूमि का कालकल्प के २० कोड़ा कोडी सागर में से १८ कोड़ा कोडी सागर है !
भोगभूमि में जन्म लेने वाले जीवो -पांच पापो के त्यागी,मंद कषायी,ब्रह्मचारी,व्रती,निर्मल परिणामी,दानी (चार प्रकार का दान सुपात्र को देने वाले जीव आयु पूर्ण कर भोगभूमि में जन्म लेते है!
भोगभूमि में शरीर त्यागने(मृत्यु) और अगले भव में जन्म लेने की व्यवस्था -भोगभूमि में माता-पिता के युगली संतान ही जन्म लेते है ,उनके जन्म लेते ही माता पिता क्रमश:जवाई और छींक लेकर अपने शरीर को त्याग देते है !शरीर शरद ऋतू के मेघ के समान छीन-भिन्न हो जाता है!इनमे मिथ्यादृष्टि जीव मरणोपरान्त भवनत्रिक (भवनवासी,व्यंतर,अथवा ज्योतिष्क) में उत्पन्न होते है सम्यग्दृष्टि वैमानिक डिवॉन में दुसरे स्वर्ग तक उत्पन्न होते है !
भोगभूमियों में जीव का विकास –
१-जघन्य भोग भूमि -जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ७ दिन तक अंगूठा चूसते है ,दुसरे सप्ताह में घुटने के बल चलते है,तीसरे सप्ताह में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,चौथे सप्ताह में पैरो पर चलने लगते है,पांचवे सप्ताह में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,छठे सप्ताह में युवावस्था को प्राप्त करते है,सातवे सप्ताह में सम्यग्दर्शन के धारण की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये आवले के समान दूसरे दिन आहार लेते है !इनकी आयु १ पल्य लम्बाई १ कोस होती है!
२-मध्यम भोगभूमि
जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ५ दिन तक अंगूठा चूसते है ,५ दिन में घुटने के बल चलते है,फिर ५ दिन में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,फिर ५ दिनों में पैरो पर चलने लगते है,फिर ५ दिनों में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,फिर ५ दिनोमें में युवावस्था को प्राप्त करते है,फिर ५ दिनों में सम्यग्दर्शन धारण करने की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये बेहड़ा फल के समान तीसरे दिन आहार लेते है !इनकी आयु २ पल्य लम्बाई २ कोस होती है!
३-उत्तम-भोगभूमि –
जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ३ दिन तक अंगूठा चूसते है ,३ दिन में घुटने के बल चलते है,फिर ३ दिन में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,फिर ३ दिनों में पैरो पर चलने लगते है,फिर ३ दिनों में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,फिर ३ दिनोमें में युवावस्था को प्राप्त करते है,फिर ३ दिनों में सम्यग्दर्शन धारण करने की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये बेर के फल के समान चौथे दिन आहार लेते है!इनकी आयु ३ पल्य लम्बाई ३ कोस होती है!
भोगभूमि में जीवों के सम्यक्त्व के कारण-यहाँ भव्य जीवों को जातिस्मरण,देवों के उपदेशों ,सुखों/दुखो के अवलोकन से,जिनबिम्ब दर्शन से और स्वभावत: सम्यक्त्व होता है !
भोगभूमि की अन्य विशेषताए –
भोगभूमि का जीवों को सुख भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती से भी अधिक होता है !जीवों का बल ९००० हाथियों के बराबर होता है !भोगभूमि में विकलत्रय जीव उत्पन्न नहीं होते ,विषैले सर्प ,बिच्छू आदि जंतु नहीं उत्पन्न होते !वहां ऋतुओं का परिवर्तन नहीं होता,मनुष्यों की यहाँ वृद्धावस्था,रोग,चिंता,निंद्रा रहित होते है !
भोगभूमि में युगल बच्चे ही युवा होने पर पति पत्नी की तरह रहकर सन्तानोत्पत्ति करते है,कोई विवाह व्यवस्था नहीं है !
कुभोगभूमि -लवण समुद्र और कालोदधि समुद्रों में ९६ अंतरद्वीपों में जघन्य कुभोग भूमिया है !यहाँ पर पूर्व जन्म में कुपात्रों को चार प्रकार के दान ,आहार आदि देने से ,कुशास्त्रों का स्वाध्याय एवं कुदेवों की आराधना भक्ति करने से जन्म कुमानुषों( मनुष्य का मुख होता है पूछ या धड़ किसी पशु की) के रूप में लेते है !
जम्बू द्वीप में पर्वतों का विवरण –
जम्बूद्वीप में सुदर्शन नामक पर्वत १००० योजन चित्त्रा पृथ्वी मर है,९९००० योजन ऊपर है उसकी ४० योजन चूलिका है,कुल लम्बाई १ लाख ४० योजन है इसके तीन काण्ड है ,पहला जमीन से ५०० योजन का दूसरा ६२५०० योजन,तीसरा ३६००० योजन प्रत्येक काण्ड पर एक एक कटनी है जिसका विस्तार ५०० योजन है केवल अंतिम कटनी का विस्तार ६ योजन कम है !इन चार वन क्रमश:भद्रसाल ,नंदन,सोमनस और पाण्डुक है !पहली और दूसरी कटनी के बाद मेरु ११००० योजन तक मेरु सीधा है(कल प्रकाशित मेरु के चित्र में देखे ) फिर क्रमश: घटने लगता है मेरु पर्वत के चारो वनो में चारों दिशों के कुल १६ अकृत्रिम चैत्यालय है और पाण्डुक वन की विदिशाओं में चार पाण्डुक शिलाये है जिनपर उन दिशाओं में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों के जन्माभिषेक इन्द्रो द्वारा किये जाते है !यह स्वर्ण वर्ण का है !
यहाँ छ कुलांचल पर्वत है,चार यमक गिरी,दो सौ कांचन गिरी,आठ दिग्गज पर्वत,सोलह वक्षार गिरी,
चार गजदंत,चौतीस विजयार्ध ,चौतीस वृषभांचल,चार नाभागिरी ,इस प्रकार कुल ३११ पर्वत है !
पर्वतों का वर्ण (रंग)/धातु से बने है
हेमार्जुनतपणीयवैडूर्यरजतहेममया: १२
संधि विच्छेद –
(हेम+अर्जुन+तपणीय+वैडूर्य+रजत+हेम)+मया :
शब्दार्थ-
हेम-स्वर्ण,अर्जुन-चांदी,तपणीय-तप्तस्वर्ण समान,वैडूर्य-नीला,रजत-चांदी,हेममया:–स्वर्ण समान वर्ण/या इनसे बने है !
अर्थ -इन छ पर्वतों के क्रमश: वर्ण;स्वर्ण,चांदी,तप्तस्वर्ण नीला,चांदी और स्वर्ण के समान है /अथवा इनसे बने हुए है !स्वामी अकलंक देव ने इनका वर्ण कहा है !
विशेष-इन पर्वतों की ऊंचाई ऊपर से नीचे तक एक समान क्रमश १००,२००,४००,४००,२००,१०० योजन है १ योजन=४००० मील अर्थात महायोजन है (त्रिलोकसार गाथा ५९६)!
पर्वतों का आकार –
मणिविचित्रपार्श्वाउपरिमूलेचतुल्यविस्तार :१३
संधि विच्छेद: मणि+विचित्र+पार्श्वा+उपरि+मूले+ च+ तुल्य+ विस्तार:
शब्दार्थ -मणि-मणियों से ,विचित्र-विचित्र ,पार्श्वा-पार्श्व भाग में ,उपरि-ऊपर,मूले-नीचे ,च-मध्यमें ,तुल्य+ एक समान ,विस्तार:-विस्तार (मोटे ) के है !
अर्थ -ये पर्वत दोनों पार्श्वों (भुजाओं )में विचित्र मणियो से खचित है ,ऊपर ,मध्य और नीचे तक समान विस्तार के है !
भावार्थ -ये पर्वत ऊपर से नीचे तक एक समान मोटे,दोनों ओर मणियों द्वारा खचित दीवार के समान है!

