उमास्वामीआचार्यश्री नवम अध्याय में ४७ सूत्रों के माध्यम से पांचवे;”संवर”और छटे”निर्जरा ” तत्वों को उपदेशित किया है!सूत्र १ में,संवरतत्व ,सूत्र २ में,संवर के उपाय,सूत्र-३ में निर्जरा तत्व,सूत्र ४ में -गुप्ती के भेद,सूत्र ५ में-समितियों के भेद,सूत्र ६ में -दसधर्मो के भेद,सूत्र ७ में-अनुप्रेक्षाओ के भेद,सूत्र ८-१७ तक परिषहजय और उनके भेद,सूत्र १८ में चारित्र के भेद,१९-२८ तक तप के भेद,२९-४४ तक ध्यान के भेद,४५ सूत्र में सम्यग्दृष्टि से जिनेन्द्र भगवान् के कर्मों की निर्जरा ,सूत्र ४६ में मुनियों के भेद,सूत्र ४७ में मुनि के संयम लब्धि के स्थानों का उल्लेख किया है!अपने कर्मों का संवर और निर्जरा आचर्यश्री के उपदेशों का पालन कर कल्याण के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए !


संवर का लक्षण :-
आस्रव: निरोध: संवर: !!१!!
संधि विच्छेद:-आस्रव:+निरोध:+संवर:
शब्दार्थ-आस्रव:-आस्रव का ,निरोध:-रुकना ,संवर:-संवर है
अर्थ-आस्रव का निरोध संवर है!कर्मो का आत्मा में आना आस्रव और उन कर्मों के आने के कारणों को दूर कर रुकना संवर है!
विशेष:
१-आस्रव के दो भेद;
१-द्रव्यास्राव:कार्माणवर्गणाओ/पुद्गल परमाणुओं का आत्मा की ऒर आना द्रव्यास्राव है और
२-भावास्रव-जिन परिणामों के कारण द्रव्यस्रव होता है वह भावास्रव है!\
संवर के भी दो भेद ,१-द्रव्यसंवर-कार्माण वर्गणाओ का आत्मा की ऒर आने से रुकना द्रव्यसंवर
और
२–भावसंवर-आत्मा के जिन परिणामों के कारण द्रव्यसंवर होता है;भावसंवर है!
२-मिथ्यादर्शन से प्रथमगुणस्थान तक,बारहअविरति के कारण चौथे गुणस्थान तक,त्रस अविरति को छोड़कर,शेष ११ अविरति के कारण पाचवे गुणस्थान तक,प्रमाद के कारण छठे गुणस्थान तक,कषाय के कारण दसवें गुणस्थान तक,योग के कारण तेरहवे गुणस्थान तक आस्रव होता है !मिथ्यात्व के कारण पहले गुणस्थान तक आस्रव होता है और उसके बाद के शेष गुणस्थानों में मिथ्यात्व के अभाव में तत संबंधी मिथ्यात्व के कारण पड़ने वाली सोलह प्रकृतियों;मिथ्यात्व,नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एक सेचतुरेंद्रिय-४जाति,हुँडकसंस्थान,असंप्राप्तासृपाटिकासहनन,नरकगत्यानुपूर्वी, आतप,स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, और साधारण शरीर का संवर हो जाता है!
३-असंयम के तीन भेद-अनंतानुबंधी,अप्रत्यख्यानवरण,प्रत्याख्यावरण के उदय के निमित्त जिन कर्मों का आस्रव होता है,उनके अभाव में,उन कर्मों का संवर है!जैसे अनंतानुबंधी कषायोदय में असंयम की मुख्यता से,आस्रव को प्राप्त होने वाली निंद्रानिंद्रा,प्रचलाप्रचला,स्त्यानगृद्धि,अन्नतानुबन्धी (क्रोध,मान, माया,लोभ),स्त्रीवेद,तिर्यंचायु,तिर्यंचगति,चारमध्य के सहनन(वज्रनाराच,नाराच, अर्द्धनाराच और कीलित),चारसंस्थान(नयोगोध्रपरिमंडल,स्वाति,कुब्जक,वाम),तिर्यंचगत्यानुपूर्वी,उद्योत, अप्रशस्त विहायोगगति,दुर्भाग,दू:स्वर,अनादेय और नीच गोत्र , ये २५ प्रकृतियाँ एकेन्द्रिय से सासादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव के बंधती है,अत:अनंतानुबंधी के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है !
४-अप्रत्याख्यान कषायोदय से होने वाले असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाली अप्रत्याख्यान (क्रोध,मान,माया,लोभ),मनुष्यायु,मनुष्यगति,मनुष्यगत्यानुपूर्वी,औदारिकशरीर,औदारिकअंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसहनन,इन दस प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव बंध करते है!अत:अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है!विशेष बात है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुकर्म का बंध नहीं होता !
५-प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में होने वाले असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाली प्रत्या ख्यावरण(क्रोध,मान,माया,लोभ),इन चार प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से पंचम गुणस्थान तक के जीव बंध करते है !अत:प्रत्यख्यानावरण के कषायोदय से होने वाले असंयम के अभाव में इनका संवर हो जाता है!प्रमाद के निमित्त से होने वाले कर्मो के आस्रव का संवर,उस प्रमाद के अभाव में छठे गुणस्था के आगे हो जाता है !
६-ये असातावेदनीय,अरति,शोक,अस्थिर,अशुभ और अयशकीर्ति ,छ प्रकृतियाँ है!देवायु के बंध का आरम्भ प्रमाद और उसके नजदीकी अप्रमाद हेतु भी होता है !अत:इसका अभाव होने पर उसका संवर जानना चाहिए!जिस कर्म का आस्रव मात्र कषाय के निमित्त से होता है,प्रमादादि के निमित्त से नहीं,उसका कषाय के अभाव में संवर ही है!प्रमादादि के आभाव में होने वाली कषाय तीव्र,मध्यम एवं जघन्य,तीन गुणस्थानों में अवस्थित है!उसमे अपूर्वकरण(८वे )गुणस्थान के प्रारम्भिक असंख्येय भाग में निद्रा और प्रचला प्रकृतियाँबंध को प्राप्त होती है!इसके आगे के संख्येय भाग में ३० प्रकृतियाँ-देव गति,पंचेन्द्रियजाति,(वैक्रियिक,आहारक,तेजस,कार्माण)शरीर,(वैक्रयिक,आहारक)अंगोपाग.समचतुर संस्थान(वर्ण,गंध, रस)शरीर,देवगत्यानुपूर्वी,अगुरुलघु,उपघात,परघात,उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोग गति, त्रसबादर,पर्याप्त, प्रत्येक शरीर,स्थिर,शुभ,सुभग,सुस्वर,आदेय,निर्माण और तीर्थंकर बंध को प्राप्त होती है तथा इसी गुणस्थान में हास्य,रति,भय,जुगुप्सा चार प्रकृतियाँ बंध को प्राप्त होती है!ये तीव्र कषाय से आस्रव को प्राप्त होने वाली प्रकृतियाँ है इसलिए तीव्र कषाय का उत्तरोत्तर अभाव होने के कारण विवेक्षित भाग के आगे इनका संवर हो जाता है!
७-अनिवृत्ति बादर सम्प्राय,नौवे गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर उसके संख्यात भागों में पुरुषवेद और संज्वलनक्रोध,दो प्रकृतियों का,इससे आगे शेष संख्यात भागों में संज्वलन मान और माया,दो प्रकृतियों का और उसी के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का बंध होता है!इन प्रकृतियों का आस्रव मध्यम कषाय के निमित्त से होता है,अत:मध्यम कषाय का उत्तरोत्तर अभाव होने के कारण,विवक्षित भागों के आगे इन प्रकृतियों का संवर हो जाता है!मंदकषाय के निमित्त से आस्रव को प्राप्त करने वाली ज्ञानावरण की ५,दर्शनावरण की ४,यश कीर्ति,उच्च गोत्र और अंतराय कर्म की ५ ,कुल १६ प्रकृतियों का बंध जीव सूक्ष्म सम्प्राय १० वे गुणस्थान में करता है!अत: मंद कषाय का अभाव होने पर इनका आगे संवर हो जाता है!
८-केवल योग निमित्त से आस्रव को प्राप्त होने वाली सातावेदनीय का उपशांतकषाय(११वेगुणस्थान), क्षीणकषाय(१२वेगुणस्थान)और सयोगकेवली(१३वेगुणस्थान)में जीव के बंध होता है!१४वे गुण स्थान अयोगकेवली में,योग के अभाव में इनका संवर हो जाता है!वास्तव में ११,१२,१३ वे गुण स्थान में जो बंध उपचार से कहा है क्योकि यहाँ ईर्यापथ आस्रव होता है अर्थात एक समय में आत्मा में आने वाले कर्म बिना फल दिए अगले समय में ही चले जाते है !
९-संवर,जीवन में नए दोषों और उन दोषो के कारणों को एकत्रित नहीं होने देने का मार्ग है!संवर होने पर ही संचित दोषों व उनके कारणों का परिमार्जन किया जा सकता है!उसके बाद ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है प्राणी मात्र को अपने कल्याण हेतु आस्रव के कारणों को समझकर उनसे बचकर संवर करना चाहिए संवर उपादेय है


संवर के उपाय-
सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः!!२!!
संधि विच्छेद:-स+गुप्ति+समिति+धर्म+अनुप्रेक्षा+परीषहजय+चारित्रै:
शब्दार्थ-स-वह(संवर),गुप्ति,समिति,धर्म,अनुप्रेक्षा,परीषहजय और चारित्र से होता है !
अर्थ:-संवर ३ गुप्तियों-(मन,वचन,काय की प्रवृति रोकना गुप्ति है ),
समितियों-(जीवों की हिंसा से बचने के लिए मन,वचन,काय की प्रवृत्तियां (चलना,उठना,बैठना,ग्रहण करना,रखना,मोचन आदि) यत्नाचार पूर्वक करना समिति है!समिति के पांच भेद है-
ईर्यासमिति,भाषासमिति,ऐषणासमिति,आदाननिक्षेपणसमिति,प्रतिष्ठापन/व्युत्सर्गसमिति!
धर्म-जो संसार के दुखों दूर कर अभीष्ट स्थान,मोक्ष पहुंचा दे,वह धर्म है!धर्म के १० भेद है-
उत्तमक्षमा,उत्तममार्दव,उत्तमार्जव,उत्तमशौच,उत्तम सत्य उत्तामसंयम,उत्तमतप,उत्तमत्याग, उत्तम आकिंचन,उत्तम ब्रह्मचर्य !
अनुप्रेक्षा-संसार,शरीरादि के स्वरुप का पुन:पुन:चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है,अनुप्रेक्षा/भावना १२ भेद है –
अनित्यभावना,अशरणभावना,संसारभावना,एकत्वभावना,अन्यत्वभावना,अशुचिभावना,आस्रवभावना, संवरभावना,निर्जराभावना,लोकभावना,बोधिदुर्लभभावना,धर्मभावना!
परीषहजय-क्षुधा,तृषा,ठंड,गर्मी आदि की वेदना होने पर,कर्मों की निर्जरा के लिए,शांति पूर्वक सहना परीषहजय है.इसके २२ भेद है-शुधा,तृषा,शीत, उष्ण,दंशमशक,नग्नता,अरति, स्त्री,चर्या, निषधा, शैया, आक्रोश,वध,याचना,अलाभ,रोग,तृण स्पर्श,मल,सत्कार पुरूस्कार,प्रज्ञा,अज्ञान,अदर्शन !
चारित्र-संसार भ्रमण से बचने के लिए,कर्म बंध योग्य क्रियाओं का त्यागना चारित्र है !इसके ५ भेद है –
सामयिक,छेदोपस्थापना,परिहारविशुद्धि,सूक्ष्म सम्प्राय और यथाख्यात
भावार्थ-गुप्ति,समिति,धर्म,अनुप्रेक्षा,परीषहजय और चारित्र धारण करने से कर्मों का आस्रव रुकेगा, इन्ही से संवर होगा,जो की सूत्र में ‘स’ पद से सूचित होता है!इस कथन से तीर्थयात्रा करने,अभिषेक करने,दीक्षालेने,उपहार स्वरुप शीर्ष अर्पण करने अथवा देवताओं की आराधना आदि करने का निराकरण हो जाता है!मन,वचन काय की प्रवृत्ति के कारण आस्रव होता है,इनकी प्रवृत्ति को रोकने से कर्मों का संवर होता है! उक्त छ: संवर में कारण है


निर्जरा-संवर के कारण
तपसा निर्जराच !!३!!

संधि विच्छेद-तपसा+निर्जरा+च
शब्दार्थ-तपसा -तप से,निर्जरा-कर्मों की निर्जरा भी होती हैं ,च-और संवर भी होता है
अर्थ:-तप से निर्जर भी होती है !
भावार्थ-तप से संवर होता है और निर्जर भी होती है
विशेष-यद्यपि तप का अंतर्भाव १० धर्मों में हो जाता है किन्तु तप को अलग से कहने का भाव है कि इससे नवीन कर्मों का आना भी रुक जाता है और पूर्व बंधे कर्मों की निर्जरा भी होती है तथा तप संवर का मुख्य कारण है !
शंका-तप को सांसारिक अभ्युदय का कारण माना है क्योकि उसे देवेन्द्रादि पदों के प्राप्ति का कारण माना है,अत: वह निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है ?
समाधान-तप का प्रमुख फल,कर्मों का क्षय ही है और गौण फल सांसारिक अभ्युदय की प्राप्ति है जैसे, गेहूं की खेती मे प्रधान फल गेहूं उत्पन्न करना है,और गौण फल भूस है!इसी प्रकार तप भी अनेक कार्य करता है!अत:तप अभ्युदय एवं कर्म क्षय,दोनों का हेतु है !

गुप्ति के लक्षण और भेद-
सम्यग्योगनिग्रहोगुप्ति:!!४ !!
संधि विच्छेद-सम्यग्योग+निग्रहो+ गुप्ति:
शब्दार्थ-सम्यग्योग-भली प्रकार,अर्थात प्रशंन्सा/वाहवाही के लिए नहीं वरन आत्मकल्याण के लिए ,योग – मन,वचन,काय के की प्रवृत्ति,निग्रहो -को रोकना ,गुप्ति -गुप्ति है!
भावार्थ-मन की प्रवृत्ति रोकना मनोगुप्ति.वचन की प्रवृत्ति को रोकना वचनगुप्ति और काय के प्रवृत्ति रोकना कायगुप्ति है!आचार्यों ने यहाँ अशुभ प्रवृत्ति को रोककर शुभ प्रवृत्ति करना भी गुप्ति कहा है!
विशेष-योग अर्थात मन,वचन,काय की स्वछन्द प्रवृति रोकना निग्रह है सम्यक विशेषण से लौकिक प्रतिष्ठा अथवा विषय सुख की अभिलाषा से मन वचन काय की प्रवृत्ति का निषेध किया है!अर्थात लौकिक प्रतिष्ठा अथवा सुख की वांछा से मन वचन काय की प्रवृत्ति को रोकना गुप्ती नहीं है !अत: जिसमे परिणामों में किसी प्रकार का संक्लेश पैदा नहीं हो,इस रीति से मन वचन काय की स्वेच्छा चारिता को रोकने से,उसके निमित्त से होने वाले कर्मों का आस्रव नहीं होता ,उस गुप्ती के मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ती तीन भेद है!
यद्यपि मुनिराज मन,वचन,काय की प्रवृत्ति को रोकते है किन्तु उन्हें भी आहार,निहार और विहार के लिए प्रवृत्ति अवश्य करनी पड़ती है !


समिति के भेद –
ईर्या-भाषैषणादान-निक्षेपोत्सर्गाःसमितयः ५
संधि विच्छेद-ईर्या +भाषा+ऐषणा+आदान+निक्षेपण+उत्सर्गा+समितय:
अर्थ-ईर्यासमिति,भाषासमिति,ऐषणासमिति,आदाननिक्षेपणसमिति और उत्सर्गसमिति ,५ समितियां है! यहाँ भी सम्यक पद की पुनरावृत्ति होती है!
सम्यक ईर्यासमिति-चार-हाथ जमीन देखकर इस भाव से चलना की किसी जीव की हिंसा नहीं हो जाये,ईर्या समिति है !
सम्यकभाषासमिति-हित-मित.प्रिय वचन बोलना, भाषासमिति है!
सम्यकऐषणासमिति -४६ दोषों से रहित निरन्तराय आहार ग्रहण करना ऐषणा समिति है!
सम्यकआदाननिक्षेपणसमिति-सावधानी पूर्वक,इस भाव से कि किसी जीव की हिंसा नहीं हो जाए वस्तु स्थान से उठाना और पीछी से स्थान साफ़ कर वस्तु रखना,आदाननिक्षेपण समिति है !
सम्यकउत्सर्गसमिति-मल,मूत्र ,कफ आदि क्षेपण करने से पहले उस स्थान को पिच्ची से साफ कर जीव रहित करना,उत्सर्ग समिति है!
पिच्छी के बिना गमन नहीं करना है अन्यथा समितियों का पालन न हो सकेगा,आज कल पिच्ची को आशीर्वाद देने का उपकरण बना लिया गया है,गलत है ,ऐसे नहीं है,वह तो मुनिराज के पास भूमिस्थान आदि के शोधन हेतु होती है! संयम का उपकरण है!


