अजीव तत्व

इस अध्याय में आचार्यश्री ने १-१६ सूत्रों में लोक में विध्यमान ६ ही (हीनाअधिक नही ) द्रव्यों और उन के विभिन्न गुणों,१७-२२ तक उनके उपकारों और २३-४२ में पुद्गल द्रव्य के लक्षणादि का निरूपण किया है!आइये इन ४२ सूत्रों के द्वारा मुख्यत: अजीव द्रव्य को समझने का प्रयास करते है!प्रथम सूत्र में आचार्य बहु प्रदेशी (कायवान) अजीव द्रव्य के भेदो का निरूपण करते है-
इस अध्याय में हम लगभग २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित रसायन विज्ञान के रहस्यों को सूत्र २३-४२ तक समझ सकेंगे जिनको अनुसंधान द्वारा आधुनिक वैज्ञानिको ने हमारे समक्ष भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग २५०० वर्ष बाद १८वॆ-१९वी सदी में अनुसंधान द्वारा खोज कर रखा है!

अजीवकायाधर्माधर्माकाशपुद्गला: !!१!!
संधि विच्छेद -अजीव+काया+धर्म+अधर्म+आकाश+पुद्गला:
शब्दार्थ-अजीव-चेतन रहित,काया-, कायवान(बहुप्रदेशी),धर्म,अधर्म,आकाश,पुद्गला:
अर्थ-धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल चार द्रव्य;अजीव(चेतनरहित) और शरीर की भांति कायवान अर्थात बहु प्रदेशी है !
भावार्थ-
धर्म द्रव्य-जो गतिशील जीव और पुद्गलों के गमन में निष्क्रिय उत्प्रेरक की भांति सहायक/निमित्त होता है,रुके हुए पुद्गल और जीवों को गमन के लिए बाध्य नहीं करता,धर्म द्रव्य है !
अधर्म द्रव्य-जो द्रव्य स्थिर जीव और पुद्गलों के स्थिर रहने में निष्क्रिय उत्प्रेरक की भांति सहायक/निमित्त होता है,गतिशील पुद्गल और जीवों को स्थिर होने के लिए बाध्य नहीं करता,अधर्म द्रव्य है!
आकाश द्रव्य-समस्त द्रव्यों को अवकाश देने वाले द्रव्य को आकाश द्रव्य कहते है!इसके लोकाकाश-त्रिलोक मे जितने आकाश में धर्म/अधर्म द्रव्य है वह लोकाकाश कहलाता है और अलोकाकाश;-लोकाकाश से बाहर का अनन्त आकाश अलोकाकाश है ,दो भेद है !
पुद्गल द्रव्य -स्पर्श,रस,गंध और रूप (वर्ण) गुणों सहित द्रव्य को पुद्गल कहते है !
विशेष-
१-छ:द्रव्यों में से दो द्रव्यों;जीव और काल को इस सूत्र में सम्मिलित नहीं लिया क्योकि जीव द्रव्य चेतन गुण युक्त है और काल द्रव्य यद्यपि अजीव है,किन्तु एक प्रदेशी है,बहु प्रदेशी नहीं है अर्थात कायवान नहीं हैं!इस सूत्र में केवल कायवान अजीव द्रव्यों को ग्रहण किया है !
२-एक से अधिक प्रदेशी को कायवान कहते है!यद्यपि पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी है,किन्तु वह अन्य पुद्गल परमाणु से संघात (मिल) कर स्कंध निर्मित करता है इस अपेक्षा से वह बहुप्रदेशी कहा जाता है जबकि कालाणु भी एक प्रदेशी है किन्तु वह अन्य कालाणुओं से संघात कर स्कंध नहीं बना सकता इसलिए उसे एक प्रदेशी कहा है और वह कायवान नहीं है !
३- उक्त सूत्र में इन चारों को द्रव्य नही खा है किन्तु अगले सूत्र में आचार्य स्पष्ट करते है की ये चारो द्रव्य है


द्रव्यों की गणना –
द्रव्याणि -!!२!!
संधि-विच्छेद-द्रव्य+आणि
शब्दार्थ-द्रव्य-द्रव्य ,आणि -है
अर्थ- ये चार पदार्थ धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल(उक्त सूत्र से ग्रहण किये गए है)- द्रव्य है !
विशेष –
१-द्रव्य-द्रव्य का लक्षण सत (अस्तित्व) है!जो अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायों को प्राप्त करता है या उनसे प्राप्त होता है वह द्रव्य है!जिस मे गुण पर्याय होते है वह द्रव्य है अथवा उत्पाद-ध्रौव्य व्यय युक्त पदार्थ द्रव्य है!
किसी द्रव्य में सदैव(प्रत्येक पर्याय में) विध्यमान रहने वाले धर्म को गुण कहते है!गुण द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्याप्त रहता है!जगत में पदार्थ परिणमनशील होते हुए भी ध्रुव है इसलिए उसे द्रव्य कहते है,वह अपने पर्याय और गुण का उल्लघन कभी नहीं करता !


जीव में द्रव्यत्व –
जीवश्च !!३!!
संधि-विच्छेद -जीवा:+च
शब्दार्थ-जीवा: -जीवों के अनेक भेद ( जीवाSmile,च- भी(द्रव्य है )
अर्थ-जीव (अनेक भेदों सहित )भी द्रव्य है !
विशेष-
१-सूत्र में जीव द्रव्य के साथ बहुवचन लगाने का कारण है की इसके अनेक भेद है जैसे मुक्त-संसारी,स्थावर-त्रस, एकेन्द्रिय,पंचेन्द्रिय,संज्ञी-असंज्ञी,जीव आदि!१४ मार्गणा से भी जीव द्रव्य के अनेक भेद है !
२-सूत्र १ से ३ तक पांच द्रव्यों तथा सूत्र ३९ में काल द्रव्य सहित कुल छ द्रव्य की संख्या निश्चित करके अन्यवादियों द्वारा माने गए पृथिवी,जल,अग्नि,वायु,मन का अंतर्भाव पुद्गल द्रव्यों में ही हो जाता है क्योकि ये स्पर्श,रस ,गंध,वर्ण युक्त है !
शंका-मन वायु में रुपादिक नहीं होते,ये पुद्गल कैसे है ?
समाधान-वायु में स्पर्श होता है,जिसे हमसभी अनुभव कर सकते है!इस प्रकार वायु में रूपादि प्रमाणित हुआ !उक्त चार पुद्गल के गुणों में से कोई भी एक अनुभव करने से उस मे बाकी गुण भी अवश्य ही होते है ,हमारी इन्द्रिय उन्हें अनुभव करने में असक्षम होती है!जैसे परमाणु को हमारी चक्षु इन्द्रिय देखने में सामर्थ्यवान नहीं है किन्तु उसका अस्तित्व,उससे निर्मित उसके बड़े स्कंध को देखकर प्रमाणित हो जाता है! जल भी इसी प्रकार गंध वाला है किन्तु हमारी नासिका (घ्राणेंद्रिय)उसकी गंध को सूंघने में सक्षम नहीं है,किन्तु एक स्पर्श होने के कारण पृथ्वी के सामान है!अग्नि भी रस गंध युक्त है !
मन;भाव मन और द्रव्य मन दो प्रकार का है!उन में,भाव मन ज्ञान रूप है और ज्ञान जीवो का गुण है ,इसलिए भाव मन का अंतर्भाव जीव में हो जाता है !द्रव्य मन में रूपदिक पाये जाते है इसलिए वह पुद्गल द्रव्य की पर्याय हुई!जैसे मन रूपादिक सहित है,ज्ञानोपयोग का कारण होने से चक्षु इन्द्रिय के समान है!शब्द पौद्गलिक है, उसमे ज्ञानोपयोग कारणता है !
शंका -परमाणु के समान मन और वायु में रूपादि गुण नहीं दीखते –
समाधान-वायु और मन भी रूपादि गुण युक्त सिद्ध होते है क्योकि सब परमाणुओं में,सब रूपादि गुणवाले कार्य होने की क्षमता मानी गई है!दिशा का भी अंतर्भाव आकाश में हो जाता है क्योकि सूर्य के उदय की अपेक्षा, आकाश प्रदेश पंक्तियाँ में,यहाँ अमुक दिशा है,इस प्रकार व्यवहार की उत्पत्ति होती है !
इस प्रकार जैन दर्शनानुसार बताये गए द्रव्य छ: ही है ,हीनाधिक नहीं !


द्रव्यों की विशेषता –

नित्यावस्थितान्यरूपाणि !!४!!
संधि विच्छेद-नित्य+अवस्थिताणि+अन्यरूपाणि
शब्दार्थ-नित्य-अविनाशीहै,अवस्थिताणि-अवस्थित है;अर्थात उनकी संख्या छः ही है ,हीनाधिक नहीं, अन्यरूपाणि-अरूपी अर्थात स्पर्श,रस,गंध और रूप रहित है,अमूर्तिक है
अर्थ-सभी द्रव्य नित्य है;क्योकि अविनाशी है,अवस्थित है क्योकि इनकी संख्या छःही है हीनाधिक नहीं!समस्त जीवात्माओं की निश्चित संख्या है कभी भी हीनाधिक नहीं होती!द्रव्य अरूपी,अमूर्तिक है क्योकि इनमे रस गंध ,रूप और स्पर्श गुण नहीं है !
विशेष –
१-इस सूत्र में सामान्य से ५ द्रव्यों को अरूपी कहा है,अगले छठे सूत्र में पुद्गलद्रव्य को रुपी बताया है ,यदि यह सूत्र नही लिखते तो पुद्गल द्रव्य के भी अरूपी की अवधारणा होती !
२-प्रत्येक द्रव्य के सामान्य और विशेष दो गुण होते है!जैसे धर्म द्रव्य का विशेष गुण गतिशील पुद्गल और जीव द्रव्यों की गति में उत्प्रेरक की भांति सहायता देना है और अस्तित्व उसका सामान्य गुण है !किसी भी द्रव्य के गुण का विनाश कभी नहीं होता,उसका स्वभाव सदा ,प्रत्येक पर्याय में उसके साथ रहता है अत:सभी द्रव्य नित्य है !


पुद्गल द्रव्य रूपी है –
रूपिण:पुद्गला: !!५!!
संधि विच्छेद -रूपिण:+पुद्गला:
शब्दार्थ -रूपिण:-रूपी है,पुद्गला:-पुद्गल द्रव्य
अर्थ-पुद्गल द्रव्य रूपी है अर्थात मूर्तिक है !
विशेषार्थ-
१-इस सूत्र से यह भी स्पष्ट हो गया कि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पाँचों द्रव्य अरूपी अर्थात अमूर्तिक है!पुद्गल भी नित्य अवस्थित द्रव्य है अत:इनकी मात्र भी हीनाधिक नही होती है !
२-पुद्गला: बहु वचन में है जो सूचित करता है की पुद्गल द्रव्य भी है !
३-पुद्गल में रस,गंध,वर्ण (रूप),और स्पर्श चारों गुण,अभिनावी है,चारों एक साथ रहते है किन्तु दिखने में सिर्फ रूप ही आता है ,शेष गुण दीखते नहीं इसलिए पुद्गल को रुपी कहा है!जिस प्रकार जीव का दर्शन और ज्ञान गुण है किन्तु जब जीव की चर्चा करी जाती है तब ज्ञान गुण की ही चर्चा करी जाती है क्योकि दर्शन समझ नहीं आता, ज्ञान समझ में आ जाता है !
४-पुद्गल के परमाणु और स्कंध रूप अनेक भेद है !पुद्गल परमाणु से जुड़कर बड़े स्कंध भी बनाते है और उनमे से परमाणु टूटकर छोटे स्कंध भी बनते है!यह गुण अन्य द्रव्यों में विध्यमान नहीं है!जैसे दो जीवों जुड़ते नहीं, आकाश ,धर्म और अधर्म द्रव्य बड़े है किन्तु छोटों में खंडित नहीं होते!काल द्रव्य के अणु भी परस्पर जुड़ कर स्कंध नहीं बनाते !

धर्म अधर्म आकाश द्रव्यों की संख्या –
आ आकाशादेकद्रव्याणि !!६!!
संधि-विच्छेद -आ+आकाशात+एक+द्रव्याणि
शब्दार्थ-आ-पर्यन्त,आकाशात-आकाश तक ,एक-एक,द्रव्याणि -द्रव्य है !
अर्थ-सूत्र १ में आकाश तक एक -एक द्रव्य है !
भावार्थ-धर्म,अधर्म और आकाश एक एक द्रव्य है!
विशेष –
१-आकाश द्रव्य एक ही है!उसके लोकाकाश और अलोककाश दो भेद है!आकाश में जहाँ ,तक पांच द्रव्य पाये जाते है वह लोकाकाश है और शेष अलोकाकाश है!अर्थात आकाश द्रव्य एक ही है !
२-इस सूत्र में धर्म अधर्म और आकाश द्रव्य को एक एक बताने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अन्य द्रव्य अनेक है!जैन दर्शन के अनुसार जीव द्रव्य अनंत है,पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त और काल द्रव्य(अणु रूप) असंख्यात है ,क्योकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों पर एक एक कालणु स्थित रहता है !


धर्मादिक द्रव्यों की निष्क्रियता –
निष्क्रियाणि च !!७!!
संधि-विच्छेद-निष्क्रिय+आणि+ च
शब्दार्थ-निष्क्रिय-क्रिया रहित/गमन नही करते ,आणि-है, च-और
अर्थ-धर्म,अधर्म और आकाश तीनो द्रव्य क्रिया रहित है!अर्थात वे एक स्थान से दुसरे स्थान को गमन नहीं करते है !
विशेष –
१- क्रिया-एक स्थान से दूसरा स्थान प्राप्त करने को क्रिया कहते है !
२- धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त है;आकाश द्रव्य समस्त लोक और अलोक में व्याप्त है, अत: अन्य क्षेत्र का अभाव होने के कारण इनमे हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती है !
-शंका-जैनसिद्धांत के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय उत्पाद और व्यय होता है किन्तु धर्मादि द्रव्यों को निष्क्रिय कहा है तो उनमे उत्पाद कैसे सम्भव है क्योकि कुम्हार मिटटी को चाक पर रखकर जब घुमाता है तभी घड़े की उत्पत्ति होती है अत:बिना क्रिया के उत्पाद असम्भव है और उत्पाद नहीं होगा तो व्यय भी नहीं होगा ?
समाधान-धर्मादिक द्रव्यों में क्रियापूर्वक उत्पाद नहीं होता!उत्पाद स्वनिमित्तिक और परनिमित्तिक दो प्रकार का होता है!जैनागम के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु नामक अनंतगुण विध्यमान है !उन गुणों में षटगुण हानि-वृद्धि सैदव होती रहती है जिसके निमित्त से द्रव्यों में स्वभावत: उत्पाद,व्यय होता है!यह स्व नैमित्तिक उत्पाद व्यय है!धर्मादि द्रव्य प्रति समय अश्व आदि अनेक जीवों और अन्य पुद्गल के गमन में , स्थिति में और अवकाश दान में निमित्त होते है,प्रति समय गति,स्थिति आदि में परिवर्तन होता है जिसके निमित्त से धर्मादि द्रव्यों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है यह पर नैमित्तिक उत्पाद व्यय है !
शंका -धर्मादि द्रव्य स्वयं तो चलते नहीं फिर अन्य जीवों और पुद्गलों को चलने में कैसे सहायक हो सकते है !क्योकि जल गतिमान होता है तभी मछली के गमन में सहायक होता है ?
समाधान-जैसे चक्षु ,रूप देखने में, केवल जब हम देखना चाहते है तभी दिखाते है,किसी अन्य दिशा में हमारा उपयोग हो तब चक्षु, रूप को देखने लिए आग्रह नहीं करते !इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य क्रमश: गमन और स्थिरता में उदासीन निमित्त है

धर्म ,अधर्म और एक जीव द्रव्य के प्रदेश –
असंख्येया:प्रदेशाधर्माधर्मैकजीवानाम् !!८!!
संधि-विच्छेद-असंख्येया:+प्रदेशा+ धर्म+अधर्म ,एक+जीवानाम्
शब्दार्थ -असंख्येया:-असंख्यात,प्रदेशा-प्रदेश , धर्म-धर्म, अधर्म -अधर्म ,एक जीवा+नाम् -द्रव्य के है
अर्थ- धर्म,अधर्म और ‘एक जीव’ द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते है !
विशेष-
१-प्रदेश-अविभागी पुद्गल के सूक्ष्मत अंश;एक परमाणु,द्वारा घेरे गए आकाश के क्षेत्र को प्रदेश कहते है !स्थान (unit of space) की इकाई प्रदेश है !
२- सब जीवों के अनन्तान्त प्रदेश होते है इसलिए सूत्र में ‘एक जीव’ ग्रहण किया गया है !
३- प्रत्येक जीवात्मा असंख्यात प्रदेशी होती है अर्थात प्रत्येक जीव आत्मा लोकप्रमाण विशाल होती है!जीवात्मा के प्रदेश असंख्यात ही होते है किन्तु उनमे संकुचित/विस्तारित होने की शक्ति होती है!इसीलिए केवली भगवान के आत्म प्रदेश समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोकप्रमाण प्रदेशों में फ़ैल जाते है!
समुद्घात के समय केवली जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु के नीचे चित्रा पृथ्वी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते है और शेष समस्त प्रदेश ऊपर,नीचे,तिर्यक,समस्त लोक में व्याप्त हो जाते है!इसी संकोच विस्तार गुण के कारण एक जीव(अशुद्धावस्था में)को,नाम कर्म केअनुसार,जैसा छोटा बड़ा शरीर मिलता है उसके अनुसार प्रदेश फ़ैल जाते है!जैसे निगोदिया/चींटी आदि जैसे सूक्ष्म शरीर को और स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न होने वाले,मत्स्य(मगर) जैसे विशाल शरीर धारण कर पाती है !
४- एक धर्म और एक अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश के प्रदेशों में व्याप्त है इसलिए दोनों असंख्यात प्रदेशी है !