पर्वतों पर स्थित सरोवर (तालाब ) का स्वरुप –
पद्म महापद्मतिगिंछकेशरिमहापुण्डरीकपुंडरीकहृदास्तेषामुपरि-१४
सन्धिविच्छेद -पद्म+महापद्म+तिगिंछ+केशरि+महापुण्डरीक+पुंडरीक+हृदा+तेषां+उपरि
शब्दार्थ -पद्म,महापद्म,तिगिंछ,केशरि,महापुण्डरीक,पुंडरीक,हृदा-सरोवर ,तेषां-उनके ,उपरि=ऊपर क्रम से है
अर्थ-उन पर्वतों के ऊपर क्रमश: पद्म,महापद्म,तिगिंछ,केशरि,महापुण्डरीक और पुंडरीक सरोवर है
भावार्थ-हिमवन्,महाहिमवन,निषध,नील,रुक्मी,शिखरिन;छ:कुलांचलपर्वतों के ऊपर क्रमश: पद्म,महापद्म, तिगिंछ, केशरि,महापुण्डरीक और पुंडरीक सरोवर है !
प्रथम ‘पद्म सरोवर’ का विस्तार; लम्बाई- चौड़ाई –
प्रथमोयोजनसहस्रायामस्तदर्धविष्कम्भोहृद:-१५
संधि विच्छेद – प्रथमो+योजन+सहस्रा+आयाम:+तत्+अर्ध +विष्कम्भ: +हृद:-
शब्दार्थ -प्रथमो-पहिले,योजन-योजन,सहस्रा-एक हज़ार,आयाम:-पूर्व से पश्चिम की ऒर लम्बाई,तत्-उससे,अर्ध आधी , विष्कम्भो-उत्तर से दक्षिण की ओर्र (चौड़ाई), हृद:-सरोवर की है !
अर्थ -हिमवन पर्वत पर स्थित प्रथम (पद्म ) सरोवर की पूर्व से पश्चिम दिशा में १००० महायोजन लम्बा और उत्तर से दक्षिण की ओर ५०० महायोजन चौड़ा है

प्रथम पद्म सरोवर की गहराई –

दशयोजनावगाह:-१६
संधि विच्छेद -दश+ योजन+आवगाह:-
शब्दार्थ -दश+दस, योजन-महा योजन ,आवगाह:- गहरा है
अर्थ -पद्म सरोवर १० महायोजन गहरा है


तन्मध्येयोजनंपुष्करं -१७
संधि विच्छेद तन्मध्ये+योजनं+पुष्करं-
शब्दार्थ-तन्मध्ये-उस के बीच में, योजनं-१ योजन ,पुष्करं -विस्तार का कमल है !
अर्थ -पद्म सरोवर के मध्य १ योजन विस्तार का कमल है!
नोट यह कमल वनस्पतिकाय नहीं बल्कि पृथिवीकाय है अर्थात पृथिवी कमलाकार है !
इसके अतिरिरिक्त इसके आधे विस्तार के १४०१२५ कमल भी है जिनमे देवो का निवास है !


तद्द्विगुणद्विगुणहृदाःपुष्कराणिच ॥१८!!
संधि विच्छेद -तद् +द्वि+गुण+ द्वि+गुण+हृदाः+पुष्कराणि+च
शब्दार्थ-तद्-उस (पद्म सरोवर और कमल से ) से, द्विगुण-दुगने द्विगुण-दुगने, हृदाः-सरोवर,पुष्कराणि-कमल, च-और है
अर्थ- पद्म सरोवर से आगे के सरोवर और कमल दुगने दुगने विस्तार के है अर्थात महापदम सरोवर २००० महा योजन लम्बा १००० महायोजन चौड़ा २० योजन गहरा, कमल २ योजन विस्तार का तथा तिगिंछ सरोवर ४००० महायोजन लम्बा २००० महायोजन चौड़ा और ४० महा योजन गहरा है ,कमल ४ योजन उत्सोध है !
नोट यह दूने दूने का क्रम केवल तिगिन्छ सरोवर तक ही है !उसके बाद के तीन सरोवर और ३ कमल का विस्तार दक्षिण के सरोवर और कमल के समान ही है !
पद्म सरोवर एवं उसके मध्य स्थित कमल-
पद्म सरोवर के मध्यस्थ १ योजन चौडा पद्म कमल है !उसमें चारो ओर एक कोस लम्बे ,२ कोस मोटे रजतमय ११११ पत्ते है !उसके मध्यस्थ २ कोस चौड़ी स्वर्णमयी कर्णिका है!४२ कोस ऊंची इसकी नाल ४० कोस जलमग्न और २ कोस ऊपर है !इस कमल की आधी ऊंचाई के १ कोस ऊँचे १,४०,११५ छोटे कमल जल से ऊपर है जिनमे श्री देवी के परिवार रहते है !ये पृथ्वीकाय कमल है वनस्पतिकाय नही है !=

कमलो पर निवास करने वाली देवियाँ-
तन्निवासिन्योदेव्यःश्रींहृींधुतिकीर्तीबुद्धिलक्ष्म्यःपल्योपमस्थितयःससमा- निकपरिषत्काः ॥१९॥
संधि विच्छेद –
तत्+निवासिन्य:+देव्यः+श्रीं+हृीं+धुति+कीर्ती+बुद्धि+लक्ष्म्य:+पल्योपम+स्थितयःस+समानिक+परिषत्काः ॥१९॥
शब्दार्थ-
तत्-उन पर,निवासिन्य:-निवास करती है,देव्यः-देवियान-श्रीं,हृीं,धुति,कीर्ती,बुद्धि,लक्ष्म्यः-लक्ष्मी, पल्योपम- १ पल्योपम ,स्थितयः-आयु वाली ,स-साथ ,समानिक-समानिक और परिषत्काः-परिष्तक जाति के देवो के
अर्थ-,उन (पद्म ,महापद्म तिगिच्छ,केशरि, महापुण्डरीक,पुण्डरीक) सरोवरों के कमलो (की कर्णिकाओं) पर स्थित महलों में १ पल्योपम आयु वाली देवियाँ क्रमश:श्रीं,हृीं,धुति,कीर्ती,बुद्धि और लक्ष्मी समानिक और पारिषद जाति के देवों के साथ रहती है !
नोट-१-यह देवियाँ सामयिक जाति ,पिता तुल्य व्यंतर और पारिषद जाति के ,मित्र तुल्य देवों की देवियाँ होती है!ये ब्रह्मचारिणी होती है!उनकी पत्नीरूप नहीं होती ;तीन देवियाँ सौ धर्मेन्द्र की और तीन देवियाँ ऐशान इंद्र की आज्ञा का पालन करती है !
जम्बू द्वीप में प्रवाहित होने वाली नदियां –

नदियों का वर्णन –
गंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्त्तोदाः सरितस्तन्मध्यगा:-२०
संधिविच्छेद:-गंगा+सिंधु+रोहित्+रोहितास्या+हरित्+हरिकान्ता+सीता+सीतोदा नारी+नरकान्ता सुवर्णकूला + रूप्यकूला+रक्ता+रक्त्तोदाः सरित:+ तन+ मध्यगा:
शब्दार्थ-
गंगा+सिंधु,रोहित+रोहितास्या,हरित+हरिकान्ता,सीता+सीतोदा,नारी+नरकान्ता,सुवर्णकूला +रूप्यकूला, रक्ता+रक्त्तोदाः सरित:-नदिया,,तन-उन (क्षेत्रों ),के,मध्यगा-मध्य में बहती है
भावार्थ :-जम्बू द्वीप के भरत,हेमवत,हरि,विदेह,रम्यक,हैरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रों में क्रमश: गंगा सिंधु,रोहित-रोहितास्य ,हरी-हरिकान्ता,सीता-सीतोदा,नारी-नरकान्ता,सुवर्णकूला-रूप्यकूला, और रक्ता-रक्त्तोदाः सात नदियों के युगल बहते है ! इनमे से पहली नदी पूर्व क्षेत्रों में बहती हुई पूर्व तथा दूसरी नदी पश्चिम क्षेत्रों से बहती हुई पश्चिम लवण समुद्रो में गिरती है !
विशेष –
१-भरतवर्ष में गंगा और सिंधु,हेमवत् वर्ष में रोहित और रोहितास्य ,हरि वर्ष में हरित और हरिकान्ता , विदेहवर्ष में सत्ता और सितोदा ,रम्यकवर्ष में नारी और नरकान्ता ,हैरण्यवत वर्ष में सुवर्णकूला और रूप्यकूला तथा ऐरावतवर्ष में रक्त और रक्तोदा नदिया बहती है !सात युगल की प्रथम नदी पूर्व दिशामें बहती हुई पूर्व लवण समुद्र में और दूसरी नदी इन क्षेत्रों की पश्चिम दिशा में बहती हुई पश्चिम लवण समुद्र में गिरती है !
२-हिमवन पर्वत पर स्थित पदम सरोवर से गंगा,सिंधु और रोहितस्या ,महाहिमवन पर्वत पर स्थित महापदम सरोवर से रोहित और हरिकांत, निषध पर्वत पर स्थित तिगिच्छ सरोवर से हरित और सीतोदा, नील पर्वत पर स्थित केशरी सरोवर से सीता और नरकांता ,रुक्मी पर्वत पर स्थित महापुण्डरी से नारी और रूप्यकूला तथा शिखरिन पर्वत पर स्थित पुण्डरीक सरोवर से
सुवर्णकूला ,रक्त और रक्तोदा नदिया निकलती है!
३-पद्म ,महापद्म,तिगिच्छ ,केशरी ,महापुण्डरीक ,पुण्डरीक सरोवर की लम्बाई चौड़ाई गहराई क्रमश १००० x ५०० x १०,२०००x १००० x २०,४००० x २००० x ४० ,४००० x २००० x ४०,२०००x १००० x २०,१००० x ५०० x १० महा योजन है

