इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री ३९ सूत्रों के माध्यम से तीसरे ‘आस्रव’ तत्व के शुभ आस्रव के उपायों;पंच पापो से अपने को सुरक्षित रखने के लिए व्रतों ,उनकी भावनाओं और उनमें लगने वाले अतिचारों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में व्रतों के लक्षण बताते हुए कहते है-
व्रत का लक्षण –
हिंसाऽनृतस्तेयाबृह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् !१!
संधि विच्छेद:-{(हिंसा+अनृत+स्तेय+अबृह्म+परिग्रहे+)भ्य:+विरति:}+व्रतम्
-हिंसाभ्य:विरति:+अनृतभ्य:विरति:+स्तेयभ्य:विरति:+अबृह्मभ्य:विरति:+परिग्रहेभ्य:विरति:+र्व्रतम्!
शब्दार्थ-हिंसाभ्य:-हिन्सा का,विरति:-त्याग,अनृतभ्य:-झूठ का,विरति:-त्याग,स्तेयभ्य:-चोरी का,विरति- त्याग,अबृह्मभ्य:-अब्रहम/कुशील का,विरति-त्याग,परिग्रहेभ्य:-परिग्रहों का,विरति-त्याग,व्रतम्-व्रत है!
अर्थ-हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रहो;पंच पापों का जीवनपर्यन्त बुद्धिपूर्वक त्याग व्रत है!इनके त्याग से क्रमश पंचव्रत;अहिंसाव्रत,सत्यव्रत,अचौर्यव्रत बृह्मचर्यव्रत और अपरिग्रहव्रत,५ व्रत होते है!
विशेष-
१-पंचव्रतों में अहिंसाव्रत प्रधान है इसलिए,सूत्र में सर्वप्रथम रखा है क्योकि शेष चारो;अहिंसा की रक्षा के लिए खेत की बाढ़ के समान है!
शंका-व्रत संवर का कारण होते है,यहाँ आस्रव का कारण क्यों लिया?
समाधान-संवर निवृत्ति रूप होता है,जबकि व्रत यहाँ प्रवृत्तिरूप कहा है क्योकि यहाँ हिंसादि त्यागकर, अहिंसा रूप प्रवृत्ति की चर्चा हो रही है,वह शुभआस्रव का कारण है!इन व्रतों का अभ्यास/प्रवृत्ति भली भांति करने वाले ही संवर भी कर पाते है!मात्र निवृत्ति की चर्चा संवर का कारण होता !


व्रतों के भेद –
देशसर्वतोऽणुमहती !२!
संधिविच्छेद-देश+सर्वत:+अणु+महती
शब्दार्थ-देशत:-एकदेश/आंशिक त्याग-अणुव्रत,सर्वत:-सर्वदेश/सकल/पूर्णतया त्याग,महती-महाव्रत है !
अर्थ-व्रतों के दो भेद है!पांच पापों हिंसा,असत्य,चोरी,कुशील और परिग्रह का आंशिक रूप से त्याग अणु व्रत और सकल/पूर्णतया त्याग महाव्रत है!
भावार्थ-पञ्च पापों के एक देश त्याग से अणुव्रत और पूर्णतया त्याग से महाव्रत कहलाते है!
जैसे हिंसा के एक देश त्याग में-मात्र त्रसजीवों की हिंसा का त्याग करने से अहिंसाणुव्रत किन्तु पूर्णतया-स्थावर जीवों की भी हिंसा का त्याग करने से अहिंसामहाव्रत कहलाता है,यह महान कार्य महान पुरषों द्वारा होता है इनका एक देश पालक जीवों का पंचम देश विरत गुणस्थान,प्रतिमाधरियों से आर्यिका माता जी का और सर्वदेशपालक का,छठा-प्रमत /सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान,महान मुनि राजों का होता है!इन गुणस्थानों में इनका पालन करने से जीव की असंख्यात गुणी निर्जरा,प्रतिसमय होती है अर्थात संसार बंधन शिथिल पड़ता है!इसलिए इन का पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है!
विशेष-(अणु-महाव्रत)
१-अहिंसाव्रत-संसारी जीव षट प्रकार,५ स्थावर और एक त्रस के है ,इनमे केवल त्रस जीवों की हिंसा /घात त्याग अणु अहिंसाव्रत है;स्थावर व त्रस दोनों की हिंसा/घात का त्याग महा(अहिंसा) व्रत है!कषायों के वशीभूत दस प्राणों का घात करना हिंसा है !
२-सत्य व्रत-स्थूल असत्य का त्याग सत्य अणु व्रत है जैसे किसी घटना को जस की तस कहना , बिना विचार किये की उस सत्य से किसी का घात भी हो सकता है!सूक्ष्म असत्य का त्याग,सत्य महाव्रत है जैसे ऐसे सत्य भी नहीं बोलना जिससे किसी जीव का घात हो जाए!कषायिक भाव पूर्वक अन्यार्थ भाषण करना असत्य है !
३-अचौर्यव्रत-किसी की वस्तु उसकी आज्ञा बिना ले लेना/गिरी हुई वस्तु उठाना आदि चोरी है!स्थूल चोरी का त्याग अचौर्य अणुव्रत है जैसे किसी से पुस्तक/वस्तु उसके पीछे उसके बैग से निकालना,इच्छा के विरु द्ध किसी को दान देने के लिए बाध्य करना,सरकारी राजस्व(टैक्सों)की चोरी करना आदि!सूक्ष्म चोरी का भी त्याग अचौर्य महाव्रत है,जैसे हाथ धोने के लिए मिटटी भी किसी के द्वारा दिए बिना नहीं लेना! कषाय के वशीभूत किसी का धन सम्पत्ति हड़पना चोरी है !
४-बृह्मचर्य व्रत-अबृह्म/कुशील का स्थूल रूप से त्याग अणु बृह्मचर्य व्रत है जैसे अपनी विवाहितपत्नी/पति से वासनात्मक संबंध छट्टी प्रतिमाधारी तक रखना!सूक्ष्म रूप त्याग में स्त्री/पुरुष मात्र से संबंध नहीं रखना बृह्मचर्य महाव्रत है !इसमें विपरीत लिंगी एक दुसरे के आसान/चादर पर भी नहीं बैठते,वे अपनी आत्मा में ही रमण करते है! कषाय वश किसी के साथ जबरदस्ती संबंध बनना अब्रह्म/कुशील है!
५-अपरिग्रह व्रत-किसी वस्तु रुपया पैसे जमीन जयदाद आदि होना परिग्रह नहीं है अपितु उसमे ममत्व बुद्धि होना कि यह मेरा है ‘परिग्रह’ है!क्योकि कोई भी वस्तु सदैव हमारे पास नहीं रहेगी/नहीं होगी वह किसी शुभ/अशुभ कर्म के उदय से है/नहीं है! इसलिए हमारे में परिग्रह के त्याग का भाव स्वेच्छा से होना चाहिए !परिग्रह का स्थूल त्याग अणु अपरिग्रह व्रत है जैसे अपने लाभ भोगोपभोग की सामग्री की एक सीमा निर्धारित क्र उस सीमा का उल्लंघन नहीं करना!परिग्रह का सूक्ष्मत: त्यागअपरिग्रह महाव्रत मुनि राज के होता है जिनके पास पिच्छी कमंडल और शस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई षगरह नहीं होता
उक्त पांचों व्रतों को यथा शक्ति पालन करने से ही हमे कल्याणकारी पथ मिलेगा! अत: इनको अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए!
आचर्यश्री उमास्वामी जी निम्न सूत्र में मन की चंचलता को रोककर पांच व्रतों की स्थिरता के लिए भावनाओं भाने का उपदेश देते है –


व्रतों की स्थिरता के लिए –
तत्स्थैर्यार्थं भावनाःपञ्च-पञ्च ! ३!
सन्धिविच्छेद-तत्+ स्थैरय:+अर्थं+भावनाः+पञ्च+पञ्च!
अर्थ-तत-उन(अणु/महा)व्रतों;की, स्थैरय:-स्थिरता,अर्थं-के लिए,
भावना:-भावनाए,पञ्च-पञ्च-पांच-पांच है!
भावार्थ-अणु/महाव्रतों की पुष्टि/निर्दोष पालन हेतु,प्रत्येक की पञ्च पञ्च भावनाए है!
विशेष-ये पांच-पांच भावनाए मुख्यतःमहाव्रतो तथा गौण रूप से अणुव्रतो की पुष्टि और निर्दोष पालन हेतु उपदेशित है,इन भावनाओं का ध्यान रखने से अणुव्रती अपने व्रतों को उत्कृष्टपालन कर सकेगें !
अहिंसाव्रत की पञ्च भावनाए-वाड्.मनोगुप्तिर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि-पञ्च !!४!!सन्धिविच्छेद-वाड्.+मनोगुप्ति+ईर्या+आदाननिक्षेपण+समित्य+आलोकित+पान+भोजनानि+पञ्चशब्दार्थ-वाड्.गुप्ति-हितमित,पीड़ारहित,न्यूनतमव नियंत्रित वचन बोलना,वाग्गुप्तिहै,अन्यथा हिंसा हो ही जायेगी!मनोगुप्ति-मन में अवांछित चिंतवन होना भाव हिंसा है,अत:मन को भी वश में रखना चाहिए मन में अशुभ विचारों का चिंतवन नही करना मनोगुप्ती है मन से ,नियंत्रित और उचित चिंतवन करने से भाव-हिंसा नही होती!
ईर्या निक्षेपण समिति-चार हाथ जमीन देखकर चलना चाहिए जिससे जीव हिंसा न हो!
आदाननिक्षेपण समिति-किसी वस्तु को एक स्थान से दुसरे स्थान पर रखने/उठाने से पूर्व देख शोध कर उठाना/रखना आदान निक्षेपण समिति है!
आलोकित पान भोजन-सूर्य के प्रकाश में बनाया और उससे प्रकाशित समय में ही भोजन/आहार,जल ग्रहण करना!इसके विपरीत रात्रि /अन्धकार में,(जहा सूर्य का प्रकाश नहीं आ रहा है) बनाये/ग्रहण किये गए भोजन में जीव हिंसा से बचना असंभव है क्योकि वे दिखगे नहीं!जीव रक्षा का ध्यान रखना अनिवार्य है
पञ्च-इन पांच भावनाए का निरंतर ध्यान रहने से अहिंसामहाव्रत का दोषरहित पालन होता है,परिणामों की विशुद्धि के कारण कर्मों की असंख्यात गुणि निर्जरा होगी,महान पुन्यबंध होगा !
विशेष:-सूर्योदय होने के एक घड़ी पश्चात भोजन बनाने का विधान है,रसोई के समस्त कार्य चक्की की सफाई,आटा,मसाले की पिसाई,पीने का पानी,दुग्धादि गर्म करना सूर्योदय के एक घड़ी बाद ही करने चाहिए अन्यथा सूक्ष्म जीव जंतु देखना असंभव होगा और उनकी हिंसा से बच नहीं पायेगे तथा आलोकित पान भोजन नहीं कहलायेगा! अनेको जीव सूर्योदय होने के एक घड़ी के बाद तथा सूर्यास्त से १ घड़ी पूर्व तक उत्पन्न नहीं होते इसलिए रात्रि में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीवों की हिंसा के घात से तो हम दिन में भोजन ग्रहण करने से बच जाते है!
इन भावनाओं के भाने से व्रतों का निर्दोष पालन होता है,भावों की निरंतर विशुद्धता बढ़ती है!


सत्यव्रत की पांच भावनाये –
“क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च” !!५!!
संधि विच्छेद-(क्रोध+लोभ+भीरुत्व+हास्य)+प्रत्याख्यान+अनुवीचि+भाषणं+च+पञ्च
शब्दार्थ-क्रोधप्रत्याख्यान,लोभप्रत्याख्यान,भीरुत्वप्रत्याख्यान,हास्यप्रत्याख्यान,अनुवीचिभाषणं-आगमनुसार वचन बोलना,च-और,५-५ सत्यव्रत भावनायेहै!
अर्थ-क्रोधप्रत्याख्यान-क्रोध का त्याग;क्रोध में कठोर,कडवे,गाली रूप अभद्र वचन,विवेकहीन होने से असत्य है!
लोभ प्रत्याख्यान-लोभ का त्याग;लोभवश झूठ बोलकर,स्वर्ण में ताम्बा/पीतल मिलाकर बेचना असत्य हैभीरुत्व प्रत्याख्यान-भय का त्याग;डर के कारण असत्य बोला जाता है!जो की असत्य है!
हास्यप्रत्याख्यान-हास्य का त्याग;हसीं-मजाक में चुभने वाले असत्य वचन बोले जाते है!
अनुवीचिभाषणं-आगमानुसार निर्दोष सत्य वचन बोलना!जैसे किसी को अदरक की चाय रोग निवारण के लिए,लेने के लिए नहीं कहना क्योकि अदरक के सेवन से जीवहिंसा होती है या किसी को घस्स पर प्रांत अथवा सायंकालीन सहर के लिए नहीं कहना!
च पञ्च-ये पांच भावनाए सत्यव्रत की है!
भावार्थ-क्रोध,लोभ,भीरुत्व,हास्य के;प्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण,इन ५ भावनाओं के भाने से निर्दोष सत्यव्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है!
विशेष-क्रोध,हास्य,भीरु,हास्यवश बोले,सत्यवचन भी असत्य होते है!वचन किसी को कष्ट देने वाले नहीं होने पर ही सत्य है!