आकाश के प्रदेश –
आकाशस्यान्नता: !!९!!
संधिविच्छेद -आकाशस्य+अन्नता:
शब्दार्थ- आकाशस्य-आकाश द्रव्य के,अ न्नता:-अनन्त प्रदेश है !
अर्थ-आकाश द्रव्य के अनन्त प्रदेश है !
विशेष-लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश है !

पद्गल द्रव्य के प्रदेश-

संख्येयाऽसंख्येयाश्चपुद्गलानाम !!१०!!
संधि विच्छेद -संख्येय+असंख्येया:+च +पुद्गलानाम
शब्दार्थ-संख्येय-संख्यात,असंख्येया:-असंख्यात ,च -और अर्थात अनन्त ,पुद्गलानाम -पुद्गल द्रव्य के प्रदेश है
अर्थ- पुद्गल द्रव्य के संख्यात,असंख्यात और अन्नत प्रदेश होते है !
विशेष-
१- शुद्ध पुद्गल द्रव्य;- एक अविभागी परमाणु तो एक प्रदेशी ही है(सूत्र १० )!किन्तु दो परमाणुओं में भेद और संघात (मिलने और बिच्छुड़ने)की शक्ति द्वारा स्कंध निर्मित करते है !सूक्ष्मत:स्कंध दो (संख्यात प्रदेशी) परमाणुओं के संघात से बनता है जबकि अन्य स्कंध २,३,४,अथवा संख्यात,असंख्यात और अनांत परमाणुओं के संघात से बनते है अत: पुद्गल द्रव्य क्रमश संख्यात ,असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होता है !
२-संख्यात-मति व श्रुत ज्ञान द्वारा जीव जहाँ तक जान सकते है वह संख्या संख्यात है!अवधिज्ञानी और मन: पर्ययज्ञानी जहाँ तक जानते है वह संख्या असंख्यात है!केवली भगवान जहाँ तक जानते है उसे अनन्त कहते है !संख्या की इकाई अचल अर्थात ८४ की घात ३१ x १० की घात ८० तक की संख्या,संख्यात है ,इससे १ अधिक होने पर असंख्यात हो जाती है!(सदर्भ -आदिनाथपुराण-पृष्ठ ६५ )
३- यद्यपि शुद्ध परमाणु एक प्रदेशी है,किन्तु उसमें अवगाहनना गुण होने के कारण,अनन्त परमाणु को उसमे समाने की क्षमता होती है,इसीलिए उस परमाणु के एक प्रदेश में अन्नंत परमाणु को स्थान देने की क्षमता है!यह प्रत्येक द्रव्य में विध्यमान अवगाहनना गुण के कारण होती है!इसी अवगाहनना गुण के कारण असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्त जीव और पुद्गल समाये हुए है !
इस को एक दृष्टांत से समझा जा सकता है-
एक कमरे में एक मोमबती का प्रकाश फ़ैल जाता है!उसी कमरे में २,५०,१०० आदि अनेक मोमबत्तियों का प्रकाश भी फ़ैल जाता है!यह पुद्गल प्रकाश में दुसरे पौद्गलिक प्रकाश को स्थान देने (अवगाहना) की क्षमता के कारण होता है!पुद्गल परमाणु सूक्ष्मत: होने के कारण अपने प्रदेश में अन्नत परमाणुओं को समाने के लिए स्थान दे देता है !
जैन दर्शन में सूक्ष्मत्व-जैनदर्शन में सूक्ष्मता का अर्थ कल्पना से भी दूर है!एक आलू के सुई के नोक से भी छोटे कण में अनन्तानन्त आत्माए वास करती है !वे आत्माए कितनी है? आज तक सिद्ध हो चुकी आत्माओं से अनंत गुणी जीवात्माये, आलू के कण में हैं !सूक्ष्म परिणमन होने के कारण एक के अंदर एक विराजमान है!उनमे जो अनन्तानन्त आत्माए विराजमान है,प्रत्येक के साथ अनन्तानन्त कार्माण वर्गणाये चिपकी हुई है!प्रत्येक कर्माण वर्गणा में अनन्तानन्त परमाणु है!उस आत्मा के साथ उससे अनंत गुणे नो कर्म परमाणु है!इनसे भी अन्नत गुणे वे परमाणु है जो अगले समयों में कर्म रूप परिणमन करने वाले विस्रोपत्च कहलाते है!यह सूक्ष्मत्व और अवगाहना गुण के कारण सम्भव है!


परमाणु के प्रदेश –
नाणो: !!११!!
संधिविच्छेद-न +अणु
शब्दार्थ-परमाणु/अणु के दो आदि प्रदेश (खंड) नहीं होते अर्थात वह एक प्रदेशी है !
अर्थ- शुद्ध परमाणु /अणु संख्यात,असंख्यात अथवा अनन्त प्रदेशी नहीं होता,केवल एक प्रदेशी होता है !
विशेष-
१-पुद्गल अणु से सूक्ष्मत: है इससे सूक्ष्म कुछ नहीं होता ,उसके बराबर केवल काल द्रव्य का कालणु होता है,वह भी पुद्गल परमाणु के बराबर स्थान घेरता है !
२-पुद्गल और काल अणु में अंतर-पुद्गल के सूक्ष्मत अविभाज्य परमाणु /अणु क्रियावान है जबकि कालणु में नहीं है!परमाणु /पुद्गल अणु परिणमनशील है कभी शुद्ध होता है और कभी अशुद्ध जबकि कालणु अनंत काल से शुद्ध ही है ,शुद्ध ही रहता है!
३-जैन दर्शन का अणु परमाणु पर्यायवाची है जबकि विज्ञान के अनुसार जो अणु है वह जैन दर्शन में वर्णित स्कंध है!
४-जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान में परिभाषित परमाणु-अणु में अंतर –
जैन दर्शना में परिभाषित परमाणु और अणु पर्यायवाची है,पुद्गल का सूक्ष्मत:अविभाज्य भाग है किन्तु आधुनिक विज्ञान के अनुसार अणु (मॉलिक्यूल )दो सा दो से अधिक परमाणुओं (जैन दर्शनानुसार उल्लेखित)का स्कंध है !विज्ञान में परिभाषित परमाणु के ; इलेक्ट्रान,प्रोटोन ,न्यूट्रॉन उसके घटक है,वह द्रव्य का सूक्ष्मत अविभाज्य अंग नही है अत: वह जैनदर्शनानुसार स्कंध ही है!

समस्त द्रव्यों के रहने का स्थान-
लोकाकाशेऽवगाह: !!१२!!
संधि विच्छेद-लोकाकाशे+अवगाह:
शब्दार्थ-लोकाकाश सब द्रव्यों को अवगाह (स्थान) देता है !
अर्थ-छ; द्रव्यों का अवगाहन लोकाकाश में है !
विशेष-
१-अनंत आकाश के जितने क्षेत्र में छहों द्रव्य पाये जाते है,वह लोकाकाश है और शेष अनंत आकाश अलोकाकाश है!धर्मादिक द्रव्य ही आकाश को, लोकाकाश और अलोकाकाश में विभाजित करते है !
२-शंका- छहों द्रव्यों का आधार लोकाकाश है तो आकाश का आधार क्या है ?
समाधान -आकाश का कोई अन्य आधार नहीं है वह स्व प्रतिष्ठित है !
शंका-यदि आकाश स्व प्रतिष्ठित है तब धर्मादि द्रव्य भी स्व प्रतिष्ठित होने चाहिए?यदि इनका आधार है तो आकाश का भी आधार होना चाहिए !
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि सभी दिशाओं में फैला हुआ अनंत आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है ,उसके परिमाण का अन्य द्रव्य कोई नहीं है!धर्मादिक द्रव्यों का आकाश को व्यवहारनय की अपेक्षा से अधिकरण/आधार कहा जाता है क्योकि धर्मादिक द्रव्य लोकाकाश के बाहर अलोकाकाश में नहीं है! किन्तु एवं भूत नय की अपेक्षा सब द्रव स्व प्रतिष्ठित है!निश्चयनय से सभी द्रव्य का अपना अपना आधार है कोई अन्य किसी द्रव्य का आधार नहीं है !
शंका-लोक में पूर्वोत्तर काल भावी होते है उन्ही में आधार और आधेयपन देखा जाता है जैसे मकान पहले बनता है बाद में उसमे रहने वाले मनुष्य आते है किन्तु धर्मादिक द्रव्यों में यह देखने में नहीं आता कि पहले आकाश बना हो और फिर बाद में ये धर्मादिक द्रव्य उसमे आये हो ,ऐसी स्थिति में व्यवहार नए से भी आधार और आधेयपन नहीं बनता ?
समाधान-शंका निर्मूल है क्योकि जो साथ में रहते है उनमे भी आधार और आधेयपन बनता है जैसे शरीर का हाथ साथ साथ बनता है किन्तु कहा जाता है की शरीर में हाथ है !इसी प्रकार यद्यपि छहों द्रव्य अनादिकाल से है फिर भी व्यवहार से कथन सदोष नहीं है कि आकाश में बाकी सभी द्रव्य रहते है !


धर्म और अधर्म द्रव्य के रहने के स्थान –
धर्माधर्मयो:कृत्स्ने !!१३!!
संधि विच्छेद-धर्म+अधर्मयो:+कृत्स्ने
शब्दार्थ-धर्म-धर्म ,और अधर्मयो:-अधर्म द्रव्य, कृत्स्ने-सम्पूर्ण लोकाकाश में समान व्याप्त है !
अर्थ-धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में तिल में तेल के समान व्याप्त है!ऐसे नहीं जैसे कि मकान के एक कोने में घड़ा रखा हो !
विशेष-
१-छहो द्रव्य लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त है किन्तु अवगाहनना शक्ति के निमित्त से इनके प्रदेश परस्पर में प्रविष्ट होकर एक दुसरे को बाधित नहीं करते!प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त जीवात्माये है और उनके साथ अनन्त पुद्गल वर्गणाये भी चिपकी है!धर्म,अधर्म आकाश और काल अमूर्तिक है इसलिए परस्पर में टकराने का प्रश्न ही नहीं उठता,वे पुद्गल की सूक्ष्म वर्गणाओं से नहीं टकराते ,जीव तो शुद्ध अवस्था में सूक्ष्म अमूर्तिक ही है !


पुद्गल के रहने के स्थान-
एकप्रदेशादिषुभाज्य:पुद्गलानाम् !!१४!!
संधि विच्छेद -एक+प्रदेशा/+आदिषु +भाज्य:+ पुद्गलानाम्
शब्दार्थ-एक प्रदेशादिषु-एक आदि में प्रदेश,भाज्य:-विभाजन कर,पुद्गलानाम्-पुद्गल द्रव्य की अवगाहन है
अर्थ-एक प्रदेश,दो प्रदेश,संख्यात प्रदेशों और असंख्यात प्रदेशों में पुद्गल रहते है !
विशेष –
१-अन्नत प्रदेश अलोकाकाश में इनके रहने का प्रश्न ही नहीं है !संख्यात परदेशी लोकाकाश में ही रहते है
२-पुद्गल का सबसे बड़ा स्कंध महास्कंध लोकप्रमाण है,सबसे छोटा परमाणु एक प्रदेशी है !
३-पुद्गल के दो परमाणु जुदा हो तो दो प्रदेशों में और यदि बंधे हो तो एक प्रदेश में रहते है!इसी प्रकार संख्यात,असंख्यात और अन्नंत प्रदेशी स्कंध लोकाकाश के एक/संख्यात/असंख्यात प्रदेशों में रहते है जैसे स्कंध हो तदानुसार स्थान में रहते है !अत: लोकाकाश के एक प्रदेश में एक पुद्गल को आदि लेकर उसमे संख्यात असंख्यात और अनंत पुद्गल परमाणुओ के प्रदेश स्म सकते है !
यह बात वर्तमान विज्ञान की कसौटी पर भी प्रमाणित हो चुका है !मनुष्य के सिर के बाल की मोटाई के १००वे भाग (१.३ माइक्रोन स्पेक ) पर (जो कि सम्भवत जैनदर्शन में उल्लेखित एक प्रदेश ही हो ) सम्पूर्ण अमेरिका के विद्युत ग्रिड की क्षमता से ३०० गुणा अधिक अर्थात ३००x १० की घात १२ (टेट्रा)वाट विद्युत समां गई !
शंका-धर्म अधर्म अमूर्तिक द्रव्य है इसलिए वे तो एक स्थान पर बाधारहित रह सकते है! किन्तु पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है अत: एक प्रदेश में अनेक मूर्तिक पुद्गल कैसे रह सकते है ?
समाधान-जिस प्रकार प्रकाश मूर्तिक है किन्तु एक कमरे में अनेकों दीपक का पुद्गल प्रकाश समा जाता है वैसे ही स्वभाव और सूक्ष्म परिणमन होने से लोकाकाश के एक प्रदेश में बहुत से पुद्गल परमाणु रह सकते है!


एक जीव के रहने के स्थान –
असंख्येयभागादिषुजीवानाम् !!१५!!
संधिविच्छेद-असंख्येय+भागादिषु+जीवानाम्
शब्दार्थ -असंख्येय-असंख्यात,भागादिषु-विभाजित करे प्रदेश,जीवानाम्-जीव रहता है
अर्थ-जीवों का अवगाह,लोक के (असंख्यात) प्रदेशों को असंख्यात से विभाजित करने पर अर्थात एक प्रदेश में कम से कम एक जीव लोक पर्यंत रहता है
भावार्थ-लोक के असंख्यत्वे भाग,अर्थात एक प्रदेश में न्यूनतम,सूक्ष्मत:एक निगोदिया जीव रहता है क्योकि उसका जघन्य अवगाहन है,वह लोक के एक प्रदेश (स्थान) को घेरता है!यदि जीव का अवगाहन अधिक होता है,तो वह लोक के एक,दो,चार आदि प्रदेशों में अर्थात लोक के असंख्यातवे भाग में रहता है,यहाँ तक की सर्व लोक तक भी व्याप्त हो जाता है (केवली समुद्घात के समय)
विशेष-
शंका-लोक के एक प्रदेश (असंख्यत्वे भाग में) पर एक जीव रहता है तो लोक के समस्त (असंख्यात) प्रदेशों में संख्या की अपेक्षा अनन्तानन्त सशरीरी जीव कैसे रह सकते है?
समाधान-सूक्ष्म-सूक्ष्म और बादर-स्थूल शरीर वाले दो प्रकार के जीव लोक में पाये जाते है!सूक्ष्म शरीर के जीव एक दुसरे को बाधित नहीं करते ,केवल स्थूल शरीर वाले जीव एक दुसरे को बाधित करते है!सूक्ष्म जीव,जितने प्रदेश में एक निगोदिया जीव (अर्थात १ प्रदेश) में रहता है उतने में अनन्तानन्त जीव साधारण काय के साथ रह सकते है क्योकि वे अन्य जीवों को बाधित नहीं करते अत: असंख्यात प्रदेशों में अनन्तान्त स शरीरी जीव रह सकते है,कही कोई विरोध नहीं है !
शंका-एक जीव को लोकाकाश के बराबर प्रदेश वाला कहा है फिर वह लोकाकाश के असँख्यातवे भाग अर्थात एक प्रदेश में कैसे रह सकता है?इस शंका का समाधान सूत्र १६ के माध्यम से आचर्य उमास्वामी जी !
समाधान -आत्मा/जीव के प्रदेशों में शरीर नामकर्म के उदय से संकुंचित/विस्तृत होने का गुण होता है इसलिए प्रदेश छोटे से छोटे जीव के शरीर के अनुसार संकुचित हो जाते है !