७ क्षेत्रों की पूर्व दिशा में बहने वाली महा नदिया
द्व्यो र्द्व्योःपूर्वाःपूर्वगाः ॥२१॥
शब्दार्थ-द्व्यो र्द्व्योः दो दो नदियों के युगल में से,पूर्वाः-पहली -पहली ,पूर्वगाः-पूर्व समुद्र की ओर जाती है
भावार्थ -भरत,हेमवत्,हरी,विदेह,रम्यक औरहैरण्यवत्, ऐरावत सात क्षेत्रों में क्रमश: बहने वाली महा नदियों के युगलों ;गंगा-सिंधु,रोहित-रोहितास्य ,हरी-हरिकांता,सीता-सीतोदा ,नारी-नारिकांता,स्वर्णकूला-रूप्यकूला, रकता-रक्तोदा में से पहली पहली महानदिया;गंगा,रोहित्.हरि,सीता,नारी,स्वर्णकूला और रक्ता पूर्व दिशा के समुद्र में मिलती है !


७-क्षेत्रों की पश्चिम दिशा में भने वाली महा नदिया
शेषास्त्वपरगाः ॥ २२॥
-संधि विच्छेद -शेषा:+त्व +अपरगाः
शब्द्दार्थ -शेषा:-बची हुई ,त्व -उनमे अपरगाः-विपरीत दिशा अर्थात पश्चिम दिशा में समुद्र में मिलती है !
भावार्थ -भरत,हेमवत्,हरी,विदेह,रम्यक और हैरण्यवत्, ऐरावत सात क्षेत्रों में क्रमश: बहने वाली महा नदियों के युगलों;गंगा-सिंधु,रोहित-रोहितास्य ,हरी-हरिकांता,सीता-सीतोदा ,नारी-नारिकांता,स्वर्णकूला-रूप्यकूला,रकता-रक्तोदा में से पहली पहली महानदिया;गंगा,रोहित्,हरि,सीता,नारी,स्वर्णकूला और रक्ता के अतिरिक्त शेष अर्थात महानदियों के युगलों की दूसरी दूसरी महानदियां सिंधु,रोहितास्या,हरिकांता, सितोदा,नारीकांता,रूप्यकूला और रक्तोदा पश्चिम दिशा के समुद्र में मिलती है !

भरत आदि क्षेत्रों में बहने वाली महानदियों की सहायक नदियां
चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृतागङ्गासिन्ध्वादयोनद्यः ॥२३॥
संधि विच्छेद-चतुर्दश+नदी+सहस्र+परिवृता+गङ्गा+सिंधु:+आद्य:+नद्यः
शब्दार्थ-चतुर्दश-चौदह,नदी-नदिया,सहस्र-हज़ार परिवृता-घिरे हुए है गङ्गा+सिंधु:,आद्य:-आदि, नद्यः सहायक नदियों से !
अर्थ-गंगा सिंधु आदि महानदिया चौदह-चौदह हज़ार सहायक नदियों से घिरी हुई है !भावार्थ-गंगा-सिंधुनदी से १४०००,१४०००,,रोहित-रोहितास्या से २८०००-२८०००,हरी हरिकांता से ५६०००-५६०००,सीता-सीतोदा से ११२०००-११२०००,नारी-नारीकांता से-५६०००-५६०००,सुवर्णकूला -रूप्यकूला से २८०००-२८००० तथा रक्त और रक्तोदा से १४०००-१४००० नदिया घेरी हुई है !
नोट- नदियों की संख्या विदेह क्षेत्र पर्यन्त दुगना दुगना तथा उसके बाद दक्षिण क्षेत्र के सामान ही है जैसे की सूत्र २५ में भी क्षेत्रों और २६ में खा गया है !


क्षेत्रों का विस्तार –
भरतःषड्विंशतिपञ्चयोजनशतविस्तारःषट्चैकोनविंशतिभागायोजनस्य ॥२४॥
संधिविच्छेद -भरतः+षड्विंशति पञ्च+योजन+शत+विस्तारः+षट् +च+एकोन+विंशति+भागा+योजनस्य
शब्दार्थ-भरतः-भरत,षड्विंशति=छःऔरबीस/छब्बीस,पञ्च-पांच,योजन-योजन,शत-सौ,विस्तारः-विस्तार, षट्-छः च-और एकोन-एक कम,विंशति-बीस,भागा-भाग योजनस्य-योजन का
अर्थ-भरत क्षेत्र का विस्तार पांच सौ छब्बीस योजन और योजन के बीस भाग में से १ भाग कम अर्थात उन्नीस भाग के छः भाग है !
भावार्थ= भरत क्षेत्र का दक्षिण से उत्तर तक का विस्तार पांच सौ छब्बीस अधिक ६ /१९ योजन है !


अन्य पर्वतो और क्षेत्रों का विस्तार-
तदद्विगुणाद्विगुणा विस्तारा वर्षधर वर्षा विदेहान्ता:-!!२५ !!
संधि विच्छेद -तद+द्विगुणा+द्विगुणा+विस्तारा+वर्षधर+वर्ष +विदेह+अन्ता:-!!
शब्दार्थ-तद-उनका,द्विगुणा-दुगना,द्विगुणा-दुगना,विस्तारा+विस्तार,वर्षधर-पर्वतोंका,वर्षा-क्षेत्रोंका,विदेह- विदेह ,अन्ता:-तक -!!
अर्थ -विदेह क्षेत्र तक उन पर्वतों और क्षेत्रों का क्रमश:दुगना दुगना विस्तार है !
भावार्थ
हिमवन् पर्वत का विस्तार दक्षिण से उत्तर में भरत क्षेत्र से दुगना अर्थात १०५२ और १२/१९ योजन है
हेमवत् क्षेत्र का विस्तार हिमवान पर्वत के विस्तार से दुगना अर्थात २१०५,५/१९ योजन है,
महाहिमवान पर्वत का विस्तार हेमवत् क्षेत्र से दुगना अर्थात ४२१०,१०/१९ योजन है,
हरि क्षेत्र का विस्तार महहिमवान पर्वत से दुगना अर्थात ८४२१,१/१९ योजन है,
निषध पर्वत का विस्तार हरि क्षेत्र से दुगना अर्थात १६८४२ ,२/१९ योजन तथा
विदेह क्षेत्र का विस्तार निषध पर्वत के विस्तार से दुगना अर्थात ३३६८४,४/१९ योजन है !