अचौर्य व्रत की पञ्च भावनाए
शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादापञ्च६
संधिविच्छेद-शून्यागार+विमोचित+आवास+पर+उपरोधाकरण+भैक्ष्यशुद्धि+सधर्मा+अविसंवादा+पञ्च।शब्दार्थ -शून्यागार-निर्जन स्थान,विमोचित-छोड़े हुए खाली,आवास-स्थान धर्मशालादि,पर उपरोधाकरण-अन्यों को,अपने द्वारा रोके हुए स्थान पर ठहरने से रोकना,भैक्ष्यशुद्धि-४६ दोषो रहित आहार ग्रहण करना,सधर्मा-सहधर्मी से,अविसंवादा- मेरा है./तेरा है जैसे विसंवाद नहीं करना,पञ्च-पांच
अर्थ-शून्यागारवास-निर्जन स्थान जैसे वृक्ष की कोटर,पर्वतों की गुफाओं,स्कूल में रहना!जिससे,गृहस्थ के साथ रहने से,उसकी किसी वस्तु के चोरी/ग्रहण करने के भाव ही जागृत नहीं हो!
विमोचित आवास-धर्मशालादि,छोड़े हुए खाली स्थानों में निवास करना!जिससे वहां भी,निमित्त के अभाव में विकारी भाव उतपन्न नहीं होवे !
परोधाकरण-अपने ठहरे हुए स्थान पर किसी अन्य के आने पर,उसके ठहरने में बाधा नहीं डालना क्यो कि वह स्थान आपका अपना नहीं है,उसे अपना नहीं माना जा सकता है!
भैक्ष्य शुद्धि-आहार की शुद्धि ४६ दोषों रहित,निर्दोष शुद्ध आहार लेना चाहिए!भोजन अशुद्ध है,अथवा अनुचित व्यवसाय/नौकरी से अर्जित धन से निर्मित है तो उसे ग्रहण करने से परिणाम दूषित होंगे!तपस्या में विघ्न पडेगा!
सधर्मा अविसंवादा-सधर्मियों के साथ यह तेरा/मेरा है,इस प्रकार का विसंवाद नहीं करना! मंदिर के फण्ड को हत्याने की कुचेष्टा/उसका दुरूपयोग करना!इनसे अचौर्यव्रत,व्रती नहीं रह पायेगा!
पञ्च-पञ्च भावनाए अचौर्य व्रत की है!
भावार्थ-शून्यागारवास,विमोचितआवास,परउपरोधाकरण,भैक्ष्यशुद्धि एवं सधर्मी अविसंवाद ,इन पांच भावनाएं भाने से, निर्दोष सत्य व्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है!
ब्रह्मचर्यव्रत की पञ्च भावनाए -स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाःपञ्च !!७!!
संधि विच्छेद-स्त्री+रागकथा+श्रवण+तत्+मनोह+अंग+निरीक्षण+पूर्वरत+अनुस्मरण+वृष्य+ईष्ट+रस+स्वशरीर+संस्कार)+त्यागाःपञ्च!
शब्दार्थ-स्त्रीरागकथा-स्त्री राग कथा,श्रवण-सुनने,तत्-उनके,मनोह-मनोहर +अंग- अंगों के,निरीक्षण-निरिक्षण,पूर्वरत-पूर्व में भोगे भोगों,अनुस्मरण-केस्मरण, वृष्य-गरिष्ट,ईष्ट-ईष्ट,रस- रस,स्वशरीर-अपने शरीर का,संस्कार-श्रृंगार करने,त्यागाः-का त्याग करना,पञ्च-पांच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाए है!
भावार्थ:-स्त्री राग कथा श्रवण त्यागाः-स्त्री में राग बढाने वाली कथाओं जैसे,सनीमा,टी.वी,पत्रिकाओं में उत्तेजक विज्ञापनों के सुनने/देखने का त्याग करना!
तन्मनोहर अंगनिरीक्षण का त्यागाः-उन(स्त्रियों/पुरुषों)के मनोहर अंगों को घूरने,अश्लील चित्रों, वीडि यो आदि के देखने का त्याग करना!
पूर्व रत अनुस्मरण त्यागाः-ग्रहस्थावस्था में भोगे गए भोगों के स्मरण का त्याग करना क्योकि उनके स्मरण करने से परिणाम दूषित होते है!!
वृष्य ईष्ट रस त्यागाः-वृष्ट-गरिष्ट जैसे;दाल-बाटी,बादाम के हलवे,घेवर आदि, इष्ट रसों -अपने को अच्छे लगने वाले रसों नमक.मीठा आदि का त्याग करना जिससे भोजन स्वादरहित होने से इन्द्रियां नियंत्रित रहेगी!
स्वशरीर संस्कार त्यागाः-अपने शरीर का सेंट आदि से श्रृंगारित करने का त्याग करना! व्रती के वस्त्र साधारण होने चाहिए! अन्यथा व्रतों में दोष लगता है!
पञ्च-ये ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाए है!
विशेष उक्त पंच भावनाएं निरंतर भाने से ब्रह्मचर्यव्रत का निर्दोष पालन होता है


परिग्रहत्यागव्रत की पांच भावनाए –
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानिपञ्च !!८!!
संधिविच्छेद:-{(मनोज्ञ+अमनोज्ञ)+इन्द्रियविषय+राग}-द्वेष+वर्जनानि पञ्च
शब्दार्थ-मनोज्ञ-मन को अच्छे लगने वाले,अमनोज्ञ-मन को अच्छे नहीं वाले, इन्द्रियविषय-इन्द्रिय विषय,राग-द्वेष-राग और द्वेष रूप,वर्जनानि-त्याग करना,पञ्च-पांच
अर्थ-मनोज्ञ इन्द्रिय विषय राग वर्जनानि -मन को अच्छे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में राग होने से परिग्रह आयेगा अतःपंचेन्द्रिय विषयों में राग का त्याग करना!
अमनोज्ञ इन्द्रिय विषय द्वेष वर्जनानि-मन को बुरे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में द्वेष होने से भी परिग्रह आयेगा!अतः अमनोज्ञ पंचेन्द्रिय विषयों में द्वेष का त्याग करना,ऐसे नहीं करने पर पंचेन्द्रिय विषयों का संग्रह बढता ही जाएगा!
पञ्च -पांच परिग्रह व्रत की भावनाए है!
भावार्थ- इन्द्रिये पांच;स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु,कर्ण है! इन पांचो इन्द्रियो,के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग का और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना जैसे
१-स्पर्शन इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना! किसी वस्तु को राग वश नहीं छोड़ना और अन्य वस्तु को द्वेष वश छोड़ना,इन दोनों का ही त्याग करना है !
२-रसना इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे जीव्हा को अच्छे लगने वाले मीठे रसों से राग होना तथा कड़वे रसों को द्वेष वश अच्छा नहीं लग्न -दोनों का ही त्याग करना है!
३-घ्राण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे सुगंधित वस्तुओं को राग वष सूघना और दुर्गन्धित वस्तुओं को नहीं सूघना ,दोनों का ही त्याग करना है!
४-चक्षु इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!-जैसे खूबसूरत लोगों को राग वष देखने और कुरूप को नहीं देखा ,दोनों का ही त्याग करना है!
५-कर्ण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में, राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे मधुर संगीत को रागवश सुनने और भोंडे संगीत द्वेषवश न सुनने का त्याग !
उक्त पाँचों भावनाये भाने से निर्दोष अपरिग्रहव्रत का पालन होता है!


हिंसादि पंच पापों से विरक्त होने की भावना
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् !!९!!
संधिविच्छेद:-हिंसा+आदिषु+इह+अमुत्र+अपाय+अवद्य+दर्शनम्।
शब्दार्थ-हिंसा-हिंसा,आदिषु-आदि,इह-इस,अमुत्र-परलोक,अपाय-दुःख,अवद्य-निंदा,दर्शनम्-देखनी/होती है ।
भावार्थ-हिंसादि पांच पापों से,इस लोक और परलोक दोनों में हमें दुःख और निंदा प्राप्त होते है,ऐसे विचारने से हिंसा आदि पांच पापों की प्रवृत्ति में मन लगेगा ही नहीं!पांच भावनाए परिग्रहव्रत की है!पापों से विरक्ति की भावना
दु:खमेववा !!१०!!
संधिविच्छेद-दुखम+इव+वा
शब्दार्थ-दुखम-दुःख,इव-ये,वा-रूप ही है!
अर्थ-ये हिंसादि पाँचों पाप दुःख देने वाले ही है,अत: त्याज्य है!
विशेष- यहां कारण मे कार्य का उपचार है ,क्योकि हिंसादि दुःख के कारण है किन्तु उन्हें कार्य दुःख रूप कहा है !


व्रती सम्यग्दृष्टि की भावनाये –
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानिचसत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु!!११!!
संधि विच्छेद-मैत्री+प्रमोद+कारुण्य+माध्यस्थानि+च+सत्त्व+गुणाधिक+क्लिश्यमाना+अविनयेषु
शब्दार्थ-मैत्री- प्रमोद-प्रसन्नता,कारुण्य-करुणामय भाव,माध्यस्थानि-मध्यस्थ भाव च सत्त्व-समस्त जीवों ,गुणाधिक-अधिक गुणवानों,क्लिश्यमाना-दुखियों,/भिन्नमतियों और ,अविनयेषु-अविनय भाव रखना चाहिए
अर्थ- जीव मात्र के,अधिक गुणवानों,दुखियों और अविनयशील जीवों के प्रति क्रमश: मैत्री, प्रसन्ता, करुणा और मध्यस्था का भाव होना चाहिए!
भावार्थ-समस्त जीवों के प्रति मैत्री,रत्नत्रय की अपेक्षा अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद-प्रसन्नता का भाव चेहरे पर होना चाहिए जिसे अंतरंग से भक्ति भाव जागृत हो,जैसे; मुनिराज के पधारने से धर्मामृत की वर्षा होगी! , असता कर्म के उदय से दुखियों/क्लिष्टों के प्रति करुणा का भाव -अर्थात उनके कष्टों को दूर करने का भाव होना चाहिए तथा अविनयशील-जो तत्वार्थ श्रद्धानन रहित है /अन्य मतियों जिनसे हमारे रहन,सहन,खाने-पीने में तारतम्यता नही है,के प्रति मध्यस्थता;/अर्थात उनके अच्छे/उनकी समृद्धि बढ़ने पर,बुरा न लगे और उनके बुरा होने पर या कोई आपत्ति आने पर अच्छा न लगे,ऐसे विचार की उन्हें सदबुद्धि आये. के भाव होने चाहिए!


संसार व शरीर के स्वभाव का विचार
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् -!!१२!!
संधि विच्छेद-जगत्+काय +स्वभावौ+वा+संवग+वैराग्यार्थम्
शब्दार्थ-जगत-संसार,काय-शरीर ,स्वभावौ-स्वाभाव,वा-अथवा ,संवेग-संसार से भय,वैराग्यार्थम्-वैराग्य के लिए /राग-द्वेष के अभाव के लिए ,
अर्थ-संसार के स्वभाव,का चिंतवन करने से संवेग संसार से भय और काय के स्वरूप का चिंतवन करने से वैराग्य (राग-द्वेष से मुक्ति) होता है!
भावार्थ-संवेग के लिए संसार के स्वभाव/स्वरुप और वैराग्य के लिए काय के स्वरुप का चिंतवन करना चाहिए!इससे व्रतों का पालन निर्दोष होगा !
विशेष-१-यदि संवेगभाव,अर्थात संसार में अरुचि भाव है/संसार शरीर भोगों से वैराग्य हो गया/अथवा वैराग्य निरंतर वृद्धिगत है तो व्रतों का दोष रहित/समुचित पालन के लिए संवेग और वैराग्य परिणाम अत्यंत सहकारी है!संवेग परिणाम के लिए संसार स्वरुप का चिंतवन करना है!यह अनादिनिधन,अनादिकाल से है!वेत्रासन के ऊपर झालर और उसके ऊपर मृदंग के समान लोक का आकार है!इसमें अनंत काल से जीव नाना योनियों में दुःख भोग रहा है!इसमे कोई भी वस्तु नियत नहीं है!जीवन जल के बुलबुले समान नश्वर है!भोग संपदाये बिज ली के इन्द्रधनुष के समान भंगुर व् चंचल है यहाँ सभी स्वार्थवश अपने सगे संबंधी होते है,किन्तु कटु सत्य है कि यहाँ कोई किसी का नहीं है अत:संसार असार है इसलिए इसमें रूचि क्यों होनी चाहिए!इस प्रकार चिंतवन करने से संसार से अरुचि होती है वैराग्य के लिए शरीर के स्वभाव का चिंतवन करे,इससे क्या रति करनी,नश्वर है अशुचिता-मल,मूत्र,अस्थि,मांस रुधिर इत्यादि सप्त धातुओं का भंडार है!इसलिए निरंतर संसार और शरीर का चिंतवन करने से क्रमश संवेग और वैराग्य भावना वृद्धिगत होती है जिससे निर्दोष व्रतों का पालन होता है !

हिंसापाप का लक्षण-

प्रमत्त योगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा !!१३!!