जीव द्रव्य का लोक के असंख्यातवे भाग में रहने का स्पष्टीकरण –
प्रदेश-संहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् !!१६!!
संधि विच्छेद -प्रदेश+संहार+विसर्पाभ्यां+प्रदीपवत्
शब्दार्थ-प्रदेश-(जीव के) प्रदेश ,संहार-संकोच और विसर्पाभ्यां-विस्तार के कारण,प्रदीपवत्-दीपक के प्रकाश् के समान
अर्थ -जीव के प्रदेश दीपक के प्रकाश के समान संकुचित और विस्तृत हो सकते है !
भावार्थ-जिस प्रकार एक कमरे में एक दीपक से प्रकाशित होने के पर भी उसमे अन्य दीपकों का प्रकाश भी समा जाता है,उसी प्रकार यद्यपि आत्मा के प्रदेश असंख्यात प्रदेशी है,वे प्रदेश; संकोच और विस्तार गुणों के कारण एक प्रदेश में समा जाते है!समुद्घात के समय केवली के आठ मध्य के आत्म प्रदेशो के अतिरिक्त,जो की मेरु के नीचे चित्रा पृथ्वी पर आठ दिशाओं में रहते है,शेष पूरे लोक में विस्तृत हो जाते है!यह बंध आत्म प्रदेशों के गुण है !
विशेष-
१-शुद्ध जीवात्मा स्वभावत:अमूर्तिकहै,किन्तु अनादिकाल से कर्मों से बंधे होने से कथंचित मूर्तिक हो रहा है,अत: कर्मबंध वश छोटा बड़ा शरीर नामकर्म के अनुसार आत्मप्रदेश,प्राप्त शरीर में व्याप्त हो जाते है !
२-सिद्धावस्था में अंतिम शरीर से कुछ छोटे ,आकार में मुक्त आत्म के प्रदेश सिद्धालय में रहते है !
३-शंका-यदि आत्म प्रदेशों में संकोच विस्तार का गुण है तो वे इतने संकुचित क्यों नहीं हो जाते की लोकाकाश के एक प्रदेश पर एक ही जीवात्मा रह सके ?
समाधान-आत्माप्रदेशों में संकोच विस्तार,शरीरनामकर्म के अनुसार होता है!सूक्ष्मत: शरीर,सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य पर्याप्तक जीव का होता है जिसकी अवगाहना अंगुल का असंख्यात्व भाग है,अत:जीव की अवगाहना इसे कम नहीं हो सकती इसलिए वह लोक के असंख्यातवे भाग प्रमाण है!


धर्म अधर्म द्रव्य का कार्य/लक्षण /उपकार –
गतिस्थित्युपग्रहौधर्माधर्मोयोरुपकार:!!१७!!
संधि-विच्छेद-गति+स्थिति+उपग्रहौ+धर्म+अधर्म:+उपकार:!!
शब्दार्थ-गति-गति,स्थिति:-स्थिति,उपग्रहौ-सहकारी क्रमश:धर्म-धर्म,अधर्म-अधर्मद्रव्य का उपकार:-उपकार है !
अर्थ-धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार,पुद्गल और जीव के क्रमश गति और स्थिति में सहकारी होना है!
विशेष –
१-मछली के जल में तैरने में,जल केवल बाह्य सहायक है,यदि मछली तैरना नहीं चाहे तो उसे तैरने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है!धर्म द्रव्य भी इसी प्रकार से पुद्गल और जीव के गमन करनी की इच्छा होने पर सहायता करना है किन्तु उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें गमन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता !जैसे सिद्ध भगवान की आत्मा को लोक के शिखर पर पहुचने में धर्म द्रव्य सहकारी है,उसके ऊपर यद्यपि आत्मा में अनंत शक्ति है किन्तु धर्म द्रव्य के अभाव मे उस से ऊपर आत्मा अन्ननत अलोकाकाश में नहीं गमन कर सकती !
२-किसी पथिक को गर्मी में वृक्ष की छाया जिस प्रकार ठहरने में सहायक है (उसे ठहरने के लिए प्रेरित करती है),किन्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे ठहरने लिए बाध्य नहीं करती इसी प्रकार अधर्म द्रव्य पुद्गल व जीव को जो कही स्थिर रहना चाहे तो उनके ठहरने में सहायता करता है !जैसे सिद्धालय में सिद्ध भगवान की आत्मा स्थिर हो जाती है !
३-वस्तुओं की गति और स्थिति में भूमि,जल आदि को सहायक देखा जाता है फिर धर्म और अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व क्यों माना जाए ?
समाधान-भूमि और जल किसी किसी वस्तु के गति और स्थिति में सहायक है सब वस्तुओं के नहीं किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य सभी वस्तुओं के गमन और स्थिरता में सहायक है,वह सभी पुद्गल और जीवों के गति और ठहरने में साधारण सहायक है,तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है इसलिए उनके अस्तित्व को मानने में कोई बाधा नहीं है !
४-शंका -धर्म /अधर्म के उपकार को यदि सर्वगत आकाश का मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है ?
समाधान -धर्मादिक द्रव्यों को आकाश का उपकार अवगाहन देना है!यदि एक द्रव्य के अनेक उपकार मान लिए जाए तो लोकालोक का विभाजन का अभाव हो जाएगा इसलिए धर्म अधर्म द्रव्यों के उपकार को आकाश का उपकार मानना अनुचित है !
५-शंका-अधर्म और धर्म द्रव्य तुल्य बलवान है अत स्थिति का गति से और गति से स्थिति का प्रतिबंध होना चाहिए ?
समाधान-ये दोनों द्रव्य उदासीन प्रेरक है ,जबरदस्ती किसी से नहीं करते इसलिए शंका निर्मूल है !
६-शंका-धर्म अधर्म द्रव्य नहीं है क्योकि इनकी उपलब्धि नहीं है जैसे गधे के सिर पर सींग?
समाधान-सभी वादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से इन दोनों पदार्थों को स्वीकार करते है इसलिए इनका अभाव नहीं कहा जा सकता!दूसरा हम जैनो के प्रति “अनुपलब्धि हेतु असिद्ध है ‘क्योकि जिनके सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञान रूपी नेत्र विध्यमान है,ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानते है और उपदेश से श्रुतज्ञानी भी जानते है !
७-शंका-सूत्र में’उपग्रह ‘निरर्थक है क्योकि केवल उपकार से काम चल सकता था ?
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि यथा क्रम निराकरण के लिए उपग्रह पद रखा है !जिस प्रकार धर्म और अधर्म के साथ गति व् स्थिति का क्रम से संबंध होता है जैसे धर्म द्रव्य का उपकार जीवों की गति है और अधर्म द्रव्य उपकार पुद्गलों की स्थिति है ,इसका निराकरण करने के लिए सूत्र में उपग्रह पद रखा है !


आकाश द्रव्य का उपकार/कार्य –
आकाशस्यावगाह: !!१८!!
संधि विच्छेद -आकाशस्य +अवगाह:
शब्दार्थ-आकाशस्य-आकाश द्रव्य ,अवगाह:-स्थान(अवकाश )देता है
अर्थ-सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देना आकाश द्रव्य का उपकार है !
विशेष-
१-अनंन्त आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है,इसको अन्य कोई द्रव्य अवकाश नहीं देता,स्वयं सहित यह पाँचों द्रव्यों को अवकाश देता है!लोकाकाश के बहार भी अलोकाकाश मे असीमित अवगाहन शक्ति होने के बावजूद भी,धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव में वह किसी भी द्रव्य को अवगाहन नहीं दे सकता है !
शंका-क्रियावान द्रव्य पुद्गल और जीव को आकाश द्रव्य द्वारा अवकाश देना तो उचित लगता है किन्तु निष्क्रिय धर्म और अधर्म द्रव्य अनादिकाल से जहा के तहाँ स्थित (नित्य) है,आकाश का उन्हें अवकाश देना उचित नहीं लगता ?
समाधान-आकाश कभी चलता नहीं किन्तु उसे सर्वगत कहते है क्योकि सब जगह विध्यमान है इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्यों में अवगाहरूप क्रिया नहीं पायी जाती फिर भी लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त है।अत: उन्हेँ अवग्राही उपचार से कहते है!यद्यपि पुद्गल और जीव को मुख्यत आकाश ही अवकाश देता है !
शंका-यदि आकाश द्रव्य का स्वभाव अवकाश देना है तब एक मूर्तिक द्रव्य का अन्य मूर्तिक द्रव्य से प्रतिघात नहीं होना चाहिए,किन्तु देखने में आता है की मूर्तिक मनुष्य मूर्तिक दीवार से टकरा कर रुक जाता है ?
समाधान-जब कोई मनुष्य दीवार से टकराता है तब पुद्गल,पुद्गल से टकराता है ,इसमें आकाश द्रव्य का कोई दोष नहीं है!जैसे सवारियों से भरी रेलगाड़ी में बैठे यात्री यदि अन्य यात्रियों को चढ़ने नहीं दे तो इसमें रेलगाड़ी का तो कोई दोष नहीं है वह तो बराबर अवकाश/स्थान दे रही है !
शंका-अलोकाकाश में कोई द्रव्य नहीं रहता है तो क्या आकाश में अवकाश दान की शक्ति नहीं है?
समाधान-अलोकाकाश में यदि कोई द्रव्य नहीं रहता तो इससे प्रमाणित नहीं होता की उसमे अवकाश देने की शक्ति नहीं है ठीक वैसे जैसे किसी खाली घर में कोई नहीं रह रहा हो तो इसका अर्थ यह नहीं है की उस मकान में किसी को ठहरने की शक्ति नहीं है!कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव को छोड़कर नहीं रह सकता !

पुद्गल द्रव्य का उपकार –
शरीरवाङ्मन:प्राणापाना:पुद्गलानाम् !!१९!!
संधि विच्छेद-शरीर+वाङ्मन:+प्राणापाना:+पुद्गलानाम्
शब्दार्थ-शरीर-शरीर,वाङ्मन:-वचन,मन,प्राणापाना:-श्वासोच्छ्वास(श्वास लेना और निकालना)पुद्गलानाम्-पुद्गल द्रव्य के उपकार है !
अर्थ-पुद्गल द्रव्य के; शरीर ,वचन ,मन और श्वासोच्छ्वास,जीव द्रव्य पर उपकार है !
भावार्थ-शरीर;पांच प्रकार के औदारिक,वैक्रयिक,आहारक,तेजस और कार्माण क्रमश,इन ५ शरीर नाम कर्मों के उदय से पुद्गल आहार वर्गणाओं से निर्मित होने के कारण यह पुद्गल द्रव्य के उपकार है !
वचन;भाव वचन और द्रव्य वचन दो प्रकार के है!वीर्यान्तरायकर्म और मति,श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग कर्म के उदय से जो आत्मा में बोलने की शक्ति मिलती है उसे भाव वचन कहते है!पुद्गल के निमित्त से होने के कारण वचन पुद्गल का उपकार है!इस बोलने की शक्ति से युक्त जीव के कंठ,तालु आदि के संयोग से जो पुद्गल शब्द रूप बनते है उन्हें द्रव्यवचन कहते है,ये भी पौद्गलिक है क्योकि कान से सुनायी देते है!भाषा वर्गणाओं को शब्द रूप परिणमन कर हमें बोलने की शक्ति मिलती है!यह भी पुद्गल का उपकार है
हृदय के पास,द्रव्यमन,मनोवर्गणाओं से निर्मित है,इसी के द्वारा हम चिंतवन करते है!भावमन,गुणों और दोषों की चिंतवन करने की आत्मा की शक्तिहै!वह पुद्गलकर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होती है हमारी आत्मा, द्रव्यमन के माध्यम से जो चिंतन करती है वह भी मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से ,अंगोपांग कर्म के उदय और वीर्यन्तराय कर्म के क्षयोपशम से करती है!यह भी पुद्गलकर्म के उदय से मिलने वाला भाव मन बन गया,अत:यह भी पुद्गल का उपकार है !
प्राणापाना:-आपना-श्वास लेना और प्राणा-छोड़ना अर्थात श्वास लेना और छोड़ना भी श्वासोच्छ्वास नाम कर्म के उदय से होता है!हम श्वासोच्छ्वास लेते है वह भी आहार वर्गणाए है, ये सभी पुद्गल द्रव्य के जीव द्रव्य पर उपकार है !
श्वासोच्छ्वास से ही आत्मा के अस्तित्व का आभास होता है क्योकि इसकी गति को मुह पर हथेली रखने से रोका जा सकता है!जब तक श्वासोच्छ्वास चलती रहती है तब तक जीव भी जीवित है,मशीन की तरह चलता महसूस देता है !
विशेष-
१-पांच प्रकार के शरीर (औदारिक,वैक्रयिक,आहारक,तेजस और कार्माण) ,वचन ,मन और श्वासोच्छ्वास पुद्गल द्रव्य के जीव द्रव्य पर उपकार है अर्थात इनकी रचना पुद्गल द्रव्य से होती है !
२-अन्यमति शब्द को अमूर्तिक मानते है किन्तु यह मत ठीक नहीं है क्योकि शब्द मूर्तिमान कानो से सुने जाते है और मोर्तिक के द्वारा रुक भी जाते है !वह मूर्तिमान वायु द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान जाते भी है !शब्द की टककर से प्रतिध्वनि भी होती है इसलिए शब्द मूर्तिक है !
३-मन;द्रव्य और भावमन दो प्रकार का है!लब्धि और उपयोग लक्षण सहित भावमन पुद्गल के आलंबन से होता है इसलिए पौद्गलिक है!ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम और अंगोपांग नामक नामकर्म के उदय(निमित्त) से,जो पुद्गल गुण दोष का विचार और स्मरण आदि उपयोग के सम्मुख हुए आत्मा के उपकारक है,वे ही मन रूप से परिणत होते है अत; द्रव्य मन भी पौद्गलिक है !
शंका-मन एक स्वतत्र द्रव्य है,यह रूपादि परिणमन से रहित अणुमात्र है अत:इसे पौद्गलिक मानना आयुक्त नहीं है ?
समाधान-विचार करे मन,आत्मा और इन्द्रियों से संबध है या असंबद्ध!यदि असंबद्ध है तो आत्मा का उपकारक नहीं हो सकता,इन्द्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता है!यदि आत्मा से संबद्ध है,तो उसके जिस प्रदेश से वह अनुमात्र मन संबद्ध है उसके अतिरिक्त अन्य प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता!
मन,श्वासोच्छ्वास (प्राण और अपान )मूर्तिक है क्योकि अन्य मूर्तिक पदार्थों द्वारा इनका प्रतिघात देखा जाता है!जैसे भय उत्पन्न करने वाले बिजलीपात से मन का प्रतिघात होता है!,हाथ से मुह को ढकने से श्वासोच्छ्वास; प्राण और आपन का प्रतिघात होता है किन्तु मूर्त पदार्थ का अमूर्त पदार्थ से प्रतिघात नहीं होना चाहिए ,इससे सिद्ध होता है की ये मन ,श्वासोच्छ्वास मूर्तिक,पुद्गलमय ही है !श्वासोच्छ्वास ही आत्मा के अस्तित्व को भी प्रमाणित करता है !


पुद्गल द्रव्य क अन्य उपकार –
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च !!२० !!
संधि विच्छेद -सुख+दुःख+जीवित+मरण+उपग्रह:+च
शब्दार्थ-सुख-सुख,दुःख -दुःख,जीवित-जीवन और मरण-मरण भी ,उपग्रह:-पुद्गल द्रव्य का उपकार है,च -(अन्य उपकार भी है ) !
अर्थ- इन्द्रिय जनित सुख ,दुःख जीवन,मरण भी जीव के ऊपर पुद्गल द्रव्य के उपकार है ,इनके अतिरिक्त अन्य उपकार भी है !
सुख:-साता वेदनीय कर्म के उदय और बाह्य क्षेत्र,द्रव्य ,काल और भाव के निमित्त से आत्मा के जो प्रसन्नता पूर्ण भाव होते है उसे सुख कहते है !
दुःख-असाता वेदनीय कर्म के उदय और बाह्य क्षेत्र,द्रव्य,काल और भाव के निमित्त से जो आत्मा को संक्लेश रूप परिणाम प्राप्त होते है उसे दुःख कहते है !
जीवन-आयु कर्म के उदय से जीव के एक भव में श्वासोच्छ्वास का जारी रहना जीवन है !
मरण-जीव के श्वासोच्छ्वास का रुकना उसका इस भव से मरण है!
उपर्युक्त सभी पुद्गल कर्मों के निमित्त से होते है,इसलिए पौद्गलिक है,जीव के ऊपर पुद्गल के उपकार है !यहाँ उपकार का अर्थ केवल भलाई करने से नहीं अपितु कार्य में सहायक होने से है,जैसे फिटकरी से गंदा पानी साफ़ हो जाता है !
च-शब्द सूत्र में सूचित करता है की पुद्गल के अन्य उपकार भी है जैसे चक्षु इन्द्रिय पुद्गल का उपकार है !
यहाँ ‘उपग्रह’ शब्द से सूचित होता है की पुद्गल परस्पर एक दुसरे पर भी उपकार करते है जैसे साबुन कपड़े पर,राख बर्तन पर करता है यहाँ उपकार शब्द का अर्थ निमित्तमात्र है अन्यथा दुःख,मरण उपकार नहीं कहलायेंगे !