विदेह क्षेत्र से आगे पर्वतों और क्षेत्रों का विस्तार-
उत्तरदक्षिणतुल्य: !!२६ !!
संधिविच्छेद -उत्तर+दक्षिण+तुल्य:
शब्दार्थ -उत्तर दिशा में दक्षिण दिशा के समान ही (पर्वतों और क्षेत्रो का) विस्तार है!
भावार्थ-
ऐरावत क्षेत्र का विस्तार दक्षिण के भरत क्षेत्र के समान ५२६,६ /१९ योजन है,
पुण्डरीक पर्वत का हेमवन पर्वत के सामान १०५२,१२/१९ योजन है !
हैरण्यवत् क्षेत्र का विस्तार हेमवत क्षेत्र के समान २१०५ ,५ /१९ योजन है ,
रुक्मिन पर्वत का विस्तार महहिमवान पर्वत के समान ४२१०,१०/१९ योजन है,
रम्यक क्षेत्र का विस्तार हरी क्षेत्र के समान ८४२१,१ /१९ योजन है
नील पर्वत का विस्तार निषेध पर्वत के समान १६८४२,२/१९ योजन है!
भरत ऐरावत क्षेत्रों में काल परिवर्तन –
भरत क्षेत्र में षट काल परिवर्तन व्यवस्था
१-अवसर्पिणी के छ काल क्रमश; प्रथम सुषमा सुषमा काल ४ कोड़ा कोडी सागर का उत्कृष्ट भोगभूमि का है –
जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ३ दिन तक अंगूठा चूसते है ,३ दिन में घुटने के बल चलते है,फिर ३ दिन में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,फिर ३ दिनों में पैरो पर चलने लगते है,फिर ३ दिनों में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,फिर ३ दिनोमें में युवावस्था को प्राप्त करते है,फिर ३ दिनों में सम्यग्दर्शन धारण करने की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये बेर के फल के समान चौथे दिन आहार लेते है!इनकी आयु ३ पल्य लम्बाई ३ कोस अर्थात ६००० धनुष होती है!इस काल में जीवों का वर्ण उगते हुए सूर्य समान होता है
२- अवसर्पिणी का द्वित्य काल ३ कोड़ा कोडी सागर का माध्यम भोग भूमि का होता है !जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ५ दिन तक अंगूठा चूसते है ,५ दिन में घुटने के बल चलते है,फिर ५ दिन में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,फिर ५ दिनों में पैरो पर चलने लगते है,फिर ५ दिनों में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,फिर ५ दिनोमें में युवावस्था को प्राप्त करते है,फिर ५ दिनों में सम्यग्दर्शन धारण करने की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये बेहड़ा फल के समान तीसरे दिन आहार लेते है !इनकी आयु २ पल्य लम्बाई २ कोस अर्थात ४००० धनुष होती है!इस काल में जीवों का वर्ण चद्रमा की कांति के समान उज्ज्वल होता है
३-अवसर्पिणी का तीसरा काल दुषमा सुषमा २ कोड़ा कोडी सागर का जघन्य भोग भूमि होती है !जन्म लेने पर बच्चे सोते सोते ७ दिन तक अंगूठा चूसते है ,दुसरे सप्ताह में घुटने के बल चलते है,तीसरे सप्ताह में मधुर तुतलाती भाषा बोलते है,चौथे सप्ताह में पैरो पर चलने लगते है,पांचवे सप्ताह में कला और रूप आदि गुणों से युक्त हो जाते है,छठे सप्ताह में युवावस्था को प्राप्त करते है,सातवे सप्ताह में सम्यग्दर्शन के धारण की योग्यता प्राप् कर लेते है !ये आवले के समान दूसरे दिन आहार लेते है !इनकी आयु १ पल्य लम्बाई १ कोस अर्थात २००० धनुष होती है!इस हरित और श्याम वर्ण के जीव उत्पन्न होते है
भोगभूमि में जीवों के सइस काल में जीवों के सम्यक्त्व के कारण-यहाँ जीवों को जातिस्मरण ,देवों के उपदेशों ,सुखों/दुखो के अवलोकन से, जिनबिम्ब दर्श से और स्वभावत: भव्य जीवों को सम्यक्त्व होता है !
भोगभूमि की अन्य विशेषताए –
भोगभूमि का जीवों को सुख भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती से भी अधिक होता है ! जीवों का बल ९००० हाथियों के बराबर होता है !भोगभूमि में विकलत्रय जीव उत्पन्न नहीं होते ,विषैले सर्प ,बिच्छू आदि जंतु नहीं उत्पन्न होते !वहां ऋतुओं का परिवर्तन नहीं होता ,मनुष्यों की यहाँ वृद्धावस्था नहीं होती ,उन्हें कोई रोग नहीं होता ,कोई चिंता नहीं होती ,उन्हें निंद्रा नहीं आती!
भोगभूमि में युगल बच्चे ही युवा होने पर पति पत्नी की तरह रहते है,कोई विवाह व्यवस्था नहीं है !यहाँ जीवों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता ,सभी की पूर्ती दस प्रकार के कल्प वृक्षों के नीचे खड़े होकर याचना करने से हो जाती है !
४- अवसर्पिणी का चौथा दुषमा सुषमा काल कर्मभूमि का १ कोड़ा कोडी सागर में से ४२००० वर्ष कम का होता है !इसमें सभी जीवों को अपनी जीविका के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है क्योकि कल्प वृक्षों की फलदान शक्ति समाप्त हो जाती हा !इसमें जीवों की उत्कृष्ट आयु १ कोटि पूर्व ऊंचाई ५०० धनुष होती है!इसी काल मे धर्म प्रवर्तन होता है ,६३ श्लाखा पुरुष; १६९ महान पुरुष २४ तीर्थंकरों के माता,पिता, कामदेव ,१४ ,कुलकर,११रुद्र,१२ चक्रवर्ती,९-९ बलभद्र,नारायण और प्रतिनारायण ,नारद होते है !
५- अवसर्पिणी का पंचम दुःखमा काल २१००० वर्ष का है जिसमे जीव का हीन सहनन ,भ्रष्ट आचरण ,पांचों वर्ण के काँति रहित, उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष और ऊचाई ७ हाथ होती है !इस काल में अधिकांश जीव दुःखी ही रहते है जीव ,यह भी कर्म भूमि का काल है !सभी जीव मिथ्यात्व में जन्म लेते है !पंचम काल के अंत से ३ वर्ष ८ माह १५ दिन पूर्व जैन धर्म और राजा लोप हो जायेंगे,अग्नि समाप्त हो जायेगी !तब तक इस कल में महावीर के निर्वाण से प्रयेक १००० वर्ष के अंतराल पर अवधि ज्ञानी मुनि और चतुर्विध संघ होगा तथा एक कल्कि राजा उत्पन्न होता रहेगा जोकि मुनि के आहार में से कर के रूप मे पहिला ग्रास वसूलने के कारण नरक में जाएगा और मुनि की अंतराय होने के कारण वे समाधी लेकर स्वर्ग जाएंगे इसी शृंखला में अंतिम के समय वीरांगज अवधि ज्ञानी मुनि,सर्वश्री नामक आर्यिका ,तथा अग्निल और पंगु श्री नामक युगल श्रावक -श्राविका होंगे !अंत में ये आहार और परिग्रहों का त्याग कर समाधी मरण ग्रहण करते है !प्रत्येक ५०० ५०० वर्षों के अंतराल पर उपक्लकी भी होते रहेंगे !इस काल में मिथ्या ब्राह्मणों का सत्कार होगा !
६- अवसर्पिणी का छठा दुःखमा दुःखमा काल २१००० वर्ष का है यहाँ !जीवों को धर्म ,दया ,क्षमा आदि गुणों रहित होने के कारण दुःख ही दुःख है,वे नग्न ही जीवन व्यतीत करते है ! सभी जीव इस काल में मिथ्यात्व मे धुए के समान काले वर्ण युक्त।गूंगे,बहरे,अंधे,कुरूप,पशु के समान स्वभाव के उत्पन्न होकर मिथ्यात्व में ही मरते है !अधिकांशत जीव नरक गति को ही प्राप्त करते है !इस काल मे हिंसा इतनी बढ़ जाती है की मनुष्य मनुष्य का भक्षण करने लगता है !इस काल के अंत से ४९ दिन पूर्व महा प्रलय भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्य खंड मे होती है जिसमे १ योजन तक की चित्रा पृथिवी जल कर भस्म हो जाती है !इन ४९ दिनों में ७-७ दिन के लिए क्रमश:शीट,क्षार,विष,वज्र,धुल और धूम की वर्षाये होती है जिसने इन क्षेत्रों के आर्य खंड में सभ्यता का सर्वनाश हो जाता है !यह प्रलय उत्सर्पिणी काल के प्रथम काल के ४९ दिनों तक रहती है , जिसके बाद देवों द्वारा विज्यार्ध पर्वत और गंगा सिंधु नदी के बीच की गुफाओं में छुपाये गए ७२ युगल और असंख्यात युगल भरत के आर्यखण्ड में लौटकर जीवन प्रारम्भ भादो पंचमी शुक्ल पक्ष में करते है ,पंचमी से हम उसी याद में १० दिन का दस लक्षण शाश्वत पर्व मनाते है !यहाँ जीवों की उत्कृष्ट आयु २०-१५ वर्ष और ऊंचाई १ हाथ तक होती है !उत्सर्पिणी काल का आरम्भ श्रवण कृष्णा प्रतिपदा को होता है !जिसके प्रारम्भ में प्रत्येक ७-७ दिन तक क्रमश जल,दूध,घृत ,अमृत ,सुगंधित पवन आदि की शुभ वर्षाये होती है जिससे सभी जगह शांति मय वातावरण हो जाता है !यह दिन भाद्र शुक्ल पंचमी का होता है !!
उत्सर्पिणी के छ: काल अवसर्पिणी के ठीक विपरीत है !अर्थात पहिला काल दुःखमा दुःखमा-२१००० वर्ष ,कर्म भूमि ,दूसरा दुःखमा -२१००० ,वर्ष कर्म भूमि है !उत्सर्पिणी का छठा दुःखमा दुःखमा काल और दुःखमा काल के २०००० वर्ष व्यतीत होने के बाद अर्थात उखमा काल के १००० वर्ष शेष रहने पर प्रथम कुलकर जन्म लेते है !जो मुष्यों को खाना बनाने की,कुलाचार आदि की शिक्षा देते है !तीसरा काल कर्म भूमि का १कोड़ा कोडी सागर में ४२००० वर्ष कम , चौथा काल जघन्य भोग भूमि २ कोड़ा ,कर्मभूमि कोडी सागर का है, पंचमकाल सुखमाँ ३कोड़ा कोडी सागर का माध्यम भोग भूमि है छठा काल सुखमा सुखमा ४ कोड़ा कोडी सागर का उत्तम भोगभूमि है ! इन कालों में जीवों की आयु ,सुख सम्पदा ,ऊंचाई क्रमश बढ़ती है इसलिए इस काल का नाम उत्सर्पिणी काल सार्थक है !
असंख्यात अवसर्पिणी काल के व्यतीत होने पर एक हुँडावसर्पिणी काल आता है जिसमे अनहोनी घटनाएं जैसे तीर्थंकर ऋषभदेव जी के पुत्रियों का जन्म होना,५-तीर्थंकरों वासुपूज्य,मल्लिनाथ,नेमिनाथ जी,पार्श्वनाथ जी और महावीर जी का बालयति होना,६३ श्लाखा पुरुषों की जगह ५८ ही होना ,तीर्थंकरो ऋषभदेव जी का अवसर्पिणी काल के तीसरे काल में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करना,भरत चक्रवर्ती के मान का गलन होना ,तीर्थंकरों पर उपसर्ग होना ,तीर्थंकरों का अयोध्या के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर जन्म लेना,तीर्थंकरों सम्मेद शिखर जी के अतिरिक्त अन्य स्थानों से मोक्ष प्राप्त करना इत्यादि !वर्तमान में यहाँ हुन्डावसर्पिनी काल ही चल रहा है !
भरत और ऐरावत के म्लेच्छ खंडो तथा विज्यार्ध पर्वत की श्रेणियों में अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के आदि से अंत तक परिवर्तन होता है,जब आर्य खंड में अवसर्पिणी का प्रथम ,द्वित्य और तृतीय काल वर्तता है उस समय म्लेच्छ खंड और विज्यार्ध की श्रेणियों में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु १ कोटी पूर्व और ऊंचाई ५०० धनुष होती है!