धर्म के भेद –
उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्म: !!६!!
संधि विच्छेद:-
उत्तम+(क्षमा+ मार्दव+आर्जव+शौच+सत्य+संयम +तप+स्त्याग+आकिञ्चन्य +ब्रह्मचर्याणि+धर्म:
शब्दार्थ:-_
उत्तमक्षमा-सम्यग्दर्शन सहित,आत्मकल्याण के लिए क्षमा,क्रोधादि का प्रसंग आने पर रोक देना।क्रोध के निमित्त होने पर भी परिणामों में मलिनता को नियंत्रित कर क्रोधित नही होना !जैसे कोई भिक्षु आहार आदि लेने जाते समय किसी के द्वारा अपशब्द कहने पर (गाली आदि देने पर ),परिणामों में कलुषता नहीं आने दे, उत्तम क्षमा है !
उत्तममार्दव-सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान,उत्तम कुल,उत्तम जाति,रूप,ऐश्वर्य,/ सम्पत्ति आदि होने पर घमंड नहीं करना, मार्दव धर्म है ,मार्दव से अभिप्राय मान/घमंड नही करने से है!
उत्तमआर्जाव-सम्यग्दर्शन सहित योगों (मन,वचन,काय) की कुटिलता नहीं होना उनमे सरलता होना /मायाचारी का अभाव होना/छल कपट नहीं करना,उत्तम आर्जव धर्म है
उत्तमशौच-सम्यग्दर्शन सहित लोभ का अत्यंत त्यागी होना,चार लोभ-जीवन,निरोगता,इन्द्रियों और योग्य सामग्री का भी लोभ नहीं होना ,उत्तम शौच धर्म है !
उत्तमसत्य -सम्यग्दर्शन सहित झूठ नहीं बोलना अर्थात रागद्वेष पूर्वक असत्य वचन का बोलने का त्यागी होना,हित -मीत वचन बोलना, उत्तम सत्य धर्म है !
उत्तमसंयम-सम्यग्दर्शन सहित,अर्थात ईर्या आदि समितियों का पालन करते हुए प्रवृत्त रहते हुए एकेंद्रिय स्थावर जीव से पंचेन्द्रिय षटकाय जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं देते हुए उनकी रक्षा करना,प्राणी संयम है !स्वयं का पंचेंद्रियो और मन के विषयों में राग नहीं होना इन्द्रिय संयम है इन दोनों संयम का पालन उत्तम संयम है !
उत्तमतप-सम्यग्दर्शनसहित,अर्थात;अनशन,अवमौर्द्य,रसपरित्याग,वृत्तिपरिसंख्यान,विविक्तशय्या- सन,कायाकलेश,प्रायश्चित,विनय,वैयावृत्य,व्युत्सर्ग और ध्यान,१२ तपों को कर्मों के क्षय के लिए तपना, उत्तम तप है!
उत्तमत्याग- सम्यग्दर्शन सहित,चेतन और अचेतन परिग्रहों को/ममत्व को त्यागना ,त्याग है!यह उत्तम त्याग है !संयत के लिए चार प्रकार का दान देना,वस्तुओं से ममत्व छोडना त्याग है !
उत्तमआकिञ्चनय-सम्यग्दर्शन सहित;पर पदार्थों शरीर आदि से ममत्व भाव त्यागना ,पिच्ची,कमंडल से ममत्व छोड़,सिर्फ आत्मा को अपनी मानना ,उत्तम आकिंचन है
उत्तमब्रह्मचर्य-सम्यग्दर्शन सहित, स्त्री के साथ पूर्व में भोगे सुखों को स्मरण नहीं करना ,उन की कथा सुनने से विरत होकर और उनके साथ एक ही शैय्या पर नही बैठकर केवल स्वआत्मस्वरुप में लीन रहना,उत्तमब्रह्मचर्य है!
धर्म:-ये धर्म है!
भावार्थ-उत्तमक्षमा,उत्तममार्द्व,उत्तमआर्जव,उत्तमशौच,उत्तमसत्य,उत्तमसंयम,उत्तमतप,उत्तम त्याग, उत्तमआकिंचन,उत्तमब्रह्मचर्य ,ये दस धर्म संवर के कारण है !
विशेष-
१-इन १० धर्मों से, प्रतिकूल प्रवृत्ति होने से उत्पन्न परिणामो से जो आस्रव होता है,वह इनके अनुरूप प्रवृत्ति होने से,उत्पन्न परिणामो से रुक जाता है!अर्थात क्षमा धारण करने से क्रोध के द्वारा होने वाले आस्रव का निरोध होता है!
२-दसधर्म आत्मा के स्वभाव है,सत्य या शौच को पहले या पीछे रखने से कोई फर्क नहीं पड़ता ,तत्वार्थ सूत्र की परम्परा में पहले शौच है और बाद में सत्य है,दसों धर्म आत्मा में प्रति समय रहने चाहिए !
३-‘उत्तम’ विशेषण का अभिप्राय है की यदि क्षमा आदि किसी लौकिक प्रसिद्धि केप्रयोजन से करी जा रही है तो वह उत्तम क्षमा नहीं है
शंका-सत्य धर्म का अंतर्भाव भाषा समिति के अंतर्गत हो जाता है फिर इसमें क्या अंतर है?
समाधान-संयमी मनुष्य किसी साधूजनों/असाधुजनों से भी बातचीत करते हुए हितमित वचन ही बोलता है अन्यथा बहुत बातचीत करने से अनर्थदण्ड आदि दोष का भागी होता है,यह भाषा समिति है !
सत्य धर्म में प्रवृत्त मुनि/सज्जनपुरुष/दीक्षित अपनेके भक्तो में,सत्य वचन बोलता हुआ भी,ज्ञान चारित्र के शिक्षण के निमित्त से बहुविध कर्तव्यों की सूचना देते है!वह ये सब धर्मवृद्धि के अभिप्राय से करता है !इसलिए सत्य धर्म का, भाषासमिति में अंतर्भाव नहीं होता है!अर्थात सत्यधर्म में संयमीजनों को ,श्रावक को ज्ञान चरित्र की शिक्षा देने के उद्देश्य से अधिक बोलना पड़ता है जो की उचित है!

बारह अनुप्रेक्षाये –
अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव-संवर-निर्जारा-लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानु चिंतनमनुप्रेक्षा !!७ !!
संधिविच्छेद-अनित्य+अशरण+संसार+ऐकत्व+अन्यत्व+अशुचि+आस्रव+संवर+निर्जारा+लोक+बोधिदुर्लभ+धर्म+ स्वाख्या +तत्त्वानु+चिंतनं +अनुप्रेक्षा
शब्दार्थ-
अनित्य अशरण-संसार एकत्व अन्यत्व अशुचि आस्रव संवर-निर्जारा-लोक+बोधिदुर्लभ धर्म
स्वाख्या-इनका जैसे स्वरुप कहा गया है,तत्त्वानुचिंतन-उसी के अनुसार चिंतवन करना, अनुप्रेक्षा -अनुप्रेक्षा है!
भावार्थ-
अनित्य,अशरण,संसार,एकत्व,अन्यत्व,अशुचि,आस्रव,संवर,लोक,बोधिदुर्लभ और धर्म भावनाओं का जैसे स्वरुप कहा गया है तदानुसार (पुन:पुन:) चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है !

  1. अनित्य भावना– संसार में इन्द्रिय विषय,धन,सम्पत्ति,यौवन,जीवन,पुत्र,पिता,पत्नि,माँ आदि सब जल के बुलबुले के समान क्षण भंगुर है,इस प्रकार चिंतवन बार बार करने से इनका वियोग होने पर जीव को दुःख नहीं होता क्योकि वह इन्हे नित्य मानकर दुखी नहीं होता है,अनित्यभावना/ अनुप्रेक्षा है!वास्तव में आत्मा के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग स्वभाव के अतिरिक्त कुछ भी ध्रुव नहीं है
  2. अशरण भावना- संसार में धर्म के अतिरिक्त किसी की शरण नहीं है,यहाँ तक की अपना पोषित शरीर भी कष्ट में अपना साथ नहीं देता बल्कि कष्ट का ही कारण होता है,बंधु,मित्र ,रिश्तेदार मृत्यु से रक्षा नहीं कर पाते है!’मै सदा अशरण हूँ’,इस भाव के रहने से जीव को संसार के कारण,पर पदार्थों में ममत्व भाव नहीं रख अरिहन्तदेव द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलने का प्रयास करता है!इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना अशरण भावना है!
  3. संसारभावना- संसार के सभी जीव चतुर्गति में घूमते हुए,कभी धनवान/निर्धन,स्वयं का ही पुत्र ,पत्नी,स्वा मी,दास-दासी बनते हुए,दुख भरते है,अत:संसार असार है!इस प्रकार चिंतवन करने से जीव,संसार के दुखो से भयभीत रहते हुए,अपने संसार को नष्ट करने में प्रयत्नशील रहता है !इस प्रकार का निरंतर चिंतवन संसार भावना/अनुप्रेक्षा है !
  4. एकत्व भावना– जीव संसार में अकेला जन्म लेता है,अकेला मरता है,अपने किये कर्म फल अकेला भोगता है!मेरा कोई अपना नहीं है,इस प्रकार चिंतवन करना एकत्व भावना है!वह विचार करता है मेरा केवल धर्म साथ देने वाला है,ऐसे चिंतवन करने से जीव को स्वजनो के प्रति राग और पर जनो से द्वेष का बंध नहीं !
  5. अन्यत्वभावना– मै अकेला ही आत्मस्वरूप हूँ अन्य शरीर पुत्र,पत्नी,पति आदि मेरा कोई नहीं है,पर है! शरीर आदि अनित्य,परपदार्थों से अपनी आत्मा को भिन्न,नित्य समझना अन्यत्व भावना है!इस भावना से अपने शरीरादि से भी मोह नहीं रहता है,जिससे तत्वज्ञान की भावपूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होने पर आत्यंतिक मोक्ष सुख के प्राप्ति होती है !
  6. अशुचिभावना– शरीर सप्त धातुओं से निर्मित होने के कारण उसकी अशुचिता/अपवित्रता,जो की किसी भी स्नान करने या,धुप,इत्र आदि लगाने से दूर होना असम्भव है,वह अशुचिता जीव की मात्र,अच्छी भावना द्वारा समयग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त कर आत्यंतिक विशुद्धि प्रकट कर दूर होती है!इस प्रकार चिंतवन करना वास्तविक अशुचि भावना है!इसप्रकार चिंतवन करने वाले जीव शरीर से विमु- क्त होकर मोक्ष मार्ग की ओर प्रयासरत रहते है !
  7. आस्रवभावना– जिन कारणों से कर्म आस्रव होता है उनका पुन:पुन:चिन्तवन करना!आस्रव भावना है!आस्रव इहीलोक और परलोक दोनों में दुखदायी है!आस्रव के दोष इन्द्रिय,कषाय और अव्रत रूप है उनमे स्पर्शनादि इन्द्रिय वन गज,कौवा,सर्प,आदि को दुःख रूप समुद्र में अवगाहन करवाती है,कषायादि भी इस भव में वध,अपयश,क्लेषादिक उत्पन्न करते है तथा परलोक में दुखों से प्रज्व लित नाना गतियों में घूमती है इसप्रकार आसव के कारणों का चिंतन करना आस्रव अनुप्रे क्षा है!
  8. संवर भावना- जिन कारणों से आस्रव रुकता है उनका पुन: चितवन करना,संवर भावना है!जिस प्रकार पानी के जहाज मे छिद्र होने पर,निरन्तर जहाज में पानी के आस्रव से यात्रियों को सागर पार करना असम्भव है उसी प्रकार कर्मों के आस्रव के कारण जीव को संसार सागर पार करना असम्भव है!किन्तु आत्मा में कर्मों का आस्रव रोक दिया जाए/संवर कर दिया जाए (कर्मों को रोक दिया जाए) तो संसार सागर पार करना उसी प्रकार संभव है जैसे जहाज में छिद्रों को बंद कर,जहाज में पानी का जल आने से रोक देने पर समुद्र पार किया जा सकता है!इस प्रकार संवर के गुणों का चिंतवन करना संवर अनुप्रेक्षा है
  9. निर्जरा भावना– उन कारणों का चिंतवन करना जिनसे कर्मों की निर्जरा होती है!कर्मों का आत्मा से तप से पृथक होना अविपाक निर्जरा है जो की मोक्ष प्राप्ति में कारण है!इस प्रकार निर्जरा तत्व का चिंतवन निर्जरा अनुप्रेक्षा है !
  10. लोकभावना– लोक का चिंतवन जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताये अनुसार करना जैसे,३४३ घन राजू प्रमाण लोक की रचना है इत्यादि का निरंतर चिंतवन करना लोकभावना है!इस प्रकार चिंतवन करने वाले जीव के तत्व ज्ञान की विशुद्धि होती है !
  11. बोधिदुर्लभभावना– रत्नत्रय की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है किन्तु मनुष्य पर्याय में प्राप्त करी जा सकती है, इसलिए मुझे उसमे लगना चाहिए,इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना बोधिदुर्लभभावना है !
  12. धर्म भावना- मिथ्यात्व और कषाय रहित आत्मा के परिणाम ही धर्म है,अरिहंत देव द्वारा कहा धर्म ही मोक्ष का कारण है,यही संसार और परलोक में सुख का कारण है,अत:मुझे धर्म में लगना चाहिए,इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना धर्म भावना है!इस धर्म का लक्षण अहिंसा,आधार-सत्य,मूल-विनय,बल-क्षमा,ब्रह्मचर्य से रक्षित,उसकी उपशम प्रधानता है,नियति लक्षण है!परिग्रह रहित होना उसका अवलंबन है!इसके अभाव में जीव भ्रमण करता है!किन्तु इसका लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदय पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है!इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना धर्म अनुप्रेक्षा है !


उक्त बारह भावनाओ का आगमानुसार चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है !
संवेग वैराग्य भाव के लिए इन १२ भावनाओ का चिंतवन हम सबको प्रात; काल उठकर करना चाहिए !


परीषह सहना –
मार्गाच्यवननिर्जरार्थपरिषोढव्याःपरीषहा:!८!
संधि विच्छेद-मार्ग+अच्यवन+निर्जरार्थ+परिषोढव्याः+परीषहा:
शब्दार्थ-मार्ग-मार्ग (संवरमार्ग से),अच्यवन-अच्युत होने के लिए,निर्जरार्थ-कर्मों की निर्जरा के लिए परिषोढव्याः-जो सहने योग्य है,परीषहा-परीषह है !
अर्थ-मार्ग से अच्युत रहने और कर्मों की निर्जरा हेतु सहने योग्य को परिषह: कहते है!
भावार्थ-संवर का प्रसंग होने से, संवर के मार्ग(लेना चाहिए) से अच्युत तथा कर्मों की निर्जरा रहने हेतु सहने योग्य को,परीषह है !
विशेष-जिनेन्द्र भगवान द्वारा सहने योग्य क्षुधा,तृषा,शीत,उष्ण,दंशमंडक,अरति आदि परीषहों के २२ भेद अगले सूत्र में बताये गए है!संवर से च्युत नहीं होकर कर्मों की निर्जरा के लिए आवश्यक है !यदि परीषह सहने का अभ्यास नहीं होगा तो मुनिराज के महाव्रतों का पालन,साधना आदि भली भांति नहीं हो पायेगी!जैसे मान लीजिये किसी दिन मुनिराज को आहार नहीं मिला और क्षुधा.तृषा आदि परीषह सहने का अभ्यास नहीं है तो साधना,तप समायिकी,ध्यान आदि में एकाग्रचित हो कर बैठ नहीं पायेगे क्योकि भूख और प्यास के कारण मन बार २ विचलित होगा,साधना में विघ्न पड़ेगा!