जीवों का उपकार-
परस्परोपग्रहोजीवानाम् !!२१ !!
संधि विच्छेद -परस्पर+उपग्रहो+जीवानाम्
शब्दार्थ-परस्पर-परस्पर,एक दुसरे पर,उपग्रहो=उपकार करते है,जीवानाम्-जीव द्रव्य
अर्थ-जीवों का एक दुसरे की सहायता करना जीव द्रव्य का उपकार है !
विशेष-
१-स्वामी अपने सेवक को वेतन देकर उस पर उपकार करता है तो सेवक अपनी सेवाएं उस स्वामी को देकर, स्वामी पर उपकार करता है !
२-गुरु शिष्यपर उपदेश देकर उपकार करता है तो शिष्य गुरु के उपदेश एवं आज्ञा ग्रहण कर उनपर उपकार करता है !
३-उपग्रह का प्रकरण होते हुए भी इस सूत्र में उपग्रह पद देने का कारण है की उपर्युक्त सूत्र में कहे गए सुख , दुःख,जीवन,मरण भी जीवकृत उपकार भी है!अर्थात जीव परस्पर में एक दुसरे को सुख दुःख भी देता है,जीवन , मरण में भी वे निमित्त मात्र (सहायक) है !
४-उपकार के प्रकरण में-विचारणीय तथ्य –
कौन द्रव्य अन्य द्रव्य का क्या उपकार करता है?क्या कोई द्रव्य अपने से भिन्न अन्य द्रव्य का भला बुरा कर सकता है?यदि कर सकता है तो जैन दर्शन में ईश्वरवाद का निषेध क्यों?कोई भी द्रव्य अपने में विध्यमान गुण पर्याय को कभी छोड़ कर दुसरे द्रव्य में प्रविष्ट नहीं होता !तब विचारणीय है कि एक द्रव्य, अपने से भिन्न दुसरे द्रव्य पर उपकार कैसे कर सकता है !
समाधान-ईश्वरवाद को मानने वाले दर्शन, प्रत्येक कार्य के प्रेरक रूप से,ईश्वर को निमित्त कारण मानते है!
उनका मानना है कि यह प्राणी अज्ञानी है अत:अपने सुख दुःख का स्वामी नही है,ईश्वर की प्रेरणा वश स्वर्ग/नरक जाता है,यह तो स्वीकार किया गया है कि जीव को स्वर्ग / नरक गतियों की प्राप्ति ईश्वर के द्वारा ही होती है !यदि ईश्वर चाहे तो गतियों में जाने से बचा सकते है !इस अभिप्राय से एक द्रव्य पर अन्य द्रव्य का उपकार माना है!तब तो ईश्वरवाद का निषेध करना,न करने के बराबर है !और यदि इस उपकार प्रकरण का भिन्न अभिप्राय है तब उसका दार्शनिक विश्लेषण होना अत्यंत आवश्यक है !
लोक में सभी द्रव्य अपने अपने गुणों और पर्यायों को लिये (धारण किये है )हुए है !द्रव्यदृष्टि से वे अनंतकाल से जैसे है आज भी है,भविष्य में भी वैसे ही बने रहेंगे!किन्तु पर्याय दृष्टि से द्रव्य की मर्यादा के अंतर्गत सदैव वे परिवर्तनशील है!यह प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है!इसलिए प्रत्येक द्रव्य में जो भी परिणाम होता है अपनी योग्यतानुसार ही होता है! संसारी जीव कर्मो से बंधा है तो अपनी योग्यतानुसार बंधा है और यदि कालान्तर में मुक्त होगा तब भी अपनी योग्यतानुसार ही होगा,तथा प्रत्येक द्रव्य की इस योग्यतानुसार कार्य होने में बाह्य पदार्थ निमित्त माना जाता है!जैसे किसी विद्यार्थी में पढ़ने की योग्यता यदि है तभी वह पुस्तके, शिक्षक, विद्यालय आदि बाह्य निमित्त मिलने पर पढ़ कर वह विद्वान बन जाता है!परन्तु तत्वत:विचार करने पर ज्ञात होता है की पुस्तकों,शिक्षक अथवा विद्यालय ने उस की आत्मा में बुद्धि नही उत्पन्न कर दी !यदि इन बाह्य निमित्तों में बुद्धि उत्पन्न करने की शक्ति होती तो कक्षा में पढ़ने वाले प्रत्येक विद्यार्थी की बुद्धि एक समान उतपन्न होकर सभी एक समान विद्वान बन जाते ,किन्तु अनुभव इसके विपरीत ही है !एक ही कक्षा में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों में कोई विद्यार्थी अल्प ज्ञानी ही रह जाता है ,कोई महान ज्ञानी हो जाता है!यदि विद्यार्थी में योग्यता नहीं होगी तो शिक्षक की लाख चेष्टा पर भी वह विद्यार्थी मूर्ख ही रह जाता है !दूसरी ओर हम ऐसे दृष्टान्तों से भी अवगत है जहाँ गुरु/पुस्तकों,विद्यालयों के अभाव मे भी विद्यार्थी पढ़े है!जैसे एक- लव्य को गुरु द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या की शिक्षा देने से इंकार कर दिया था किन्तु फिर भी वह, इस विद्या का प्रकांड,मात्र गुरु द्रोण के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने में विध्यमान योग्यता के कारण हो गया था !इससे सिद्ध होता है कि शिक्षक कार्य की उत्पत्ति में निमित्त मात्र तो है किन्तु प्रेरक नहीं !ईश्वरवाद में ईश्वर की प्रेरकता पर बल दिया है और उपकार प्रकरण में बाह्य निमित्त स्वीकार किया है किन्तु उसे परमार्थ से प्रेरक नहीं हुआ !काल द्रव्य का उपकार –
वर्तनापरिणामक्रिया:परत्वापरत्वेचकालस्य !!२२!!
संधि विच्छेद-वर्तना+परिणाम+क्रिया:+परत्व+अपरत्वे+च+कालस्य
शब्दार्थ-वर्तना-परिणाम-क्रिया:-परत्व-अपरत्वे च कालस्य
अर्थ-वर्तना,परिणाम,क्रिया,परत्व और अपरत्व काल द्रव्य के उपकार है !
वर्तना-जो स्वयं परिणमन करते हुए,द्रव्यों के परिणमन में सहकारी है वह वर्तना लक्षण वाला निश्चयकाल द्रव्य है,वह लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालणु के रूप में स्थित है!जो प्रति समय प्रत्येक द्रव्य में उत्पाद ध्रौव्य व्यय स्वभावत होता रहता है,उसे वर्तना कहते है!सभी द्रव्य प्रति समय अपनी अपनी पर्याय में परिणमन करते है किन्तु इस परिणमन के लिए वाह्य निमित्त भी आवश्यक होता है जिसके अभाव में परिणमन सम्भव नहीं है,इस बाह्य निमित्त द्रव्य कहते है !उस परिणमन को कहने वाले सैकंड,मिनट,घंटा,दिन,रात,आदि व्यवहा र काल द्रव्य है जो की निश्चय काल के अस्तित्व की पुष्टि करता है !
परिणाम-अपने स्वभाव को छोड़े बिना द्रव्यों की पर्याय को बदलने को परिणाम कहते है !जैसे जीव परिणाम क्रोधादि और पुद्गल के रूप आदि है!धर्म अधर्म आकाश द्रव्यों में भी अगुरुलघु गुणों के अविभागी प्रतिच्छेद होने के कारण षटगुण हानिवृद्धि रूप परिणमन होता है!यह भी काल द्रव्य का उपकार है!
क्रिया-एक स्थान से दुसरे स्थान गमन करने को क्रिया कहते है,और पुद्गल में पायी जाती है!यद्यपि गमन करती वस्तुओं जैसे अंगुली ऊपर नीचे करना, धर्मद्रव्य का उपकार है किन्तु यह काल द्रव्य का भी उपकार है !
परत्व-बडेपन का अहसास परत्व है जैसे २० वर्ष का बालक १६ वर्ष से बड़ा है!व्यवहार काल का उपकार है
अपरत्व-छोटेपन का अहसास,जैसे १६ वर्ष का बालक २० वर्ष के बालक से छोटा है व्यवहार काल का उपकार है
वर्तना निश्चित काल द्रव्य का और परिणाम,क्रिया ,परत्व ,अपरत्व व्यवहार काल द्रव्य के उपकार है !
विशेष-
१-अपनी आत्मा में,राग-द्वेष रुप परिणाम होना,एक परिणमन से दुसरे परिणमन में जाना,ये परिणाम होना अथवा स्थिर वस्तु जैसे दीवार का प्रति समय परिणमन होने के कारण पुराना होते रहना,चलती वस्तु में क्रिया दि होना व्यवहारकाल द्रव्य का उपकार है !
२-हमारे शरीर के प्रदेशों में स्थित सभी कालाणु हमारे परिणमन में सहकारी है!एक पूरे अखंडित द्रव्य में एक कालाणु भी परिणमन कर सकता है!अखंडित लोकाकाश द्रव्य में कही परिणमन हो रहा है तो वह समस्त लोका-काश में परिणमन कहा जाएगा जैसे लोहे की छड़ के एक कोने पर हथौड़ा मारने पर पूरी छड़ में परिणमन माना जाता है!या जैसे किसी देश के किसी गाव में कोई घटना घटित होती है तो उस से समस्त देश प्रभावित होता है !

पुद्गल द्रव्य के लक्षण/गुण –
स्पर्शरसगंधवर्णवन्त:-पुद्गला: !!२३!!
सधी विच्छेद -स्पर्श+रस+गंध+वर्ण+वन्त:+पुद्गला:
शब्दार्थ-स्पर्श-स्पर्श,रस-रस,गंध-गंध,वर्ण-वर्ण,वन्त:-सहित को,पुद्गला:-पुद्गल कहते है !=
अर्थ-जिस द्रव्य में स्पर्श,रस,गंध और वर्ण होते है उसे पुद्गल कहते है !
विशेष-१-ये स्पर्श,रस,गंध और वर्ण गुण प्रत्येक पुद्गल में युगपत् अवश्य होंते है,यह सम्भव है कि सूक्ष्मता के कारण वे हमें आभासित नहीं हो!
२-इन पुद्गल के गुणों के उत्तर भेद २० है!
१-स्पर्श-स्निग्ध-रूक्ष,शीत-उष्ण,हल्का-भारी और कठोर-नरम-८
२-रस-खट्टा,मीठा,कसैला,कड़वा और चरपरा -५
३-गंध-सुगंध और दुर्गन्ध-२
४-वर्ण-काल,पीला,नीला,लाल,सफ़ेद-५
पुद्गल का गुण रूपवान होना है!जैसे कच्चे आम का रंग हरा होता है,पक्के का पीला,ये रंग पुद्गल की पर्याय है! जैसे ज्ञान आत्मा का गुण है,मति,श्रुत आदि ज्ञान,ज्ञान की पर्याय है!प्रत्येक पुद्गल में रूप,गंध,रस;स्पर्श अवश्य होता है!जैसे आम पकने पर खट्टे से मीठा होता है,उसमें रस अवश्य रहता है,खट्टा मीठा,पर्याय है जो की बदलती है!वायु को स्पर्श से महसूस करते है किन्तु रस,गंध,वर्ण को हम अपनी लर्मश: रसना ,घ्राण और चक्षु इन्द्रियों की सीमित क्षमता के कारण महसूस नहीं कर पाते है!
३-हमारे शास्त्रों के तथ्यों की वैज्ञानिक पुष्टि-भगवान महावीर ने लगभग २६०० वर्ष पूर्व उक्त सूत्र के माध्य म से प्रतिपादित कर दिया था कि अधिकतम परमाणु के गुण पर्याय की अपेक्षा २०० हो सकते है ,जिनका आधुनिक विज्ञान अभी तक अन्वेषण ही कर रहा है ! १९४२ तक वैज्ञानिको ने ९२,१९५५ तक ९३,२००४ तक ununpentium element की खोज कर इनकी संख्या ११५ ,!ununseptium २०१० में ११८ elements खोज लिये है !जैन दर्शनानुसार इनकी संख्या २०० से अधिक कभी नही होगी!शास्त्रों के इन तथ्यों से उनकी प्रमाणकता को बल मिलता है !अत: किसी को भी इन में प्रतिपादित तथ्यों पर संदेह नही करना चाहिए !
पुद्गल के सूक्ष्मत: अविभाज्य भाग परमाणु के भेद- परमाणु व्यंजन पर्याय की अपेक्षा एक ही है किन्तु गुण पर्याय की अपेक्षा २०० प्रकार के होते है!
रूप की ५ पर्यायों में से कोई एक ,रस की ५ पर्यायों में से कोई एक ,गंध के २ पर्यायों में से कोई १ तथा स्पर्श की स्निग्ध-रुक्ष में से १ और शीत -उष्ण में से कोई एक ,इस प्रकार कुल ५ x ५ x २ x ४ =२०० प्रकार की परमाणु (गुणपर्याय) होते है !

पुद्गल की पर्याय-
शब्द्बन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमछायातपोद्योतवन्तश्च !!२४!!
संधि विच्छेद-शब्द+बंध+सौक्ष्म्य+स्थौल्य+संस्थान+भेद+तम+छाया+आतप+उद्योतवन्त:+च
शब्दार्थ-शब्द-शब्द,बंध-बंध,सौक्ष्म्य-सूक्ष्मता,स्थौल्य-स्थूलता,संस्थान-आकार,भेद-टुकड़े,तम-अन्धकार, छाया-छाया,आतप-आतप,उद्योत-उद्योत,वन्त:-जो है पुद्गल की पर्याय है +च-और जैसे अन्य पुद्गल की पर्याय कही है !
अर्थ-शब्द,बंध,सूक्ष्मता,स्थूलता,आकार,भेद,अन्धकार,छाया,आतप और उद्योत पुद्गल की पर्याय है !इसके अतिरिक्त आगम में कही गई पर्याय का संघ्रह कर ले !
भावार्थ-
शब्द -शब्द भाषा और अभाषा रूप से दो प्रकार के है !
भाषा रूप के भी दो भेद है;
१-अक्षररूप भाषात्मकशब्द मनुष्यों की व्यवहारिक बोलिया, अक्षर रूप भाषात्मक शब्द है और
२-अनक्षररूप भाषात्मकशब्द-चिड़िया,पक्षियों,पशु आदि की बोलिया अनक्षररूप भाषात्मक शब्द है !
अभाषा रूप शब्दों के दो भेद है
१-प्रायोगिकशब्द-जो मनुष्यों की सहयता से उत्पन्न किये जाते है इसके ४ भेद है
१-तत-चमड़े को मढ़ कर ढोल नगाड़ों द्वार किये गए शब्द तत शब्द है !
२-वितत-सीतारादि के शब्द वितत शब्द है !
३-घन-घंटादि के बजाने से उतपन्न शब्द घन शब्द है
४-सुषिर-बाँसुरी आदि द्वारा किये गए शब्द सुषिर शब्द है !
२-वैस्रसिक अभाषा रूप शब्द-जो बिना मनुष्यों की सहायता से ,स्वाभाविक रूप से होते है जैसे मेघ की गर्जन !
२-बंध-
१-प्रायोगिक बंध-जो मनुष्यों की सहायता से अजीव लकड़ी,लाख आदि का बंध, किया जाता है और
२-वैस्रसिक बंध-जो स्वभावत:,बिना किसी सहयता बंध होता है जैसे जीवात्मा के साथ पुद्गल कर्मबंध, इसमें पुद्गलों के स्निग्ध-रुक्ष गुणों के निमित्त से स्वयं बंध होता है जैसे मेघ,बिजली,इंद्र धनुषादि!बंध के दो भेद है !
३-सूक्ष्मता के २ भेद है
१-अन्त्य सूक्ष्म-जैसे परमाणु पुद्गल असूक्ष्मत: अविभाज्य खंड है !
२-आपेक्षिक सूक्ष्मता -जैसे बेर आवले से सूक्ष्म है !
४-स्थूलता-के भी दो भेद है !
१-अन्त्यस्थूल-जैसे जग व्यापी महास्कंध स्थूलतम,अन्त्य स्थूल है !
२-आपेक्षिक स्थूल-आँवला ,बेर से स्थूल है !
५-संस्थान-आकृति के दो भेद-
१-इथंलक्षण-जिन आकारो जैसे गोल,लम्बा,चौकोर,त्रिकोणादि ,व्यक्त किया जा सके इथं लक्षण संस्थान है
२-अनित्यथंलक्षण-जिन का आकार बदलता रहता हो,निश्चित नहीं हो जैसे मेघ,वे अनित्यथं संस्थान है !
६-भेद-अर्थात टुकड़े -इनके निम्न ६ भेद है-
क-उत्कर-लकडी को आरे से चीरने पर निकला बुरादा उत्कर है
ख-चूर्ण-गेहूं का पीसा आटा चूर्ण है !
ग-चूर्णिका-दाल के छिलके चूर्णिका है !
घ-प्रतर-मेघ के पटलों को प्रतर कहते है
ङ -अणु चटन-जो लोहे को पीटने पर फुल्लिंग निकलते है ,उन्हें अणु चटन कहते है !
च-खंड-घड़े के टुकड़ों को खंड कहते है !
७-तम-अंधकार को कहते है!
८-छाया-प्रकाश को रोकने वाले पदार्थ के निमित्त से जो होता है उसे छाया कहते है!इसके दो भेद है
१-दर्पण के समक्ष रखी वस्तु का बिम्ब जस का तस आ जाता है!
२-धुप में खड़े होने पर मात्र छाया द्वारा प्रतिबिम्ब पड़ना !
९-आतप-सूर्य के प्रकाश को आतप कहते है !
१०-चन्द्रमा,जुगने आदि के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते है !
ये पुद्गल की पर्याय है च शब्द से सूचित होता है कि आगम से प्रसिद्द पुद्गल की पर्यायों (अभिघात आदि )का संघ्रह करना चाहिए !