संधि विच्छेद-प्रमत्त+योगात +प्राण + व्यपरोपणं+ हिंसा
शब्दार्थ-प्रमत्त-प्रमाद के योगात -योग से ,प्राण- दस प्राणों का, व्यपरोपणं-घात करना, हिंसा-हिंसा है !
अर्थ-प्रमाद वश योग से किसी के दस प्राणों का घात करना द्रव्य हिंसा है !
भावार्थ-कषाय युक्त अवस्था को प्रमाद (५ इन्द्रियों,४ कषाय ,४ विकथा,स्नेह और निंद्रा =१५ होते है ) कहते है!
इन प्रमादों में से किसी के वशीभूत, किसी प्राणी के पांच इन्द्रिय,३ बल,श्वासोच्छ्वास और आयु, इन दस प्राणों का घात होता है तो हिंसा है किन्तु प्रमादों के अभाव में प्राणघात होने से हिंसा पाप दोष नहीं लगता है!
संसार में सर्वत्र जीव है वे अपने निमित्तों से मरते भी है किन्तु उनके मात्र मरने से ही हिंसा पाप का दोष नहीं लगता! उद्धाहरण के लिए; कोई मुनि महाराज ईर्यासमिति का पालन करते हुए चार हाथ आगे की भूमि भली प्रकार देखते हुए इस भाव से चल रहे है कि उनके पैरों के नीचे आकर, किसी जीव की हिंसा नहीं हो जाये ,किन्तु फिर भी सूक्ष्म जीवो की हिंसा स्वाभाविक है,तब भी मुनिराज को हिंसा पाप नही लगेगा क्योकि उनका जीवों की हिंसा करने का भाव नहीं है,अत: यह हिंसा नहीं है क्योकि प्रमाद का योग नहीं है!किन्तु यदि वे ईर्यासमिति का पालन करते हुए नहीं चलते,तब जीव की हिंसा नहीं होने पर भी उन्हें हिंसा पाप का दोष लगता है चाहे किसी जीव के प्राणों का घात हो या नहीं हो क्योकि उनका भाव जीवों को बचाने का नहीं है और उनके प्रमाद का योग है!अत:हिसा रूप परिणाम होने पर ही हिंसा पाप दोष लगता है !
जैन दर्शन में हिंसा के दो भेद ;द्रव्य और भाव हिंसा है !द्रव्य हिंसा का भावहिंसा के साथ मात्र संबंध होने के कारण उसे हिंसा कहा है ,द्रव्य हिंसा होने पर भाव हिंसा होना आवश्यक नहीं है !
शंका-जैनेतर धर्मों में, भाव और द्रव्य हिंसा ,अलग अलग नहीं मानने के कारण,शंका उत्पन्न होती है कि समस्त लोक ,संसार के जल ,थल ,पर्वतोंकी चोटी पर जीव जंतु है फिर कोई जीव कैसे अहिसक हो सकता है ?
समाधान-जीव बादर और सूक्ष्म दो प्रकार के होते है !सूक्ष्म जीव तो किसी अन्य जीव से न तो बाधित होते है और उन्हें बाधित भी नहीं करते इसलिए उनका तो हिंसक होने का प्रश्न ही नही उठता !स्थूल /बादर जीवों की जिनकी रक्षा करनी संभव है उनकी रक्षा संयमी पु रुष करते है इसलिए उन्हें हिंसा पाप का दोष नहीं लगता
विशेष-१-कोई प्राणी किसी अन्य प्राणी को मारने की योजना बनाता है किन्तु उसको किसी कारणवश मार नहीं पाता;यद्यपि उसने दुसरे प्राणी को मारा नहीं है तब भी उसके हिंसा पाप का बंध होता है क्योकि वह प्रमाद सहित है और उससे अपने भाव प्राणों की हिंसा होती है !
२-जो लोग चीनी के बने पशु आकार के खिलौनों का सेवन दीपावली में कर ते है उन्हे भी हिंसा का दोष लगता है !टीवी पर बच्चे,पिस्तौल से किसी को मारने के दृश्य को देखकर आनंदित होने पर,यद्यपि उन्होंने किसी को मारा नहीं है,उन्हें हिंसा की अनोमोदना करने के कारण हिंसा पाप का दोष लगता है !
३-आहारदान के अवसर पर शुद्धि की प्रतिज्ञा लेने पर यदि आहार/जल शुद्ध नहीं है तब हिंसा पाप का दोष आहार दाता को लगता है,मुनिराज को नहीं क्योकि उन्होंने कोई प्रमाद नहीं किया है!किन्तु यदि मुनिराज जानते है कि आहारदाता मदिरा,मांस आदि का सेवन करता है,उसके आहार जल शुद्ध नहीं है.चाहे आहारदाता ने शुद्ध ही आहार क्यों नहीं निर्मित किया हो, तब उनके हिंसा पाप का दोष,उनके प्रमाद के कारण लगता है
४-अपनी स्वयं की आत्मा को भी किसी कषायवशीभूत कष्ट देना भाव हिंसा है!इससे भी हिंसा पाप दोष लगता

असत्य पाप के लक्षण-

असदभिधानमनृतम् !!१४!!
संधि विच्छेद-असत +अभिधानम्+अनृतम्
शब्दार्थ-असत -जो वस्तु जैसी है वैसी नही ,अभिधानम्-कहना,अनृतम्-झूठ है !
अर्थ-किसी वस्तु को उसके स्वरुप से भिन्न कहना,अथवा अकल्याणकारी वचनो का सत्य होने पर भी प्रति पादन करना झूठ /असत्य है !
भावार्थ-किसी को कर्कश,पीड़ादायक वचन,यद्यपि सत्य भी हो,कहना असत्य है जैसे काणे को काणा कहना!
किसी को आँखों की ज्योति बढ़ाने के लिए गाजर का सेवन अथवा गुलाब जल नेत्रों में डालने की सलाह देना भी असत्य है क्योकि आगम विरूद्ध वचन है क्योकि गाजर जमीकन्द है और गुलाब जल अनेक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से बनता है!दोनों में अत्यंत जीव हिंसा है !अत:आगमनुकूल,हितमित,कल्याणकारी वचन ही बोलने चाहिए अन्यथा असत्य पाप का दोष लगता है!किसी छात्र को शिक्षक यदि उसे सुधारने की भावना से पीटता है तब वह असत्य दोष का भागी नहीं है क्योकि उसका भाव छात्र का कल्याण करना है!या किसी डाक्टर से ऑपरे- शन करते हुए मरीज की मृत्यु हो जाती है तो वह हिंसा तब तक नहीं है जब तक डाक्टर का भाव उसे ठीक करने का है किन्तु यदि उसका भाव ही इलाज़ के बहाने मरीज़ को मारने का है तो वह डाक्टर हिंसा पाप का दोषी होगा !आशय है कि प्रधान अहिंसाव्रत है ,बाकी चारों उसकी रक्षा के लिए है


चोरी पाप के लक्षण-
अदत्तादानंस्तेयम् !!१५!!
संधि विच्छेद-अदत्त+आदानं+स्तेयम्
शब्दार्थ-अदत्त-बिना दी हुई वस्तु,आदानं-ग्रहण करना,स्तेयम्-चोरी है
अर्थ-बिना दिए हुए कोई वस्तु ,गिरी ,पड़ी हुई ग्रहण करना चोरी है !
विशेषार्थ-प्रमाद योगवश अर्थात बुरे भाव से पराई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है,चाहे उससे कोई लाभ हो या नहीं हो!जैसे किसी साथी की पुस्तक छुपा कर रख देना,यद्यपि इससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ किन्तु दुसरे को हानि अवश्य हो गई!या किसी से, समाज के ५-७ कमेटी के लोग,उसकी इच्छा के विरुद्ध दान लेते है तो यह भी चोरी है !
शंका -कर्म और नो कर्म कोई देता नहीं ,तो यह भी चोरी ही हुई ?
समाधान- यह दोष नहीं है क्योकि जहां लेना देना संभव है वही चोरी होती है ,इस दृष्टात में लेना देना संभव नहीं है !यह सूत्र में अदत्त शब्त से फलहित होता है की जहाँ लेना देना सम्भव है वही चोरी है अन्यथा नहीं !


कुशील पाप का लक्षण-
मैथुनमब्रह्म !!१६!!
संधि विच्छेद -मैथुनं + अब्रह्म
शब्दार्थ-मैथुनं-मैथुन;स्त्री पुरुष के बीच रागवश वासना पूर्ण क्रिया को मैथुन कहते है,अब्रह्म-अब्र्ह्म /कुशील पाप है
अर्थ-मैथुन रूप परिणाम होना कुशील पाप है !
भावार्थ-चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से स्त्री पुरुषों के बीच राग वश वासना रूप परिणाम होना कुशील पाप है !
विशेष-गृहस्थों को एक विवाहित स्त्री /पुरुष में एक दुसरे के प्रति वासना रूप परिणाम होना , कुशील पाप नहीं है किन्तु साधु परमेष्ठी को स्त्री मात्र के स्पर्श का निषेध है,अन्यथा उन्हें कुशील पाप का दोष लगता है !


परिग्रह पाप का लक्षण-
मूर्च्छा परिग्रह:!!१७!!
सन्धिविच्छेद:-मूर्च्छा+परिग्रह:!!
शब्दार्थ:-मूर्च्छा -बाह्य धनादि और अंतरंग क्रोधादि में ममत्व परिणाम होना /यह मेरा है ,परिग्रह:-परिग्रह है !
अर्थ-जो परिणाम आत्मा को चारों ओर से जकड ले वह परिग्रह है,किसी वस्तु अथवा राग द्वेष को कहना कि ये मेरे हैं,यही ममत्व परिणाम ,मूर्च्छा अर्थात परिग्रह है !
विशेष:-
१-मुनिमहाराज के पिच्छी ,कमंडल,एवं शास्त्र जी उनके परिग्रह में नहीं आते क्योकि प्रमाद नहीं है !चश्मा भी यदि आहार शोधन अथवा शास्त्र के स्वाध्याय हेतु प्रयोग में आ रहा है तो परिग्रह में तब तक नहीं आता जब तक उनका उपयोग विषयों के सेवन के लिए नहीं है !
२-प्रथमानुयोग के ग्रन्थ में एक दृष्टांत आता है,राजा श्रेणिक भगवान महवीर के समवशरण की ओर जाते हुए एक ध्यानस्थ मुनिराज को तपस्या में लींन देख कर,समवशरण में पहुँचने पर गौतम गणधर देव से प्रश्न करते है की इन मुनिराज को मोक्ष कब मिलेगा ,गढ़र देव कहते है ये तो अंतरंग परिणामों के कारण नरकगति का बंध कर रहे है क्योकि ओके मंत्रियों ने,इनके दीक्षा लेने के समय किये आश्वासन के विपरीत,इनके पुत्र को राज्य न देकर स्वयं राज्य हड़प लिया है !यहाँ मुनिराज के परिग्रह (राज्य ) में अभी तक मोह पड़ा हुआ है ,इस कारण उन्हें नरकगति का बंध हो रहा है!गौतम गंधार देव राजा श्रेणिक से इन्हे सम्बोधित कर, सँभालने का निर्देश देते है,तदानुसार राजा श्रेणिक उन मुनिराज को संभालते है ,उनके पास जाकर कहते है ‘ मुनिराज आप कहाँ राज्य आदि के चक्क र में पढ रहे हो आप अपना कल्याण तपस्या में लीन होकर करे अन्यथा आप नरक आयु का बंध कर रहे है ,तभी मुनिराज ने संभल कर अंतर्मूर्हत में मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त किया !यहाँ मुनिराज ने द्रव्य से तो परिग्रह का त्याग कर दिया था किन्तु भाव से नहीं इसलिए उनके नरकायु का बंध हो रहा था !
परिग्रह सहित मुनि के सन्दर्भ में आचार्य श्री कुन्दकुन्द महाराज जी कहते है कि ”मुनिराज थोड़ा भी परिग्रह रखते है तो वे निगोद जाते है’परिग्रह का त्याग द्रव्य और भाव दोनों से होना आवश्यक है !

व्रती का लाक्षण-
नि :शल्योवर्ती : !!१८ !!
सन्धिविच्छेद:- नि:+शल्यो+वर्ती :
शब्दार्थ:-नि -रहित :शल्यो-शल्य ,वर्ती: -व्रती है
अर्थ-व्रती शल्य रहित होता है !
भावार्थ -जो काँटों की तरह दुःख देता है,उसे शल्य कहते है!व्रती शल्य रहित होता है !
विशेष-
शल्य के तीन भेद है !
१-माया शल्य -दुसरे के प्रति छल कपट के भाव होना,जैसे प्रथमानुयोग में दृष्टांत आता है की एक चोर ने मंदिर से छत्र चोरी करने के लिए क्षुल्लक जीका वेश धारण किया। यह माया शल्य है!ऐसे जीव के सदा चुभता रहेगा कि वह क्षुल्लकजी तो है नहीं, उसने केवल उनका भेष धारण कर लिया है,सदा डरता रहेगा कि कोई मुझे पकड़ न ले !ऐसे में वह व्रती ,व्रतों का पालन नहीं कर पायेगा !
२-मिथ्या शल्य- तत्वार्थ और व्रतों में श्रद्धां नहीं होते हुए भी अन्यों के देखा देखी व्रत धारण कर लेना ,मिथ्या शल्य है !ऐसे जीव के श्रद्धां के अभाव में यह बात कांटे की तरह चुभती रहेगी व्रत तो ले लिया किन्तु कहाँ फस गए ,अत्यंत कठिन है इनका पालन !ऐसा व्यक्ति क्या व्रत लेगा !
३-निदान शल्य-अपनी प्रसिद्धि अथवा भविष्य में किसी सांसारिक वस्तु जैसे दुखों के छूटने के लिए अथवा स्वर्ग की प्राप्ति की वांछा से व्रत धारण करना,निदान शल्य है !
व्रती उक्त तीनों शल्य रहित होता है !
शंका -बाहुबली भगवान के युद्ध के पश्चात कौन सा शल्य था ?
समाधान उन्हें युद्ध के बाद कोई शल्य नहीं था केवल संताप था,दुःख था कि मैंने छोटे भाई भरत के साथ युद्ध क्यों किया,करना नही चाहिए था !वे सर्वार्थ सिद्धि से आये हुए महान मुनिराज तद्भव मोक्ष गामी जीव थे!वे नि:शल्य थे!उनके यह भाव नहीं था कि भरत की भूमि पर खड़ा हूँ !

व्रती केभेद –
अगार्यनगाराश्च !!१९!!
सन्धिविच्छेद:-अगारी+अनगारी:+च
शब्दार्थ:-अगारी-गृहस्थ अणुव्रती,घर सहित,अनगारी-गृह त्यागी अर्थात साधु आर्यिका,ऐलक आदि,च-और
अर्थ व्रती के अगारी (गृहस्थ -घरों में रहने वाले श्रावक )और अनगरी(ग्रह त्यागी मुनि,आर्यिका ,ऐल्लक जी ) दो भेद है !

शंका-साधु किसी देवालय या निर्जन खाली स्थान पर ठहरने से अगारी हो जाएंगे !यदि कोई गृहस्थ अपनी पत्नी से झगड़ कर वन में रहने लगे तो क्या वह अनगारी हो जायेगा ?
समाधान-अगारी का अर्थ मकान ही है किन्तु यहाँ पर अभिप्राय बाहरी मकान से नहीं लेकर आंतरिक मानसिक मकान से है !जिस व्यक्ति के मन से घर बसा कर रहने की भावना है वह जंगल में रहने पर भी अगारी ही है और जिसके मन में ऐसी भावना नहीं है वह कुछ समय के लिए मकान में रहने के बावजूद भी अनगारी ही है,अगारी नही !
शंका -अगारी पूर्णवर्ती नहीं है इसलिए व्रती नहीं हो सकता है ?
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि नैगमनयों की अपेक्षा ,नगरवास के समान,अगारी के भी व्रती पना बनता है जैसे कोई घर/झोपड़ी में रहने पर भी कहता है ‘मैं नगर में रहता हूँ’ !इसी प्रकार जिसके पूर्ण व्रत नहीं है वह नैगम ,संग्रह और व्यवहारनय की अपेक्षा व्रती है !
शंका -क्या जो हिंसादि एक से निवृत्त है ,वह अगारी व्रती है?
समाधान -नहीं !
शंका -वह क्या है?
समाधान -जिसके पाँचों प्रकार की एक देश विरती है ,वह अगारी है !