(५) भरत और (५) ऐरावत क्षेत्रो कें मात्र आर्य खण्डों मे जीवो की अवगाहना,आयु, वीर्य, सुख-दू:ख ,भोगोपभोगो आदि में उत्सर्पिणी के छह कालों में क्रमशः वृद्धि होते है तथा अवसर्पिणी में कमी होती है! म्लेच खंडो व विज्यार्द्ध की श्रेणियों में ६ कालों का परिवर्तन नहीं होता है वहा सदा ४ थे काल के सामान परिवर्तन होता है! जब आर्य खंड में १.२.३ काल वर्तता तब इनमें जीवों की अवगाहना ५०० धनुष और आयु १ पूर्व कोटि होती है,जब ४ था काल वर्तता है तब वहां जीवों की अवगाहना ५०० धनुष से घटते घटते ७ हाथ तक आर्य खंड की भांती होती है ,जब ५-६-काल वर्तता है तब आर्य खंड की भांती ७ हाथ से घटकर १ हाथ तक नहीं रह जाती है! उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत अवगाहना,आयु बढती हुई होती है ! अवसर्पिणी के ५,६, और उत्सर्पिणी के १,२ काल,कुल ८४००० वर्षों में, म्लेचखंड,विज्यर्द्ध की श्रेणियों में,सात हाथ की ही काया रहती है!जब आर्य खंड में उत्सर्पिणी के ३सरे काल में अवगाहना बदनी शुरू होती है तब वहां भी काया सात हाथ से – ५०० धनुष तक बढती है! अर्थात म्लेचखंड,विज्यर्द्ध की श्रेणियों में १८ कोड़ा कोडी सागर तक( अव्सिर्पिनी के १,२,३,- उत्सर्पिणी के,४,५,६,कालों में) मनुष्यों की आयु १ कोटि पूर्व और अवगाहना ५०० धनुष रहती है! अतः अवसर्पिणी के ४थे काल में आयु व शरीर की अवगाहना घटती है व् उत्सर्पिणी के तीसरे काल में बढती है उसी प्रकार म्लेचखंड,विज्यर्द्ध की श्रेणियों में घटती व बढती है!जब आर्य खंड में पांचवा छठा काल तथा उत्सर्पिणी का प्रथम और दूसरा काल कुल ८४००० वर्ष का चल रहा होता है तब ७ हाथ की काया रहती है !
इसलिए चक्रवर्ती की ९६००० रानियों में से ३२००० विज्यार्ध पर्वत की श्रेणियों से ,३२००० म्लेच्छ खंड से और ३२००० आर्य खंड से हो जाती है !उत्सर्पिणी के तीसरे -चौथे ,पांचवे और छट्टे काल में अवगाहना ५०० धनुष हो जाती है ! चक्रवर्ती छह खंडो का विजेता होता है तथा नारयण और प्रतिनारायण तीन खंडो के इसलिए अर्द्ध चक्रवर्ती कहलाते है
उत्सर्पिणी काल के समय तृतीयकाल के अंत से लेकर आदि तक परिवर्तन होता है !इनमे आर्यखण्ड की तरह ष ट काल परिवर्तन नहीं होता है !भरत ऐरावत के म्लेच्छ खण्डों और विजयार्ध पर्वत की श्रेणियों में प्रलय नही होती होती !
विजयार्ध पर्वत,
२५ योजन ऊँचा और मूल में दूना,भरत क्षेत्रों को बीचों बीच उत्तर और दक्षिण दो भागों में विभाजित करता है !इसका प्रत्येक भाग, गंगा और सिंधु नदियों के द्वारा ३-खंड उत्तर और -३ खंड दक्षिण में विभाजित हो जाते है ,इस प्रकार भरत क्षेत्र के छह खंड हो जाते है ! विज्यार्ध के उत्तर में तीनो खनंद म्लेच्छ खंड है और दक्षिण में बीच का कदंड आर्य खंड और उसके दोनों ओर के २ खंड म्लेच्छ खंड है !हमारी सम्पूर्ण पृथ्वी आर्य खंड है !चक्रवर्ती छह खंडो को जीतने के बाद म्लेच्छ खंड के वृषभांचल पर अपना नाम अंकित करने जाते है !


अन्य भूमियों में काल व्यवस्था-
ताभ्या-मपराभोम्योऽवस्थित:-!!२८!!
संधि विच्छेद -ताभ्याम् +अपरा:+भूमय :+अवस्थित:
शब्दार्थ-ताभ्याम् -उन (भरत और ऐरावत क्षेत्रों),अपरा:-आगे की ,भूमय:-भूमियाँ ,अवस्थित:-अवस्थित है !
अर्थ-उन भरत और ऐरावत क्षेत्रों के अतिरिक्त सभी भूमियों अवस्थित है ,उनमे षट काल रूप काल का परिवर्तन नहीं होता है!
भावार्थ -हेमवत् वर्ष औए ऐरावत वर्ष में तीसरा काल ,जघन्य भोगभूमि रूप दूसरा काल रहता है,हरीवर्ष और रम्यक वर्ष में मध्यम भोगभूमि रूप रहता है ,उत्तर और देव कुरु में प्रथम काल ,उत्तम भोग भूमि रूप रहता है !चारों पूर्व दक्षिण,पश्चिम और उत्तर विदेह क्षेत्र में चतुर्थ काल ,कर्म भूमी रूप वर्तता है !
हेमवत आदि क्षेत्रों में आयु-
एकद्वित्रिपल्योपमस्थितियोहैमवतक-हरिवर्षकदैवकुरवका:!!२९!!
संधि-विच्छेद -एक+द्वि+त्रि+ पल्योपम +स्थितिय:+हैमवतक +हरिवर्षक+ दैवकुरवका:
शब्दार्थ -एक-एक,द्वि-दो,त्रि-तीन,पल्योपम-पल्य ,स्थितिय:-आयु ,हैमवतक -हेमवतवर्ष ,हरिवर्षक-हरीवर्ष और दैवकुरवका:-देवकुरु में है !!
अर्थ -हेमवत ,हरी और देवकुरु(विदेह क्षेत्र में विशेष क्षेत्र )में तिर्यन्चों और मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु क्रमश: १,२,३ पल्य की होती है !
विशेषार्थ-
१-हेमवत क्षेत्र में सदैव अवसर्पिणी का अथवा उत्सर्पिणी का चौथा काल ,जघन्य भोगभूमि का प्रवर्तता है तथा प्राणियों की स्थिति (आयु) १ पल्य और मनुष्यों की अवगाह्न्ना २००० धनुष ,वर्ण नीला होती है,एक दिन के अंतराल पर भोजन लेते है !
२-हरिवर्ष में सैदव अवसर्पिणी का दूसरा अथवा उत्सर्पिणी का पंचम काल प्रवर्त्ता है ,प्राणियों की उत्कृष्य स्थिति २ पल्य होती है मनुष्यों की अवगाह्न्ना ४००० धनुष ,वर्ण शुक्ल होता है !दो दिन के अंतराल पर आहार लेते है !
३- देवकुरु के प्राणियों की स्थिति ३ पल्य प्रमाण होती है। मनुष्यों की अवगाहना ६००० धनुष ,वर्ण पीत होता है ,भोजन ३ /४ दिन के अंतराल पर करते है !
हैरण्यवत् आदि क्षेत्रों में आयु-
तथोत्तरा:-३०
अर्थ-उत्तर के क्षेत्रों में मनुष्यों और तिर्यन्चों की आयु हेमवत आदि क्षेत्रों के सामान है !
भावार्थ -उत्तरकुरु में देवकुरु के सामान उत्तम भोगभूमि ,प्रथम काल प्रवृत्त है ,प्राणियों पल्य आयु व मनुष्यों की अवगाहना ६००० धनुष,रम्यक और हरिवर्ष में मध्यम भोग भूमि का दूसरा काल प्रवृत्ता है ,प्राणियों के आयु २ पल्य और अवगाहना ४००० धनुष है ,हैरण्यवत् में हेमवत् के समान जघन्य भोगभूमि का तीसरा काल प्रवर्त्ता है ,जीवों की उत्कृष्ट आयु १ पल्य और मनुष्यों की अवगाहना २००० धनुष होती है !
विशेष –
१-इस प्रकार जम्बूद्वीप में ६ भोगभूमि,घातकी खंड में १२ पुष्कार्ध द्वीप में १२ भोग भूमियाँ है,ढाई द्वीप -मनुष्य लोक में ३० भोग भूमियाँ है जिसमे सब तरह की भोगोपभोग की सामग्री कल्प वृक्षोस से प्राप्त होती है !