पुद्गल के भेद
अणवःस्कंधाश्च -२५
संधि विच्छेद-अणवः+स्कंध:श्च =
शब्दार्थ-अणवः-अणु,स्कंध:-स्कंध,च-और पुद्गल के भेद है
अर्थ-पुदगल द्रव्य के;अणु और स्कंध दो भेद है।
भावार्थ-अणु-पुद्गलद्रव्य का सूक्षमतःअविभाज्य एक परदेशी खंड परमाणु/अणु है!जैनदर्शन में अणु/पर माणु परायवाची है!दो,तीन,संख्यात या असंख्यात अणुओं के संघात (मिलने) से स्कन्ध बनता है,इस के अनेक भेद है!संसार की समस्त वस्तुए अणुओं से मिलकर ही बनी है
विशेष-१-सूत्र २७ से स्पष्टहै-अणु कभी भी स्वतंत्र अवस्था में नहीं पाया जाता क्योकि इसकी उत्पत्ति भेद से ही होती है!
२-हमारे प्रयोग में केवल अनन्त संख्या वाली पुद्गल वर्गणाये ही आती है,संख्यात या असंख्यात संख्या वाली नहीं!जैसे मैदे के सूक्ष्मत: कण में भी अनंत परमाणु होते है!
३-एक अणु/परमाणु में एक रूप,एक रस.,एक गंध और दो स्पर्श;रुक्ष-स्निग्ध में से एक और शीत -उष्ण में से एक अवश्य होते है!किसी स्कंध में पहिले ३ के साथ चार स्पर्श भी होते है!क्योकि हल्का-भारी और कठोर-नरम स्कंध में ही होते है,परमाणु में नहीं !
४-पुद्गल की कुल २३ वर्गणाओं मे से केवल ५ निम्न अदृश्य वर्गणाये हमारे लिए उपयोगी है!
१-आहार वर्गणाये/नोकर्मवर्गणाये -इनसे आहार,शरीर,इन्द्रियां,श्वासोच्छ्वास,की पर्याप्तियां प्राप्त होती है !जिससे आत्मा में आहार वर्गणाओं को खल,रस विभाग में परिणमित करने की शक्ति आ जाती है और शरीर,इन्द्रियों और श्वासोच्छ्वास का निर्माण अंतर्मूर्हत में होता है !ये शरीर के रूप में हमें दिखती है !
२-तेजसवर्गणाये-इनसे शरीर को कांति प्रदान करने वाले और उसके तापमान को नियत्रित करने वाले तेजस शरीर का निर्माण होता है!ये हमे दिखती नहीं है
३-भाषा वर्गणाये -भाषा/शब्दों का निर्माण होता है,ये हमे दिखती नहीं
४-मनोवर्गणाये-इनसे द्रव्य मन की रचना होती है!ये भी नहीं दिखती ,
५-कर्माण वर्गणाये -इनसे कार्मण शरीर का निर्माण होता है ,ये भी हमें दिखती !
जैन दर्शन अनुसार परमाणु और आधुनिक विज्ञान के परमाणु में भेद-
१-विज्ञान में परिभाषित द्रव्य का सूक्ष्मत भाग परमाणु,जैन दर्शनानुसार परिभाषित अविभाज्य परमाणुओं/अणुओं का स्कन्ध है क्योकि उसके इलेक्ट्रान,प्रोटोन,न्यूट्रॉन आदि उसके विभाज्य अवयव है!
२-अनंत परमाणुओं से निर्मित वर्गणाये हमारे ग्रहण में नहीं आती,ये आधुनिक उपलब्द्ध यंत्रों की पकड़ में नहीं आती!
जैन दर्शन अनुसार वैज्ञानिक परमाणु तक नहीं पहुँच पायेगे क्योकि यह ‘केवली’ absolute knowledgeable का विषय है!

पद्गल स्कंधों की उत्पत्ति –
भेदसंघातेभ्यउत्पद्यन्ते !!२६!!
संधि विच्छेद-भेद+संघातेभ्य+उत्पद्यन्ते
शब्दार्थ-उत्पद्यन्ते-(पुद्गल स्कंधों की) उत्पत्ति, भेद-टुकड़े करने से,संघातेभ्य-जुड़ने/मिलने से और भेद-संघात दोनों से अर्थात तोड़ने व जोड़ने से होती है!
भावार्थ-एक दृष्टान्त से इस सूत्र को समझते है-
घरों में गेहूं पीसकर,अर्थात गेहू को भेद कर आटा बनाया गया!
फिर आटे में पानी मिला कर उसका मोटा स्कन्ध बनाया जाता है,यह संघात हुआ,
फिर इसमें से छोटी-छोटी आटे की लोई लेकर उस पर सुखा आटा मिलकर रोटी बेलकर रोटी बनाई जाती है,यह भेद और संघात दोनों का उद्धारहण है!
विशेष-१-स्कन्धों के टूटने/विघटन को भेद और भिन्न भिन्न परमाणुओं/स्कन्धौ के मिलने को संघात कहते है स्कन्धौ की उत्पत्ति,भेद संघात और दोनों अर्थात स्कन्धौ के भेद और संघात से होती है !यह तीसरा; भेद और संघात दोनों,सूत्र में बहुवचन होने से निकलता है !
इसी सूत्र को वैज्ञानिक एवं जैन दर्शन के तुलनात्मक दृष्टिकोण से,कुछ रासायनिक क्रियाऔ के दृष्टान्तों द्वारा समझते है-
आचार्य उमास्वामी जी ने स्पष्ट कहा है कि “-भेद संघातेभ्य उत्पद्यन्ते!!”
तीन प्रक्रियाओं से स्कन्धोत्पत्ति होती है-
१-कुछ स्कन्धों की केवल स्कंध के भेद-विघटन से ,
२-कुछ स्कन्धो की दो या अधिक स्कन्धों के परस्पर संघात-संयोजन से और
३-कुछ स्कन्धौ की दो या अधिक स्कन्धों के परस्पर एक साथ भेद-विघटन और संघात-संयोजन से, उत्पत्ति होती है!
रसायन विज्ञान में भेद से स्कन्धौ की उत्पत्ति के कुछ दृष्टांत-
1-K SO Al (SO4)]. 24H 0 —-९२ डिग्रीसेंटीग्रेड –K 0 +Al 0 +SO +24H 0
2 4 2 3 2 2 2 3 2
फिटकरी पोटेशियम अल्युमिनियम सल्फर ट्राई पानी
आक्साइड आक्साइड आक्साइड
रेडियो सक्रिय (Radio Active) तत्वों में विघटन में भेद प्रक्रिया द्वारा स्कंध उत्पत्ति –
एक रेडियो सक्रिय तत्व द्वारा अल्फा,बीटा,गामा कणों का उत्सर्जन उसका विघटन (भेद) कहलाता है! रेडियो सक्रिय(Radio Active) तत्वों को जैनाचार्यों की भाषा में पुद्गलस्कंध है,विघटित हो कर नया तत्व (नयास्कंध) उतपन्न होता है, जो स्वत: विघटित होकर एक और नया तत्व /स्कंध उतपन्न करता है!इस प्रकार विघटन एवं दुहिता तत्व (daughter element )की उत्पत्ति का अनवरत क्रम तब चलता है जब तक अन्य उत्पाद के रूप से रेडिओ सक्रियाता हीन तत्व उतपन्न होता है !
स्कन्धोत्पत्ति की प्रक्रिया जैन दर्शनानुसार
संघात द्वारा स्कंधोत्पत्ति –
रसायनविज्ञान में स्कन्धोत्पत्ति की क्रिया संघात द्वारा भी देखी जाती है!इस प्रक्रिया को सह-संयोज नबंध के रूप में समझ सकते है !
सहसंयोजी बंध में,अणु निर्माण में भाग ले रहे परमाणुओं के मध्य इलेक्ट्रान की साझेदारी से जो बंध बंधता है उसे सहसंयोजी बंध एवं निर्मित यौगिक को सहसंयोजी यौगिक (स्कंध) कहा जाता है !
1- H*-H =H2

२ हाइड्रोजन हाइड्रोजन गैस
परमाणु

2- Cl2 + H2 — सूर्य का प्रकाश — = 2 HCl

क्लोरीन हाइड्रोजन हाइड्रोजन क्लोराइड
भेद-संघात द्वारा स्कन्धोत्पत्ति –
भेद (विघटन)संघात (संयोजन) से होने वाली स्कन्धोत्पत्ति को रसायन विज्ञान में मान्य विद्युत संयोजी बंध (electro valent bond) से तुलना कर सकते है !
स्कंध निर्माण की इस प्रक्रिया में,विज्ञान द्वारा मान्य परमाणुओ में से सर्वप्रथम एक परमाणु, एक या एक से अधिक इलेक्ट्रान त्यागता है!इलेक्ट्रान त्याग की इस क्रिया को ‘भेद’ (विघटन ) कहते है !तदोपरांत इस त्यागे हुए इलेक्ट्रान को दूसरा परमाणु ग्रहण करता है! प्रथम परमाणु जिसने इलेक्ट्रान त्यागा है वह धनावेशित और इलेक्ट्रान ग्रहण करने वाला परमाणु ऋणावेशित हो जाता है !अंत में विपरीत आवेश से आवेशित ये दोनो परमाणु विद्युत बल रेखाओं से जुड़ जाते है!संयोग की इस क्रिया को ‘संघात’-संयोजन कहते है!इस प्रकार भेद संघात की प्रक्रिया,विद्युत संयोजी बंध (electro valent bond) द्वारा स्कंध (वैज्ञानिक अणु -molecule) का निर्माण होता है !इस प्रक्रिया को रसायन विज्ञान की निम्न रासायनिक समीकरणों से समझते है !
१- सोडियम परमाणु क्लोरीन परमाणु
Na Cl (भेद)
– 1 इलेक्ट्रान + 1 इलेक्ट्रान
Na+ Cl- = संघात NaCl
सोडियम आयन क्लोरीन आयन सोडियम क्लोराइड (नमक )
उक्त दृष्टान्त में सोडियम परमाणु ने १ इलेक्ट्रान का त्याग कर क्लोरीन के एक परमाणु ने उस एक इलेक्ट्रान को ग्रहण किया जिसके फलस्वरूप सोडियम का परमाणु धनात्मक आवेश से और क्लोरीन का परमाणु ऋणात्मक आवेश से आवेशित हो गया!सोडियम और क्लोरीन के एक -एक परमाणुओ का विपरीत विद्युत आवेश से आवेशित होने के कारण वे आयनिक अवस्था में आ गए और उनके बीच विद्युत बल रेखाओं के उत्पन्न होने के कारण वे परस्पर जुड़कर सोडियम क्लोराइड (नमक) के अणु (वैज्ञानिक)/स्कंध (दर्शनानुसार) का निर्माण करते है !यह जैन दर्शना नुसार भेद संघात द्वारा स्कंध के निर्माण का दृष्टांत है !


परमाणु की उत्पत्ति का कारण
भेदादणु:-२७
संधि विच्छेद-भेदा +अणु:
शब्दार्थ-भेदा-भेद अर्थात विघटन से ही,अणु:-अणु की उत्पत्ति होती है
अर्थ- अणु की उत्पत्ति स्कन्धों के भेदने (टूटने-विघटन) से ही होती है!
भावार्थ-अणु, पुद्गल द्रव्य की स्वाभाविक अवस्था है,जिसके आगे उसको विभाजित नहीं करा जा सकता ,मात्र पुद्गल स्कन्ध के भेद से अणु की उत्पत्ति होती है,संघात से नहीं होती!
विशेष-उक्त सूत्र के माध्यम से आचर्यश्री उमास्वामी जी कहते है कि अणु/परमाणु की उत्पत्ति मात्र भेद क्रिया अर्थात विघटन से ही होती है,न की संघात अथवा भेद संघात क्रिया से !\जैन दर्शन के अनुसार अणु /परमाणु पुद्गल का अविभाज्य सूक्ष्मत्व अंश है जो आगे भेदा नहीं जा सकता !इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्रकृति में परमाणु का स्वतत्र अस्तित्व नहीं है किन्तु उसका अनुभव उसके स्कन्धौ के अस्तित्व द्वारा किया जा सकता है!इसीलिए अणु/परमाणु केवली ,(absolute knowledgeable) का विषय है !


चाक्षुष स्कंध की उत्पत्ति का कारण –
भेदसंघाताभ्यं चाक्षुषः-२८
संधिविच्छेद-भेदसंघाताभ्यं+चाक्षुषः
शब्दार्थ-भेद=तोड़ने/विघटन और संघात=जोड़ने से,चक्षु इन्द्रिय से,अदृश्य गोचर स्कन्ध, दृष्टिगोचर स्कन्ध की उत्पत्ति होती है केवल भेदन से नही !
भावार्थ-चक्षुइंद्री से दृष्टिगोचर स्कंध केवल भेद-संघात की युगपत क्रिया से उत्पन्न होते है,केवल भेद से नही !
उद्धाहरण से इस सूत्र को समझ सकते है-
१-गर्मियों में हमारे हाथों में मैल हो जाता है जो पहले नेत्रों से नहीं दिखता किन्तु जब दुसरे हाथ से उसे रगड़ते है,अभी तक जो मैल के स्कन्ध खाल के अन्दर जमे होने के कारण दिखाई नहीं दे रहे थे,तो उन स्कन्धो का खाल के अन्दर से तो भेद हुआ और खाल के ऊपर आ कर वे जुड़ने (संघात) के कारण मैल की बत्ती दिखने लगती है! यह मैल का स्कन्ध हमें खाल के अन्दर भेद कर ऊपर संघात के कारण दृष्टिगोचर होने लगा!
२-मेज के ऊपर धुल फ़ैली होने के कारण नेत्रों को दिखाई नहीं देती किन्तु मेज पर हाथ से समेटने पर वह एकत्र (संघात) हो कर दिखने लगती है!
विशेष-श्लोकवार्तिककार ने, विशेष बात भी लिखी,उन्होंने लिखा की चाक्षुषः से तात्पर्य मात्र दिखने वाला स्कन्ध नहीं अपितु जो स्कन्ध अभी तक छूने में नहीं आ रहा था,वह भेद और संघात से छूने वाला हो गया!जो स्कन्ध अभी तक सूंघने में नहीं आ रहा था वह भी भेद और संघात से सूंघने में आने लगा! जो चखने में नहीं आ रहा था वह भेद संघात से चखने योग्य हो जाता है!अर्थात पाचों इन्द्रियों के विषय,भेद और संघात से,जो पंचेंद्रियो के विषय अभी तक भोग्य नहीं थे वे भोगने योग्य हो जाते है!
इसी सूत्र को निम्न वैज्ञानिक रासायनिक क्रिया को जैन दर्शन से तुलनात्मक अध्ययन द्वारा समझ सकते है –
भेद संघताभ्यां चाक्षुष:
उक्त सूत्र में आचार्य उमास्वामी जी कह रहे है कि भेद संघताभ्यां -भेद और संघात (संयोजनी) प्रक्रिया द्वारा ही,चाक्षुष:-नेत्रों को दृष्टि गोचर स्कन्धौ (वैज्ञानिक Molecule) की उत्पत्ति होती है !केवल भेद से नहीं!आशय है कि अनन्त परमाणुओ का स्कंध होने पर ही कोई स्कंध चक्षु इन्द्रियों द्वारा देखने योग्य नहीं होता है!उसमे भी कोई दिखाई देने तथा कोई नहीं दिखाई देने योग्य होता है !अब प्रश्न उठता है की जो दिखता नहीं वह कैसे दिख सकता है?
इसी के समाधान के लिए उक्त सूत्र कहता है कि केवल भेद से ही कोई स्कंध चक्षु इंद्री द्वारा देखने योग्य नहीं होता बल्कि भेद और संघात दोनों की युगपत प्रक्रिया से होता है!
उद्धाहरण के लिए एक चक्षुइन्द्रिय अगोचर सूक्ष्मस्कंध के भेदन से चक्षु इन्द्रिय अगोचर सूक्ष्म स्कंध ही निर्मित होते है!किन्तु जब वह सूक्ष्म स्कंध किसी अन्य स्कंध से संघात द्वारा संयोग होने पर सूक्ष्मत्व त्याग कर स्थूलत्व ग्रहण करता है तभी चक्षु इन्द्रिय से दृष्टिगोचर होता है !
वैज्ञानिक विश्लेषण :-
भेद-संघात अर्थात विद्युत संयोजनी बंध द्वारा निर्मित अणु (स्कंध) ठोस होते है अत: चाक्षुष,(नेत्र) इन्द्रिय द्वारा दृष्टिगोचर होते है क्योकि इस प्रक्रिया द्वारा निर्मित
अणु ध्रुवीय होते है जिस कारण अनंत अणु एक दुसरे से आवेशित आयनो की ओर विद्युत बल रेखाओ द्वारा जुडते चले जाते है फलत: चाक्षुष स्कंध का निर्माण करते है !
जैसे नमक(NaCl),शोरा,नौसादर,फिटकरी,नीलाथोथा,हराकसीस आदि के भेद संघात प्रक्रिया द्वारा अचाक्षुष स्कंध बन जाते है !
+NaCl- +NaCl- विद्युत बल रेखाएं ——–& gt; NaCl-+NaCl-
इसी आधार पर वैद्युत संयोजी यौगिकों (स्कन्धों ) के विलयन होने वाली आयनिक क्रियाओं समझा जा सकता है !
स्कन्धों का अचाक्षुष जलीय विलयन; भेद संघात क्रिया द्वारा बने चाक्षुष स्कंध-
१- +NaCl- + AgNO भेद –& gt;+Na + Cl- + +Ag +NO- –& gt; संघात AgCl +NaNO
3 3 3
सोडियम क्लोराइड सिल्वर नाइट्रेट सोडियम क्लोरीन सिल्वर नाइट्रेट सिल्वरक्लोराइड सोडियमनाइट्रेट
(अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष)(अचक्षुष) (चक्षुष,सफ़ेद रंग ) (अचक्षुष)
salution salution आयन आयन अयन आयन precipitate solution
२- PbCl + KCrO भेद —->Pb+ +2Cl – +2K+ +CrO- संघात >PbCrO +2 KCl
2 4 4 4
लेडक्लोराइड पोटॅशियमक्रोमेट लेड क्लोराइड पोटेशियम क्रोमेट लेडक्रोमेट पोटेशियमक्लोराइड
(अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष ) (अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष) ( चक्षुष)पीला
salution salution आयन आयन आयन आयन precipitate solution


सद्द्रव्यलक्षणम् -२९
संधि-विच्छेद:- सत्+द्रव्य+लक्षणम्
शब्दार्थ-सत्-सत्य(नित्यता) अस्तित्व,द्रव्य-द्रव्य का,लक्षणम्-लक्षण है!
भावार्थ-द्रव्य सदैव(सत्ता) अस्तित्व में रहता है,अविनाशी है !

उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ३०
संधिविच्छेद:-उत्पाद+व्यय+ध्रौव्य+युक्तं+सत्
शब्दार्थ-उत्पाद-नवीन पर्याय की उत्पत्ति,व्यय-पुरानी पर्याय का नाश/व्यय और ध्रौव्य=वस्तु का सदैव अस्तित्व से युक्त,सत्-अस्तित्व है!
अर्थ-अर्थात जिसमे उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य तीनो पाए जाए,सत् है !
उपर्युक्त सूत्र संख्या २९ में द्रव्य का लक्षण सत्-अर्थात अस्तित्व/नित्यत्व द्रव्य का लक्षण बताया है और इस सूत्र में सत्-अस्तित्व/नित्यत्व को परिभाषित किया है; उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य युक्त सत् है अर्थात उत्पाद व्यय ध्रौव्य,द्रव्य का लक्षण है !
भावार्थ- द्रव्य का लक्षण -जिसमें निरंतर प्रति समय नवीन पर्याय की उत्पत्ति और पुरानी पर्याय का व्यय होने पर भी वह अपना अस्तित्व सदा रखे उसे,सत् कहते है,जो की द्रव्य का लक्षण है! सभी द्रव्य अविनाशी है तथा उसमे नवीन पर्याय की उत्पत्ति और पुरानी का व्यय एक ही समय में युगपत् होता ही है!
उत्पाद-अपनी जाति को छोड़े बिना,चेतन/अचेतन द्रव्य में अंतरंग और बहिरंग के निमित्त से प्रति समय नवीन पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है!जैसे मिटटी की पिंड पर्याय से घट पर्याय की उत्पत्ति!
व्यय-पूर्वपर्याय का विनाश व्यय है जैसे घट पर्याय के उत्पन्न होने पर पिंड पर्याय का विनाश होना !
ध्रौव्य-पूर्वपर्याय के विनाश और नवीनपर्याय का उत्पाद होने पर भी मूलस्वभाव सदैव रहना,ध्रौव्य है!जैसे पिंड पर्याय का व्यय होकर घट पर्याय का उत्पाद होने पर भी मिटटी द्रव्य का कायम रहना!
द्रव्य,उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरुप ही है-उक्त दृष्टांत में मिटटी की पिंड पर्याय का व्यय /विनाश होने पर नवीन घट पर्याय का उत्पाद होने पर भी,मिटटी, मूल द्रव्य सदैव रहती है! इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में तीनों गुण एक साथ रहते है क्योकि पुरानी पर्याय के नष्ट होने पर, नवीन पर्याय का उत्पाद होने पर भी द्रव्य का स्वभाव सदा रहता है अर्थात द्रव्य वही रहता है!यदि केवल उत्पाद माना जाये तथा व्यय और ध्रौव्य को नहीं माना जाए तब नवीन वस्तु का बनना ही शेष रहा,ऐसी स्थिति में बिना मिटटी के घट बन जाएगा!यदि वस्तु का केवल विनाश माना जाये,उत्पाद और ध्रौव्य को नहीं माना जाये,तो घट के टूटने पर मिटटी या टीकर कुछ शेष नहीं रहेगा!यदि केवल ध्रौव्य को ही मन जाए उत्पाद व् व्यय को नहीं माने तो प्रत्येक वस्तु जिस अवस्था में है वह उसी अवस्था में सदा रहेगी,उसमे कभी कोई परिवर्तन नहीं होगा! किन्तु यह प्रत्येक्ष के ये विरुद्ध है!प्रत्यक्षत: प्रत्येक वस्तु परिवर्तन शील है,उसमे प्रति समय परिवर्तन होते हुए भी जो सत् है उसका विनाश कभी नहीं होता है तथा असत् का उत्पाद कभी नहीं होता है, प्रत्येक द्रव्य में परिणमन होते हुए भी उसका मूल स्वभाव यथावत रहता है !जड़ चेतन नहीं हो सकता और चेतन जड़ नहीं हो सकता!अत: जो सत उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरुप है उसे ही द्रव्य कहते है!
जीव का चेतनत्व,ज्ञान,दर्शनादि गुण उसकी समस्त गतियों रूप पर्यायों और पुद्गल द्रव्य के स्पर्श,रस,गंध,वर्ण गुण उसकी सब पर्यायों में विध्यमान रहते है!
उद्धाहरण २-पुराने स्वर्ण के जेवर अंगूठी को तुड़वाकर नवीन बाली बनवाना!इसमें सोंने की अंगूठी पुरानी पर्याय है जिसका नाश होने पर उसकी नवीन पर्याय बाली का उत्पाद हुआ तथा दोनो ही स्थिति में सोने का गुण उसमे ध्रौव्य रहा !
शंका-प्रत्येक द्रव्य तीनो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप एक साथ कैसे रह सकता है कदाचित कालभेद से उसे उत्पाद और व्यय स्वरुप मान भी लिया जाए,क्योकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालांतर में विनाश भी अवश्य होता है,वह ऐसी अवस्था में ध्रौव्य रूप नहीं हो सकता क्योकि जिसके उत्पाद व्यय होता है उसका ध्रौव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है?
समाधान- इसका समाधान है की जिस समय द्रव्य की पुरानी पर्याय का विनाश होता है उसी समय नवीन पर्याय का उत्पाद होता है फिर भी उसका त्रिकालिक अवयव स्वभाव बना रहता है !
आचर्य समन्तभद्र स्वामी व्यक्त करते है है कि “घटका इच्छुक उसके नाश होने पर दुखी होता है,मुकुट का इच्छुक उसके उत्पाद होने पर हर्षित होता है,और सोने का इच्छुक मध्यस्थ रहता है !एक ही समय में शोक,हर्ष और नध्यस्थ भाव अकारण नहीं हो सकता जिससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य युक्त होता है !”
आज विज्ञान कहता है की वस्तु का नाश कभी नहीं होता,केवल उसकी वर्तमान पर्याय(mode-state) बदलती है!जैनागम के इस दृष्टिकोण का विज्ञान भी समर्थन करता है! जैनागम कहता है वस्तु की नवीन पर्याय की उत्पत्ति होती है,पुरानी का नाश-व्यय होता है,तथा वस्तु का गुण सभी पर्याय में रहता है!
विशेष-१-अनादिकाल से रहने वाले शुद्ध धर्म,अधर्म,आकाश,काल और सिद्ध जीव द्रव्यों में उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य होता है!प्रत्येक शुद्धद्रव्य में अगुरुलघुगुण के कारण,षट्गुणहानि वृद्धि रूप परिणमन प्रतिसमय होता है!किसी भी द्रव्य का अस्तित्व परिणमन के बिना असंभवहै!अत:सिद्ध भगवान् की केवल सांसारिक अवस्थों का अंत होता है,मुक्त अवस्था शुरू होती है!
३-षट्गुणहानिवृद्धि –
१-अनन्तभागहानि/वृद्धि,२-असंख्यातभागहानि/वृद्धि,३-संख्यातभागहानि/वृद्धि४-संख्यातगुण हानि/वृद्धि,५-असंख्यातगुणहानि/वृद्धि,६-अन्नतगुणहानि/वृद्धि

नित्यम्/ध्रौव्य–
तद्भावाव्ययंनित्यम् ३१
संधि-विच्छेद:-तद्+भाव+अव्ययं+नित्यम्
शब्दार्थ:-तद-उस (द्रव्य) के,भाव-भाव का,अव्ययं=नाश नहीं होना,नित्यम्-नित्य/ध्रौव्य है!
अर्थ-उस द्रव्य का स्वभावनष्ट नहीं होता,वह नित्य है,यद्यपि वस्तु प्रतिसमय परिणमनशील है तथापि उसमे एक रूपता बनी रहती है,जिसे कालांतर मेंदेख कर पहिचान सकते है कि यह वही वस्तु है,वस्तु/द्रव्य की इस एक रूपता को ही नित्यता कहते है जो कि उस वस्तु का स्वभाव है !
भावार्थ-जीव के जीवत्व/चेतनत्व का क्षय नहीं होना,उसका ध्रौव्यत्वहै!जैसे सिद्ध भगवान् की सांसारिक पर्याय काक्षय (व्यय) होकर,मुक्त पर्याय का आरम्भ (उत्पाद) होना तथा सिद्धावस्था में भी जीवत्व सदा रहेता है!इसी प्रकार पुद्गल का पुद्गल्त्व कभी नष्ट नहीं होता!
वस्तु द्रव्य की अपेक्षा,ध्रौव्य की अपेक्षा,नित्य है उत्पाद व्यय की अपेक्षा वस्तु अनित्य है!हम जीवत्व की अपेक्षा,नित्य और ध्रौव्य की अपेक्षा,नित्य अविनाशी है किन्तु पर्याय की अपेक्षा हमारी मृत्यु (व्यय) होती है फिर जन्म (उत्पाद) लेते है अत:,हम इस की अपेक्षा से अनित्य है!इस प्रकार दो विरोधी धर्म वस्तु में हमेशा विद्यमान रहते है!
शंका-जैन दर्शनानुसार प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय परिणमनशील है फिर वह नित्य कैसे हो सकती है ?
समाधान-नित्यता से अभिप्राय यह नही है की वस्तु जिस रूप मे है वह सदैव उसी रूप में ही बनी रहेगी,उसमे कोई परिवर्तन नही होगा,बल्कि उसमे परिणमन के साथ साथ एक रूपता बनी रहना उसकी नित्यता है,जो की उसका स्वभाव है,जिसे देखकर हम पहिचान सकते है की वही वस्तु है!उक्त कथन का अभिप्राय है कि वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी!जैसे जीव,पर्याय दृष्टि से अनित्य और द्रव्य दृष्टि से चेतनत्व होने के कारण नित्य है!पदार्थों में नित्यता सामन्य रूप की अपेक्षा से होती है और पर्याय की दृष्टि से सभी द्रव्य अनित्य है,इसीलिए संसार के सभी पदार्थ में दो विरोधी धर्म नित्य और अनित्य युगपत् विध्यमान होते है !
शंका-एक ही द्रव्य को नित्य और अनित्य कहना विरोधाभासी कथन है ,यदि नित्य है तो उत्पाद और व्यय के अभाव में अनित्यता नहीं बनती,यदि अनित्य है तो स्थिति का अभाव होने से नित्यता का व्याघात हो जाता है वस्तु में नित्यता और अनित्यता,दो विरोधी

धर्मो की सिद्धि निम्न सूत्र से होती है
अर्पितानर्पितसिद्धे:-३२
संधि-विच्छेद -अर्पित+अनर्पित+सिद्धे:
शब्दार्थ:-अर्पित-मुख्यता,अर्थात जिसको वक्ता वर्तमान में कहना चाह रहा है और अनर्पित=गौणता से अर्थात जिसको वक्ता अभी नहीं कहना चाह रहा है,सिद्धे=सिद्धी होती है!
अर्थ- मुख्यता /विवक्षा और गौणता (अविवक्षा ) से अनेक धर्मात्मक वस्तुओं का कथन सिद्ध होता है !किन्तु इस का अभिप्राय यह नहीं है की जिस गुण का मुख्यता से वर्णन किया जा रहा है उसके अतिरिक्त वस्तु के सभी धर्म/गुण सर्वथा ही गौण हो गए !मुख्यता और गौणता से किसी वस्तु के गुणों का कथन करने की व्यवस्था का कारण है कि एक समय में वस्तु के एक ही गुण का कथन किया जा सकता है !अत:किसी वस्तु के किसी धर्म की प्रमुखता और उस के अन्य गुणों की गौणता से ही वस्तु की सिद्धि होती है !
भावार्थ-वस्तु में विद्यमान दो विरोधी धर्मो की,सिद्धि अर्पित और अनर्पित से है!उद्धाहरण के लिये,जब हम किसी वस्तु कर वर्णन द्रव्य की अपेक्षा से करते है,द्रव्य की मुख्यता की अपेक्षा वर्णन करना अर्पित हुआ,इस समय हमने वस्तु की नित्यता सिद्ध करी,जब पर्याय की मुख्यता की अपेक्षा से वर्णन करेगे तब पर्यायदृष्टि मुख्य अर्थात अर्पित होगी और हम वस्तु की अनित्यता सिद्ध करते है !
अर्पित-मुख्य द्रव्य दृष्टि से में जीव नित्य हूँ इस समय पर्याय दृष्टि गौण अनर्पित हो गयी है!जब पर्यायदृष्टि की मुख्यता अर्थात अर्पित बनाया तो मैं अनादिकाल से जन्म -मरण कर रहा हूँ इसलिय अनित्य हूँ!पहले जिस धर्म को अर्पित बनाते है उसकी सिद्धी हो जाती है,दूसरा धर्म गौण हो जाता है फिर पहले को अनर्पित बनाकर दुसरे धर्म को अर्पित बनाकर उसकी सिद्धि हो जाती है!अत: मुख्यता और गौणता से वस्तु में विद्यमान दो विरोधी धर्मों की सिद्धी हो जाती है
पुण्य हेय है या उपादेय है?
शुद्धोपयोगी की अपेक्षा पुण्य हेय है,अशुभोपयोगी की अपेक्षा शुभुपयोग और पुण्य उपादेय है!शुद्धोपयोगी मुनिमहाराज की अपेक्षा शुभुपयोग,पुण्य हेय है ! अशुभोपयोगी की अपेक्षा शुभुपयोग-पुण्य उपादेय है
वस्तु में किते धर्म पाए जाते है?
वस्तु में अनेक धर्म विद्यमान होते है! एक ही जीव किसे की अपेक्षा पुत्र,किसी की अपेक्षा पिता,किसी की अपेक्षा भाई आदि है!वस्तु के इन अनेक धर्मों को अनेकांत कहते है!,अंत=धर्म,अनेक=बहुत!जब वस्तु के एक धर्म का वर्णन होता है,वह एकांत है!जब वस्तु में पाए जाने वाले अनेक धर्मों का वर्णन होता है उसे अनेकांत कहते है !
शंका:-सूत्र २६ में बताया है की स्कंध की उत्पत्ति भेद,संघात और भेद संघात दोनों से,अर्थात तीन प्रकार से होती है तो क्या दो परमाणु के संघात होने पर भी स्कंध की उत्पत्ति होती है !
समाधान:-दो परमाणुओं का संघात द्वारा बंध तब तक नहीं होता जब तक उनमे परस्पर रासायनिक क्रिया नहीं हो जाती है !जैसे-
रसायन विज्ञान में स्कन्धोत्पत्ति की क्रिया संघात द्वारा भी होती है!इस प्रक्रिया को सह संयोजन बंध के रूप में समझ सकते है!सहसंयोजी बंध में,अणु निर्माण में भाग ले रहे परमाणुओं के मध्य इलेक्ट्रान की साझेदारी से जो बंध बंधता है उसे सहसंयोजी बंध एवं निर्मित यौगिक को सहसंयोजे यौगिक (स्कंध) कहा जाता है !
1- H*-H =H2

हाइड्रोजन का १ परमाणु, दुसरे हाइड्रोजन परमाणु से संघात कर ,हाइड्रोजन गैस का एक अणु बनता है!परमाणु और अणु वैज्ञानिक मान्यता परिभाषा लिया गया है !जब की जैन दर्शन के अनुसार परमाणु पुद्गल का सूक्ष्मत अविभाज्य खंड है जो विभाजित नहीं किया जा सकता और स्कंध २ या २ से अधिक परमाणुओं के संयोग से निर्मित का स्कंध है !बिना रासायनिक क्रिया के कोई स्कंध नहीं बनता!