अगारी का लक्षण
अणु व्रतो अगारी !!२०!!
सन्धिविच्छेद:-अणु+व्रतो+अगारी
शब्दार्थ:-अणुव्रतो-अणुव्रती ,अगारी-
है!
अर्थ-अणुव्रती अर्थात एकदेश पांच अणुव्रतों;(अहिंसा,सत्या,अचौर्य,ब्रह्मचर्य,और परिग्रह परिमाण)का पालन करने वाले सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जीव अगारी है अर्थात घर में रहते है!भावार्थ- एक देश पाँचों पापों के त्याग का नियम लेने वाले वाले अणुव्रती होते है!
अहिंसाणुव्रती- त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है !बाकी तीन हिंसाये उद्यमी-व्यापार आदि में, विरोधी-अपने बचाव में एवं आरंभी-घर के नित्य दिन के कार्य और व्यापार में वह नहीं चाहते हुए भी मजबूरी में करता है!
सत्यणुव्रती-राग-द्वेष,मोह,भय,आदि के वश बोले जाने वाले स्थूल झूठ बोलने का सर्वथा त्यागी होता है !
अचौर्याणुव्रती -स्थूल रूप से चोरी करने का सर्वथा त्यागी होता है,जैसे वह किसी की जेब से रूपये पैसे आदि निकाल कर चोरी नहीं करता है !
ब्रह्मचर्याणुव्रती-अपनी/अपने विवाहिता पत्नी /पति के अतिरिक्त किसी अन्य से स्त्री /पुरुष से वासना रूप परिणाम नहीं रखता उन्हें बहिन भाई,माता पिता समान समझता है !
परिग्रह परिमाण अणुव्रती -अपने परिग्रहों की सीमाये निर्धारित कर कभी उन सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता है!जैसे वह नियम लेता है की एक खेत ,एक मकान ,एक कार ,लाख रूपये ,२ गाय, भैंस।१० जोड़ी कपड़े,साड़ी आदि से अधिक परिग्रह नहीं रखेगा तो वह जीवन पर्यन्त इस सीमा का उल्लंघन नहीं करता ,बल्कि शनै शनै उन्हें कम करने का प्रयास करता है !जो इन पाँचों अणुव्रतों का नियम पूर्वक पालन करता है तब वह अगारी व्रती है !जब कोई जीव ५ अणुव्रत,३ गुणव्रत और ४ शिक्षा व्रत धारण करता है तब उसे व्रती श्रावक कहते है!


श्रावक के अणुव्रतों के सहायक सात शीलव्रत –
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामयिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च !!२१!!
सन्धिविच्छेद-दिग्+देश+अनर्थदण्ड+विरति+सामयिक+प्रोषधोपवास+उपभोगपरिभोग+परिमाण+अतिथि संविभाग+व्रत+सम्पन्न:+च
शब्दार्थ -दिग्व्रती,देशव्रती,अनर्थदण्डव्रती,सामयिक,प्रोषधोपवास,उपभोगपरिभोगपरिमाण,अतिथि संविभाग,व्रत,सम्पन्न:-सहित,च-सल्लेखना !
अर्थ-व्रती श्रावक,पांच अणु व्रतों की रक्षा के लिए सात शिक्षाव्रतों -तीन गुणव्रत; दिग़व्रत,देशव्रत,और अनर्थदण्डव्रत,तथा चार शिक्षा व्रतों;सामायिक,प्रोषधोपवास,उपभोगपरिभोग परिमाण और अतिथि संविभाग ,इस प्रकार कुल १२ व्रतों का धारी होता है!च-सूचित करता है की सल्लेखना द्वारा वह व्रती अपना शरीर त्यागने का नियम भी लेता है !
भावार्थ -श्रावक व्रती की संज्ञा पांच अणु व्रत,३ गुणव्रत और ४ शिक्षा व्रतों अर्थात १२ व्रतों के पालन करने पर ही प्राप्त करता है !
गुणव्रतों –
१-दिगव्रत-व्रती श्रावक,सूक्ष्म पापों से निवृत्ति के लिए दसों (पूर्व,दक्षिण,पश्चिम,उत्तर,तथा इन के मध्यस्थ एक-एक दिशा,ऊपर,नीचे) दिशाओं में अपने आवागमन की सीमा स्वयं निर्धारित करना दिग्व्रत है, वह जीवन पर्यन्त इस सीमा का उल्लंघन नहीं करता है! व्रती निर्धारित सीमा के बाहर व्यापारादि करने भी नहीं जाता ,जिससे वह निर्धारित सीमा के बाहर के क्षेत्र में, होने वाली हिंसा से सर्वथा बच !उद्धाहरण के लिए दिग्व्रती व्रत लेता है जैसे जीवन पर्यन्त भारत/उत्तर प्रदेश सहारनपुर/ से बहार नहीं जाऊँगा ,आकाश में ४०००० फट से ऊपर नहीं और ५००० फट से नीचे नहीं जाऊंगा
२-देशव्रत -दिग्व्रत में जीवन पर्यन्त के लिए निर्धारित करी गई,आवागमन की सीमा को देश व्रती कुछ समय;घंटे, दिन, सप्ताह,माह,अथवा वर्ष के लिए देश ,गली,मोहल्ले तक संकुचित कर लेता है !इसमें भी श्रावक ,इस नवीन निर्धारित क्षेत्र की सीमा से बाहर उपचार से महाव्रती हो जाता है !देश व्रत में ,दिग्व्रत में निर्धारित सीमा भारत से, संकुचित कर गली /मोहल्ले से बाहर दसलक्षण पर्व में नहीं जाऊँगा !इन व्रतों को धारण करने से , निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी भी प्रकार से,फोन//प्रेषक को भेजकर /इशारे से सम्पर्क नहीं कर सकते अन्यथा व्रत दूषित हो जाएगा !
३-अनर्थदण्ड व्रत -निष्प्रयोजन पापरूप क्रियाओं जैसे जमीन खोदना,फूल पत्ति तोडना,को त्यागना अनर्थदण्ड व्रत है !इसके ५ भेद है-
१-पापोपदेश अनतदण्ड व्रत -व्रती ,किसी को युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने का त्यागी ,किसी को हिंसात्मक कार्य जैसे शास्त्र आदि बनाने की सलाह देने का त्यागी ,किसी को जीवहिंसा वाली क्रियाओं को बताने का त्यागी होता है
२-हिसादान अर्थदंड व्रती -किसे को भी तलवार शास्त्र आदि देने का त्यागी होता है !
३-अपध्यान अनर्थदण्ड व्रती -व्रती किसी के अहित का विचार ही नहीं करता !
४-दु :श्रुति अनर्थदण्ड व्रती -व्रती राग द्वेष ,वासना की अभिवृद्धि करने वाले शास्त्रों,साहित्य,सनीमा देखने ,गाने सुनने का सर्वथा त्यागी होता है !
५-प्रमादचर्य अनर्थदण्डव्रती -व्रती कभी भी निष्प्रयोजन कोई क्रिया नहीं करता जैसे निष्प्रयोजन चलना,फूल पत्ती तोडना,पंखे/कूलर चलते छोड़ देना आदि !
शिक्षा व्रत-जिन व्रतों के पालन से मूल धर्म की शिक्षा मिलती है ,उन्हे शिक्षा व्रत कहते है !उनके पालन से धर्म में आगे बढ़ने में प्रोत्साहन मिलता है !इनके चार भेद है-
१-सामायिक शिक्षा व्रत-समस्त पापो से विरत ,निर्विकल्प होकर किसी शांतएकांत स्थान पर मन वचन काय से एकाग्रचित होकर,तीनों सांध्य कालों में अथवा कम से कम सुबह और शाम २ घड़ी, तक स्व आत्म चिंतन करना, सामायिक शिक्षाव्रत है !इससे सामायिक काल के लिए, सांसारिक पाप रुपी कार्यों से निवृत्ति मिल जाती है,इस काल में व्रती उपचार से महाव्रती होता है !इससे संयम में वृद्धि होकर मोक्षमार्ग पर बढ़ते हुए मुनि बनने की प्रेरणा मिलती है!
शंका-क्या सामायिक में जाप कर सकते है ?
समाधान -सामायिक में णमो कार मंत्र की जाप नहीं कर सकते क्योकि इसमें अपनी आत्मा के स्वरुप का चिंतवन किया जाता है जैसे ,मैं कहाँ से आया हूँ ,कहाँ जाऊँगा क्या हूँ ,मेरे गुण आदि कौन से है ?
२-प्रोषधोपवास शिक्षा व्रत-प्रोषधोपवास=प्रोषध-पर्व+उपवास-जिसमे पांचों इन्द्रियाँ,अपने अपने विषयों को छोड़कर,उपवासी रहती है,उपवास है!स्थूल रूप से उपवास चारों प्रकार के आहार;-खाद्य,पेय, स्वाद्य, चटनी का त्याग है किन्तु वास्तव में सभी इन्द्रियों के विषय भोग आदि उपवास के अंतर्गत आते है!
इसलिए भोजन का, स्थूल रूप उपवास में,त्याग किया जाता है! इसमें सेंट,इत्र ,साबुन ,आदि शरीर के संस्कारों का त्याग किया जाता है अत: अष्टमी/चतुर्दशी के प्रोषधोपवास के लिए ,श्रावक को समस्त आरम्भ त्याग कर , सप्तमी/त्रियोदशी को एकसँ कर मंदिर जी /धर्मशाला में जाना चाहिए,अगले दिन अष्टमी चतुर्दशी को पूर्ण उपवास रखे,तीसरे दिन नवमी/अमावस्या/पूर्णिमा को एकसँ रख घर में आ जाए ,इन तीनो दिन मंदिर जी में रहकर धर्म ध्यान करता रहे !यह इस उपवास की उत्कृष्टता है !माध्यम से अष्टमी/चतुर्दशी को पूर्णव्रत तथा न्य से अष्टमी/चौदश को एकसँ किया जाता है किन्तु ये दोनों व्रत की कोटि में नहीं आते !
शंका-प्रोषधोपवास शिक्षा व्रती नौकरी,व्यापार आदि करने जा सकते है क्या ?
समाधान-इस व्रत में व्रती को निर्विकल्प होता है ,केवल धर्म ध्यान में लगता है ,इसलिए व्यापार/नौकरी पर नहीं जाना है !
शंका -प्रोषधोपवास शिक्षा व्रती क्या जल ग्रहण कर सकता है?
समाधान- उपवास चारो प्रकार के आहार का त्याग है! जल भी पेय है इसलिए जल ग्रहण करने पर आचार्यों ने इसे अनुपवास कहा है !अत:जल ग्रहण नहीं कर सकते ! –
३-उपभोगपरिभोगपरिमाण शिक्षाव्रत-अणु व्रत में जो परिग्रहों की सीमाये निर्धारित करी थी उन में से अना वश्यक वस्तुओं को इस व्रत में हटाते हैं !जैसे परिग्रह परिमाण व्रत में व्रती ने ३ टोपी की सीमा रखी थी तो इसमें वह १ ही टोपी पहनेगा,वहां ४-धोती/कुर्ते की सीमा निर्धारित करी थी तो इसमें २ धोती/कुर्ते ही धारण करेगा !वाहन के उपभोग(संख्या) की सीमा कम करेगा,तेल ,भोजन (जि तनी बार पहले लेता था उससे कम बार लेगा आदि के भोग की सीमा कम करेगा ! इस व्रत से परिग्रहों के कम होने से मुनि बनने की प्रेरणा मिलती है !
४-अतिथि संविभाग शिक्षा व्रत -अपने लिए बनाये गए भोजन में से ,किसी व्रती(मुनि,क्षुल्लक,क्षुल्लिका, ऐलक, आर्यिका माता जी अथवा अव्रती सम्यग्दृष्टि)अतिथि के स्वयं ,(बिना पूर्व में बताये हुए) आहार बेला (१०-१०,४५ प्रातSmile में आने पर आहार दान देना, अतिथि को आहार दान देकर स्वयं भोजन लेना ,अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है ! यदि कोई चतुर्विध संघ से कोई सुपात्र आहार ग्रहण करने नहीं आते तो यह अतिथि संविभाग शिक्षा व्रती;अपने भोजन लेने से पूर्व भावना भायेगा कि ,मेरे भाग्य से कोई सुपात्र आहार ग्रहण करने नहीं आये किन्तु मेरी भावना है कि मनुष्य लोक के समस्त चतुर्विध संघ के सुपात्रों का आहार निरन्तराय हो !यह भावना भने से अतिथिसंविभाग शिक्षा व्रत श्रावक का हो जाता है !जहाँ चतुर्विध संघ के पात्रों का विहार नहीं है , श्रावक भी इस विधि से इस व्रत को कर सकते है !
मुनि महाराज/आर्यिका माता जी /ऐलक जी के लिए उनके निमित का आहार नही बनाया जाता अन्यथा आहार दूषित हो जाता है !इसी प्रकार क्षुल्लक अथवा ऐल्लक महाराज जी के निमित्त के धोती दुपटी नहीं दिए जाते ,पाहिले से रखे हुए दिए जाते !है
सूत्र में च- से सूचित होता है की इन बारह व्रतों के अतिरिक्त श्रावक सल्लेखना धर्म को भी मृत्यु से पूर्व धारण करेगा !
विशेष-
जिनका चित्त त्रस जीवों की हिंसा से निवृत्त है उन्हें मधु,मदिरा और मांस का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए !केतकी अर्जुन के फूल,जमीकन्द,का त्याग कर देना चाहिए क्योकि ये बहुत जीव/जंतुओं की उत्पत्ति के आधार है ,इन्हे अन्तकाय कहते है ,इनके सेवन से लाभ कम और हिंसा अधिक है !


व्रती को सल्लेखना धारण का उपदेश –
मारणान्तिकींसल्लेखनाम् जोषिता !!२२!!