परीषहों के भेद -क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंतमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषध्याशय्याक्रोश वधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरुस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ९ संधि विच्छेद -क्षुत+पिपासा शीत+उष्ण+दंतमशक+नाग्न्य+ अरति+स्त्री+चर्या+निषध्या+शय्या +आक्रोश +वध +याचना +लाभ +रोग + तृणस्पर्श+मल+सत्कारपुरुस्कार+प्रज्ञा+अज्ञान +अदर्शनानि
अर्थ -क्षुधा परीषह-आहार नहीं मिलने पर भूख को समता पूर्वक सहना क्षुधा परीषह जय है
पिपासा परीषह-प्यास को समता पूर्वक सहना पिपासा परीषह जय है!
शीतपरीषह-ठण्ड को बिना हीटर आदि का प्रयोग करे समतापूर्वक सहना,शीत परीषहजय है अन्यथा त्रस /स्थावर जीवों की हिंसा होती है,जिस से मुनिराज के अहिंसा महाव्रत का पालन नहीं हो पायेगा,!
उष्ण परीषह-गर्मी;बिना पंखे,कूलर,ए.सी चलाये समता पूर्वक सहना,उष्ण परीषहजयहै !अन्यथा त्रस/स्थावर जीवों की हिंसा होगी,जिस से अहिंसामहाव्रत का पालन नहीं होगा !
दंतमशक परीषह-मच्छर आदि के काटने पर भी समता परिणाम होना,दंतमशक परीषह जय है!
नाग्न्य परीषह-अपने नग्न स्वरुप के कारण ग्लानि का अनुभव नहीं करना,अपनी नग्नता को पिच्छी आदि से शर्म के कारण नहीं ढकना,नाग्न्य परीषह जय है!
अरति परीषह-कोई अरुचिकर ठहरने का स्थान मिलने पर उसके प्रति अरति भाव नहीं होना,जैसे पहले इस स्थान को ठीक करो अन्यथा मै यहाँ कैसे रहूंगा,ऐसा नहीं कहना ,अरति परीषह जय है !
स्त्री परीषह-स्त्रियों के द्वारा दूषित हाव भाव अथवा प्रदर्शन से रंचमात्र विकारी भावों को मन में नहीं आने देना स्त्रीपरीषह जय है !
चर्या परीषह गमन के समय थकने पर,रात्रि निकट होने पर,खेद खिन्न नहीं होना चर्यापरीषह जय है !
निषध्यापरीषह-ध्यान हेतु नियमितकाल पर्यन्त स्वीकृत आसन से विचलित नहीं होना,निषध्या परीषह जय है!
शय्यापरिषह-जीवों की रक्षा के लिए विषम कठोर,कंकरीले आदि स्थानों पर एक करवट से निंद्रा लेना और उनसे कष्ट होने पर भी शरीर को चलायमान नहीं करना शय्या परिषह जय है जय है
आक्रोश परीषह-दुष्ट जीवों के द्वारा अपशब्द कहे जाने क्रोधित नहीं होना,समता भाव से सहना आक्रोश परीषह जय है!
वध परीषह-किसी के द्वारा तलवार से प्रहार किये जाने पर भी उससे द्वेष रूप परिणाम नहीं होना वध परीषह जय है !
याचना परीषह-प्राणों का वियोग की स्थिति होने पर भी किसी से आहारादि की याचना नहीं करना,याचना परीषह जय है!
अलाभ परीषह-भिक्षा नहीं मिलने पर भी समता पूर्वक सहना ,अलाभपरीषह जय है!
रोग परीषह-शरीर में रोग हो जाने पर ऐलोपथिक इलाज़ नहीं कराना,उसकी वेदना शांत परिणामों से सहना रोगपरीषह जय है
तृणस्पर्श परीषह-चलते समय पैरों में कंकड़,पत्थर आदि चुभे तो उन्हें शांत परिणामों के साथ सहना,तृणस्पर्श परीषह जय है
मल परीषह-मुनि महाराजों के शरीर में,त्रस/स्थावर जीवों की हिंसा से बचने के लिए,स्नान का त्याग होने के कारण,मल जमने पर भी उसको हटाने की व्यवस्था नहीं करवाना,उससे ग्लानी नहीं करना,मलपरीषह जय है !
सत्कारपुरुस्कार परीषह-किसी स्थान पर जाने पर कोई स्वागत सत्कारपुरुस्कार करने वाला नहीं मिलने पर रंचमात्र भी मन में कलुषता नहीं आने देना! यदि २०००-३०००-आदमी सत्कार के लिए आये तब भी तनिक मात्र घमंड नहीं करना,सत्कार पुरुस्कार परीषह जय है!प्रज्ञा परीषह-ज्ञान की अधिकता होने पर भी घमंड नहीं ,सत्कार पुरूस्कारपरिषहजय है!
प्रज्ञा परिषह-शास्त्र का ज्ञान होने पर भी कोई कहे कि इन्हे कुछ नहीं आता ,ऐसे वचनों को सहना प्रज्ञा परिषह जय है !
अज्ञानपरीषह-ज्ञान की कमी होनेपर,अन्य ज्ञानियों द्वारा तिरिस्करित होने पर शांत भाव से सहना, अज्ञान परीषह जय है!
अदर्शनपरीषह -बहुत समय तक तपश्चरण करने पर भी ज्ञान,ऋद्धियों आदि उपलब्ध नहीं होने पर,भी अश्रद्धान भाव नहीं होना ,अदर्शन परीषह जय है!
इस प्रकार आचार्य उमा स्वामी जी ने आगमानुसार २२ परीषह बताये है जिन पर मुनिराजों को जय करना अत्यंत आवश्यक है!

१०वे ,११वे,एवं १२वे वें गुणस्थानों में परिषह:-
सूक्ष्म-साम्प्रायच्छद्मस्थवीतरागयो श्चतुर्दशा !!१० !!
संधि विच्छेद-सूक्ष्म-साम्प्राय:+ छद्मस्थ+वीतरागयो: चतुर्दशा
शब्दार्थ-सूक्ष्मसाम्प्राय-सूक्ष्मसाम्पराय(१०वेगुणस्थान), छद्मस्थवीतराग अर्थात उपशांतमोह ११वे गुण स्थान -वीतरागयो-वीतराग -क्षीण मोह ;१२वे गुणस्थान में, चतुर्दशा-चार+दस अर्थात १४ परिषह होते है !
अर्थ-१०वे सूक्ष्मसाम्पराय,११वे उपशांतमोह और १२वे वीतराग (क्षीणकषाय गुणस्थानों) में १४ परिषह ही होते है !
इन गुणस्थानों में १४ परिषह; क्षुधा,तृषा,शीत,उष्ण दंशमशक,चर्या,शय्या,वध,अलाभ,रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान होती है
शंका-११वे और १२वे गुणस्थान में मोहनीयकर्म का पूर्णतया क्षय होजाने से,उसके उदय में होने वाले ८ परिषह नही होते किन्तु दसवे गुणस्थान में तो मोहनीय कर्म के संज्वलन लोभ का उदय होता है फिर ये ८ परिषह क्यों नहीं होते ?
समाधान-१० वे गुणस्थान में चूँकि संज्वलनलोभ कषाय का अत्यंक सूक्ष्म उदय रहता है इसलिए वह भी वीतराग छद्मस्थ के तुल्य है ,अत; मोहनीय कर्म के उदय में होने वाली ८ परिषह वहां नहीं होती !
शंका -इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता नही होने से और मंद उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है इसलिए इनके कार्य रूप से ‘परिषह सज्ञा युक्ति को प्राप्त नहीं होती !
समाधान-ऐसा नहीं है क्योकि यहाँ शक्ति मात्र विवक्षित है! जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव के सातवी पृथ्वी तक गमन के सामर्थ्य के निर्देश है उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए !
सयोगकेवली १३ वे गुणस्थान में परिषह –
एकादशजिने!!११ !!
सन्धिविच्छेद -एकादश+जिने
शब्दार्थ-एकादश-ग्यारह परिषह संभव है ,जिने-जिनेन्द्र भगवान् के
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के ११ परिषह होती है
भावार्थ-संयोगकेवली ,१३वे गुणस्थान में जिनेन्द्र भगवान के उक्त १४ परीषहों में से अलाभ,प्रज्ञा और अज्ञान के अतिरिक्त शेष ११ परिषह होती है
विशेष-जिनेन्द्र भगवान ने यद्यपि चार घातिया कर्मों का क्षय कर लिया है किन्तु वेदनीयकर्म का सद्भाव होने के निमित्तक से ११ परिषह होते है !
शंका-केवली ११ परिषह में क्षुधा /प्यास भी है तो उन्हें भूख प्यास की बांधा होनी चाहिए ?
समाधान-मोहनीयकर्म के क्षय से,उसके उदय का अभाव होने पर वेदनीयकर्म में भूख-प्यास की वेदना उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रहती है!घतियाकर्मों के क्षय से उत्पन्न चतुष्टाय से युक्त केवली भगवान के अंतरायकर्मों का अभाव होता है और निरंतर शुभ नो कर्म वर्गणाओं का संचय होता है इन परिस्थिति यों में निसहाय वेदनीय कर्म अपना कार्य नहीं कर पाता इसलिए केवली भगवान को भूख /प्यास की वेदना नही होती !केवली के वेदनीय कर्म का सद्भाव है इस अपेक्षा उपचार से उनके ११ परिषह कहे गए है वास्तव में उनके एक भी परिषह नहीं होता !
युक्ति पूर्वक प्रमाण,केवली भगवन के क्षुधा,पिपासा आदि परिषह नहीं होते!
१-केवली जिन के शरीर में निगोदिया और त्रस जीव का अभाव १२वे,क्षीणमोह गुणस्थान में होकर वे परमौदारिक शरीर धारक होते है!अत:भूख,प्यास,रोगादि के कारणों का अभाव होने से उन्हें इनकी वेदना नहीं होती!देवों के शरीर में इन जीवों के अभाव में जी विशेषता होती है,उससे अनंतगुणी इनके शरीर में होती है !
२-श्रेणी आरोहण पर प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा प्रति समय बढ़ता है और अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग प्रति समय अनंत गुणा घटता जाता है ;सलिए १३वे गुणस्थान में असाता वेदनीय प्रकृति का उदय इतना प्रबल ही नहीं रहता की वह क्षुधा/पिपासा आदि परिषह से पीड़ित करे,जिससे उसे क्षुधादि जैसे कार्य का सूचक माना जा सके!
३-असातावेदनीय की उदीरणा छट्ठेगुणस्थान तक ही होती है,आगे नही,अत:उदीरणा के अभाव में वेदनीय कर्म क्षुधादि का वेदन कराने में असमर्थ है!जब केवली जिन के शरीर को पानी/भोजन की आवश्यकता ही नहीं है,तो इनके नहीं मिलने पर उन्हें शुधा/तृषा आदि कैसे हो सकती है?वेदनीयकर्म का कार्य शरीर में पानी और भोजन तत्व का अभाव करना नहीं है,उनका अभाव अन्य कारणों से होता है!हाँ इनके अभाव में वेदना का आभास होना वेदनीयकर्म का कार्य है!अब केवली जिन के शरीर को उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती तब वेदनीयकर्म के निमित्त से तज्जनित वेदना कैसे हो सकती है!
४-केवली जिन के सातास्रव सदा काल होने से उसकी निर्जरा भी सदा काल होती है!इसलिए जिस काल में असाता का उदय होता है,उस काल में सिर्फ उसी का उदय नहीं होता बल्कि उसके साथ अनन्तगुणी साता के साथ वह उदय में आता है!यद्यपि उसका स्वमुख उदय होता है किन्तु वह प्रति समय बंधने वाले कर्म परमाणुओं की निर्जरा सहित होता रहता है!इसलिए असाता उदय वहां क्षुद्धादि रूप वेदना का कारण नहीं होता !
५-सुखदुख वेदन का वेदनीय कर्म का कार्य है किन्तु मोहनीयकर्म के अभाव में नहीं होता अर्थात मोहनीय कर्म के अभाव में सुख दुःख का वेदन कराने में वेदनीय कर्म असहाय है!केवली जिन के मोहनीय कर्म का अभाव होता है अत:क्षुधा,पिपासा रूप वेदनाओं का सद्भाव होना युक्ति संगत नहीं है !
उक्त पांच प्रमाणों से प्रमाणित होता है कि केवली भगवंतों को क्षुद्धादि ११ परिषह नहीं होते !सूत्र में उपचार से कहे गए है क्योकि वेदनीय कर्म का सद्भाव तो केवली को है!

छठे गुणस्थान तक परिषह-

बादरसाम्परायेसर्वे!!१२!!
संधि विच्छेद:-बादर+साम्पराये+सर्वे
शब्दार्थ-बादर-स्थूल,साम्पराये-कषाय तक,सर्वे-सभी परिषह होते है
अर्थ-स्थूल कषाय तक /छठे गुणस्थान तक सभी परिषह होते है !
भावार्थ-जीव के स्थूल कषाय अर्थात छठे गुणस्थान तक सभी २२ परिषह होते है!
विशेष-बादरसाम्पराय,अनिरिवृत्तिकरण नामक नौवे गुणस्थान का अन्त्दीपक न्याय से दूसरा नाम है!सूत्र में ‘बादरसाम्प्राय पद’ से इस गुणस्थान के ग्रहण के निषेध के लिए टीकाकार ने कथन किया है क्योकि बादर साम्प्राय(स्थूलकषाय) में तो २२ परिषह संभव है,किन्तु इस बादरसाम्प्राय नामक नौवे गुणस्थान में नहीं क्यो कि इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय का उदय नहीं होता!दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों में से,सम्यक्त्व मोहनीय का उदय ७ वे अप्रमत्त गुणस्थान तक ही सम्भव है क्योकि यही तक वेदक सम्यक्त्व होता है,इसलिए बादरसंपारायसम्प्राय अर्थात स्थूल कषाय में सब परिषह संभव है,यही अर्थ लेना चाहिए न की नौवे गुणस्थान तक !


ज्ञानावरण के उदय में होने वाली परिषह –
ज्ञानावरणेंप्रज्ञाज्ञाने!!१३!!
संधि विच्छेद-ज्ञान+आवरणें+प्रज्ञा+अज्ञाने
शब्दार्थ-ज्ञाना-ज्ञान,आवरणें-आवरण से,प्रज्ञा-प्रज्ञा और अज्ञान- दो परिषह होते है
अर्थ:-ज्ञानावरण के उदय में प्रज्ञा और अज्ञान,दो परिषह होते है !
शंका-ज्ञानावरण के उदय में अज्ञान परिषह होना ठीक है किन्तु प्रज्ञा कैसे हो सकता है क्योकि प्रज्ञा का अर्थ ज्ञान है,और ज्ञान आत्मा का स्वभाव है !
समाधान-प्रज्ञा परिषहजय का अर्थ ज्ञान का मद न होने देना है;मद,ज्ञानावरण उदय में ही होता है जिसके सम- स्त ज्ञानावरण नष्ट हो जाते है उसको ज्ञान का मद नहीं होता,अत; प्रज्ञा परिषह ज्ञानावरण के उदय में होता है


दर्शनमोह और अंतराय कर्म के उदय में होने वाले परिषह –
दर्शन-मोहान्तराययोरदर्शनालाभौ !!१४!!
संधि विच्छेद -दर्शन+मोहनीययो+अंतराययो:+अदर्शन+अलाभौ
शब्दार्थ-दर्शन-दर्शन,मोहनीययो-मोहनीय के,अंतराययो-अंतराय के उदय में,क्रमश:अदर्शन-अदर्शन,अलाभौ -अलाभ परिषह होते है !
अर्थ-दर्शन मोहनीय कर्म के उदय में अदर्शन और अंतराय कर्म के उदय में अलाभ परिषह होते है !
विशेष-
अदर्शन भाव मोहनीय कर्म और अलाभ भाव अंतराय करण के उदय में होते है का प्रमाण –
यहाँ दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्वप्रकृति ली है जिसके उदय में चल,मल,अगाढ़ दोष उत्पन्न होते है!सम्यक्त्व रहते हुए भी आप्त,आगम और पदार्थों में नाना विकल्प होना चल दोष है!जिस प्रकार जल के स्थिर होते हुए भी, उसमे वायु के निमित्त से तरंगमाला उठती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने स्वरुप में स्थित रहता है किन्तु सम्यक्त्व मोहनीय के उदय में शंकादि के निमित्त से उसकी बुद्धि आप्त,आगम और पदार्थ के सदर्भ में चलाय मान रहती है,यह चल दोष है!मोहनीय के उदय में शंकादि के निमित्त सेसम्यक्त्व/ सम्यग्दर्शन का मलीन होना मल दोष है!सम्यग्दृष्टि जीव लौकिक प्रयोजनवश कदाचित तत्व चलायमान है यह अगाढ़ दोष है !जैसे सम्य ग्दृष्टि भली प्रकार जानता है की अन्य अन्य नहीं होता किन्तु रागवश वह स्थिर नहीं रह पाता !ये तीनों एक ही है फिर भी विभिन्न अभिप्राय की दृष्टि से पृथक पृथक इन्हे परिगणित किया है !प्रकृत में इसी दोष को ध्यान में रखते हुए अदर्शन परिषह का निर्देश दिया है!यह दर्शन मोहनीय के उदय में ही होता है यह दर्शन मोह का कार्य है!भोजन आदि पदार्थों का प्राप्त न होना अन्य बात है किन्तु भोजन आदि पदार्थ न मिलने पर जिस के ‘अलाभ’ परिणाम होता है उसका वह परिणाम लाभान्तराय कर्म का कार्य कहा है!पर के लाभ को स्व का लाभ मानना मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय का कार्य है,इसकी विवक्षा यहाँ नहीं है !यहाँ तो अलाभ परिणाम किसके उदय में होता है,मात्र इतना ही विचारणीय है!इस प्रकार अदर्शन भाव मोहनीय कर्म और अलाभ लाभान्तराय कर्म का कार्य निश्चित हुए !