पुद्गल का स्वाभाविक रूप अणु/परमाणु है!कुछ में परस्पर बंध होता है और कुछ में नहीं होता है!निम्न सूत्र से बंध का कारण बताया है !

द्गल का स्वाभाविक रूप अणु/परमाणु है!कुछ में परस्पर बंध होता है और कुछ में नहीं होता है!निम्न सूत्र से बंध का कारण बताया है !

स्निग्धरूक्षत्वाद्बंध:-३३

संधिविच्छेद:-स्निगधत्वाद+रूक्षत्वाद+बंध

शब्दार्थ:-स्निग्धत्वाद् =चिकने और रूक्षत्वा[b]द्=रूखापना होना,बंध= बंध का कारण है![/b]

भावार्थ-अणु/परमाणु से अणु/परमाणु का परस्पर बंध उनमे विध्यमान स्निग्ध और रुक्ष गुणों के कारण होता है !
विशेष-
१-किसी परमाणुओं में स्निग्ध(+) और किसी में रुक्ष (-) गुण होते है!स्निग्ध और रुक्ष गुणों के अनंत अविभागीप्रतिच्छेद होते है!शक्ति के न्यूनतम अंश को अविभागी प्रतिच्छेद कहते है!एक एक परमाणु में अनंत अविभागी प्रतिच्छेद होते है जो घटते बढ़ते रहते है! ये घटते घटते किसी समय असंख्यात,संख्यात या इससे भी कम और कभी बढ़ते बढ़ते अनंत अविभागी प्रतिच्छेद हो जाते है!इस प्रकार परमाणुओं की स्निग्धता और रुक्षता में हीनाधिकता पायी जाती है,जिसका अनुमान स्कंध को देखकर हो सकता है!जैसे जल से अधिक स्निग्धता बकरी के दूध के घी में,उससे अधिक गाय के दूध के घी में,और उससे भी अधिक भैस के दूध के घी में होती है!इसी प्रकार धुल,रेत,बजरी में रुक्षणता क्रमश वृद्धिगतहै!इसी प्रकार परमाणुओं में भी हीनाधिक स्निग्धता/रुक्षता होती है जो कि उनके परस्पर बंध का कारण है!
कालद्रव्य के अणु शुद्ध रूप में है वे एक दुसरे से बंध को प्राप्त नहीं होते क्योकि उनमे स्निगध-रुक्ष गुण नहीं है! ये गुण मात्र पुद्गल द्रव्यों में है!

आत्मा का कर्मो से बंध,आत्मा में स्निग्ध-राग गुण,और रुक्ष=द्वेष गुण होने के कारण ही होता है!सिद्धावस्था में इन दोनों गुणों का आत्मा में अभाव होने से कर्म का बंध नहीं होता है !
सूत्र का जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष में विश्लेषण –
जैनदर्शनानुसार-इस कथन को समझने के लिए वैज्ञानिक विश्लेषण से पूर्व,स्निग्ध एवं रुक्ष गुणों को वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में समझना अत्यंत आवश्यक है !
तत्व मूलतः दो प्रकार के होते है !
१-धातु-वे तत्व जो प्रकृति में वैद्युत धनीय(+),क्षारीय गुण तथा कम विद्युत ऋणात्मकता(-) वाले जैसे सोना,चांदी,पारा,ताम्बा,जस्ता आदि होते है इनमे स्वाभाविक स्निग्धता (चिकनाई) होती है !
२-अधातु-वे तत्व जो प्रकृति में विद्युत ऋणीय(-),अम्लीय गुण एवं तत्वों की अपेक्षा अधिक वैद्युतऋणात्मकता(-)वाले,जैसे;सिलिकॉन,बोरोन,हीरा,कार्बन,ब्रोमिन,क्लोरीन आदि होते है इनमे स्वाभाविकता रूक्षता (रूखापन) है!इससे स्पष्ट हो जाता है की आचार्य उमा स्वामी जी ने स्निग्ध गुणों से युक्त धातुविक परमाणुओं का और रुक्ष गुणों से युक्त अधातुविक परमाणु में बंध सम्भव कहा है !
वैज्ञानिको के अनुसार विश्लेषण –
धातु-धातु,अधातु-अधातु और धातु-अधातु के परमाणु,परस्पर बंध कर स्कंध के निर्माण करने में सक्षम है !
१-स्निग्ध गुण युक्त धातुविक परमाणु का स्निग्ध धातुविक परमाणु से बंध –
1-(ताम्बा)Cu +(जस्ता)(Zn)+(निकिल )(Ni=जर्मन सिल्वर
2-(लोहा)Fe+(निकिल)Ni+(क्रोमियम)Cr=स्टेनलेस स्टील
२-रुक्षगुण युक्त अधात्विकपरमाणु का रुक्ष गुण युक्त अधात्विक परमाणुओं से बंध –
1- N +3 H ———> ५०० डिग्री से. =2NH
2 2 3
नाइट्रॉन हाइड्रोजन अमोनिया
2- N + 3 Cl =2NCl
2 2 3
नाइट्रोजन क्लोरीन नाईट्रोजन क्लोराइड
3- 2H + O =2H O
2 2 2
हाईड्रोजन आक्सीजन जल
३-स्निग्ध गुण युक्त धात्विक परमाणु का रुक्ष गुण युक्त अधात्विक परमाणु से बंध –
1-2Na + Cl =2 NaCl
2
सोडियम क्लोरीन सोडियमक्लोराइड (नमक)
2- Cu + S ———-> ऊष्मा = CuS
ताम्बा सल्फर(गंधक) क्यूपरीक सल्फाइड


अणुओ के बंध की शर्ते

नजघन्यगुणनाम् -३४

संधि-विच्छेद:-न+जघन्य+गुणनाम्

शब्दार्थ:-जघन्य (कम से कम),गुणनाम्=गुणों वाले अणु का बंध,न=नहीं होता
अर्थ-जिन परमाणुओं में स्निग्धता और रुक्षता का एक अविभागी परिच्छेद रह जाता है उनमे परस्पर बंध नहीं होता है

भावार्थ-जिन परमाणुओं में स्निग्ध और रुक्ष गुण न्यूनतम,(अर्थात एक अविभागी प्रतिच्छेद/अंश है) उनका बंध नहीं होता!

एक स्निगध +ve का एक रुक्ष -ve से बंध नहीं होता!, एक रुक्ष(-) का एक रुक्ष (-) से बंध नहीं होता,

एक स्निग्ध +ve का एक स्निग्ध +ve से बंध नहीं होता!
परमाणुओं में ये अनंत अविभागी प्रतिच्छेदों की सख्या घट कर असंख्यात,संख्यात और उससे भी कम हो जाती है और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते अन्नंत भी होती है
क्या जघन्य गुण वाले परमाणु का कभी भी बंध नहीं होगा! उनमे परिणमन उनकी योग्यता अनुसार तो हमेशा होता रहता है,जब वे जघन्य अंश से ऊपर उठेंगे तब वे बंध करने योग्य होगे!
आचार्य उमा स्वामी का अभिप्राय जघन्य गुणानाम से दो स्निग्ध-स्निग्ध,रुक्ष-रुक्ष अथवा स्निग्ध रुक्ष परमाणुओं ,जिनमे रुक्ष और स्निग्ध गुणों के जघन्य अर्थात १ अविभागी प्रतिच्छेद है उनमे बंध नहीं होता से अभिप्राय, परमाणुओं की विद्युत ऋणात्मकता में अंतर १ या १ से कम होता है तो उनमे बंध नहीं होता जो की निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट है

सूत्र का जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष में विश्लेष-
सूत्र में आचार्य उमा स्वामी स्पष्ट करते है कि;न -नहीं,जघन्य-न्यूनतम, गुणानाम्-गुणों वाले परमाणुओं;में परस्पर भेदसंघात प्रक्रिया द्वारा बंध होकर स्कन्धोत्पत्ति नहीं होती है;अर्थात जिन परमाणुओं की विद्युत ऋणात्मकता का अंतर १ या कम होता है वे परस्पर भेद संघात(विद्युत संयोजनी ;(Eletro Valent Bonding) प्रक्रिया द्वारा बंध कर स्कन्धोत्पत्ति (स्कंध का निर्माण-Molecule form) नहीं करते है !
उद्धाहरण के लिए :-
परमाणु विद्यत ऋणात्मकता विद्युत ऋणात्मकता में अंतर विद्युत संयोजनी बंध से स्कन्धोत्पत्ति
१-कार्बन २.५ १ स्कन्धोत्पत्ति नहीं होती
आक्सीजन(O) ३. ५
२-क्लोरीन ३.० १ स्कन्धोत्पत्ति नहीं होती
फ्लोरीन ४,०

गुणसाम्येसदृशानाम् -३५
संधि-विच्छेद:-गुण+साम्ये+सदृशानाम्
शब्दार्थ-गुणसाम्ये-दो परमाणुओं के सामान गुण (अविभागीपरिच्छेद) होने पर , सदृशानाम्-सजातीय होने पर अर्थात स्निग्ध-स्निग्ध अथवा रुक्ष -रुक्ष परमाणुओं का बंध नहीं होगा!
भावार्थ-यदि बंधने वाले दो सजातियों परमाणु/अणुओं के गुणों में समानता अर्थात शक्ति के अविभागी प्रतिच्छेद समान होने पर उनमे परस्पर बंध नहीं होता जैसे २ स्निग्ध गुण वाले परमाणु का दुसरे दो स्निगध गुण वाले परमाणु,दो रुक्ष गुण वाले दो रुक्ष गुण वाले परमाणु,और दो स्निग्ध गुण वाले परमाणु का २ रुक्ष गुण वाले परमाणु के साथ बंध नहीं होता है!
यदि गुणों की संख्या में विषमता हो तो सजातीय परमाणुओं का भी बंध होता है!अर्थात १ स्निग्ध( +) परमाणु का दो रुक्ष(-) परमाणु के साथ,एक रुक्ष (-) का २ स्निग्ध(+) परमाणु ,१ स्निग्ध (+) परमाणु का २ स्निग्ध (+) परमाणु ,१ रुक्ष (-) परमाणु का २ रुक्ष (-) परमाणु के साथ बंध हो सत्ता है

यही यह सूत्र बताने के लिए है !सूत्र में सदृश पद सूचित करता है कि दोनों बंधने वाले परमाणुओं के गुणों(अविभागी प्रतिच्छेदों) में असमानता होने पर ही,परमाणुओं में बंध होता है !
इस सूत्र का जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष में विश्लेष-
१-गुण साम्ये सदृशानाम् !!
(गुण साम्ये), दो परमाणुओं में समान गुण अर्थात स्निग्ध और रुक्ष गुण समान होने पर,(सदृशानाम्)एक समान स्निग्ध और रुक्ष गुणवाले परमाणुओं में भेद-संघात प्रक्रिया द्वारा परस्पर बंध होकर स्कन्धोत्पत्ति नहीं होती है!
आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी एक सामान विद्युत ऋणात्मकता वाले परमाणुओं में भेद संघात प्रक्रिया द्वारा परस्पर बंध से स्कन्धोत्पत्ति (molecule Formation ) नहीं होती है !
नोट-विद्युत ऋणात्मकता किसी एक परमाणु की वह शक्ति है जिसे दुसरे परमाणु के इलेक्ट्रान पर डालकर उस से वह इलेक्ट्रान शेयर करता है !
उद्धाहरण के लिए :-
नाईट्रोजन(N) और क्लोरीन(Cl) की विद्युत ऋणात्मकता ३
फॉस्फोरस(P) और हाइड्रोजन (H) की २.१(स्कंध का निर्माण
आर्सेनिक (As)और आयोडीन( I) की २.२
आक्सीजन(O)-आक्सीजन(O) की ३.५
बोरोन(B) २,-हाइड्रोजन (H)की २.१ है,
इनके परमाणुओं में भेद-संघात(Electro Valent bonding) प्रक्रिया द्वारा बंध नहीं होता है किन अणुओं/परमाणुओं का किन परिस्थितियों में बंध होता है –

द्वयधिकादिगुणानां तु ३६

संधि विच्छेद -द्वी+अधिक+आदि+गुणानां+तु
शब्दार्थ-तु=लेकिन,द्वयधिकादिगुणानां- केवल ,परस्पर में दो से अधिक,गुण वाले परमाणुओं का बंध होता है!उससे कम या अधिक गुणों का अंतर होने पर बंध नहीं होता
भावार्थ- यदि एक स्निग्ध अथवा रुक्ष परमाणु में दो, तीन चार आदि शक्तिंश (अविभागी प्रतिच्छेद) है और दुसरे में क्रमश: ४,५,६ आदि रुक्ष अथवा स्निग्ध शक्तिंश है तभी दोनों परमाणुओं में बंध हो सकता है, क्योकि उनके गुण परस्पर दो अधिक है! दो से कम अथवा अधिक अंतर होने पर सजातीय और विजातीय परमाणुओं में बंध नहीं हो सकता! जैसे किसी स्निग्ध अथवा रुक्ष, २ गुण वाले परमाणु का बंध २, ३, ५, संख्यात,असंख्यात गुणों वाले स्निग्ध अथवा रुक्ष परमाणुओं से बंध नहीं हो सकता! केवल चार गुण वाले परमाणु में ही बंध संभव है! यह बंध स्निग्ध का स्निग्ध के साथ,रुक्ष का रुक्ष के साथ व स्निग्ध का रुक्ष के साथ है !२ अंशों का अंतर होने पर ही बंध होगा !
प्रोटोन में २ क्वार्क (+) के होते है वही तीसरा क्वार्क (-) वाला होता है ये २ अधिक गुणों वाले का बंध हुआ !पेंटा क़वर्क में ५ क्वार्कों का बंध होता है (उप्र के ३ क्वार्कों का बंध अन्य २ क्वार्कों के साथ होता है जिससे कुल क़वार्क ५ होते है !इस प्रकार न्यूट्रॉन में २ क्वार्क (-) होते है वही तीसरा (+) होता है यह दो अधिक गुण वालों का बंध है !
,अधिकादि -दो से अधिक, गुणानां-स्निग्ध और रुक्ष गुणों में अंतर होने पर,तु–परस्पर परमाणुओं में भेद-संघात प्रक्रिया द्वारा बंध होता है!अर्थात दो परमाणुओं के स्निग्ध और रुक्ष गुणों,अर्थात विद्युत ऋणात्मकता में दो अधिक होने पर परस्पर में भेद संघात प्रक्रिया द्वारा बंध कर के स्कन्धोत्पत्ति होती है!आधुनिक विज्ञान के रसायन विज्ञान के अनुसार भी भेद संघात ;विद्युत संयोजनी बंध (EletroValent Bonding) के द्वारा स्कन्धोत्पत्ति के निर्माण (molecule Formation) के लिए,बंध निर्माण में भाग ले रहे परमाणुओं की विद्युत ऋणात्मकता २ से अधिक होना आवश्यक है !
उद्धाहरण के लिए :-
परमाणु विद्यत ऋणात्मकता विद्युत ऋणात्मकता में अंतर विद्युत संयोजनी बंध से स्कन्धोत्पत्ति
१-सोडियम (Na १ २ सोडियमक्लोराइड (NaCl )
क्लोरीन (Cl) ३
२-पोटेशियम(K) ०.८ २.२ पोटेशियमक्लोराइड KCl
क्लोरीन (Cl) ३.०


स्कन्धोत्पत्ति के बाद उत्पन्न स्कंध की प्रकृति –
बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च – ३७

संधिविच्छेद:-बन्धे+अधिकौ+पारिणामिकौ+च

शब्दार्थ:-बन्धे-बंध होने पर,अधिकौ-अधिक गुणों वाला परमाणु ,पारिणामिकौ-परिणमन कराने वाला,च=भी होता है!
अर्थ- और बंध होने पर अधिक गुणों वाला परमाणु,कम गुण वाले परमाणु को अपने अनुरूप परिणमन कर लेता है !