संधि विच्छेद-मारणान्तिकीं+सल्लेखनाम्+जोषिता
शब्दार्थ -मारणान्तिकीं-मरण काल उपस्थित होने पर,सल्लेखनाम् -सल्लेखना धारण करनी चाहिए,जोषिता-प्रीति/उत्साहपूर्वक
अर्थ -गृहस्थ श्रावक को मरण काल आने पर प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करनी चाहिए !
इस लोक और परलोक संबंधी किसी वांछा की अपेक्षा रहित ,बाह्य शरीर एवं कषायों को कृश/लेखना करना सल्लेखना है !
भावार्थ-व्रती मरण के समय भाव रखता है कि अब मेरा जीवनभर किये गए धार्मिक कार्यों की परीक्षा का समय आया है अत: विधिवत सल्लेखना धारण करूगा! सम्यक रीति से काय और कषायों को क्षीण करना सल्लेखना है !
विशेष -मृत्यु का काल आने पर गृहस्थों को सबसे से मोह त्यागना चाहिए,धीरे धीरे भोजन का त्याग,फिर पेय का त्याग कर शरीर को कृश करते हुए कषायों को कृश करना चाहिए !
सल्लेखना लेने की विधि –
गृहस्थ/श्रावक अपने शरीर में शिथिलता का आभास होने पर.की उसकी अब अधिक आयु शेष नहीं है, वह अपनी समस्त सम्पति,धन/दौलत का त्याग कर सबसे क्षमा याचना कर,निर्विकल्प होकर,पुरुष किसी अनुभवी आचार्य श्री और महिला अनुभवी आर्यिका माता जी के समक्ष जाकर निवेदन करते है कि प्रभु,मेरा शरीर शिथिलता की ओर अग्रसर हो रहा है,अत मैं सल्लेखना पूर्वक अपने शरीर को त्यागना चाहता/ चाहती हूँ ,मेरा/मेरी सलीखना पूर्वक शरीर त्याग करवा दीजिये ‘आचार्यश्री /आर्यिका माता जी शनै शनै आपका आहार ,जल का त्याग करवाते हुए उपवास करवाएंगे,उपवास करते हुए आप अपने शरीर को सहर्ष त्याग करेंगे
! यदि श्रावक युवावस्था में क्षुल्ल्क ,क्षुल्लिका ,ऐलक ,मुनि/आर्यिका पद धारण कर ले तो सल्लेखना के लिए बहेतर है !
शंका – इस प्रकार जानबूझकर मरणा क्या आत्म हत्या नहीं है?
समाधान- आत्महत्या,कोई स्त्री पुरुष,परस्पर में द्वेष वश,विषपान अथवा फांसी इत्यादि लगाकर करते है !सल्लेखना में ऐसा नहीं है
,जैसे किसी व्यापारी की दूकान/घर में आग लग जाने पर वह सर्प्रथम दूकान/घर को आग से बचने का प्रयत्न करता है ,यदि उसे नहीं बचा पाता तो वहां पर रखे धन को बचाने का प्रयास कर बचाता है,इसी प्रकार गृहस्थ शरीर के द्वारा धर्म को साधता है ,उसके वह नष्ट नहीं होने देना चाहता !इसलिए सर्वप्रथम शरीर को रोगग्रस्त से क्षीण होने से औषधियों द्वारा उपचार कर उसे बचने का भरसक प्रयत्न करता है ,किन्तु यदि उसे मृत्यु से बचाने का कोई उपाय नहीं मिलने पर,ध्रीर को नहीं बचाकर,उसके द्वारा अर्जित धर्म की रक्षा हेतु, शरीर को स्वेच्छा से, सहर्ष त्यागता है,इसलिए सल्लेखना, आत्म हत्या से सर्वथा भिन्न है ! पहली में कषाय का संयोग नहीं है जबकि दूसरी में कषायों की ही प्रधनता है !
शंका -किसी व्यक्ति के कोमा में आने पर कपड़े उतार देने से क्या उसकी सलेखना हो जाएगी ?
समाधान-
इस अवस्था में जीव को स्व विवेक नहीं है इसलिए सल्लेखना नहीं होगी !

श्रावक/व्रतियों द्वारा धारण किये ५ अणुव्रतो,३ गुणव्रतों और ४ शिक्षा व्रतों के निरतिचार पालन करने से उनका दोष रहित पालन होगा!इस के लिए,१२ व्रतों के अतिचार बताने से पूर्व,आचर्यश्री ने समयग्दर्शन के ५ अतिचारों का उल्लेख निम्न सूत्र में किया है,जिनके अभाव में उनका निरतिचार पूर्वक धारण करना असम्भव है !

सम्यग्दर्शन के अतिचार-

शंकाकांक्षा विचिकित्सान्यदृष्टि प्रशंसासंस्तवा:सम्यग्दृष्टेरतिचारा: !!२३!!
संधि विच्छेद -शंका+कांक्षा+विचिकित्सा+अन्यदृष्टि (प्रशंसा+संस्तवाSmile+सम्यग्दृष्टे अतिचारा:
शब्दार्थ:-शंका,कांक्षा,विचिकित्सा,अन्यदृष्टि प्रशंसा,अन्यदृष्टि संस्तवन, सम्यग्दृष्टे-सम्यग्दर्शन के , अतिचारा:-अतिचार हैं
अर्थ-शंका,कांक्षा,विचिकित्सा,अन्यदृष्टि प्रशंसा,अन्यदृष्टि संस्तवन (वचन से ),सम्यग्दर्शन के ५ अतिचारा हैं !
भावार्थ-उक्त सूत्र में सम्यग्दर्शन को दूषित करने वाले पांच अतिचार बताये है
१-शंकातिचार-जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित वचनों ;तत्वों ,नव पदार्थों,भेद विज्ञान इत्यादि के स्वरुप में कदाचित शंका करना,जैसे शास्त्रों में ऐसा लिखा तो है किन्तु जमता नहीं है अथवा अपनी आत्मा को अखंड,अ- विनाशी जानते हुए भी मृत्यु से भयभीत होना,इस प्रकार के परिणाम होना से,सम्यग्दर्शन में शंकातिचार है!
२-कांक्षातिचार-सांसारिक अथवा परलोक के विषयों की वांच्छा होना,जैसे; इन को हम त्यागते है किन्तु होते तो अच्छे ही है,इस प्रकार के परिणाम होने से सम्यग्दर्शन में कांक्षातिचार होता है !
३-विचिकित्सातिचार-विचिकित्सा अर्थ है घृणा रूप भाव होना-दुखी,दरिद्र,रोगी जीवों को देखकर अथवा जैन मुनिराज की वैय्याव्रती करते हुए उनके मुख से दुर्गन्ध आने पर अथवा उनके मलीन शरीर को देखकर ,घृणा का भाव उत्पन्न होना,सम्यग्दर्शन में विचिकित्सातिचार है !
४-अन्यदृष्टिप्रशंसातिचार-अन्य मतियों के धर्मावलम्बियों की हृदय से प्रशंसा करना जैसे;”कुछ भी कहिये ये लोग बड़े अच्छे होते है क्योकि अपने धर्म के बड़े पक्के होते है,हम लोग तो कच्चे होते है”!इस प्रकार के परिणाम होना सम्यग्दर्शन में अन्यदृष्टिप्रशंसातिचार है क्योकि अन्य मतियों के धर्म की मन से अनोमोदना है!
५-अन्यदृष्टिसंस्तवनातिचार-अन्य मतावलम्बियों के धर्म का,वचन से गुणगान करना वचन से अनुमोदना है!जैसे टी.वी पर बैठे बैठे अन्य मतियों के संत के आत्मा पर प्रवचन बड़े मनोयोग से सुनकर, अंत में कहना कि यह भी तो आत्मा पर अच्छे प्रवचन देते है,यह सम्यग्दर्शन में, मन वचन काय से अनुमोदना के कारण, अन्य दृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तवनातिचार का एक साथ दृष्टांत है!
विशेष-
१-व्रतों में चार प्रकार के दोष लगते है !
१-अतिक्रमदोष-व्रतों के प्रति रूचि गिरना,मन की पवित्रता का गिरना,व्रतों के प्रति आदर भाव नहीं रहना, व्रतों में अतिक्रम दोष है !
२-व्यतिक्रमदोष-व्रतों में निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन कर लेना,यद्यपि त्यागी वस्तु का अभी सेवन नहीं किया,व्रतों में व्यतिक्रम दोष है!
३-अतिचार दोष-यदा कदा त्यागी वस्तु का सेवन करने के बाद,पश्चाताप होना व्रतों में अतिचारदोष है
४-अनाचार दोष-व्रती को धारण किये हुए व्रतों की कोई चिंता ही नहीं,उनको छोड़ देना व्रतों में अनाचारदोष है !
उद्धारहण के लिए-एक बैल अपनी दोनों ओर गेहूं के लहलहाते हुए खेतों के बीच पगडंडी पर चल रहा है!बैल को हांकते हुए किसान से,गेहूं की फसल पर मुह नहीं मारने का वायदा,बैल कर लेता है!अब पग डंडी पर चलते चलते बैल विचार करता है कि एक मुह यदि फसल पर मार दूँ तो अच्छा है किन्तु किसान ने उसे कसकर पकड़ रखा है,यहाँ बैल के मन की पवित्रता में दोष आने से यह अतिक्रम दोष है!बैल ने पगडंडी पर चलते चलते इधर उधर मुह बढ़ाया किन्तु किसान ने रस्सी खीच ली,बैलों का सीमा का उल्लंघन करना व्यतिक्रम दोष है!फिर चलते चलते उसने झपट्टा मारकर गेहूं की बालिया खाली,जिसके फलस्वरूप किसान ने उसके दो डंडे मारे,जिससे बैल के विचार आया कि मैं ऐसा नहीं करूँगा,यह अतिचार दोष है!इसमें उसे अपनी मर्यादा,जिसका उल्लंघन उसे नहीं करना है का,पुन: ज्ञान हो गया!फिर उसे गुस्सा आता है,वह दौड़कर खेत में अपने वायदे को भूलकर घुस जाता है और बहुत सारे गेहूं खाता है,किसान ने उसे डंडे भी मारे किन्तु वह नहीं माना यह अनाचार दोष है!
इस दृष्टांत को गणितज्ञ भाषा में इस प्रकार समझा जा सकता है -अतिक्रम पर २५%,व्यतिक्रम पर २५%, अतिचार पर २५%,और अनाचार पर १००% अंक कट जाते है तथा १००% की पेनल्टी भी लग जाती है !
शंका अन्य मतियों के शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए या नहीं ?
समाधान-सर्व प्रथम अपने जैन धर्म के शास्त्रों का स्वाध्याय कर ,उनमे दृढ श्रद्धान होने के पश्चात अन्य मतियों के शास्त्रों के गुण/दोष देखने के उद्देश्य से,उनके स्वाध्याय में कोई आपत्ति नहीं है,क्योकि यदि अपने धर्म के प्रति अपरिपक्व श्रद्धान,अल्प ज्ञेय अवस्था में है तब अन्य मतियों के शास्त्रों का स्वाध्याय करने से आपका श्रद्धान डगमगा सकता है!
शंका -क्या किसी भी शास्त्र जी का स्वाध्याय किया जा सकता है ?
समाधान ,नहीं,अपने जैन धर्म के भी,सत्यमहाव्रतधारी पूर्वाचार्यों द्वारा लिपिबद्ध सच्चे शास्त्रों का ही स्वाध्याय करना चाहिए क्योकि वर्तमान में अनेक शास्त्रों में मिलावट देखने में आती है अन्यथा तत्वार्थ का सच्चा ज्ञान नहीं हो पायेगा! वर्तमान के कुछ टीकाकारों ने,अपने मत की पुष्टि हेतु पूर्वाचार्य द्वारा लिपिबद्ध करी गई गाथाओं का अर्थ सही किया है किन्तु भावार्थ सर्वथा बदल कर अनर्थ कर दिया है!जैसे;एक तत्वार्थ सूत्र की टीका में दसवे अध्याय के सूत्र ८,”-धर्मास्तिकायभावात्” का भावार्थ है की धर्म द्रव्य के अभाव में आत्मा लोक के अंत से आगे नहीं जा सकती,किन्तु टीका कार ने इसका भावार्थ बदल कर कहा कि,आत्मा में सीमित शक्ति के कारण वह लोकांत से ऊपर, आगे नहीं जा सकती,जबकि आत्मा में तो अनंत शक्ति है!वे टीकाकार क्योकि निमित्त को नहीं मानते इसलिए,मात्र अपने मत की पुष्टि के लिए,उन्होंने उक्त सूत्र का भावार्थ स्वेच्छा से बदल दिया है,जो की मिथ्यात्व का पोशक है क्योकि आगम विरोध वचन है !
शंका-महिलाओं को ,अन्यमतियों में सुसराल होने पर उनके मंदिरों में जाना चाहिए या नहीं ?
समाधान-वास्तव में तो विवाह स्व धर्मावलम्बी परिवार में ही होना चाहिए जिससे अपने धर्म का पालन पुत्री विधिवत कर सके!वर्तमान में विवाह युवक एवं युवतियों की परिपक्व आयु में होता है उन्हें अपने ससुरालियों को धर्म के संबंध में अपने मत को पाणिग्रहण संस्कार से पूर्व स्पष्ट बता देना चाहिए कि उन्हें अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता मिलेगी तथा देवी/देवताओं की पूजा नहीं करूंगी !यदि उन्हें विवाह शर्तो यह मंजूर है तब ही वे विवाह करें अन्यथा नहीं !आचर्य सामंत भद्र स्पष्ट कहते है कि सम्यग्दृष्टि जीव किसी स्नेह,भय, आशा अथवा लोभ वश कु देव कु शास्त्र कु गुरु की पूजा नहीं करता ,उसके पास अन्य मतावलम्बियों के मंदिरों आदि को देखने के लिए समय ही नहीं होता , सिर्फ अपने सच्चे देव शास्त्र गुरु को ही पूजता है !
जिनकी शादी हो चुकी है,वे अपने ससुरालियों को सच्चे मुनि/साधु के पास लेजाकर उनके धर्म सम्बन्धी मत को ठीक करवाने का प्रयास करे !यदि नहीं ठीक करवा सके तो उन्हें अपने मत के चलने दे और स्वयं अपने मतानुसार चले !