चारित्र मोह के उदय में होने वाले परिषह –
चारित्रमोहेनागन्यारतिस्त्रीनिषध्याक्रोशयाचनासत्कारपुरुस्कारा:!!१५!!
सन्धिविच्छेद-चारित्र +मोहे +नागन्या+अरति+स्त्री+निषध्य+आक्रोश+याचना+सत्कार पुरुस्कारा:
शब्दार्थ-चारित्र मोहे-चारित्र मोहनीय के,उदय में,नागन्या-नगनत्व ,अरति अरति ,स्त्री-स्त्री,निषध्य-निषध्या ,आक्रोश-आक्रोश,याचना-याचना,और सत्कार पुरुस्कारा:-सत्कार पुरूस्कार परिषह होते हैं !
अर्थ-चारित्र मोहनीय के उदय में नाग्न्य,अरति,स्त्री,निषध्या,आक्रोश,याचना और सत्कारपुरूस्कार सात परिषह होते है !
शंका-नाग्न्यादि परिषह पुंवेदोदय आदि के निमत्त से होने के कारण महोदय कहते है किन्तु निषध्या परिषह मोह के उदय के निमित्त से कैसे होता है ?
उसमे प्राणी पीड़ा के परिहार की मुख्यता होने से वह मोहोदयनिमित्तिक माना गया है,क्योकि महोदय के होने पर प्राणि के पीड़ा रूप परिणाम होते है !
यदि चर्या और शय्या,वेदनीय नैमित्तिक है तो इसे वेदनीय निमित्तक क्यों नहीं है जब कि ये दोनों एक ही श्रेणी के है !इसका उत्तर है कि प्राणी पीड़ा रूप परिणाम मोहोदय से होता है और निषध्या परिषह जय में इस प्रकार के परिणामों पर विजय पाने की मुख्यता है इसलिए इसे चारित्रमोह निमित्तक माना है!इस विवक्षा से शय्या और चर्या को भी मोहोदय निमित्तक मान सकते थे किन्तु वहां लंत्कादिक के निमित्त से होने वाली वेदना की मुख्यता करके उक्त दोनों को परिषह को वेदनीय निमित्तक कहा है!तातपर्य है कि चर्या,शय्या और निष ध्या,इनमे प्राणिपीड़ा और कण्टकादि निमित्तक वेदना,ये दोनों कार्य सम्भव है!इसलिए इन दोनों कार्यों का परिज्ञान कराने के लिए निषध्या मोहनिमित्तक और शेष दो को वेदनीय निमित्तक कहा है !


वेदनीय के उदय में होने वाले परिषह –
वेदनीये शेषा:!!१६!!
संधि विच्छेद-वेदनीय+शेषा:
शब्दार्थ-वेदनीय-वेदनीय के उदय में ,शेषा:-शेष ग्यारह परिषह होते है!
अर्थ-वेदनीय कर्म के उदय में शेष ग्यारह क्षुधा,तृषा,शीत,उष्ण,दंशमशक,चर्या,शय्या,वध,रोग,तृणस्पर्श,और मल परिषह होते है !
एक साथ होने वाले परिषह –
विशेषार्थ-
शरीर में भोजन/जल का कम होना,कंठ का सूखना,ठंडा /गर्म लगना किसी के द्वारा मारना,गाली गलौज करना, रोगग्रस्त होना,तिनकादि चुभना,शरीर में मल एकत्र होनादि अपने २ कारणों से होते है इनका कारण वेदनीय कर्म का उदय नहीं है,किन्तु इन कामों के होने पर भूख की/प्यास की वेदना कराना,वेदनीयकर्मोद्य का कार्य है
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशते:!!१७!!
सन्धिविच्छेद-एकादय:+भाज्य:+युगपत्+एकस्मिन्+आ+ऐकोनविंशते:
शब्दार्थ-एकादय:-एक को आदि लेकर,भाज्य:-विभक्त करना चाहिये,युगपत्-एक साथ,एकस्मिन्-एक जीव में,आ ऐकोनविंशते:-एक कम बीस अर्थात उन्नीस परिषह हो सकते है!
अर्थ-एक साथ एक जीव मे एक को आदि लेकर उन्नीस परिषह तक विभक्त करना चाहिए !
भावार्थ-एक जीव में एक समय में एक से लेकर अधिकतम १९ परिषह हो सकते है क्योकि शीत और उष्ण में से एक तथा शय्या,चर्याऔर निषध्या-तीन में से एक काल में ही परिषह होगा!अत: २२-५ +२ =१९ परिषह एक काल में किसी जीव के अधिकत्तम हो सकते है!

चारित्र के भेद –
सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम्!!१८!!
संधि विच्छेद-सामायिक:+छेदोपस्थापना+परिहारविशुद्धि+सूक्ष्मसाम्पराय+यथाख्यातं+इति+चारित्रम्
शब्दार्थ -सामायिक:+ छेदोपस्थापना +परिहारविशुद्धि+सूक्ष्मसाम्पराय +यथाख्यातं+इति+चारित्रम्
अर्थ-सामायिक:,छेदोपस्थापना,परिहारविशुद्धि,सूक्ष्मसामपराय और यथाख्यात चारित्र के ५ भेद है !
सामयिक चारित्र-सम्पूर्ण सावध्य योग अर्थात समस्त पापरूप कार्यों का त्याग कर,धारण किया चारित्र सामायिकचारित्र है,छठे से नौवे गुणस्थान के मुनिराज के होता है!सामयिकी स्वाध्याय नियतकाल और ईर्या पथ अनियतकाल दो भेद की है !
छेदोपस्थापना चारित्र-प्रमादवश सामायिकचारित्र में लगे दोषों का प्रायश्चित से निवारण/छेदन कर,निर्दोष चारित्र धारण करना छेदोपस्थापना चारित्र है!समस्त सावद्य योगों का भेद सहित;हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रह का त्याग छेदोपस्थापना चारित्र है!ये भी छठे से नौवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के होता है!
परिहारविशुद्धि चारित्र-जिस चारित्र में प्राणि को हिंसा की सर्वथा निवृत्ति होने से विशेष विशुद्धि प्राप्त होती है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है!जिसने अपने जन्म से ३० वर्ष आयु तक सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर,जिन दीक्षा ले कर तीर्थंकर के पादमूल में रह कर,८ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक ९वे पूर्व को पढ़ा हो और तीनो सांध्य कालों को छोड़ कर २ कोस विहार करने का नियम लिया हो,ऐसे दुर्धर चर्या के पालक मुनिराज का ही परिहारविशुद्धि चारित्र होता है!इस चारित्र के धारक के शरीर से जीवो का घात नहीं होता है!इसीलिए इसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहते है ये छठे से नौवे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के होता है!
सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र-अत्यंत सूक्ष्म लोभकषायवश,१०वें गुणस्थान में रहने वाले चारित्र को सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते है!जैसे मुझे तपस्या के फल स्वरुप मुक्ति ही मिल जाए,यह सूक्ष्म लोभ है !
यथाख्यात चारित्र-समस्त मोहनीयकर्म के उपशम या क्षय से आत्मा का निर्विकार स्वभाव होना यथाख्यात चारित्र है!इसको अथाख्यात चारित्र भी कहते है क्योकि अथ का अर्थ अनन्तर है और यह समस्त मोहनीय के क्षय अथवा उपशम के अंतर ही होता है!यथाख्यात इसलिए कहते है क्योकि आत्मा के स्वरुप के अनुरूप इस चारित्र का स्वरुप है !
सूत्र में ‘इति’ पद से सूचित होता है कि यथाख्यात चारित्र में सकल कर्मों के क्षय की पूर्ती हो जाती है!ये ११वे से १४वे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के तथा गुणस्थान रहित सिद्ध परमेष्ठी के होता है !
विशुद्धि लब्धि-
१-सामयिकी चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र की जघन्य विशुद्धि अतिअल्प होती है,
२-परिहार विशुद्धि की जघन्य विशुद्धि सामयिकी चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र से अनन्तगुणी होती है,तथा उत्कृष्ट विशुद्धि लब्धि जघन्य से अनन्तगुणी होती है!
३-सूक्ष्म साम्पराय चारित्र की जघन्य विशुद्धिलब्धि,परिहार विशुद्धि की उत्कृष्ट विशुद्धि से अनंतगुणी होती है और जघन्य विशुद्धि लब्धि से उत्कृष्ट विशुद्धि लब्धि अनन्त गुणी होती है!\
४-यथाख्याचारित्र की विशुद्धि लब्धि ,सूक्ष्म साम्पराय चारित्र की उत्कृष्ट विशुद्धि लब्धि से अन्नंतगुणी होकर एक समान हो जाती है!
वृद्धिगत विशुद्धि के कारण ही सूत्र में चरित्रों को यथाक्रम रखा है!दस धर्म के अंतर्गत संयमधर्म में चारित्र का अंतर्भाव हो जाता है इसलिए वहां चारित्र को अलग से नहीं रखा!किन्तु समस्त कर्मों का क्षय चारित्र से ही होता है,यह दिखलाने के लिए यहां चारित्र का पृथक रूप से व्याख्यान किया है !

बाह्य तप के भेद –
अनशनावमौर्दयवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशबाह्यंतप:!!१९!!
संधिविच्छेद-अनशन+अवमौर्दय+वृत्तिपरिसंख्यान+रसपरित्याग+विविक्तशय्यासन+कायक्लेश+बाह्यं+तप:
अर्थ-बाह्य तप के अनशन,अवमौर्दय,वृत्तिपरिसंख्यान,रसपरित्याग,विविक्तशय्यासन,कायक्लेश छ भेद है!
भावार्थ-
१-अनशनतप-लौकिक फल;धन-सम्पत्ति,ख्याति,मंत्र सिद्धि आदि की अपेक्षा से रहित,राग द्वेष के उच्छेद, कर्मों के क्षय,ध्यान और संयम की सिद्धि के लिए चार प्रकार के आहार:-खाद्य,पेय,स्वाद्य और चाटय का त्याग करना अनशन तप है!
२-अवमौर्दयतप-राग भाव के लिए तथा स्वाध्याय एवं विचारों की शांति तथा संतोष के लिए भूख से अल्प आहार ग्रहण करना अवमौर्दय तप है!भूख से एक कौर भी कम लेने से यह तप होता है!
३-वृत्तिपरिसंख्यान तप-भिक्षा ग्रहण करने के लिए जाते हुए मुनिराज कोई आंकडी (विधि)लेकर चलते है ,जिस चौके में वह विधि मिल जाती है उस में वे आहार ग्रहण करते है अन्यथा निराहार लौट जाते है!यह तप,भोजन की आशा को रोकने के लिए मुनिराज करते है! भगवान महावीर स्वामी,जब आहार लेने के लिए निकले तो उन्होंने बिधि ली,कि ” बेड़ियों से बंधी राजकुमारी से ही आहार लूँगा अन्यथा नहीं” उनके कर्मों के संयोग से,उन्हें चंदन बाला आहार देने के लिए मिलि ,विधि मिलने पर ही उन्होंने आहार ग्रहण किया!
४-रसपरित्याग तप-इन्द्रियों के दमन और निंद्रा पर विजय एवं सुख पूर्वक स्वाध्याय के लिए इसमें मुनिराज १,२,३,४,५,अथवा ६ (घी,दूध,दही,तेल,मीठा,नमक) रसों का त्याग कर आहार ग्रहण करते है!इन छ रसों में से किसी एक का त्याग करना रस परित्याग तप है!
५-विविक्तशय्यासन तप-ब्रह्मचर्य,स्वाध्याय एवं ध्यान की सिद्धि के लिए एकांत और पवित्र स्थान पर सोना, आसन लगाकर बैठना विविक्तशय्यासन तप है!
६-कायक्लेश तप -कष्ट सहने के अभ्यास तथा धर्म की प्रभावना की अभिवृद्धि हेतु ग्रीष्म ऋतू में वृक्ष के नीचे, बैठकर अथवा सर्दियों में खुले मैदान में ध्यान में लीन रहना,किसी पर्वत पर शीला पर में बैठकर ध्यान करना ,ये कायक्लेश तप के अंतर्गत है !
ये तप बाह्य में दीखते है तथा बाह्य द्रव्य भोजनादि के त्याग की अपेक्षा से किये जाते है इसलिए इन्हे बाह्य तप कहा जाता है !
परिषह और कायक्लेश में अंतर-परिषह स्वयं अपनी मर्ज़ी से आते है जबकि कायक्लेश स्वेच्छा से निमंत्रण देकर किया जाता है !
अभ्यंतर तप के भेद-
प्रायश्चित्तविनयवैय्यावर्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्!!२०!!
संधि विच्छेद-प्रायश्चित्त+विनय+वैय्यावर्त्य+स्वाध्याय+व्युत्सर्ग+ध्यान+अन्युत्तरम्
शब्दार्थ-प्रायश्चित्त,विनय ,वैय्यावर्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग ,ध्यान अभ्यंतर तप है
अर्थ-प्रायश्चित्त,विनय,वैय्यावर्त्य,स्वाध्याय,व्युत्सर्ग और ध्यान छ आभ्यांतर तप है !
भावार्थ-ये अभ्यंतर तप, मन को वश में करने के लिए किये जाते है और बाह्य में दीखते नहीं इसलिए इन्हे अभ्यांतर तप कहते है !इनके छ भेद निम्न है !
१-प्रायश्चित्त तप- में प्रमाद /अज्ञानतावश लगे दोषों के निवारण हेतु,दोषों को आचर्यश्री से बताकर ,समुचित प्रायश्चित लिया जाता है!
२-विनयतप- में पूजनीय पुरषों,रत्नत्रय और उनके धारको का यथायोग्य आदर सत्कार किया जाता है !
३-वैय्यावर्त्यतप- में शरीर अथवा अपने सहधर्मी मुनियों की सेवा करी जाती है !
४ -स्वाध्यायतप- में आलस्य त्याग कर आराधना करी जाती है
५-व्युत्सर्गतप -में बाह्य और अभ्यंतर २४ परिग्रहों का त्यागनाकिया जाता है और
६-ध्यानतप- में चित्त की चंचलता को नियंत्रित /रोककर उससे किसी एक पदार्थ पर एकाग्रचित कर उसका चिंतवन किया जाता है !

अभ्यन्तर तपों के उत्तर भेद-
नव-चतुर्दश पञ्च द्विभेदा यथाक्रमं प्रागध्यानात् !!२१!!
संधि विच्छेद-नव+चतु:+दश+पञ्च+द्वि+भेदा+यथाक्रमं+प्रागध्यानात्
शब्दार्थ-९,४,१०,५,२ भेद-भेद,यथाक्रमं -क्रमश, प्राग्- पहिले ,ध्यानात् -ध्यान से
अर्थ-ध्यान तप से पहिले क्रमश: प्रायश्चित के ९,विनय के चार,वैय्यावृत्य के १०,स्वाध्याय के ५ और व्युत्सर्ग तप के २ भेद है !