भावार्थ:-जब दो परमाणु अपनी पूर्वास्था को छोड़कर तीसरी अवस्था धारण करते है तभी नवीन स्कंध की उत्पत्ति होती है!यदि ऐसा नहीं हो तो जैसे कपड़े में काले और सफ़ेद धागे परस्पर में संयुक्त होते हुए भी अलग अलग पड़े रहते है वैसे ही परमाणु भी पड़े रहे.और स्कंध की उत्पत्ति ही नहीं हो!अत: अधिक (१०अंश )गुण वाले रुक्ष परमाणु से यदि कम (८ अंश) वाले स्निग्ध परमाणु का बंध होता है तो स्कन्ध रुक्ष गुणों से परिपूर्ण (अम्लीय) होगा!अर्थात दो परमाणुओं के बंध में कम अंशगुण वाला परमाणु अधिक अंशगुण वाले परमाणु के अनुरूप परिणमन कर दोनों परमाणु परिणमन कर नवीन स्कंध में परिवर्तित हो जाते है!
दो अधिक गुणों वाले रमाणुओं का ही बंध होकर स्कंध क्यों बनता है ?
समाधान-बंध करने वाले परमाणुओं के लयवर्त गुणों में दो का अंतर इसलिए रखा है क्योकि यदि अधिक अंतर होगा तो कम गुणों वाला परमाणु लयवर्त तो हो जाएगा किन्तु तीसरी स्कंध अवस्था प्राप्त नहीं कर सकेगा क्योकि वह अपने प्रभाव से अधिक गुण वाले परमाणु को प्रभावित नहीं कर पायेगा!समान गुण होने पर भी बंध इसलिए नहीं हो पायेगा क्योकि दोनों परमाणु समान बलशाली हो जाएंगे ,जिससे एक दुसरे के अनुरूप परिणमन कर नहीं पाएंगे और अलग अलग ही रह जाते है !
गीले गुड़ के समान,एक अवस्था से दुसरी अवस्था को प्राप्त करना ,पारिणामिक कहलाता है !जैसे अधिक् मीठे रस वाला गुड़ ,उस पर पडी धुल को अपने गुण रूप से परिणमाने के कारण पारिणामिक होता है इसी प्रकार अधिक गुण वाला पारिणामिक होता है !

इस सूत्र का जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष में विश्लेष-
बंधेऽधिकौ पारिणामिकौ च
बंधेऽधिकौ पारिणामिकौ च -और बंध करने वाले परमाणु में अधिक गुण रखने वाला परमाणु कम गुण वाले परमाणु को अपने रूप परिणमन करवा लेते है! रसायन विज्ञान मान्य स्कन्धौ अणु (molecules) में भी प्राय: यही देखा जाता है!जब स्निग्ध गुण युक्त धातु का परमाणु रुक्ष गुण युक्त अधातु के परमाणु परस्पर बंध कर स्कन्धो त्पत्ति (molecule formation) करते है तब निर्मित स्कंध (molecule) उसी गुण का होता है जिसका द्रव्यमान (mass) अधिक हो! यदि स्कंध (molecule) निर्माण में भाग ले रहे परमाणु में से यदि स्निग्ध गुण युक्त धातु (क्षारीय) के परमाणु का द्रव्य मान अधिक है तो निर्मित स्कंध क्षारीय प्रकृति का होगा,इसके विपरीत यदि रुक्ष (अम्लीय) अधातु के परमाणु का द्रव्यमान अधिक हो तब निर्मित स्कंध (molecule) अम्लीय प्रकृति का होगा क्योकि क्षारीय गुण धातु और अम्लीय गुण अधातु का विशिष्ट गुण है!
इन तथ्यों को हम निम्न उद्धहरणों से समझ सकते है –
परमाणु प्रकृति द्रव्यमान निर्मित्त स्कंध निर्मित स्कंध की प्रकृति
१-मैंगनीज़ (Mn)स्निग्ध ५४x१ =५४ मैंगनीज़मोनो आक्साइड (MnO) क्षारीय
आक्सीजन (O) रुक्ष १६ x १ =१६
2-मैंगनीज़ (Mn)स्निग्ध ५४x२=१०८ मैंगनीज़ आक्साइड (Mn O ) अम्लीय 2 7
आक्सीजन (O) रुक्ष १६ x ७ =११२
उपर्युक्त तीन सूत्र के माध्यम से आचारश्री ऊमा स्वमी जी ने हमे अवगत करवाया कि दो परमाणुओं को भेद संघात (विद्युत संयोजनी बंध -electro valent bonding) से दो परमाणुओं को बंध कर स्कंध का निर्माण किन परिस्थियों में होगा और किन में नहीं होगा !उन्होंने बताया कि दो परमाणुओं में एक समान स्निग्ध रुक्ष गुण अर्थात एक समान विद्युत ऋणात्मकता वाले परमाणुओं में तथा उनकी विद्युतऋणात्मकता में एक या एक अंतर होगा तब वे स्कन्धोत्पत्त्ति में असक्षम होंगे,किन्तु यदि उनका अंतर दो या इससे अधिक होगा तभी स्कन्धोत्पत्ति में सक्षम होंगे!

द्रव्य को परिभाषित करते है आचार्य-

गुणपर्ययवदद्रव्यम् ३८
सन्धिविच्छेद-गुण+पर्ययवद+द्रव्यम्

शब्दार्थ-गुण=गुण युक्त,पर्ययवद-पर्याय युक्त,द्रव्यम्-द्रव्य कहते है!
अर्थ-गुण और पर्याय युक्त द्रव्य होता है !
गुण-द्रव्य में अनेक पर्यायों के व्यतीत होने पर भी जो द्रव्य से कभी पृथक नहीं होता वह उस द्रव्य का गुण है!जैसे जीव के चेंतनत्व,ज्ञान,वीर्य,दर्शनादि तथा पुद्गल के स्पैश रस ,गंध,और वर्ण (रूप) गुण है! इसलिए गुण को अन्वयी कहते है!
पर्याय- द्रव्य में क्रम से होने वाली विक्रिया होती रहती है,जो द्रव्य में आती जाती रहती है,वह पर्याय है जैसे;जीव की नरक,तिर्यंच,देव और मनुष्य गतियां,जीव द्रव्य की पर्याय है!इसलिए पर्याय को व्यतिरेकी कहते है!

भावार्थ-द्रव्य गुण पर्याय युक्त होता है!कोई भी द्रव्य गुण और पर्याय रहित हो ही नहीं सकता!जैसे जीव द्रव्य,ज्ञान-दर्शनादि गुण के बिना तथा किसी संसारी अथवा सिद्ध पर्याय के बिना हो ही नहीं सकता!प्रत्येक द्रव्य की पर्याय और गुण अवश्य होंगे’

विशेष-
१- द्रव्य में गुण और पर्याय न तो सर्वथा भिन्न है और नहीं अभिन्न! वास्तव में द्रव्य में गुण और पर्याय दोनों है और अभिन्न है!लेकिन वर्णन करते हुए सबका अलग अलग वर्णन करते है जैसे यह जीव की नरक,मनुष्य,देव अथवा तिर्यंच पर्याय है!यद्यपि गुण और पर्याय के अपेक्षा द्रव्य अलग नहीं हो सकता किन्तु कथन की अपेक्षा उनका वर्णन अलग से किया जाता है! उद्धाहरण के लिए स्वर्ण चिकना,पीला होता है!उनके ये गुण स्वर्ण से अभिन्न नहीं है क्योकि यदि हम कहे की हमें पीले रंग रहित स्वर्ण दे दीजिये तो असंभव है!किन्तु जब कथन करते है तो कहेंगे पीला,चिकना स्वर्ण दे दीजिये!

काल भी द्रव्य है

कालश्च -३९

संधि विच्छेद-काल :+च

शब्दार्थ-काल:-काल,च -भी (‘च’ का अन्वय सूत्र २ “द्रव्याणि” के साथ है)
अर्थ-काल भी द्रव्य है!
भावार्थ- काल भी द्रव्य है क्योकि वह भी गुण,पर्याय तथा उत्पाद,व्यय,ध्रौव्य युक्त है!

विशेष-
१-इस प्रकार सूत्र १ में धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल ४, सूत्र ३ में जीव-१ और ३९ में काल -१ ,उल्लेखित कुल द्रव्य छः ही हैं हीनाधिक नही !
२-सूत्र १, में चार द्रव्यों के साथ, काल द्रव्य का कथन नहीं किया गया क्योकि उस सूत्र में अजीव एवं कायावान (बहुप्रदेशी) द्रव्यों का उल्लेख कियाहै जबकि कालद्रव्य कायावन नहीं है,एक प्रदेशी है!
३ -काल द्रव्य होने की सिद्धि-
काल द्रव्य में ध्रौव्य पाया जाता है क्योकि सदा से उसका स्वभाव स्थायी है,यह ध्रुवता स्व निमित्तिक है!उत्पाद और व्यय ,दोनों ‘स्व’ और ‘पर’ निमित से है!काल द्रव्य अनंत पदार्थों के प्रति समय परिणमन में कारण है,अत: कार्य के भेद से -कारण में प्रति समय भेद होना जरूरी है,यह पर निमित्तक उत्पाद व्यय है तथा काल द्रव्य में भी अगुरुलघु गुण है जिस से षटगुणहानिवृद्धि की अपेक्षा प्रति समय उत्पाद व्यय ‘स्व’ निमित्तक भी होता है!
दूसरा लक्षण काल द्रव्य;गुण-पर्याय युक्त है!काल द्रव्य में सामन्य और विशेष दोनों गुण है! काल द्रव्य समस्त द्रव्यों की वर्तना का हेतु है,यह उसका विशेष गुण है क्योकि यह अन्य किसी द्रव्य में नहीं है!अचेतनत्व, अमूर्तिकत्व, सूक्ष्मत्व,अगुरुलघुत्व,इसमें सामान्य गुण है जो की अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते है !उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के कारण काल भी द्रव्य है!
यह अमूर्तिक है क्योकि इसमें रस,गंध,स्पर्श और वर्ण नहीं पाये जाते और
ज्ञान,दर्शनादि चेतन के गुणों के अभाव होने से अचेतन है !
काल द्रव्य आस्तिकाय नहीं है अर्थात एक प्रदेशी है क्योकि लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालाणु,रत्नों की राशि की भांति स्थित है जो की स्निग्ध-रुक्ष गुण के अभाव में स्कंध नहीं बनाते, परस्पर मिलते नहीं हैं !इसलिए प्रत्येक कालणु,एक एक काल द्रव्य है! काल द्रव्य एक नहीं अपितु, जितने लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है उतने ही असंख्यात काल द्रव्य है!कालणु निष्क्रिय है क्योकि यह एक स्थान से दुसरे स्थान गमन नहीं करते ,जहाँ के तहाँ स्थित रहते है !ये अनादिकाल से है और रहेंगे

कालद्रव्य कितने समय वाला है
सोऽनन्तसमयः ४०
संधिविच्छेद :-सो+अनन्त+समयः
शब्दार्थ सो-वह काल द्रव्य,अनन्त=अनंत,समयः=समय वाला है!
अर्थ-वह काल द्रव्य,अनंत समय वाला है
भावार्थ-वह काल द्रव्य अनादिकाल से है और अनंत काल तक रहेगा! यह अनश्वर है!
विशेष-
समय-एक पुद्गल परमाणु मंद गति से,आकाश के एक प्रदेश से निकटतम दुसरे प्रदेश पर, जाने में जितना काल लेता है वह एक समय है,यह व्यवहार काल की सूक्षमत: इकाई है!१-समय-काल का सूक्षमत: अविभागी भाग है! केवली भगवान् का विषय होने के कारण इस को समझाया नहीं जा सकता है फिर भी इसकी तुलना एक पलक झपकने में लगे काल से करी जा सकती है!एक बार पलक झपकने में असंख्यात समय लगते है!
वर्तमानकाल एक समय प्रमाण है क्योकि एक समय काल व्यतीत हो जाने पर वह भूत होकर, दूसरा समय उसका स्थान लेकर वर्तमान कहलाता है,किन्तु भूत और भविष्यत काल अनन्त समय वाले है!
व्यवहारकाल;भूत,वर्तमान और भविष्यत्काल सहित अनन्त समय का है इसकी समय,आवली,सैकंड,मिनट,घंटा,दिन, पक्ष,माह,वर्ष,युग,लक्ष,पूर्वांग,पूर्व,अचल तक अन्य ईकाईयां है!व्यवहारकाल,निश्चयकाल की पर्याय है!
यह सूत्र,निश्चय काल का ही प्रमाण बताता है क्योकि एक कालाणु,अनन्त पर्यायों की वर्तना में कारण है,इसलिए उपचार से कालाणु को अनन्त कह सकते है !
निश्चयकाल द्रव्य-लोककाश के,प्रत्येक प्रदेश पर,रत्नों की राशि के समान,एक एक कालाणु स्थित है उसे निश्चय काल द्रव्य कहते है! वर्तना उसका कार्य है !

द्व्याश्रयानिर्गुणा गुणाः ४१

संधि विच्छेद:-द्रव्य+आश्रय+अनिर्गुणा +गुणाःशब्दार्थ- द्रव्य-जो द्रव्य के,आश्रय-आश्रय से रहते हो और,अनिर्गुणा-अन्य गुण उन गुणों में नहीं पाए जाए,गुणाः=उन्हें गुण कहते है!
अर्थ-जो द्रव्य के आश्रय से रहता है,सदैव द्रव्य में रहता है,और जिसमे स्वयं दूसरा गुण नहीं रहता,उसे गुण कहते है!
भावार्थ-ज्ञान और दर्शन जीव के गुण,जीव द्रव्य के आश्रय पाए जायेगे,जीव होगा तो यह गुण निश्चित रूप से होंगे !ज्ञान में दर्शन,सुख,चरित्र अन्य कोई गुण नहीं है,दर्शन गुण में;ज्ञान,/सुख गुण नहीं है! किन्तु वह जीव में है! अर्थात जो द्रव्य के आश्रय तो रहते हो, द्रव्य के बहार न पाए जाते हो,जैसे ज्ञान दर्शन हमें जीव के अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्य में नहीं मिल सकते! ये जीव में ही मिलेंगे! कोई भी गुण किसी अन्य गुण में हस्तक्षेप नही कर सकता (कोई भी गुण किसी अन्य गुण में encroachment नही करता
गुण के भेद-
१-सामान्यगुण- अन्य द्रव्यों में भी पाए जाते है जैसे अस्तित्व,वस्तुत्व,प्रमेत्व ,अगुरुलघुत्व आदि!
और
२-विशेष गुण-उसी द्रव्य में पाए जाते है जैसे जीव में ज्ञान दर्शन;पुद्गल के स्पर्श ,रस ,गंध,वर्ण आदि


आचार्यश्री पर्याय की परिभाषा बताते हुए कहते है –
तदभाव:परिणाम: !!४२!!
संधि-विच्छेद:-तदभाव:+परिणाम:
शब्दार्थ-तदभाव:-जो द्रव्य,जिस रूप में है।परिणाम:-पर्याय है!
अर्थ:-जीव,धर्म,अधर्म,पुद्गल,आकाश और कालद्रव्य है,उनके उसी रूप रहने को परिणाम/पर्याय कहते है!जैसे जीव की नर,देव आदि पर्याय है! नर में बालक का बालयपन उसकी बालक पर्याय है !
भावार्थ-अंगुली को मोड़ते है,तो जिस कोण में वह मुड़ कर स्थिर होती है वही उसकी पर्याय है! हम खड़े है तो हमारी पर्याय खडी है,बैठने पर बैठी पर्याय है!जिस द्रव्य का जो स्वभाव होता है वही उसका भावहै,जैसे धर्मद्रव्य का स्वभाव पुद्गल और जीव की गति में उत्प्रेरक सहायक होना है!धर्मद्रव्य का परिणमन सदा इसी रूप होगा!जीवद्रव्य का स्वभाव चेतनत्व/ज्ञान-दर्शनादि है वह परिणमन सदा उसी रूप करेगा !


विशेष-
१-इन ४२ सूत्रों का हमें तीनोयोग से दत्तचित्त होकर स्वाध्याय कर,अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए!जिससे हमारे वर्तमान और अन्य भवों की गुणवत्ता में उत्थान होकर हमारा कल्याण हो सके![/b]
२-हमारे युवा वर्ग ही नही अपितु प्रौढ़वर्ग भी बहुदा संशयवश,कि ‘हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों में उल्लेखित द्रव्य,तत्व,पदार्थ आदि वास्तव में सही भी है या किसी ने प्रमाद वश गलत तो नही इनमे प्रतिपादित कर दिया है” धर्म से विमुख होने लगते है!इस अध्याय के सूत्रों को स्वध्याय से समझने और वैज्ञानिक कसौटी पर तुलना करने के पश्चात मुझे दृढ विशवास है कि युवा और प्रौढ़ सभी वर्गों में अपने शास्त्रों के प्रति श्रद्धान में प्रगाढ़ता आएगी,उनका सम्यक्त्व दृढ परिपक्व होगा क्योकि हमारे सच्चे(सत्या महाव्रती पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित) शास्त्रों में लगभग आज से २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर की प्रतिपादित वाणी उन्नीस और बीसवी सदी के वैज्ञानिको के अनुसंधान से भी प्रमाणित हो रही है!
आज का बच्चा भी प्रमाण के बिना किसी बात का हृदयांगम करने के लिए तैयार नही होता !यह अध्याय उनकी अधिकाँश जिज्ञासाओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से शांत करने में सहकारी होगा!

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मुनि श्री 108 प्रणम्यसागरजी तत्वार्थ सूत्र with Animation

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2 thoughts on “तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra) अध्याय 5

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