व्रत और शीलों के अतिचार-
व्रतशीलेषु पञ्चपञ्च यथाक्रमम् !!२४!!
संधि-विच्छेद-व्रत-शीलेषु+पांच पांच +यथा+ क्रमम्

अर्थ-पांच अणुव्रतों और सात शील व्रतों के पांच पांच अतिचार है जिनको कर्म से कहता हूँ

अहिंसाणु व्रत के पांच अतिचार-
बन्ध वधच्छेदातिभाररोपणान्ना-पाननिरोधा:-!!२५!!
संधि विच्छेद-बन्ध+ वध+छेद+अतिभाररोपण+अनपाननिरोधा:!
शब्दार्थ:-बन्ध-बांधना,वध-मारना,छेद-छेदना,अतिभाररोपण-अधिक वजन लादना,अनपाननिरोधा:-समय पर भोजन जल नहीं देना !-
अर्थ -अहिंसा अणु व्रत के पांच अतिचार निम्न है –
१-बंध-प्राणी को सांकल अथवा पिंजरे में/ रस्सी से कसकर बाँधना !
२-वध-प्राणियों को कोड़े अथवा डंडे से मारना
३-छेदन- प्राणियों के नाक कान आदि अंगो का छेदन करना !
४-अतिभार्रोपण-प्राणियों से सामर्थ्य से अधिक कार्य करवाना/पशुओं पर अधिक भार लादना !
५ -अन्नपान निरोध-प्राणियों को समय पर जल /पानी नहीं देना या उन्हें लेने देना
अपने अहिंसाणुव्रत के अतिचार रहित पालन के लिए उपयुक्त नही करने चाहिए अपने अहिंसाणुव्रत के अतिचार रहित पालन के लिए उपयुक्त नही करने चाहिए
विशेष-सम्यग्दृष्टि जीव के प्रशम-मंद कषाय,संवेग-संसार के स्वरुप से भय,अनुकम्पा-अन्य प्राणियों के कष्टों को स्वयं अनुभव करते हुए उनका निवारण करने का उपाय करना और आस्तिकाय।चार प्रमुख गुण स्वभावत: होते है.उसकी लेश्या पीत ,शुक्ल और पदम होती है, अत;उसके परिणाम सरल होते है!फिर भी कदाचित इनके अभाव में उनके अणुव्रत में उक्त अतिचार लगते है !
श्रावकाचारों में स्पष्ट निर्देश है कि, पशुओं के पालन हेतु, उन्हें रस्सी न बाधके बड़े baadey में खुला रखना चाहिए !यदि बांधना ही आवश्यक हो तो उन्हें ढीली रस्सी से बंधे जिससे वे स्वतंत्रता पूर्वक घूम सके !


सत्याणुव्रत के अतिचार-
मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखनक्रियान्यासापहारसाकारमंत्रभेदा:!!२६!!
संधि विच्छेद -मिथ्योपदेश+रहोभ्याख्यान+कूटलेखनक्रिया+न्यासापहार+साकारमंत्र+भेदा:
शब्दार्थ-मिथ्योपदेश,रहोभ्याख्यान,कूटलेखनक्रिया,न्यासापहार ,साकारमंत्र,भेदा:-ये सत्यणुव्रत के अतिचार है !!
अर्थ-सत्याणुव्रत के मिथ्योपदेश,रहोभ्याख्यान-कूटलेखनक्रिया-न्यासापहार,साकारमंत्र पांच अतिचार है !
भावार्थ-
१-मिथ्योपदेश-आगम के विरुद्ध झूठे ,अकल्याणकारी उपदेश देना !
२-रहोभ्याख्यान-स्त्री पुरुषों की गुप्त बातों को जानकर सार्वजानिक प्रकाशित करना !
३-कूटलेखन क्रिया – झूठे दस्तवेज़ तैयार कर दूसरों को फ़साना अथवा उनसे मुकदा जीतना !
४-न्यासापहार- किसी की धरोहर को हड़पना जैसे कोई आपके पास सोने की ६ चूड़ी रखवा कर गया और लौटने पर उसे याद नहीं रहा ,उसने आपसे चार चूड़ी ही मांगी ,आपने उसे चार वापिस कर दी और २ हड़प ली !
५-साकारमंत्रभेद -किसी बात उसके इशारों आदि से जानकर सार्वजानिक कर देना
सत्याणुव्रती को उक्त अतिचारों से अपने व्रतों की रक्षा करनी चाहिए !
विशेष-
शंका-वकीलों को तो अपने प्रोफेशन में झूठ बोलना आवश्यक है वे तो सत्यणुव्रती नहीं हो सकते !
समाधान -ऐसा नहीं है की सभी केस में झूठ ही बोलना आवश्यक हो ,बैंक के केस अधिकांशत: सीधे सच्चे होते है ,फिर केस में हीन अधिक झूठ सच्च का परीक्षण कर चयनित किया जा सकता है !गांधी जी सच्चे केस लेते थे !श्री रमेश चाँद जैन जी ,सहारनपुर ,आज भी सच्चे सीधे केस लेते ,बड़े प्रतिष्ठित वकीलों में से है!न्यायधीशों के द्वारा भी सम्मानित प्रतिष्ठा रखते है !प्रैक्टिस भी उनकी टक्क्र में अन्य वकील शहर में नही है !


अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार –
स्तेनप्रयोग तदाहृतादानविरुद्धराज्यतिक्रमहीनाधिकमानोन्मान प्रतिरूपकव्यवहारा:!!२७!!
संधि विच्छेद-
स्तेनप्रयोग+ तदाहृतादान+विरुद्धराज्यतिक्रम+हीन+अधिक+मान+उन्मान+प्रतिरूपक+ व्यवहारा:
शब्दार्थ-स्तेन+प्रयोग-चोरी के लिए किसी को स्वयं अथवा किसी के द्वारा प्रेरित करना अथवा चोरी करते हुए की अनुमोदना कर प्रोत्साहित करना,तदाहृतादान-किसी चोर को ,चोरी के लिए प्रेरित किया या करवाया या अनुमोदना करी। ऐसे चोर से माल खरीदना अनाचार है,किन्तु किसी अन्य चोर से चोरी का माल खरीदना अतिचार है! विरुद्धराज्यतिक्रम-राजा के द्वारा स्थापित नियमों के विरुद्ध टैक्सो की चोरी करना या एक राज्य से दुसरे राज्य को चोरी से,अधिक लाभार्जन के उद्देश्य से हस्तांतरित करना , हीन-कम ,अधिक-अधिक, मान-बाँट, उन्मान-तराजू अधिक लाभार्जन के उद्देश्य से भिजन भिन्न बाँट और तराजू रखना, प्रतिरूपक-शुद्ध माल में मिलावट, व्यवहारा:-करना!!
अर्थ:- स्तेनप्रयोग,तदाहृतादान ,विरुद्धराज्यतिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान,प्रतिरूपकव्यवहारा,पांच अचौर्याणुव्रत के अतिचार है !
१-स्तेनप्रयोग-किसी को चोरी करने के लिए स्वयं या /किसी अन्य के द्वारा प्रेरित करना / चोरी करते हुए को अनुमोदना कर प्रोत्साहित करना,अचौर्याणुव्रत का स्तेनप्रयोग अतिचार है
२-तदाहृतादान-ऐसे चोर से चोरी का माल खरीदना जिसकी चोरी के लिए चोर को स्वयं अथवा किसी अन्य से प्रेरित नहीं करवाया हो/प्रोत्साहित न किया हो,अचौर्याणुव्रतों में तदाहृतादान अतिचार है!किन्तु यदि उसी चोर से माल खरीदे जिसे चोरी के लिए स्वयं/अन्यसेप्रेरित क्या हो /अनुमोदना करी हो तो व्रत में अनाचार होता है !
३-विरुद्धराज्यतिक्रम-शासक के द्वारा स्थापित किये राज्य के नियमों के विरुद्ध; बिक्री कर,आयकर,उत्पाद कर ,गृह कर इत्यादि की चोरी करना,अथवा किसी दुसरे राज्य में अधिक लाभ के उद्देश्य से बिक्री आदि करों की चोरी कर हस्तांतरित करना,बिजली आदि की चोरी करना,अचौर्याणुव्रतों में विरुद्धराजयतिक्रम अतिचार है !
४-हीनाधिकमानोन्मान-क्रय और विक्रय के वस्तु को तौलने के लिए भिन्न भिन्न बाँट और तराजू/मीटर , हीना धिक तौल/नापने के लिए रख,अधिक लाभ अर्जित करना,अचौर्याणुव्रत में हीनाधिकमानोन्मान अतिचार है !
५-प्रतिरूपकव्यवहारा:-प्रतिरूपक गलत/स्थापित मानों के विपरीत /बेईमानी का ,व्यवहारा:-व्यापर /उत्पाद में व्यवहार करना !,अधिक लाभार्जन के उदेश्य से महगी वस्तु में सस्ती वस्तु मिला कर बेचनाजैसे शुद्ध घी में डालडा घी मिलाना,सोने में अधिक खोट मिलाकर,जेवर बना कर,बेईमानी से अधिक लाभ अर्जित करना , अचौर्याणुव्रतों में प्रतिरूपकव्यव हारा अतिचार है !
विशेष-
१- अतिचार और अनाचार में अंतर है कि व्रतों में अतिचार दोष लगने पर प्रायश्चित संभव है,किन्तु वही अतिचार दुबारा दौहराने से प्रायश्चित कार्यकारी नहीं होता है,वही अतिचार,अनाचार में बदल जाता है अर्थात अणुव्रत सर्वथा भांग हो जाता है !
२-व्यापारियों की अधिकतर दलील रहती है कि व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण बिक्री कर/आयकर/उत्पाद कर /बिजली आदि सरकारी राजस्वों की चोरी करना उनकी मजबूरी है,उसके बिना जीविका अर्जित ही करना असंभव है !यह दलील बिलकुल अव्यवहारिक है क्योकि कोई शासन/सरकार आपको निर्देशित नहीं करती कि आप अपना माल बिना कर वसूले बेचे,अब यदि व्यापरी प्रतिस्पर्धा में ‘विक्रयकर’,क्रय व्यापारी से नहीं वसूलते तो सरकार की कहाँ गलत है !
दूसरी बात बहुत से व्यापारी अधिक लाभ के लोभवश,बिक्री कर वसूलते भी है तो राजस्व विभाग में जमा नहीं करते !सारांशत करों की चोरी का मूल कारण लोभ कषाय है !बहुत से व्यापार ऐसे है जिन के ऊपर कोई बिक्री करनहीं है जैसे कपड़े का व्यापार ,किन्तु उनके व्यापारी भी अपनी बिक्री सही नहीं दिखाते क्योकि आयकर का भी भुगतान करना होता है!आयकर वर्तमान में पूर्वकी अपेक्षा काफी % कम रह गया है ,इसलिए आयकर अवश्य देना चाहिये,यह हमारेऔर हमारे देश के विकास में काम आता है,सिर्फ सोच का अंतर है!इसका भुग तान करने से, हमे आध्यात्मिक लाभ भी मिलेगा और शारीरिक शांति क रूप में मिलता है,हम अचौर्याणुव्रत का भली प्रकार पालन कर पाते है!हमे व्यापार में लाभ,लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम से होता है,न की चोरी या हेरा फेरी करने से ,किन्तु जब हम चोरी/बेईमानी(मिलावट)करते है तो पाप कर्म का अनुभाग बढ़ता है,पुण्य का घटता है ,इसलिए लाभांतराय का क्षयोपशम हो नहीं होता, जो की हमारे पुन: लाभ को कम करने में सहकारी होता है !सभी जीवों को अपने कर्मों का हिसाब किताब तो अंतत देना ही पड़ता है इसलिए ईमानदारी से ही व्यापार/नौकरी करनी चाहिए!जिससे नींद भी बढ़िया आएगी,बीमारी नहीं लगेगी,इस तरह बीमारी पर हनी वाला खर्च बचा कर,लाभ ही होगा !जब आप अपने शुद्ध लाभ की गणना की तुलना ईमानदारी से अर्जित लाभ और बेईमानी से अर्जित लाभ से करेंगे तो आपका शुद्ध लाभ ईमानदारी से करे गए व्यापार में अधिक आएगा !

ब्रह्मचर्याणुव्रत के ५ अतिचार-
परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानंगक्रीड़ाकामतीव्राभिनिवेशा:!!२८!!

संधि विच्छेद-परविवाह करण+इत्वरिका परिगृहीतागमन +इत्वरिकाअपरिगृहीतागमन+अनंगक्रीड़ा+काम तीव्राभिनिवेशा:!!
शब्दार्थ-परविवाहकरण-अपने /अपने आश्रितों के अतिरिक्त लोगो का विवाह करवाना,इत्वरिका-बदनाम परिगृहीता-विवाहिता के,गमन-आना जाना,इत्वरिका अपरिगृहीतागमन-बदनाम अविवाहित के आना जाना, अनंगक्रीड़ा काम-काम सेवन के अतिरिक्त अन्य अंगों से वासना पूर्ती करना,कामतीव्राभिनिवेशा:-काम वासना की तीव्र अभिलाषा होना !!
अर्थ- परविवाहकरण ,इत्वरिका परिगृहीता गमन,इत्वरिका अपरिगृहीतागमन अनंगक्रीड़ा, कामतीव्राभिनिवेश ब्रह्मचर्याणुव्रत के ५ अतिचार है!
भावार्थ
१-परविवाहकरण-अपने एएवं अपने आश्रितों के अतिरिक्त अन्यों का विवाह करवाना जैसे बहुत से लोगो का शौक रिश्ते करवाने का होता है,परविवाहकरण ब्रह्म्चर्याणुव्रत का अतिचार है क्योकि अनावश्यक रूप से अब्रह्म पाप में निमित्त हो रहे है !पंडित लोगों को रात्रि में विवाह नहीं करवाने चाहिए अन्यथा उनके दिन में विवाह करवाने में आपत्ति नही है,क्योकि विवाह संस्कार भी आगम में उल्लेखित है !
२-इत्वरिका परिगृहीता गमन-किसी बदचलन स्त्री/पुरष के घर आना जाना,इत्वरिकापरिगृहीता गमन, ब्रह्म्च र्याणुव्रत में अतिचार है !
३-इत्वरिका अपरिगृहीतागमन-बदनाम अविवाहिता स्त्री /पुरुषों के घर आना जाना,(इसमें अविवाहित युवा युवक/युवतियां भी सम्मलित है),इत्वरिका अपरिगृहीता गमन,ब्रह्म्चर्याणुव्रत में अतिचार है !
४-अनंगक्रीड़ा-काम सेवन के अंगों के अतिरिक्त अन्य अंगो से काम क्रीड़ा में लिप्त रहना,ब्रह्मचर्याणुव्रत में अनंगक्रीड़ा, अतिचार है
५-कामतीव्राभिनिवेश-काम वासना की तीव्र अभिलाषा होना ,ब्रह्मचर्याणुव्रतों में कामतीव्राभिनिवेश अतिचार है ! ५०-५५ वर्ष की बाद ब्रह्मचर्याणुव्रतों ले लेना चाहिए ,अष्टमी चतुर्दशी,अष्टाह्निका पर्व,दस लक्षण पर्व में,तीर्थ यात्रा के दौरान संयमित होकर व्रत का पालन करना चाहिए !