प्रायश्चित तप के भेद –
आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापना: !!२२!!
सन्धिविच्छेद-
आलोचना+प्रतिक्रमण+तदुभय+विवेक+व्युत्सर्ग+तप:+छेद+परिहार+उपस्थापना:
शब्दार्थ-
आलोचना+प्रतिक्रमण +तदुभय +विवेक+ व्युत्सर्ग +तप:+छेद+परिहार+उपस्थापना:
अर्थ-आलोचना,प्रतिक्रमण,तदुभय (आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों का),विवेक,व्युत्सर्ग , तप:,छेद,परिहार,उपस्थापना प्रायश्चित तप के भेद है !
भावार्थ-प्रायश्चित तप के निम्न ९ भेद है !
१-आलोचना प्रायश्चित तप-गुरु के समक्ष,दस दोषों रहित अपने प्रमाद के लिए प्रायश्चित का निवेदन करना,आलोचना प्रायश्चित तप है !
दस दोष-
१- अकम्पित दोष-आचार्य को पिच्छी कमण्डलु इस भाव से भेट करना की वे दया कर कम से कम प्रायश्चित दे !
२-अनुमापित दोष-गुरु से बातचीत कर प्रायश्चित का अनुमान लगाकर दोष के लिए प्रायश्चित का निवेदन करना !
३-दृष्ट दोष-किसी के दोष देखने पर ही प्रायश्चित का निवेदन करना किन्तु किसी के नही देखने पर प्रायश्चित का निवेदन नहीं करना !
४-बादर दोष-केवल स्थूल दोषों के लिए ही प्राश्चित के लिए निवेदन करना !
५-सूक्ष्म दोष-महान प्रायश्चित के भय से महान दोषों को छुपाकर सूक्ष्म दोषों के लिए प्रायश्चित का निवेदन करना !
६-छन दोष-महाराज से दोष का प्रायश्चित जानने के बाद,उनसे दोष के प्रायश्चित के लिए निवेदन करना!
७- शब्दा कुलित दोष-प्रतिक्रमण के दिन जब बहुत साधु आये हो,खूब शोर हो रहा हो रहा हो,उस समय दोष का निवेदन कर प्रायश्चित मांगना जिससे कोई सुन नहीं सके !८ -बहुजन दोष-अपने गुरु/आचर्य द्वार दिए गए प्रायश्चित को शंकित होकर अन्य साधुओं से पूछना,प्रायश्चित ठीक दिया या नही !
९ अव्यक्तदोष-अपने गुरु के समक्ष अपना दोष नहीं कह कर अन्य साधुओं से कहना!
१०-तत्सेवी दोष-गुरु से प्रमाद का निवेदन नहीं कर के,जिस साधु ने अपने समान अपराध किया ,उससे पूछना की तुम्हे गुरु ने क्या प्रायश्चित दिया था क्योकि तुम्हारे समान ही मेरा अपराध है !
२-प्रतिक्रमण प्रायश्चित तप -प्रमाद से जो दोष मुझ से हुआ वह मिथ्या हो!
इस प्रकार अपने दोष पर पश्चाताप कर गुरु से निवेदन करना,प्रतिक्रमण प्रायश्चित तप है !
३-तदुभय प्रायश्चित तप (आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों का)-कोई दोष/अपराध केवल आलोचना अथवा प्रतिक्रमण से दूर हो जाता है और कोई इन दोनों से होता है,वही तदुभय प्रायश्चित है !
४-विवेक प्रायश्चित तप -सदोष आहार और उपकरणों का नियमित समय पर त्यागना विवेक प्रायश्चित तप है !
५-व्युत्सर्ग प्रायश्चित तप -कुछ समय के लिए कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित तप है
६- तप प्रायश्चित तप -उपवासादि करना तप प्रायश्चित तप है !
७ छेद प्रायश्चित तप -दीक्षा को कुछ वर्षों के लिए छेदित कर, दीक्षा पुन: छेदित काल के अनुसार,लेना छेदित दीक्षा है!इसमें दीक्षा की प्राचीन वरिष्टता समाप्त होकर जितने समय का दीक्षा छेदन किया है,वहां से दीक्षा काल माना जार्ता है !
८-परिहार प्रायश्चित तप -कुछ समय के लिए संघ से पृथक करना परिहार प्रायश्चित तप है
९-उपस्थापना प्रायश्चिततप-पुरानी पूरी दीक्षा छेद कर नवीन तरह से दीक्षा लेना उपस्थापना प्रायश्चित तप है !
विशेष-प्रायश्चित =प्राय:+चित्त ,प्राय: का अर्थ अपराध और चित्त का अर्थ शुद्धि है अर्थात प्रायश्चित का अर्थ शोधन करना है !
विनय तप के भेद-
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारा: !!२३!!

सन्धिविच्छेद -ज्ञान+दर्शन+चारित्र+उपचारा:
शब्दार्थ-ज्ञानविनय,दर्शनविनय,चारित्रविनय और उपचार विनय,विनय तप के चार भेद है !
अर्थ-ज्ञान विनय,दर्शन विनय,चारित्र विनय और तपस्वियों की विनय ,विनय तप के चार भेद है !
भावार्थ-१-ज्ञानविनय तप-यथायोग्य काल में आदर पूर्वक,आलस्य त्याग कर,मोक्ष के लिए सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हेतु शास्त्रों के स्वाध्याय और स्मरण करना,ज्ञान विनयतप है
२-दर्शनविनय तप-शंकादि २५ दोषो रहित,सम्यग्दर्शन के आठ अंगों सहित,तत्वार्थ श्रद्धानदर्शन विनयतप है !
३-चारित्र विनय तप-सम्यग्दृष्टि के १३ भेद सहित चारित्र का निर्दोष धारण करना ,चारित्र विनय तप है और
४-उपचार विनयतप -आचार्यों और पूज्य पुरुषों के आने पर आदरपूर्वक खड़े होना ,उनके पीछे चलना,नमोस्तु ,उनके गुणों का स्मरण करना आदि उपचार विनयतप है
वैय्याव्रत्य तप के भेद –
आचार्योपाध्यायतपस्वीशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम् !!२४!!
सन्धिविच्छेद-आचार्य+उपाध्याय+तपस्वी+शैक्ष्य+ग्लान+गण+कुल+संघ+साधु+मनोज्ञानाम्
शब्दार्थ-आचार्य+उपाध्याय+तपस्वी+शैक्ष्य+ग्लान+गण+कुल+संघ+साधु+मनोज्ञानाम्
अर्थ-आचार्य वैय्यावृत्य,उपाध्याय वैय्यावृत्य,तपस्वी वैय्यावृत्य,शैक्ष्य वैय्यावृत्य,ग्लान वैय्यावृत्य,गण वैय्यावृत्य,कुलवैय्यावृत्य,संघवैय्यावृत्य,साधुवैय्यावृत्य और मनोज्ञ वैय्यावृत्य,वैय्यावृत्य तप के १० भेद है !
भावार्थ- वैय्याव्रत्य तप १०-भेद है –
१-आचार्य वैय्यावृत्य- जो पंचाचार का स्वयं पालन करते हुए संघ के अन्य मुनियों से करवाते है,आचार्य है !
२-उपाध्याय वैय्यावृत्य-मोक्ष के लिए जिन मुनि के पास जाकर शास्त्रों को अभ्यास करते है वे उपाध्याय है !
३-तपस्वी वैय्यावृत्य-महोपवास आदि का अनुष्ठान करने वाले तपस्वी है
४-शैक्ष्य वैय्यावृत्य-शिक्षा लेने वाले साधु शैक्ष्य है !
५-ग्लान वैय्यावृत्य-रोग से ग्रस्त साधु ग्लान कहलाते है !
६-गण वैय्यावृत्य-वृद्ध मुनियों के अनुसार चलने वाले साधु गण है !
७-कुल वैय्यावृत्य-एक ही आचार्य द्वारा दीक्षित शिष्य कुल है !
८-संघ वैय्यावृत्य-ऋषि,यति,मुनि,अंगार इन चार प्रकार के मुनियों का समूह संघ है
९-साधु वैय्यावृत्य-से दीक्षित मुनि साधु है और
१०-मनोज्ञ वैय्यावृत्य-लोक में ख्याति प्राप्त साधु है !
उक्त दस प्रकार के साधु की वैयावृत्य तप के १० भेद साधुओं के भेद की अपेक्षा है !


स्वाध्याय तप के भेद-
वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशा:!!२५!!
सन्धिविच्छेद-वाचना+प्रच्छना+अनुप्रेक्षा+आम्नाय+धर्मोपदेशा:
शब्दार्थ-वाचना-वाचन करना, प्रच्छना-प्रश्नो पूछने,अनुप्रेक्षा-स्वधाय का पुन :चिंतवन करना,आम्नाय-सूत्रों/ गाथाओं का शुद्धता से पाठन करना,धर्मोपदेशा:- स्वाध्याय द्वारा योग्यता प्राप्त करने के बाद धर्मोपदेश देना
अर्थ-स्वाध्याय तप के वाचना ,प्रच्छना,अनुप्रेक्षा,आम्नाये धर्मोपदेश ,५ भेद है !
भावार्थ-स्वाध्यात्य तप के निम्न पांच भेद है !
१-वाचना स्वाध्याय तप-निर्दोष धर्म ग्रंथों को इच्छुक, विनयशील पात्रों को देना/ उनका अर्थ बताना/या दोनों करना वाचना स्वाध्याय तप है
२-प्रच्छना स्वाध्याय तप-संशय के दूर करने के उदेश्य से अथवा कृत निर्णय की दृढ़ता करने के लिए विशिष्ट ज्ञानियों से प्रश्न करना,प्रच्छना स्वाध्याय तप है !
३-अनुप्रेक्षा स्वाध्याय तप -स्वाध्याय द्वारा जाने गए पदार्थों का मन ही मन बार बार चिंतवन करना,अनुप्रेक्षा स्वाध्याय तप है
४-आम्नाये स्वाध्याय तप-शुद्धता पूर्वक शब्दों का उच्चारण करते हुए पाठन करना ,आम्नाये स्वाध्याय तप है !तथा
५-धर्मोपदेश स्वाध्याय तप -जीवों के कल्याण की भावना से धर्मोपदेश देना, धर्मोपदेश स्वाध्याय तप है !
विशेष-स्वाध्याय से ज्ञान ,वैराग्य भावना की अभिवृद्धि होती है और वह व्रतों का निर्दोष अतिचार रहित पालन में सहायक होता है!मन की स्थिरता के लिए स्वाध्याय से बढ़कर अन्य उपाय नहीं है क्योकि इससे आप सही शास्त्र जी का स्वाध्याय करने से,वस्तु स्थिति की वास्तविकता को ज्ञात करते है और जो शास्त्रों में फर्जी वाड़ा चल बचते हुए जिनवाणी के असली मर्म को जान पाते है !

व्युत्सर्ग तप के भेद –
बाह्याभ्यन्तरोपध्यो: !!२६!!
संधि विच्छेद-बाह्य+अभ्यन्तर+उपध्यो:
शब्दार्थ- बाह्य-बाह्य,अभ्यन्तर-अभ्यंतर,उपध्यो:-उपधि -त्याग
अर्थ-व्युत्सर्ग का अर्थ त्याग है!इसके बाह्य और अभ्यंतर त्याग दो भेद है !
बाह्य (त्याग) व्युत्सर्ग तप-धन ,सम्पत्ति आदि का त्याग करना बाह्य त्याग व्युत्सर्ग तप है !
अभ्यंतर (त्याग) व्युत्सर्ग तप-क्रोध मान माया लोभ अभ्यंतर कषायों का त्याग करना अभ्यंतर त्याग व्युत्सर्ग तप है!कुछ समय के लिए अथवा जीवन पर्यन्त ममत्व/काय का त्याग करना अभ्यंतर उपधि (त्याग) व्युत्सर्ग तप है!इस से जीव के तृष्णा नहीं रहती,वह निर्भय होकर हल्का हो जाता है !
शंका-पञ्च महाव्रतों में परिग्रह का त्याग,दस धर्मों में त्याग धर्म,और नौ प्रायश्चितों में व्युत्सर्ग प्रायश्चित का उपदेश दिया है फिर व्युत्सर्ग तप अलग से क्यों कहा है?इसमें एक ही तत्व का पुन;पुन:कहने से पुनरोक्त दोष लगता है !
समाधान-पञ्च महाव्रतों में,परिग्रह त्याग महाव्रत में गृहस्थ संबंधी उपधि-त्याग की त्याग धर्म में आहारादि विषयक आसक्ति कम करने की,व्युत्सर्ग प्रायश्चित में परिग्रह धर्म में लगने वाले दोषों के परिमार्जन की और व्युत्सर्ग तप में आत्मा से जुदा धन/धान्य बाह्य व मनोविकार तथा शरीर आदि के अभ्यंतरउपधि में आसक्ति के त्याग की प्रधानता है!अत:पुनरोक्त दोष नहीं आता !
ध्यान तप के लक्षण –
उत्तमसंहननस्यैकाग्र चिन्ता निरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् !!२७!!
संधि विच्छेद-उत्तम+संहननस्य+एकाग्र+चिन्ता+निरोध:+ ध्यानम्+अन्तर्मुहूर्तात्
शब्दार्थ-उत्तम-उत्तम,संहननस्य-सहनन वाले का ,एकाग्र-एकाग्रता से,चिन्ता-चिंता को ,निरोध:-रोकना , ध्यानम्-ध्यान है,अन्तर्मुहूर्तात्-अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त
अर्थ-उत्तम सहनन से युक्त जीव का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त चिंता रोकना ध्यान है !
भावार्थ-उत्तम सहनन,से युक्त मनुष्यों द्वारा अपने चित्त की वृत्ति को,समस्त विकल्पों से हटाकर किसी एक विषय पर अधिकत्तम एक अन्तर्मुर्हूत एकाग्रता पूर्वक लगाना,ध्यान है
विशेष-
१-ध्यान-अपने चित्त को समस्त विकल्पों से हटाकर एक ही विषय/पदार्थ पर एकाग्रचित करना,ध्यान है
२-ध्याता -ध्यान; तीन उत्तम सहनन;वज्रऋषभनाराचसहनन,वज्रनाराचसहनन और नाराचसहनन में से किसी एक से युक्त मनुष्य ही ध्यान लगा सकते है !ध्यान लगाने वाला ध्याता कहलाता है
३-उत्तम सहनन से युक्त मनुष्य के ध्यान अन्तर्मुर्हूत से अधिक समय नहीं लग सकता !
४- तीन में से किसी एक उत्तम सहनन से युक्त मनुष्य ध्यान तो लगा सकता है किन्तु मोक्ष के लिए वज्रऋषभ नाराच आवश्यक है !
शंका- ध्यान अधिकतम अन्तर्मुर्हूत समय तक लग सकता है फिर भगवान ऋषभदेव ने ६ माह तक ध्यान कैसे लगाया ?
समाधान -ध्यान की संतान को भी ध्यान कहते है!एक विषय पर ध्यान, अधिकतम अन्तर्मुर्हूत समय तक ही हो सकता है किन्तु उसके बाद ध्येय(ध्यान का विषय) बदल जाता है और ध्यान की संतान चलती है!जब विचार का विषय,एक पदार्थ नहीं होकर,नाना प्रकार के पदार्थ होते है तब वह विचार ‘ज्ञान’ कहलाता है !जब वह ज्ञान एक विषय में स्थिर हो जाता है तब वह ‘ध्यान’ कहलाता है !उस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त है!
ध्यान के भेद –
आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि !!२८!!
संधि विच्छेद-आर्त्त+रौद्र+धर्म:+शुक्लानि
शब्दार्थ-आर्त्त+रौद्र+धर्म्य+शुक्लानि
अर्थ-ध्यान के आर्त्त,रौद्र,धर्म और शुक्ल ध्यान चार भेद है !
भावार्थ-आर्त्त और रौद्र ध्यान अशुभ,संसार के कारण है, त्याज्य है ,धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान शुभ है !वर्तमान में शुभ ध्यान में सिर्फ धर्म ध्यान सम्भव् है,शुक्लध्यान सहनन के अभाव में असंभव है !अशुभ ध्यानों से हमें सर्वथा बचना चाहिए क्योकि ये दोनों अधोगति के आस्रव/ बंध के कारण है
धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान का फल –
परे मोक्ष हेतू !!२९!!
संधि विच्छेद -परे+मोक्ष+हेतू
शब्दार्थ-परे-अंत के,मोक्ष-मोक्ष के,हेतू-हेतू है
अर्थ-उक्त सूत्र में बाद के २ अर्थात धर्म और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण है !
भावार्थ-धर्म ध्यान परम्परा से और शुक्ल साक्षात मोक्क्ष का कारण है !