विदेह क्षेत्रमे आयु-
विदेहेषुसंख्येयकाल:-३१
संधि विच्छेद-विदेहेषु +संख्येय+काल:-
शब्दार्थ-विदेहेषु-विदेह क्षेत्र में,प्राणियों की संख्येय-संख्यात , काल:-वर्षों की आयु है
अर्थ -विदेह क्षेत्र में प्राणियों;मनुष्यों और तिर्यन्चों की आयु संख्यात वर्ष है !
विशेष-
विदेह क्षेत्र में अवसर्पिणी का चौथा और उत्सर्पिणी का तीसरा काल सदैव व्यवस्थित रहता है !इसमें मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु १ कोटि पूर्व प्रमाण तथा अवगाहना ५०० धनुष होती है !यहाँ कर्म भूमि होती है और सदा जीव मोक्ष को प्राप्त करते रहते है !यहाँ नित्य तीर्थंकर ,केवली,चक्रवर्ती,नारायण ,मुनि आदि उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करते रहते है
जम्बू द्वीप में,विदेह क्षेत्र निषेध पर्वत के उत्तर और नील पर्वत के दक्षिण मे पूर्व से उत्तर तक फैला,सबसे बड़ा क्षेत्र है जिसके मध्य में उत्तर और देवकुरु दो उत्तम भोग भूमिया है !

भरत क्षेत्र का विस्तार –

भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवति शत भाग: !!३२ !!
संधि विच्छेद -भरत+अस्य+ विष्कम्भ:+ जम्बूद्वीप+अस्य +नवति +शत +भाग:
शब्दार्थ-भरत-भरत क्षेत्र,अस्य-का ,विष्कम्भ:-विस्तार,जम्बूद्वीप-जम्बूद्वीप,अस्य-के ,नवतिश-एक सौ नब्बे वा, भाग:-भाग है

अर्थ -भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के विस्तार एक लाख योजन का एक सौ नब्बे व भाग अर्थात १००००० /१९० =५२६-६/१९ योजन है !
विशेषार्थ -जम्बूद्वीप के विस्तार का भरत क्षेत्र १ भाग,हिमवन पर्वत २ भाग ,हेमवत वर्ष ४ भाग,महा हिमवन पर्वत -८ भाग,हरिवर्ष १६ भाग,निषध पर्वत ३२ भाग विदेहवर्ष ६४ भाग,नील पर्वत ३२ भाग,रम्यकवर्ष १६ भाग,रुक्मि पर्वत के ८ भाग ,हैरण्यवत वर्ष ४ भाग ,शिखरिन पर्वत २ भाग और ऐरावत वर्ष १ भाग है !इन सब का योग १९० है ,अत: भरत वर्ष का विस्तार जम्बूद्वीप के विस्तार का एक सौ नब्बेवा भाग है !


घातकी खंड द्वीप की रचना –

द्विर्घातकीखण्डे !!३३!!
संधि विच्छेद-द्वि:+घातकी +खण्डे
शब्दार्थ -द्वि:-दुगने ,घातकी -घातकी ,खण्डे-खंड द्वीप में
अर्थ -घातकी खंड द्वीप में दुगनी रचना है !
भावार्थ -घातकी खंड में जम्बूद्वीप से दुगने दुगने क्षेत्र,पर्वत,सरोवर ,नदियां आदि है !विशेषार्थ -घातकीखंड द्वीप वलयाकार होने के कारण, इसमें उत्तर और दक्षिण में स्थित दो इक्ष्वाकार पर्वतो से , जो उत्तर से दक्षिण तक द्वीप के विष्कम्भ -४ लाख योजन प्रमाण लम्बे है, एक छोर उनका कालोदधि समुद्र को और दूसरा छोर लवण समुद्र को स्पर्श करता है ,के द्वारा पूर्वार्द्ध घातकीखंड और पश्चिमार्द्ध घातकी खंड दो भागों में विभाजित है !प्रत्येक में एक एक; भरत,ऐरावत,हेमवत,हैरण्यवत,हरि,रम्यक,विदेहवर्ष कुल ७ क्षेत्र ,हिमवन, महहिमवन,निषध , नील,रूक्मी,और शिखरिन -कुल ६ पर्वत , पदम, महापदम, तिगिन्छ ,केशरी,महापुण्डरीक,पुण्डरीक -कुल ६ सरोवर,गंगा-सिंधु,रोहित-रोहितास्य,हरि-हरिकांता,सीता-सीतोदा ,सुवर्णकुला-रूप्यकूला, रक्त-रक्तोदा -कुल १४ नदियां ,१-मेरु अर्थात दोनों विभागों में कुल १४ क्षेत्र ,१२ पर्वत ,१२ सरोवर ,२८ महा नदियां ,२ मेरु है !इस द्वीप में ये सर्वत्र समान विस्तार के पर्वत पहिये के आरे के समान है और क्षेत्र आरो के बीच में स्थित है !यहाँ क्षेत्रों ,पर्वतों,सरोवरों,नदियों के नाम जम्बूद्वीप के समान ही है ! विजय और अचल क्रमश पूर्व और पश्चिम घातकी खंड में स्थित मेरु के नाम है !
घातकी खंड द्वीप को कालोदधि समुद्र घेरे हुए है और घातकी खंड द्वीप ने लवण समुद्र को घेर रखा है !घातकी खंड में क्षेत्र कालोदधि के पास अधिक चौड़े और लवण समुद्र के पास कम चौड़े है !जम्बूद्वीप में जिस स्थान पर जामुन का पार्थिव वृक्ष है ,घातकी खंड में उसी स्थान परघातकी अर्थात धतूरे का विशाल पार्थिव वृक्ष है खंड द्वीप है !


पुष्कर द्वीप का
पुष्करार्द्धेच -३४
संधि विच्छेद -पुष्कर+अर्द्धे+च
शब्दार्थ -पुष्कर-पुष्कव र द्वीप के,अर्द्धे-आधे भाग में ,च-भी क्षेत्रो और पर्वतों की रचना भी घातकी खंड के समान जम्बूद्वीप से दुगनी दुगनी तरह ही है !
अर्थ -पुष्कवर द्वीप के आधे भाग में भी घातकी खंड के समान और जम्बूद्वीप से दुगने दुगने क्षेत्र ,पर्वत,सरोवर,नदिया उसी नाम से ,और मेरु पर्वत है !
भावार्थ -कालोदधि समुद्र को घेरे हुए १६ लाख योजन विस्तार का पुष्कर द्वीप चूड़ी आकार मनुषोत्तर पर्वत से दो भागो में विभाजित है !इसके अंदरूनी भाग तक मनुष्य गति के जीव पाये जाते है !मानुषोत्तर पर्वत के बाहर अर्द्ध पुष्कर द्वीप से लोक के अंत तक मनुष्य नहीं होते !जम्बू द्वीप ,घातकी खंड द्वीप और अर्द्ध पुष्कर द्वीप ,ढाई द्वीप कहते है !पुष्करार्द्ध द्वीप को भी उत्तर और दक्षिण दोनों भागों को इक्ष्वाकर पर्वत पूर्वी और पश्चमी पुष्करार्ध दो भागो में विभाजित करता है जिसके प्रत्येक भाग में जम्बूद्वीप के सामान ही ७ क्षेत्र ,६ पर्वत,६ सरोवर १४ नदिया तथा क्रमश मंदार और विद्युन्माली मेरू पर्वत है !इस प्रकार यहाँ भी सभी जम्बूद्वीप से दुगने दुगने है
मनुष्य क्षेत्र –
प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥३५॥

संधि विच्छेद -प्राक् +मानुषोत्तरात्+मनुष्याः
शब्दार्थ-प्राक् -पहिले तक, मानुषोत्तरात्-मानुषोत्तर पर्वत तक,मनुष्याः-मनुष्य है
अर्थ -मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्य होते है !
भावार्थ -मानोषोत्तर पर्वत तक,जम्बूद्वीप,धातकी खंड और अर्द्धपुष्कर द्वीपों ,अर्थात ढाई द्वीप क्षेत्र में ही के ४५लाख योजन क्षेत्र में मनुष्य होते है, उससे आगे ऋद्धिधारी मुनिराज भी नहीं जा सकते !