परिग्रह परिमाणुव्रत के अतिचार
क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा:!!२९!!
संधि विच्छेद-क्षेत्र+वास्तु +हिरण्य+सुवर्ण +धन+धान्य +दासी+दास +कुप्य+ प्रमाण+अतिक्रमा:!!
शब्दार्थ-क्षेत्र-खेत,वास्तु-मकान,हिरण्य-चांदी,सुवर्ण-सोने के सिक्के/मुद्रा आदि,धन-पशु धन ,धान्य-अनाज, दासी-सेविका,दास-सेवक,कुप्य-कपड़े और बर्तन, प्रमाण -संख्या ,क्षेत्रफल अथवा तौल का अतिक्रमा:-उल्लंघन करना ,!!
अर्थ-खेत-मकान,चांदी और स्वर्ण के सिक्कों,पशुधन-अनाज ,सेवेकिा -सेवक,वस्त्र एवं बर्तनों के,अणुव्रत धारण करते समय निर्धारित करे प्रमाण की सीमा का उल्लंघन करना ,परिग्रह परिमाणुव्रत के पांच अतिचार है !
भावार्थ-
१-क्षेत्र -वास्तु प्रमाणातिक्रम अतिचार-जैसे मान लीजिये अणुव्रत लेते समय १ खेत और १ मकान रखने की व्रती सीमा निर्धारित करता है !कुछ समय पश्चात वह अपने और पड़ौसी के बीच दीवार को तोड़ कर १ ही खेत और मकान कर लेता है तो,यदयपि उसने गिनती का उल्लंघन नहीं किया,किन्तु यह उसके अणुव्रत में अतिचार हो गा क्योकि उसने क्षेत्रफल की निर्धारित सीमा का उल्लंघन करा है तथा उसे संख्या १ का आभास है !यदि संख्या का भी आभास नहीं रहे तो अनाचार होजाता है एयर व्रत ही भंग हो जाएगा !
२-हिरण्य सुवर्ण प्रमाणातिक्रम अतिचार- व्रत धारण करते समय व्रती १० लाख रूपये की मुद्रा का निर्धारित करता है तो उसे जीवन पर्यन्त इतने ही रूपये रखने होंगे ,मुद्रास्फीर्ति के कारण इस सीमा का उल्लंघन करने की सोचने मात्र से व्रत का अतिचार होगा यदि उसने इस सीमा को ५० लाख कर दिया तो अनाचार होगा !सहारनपुर के पंडित रत्न चाँद जी मुख्त्यार ने जो प्रमाण निर्धारित किया था उसको महंगाई के अनुपात में कम करते गए,यहाँ तक की आखिर में उन्हें किसी ने बुलाना होता था, तो वही रिक्शा में उन्हें अपने साथ ले जाता था ! इस व्रती को मुद्रा स्फीर्ति के साथ साथ अपनी इच्छाओं का दमन करना है !
३-धन-धान्य प्रमाणाति क्रम अतिचार-व्रती ने २ गाय और २ भैंस रखने का नियम लिया तो उसको ४ भैस अतः ४ गाय में परिवर्तित नहीं कर सकते अन्यथा व्रत का अतिचार होगा!अनाज का भी जितना नियम में निर्धारित किया उतना ही रखना आवश्यक है !
४-दासी-दास प्रमाणाति क्रम अतिचार-व्रती द्वारा व्रत के समय निर्धारित दासी-दास की संख्या का उल्लंघन करने के सोचने मात्र से व्रत में अतिचार हो जाएगा और यदि उल्लंघन कर दिया तो अनाचार होगा !
५-कुप्य-प्रमाणाति क्रम अतिचार-अनु व्रत धारण करते समय जितने कपड़े एवं बर्तनों के रखने का नियम लिया उसे जीवन पर्यन्त निभाना होता है!परिस्थितियों के अनुसार नियम नही बदलते,व्रती को परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदलना होता है !!
विशेष-श्रावकाचारों में उल्लेखित है की यदि एक गाय गर्भवती हो जाती है तो जिस व्रती ने २ गाय रखने का नियम लिया है उसे १ को बेच देना चाहिए !इसी प्रकार दो कार रखने वाले व्रती को ,यदि कार बदलने की इच्छा है तो नयी कार का एडवांस देने से पूर्व एक कार को बेच देना चाहिए !ये परिग्रह परिमाण व्रत में ५० साड़ी रखने का नियम लिया है तो ५-१० साड़ी कम ही रखनी चाहिए।क्योकि यदाकदा भेंट मे भी मिलती रहती है,उनका समायोजन अपनी निर्धारित संख्या में कैसे हो पायेगा !यह ध्यान में रखने से इस व्रत का निर्दोष पालन हो सकेगा !

दिग्व्रत के अतिचार-
ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रम -क्षेत्र वृद्धि-स्मृत्यन्तरा धनानि !!३०!!
सन्धिविच्छेद -ऊर्ध्व+अधो:+तिर्यग्+व्यतिक्रम+क्षेत्र +वृद्धि+स्मृत्यन्तराधनानि
शब्दार्थ- (ऊर्ध्व+अधो+तिर्यग्) व्यतिक्रम-ऊपर,नीचे और तिर्यग् दिशा का उल्लंघन करना,क्षेत्र वृद्धि-मर्यादित क्षेत्रो को बढ़ा लेना ,स्मृत्यन्तराधनानि-मर्यादा को भूल जाना !
अर्थ-ऊर्ध्व,अधो ,तिर्यग् दिशाओं में नियम लेते समय की सीमा का,व्यतिक्रम+उल्लंघन करना ,क्षेत्र की सीमा को बढ़ा लेना और मर्यादित सीमा को ही भूल जाना ,दिग्व्रत के अतिचार है !
भावार्थ-
उर्ध्व व्यतिक्रम -जीवन पर्यन्त लिए गए दिग्व्रत में ऊपर की दिशा अर्थात पर्वत ,हवाई जहाज से आकाश में उड़ी गई ऊंचाई आदि की सीमा का उल्लंघन करना उर्ध्व व्यतिक्रम है !मानलीजिए ऊपर २५००० फ़ीट का नियम लया है किन्तु हवाई जहाज से ३०००० फुट अकस्मात् जाना पड़ जाए तो यह उर्ध्व व्यतिक्रम अतिचार होगा !
अधो व्यतिक्रम-व्रती ने नियम लेते समय नीचे की दिशा में गमन का ५००फुट का नियम लियाहै किन्तु कही उसे अज्ञानता वश ,इस सीमा से नीचे जाना पड़ जाए तो अधो व्यतिक्रम होता है ,ऐसा होने पर प्रायश्चित लेना पड़ता है !
तिर्यग् दिशा में क्षेत्र वृद्धि व्यतिक्रम -मन लीजिये व्रती २०० किलोमीटर गमन का नियम लेता है ,वह इस सीमा का उल्लंघन करता है तो दिगव्रत में तिर्यग् दिशा में क्षेत्र वृद्धि का अतिचार लगता है !यदि निर्धारित सीमा भूल ही जाता है व्रती तब संरिति अंतरधान अतिचार व्रतों में लगता है !
विशेष-व्रती दिग्व्रत में सीमित दासों दिशाओं का नियम पांच पापो से निवृत होने के लिए लेता है किन्तु यदि इन सीमाओं का उल्लंघन,धार्मिक कार्यों,जैसे तीर्थ यात्रा,पंचकल्याणक,अथवा मुनि के प्रवचन सुनने के लिए किया जाए तो व्रत में अतिचार नहीं होता बशर्ते सीमाओं का उल्लंघन सिर्फ धार्मिक प्रवृत्ति के लिए क्या हो उसके साथ आप व्यापर या मोरंजन के कार्य क्रम नहीं कर सकते!


देशव्रत के अतिचार-
आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गल क्षेपा: !!३१!!
संधि विच्छेद-आनयन+प्रेष्यप्रयोग+शब्दानुपात+रूपानुपात+पुद्गल+क्षेपा:
शब्दार्थ-आनयन,प्रेष्यप्रयोग ,शब्दानुपात,रूपानुपात,पुद्गल-पुद्गल/पत्थर आदि,क्षेपा:-फेंकना
अर्थ-आनयन, प्रेष्यप्रयोग ,शब्दानुपात, रूपानुपात,पुद्गल फेंकना,पांच देश व्रत के अतिचार है !
भावार्थ-
आनयन अतिचार-स्वयं अपने मर्यादित क्षेत्र में रहते हुए,किसी अन्य द्वारा मर्यादित क्षेत्र से वस्तु मंगवाना !व्रत में आनयन अतिचार है!
प्रेष्यप्रयोग अतिचार – स्वयं मर्यादित क्षेत्र में रहते हुए किसी सेवक को उसी कार्यवश,अपने मर्यादित क्षेत्र से बहार भेजकर वस्तु मंगवाना !व्रत में प्रेष्यप्रयोग अतिचार है !
शब्दानुपात अतिचार-स्वयं अपने निर्धारित क्षेत्र में रहते हुए,निर्धरित सीमा के बाहर से फोन से / खांस कर अपना अभिप्राय समझाना ,व्रत में शब्दानुपात अतिचार है !
रुपानुपात अतिचार –
स्वयं अपने निर्धारित क्षेत्र में रहते हुए,मर्यादा से बाहर रह रहे व्यक्ति को अपना रूप दिखाकर इशारा करना ,व्रत में रूपानुपात अतिचार है
पुद्गलक्षेप-स्वयं अपने निर्धारित क्षेत्र में रहते हुए,मर्यादा से बाहर पत्थर /कंकड़ आदि फेंक कर संकेत देना ,व्रत में पुद्गलक्षेप अतिचार है!
अनर्थदंड व्रत के अतिचार-
कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानी!!३२!!
संधि विच्छेद:-(कन्दर्प+कौत्कुच्य+मौखर्या+असमीक्ष्याधिकरण उपभोगपरिभोग)+अनर्थक्यानी!
शब्दार्थ:-कन्दर्पअनर्थक्यं-राग,हास्य सहित अशिष्ट वचन बोलना,कौत्कुच्य अनर्थक्यं-अशिष्ट वचन सहित, शरीर से भी कुचेष्टा करना,मौखर्या अनर्थक्यं-धृष्टता पूर्वक आवश्यकता से अधिक बाते करना,असमीक्ष्याधि करण अनर्थक्यं-निष्प्रयोजन मन,वचन,काय की प्रवृति करना,उपभोगपरिभोग अनर्थक्यं-भोगोपभोग सामग्री आवश्यकता से अधिक एकत्रित करना,अनर्थक्या-,नी-आवश्यकता से अधिक,अनर्थदंड व्रतों के ५ अतिचार है !
अर्थ:-कन्दर्प अनर्थक्यं,कौत्कुच्यअनर्थक्यं,मौखर्या अनर्थक्यं,असमीक्ष्याधिकरण अनर्थक्यं, उपभोग परिभोग अनर्थक्यं,अनर्थ दंड व्रत के ५ अतिचार है!
विशेष-
कन्दर्प अनर्थक्यं-हास्य सहित शिष्ट वचन बोलना ;जैसे किसी को गाली देना/भांड कहना,/ मज़ाक बनाना आदि ,
कौत्कुच्यअनर्थक्यं-कुचेष्टा करते हुए अशिष्ट वचन बोलना ,
मौखर्या अनर्थक्यं-धृष्टता पूर्वक आवष्यकता से अधिक वचन बोलना
असमीक्ष्याधिकरण अनर्थक्यं-जैसे निष्प्रयोजन मन वचन काय की प्रवृत्ति करना जैसे निष्प्रयोजन घूमना,जल के नल को खुला छोड़ना,अपनी धींग मारते रहना,किसी के अनहित के लिए मन से चिंतन करना आदि
उपभोगपरिभोग अनर्थक्यं-आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग सामग्री एकत्रित करना जैसे ३-४-६ माह के लिए अनाज एकत्र कर रख लिया की कल महंगा न हो जाए,एक कार की आवश्यकता है किन्तु मान की पुष्टि हेतु ३-४ गाड़ी खरीद ली ,ये पाँचों प्रवृत्तियाँ अनर्थ दंड के अतिचार हैं !


समायिक शिक्षा व्रत के अतिचार-
योगदुष्प्रणिधानादरस्मृत्यनुपस्थानानि !!३३!!
संधि विच्छेद:- योग-दुष्प्रणिधान+अनादर+स्मृति+अनुपस्थाननि
शब्दार्थ:-योग-,मन वचन,काय,दुष्प्रणिधान-अच्छे भाव नहीं होना,अनादर-सामायिक आदर पूर्वक/उत्साहपूर्वक नहीं करना , स्मृति -भूल जाना,अनुपस्थाननि
अर्थ:-तीन मन वचन काय योग दुष्प्रणिधान अनुपस्थान ,अनादर अनुपस्थान और स्मृति अनुपस्थान , समायिक व्रतों में पांच अतिचार है
भावार्थ-मनोयोग दुष्प्रणिधान् अतिचार-सामयिक में बैठे है किन्तु चिंतवन अपने किसी मुक़दमे का कर रहे है!यह समायिक व्रत में मनोयोग दुष्प्रणिधान् अतिचार है !
वचन योग दुष्प्रणिधान् अतिचार-समायिक करते करते कुछ का कुछ बोलना या बिना अर्थ जाने बोलना, समायिक व्रत में वचनयोग दुष्प्रणिधान् अतिचार है !
काययोग दुष्प्रणिधान् अतिचार-समायिक करते समय आसान में निश्चलता से नहीं बैठना ,हिलना डुलना आदि समायिक व्रत में काययोग दुष्प्रणिधान् अतिचार है!
अनादर अनुपस्थान अतिचार-आदरभाव/उत्साह रहित होकर समायिक करना,अनादर अनुपस्थान अतिचार है !
स्मृति अनुपस्थान अतिचार-समायिक करते समय पाठ एकाग्रता के अभाव में भूलना/अपने आत्मस्वरुप के विषय में भूलकर,आगम विरुद्ध मनन करना,समायिक व्रत में स्मृति अनुपस्थान अतिचार है !
विशेष-अपने सामायिक व्रतों के निर्दोष पालन हेतु उक्त अतिचारों से सर्वथा बचना चाहिए !सामायिक सैदव एकांत में एक,घड़ी का संकल्प लेकर करी जाती है!इसमें णमोकारमंत्र आदि नहीं पढ़ते बल्कि अपने आत्मस्वरुप का चिंतवन किया जाता है!जैसे;-मेरी आत्मा क्या है?मैं कौन हूँ,?कहा से आया हूँ ?मेरा क्या उद्देश्य है ,?कहाँ जाऊँगा ?क्यों आया हूँ ?आदि का चिंतवन करते है!