अनिष्ट संयोगज आर्त्त ध्यान का लक्षण –
आर्तममनोज्ञस्यसंप्रयोगेतद्विप्रयोगायस्मृतिसमन्वाहार:!!३०!!
संधि विच्छेद-आर्तम्+अमनोज्ञस्य+संप्रयोगे+तद्विप्रयोगाय+स्मृति+ समन्वाहार:!!
शब्दार्थ-आर्तम्-आर्त्त ध्यान है,अमनोज्ञस्य-अप्रिय वस्तु(विष,काँटा,शत्रु आदि) के,संप्रयोगे-समागम से, तद्विप्रयोगाय-उनसे पीच्छा छुड़ाने के लिए,स्मृति-चिंतवन करते हुए उनके वियोग का ,समन्वाहार:-विचार करना मेरे यह कैसे न हो,!
अर्थ-अप्रिय वस्तुओं जैसे विष,शत्रु,कांटे आदि के संयोग होने पर निरंतर उनसे छूटने के उपायों का चिंतवन करना,अनिष्ट संयोजक नामक आर्त्तध्यान है!
इष्टवियोगज आर्तध्यान का लक्षण-
विपरीतं मनोज्ञस्य !!३१!!
संधि विच्छेद-विपरीतं-उक्त सूत्र से विपरीत अर्थात वियोग होना,मनोज्ञस्य-प्रिय वस्तुओं (पुत्र पत्नी आदि का,इष्ट वियोगज है!
अर्थ-प्रिय/इष्ट वस्तुओं पुत्र.पत्नी,सम्पत्ति आदि के वियोग होने पर निरंतर चिंतवन करना कि उनको कैसे प्राप्त किया जा सकता है ,इष्ट वियोगज आर्त्त ध्यान है !
वेदनाजन्य आर्तध्यान का लक्षण –
वेदनायाश्च !!३२!!
संधि विच्छेद -वेदना:+च
शब्दार्थ-वेदना:-वेदन से भी,च-और
अर्थ-रोगग्रस्त होने के कारण,शरीर में उत्पन्न पीड़ा की वेदना का निरंतर चिंतवन करना वेदनाजनित आर्त्त ध्यान है !
निदान आर्तध्यान का लक्षण –
निदानंच !!३३!!
संधि विच्छेद-निदानं+ च
शब्दार्थ-निदानं+च
अर्थ-भोगो की तृष्णा से पीड़ित होकर आगामी भोगों की प्राप्ति का चिंतवन करते रहना निदान आर्त्त ध्यान है !
विशेष-आर्त्त ध्यान के चार भेद क्रमश: सूत्र ३०,३१,३२,३३,में बताये है
१-अनिष्ट संयोग जनित आर्त् ध्यान,२-ईष्ट वियोग जनित आर्त्त ध्यान,३-वेदना जनित आर्त्त ध्यान और
४-निदान आर्त्त ध्यान !

गुणस्थानों की अपेक्षा आर्त्तध्यान के स्वामी है
तदविरत देशविरत प्रमत्तसंयतानाम् !!३४!!
संधि विच्छेद -तद्+अविरत+देशविरत +प्रमत्तसंयतानाम्
शब्दार्थ-तद्-वह(आर्त्त ध्यान), अविरत- अविरत( चार )गुणस्थानों में,देशविरत -पंचम गुणस्थान ,प्रमत्तसंयतानाम् – प्रमत्त संयत (छठे) गुणस्थान में होता है !
अर्थ-वह आर्त्त ध्यान अविरत (चार )गुणस्थानो,देशविरत-संयतासंयत पंचम गुणस्थान और (१५) प्रमादो के कारण प्रमत्त संयत छटे गुणस्थान में होता है !
विशेष-१ से ६ गुणस्थान तक अनिष्ट संयोगज,इष्ट वियोगज और वेदनाजनित;निदानज आर्त्तध्यान पंचम गुणस्थानवर्ती के होता है किन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान आर्त्तध्यान नहीं होता क्योकि भावलिंगी साधु को आगामी भोगों की आकांक्षा नहीं रहती अर्थात ४थे ,५वे और छटे गुण स्थानवर्ती जीवों के यह ध्यान किंचित् कदाचित हो सकते है हमेशा नहीं किन्तु प्रथमादि गुणस्थान में हमेशा रहते है

रौद्र ध्यान के भेद व स्वामी-

हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्योरौद्रमविरतदेशविरतयो:!!३५!!
सन्धिविच्छेद -हिंसा+अनृत+स्तेय+विषय+संरक्षणेभ्यो +रौद्रम्+अविरत+देशविरतयो:
शब्दार्थ-हिंसा-हिंसा,अनृत-झूठ,स्तेय-चोरी,विषय-परिग्रह,संरक्षणेभ्यो-संचय की भावना से रौद्रम्-रौद्र ध्यान,अविरत-अविरतादि चार और देशविरतयो-देशविरत गुणस्थानों में होता है !
अर्थ-हिंसा,झूठ,चोरी और परिग्रहों के संचय की भावना से उत्पन्न रौद्रध्यान ,पहले चारअविरत और पांचवे देशविरत गुणस्थानों में होता है !
विशेष-निमित्त के आधार से रौद्र ध्यान के चार भेद-
१-हिंसानन्दी-हिंसा में आनंद मानकर उसके साधनो को जुटाने का यत्न करना हिंसानन्दी रौद्रध्यान है
२-मृषानन्दि-असत्य बोलने मे आनंद मानकर उसका चिंतवन करना मृषानन्दि रौद्रध्यान है!
३-चौर्यनन्दि -चोरी में आनंद मानकर उसी का चिंतवन करना चौर्यानंदी रौद्रध्यान है और
४-परिग्रहनन्दी-परिग्रहों में आनंद मानकर उनके रक्षण का चिंतवन करना परिग्रहनन्दि रौद्रध्यान है !
संयमी मुनि ,अर्थात छटे गुणस्थानवर्ती मुनि के रौद्र ध्यान नहीं होता अन्यथा वे असंयमी हो जाएंगे !
शंका-अविरत,वर्ती नहीं है,अत:रौद्रध्यान होना ठीक है किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के रौद्र ध्यान कैसे हो सकता है ?
समाधान-श्रावक को अपने धर्मायतनों;स्त्री,धन,इत्यादि की रक्षा का भार होता है जिस की रक्षा हेतु,कभी हिंसा के आवेश में आकर रौद्रध्यान हो सकता है किन्तु सम्यग्दृष्टि होने से उसे नरकगति में ले जाने योग्य रौद्रध्यान नहीं होता है
धर्मध्यान का स्वरुप और चार भेद –
आज्ञापाय विपाक संस्थान विचयाय धर्म्यम् !!३६!!

संधि विच्छेद-आज्ञा+अपाय+विपाक+संस्थान+विचयाय+धर्म्यम्
शब्दार्थ-आज्ञा-आगम आज्ञानानुसार ही है,अपाय-मिथ्यात्व में उलझे किन्तु मोक्ष के अभिलाषियोंके छुड़ाने के उपाय का विचार करना,विपाक-द्रव्य,क्षेत्र,काल,भव और भाव के निमित्त से कर्मोंदय पर फल का विचार करना,संस्थान -लोक के आकार और दशा का निरंतर चिंतवन करना, विचयाय-विचार करना /मानना धर्म्यम्-धर्मध्यान है
अर्थ-आज्ञा,अपाय,विपाक और संस्थान का निरंतर विचार/चिंतवन करना ,धर्मध्यान है !
भावार्थ-
१-आज्ञाविचय-उत्कृष्ट उपदेशों/दृष्टान्तों के अभाव में/स्वयं मंदबुद्धि होने से /कर्मोंदय में /पदार्थों के अति सूक्ष्म या दूरवर्ती होने से,सर्वज्ञ देव द्वारा कहे वचनो पर ‘यह ऐसा ही है”पर दृढ श्रद्धान करना,आज्ञा विचय धर्मध्यान है क्योकि ‘जिन’ अन्यथावादी नहीं होते!स्वयं तत्वों का ज्ञाता होते हुए अन्यों को समझाने के लिए युक्तियों और दृष्टान्तों का निरंतर चिंतवन करना,आज्ञा विचय धर्मध्यान है क्योकि मूल भावना जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का प्रचार करना है !
२-अपायविचय-मोक्ष अभिलाषी ,मिथ्यात्व के वशीभूत कुमार्गों पर चल रहे संसारी जीव को मिथ्यात्व से मुक्त करवाने के उपायों का निरंतर चिंतवन करना,अपायविचाय धर्मध्यान है !
३-विपाक विचय-ज्ञानावरणीय कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र,काल,भाव और भव के अनुरूप उदय पर उनके फलों का निरंतर चिंतवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है !
४-संस्थानविचय-लोक के स्वरुप,आकार एवं स्थिति का निरंतर चिंतवन करना संस्थान विचयधर्मध्यान है
उक्त चार धर्म ध्यान के भेद है !
विशेष-
१-आचार्य पूजयपादस्वामी के अनुसार,उत्तम क्षमादि दस धर्मों से युक्त उक्त धर्मध्यान चौथे अविरत से ,७वे अप्रमत्त गुणस्थान तक होता है जबकि धवलाकार,आचार्यश्री वीरसैनस्वामी के मतानुसार १०वे सूक्ष्म साम्परायगुणस्थान तक होता है, शुक्ल ध्यान उसके बाद होता है !
२-संसार,भोग एवं शरीर से विरक्ति के फलस्वरूप उत्पन्न भावों की स्थिरता के लिए उत्तम क्षमादि १० धर्मों से युक्त ध्यान,धर्मध्यान है!इनके निमित्त के भेद से आज्ञाविचय-तत्व निष्ठां में,अपायविचय-संसार, शरीर एवं भोगो से विरक्ति में,विपाकविचय-कर्मफल और उसके कारणों की विचित्रता का ज्ञान कराने में,तथा संस्थान विचय -लोक के स्वरुप /आकार ,स्थिति के ज्ञान में सहायक होते है!इससे उनके ज्ञान में दृढ़ता आती है !
३-विपाकविचय के स्वरुप में कर्मों के द्रव्य,क्षेत्र,क़ाल,भाव और भव के निमित्त से कर्मोंदय का विचारकरने से अभिप्राय है कि यद्यपि कर्मोंदय या उदीरणा से जीव के औदायिकभाव एवं विभिन्न प्रकार के शरीरादि प्राप्त होते है किन्तु इन कर्मों का उदय अथवा उदीरणा किसी अन्य निमित्त के बिना नहीं होती है!जैसे: -द्रव्यनिमित्तता-कोई व्यक्ति अपने परिवार के साथ घर की छत्त के नीचे बैठा मनोरंजन कर रहा है ,अक- स्मात् छत गिरने से वह घायल होकर दुःख का वेदन करने लगता है,यहाँ उसके दुःख में असातावेदनीय कर्म का उदय /उदीरणा में छत का टूट कर गिरना संयोग निमित्त है!गिरने वाली छत के निमित्त से उस व्यक्ति के असातावेदनीय की उदय/उदीरणा हुई जिसके फलस्वरूप उस व्यक्ति को असाता /दुःख का फल मिला!यही उक्त कथन का अभिप्राय है!इसी प्रकार अन्य कर्मों के उदय-उदीरणा में बाह्य द्रव्य के निमित्त का विचार कर लेना चाहिए !
काल निमित्त का विचार दो प्रकार से किया जाता है!
१-प्रत्येक कर्म का उदय उदीरणा काल,२-वह काल जिसके निमित्त से,बीच में ही कर्मों की उदय उदीरणा बदल जाती है!आगम में अध्रुवोदय रूप कर्म के उदय उदीरणा काल का निर्देश दिया है,उसके समाप्त होते ही विवक्षित कर्म के उदय उदीरणा का अभाव होकर,उसका स्थान दुसरे कर्म की उदय-उदीरणा ले लेती है!जैसे हास्य और रति का उत्कृष्ट उदय-उदीरणा काल छह माह है ,उस के बाद इनकी उदय/उदीरणा नहीं होकर शोक और अरति की उदय उदीरणा होने लगती है !किन्तु छ माह के अंदर ही हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही उनकी उदय उदीरणा बदल जाती है!यह कर्म का उदय उदीरणा काल है!उद्धाहरण के लिए कोई व्यक्ति देशान्तर के लिए निर्भयता पूर्वक जा रहा है किन्तु किसी दिन मार्ग में रात्रि जंगल में ही,हिंसक पशुओं के बीच हो जाती है तथा उसे विश्राम के लिए सुरक्षित स्थान नहीं मिलता है!दिन भर वह निर्भय था रात्रि होते ही वह भयभीत होता है!इससे उसकी असाता, अरति,भय,शोक का उदय-उदीरणा होने लगती है!यह काल निमितिक उदय उदीरणा है!इसी प्रकार क्षेत्र, भव,भाव निमित्तिक उदय उदीरणा को समझ सकते है !
उदय काल प्राप्त परमाणुओं के अनुभव (फल) को उदय कहते है !
उदीरणा-उद्यावली के बहार स्थित कर्म परमाणुओं को कषाय सहित /कषाय रहित योग;मन,वचन विशेष काय,वीर्य विशेष दवरा उद्यावली में लाकर उनका उदय प्राप्त परमाणु के साथ फल देने को उदीरणा कहते है!इस प्रकार कर्मपरमाणुओ का अनुभव उदय और उदीरणा दोनों में लिया जाता है !उदय में काल प्राप्त कर्म परमाणु और उदीरणा में अकाल प्राप्त कर्म परमाणु रहते है,दोनों में अंतर यही है !
सामान्य नियम है की जहाँ जिस कर्म का उदय होता है वहां उसकी उदीर्ण अवश्य होती है फिर भी इसमें कुछ विशेषताए है –
१-मिथ्यात्व का उदय/उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है!किन्तु उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव को अंतिम आवली प्रमाण काल में मिथ्यात्व की उदीरणा नहीं होती,वहां उसका मात्र उदय ही होता है!एकेन्द्रिय से चतुरिंद्रिय जाति,आतप,स्थावर,सूक्ष्म,अपर्याप्त,और साधारण इन ९ प्रकृतियों की उदय उदीरणा मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होती है,अनंतानुबंधी चतुष्कक की उदय उदीरणा प्रथम २ गुणस्थानों में होती है आगे नहीं !सम्यग्मिथ्यात्व की उदय उदीरणा तीसरे गुणस्थान तक है,अन्य में नहीं!
४ थेगुणस्थान में अप्रयाख्यान चतुष्कक,नरकगति,देवगति,वैक्रयिक(शरीर,अंगोपांग),दुर्भग,अनादेय, अयशकीर्ति,(११) तथा नरकायु और देवायु कर्मप्रकृतियों का उदय उदीरणा होता है,इसके आगे नहीं !मात्र मरण के समय,आयु के अंतिम आंवलि काल में उदय उदीरणा नही होती!चार अनुपूर्वियों की उदय उदीरणा पहिले,दुसरे और चौथे गुणस्थानों में होती है उसके आगे नहीं !पांचवे संयतासंयत गुण स्थान में प्रत्याख्यान चतुष्कक,तिर्यंच गति,उद्योत और नीच गोत्र (७)प्रकृतियों की उदय उदीरणा होती है उससे आगे नहीं !तिर्यंचायु के भी पांचवे गुणस्थान में मरण से पूर्व अंतिम आंवलि काल में उदीर्ण नहीं होती , उदय होता है!मनुष्य आयु की छठे गुणस्थान तक उदीरणा और चौदवे गुणस्थान तक उदय रहता है !