विशेष- ढाई द्वीप के बाहर मनुष्य केवल निम्न तीन परिस्थितियों में पाये जाते है –
१-केवली भगवान के आत्म प्रदेश ८ समय के लिए केवली समुद्घात ,मे वे अपनी आयु कर्म की स्थिति अन्य तीन अघातिया कर्मों वेदनीय,नाम और गोत्र कर्म की स्थिति के बराबर करते है,के समय सर्व लोक में व्याप्त होते है !२-जो जीव ढाई द्वीप में अपनी आयु पूर्ण करने के बाद ढाई द्वीप के बहार के क्षेत्र की आयु बंध कर वहां उत्पन्न होने वाले है,वे मरण से पूर्व,मरणान्तिक समुद्घात करते है तो ढाई द्वीप के बाहर पाये जाते है!
३-ढाई द्वीप से बाहर का कोई जीव यदि वह मनुष्यायु का बंध करता है तो उसके पूर्व की पर्याय छोड़ने के अनन्तर ही मनुष्यादि कर्मों का उदय हो जाता है तब भी वह उत्पाद क्षेत्र तक पहुचने तक मनुष्यलोक से बाहर होता है !


मनुष्य के भेद –
आर्याम्लेच्छाश्च !!३६!!
संधि विच्छेद -आर्या+ म्लेच्छ:+च
शब्द्दार्थ – आर्या-आर्य , म्लेच्छ:-म्लेच्छ ,च-और
अर्थ- मनुष्यो के आर्य और म्लेच्छ दो भेद है !
भावार्थ -१- आर्य और २-म्लेच्छा ,मनुष्यो के दो भेद है !
विशेष-
१-आर्य-अनेक गुणों से सम्पन्न ,गुणी पुरषों से सेवित ,आर्य मनुष्य है!इन आर्यों के दो उप भेद है
१-ऋद्धिधारी आर्य -ऋद्धि सहित,ऋद्धि धारण की अपेक्षा ८ भेद है,आठ मे से कोई भी एक ऋद्धि अथवा समस्त ऋद्धियों के धारी आर्य ,ऋद्धिधारी आर्य होते है १
२ अऋद्धिधारी आर्य -ऋद्धि से रहित आर्य है !इन के निमित्त की अपेक्षा ५ भेद है –
१-क्षेत्रार्य-काशी,कौशल आदि क्षेत्रोंमें जन्म लेने वाले क्षेत्रार्य है !
२ -जात्यार्य-इक्ष्वाकु भोज आदि वंश में जन्मे आर्य ,जात्यार्य है !
३-चारित्रार्य-स्वयं और अन्यों को चारित्र पालन करवाने वाले आर्य चारित्रार्य है!
४-दर्शनार्य-सन्यग्दृष्टि आर्य दर्शनार्य है
५-कर्मार्य – क-सावद्य कर्मार्य ,ख-अल्प सावद्य कर्मार्य ,ग-असावद्य कर्मार्य !
क-सावद्य कर्मार्य –
१-असि कर्मार्य:-जो आर्य तलवार,शस्त्रों आदि से अथवा युद्ध करके रक्षा करअपनी आजीविका अर्जित करते है असि कर्मार्य है !
२-मसि कर्मार्य -जो आय -व्यय लेखन कर आजीविका अर्जित करते है ,मसि कर्मार्य है !
३-कृषि कर्मार्य -जो खेती द्वारा आजीविका अर्जित करते है कृषि कर्मार्य है !
४ -विद्या कर्मार्य -जो विविध कलाओं में प्रवीणता प्राप्त कर आजीविका अर्जित करते है विद्या कर्मार्य है !
५-शिल्प कर्मार्य-धोबी ,कुम्हार,नाई,लोहार,सुनार,इत्यादि शिल्प से जीविका अर्जित करते है शिल्प कर्मार्य है !
६-वाणिज्य कर्मार्य -जो वाणिज्य ,व्यापार आदि से जीविका अर्जित करते है वे वाणिज्य कर्मार्य है !
ख-अल्प सावद्य कर्मार्य -अणुव्रती श्रावक अल्पसंवाद्य कर्मार्य होते है !
ग-असावद्य कर्मार्य-पूर्ण संयम साधु असावद्य कर्मार्य होते है !
२-म्लेच्छ मनुष्य –
म्लेच्छ- आचार,विचार से भ्रष्ट ,धर्म कर्म व्यवस्था के विवेक से रहित मनुष्यों को म्लेच्छ कहते है! !ये दो प्रकार के होते है !
१-अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ -लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र के मध्य में स्थित अंतरद्वीपोँ में रहने वाले कुभोगभूमिज मनुष्यों को अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ कहते है
२-कर्मभूमिज म्लेच्छ -कर्म भूमि में ,आर्य संस्कृति से विहीन ,उत्पन्न होने वाले कर्म भूमिज म्लेच्छ कहते है !

कर्म भूमियों के भेद –
भरतैरावतविदेहः कर्मभूमियोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥
सन्धि विच्छेद-भरत+ऐरावत+विदेहः कर्मभूमिय:+अन्यत्र+ देवकुरू+उत्तरकुरुभ्यः
शब्दार्थ -भरत,ऐरावत,विदेह, कर्मभूमिय:-कर्म भूमियाँ है, अन्यत्र -के अतिरिक्त देवकुरू+उत्तरकुरुभ्यः-देव और उत्तर कुरू के
अर्थ-भरत ऐरावत और ,विदेह में उत्तरकुरु के अतिरिक्त ,विदेह कर्म भूमियाँ है !
भावार्थ -जम्बू,धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप पांचो मेरु; संबंधी ५ भरत ,५ ऐरावत और ५ विदेह क्षेत्र,विदेह में देव और उत्तर कुरु के अतिरिक्त, ४५ लाख योजन के ढाई द्वीप में कुल १५ कर्म भूमियाँ हैं !
विशेष –
१-कर्मभूमि-जिन क्षेत्रों में मनुष्यों को जीविका अर्जित करने के लिए असि,मसि,कृषि, वाणिज्य, विद्या अथवा शिल्पी, छः कर्मों से कोई एक करना हो और वह बड़े से बड़ा पुण्य कर संसार चक्र से मुक्त हो कर मोक्ष प्राप्त कर सकता हो अथवा बड़े से बड़ा पाप कर्म कर संसार चक्र में ही भटक सकता हो ,वह कर्म भूमि कहलाती है!ढाई द्वीप में १५ कर्म भूमिया है !शेष क्षेत्रो में भोगभूमि है वहां आजीविका के लिए कोई कर्म नहीं करना पड़ता !दो समुद्रों के अंतरद्वीपों में ९६ भोग भूमिया है !