आदि के दो शुक्ल ध्यान के स्वामी
शुक्लेचाद्येपूर्विद: ३७
संधि विच्छेद -शुक्ले+च+आद्ये+पूर्विद:
शब्दार्थ-शुक्ले-शुक्ल ध्यान के,च,आद्ये-आदि के,पूर्विद-पुर्वज्ञानधारी के होते है
अर्थ-आदि के दो ,पृथकत्व वितर्क और एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान पूर्व ज्ञानधारी श्रुतकेवली के होता है उनके श्रेणी आरोहण से पूर्व ‘च’ का अभिप्राय,धर्मध्यान और बाद में क्रम से पृथकत्व वितर्क और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान होता है!
बाद के शुक्ल ध्यान के स्वामी
परे केवलिन : ३८
शब्दार्थ- परे -बाद के दो,केवलिन -केवली के होते है
अर्थ-परे -बाद के दो अर्थात सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान और व्युपरतक्रियानिवर्ती शुक्ल ध्यान केवालिन:-सयोगकेवली और योग केवली के होते है

शुक्ल ध्यान के चार भेद-

पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रिर्यानिवर्तीनि ३९

संधिविच्छेद-पृथकत्ववितर्क+एकत्ववितर्क+सूक्ष्मक्रिया+अप्रतिपाति+व्युपरतक्रिया: +निवर्तिनि

अर्थ-पृथकत्ववितर्क,एकत्ववितर्क,सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति,व्युपरतक्रिया:निवर्तिनि शुक्लध्यान के ४ भेद है
भावार्थ-
पृथकत्ववितर्क-वितर्क श्रुतज्ञान,उस के अवलंबन के साथ पृथक्त्व होना जैसे कभी ॐ ,कभी ह्रीं,कभी श्रीं का ध्यान करना !
एकत्ववितर्क-श्रुत का अवलंबन एकत्व के साथ होना,जैसे ॐ पर ध्यान केन्द्रित रहना ,उस से हटना नहीं,एकत्ववितर्क शुक्लध्यान है! यह पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान से उत्कृष्ट है!
सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति-सूक्ष्मक्रिया-शरीर की क्रिया सूक्ष्म रह गयी हो,अर्थात १३वे गुणस्थान के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में,जहाँ सूक्ष्म काययोग शेष रह गया हो और जहा से अप्रतिपाती-नीचे गिरना असंभव हो,सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपति शुक्ल ध्यान होता है!
व्युपरतक्रिया:निवर्तिनि-व्युप्रतक्रिया निवर्तिनि-जहा मन,वचन,काय की समस्त क्रिया समाप्त हो गयी हो ऐसे १४वे गुणस्थानवर्ती केवली भगवान् के व्युपरत क्रिया:निवर्तिनि शुक्ल ध्यान होता है!
यद्यपि केवली भगवान् के ध्यान होता नहीं है,आचार्यों ने कहा है कि १३वे गुणस्थान के अंत और १४वे गुणस्थान में केवल उपचार से ध्यान कहा है,क्योकि ध्यान का कारण निर्जरा वहां देखी जा रही है!केवली भगवान् संसार के समस्त पदार्थों को एक साथ देखते जानते है जब कि ध्यान की परिभाषा है एकाग्र चिंतन योग! इन समस्त वस्तुओं पर चिंतन को वे रोके,तब ध्यान होगा जो असंभव है!
शुक्लध्यान का लक्षण-
त्र्येक योग काय योगायोगानाम् ४०
संधि विच्छेद-त्रियोग+एकयोग+काययोग+अयोगानाम्
अर्थ -पृथकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान तीनो योगो के,एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान किसी एक योग के,सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान, सूक्ष्म काय योग के, और व्युपरत क्रिया निवर्ती शुक्ल ध्यान बिना किसी योग के अवलंबन से होता है !चौथा शुक्ल ध्यान अयोगकेवली के होता है
भावार्थ-त्रियोग -तीन योगो के आवलंबन से पृथकत्व वितर्क, एकयोग- किसी एक योग के अवलंबन से एकत्व वितर्क, काययोग -सिर्फ सूक्ष्म काय योग के अवलंबन से सूक्ष्मक्रिया आप्रतिपाति ,अयोगानाम्-और बिना किसी योग के अवलंबन से व्युपरत क्रिया: निवर्ती शुक्लध्यान,अयोग केवली के होता है!
विशेष-चारों शुक्लध्यानों का काल अलग-अलग अंतर्मूर्हत है!पृथकत्ववितर्क और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान का काल १ मिनट से भी बहुत कम है!सूक्ष्म क्रियाप्रतिपति का भी बहुत कम काल है और व्युप्रतक्रिय निवर्ति का काल तो मात्र ५ लघु अक्षर बोलने के समय प्रमाण ,१४वे गुण स्थान का काल है !


आदि के दो शुक्ल ध्यान की विशेषता-
एकाश्रयेसवितर्कवीचारेपूर्वे !! ४१!
संधि विच्छेद-एकाश्रये+सवितर्क+वीचारे+पूर्वे
शब्दार्थ-एकाश्रये -जिन्हे पहिले दो ध्यान का आश्रय होता है वे एकाश्रय कहलाते है,सवितर्क-वितर्क सहित श्रुतज्ञान है!वीचारे-विचार वाले है-अर्थात पलटन सहित है.कभी कुछ विचार करना और कभी कुछ अन्य विचारना,पूर्वे -पहिले के दो (शुक्ल ध्यान )
अर्थ-सम्पूर्ण श्रुत ज्ञानीयों द्वारा ही दो ,पृथक वितर्क और एकत्ववितर्क ध्याये जाते है
जो वितर्क और विचार के साथ रहते है वे सवितर्क विचार है !
विशेष -प्रथम दो शुक्ल ध्यान का आधार/आश्रय मात्र एक,श्रुत ज्ञानी ही है ,अत: दोनों ही वितर्क और वीचार सहित है!अर्थात उन्हें श्रुतज्ञान के अवलंबन और पलटन सहित होते है!
अवीचारं द्वितीयम् !!४२ !
शब्दार्थ-अवीचारं-वीचार अर्थात पलटन रहित है, द्वितीयम् -दुसरे शुक्ल ध्यान -एकत्ववितर्क
अर्थ-दूसरा अर्थात +एकत्ववितर्क शुक्लध्यान अवीचारं-पलटने रहित है!एक आश्रय है श्रुतज्ञानियों को श्रुतज्ञान के अवलंबन से बिना पलटन के होता है!
विशेष-पहिले शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्क,सवितर्क और सविचार है जबकि दूसरा एकत्व वितर्क-सवितर्क एवं अविचार है !
वितर्क का लक्षण –

वितर्क:श्रुतम् !!४३!!
संधि विच्छेद-वितर्क:+श्रुतम्
शब्दार्थ-वितर्क:-तर्क करने को वितर्क कहते है ,श्रुतम् -वितर्क श्रुतज्ञान है !
अर्थ-श्रुतज्ञान को वितर्क कहते है,श्रुत का विशेष विचार होना वितर्क है,ॐ,ह्रीं श्रीं आदि के ध्यान को वितर्क कहते है !
विशेष-एकत्व वितर्कादि शुक्लध्यान कषाय रहित उत्तम संहनन युक्त जीवों के ही होता है,हमारे कषाय होती ही है,उत्तम सहनन नहीं है इसलिए हमारे ध्यान की योग्यता के अभाव में , हमे शुक्लध्यान होना असंभव है!


वीचार का लक्षण-
वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रांति !!४३!!
संधि विच्छेद-वीचार:+अर्थ+व्यञ्जन+योग+संक्रांति
शब्दार्थ-वीचार:-विचार है,अर्थ-अर्थ अर्थात कभी द्रव्य,कभी पर्याय का चिंतवन करना , व्यञ्जन-व्यञ्जन अक्षरों अ,आ ,इ , ई आदि,योग-मन,वचन ,काय योग , संक्रांति-पलटने को कहते है
अर्थ-वीचारो- वीचार
अर्थसंक्रांति- अर्थ का पलटना अर्थात कभी द्रव्य का चिंतन ,कभी पर्याय का चिंतन करना
व्यञ्जनसंक्रांति -व्यंजन का पलटना अर्थात कभी अ ,कभी आ कभी इ ,कभी ई का चिंतवन, ॐ,ह्रीं श्रीं आदि से चिंतवन करना व्यंजन संक्रांति है
योगसंक्रांति-योग का पलटना, अर्थात कभी मन से,कभी वचन से और कभी काय से चिंतवन करना योग संक्रांति है!
भावार्थ-इन तीनो के पलटने को अर्थ, व्यंजन और योग संक्रांति कहते है!इन तीनों प्रकार की संक्रांति को वीचार कहते है !
एकत्ववितर्क में अर्थ,व्यंजन,योग की संक्रांति नहीं होती,एक आधार से ही ध्यान होता है!
पृथकत्ववितर्क में तीनो संक्रांति होती है!पृथकत्ववितर्क शुक्लध्यान का फल मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम है!एकत्ववितर्क शुक्लध्यान का फल १२ वे गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण .और अन्तराय कर्म का क्षय है!जिन आचार्यों ने एकत्ववितर्क शुक्लध्यान ११ वे १२ वे गुणस्थान में माना है उनकी अपेक्षा यह कथन है! ८,९,१०.११ वे गुणस्थान में पृथकवितर्क शुक्लध्यान हुआ उसने मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम फल हुआ !
सूक्षमक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान केवली भगवान् को होता है,जब वे योग निरोध करते है तो उनकी दिव्यध्वनि बंद हो जाती है,वे निर्वाण स्थल के लिए विहार करते है,निर्वाण स्थल पर पहुँच कर वे ध्यान में एकाग्रचित हो जाते है!जब उनकी आयु अंतर्मूर्हत शेष रह जाती है तब वे केवली समुदघात,अन्य तीन अघातिया कर्मों; नाम,गॊत्र और वेदनीय की ८५ कर्म प्रकृतियों की स्थिति को आयुकर्म की शेष स्थिति,अंतर्मूर्हत के बराबर लाने के लिए, करते है!
आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार सभी केवलीयों को समुदघात करना पड़ता है किन्तु कुछ आचार्यों की मान्यता है कि जिन केवलीयों की केवलज्ञान के बाद ६ माह से अधिक आयु रहती है उन्हें समुदघात करने या नहीं करने का कोई नियम नहीं है किन्तु जिनकी आयु ६ माह से कम रह जाती है उन्हें समुदघात करने का नियम है !
शंका-केवली भगवन शेष ३ अघातिया कर्मों की स्थिति आयुकर्म की अंतर्मूर्हत स्थिति करने के बाद क्या करते है?
समाधान-अंतर्मूर्हत स्थिति होने के बाद,केवली अल्प विश्राम लेकर बादर काययोग के द्वारा, बादर वचनयोग,बादर मनोयोग,बादर श्वासोच्छ्वास को समाप्त कर फिर विश्राम कर सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग,सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म श्वासोच्छवास को समाप्त करते है. फिर विश्राम कर,मात्र सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान ध्याते है जिसके द्वारा शेष तीन कर्मो की स्थिति जो अंतर्मूर्हत हो गयी थी उस,अंतर्मूर्हत को आयुकर्म के बराबर कर लेते है!
शंका-केवली के कौन से काययोग होते है?
समाधान- केवली भगवान् के दंड समुदघात में औदारिककाययोग होता है, कपाट समुदघात में औदारिकमिश्रकाययोग,प्रतर और लोकपूर्ण समुदघात में कार्मणकाययोग होता है,शरीर में आत्मप्रदेश रहते है किन्तु शरीर से सम्बन्ध नहे रहता ! लौटते हुए कपट में औदारिकमिश्रकाययोग और दंड समुद घात में औदारिककाययोग होता है! उसके बाद वे आत्म प्रदेश शरीर में प्रवेश कर जाते है!
शंका-केवली भगवान् के कितने प्राण होते है ?
समाधान-केवली भगवन के १३ वे गुणस्थान में,समवशरण में भी पञ्च इंद्र और मन,६ के अतिरिक्त चार प्राण,वचनबल प्राण,कायबलप्राण,आयुप्राण और श्वासोच्छवास प्राण होते है!प्रतर और लोकपूर्ण समुदघात में उनके दो प्राण,कायबल और आयुप्राण रहते है,१४वे गुणस्थान में कायबल प्राण भी समाप्त हो जाता है, मात्र आयुप्राण शेष रह जाता है !
शंका-केवली भगवान् पर्याप्तक है या अपर्याप्तक ?
समाधान -दंड समुदघात में पर्याप्तक है,कपाट समुद्घात में औदारिक मिश्रकाययोग होने के कारण निवर्तपर्याप्तक है,प्रतर और लोकपूर्ण समुदघात में कार्मणकाययोग है इसलिए अपर्याप्तक है !
शंका-समुद घात का क्या काम है?
समाधान-गीली धोती को यदि निचोड़ कर रख दे तो उसे सूखने मे फ़ैलाने के अपेक्षाकृत अधिक समय लगेगा,यदि दोनों छोर से पकड़ कर, फैलाकर उसे हिलाते रहे तो जल्दी सुख जायेगी! इसी प्रकार केवली भगवान् आत्म प्रदेशों को निकालकर,लोक में फैलाकर अपने अघातियाकर्मों की स्थिति, अंतर्मूर्हत प्रमाण कर लेते है!
शंका-सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली में कोई अंतर होता है?
समाधान-गुणों की अपेक्षा कोई अंतर नहीं रहता,समुदघात दोनों को ही करना होता है!प्राण,पर्याप्तियां भी सामान होते है! १३ वे गुण स्थान के अंत से १४ वे गुणस्थान की समस्त क्रियाये दोनों को करनी होती है!सामान्य केवली भी अनेक प्रकार के होते है किन्तु इन सब की अपेक्षा उन में भी कोई अंतर नहीं होता!
शंका-१४ वे गुणस्थान का समय ५ लघु अक्षर सामान है,किन्तु हर जीव की बोलने की गति भिन्न भिन्न है ,फिर यह समय कैसे निर्धारित होता है?
समाधान- जो मुनि राज वचनबल ऋद्धि के द्वारा द्वादशांग का पाठ अंतर्मूर्हत में कर लेते है, उन्हें जितना समय ५ लघु ह्रस्व अक्षर बोलने में लगता है वह १४ वे गुणस्थान का काल है!यह काल वचन,बल ऋद्धिधारी मुनिमहाराजों का एक सामान होता ह


पात्रों की अपेक्षा निर्जरा का क्रम

सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा:!! ४५ !!

संधि विच्छेद-सम्यग्दृष्टि+श्रावक+विरत+अनन्तवियोजक+दर्शनमोहक्षपक+उपशमक+उपशांत मोह+क्षपक+क्षीणमोह+जिना: +क्रमश:+असंख्येयगुणनिर्जरा अर्थ-सम्यग्दृष्टि,श्रावक,विरत,अनंतवियोजक,दर्शनमोहक्षपक,उपशमक,उपशांतमोह,क्षपक,क्षीणमोह,जिना:-जिनेन्द्र भग वान् की उत्तरोतर वृद्धिगत,क्रमशो -क्रमश:,असंख्येयगुण-असंख्यात गुणी-असंख्यातगुणी निर्जरा प्रति समय होती है ! भावार्थ-अविपाक निर्जरा का प्रारंभ प्रथमगुणस्थान,जिस समय,मिथ्यादृष्टिजीव सम्यक्त्व के सम्मुख होता है,उसके करण लब्धि में प्रवेश होने पर,अध:करण के उपरान्त,अपूर्वकरण के पहले समय से हो कर,प्रतिसमय वृद्धिगत असंख्यातगुणी निर्ज रा होती है!अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण तक बढ़ती है,अनिवृत्ति के अंतिम समय के उपरान्त वह जीव प्रथमोपशम सम्य ग्दृष्टि हो जाता है!मिथ्यादृष्टि जीव के अविपक निर्जरा,अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में जितनी होती है,उससे असंख्यात गुणी निर्जरा सम्यगदृष्टि जीव की होती है!प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव की जब तक विशुद्धि बढ़ती है तब तक निर्जरा प्रति समय,असंख्यात गणी वृद्धिगत होती है और विशुद्धि के घटने के साथ साथ निर्जरा घटने लगती है!
पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक,१ से ११वॆ प्रतिमाधारी तक,आर्यिकामाताजी की २४ घंटे,प्रतिसमय निर्जरा,सम्यग्दृष्टि की उत्कृष्ट निर्जरा से असंख्यातगुणी होती है और परिणामों के अनुसार घटती-बढ़ती है!सम्यगदृष्टि के निर्जरा प्रति समय सदा नहीं होती केवल विशुद्धि के बढ़ने तक ही होती है! प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव,क्षयोपशमिक या क्षयिक सम्यग्दृष्टि भी हो जाये तब भी उसके प्रतिसमय निर्जरा होने का विधान नहीं है!
६-७ वे गुणस्थानवर्ती विरत मुनिमहाराज की निर्जरा श्रावक से असंख्यात गुणी,चारों गतियों के अनन्तानुबन्धी वियोजक जीवों की इनसे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है,अनन्तानुबन्धी वियोजक,नारकी जीव की निर्जरा विरतमुनिराज से अधिक होती है किन्तु नारकी की निर्जरा उस अन्तर्मुहूर्त तक ही होगी.बाद में समाप्त हो जायेगी उस अन्तर्मुहूर्त में वह नारकी अनंतानुबंधी के द्रव्य का परिणमन अप्रत्याख्यानावरण,प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन में कर लेगा!किन्तु मुनिराज की निर्जरा २४ घंटे होगी!दर्शनमोह के क्षपणा करने वाले जीव की निर्जरा इनसे असंख्यातगुणी होती है,यह चौथे गुणस्थानवर्ती भी हो सकता है,जिसके निर्जरा मात्र अन्तर्मुहूर्त होती है!इनसे असंख्यातगुणी निर्जरा उपशमक श्रेणी पर चढ़ने वाले,८वे -९वे ,१०वे गुणस्थानवर्ती मुनिमहाराजों की होती है!इससे असंख्यात गुणी उपशांत मोह अर्थात ११वे गुण स्थान वर्ती मुनि महाराज की होती है!उससे असंख्यात गुणी निर्जरा क्षपक श्रेणी पर चड़ने वाले ८-९-१० गुणस्थान वर्ती मुनिराज की होती है!उससे असंख्यात गुणी निर्जरा १२वे क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनिमहाराज की होती है!इनसे असंख्यात गुणी निर्जरा १३वे गुणस्थानवर्ती जिनेन्द्र भगवान् की होती है,इनसे असंख्यात गुणी निर्जरा केवली भगवान् की १४वे गुण स्थान में होती है! इनके क्रमस: असंख्य असंख्यात गुणी निर्जरा होती है!
शंका- ८वे गुणस्थान वर्ती मुनिराज,क्षपकश्रेणी पर चढ़ते मुनिराज,सामायिक छेदोपस्थापना चरित्र वालों की निर्जरा उपशम मोह ११वे गुणस्थानवर्ती मुनिराज,यथाख्यात चरित्र वालों से, असंख्यात गुणी कैसे हो सकती है क्योकि इनके तो कषाय का उदय अभी है?
समाधान-यद्यपि संयम लब्धि स्थान ११वे गुणस्थान वाले का उच्च है,किन्तु विशुद्धिलब्धि स्थान ८ वे गुणस्थानवर्ती क्षपक का ऊँचा है!इसलिए ८ वे गुणस्थानवर्ती की निर्जरा अधिक होती है!
शं का-पंचम गुणस्थानवर्ती जीव पंचेन्द्रिय विषयों का सेवन करते है फिर उनकी प्रति समय निर्जरा कैसे होती है?
समाधान-प्रथम प्रतिमाधारी से ११वॆ प्रतिमाधारी ,आर्यिका माता जी के संयामसंयम है,देश चारित्र है,उन्होंने जीवन पर्यन्त नियम व्रत लिए है उनके इस संयम के कारण प्रति समय निर्जरा होती ही है क्योकि उनके सदा भाव रहते ही की उनसे कोई हिंसा नहीं हो जाए,इन्ही भावों के कारण वे घर गृहस्थी के कार्य में लगे रहने के बावजूद भी प्रति समय निर्जरा करते है!
उनका देश संयम निर्जरा में कारण है! चौथे गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि के प्रति समय निर्जरा नहीं होती,किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती चाहे क्षयोपशमिक समयगदृष्टि है,देश संयमी है तो उसके असंख्यात गुणी निर्जरा प्रति समय होती है!
अनन्तानुबंधी की विसंयोजना का क्या तात्पर्य है ?
आत्मा के परिणामों की विशुद्धि से,जो क्षयोपशामिकसम्यगदृष्टि जीव अनंतानुबंधी के समस्त द्रव्य को आत्मा से अलग कर,अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान,और संज्वलन और नोकषाय रूप करने को अनंतानुबंधी की विसंयोजना कहते है!यद्यपि यह विसंयोजना क्षय जैसी ही है,क्षय नहीं कहा है क्योकि यदि विसंयोजना वाला जीव मिथ्यात्व में आ जाता है तो अनंतानुबंधी की पुन:संयोजना हो जाती है और यदि क्षय हो जाए तो वह सत्ता में नहीं आती!वि संयाज्नो मात्र अनंतानुबंधी की ही होती है,अन्य किसी प्रकृति की नहीं!
असंख्यात गुणी से क्या तात्पर्य है?
पहले समय में जितनी निर्जरा हुई उससे असंख्यात गुणी निर्जरा दुसरे समय में,उससे अगले/ तीसरे समय में दुसरे समय की निर्जरा से असंख्यात गुणी !

विशेषार्थ-दस गुण स्थान को प्राप्त जीवों के परिणाम उत्तरोत्तर अधिक विशुद्ध होते जाते है इसलिए उनके कर्मों की निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यात गुनी होती है इतना ही नहीं वहां निर्जरा काल असंख्यत्व भाग -असंख्यत्व भाग भी उत्तरोत्तर घटता जाता है !जिनेन्द्र भगवान का निर्जरा काल न्यूनतम है उससे संख्यात गुना क्षीण कषाय का है !इस प्रकार ,यद्यपि निर्जरा काल सातिशय मिथ्यादृष्टि तक अधिकाधिक होता है किन्तु सामान्य से प्रत्येक का निर्जरा काल अन्तर्मुहूर्त ही है !इस उत्तरोत्तर कम में निर्जरा उत्तरोत्तर अङ्कधिक होती है !
सम्यग्दृष्टि को गुण श्रेणी निर्जरा (उक्त वर्णित) में जो अन्तर्मुहूर्त काल लगता है उससे श्रावक को संख्यात गुणा हीन काल लगता है !किन्तु सम्यग्दृष्टि द्वारा जितने कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती है उससे संख्यात गुणे कर्म परमाणुओं की निर्जरा श्रावक करता है !इस सूत्र में दस गुणश्रेणी निर्जरा का निर्देश दिया है !असंख्यात गुणी कम ,श्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होना गुणश्रेणी निर्जरा है

निर्ग्रन्थ मुनि महाराज के भेद-
पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानिर्ग्रन्था: ४६
संधि विच्छेद -पुलाक+वकुश+कुशील+निर्ग्रन्थ+स्नातका+निर्ग्रन्था:
अर्थ-निर्ग्रन्थमुनि ५ है- पुलाक, वकुश,कुशील,निर्ग्रन्थ,स्नातक होते है
पुलाक-जिन के उत्तर गुणों की भावना होती ही नहीं और उनके मूल गुणों में भी किसी क्षेत्र अथवा काल में कथित-कदाचित दोष लग जाते है,वे पुलाक मुनि महाराज होते है!
वकुश-जो मुनिराज मूलगुणों (बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रहों के त्याग)का निर्दोष पालन करते है किन्तु अपने शरीर उपकरणों पिच्छी, कमंडलादि से स्नेह रखते है, उनकी शोभा बढाने में लगे रहते है,वे परिग्रह से घिरे रहते है,वकुश मुनिराज है! वकुश का अर्थ है चितकबरा !जैसे सफ़ेद कपड़े पर काले धब्बों का लग जान उसी प्रकार मुनि के निर्मल आचार विचार में मोह के धब्बे होते है !उत्तर गुणों का पालन करते है,उत्तर गुणों में कथित-कदाचित दोष लग जाते है!
कुशील साधु के दो भेद प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील है !
कुशील प्रतिसेवना-इन मुनिराजों के मूल और उत्तरगुण परिपूर्ण होते है किन्तु उत्तरगुणों में कथित कदाचित कभी दोष लग जाता है वे प्रतिसेवना कुशील मुनि होते है!
कषाय कुशील-संजवलन कषाय के अतिरिक्त अन्य कषायों का कोई प्रभाव नहीं होता,उनके उदय को उन्होंने वश में कर लिया हो ,वे कषाय कुशील साधु कहलाते है
निर्ग्रन्थ-जिन्होंने मोहनीय कर्मों का क्षय कर लिया हो तथा शेष घातिया कर्मों का उदय भी जल में रेखाके समान रह जाता है.तथा अन्तर्मुहूर्त के समय बाद ही उन्हें केवल ज्ञान एवं दर्शन प्रकट होने वाला हो उन १२वे गुणस्थानवर्ती कषाय रहित मुनिराज को निर्ग्रन्थ साधु कहते है!,
स्नातक-चारों घातिया कर्मों का क्षय करने वाले केवली भगवान् को स्नातक कहते है
निर्ग्रन्था- ये ५ प्रकार के निर्ग्रन्थ मुनि राज है!
ये पांचों प्रकार के ६-७ और इनसे ऊपर के गुणस्थान वाले भावलिंगी मुनि होते है! द्रव्य लिंगी के नहीं !
वर्तमान समय में मुनिराज जो मूल गुणों का पालन नहीं करते उन्हें पुलाक मुनि में ले सकते है या नहीं?
पुलाक मुनि वे है जिनमे उत्तर गुणों के पालने की तो भावना होती ही नहीं है तथा उनके मूलगुणों में कथित-कदाचित दोष लग जाते है!जिन मुनिराज के दोष नित्य प्रति लग रहे है,जिन्हें मूलगुणों की चिंता ही नहीं है, उनको पुलाक मुनि में नहीं ले सकते! जैसे वर्तमान में जो मुनिराज लैपटॉप,मोबाइल,आदि रखते है,कूलर.पंखे वातानुकुलित उपकरणों,हीटर का प्रयोग करते हों, उन्हें मूलगुणों की चिंता ही नहीं है,आचार्यों ने कथित-कदाचित मूलगुणों में दोष लगने पर पुलाक मुनि कहा है न की निरंतर दोष लगने पर! इन उपकरणों के प्रयोग से त्रस-स्थावर जीवों की बहुत हिन्सा होती है जिससे उनके अहिंसा महाव्रत का पालन नहीं होगा!सचित फल का सेवन करने से अहिंसामहाव्रत का पालन नहीं हो सकेगा!
जिनको मूलगुणों की चिंता ही नहीं उन्हें भावलिंगी या पुलाक कैसे कह सकते है!
वर्तमान के मुनि, ऐसा आचरण करने वाले,इन पांचों में से किसी में भी नहीं आयेगे!ये तो द्रव्यलिंगी भी नहीं है! द्रव्यलिंगी मुनिराज मूलगुणों का पूर्ण पालन करते है किन्तु उनके सम्यग्दर्शन नहीं होता!द्रव्यलिंगी मुनिराज का गुणस्थान यद्यपि आचार्यों ने १-५ तक बताया है,किन्तु जिनके मूलगुणों का पालन ही नहीं है उनका गुण स्थान पहला ही है!

पुलाकादि मुनियों की विशेषता –
संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्योपपादस्थानविकल्पत:साध्य: !! ४७ !!

संधि विच्छेद -संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थ-लिंग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पत:साध्य:

अर्थ-निर्ग्रथ पुलाकादि मुनिराज में संयम,श्रुत,प्रतिसेवना,तीर्थ,लिंग,लेश्या उपपाद,स्थान ;इन आठ अनुयोग के अपेक्षा विशेषता-भेद है!
१-संयम-पुलाक,वकुश और प्रतिसेवनकुशील के सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र (२ संयम) ,कषाय-कुशील के इन दोनों सहित परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र (४ संयम) और निर्ग्रन्थ और स्नातक के यथाख्यातचारित्र (१-संयम) होता है यद्यपि ये पाँचों मुनिराज निर्ग्रन्थ है किन्तु संयम की अपेक्षा इनमे भेद है !
२-श्रुत-पुलाक,वकुश और प्रतिसेवना कुशील का,उत्कृष्ट श्रुत;अभिन्नाक्षर,१० पूर्व के ज्ञाता,कषायकुशील और निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट श्रुत १४ पूर्व के ज्ञाता,पुलाक का जघन्य श्रुत;आचारांग के ज्ञाता मात्र,वकुश,कुशील और निर्ग्रन्थ का जघन्य श्रुत अष्टप्रवचन मात्र पांच समिति और तीन गुप्ती मात्र ,स्नातक श्रुतज्ञान से रहित केवलज्ञानी होते है,उनके श्रुत के अभ्यास का प्रश्न ही नहीं उठता !
३-प्रतिसेवना -से तातपर्य व्रतों का दूषित हो जाना !पुलाक मुनिराज पंच महाव्रतों में से किसी एक अथवा रात्रि भोजन त्याग व्रत में परवश कदाचित दोष लगा लेते है!वकुश मुनिराज की शरीर और उपकरणों की सुंदरता में आसक्ति होने के कारण विराधना होती है !
लिंग-इनमे भावलिंग की अपेक्षा कोई अंतर नहीं होता किन्तु द्रव्यलिंग की अपेक्षा,कोई मुनिराज पिच्छी, कमंडल दोनों रखते है!प्रतिसेवना कुशील अपने उत्तर गुणों में कभी कदाचित दोष लगा लेते है !कषाय कुशील,निर्ग्रन्थ और स्नातक के प्रतिसेवना नहीं होती क्योकि वे त्यागी वस्तुओं का सेवन कभी नहीं करते !
४-तीर्थ -तीर्थ अर्थात सभी तीर्थंकरों के तीर्थ (काल)में पांचो प्रकार के साधु होते है !
५-लिंग-द्रव्य और भाव लिंग के दो भेद है!भावलिंग की अपेक्षा पांचों साधु भावलिंगी है क्योकि संयमी और सम्यग्दृष्टि है!द्रव्य लिंग की अपेक्षा सभी साधु दिगंबर होते हुए भी स्नातक पिच्छी कमंडल नही रखते,जैसे तीर्थंकर प्रभु के पास मुनि होने पर पिच्ची,कमंडल दोनों नहीं होते,चक्रवर्ती के मल,मूत्र नहीं होता इसलिए मुनि दीक्षा धारण करने पर उनके पास कमंडल नहीं होता,मात्र पिच्छी रखते है,शेष दोनों रखते है !इस प्रकार अंतर्लिंग की अपेक्षा इनमे अंतर नहीं है,किन्तु बाह्य लिंग की अपेक्षा अंतर है!
६-लेश्या-साधारणतया पुलाक मुनि के पीत,पदम्,शुक्ल तीन शुभ लेश्याये होती है किन्तु कभी उपकरण में आसक्ति वश अशुभ लेश्याए भी हो सकती है!वकुश और प्रतिसेवना कुशील के कदाचित छ: लेश्याये होती है,कषायकुशील के कापोत,पीत.पद्म और शुक्ल चार लेश्याये होती है!स्नातक और निर्ग्रन्थ के मात्र शुक्ल लेश्या होती है!आयोगकेवली लेश्या रहित होते है !
७-उपपाद-पुलाक मुनिराज का उत्कृष्ट उपपाद सहस्रार,१२वे कल्प के उत्कृष्ट देवों की स्थिति में होता है!वकुश और प्रतिसेवना कुशील का उत्कृष्ट उपपाद आरण्य और अच्युत कल्प १६वे स्वर्ग में २२ सागर स्थिति वाले देवों में होता है!कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट उपपाद सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर स्थिति वाले देवों में होता है !११वे गुणस्थान तक के निर्ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते है,१२वे गुण स्थान वर्ती और स्नातक का पुनर्जन्म नहीं होता!पांचो साधु का जघन्य उपपाद सौधर्मेन्द्र कल्प में २ सागर की स्थिति वाले देवों में होता है!
८-स्थान-कषाय निमित्तक अन्य संयम स्थान है!पुलाक और कषायकुशील के जघन्यतम लब्धिस्थान है वे दोनों असंख्यात स्थानों तक एक साथ जा सकते है!इसके बाद पुलाक की व्युच्छिति होती है!आगे कषाय कुशील असंख्यात स्थानो तक अकेला जाता है इसके आगे कषायकुशील प्रतिसेवनकुशील और बकुश असंख्यात स्थानों तक एक साथ जाते है!यहाँ बकुश की व्युच्छिति होती है!इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर प्रतिसेवनकुशील की व्युच्छिति होती है!पुन: इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर कषायकुशील की व्युच्छिति होती है!इससे आगे अकषाय स्थान है जिनहे निर्ग्रन्थ प्राप्त करता है!इससे असंख्यात स्थान आगे जाकर इनकी व्युच्छिति हो जाती है!इससे एक स्थान आगे जाकर स्नातक निर्वाण को प्राप्त करता है !इनकी संयम लब्धि अनंत गुनी होती है !

पुलाक मुनि से ऊपर उत्तरोतर विशुद्धि वृधिगत होती है!
वर्तमान में तीन प्रकार के मुनि दृष्टिगोचर होते है!पुलाक,बकुश और प्रतिसेवना कुशील,इनकी उत्पत्ति १६ वे स्वर्ग तक है!वर्तमान में जीवों के ३ ही संहनन है,कषाय कुशील,मिर्ग्रंथ और स्नातक नहीं होते!जो मुनि राज मूलगुणों का पालन करते हो और जिनके अन्तरंग में भावलिंग हो,जिसका ज्ञान हमें नहीं हो सकता!उनका गुणस्थान हमें नहीं मालूम क्योकि पहले गुणस्थान वाले महाराजो में भी मूलगुणों का पालन उत्कृष्ट रूप से पाया जाता है!हम तो ऊपर से उनके २८ मूल गुण देख सकते है!केवल २८ मूल गुणधारी मुनि ही पूजनीय है,वे इन तीन रूप हो सकते है!वर्तमान में,आचार्यों के अनुसार पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशील अत्यंत बिरले ही पाए जाते है!

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2 thoughts on “तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra) अध्याय 9

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