मनुष्य की उत्कृष्ट और जघन्यायु –
नृस्थितीपरावरेत्रिपल्योपमान्तर्मुर्हूर्ते !!३८!!
संधि विच्छेद -नृ + स्थिती+ पर+अवरे +त्रिपल्योपमा +अन्तर्मुर्हूर्ते
शब्दार्थ-नर-मनुष्य की,स्थिती-आयु,पर-उत्कृष्ट,आवरे-जघन्य,त्रिपल्योपम-तीन पल्य,अन्तर्मुर्हूर्ते-अन्तर्मुहूर्त है
अर्थ-मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु ३ पल्य (उत्तम भोगभूमि की अपेक्षा) और जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त (कर्म भूमि की अपेक्षा) है !तिर्यन्चों की आयु-
तिर्यग्योनिजानां च ॥३९॥
तिर्यंच जीवों की भी यही है !
अर्थ- तिर्यन्चों की भी उत्कृष्ट आयु मनुष्यों की भांति ३ पल्य और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है !
विशेष-स्थिति के दो भेद है !
१-भव स्थिति-आत्मा एक पर्याय में जितने काल रहे वह उस जीव की भव स्थिति है,यहाँ भव स्थिति बतायी है!तिर्यन्चों में; पृथ्वीकायिक के उत्कृष्ट भव स्थिति २२००० वर्ष,जलकायिको की ७००० वर्ष,अग्निकायिक की ३ दिनरात,वायुकायिक की ३००० वर्ष और वनस्पतिकायिक की १०००० वर्ष है,द्वीन्द्रिय की १२ वर्ष,त्रीन्द्रिय की ४९ दिन,चतुरिंद्रिय की ६ माह,पंचेन्द्रिय में मच्छली आदि जलचरों की पूर्व कोटि प्रमाण,गोह व् नकुल आदि परीसर्पों की नौ पूर्वाङ्ग,सर्पो की ४२ हज़ार वर्ष और चतुष्पदों की ३ पल्योपम है !
२ -काय स्थिति- पुन :पुन :उसी पर्याय में निरंतर उत्पन्न होना, दूसरी जाती में नहीं जाना, काय स्थिति है !
पृथ्वीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्येय लोक प्रमाण है और वनस्पतिकायिक की अनंत काल प्रमाण है जो की असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण स्वरुप व आव्लिका के असंख्यात भाग स्वरुप कही जाती है !विकलेन्द्रिय की असंख्यात हज़ार वर्ष है,पंचेन्द्रिय तिर्यंच/ पूर्व कोटि पृथकत्व अधिक ३ पल्य है, देव और नारकी की भव स्थिति ही काय स्थिति है !
३-१ पूर्वाङ्ग =८४ लाख वर्ष,१ पूर्व =८४ लाख पूर्वाङ्गतत्वार्थ सूत्र (मोक्षशास्त्र )अध्याय ३ मध्य लोक का वर्णन सहधर्मी भाइयों बहिनजैजिनेन्द्र देव की !पंचपरमेष्ठी की जय !विश्व धर्म जैन धर्म की जय !संत श्रोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जय !

मध्य लोक से संबंधित महत्व पूर्ण सूचनाये –

१-पैमाइश की उपयोगी इकाइया –

अंगुल-तीन प्रकार के है –
१-उत्सेधांगुल -अंगुल,उत्सेधांगुल या सूच्यांगुल है !उत्सेधांगुल से देव,मनुष्य,तिर्यंच ,नार्कियों के शरीर के लम्बाई का प्रमाण और चारो प्रकार के देवों के निवास स्थान एवं नगरआदि का प्रमाण मापा जाता है !
२-प्रमाणांगुल -५०० उत्सेधांगुल प्रमाण अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती के एक अंगुल का नाम प्रमाणांगुल है ! द्वीप,समुद्र,कुलांचल,वेदी,नदी,कुण्ड,सरोवर ,जगती,भरत आदि क्षेत्रों का प्रमाण -प्रमाणांगुल से ही मापे जातेहै!
३-आत्मांगुल – जिस जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो जो मनुष्य होते है,उस काल में उन्ही मनुष्य के
अंगुल का नाम आत्मांगुल है !झारी,कलश,दर्पण ,हल,मूसल,सिंहासन,बाण,नली,अक्ष चामर,दुन्दभि,पीठ,छत्र, मनुष्य के निवास स्थान,नगर और उद्यान की संख्या आत्मांगुल से ही मापे जाते है!
२- ६अँगुल =१ पाद,२ पाद=१ विलस्ति ,२ विलस्ति =१ हाथ ,२ हाथ=१ रिंकू,२ रिंकू =१ दण्ड =४ हाथ=१ धनुष,मूसल/नाली ,२००० धनुष/दण्ड =१ कोस ,४ कोस=१योजन ,५००योजन =१ महायोजन =२०००कोस
४-सागर का नाप – एक योजन गहरे और इतने ही विस्तार के गड्ढे को ,उत्तम भोग भूमि के ७ दिन तक के मेढे के बच्चे के रोमो को कैची से आगे अविभाज्य टुकड़ों से ठसाठस भरण के बाद ,प्रत्येक सौ वर्ष में १ -१ रोम का सूक्ष्मत टुकड़ा निकलने पर ,गड्ढे को खाली करने में जितना समय लगता है उतना समय व्यवहार पल्य है !
ऐसे गोल गड्ढे के क्षेत्र का क्षेत्र घन फल =१ x १ x १० =१९/६ परिधि,१९/(६ x ४ )=१९/२४ घनफल !इस गड्ढे में १-७ दिन के मेढ़े के ४.१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२९९२ x १० की घात ४४ रोम आते है !प्रत्येक १०० वर्ष में १ रोम निकालने में ४.१३४५२६३०३०८२०३१७७७ ४९५१२९९२ x १० की घात ४६ वर्ष लगेंगे =१ व्यवहार पल्य !
ऐसे असंख्यात व्यवहार पल्य का १ उद्धार पल्य है !असंख्यात उद्धार पल्य का १ अद्धा पल्य है !ऐसे दस करोड़ अद्धा पल्य का को १० करोड़ अद्धा पल्य से गुना करने पर १ सागर की माप होती है !
१ अवसर्पिणी=१ उत्सर्पिणी =४,१३ x १० की घात ७६ सोलर वर्ष (REf cosmology by Mr.G ,R ,Jain )
५- १ अचल =८४ की घात ३१ x १० की घात ८० से १ अधिक संख्या असंख्यात हो जाती है!सन्दर्भ आदिपुराण पृष्ठ ६५ ,आचार्य जिनसेन विरचित

लोक में मध्य लोक एक झालर के सामान दीखता है जो की चित्र पृथ्वी के तल से सुदर्शन मेरु की चूलिका १लाख ४० योजन ऊँचा और तिर्यक दिशा में लोक के अंत तक १ राजू लम्बे क्षेत्र में असंख्यात द्वीप और समुद्रों से घिरा हुआ है !ये सभी द्वीप समुद्र चित्र पृथ्वी के ऊपर है !
समरू पर्वत के पाण्डुक वन ,पाण्डु ,पांडुकंबला ,रक्त और रक्तकम्ब्ला नमक चार शिलाये है जिनमे क्रमश: भरत ,पश्चिम विदेह,ऐरावत,और पूर्व विदेह क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों के जन्माभिषेक होते है !चारो पाण्डु शिलाओं पर चारो दिशाओं में ३-३ सिंहासन होते है !मध्य के सिंहासन पर जिनेन्द्र भगवन विराजमान होते है और उनके दाए हाथ अर्थात दक्षिण की तरफ सौधर्मेन्द्र और उत्तर में ईशान इंद्र विराजमान होते है !

समुद्रों में लवण समुद्र का जल खारा,क्षीर सागर का जल दूध के समान ,घृतवर सागर का जल घृत के समान ,कालोदधि और पुष्कर सागर ,स्वयभूरमण सागर के जल का स्वाद साम्य जल के समान होता है !बाकी समुद्रो के जल का स्वाद गन्ने के रस के समान होता है !
लवण समुद्र,कालोदधि और स्वयंभूरहै मण सागर में जलचर जीव होते है शेष में नहीं होते !स्वयंभू रमन सागर में महामत्स्य १००० योजन लम्बा २५० योजन चौड़ा और ५०० योजन ऊँचा है !जो की मरकर सातवे नरक में जन्म लेता है !
मध्य लोक में तेरहर्वे रुचिकर द्वीप तक ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय है,!पांचो मेरु पर्वत पर ८०,३० कुलांचल पर ३०,बीस गजदंत पर्वत पर २०,वक्षार गिरी पर ८०,इक्ष्वाकर पर्वत पर ४,मनुशोत्तर पर्वत पर ४,विज्यार्ध पर्वत पर १७०,जम्बू वृक्ष पर ५ शाल्मली वृक्ष पर ५ ,नन्दीश्वर द्वीप पर ५२,कुण्डलगिरी पर्वत पर ४,रूचक द्वीप के रूचक पर्वत पर ४ है !प्रत्येक चैत्यलत में १०८ भव्य जिम प्रतिमाये है ! इनमे ढाई द्वीप में ३९८ अकृत्रिमचैत्यालय है !जम्बू द्वीप में ७८ है !,धातकी खंड और पुश्राद्ध द्वीप में में १५८ -१५८ है !
नन्दीश्वर द्वीप का विस्तार एक सौ तरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है

Animations and Visualizations.

मुनि श्री 108 प्रणम्यसागरजी तत्वार्थ सूत्र with Animation

अधिक जानकारी के लिए …. 

अध्याय 1 | अध्याय 2 | अध्याय 3 | अध्याय 4 | अध्याय 5 | अध्याय 6 | अध्याय 7 | अध्याय 8 | अध्याय 9 | अध्याय 10

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1 thought on “तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra) अध्याय 3

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