प्रोषधोपवास व्रत में अतिचार –
अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानि!!३४!!
संधि विच्छेद:-अप्रत्यवेक्षित+अप्रमार्जित+ उत्सर्ग+आदान+संस्तरोपक्रमण+अनादर+ स्मृति+अनुपस्थानि
शब्दार्थ-अप्रत्यवेक्षित-बिना देखे,अप्रमार्जित-बिना शोधे, उत्सर्ग-मल मूत्र त्यागना, आदान-रखना, संस्तरोप क्रमण-धार्मिक कार्य की आवश्यक वस्तुए जैसे चटाई नही बिछाना,अनादर-उत्साह रहित भाव होना, स्मृति-भूलवश, अनुपस्थानि-नहीं करना
अर्थ-अप्रत्यवेक्षित,अप्रमार्जित,उत्सर्ग,अनुपस्थान;अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित आदान अनुपस्थान;अप्रत्यवेक्षित, अप्र मार्जित संस्तरोपक्रमण अनुपस्थानं;अनादर अनुपस्थान,स्मृतिअनुपस्थान,प्रोषधोपवास व्रत के ५ अतिचार है
भावार्थ-अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित उत्सर्ग अनुपस्थान-बिना देखे शोधी भूमि पर मल मूत्र त्यागना!
अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित आदान अनुपस्थान-बिना देखे शोधे पूजा की सामग्री,वस्त्र ,उपकरण उठाना!
अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण अनुपस्थान-बिना देखे और शोधे चटाई आदि बिछाना!
अनादर अनुपस्थान -उपवास के कारण उत्साहपूर्वक आवश्यक कार्य नहीं करना !
स्मृतिअनुपस्थान -आवश्यक धार्मिक कार्यों को भूलना !
विशेष – प्रोषधोपवास व्रत के निर्दोष पालन के लिए उक्त ,पांच अतिचारों से सर्वथा बचना चाहिए !


भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार –
सचित्त सम्बन्ध सम्मिश्राभिषव दु:पक्वाहारा:!!३५!!
संधि विच्छेद-(सचित्त+सम्बन्ध+सम्मिश्रा+अभिषव दु:पक्व)+आहारा:
शब्दार्थ-सचित्त-जीव सहित ,सम्बन्ध-संबंध,सम्मिश्रा-मिश्रित,अभिषव-गरिष्,दु:पक्व-हीनाधिक पके,आहारा:-आहार ग्रहण करना
अर्थ सचित्त आहार,सचित्त सम्बन्ध आहार,सचित्तसम्मिश्राहार,अभिषव आहार, दु:पक्व आहारा,भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार है !
भावार्थ-
सचित्त आहार,-चेतन/जीव अंकुर सहित आहार ग्रहण करना!
सचित्त सम्बन्ध आहार-सचित वस्तु से सम्बन्ध प्राप्त आहार ग्रहण करना ,
सचित्तसम्मिश्राहार-सचित वस्तु से मिश्र वस्तु का आहार ग्रहण करना
अभिषव आहार-गरिष्ट आहार ग्रहण करना ,
दु:पक्व आहारा-हीनाधिक पक्के आहार को ग्रहण करना !
उक्त पांच अतिचार ,भोगोपभोग परिमाण व्रत के है जिनसे निर्दोष व्रतों के पालन के लिए सर्वथा बचना चाहिए !
अतिथि संविभाग शिक्षा व्रत के अतिचार-
सचित्तनिक्षेपापिधान परव्यपदेश मात्सर्य कालातिक्रमा:!!३६!!
संधि विच्छेद-सचित्तनिक्षेप+सचित्त अपिधान +परव्यपदेश +मात्सर्य + काल+अतिक्रमा:!! शब्दार्थ:-सचित्तनिक्षेप-सचित्त पत्ते पर आहार रख कर देना,
शब्दार्थ-सचित्तनिक्षेप- सचित पत्रादि पर आहार रख कर देना
सचित्त अपिधान-सचित्त पत्ते से ढका हुआ आहार देना ,
पर व्यपदेश०-दुसरे दाता की वस्तु दान देना / अपनी वस्तु अन्य से दान दिलवाना ,
मात्सर्य-ईर्ष्या अथवा अनादर पूर्वक आहार देना ,
काल-काल बेला प्रात: १०-१०,४५ बजे का,
अतिक्रमा- योग्य काल ( प्रात: १०-१०,४५ बजे) का उल्लंघन कर अकाल में दान देना ,अतिथि संविभाग व्रत के ५ अतिचार है !
अर्थ-सचित्तनिक्षेप,सचित्त अपिधान,परव्यपदेश ,मात्सर्य और कालतिक्रम,अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार है
भावार्थ-अतिथि संविभाग के निर्दोष पालन के लिए सचित्तपत्ते पर रखकर अथवा उससे ढके हुए आहार को अनादर भाव से आहार बेला में अपने दान को दुसरे के हाथ से अथवा दुसरे का दान अपने हाथ से देना,अथवा अकाल में दान देना ,अतिथि संविभाग व्रत के पांच अतिचारों है जिनसे सर्वथा बचना चाहिए !


सल्लेखना के अतिचार –
जीवित मरणाप्रशंसा मित्रानुराग सुखानुबन्ध निदानारि !!३७!!
संधि विच्छेद -जीवितशंसा + मरणाशंसा +मित्र+अनुराग +सुख+अनुबन्ध +निदानारि
शब्दार्थ-जीवितशंसा-जीने की वांछा रखना,मरणाशंसा-कष्टो के कारण जल्दी मरण की इच्छा रखना, मित्रानुराग-मित्रो से अनुराग रखना, सुखानुबन्ध-पहले भोगे सुखों का स्मरण करना, निदानारि -आगामी कालों में भोगो की वांच्छा होना
अर्थ-जीवित, मरणाप्रशंसा मित्रानुराग सुखानुबन्ध निदान ,सल्लेखना व्रत के ५ अतिचार है !
भावार्थ-
जीवितशंसा निदानम्-सल्लेखना धारण करने बाद जीवित रहने की वांच्छा होना,जैसे एक दो दिन पुत्र के विदेश से लौटने तक जीवित रहने की वांच्छा होना,सल्लेखना व्रत में जीवितशंसा अतिचार है !
मरणांशा निदानम्-सल्लेखना की वेदना अथवा रोग-बेड सोर आदि की वेदना के कारण शीघ्र मरने की वांच्छा होना, सल्लेखना व्रत में मरणांशा अतिचार है
मित्रानुरागनिदानम्-मित्रों से अनुरागवश समाचार भेज कर,मृत्यु से पूर्व एक बार आकर मिलने का आग्रह करना सल्लेखनाव्रत में मित्रानुराग अतिचार है !
सुखानुबन्धनिदानम् -पूर्व में भोगे गए सुखो को याद करना जैसे फिले शरीर कितना तंदरुस्त था और अब कितना सुब्दर रह गया ,सल्लेखना व्रत में सुखानुबन्ध अतिचार है !
निदनानि -भविष्य में मरणोपरांत सुखों की वांच्छा रखना जैसे स्वर्ग की प्राप्ति हो ,सल्लेखना व्रत में निदान अतिचार है
सल्लेखना व्रत के निर्दोष पालन के लिए उक्त अतिचारों से सर्वथा बचना चाहिए !
विशेष:-
जीने की न हो वांच्छा, -जीवितशंसा
मरने की न हो इच्छा -मरणशंसा
परिवार मित्रजन के राग मै हटाऊँ,मित्रानुराग
भोगे जो भोग पहिले उनका न होवे स्मरण!सुखानुबन्ध
मै राज्य सम्पदा या पद के न चाहूँ ! निदान
इन भावों से सल्लेखना धारण करने से ७-८ भव में मोक्ष सुनिश्चित है !
शंका:-क्या सल्लेखना आत्म हत्या नहीं है?
समाधान-आत्म हत्या तनाव (टेंशन) में तीव्र काषायवश करी जाती है,सल्लेखना स्वेच्छा (इंटेंशन) से कषायों की धीरे धीरे कृशता कर ली जाती है,इसमें कषायमंद से मन्दतर होती जाती है!अंतत: शून्य होती है!आचार्यों ने लिखा है कि “मेरे धर्म में दोष न लगे इसलिए मै सल्लेखना धारण करता हूँ!”अत: यह आत्महत्या नहीं है !
शंका-हम नित्य प्रति वांच्छा करते है तो क्या हमारा निदान अतिचार वाली सल्लेखना होगी ?
समाधान-निदान का अर्थ वर्तमान अथवा भविष्य भवों में सांसारिक भोगों की वांच्छा है !हम पूजा के अंत में कहते है:-
दुःख खओ-जन्म,जरा,मरण दुखों का अंत हो,कमोखओ-(द्रव्य,भाव,और नो) कर्मों का क्षय हो,
बहुलाभ होओ-रत्नत्रय का लाभ हो,शुभ गमनम -शुभ गति में गमन हो,महामरणम्-समाधी मरण हो,भगवान के गुणों की सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो! इसमें आत्मकल्याण का भाव;जन्म,जरा,मरण का क्षय कर्मों का क्षय होने की भावना है!यह प्रशस्त भावना सभी आचर्य,मुनि,आदि करते है इनमे सांसारिक सुखो अथवा भोगों की वांच्छा नहीं है इसलिए निदान नहीं है !

दान में विशेषता –
अनुग्रहार्थं स्वस्यतिसर्गो दानम् !!३८!!
संधि विच्छेद:-अनुग्रहार्थं+स्वस्य+अतिसर्गो +दानम्
शब्दार्थ:-अनुग्रहार्थं-अपने और पर के उपकार के लिए,स्वस्य-अपनी वस्तु (धनादि) का,अतिसर्गो-देना ,दानम्-दान है
अर्थ:-स्वयं और पर के उपकार हेतु अपनी वस्तु को देना दान है !
भावार्थ:-अपने और पर के कल्याण के लिए अपनी वस्तु त्यागना/देना दान है ,दुसरे की वस्तु को देना दान नहीं है! दान सदैव अपने उपकार; पुण्यबंध के रूप में तथा पर का उपकार; उनकी धर्म साधना के रूप में सहायक होता है !
विशेष:-श्रावक के षटआवश्यकों में और दस धर्मों में आठवा धर्म दान है!आध्यात्मिक दृष्टि से राग-द्वेष,कषा- यों का आत्मा से पृथक होना तथा आत्मशुद्धि के उद्देश्य से विकारी भावो का पृथक होना; त्याग है!स्व-पर की उपकार दृष्टि से अपनी वस्तुओं धनादि का ममत्व भाव छोड़कर अन्य जीवों की सहायता के लिए दान देना है !सम्पूर्ण वस्तु छोड़ना त्याग धर्म है और उसका अंश छोड़ना दान है !
सर्वश्रेष्ठ दान-आहारदान का प्रभाव मात्र २४ घंटे रहता है,उसके बाद पात्र को पुन:आहार की आवश्यकता होती है, औषधिदान,रोग के निवारण तक उपयोगी है,अभयदान में धर्मशाला ,निवास आदि तब ही तक कार्यकारी है जब तक पात्र उसमे निवास करते है किन्तु ज्ञान दान जन्मों जन्मो तक जीव के साथ रहता है इसलिए सर्वश्रेष्ठ दान ज्ञान दान है !
शंका-क्या अन्याय से अर्जित किया द्रव्य दान देना दान है?
समाधान -इस प्रकार अर्जित किया द्रव्य दान देने पर दान की परिभाषा के अंतर्गत तो आता है,दाता ने अपनी वस्तु से ममत्व भाव छोड़ा है,पुण्य भी मिलेगा लेकिन उसी डिग्री का मिलेगा जिस डिग्री से वह कमाया हुआ है क्योकि अन्याय से अर्जित किया हुआ द्रव्य निश्चित रूप से अनेक जीवों की भाव/द्रव्य हिंसा कर अर्जित किया होगा !यदि कोई यह दान दाता सोचता है की पूरे वर्ष खूब पापकर्म कर धन अर्जित करो और वर्ष के अंत में उसमे से कुछ द्रव्य दान देने से वह पापों से मुक्त हो जाएगा तो ऐसा नहीं है!जैनदर्शन में पाप और पुण्य अलग अलग चलते है पापकर्म को पुण्यकर्म काटता नहीं है!आचार्यों ने दान के सन्दर्भ में कहा है की जब कभी आवश्यकता से अधिक धन सही तरीकों से आये तब दान करे ,वह कार्यकारी होगा अन्यथा गलत ढंग से अर्जित किया धन कार्यकारी नहीं होगा !
दान में विशेषता-
विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेष:!!३९!!
संधि विच्छेद-विधि+द्रव्य+दातृ+पात्र+विशेषात्त+द्विशेष
शब्दार्थ:-विधिविशेष-नवधा भक्ति आदि विधि,द्रव्यविशेष-द्रव्य की सात्विकता इत्यादि,दातृविशेष-दाता की श्रद्धा/भक्ति आदि,पात्रविशेष-पात्र विशेष अर्थात ब्रह्मचारी,आचार्य ,गणधर आदि की विशेषात्त – विशेषता द्विशेष-दान में विशेषता आती है
अर्थ:-विधिविशेष,द्रव्यविशेष, दाता विशेष और पात्र विशेष से दान में विशेषता आती है !
भावार्थ:-
विधि विशेष-अतयंत उत्साहपूर्वक आहार बनाकर,नवधा भक्ति पूर्वक (पड़गाहन,उच्च आसान, पाद प्रक्षालन, पूजा,नमोस्तु,मन,वचन,काय,आहार जल शुद्धि की प्रतिज्ञा) और आदर पूर्वक विशुद्ध आहारदान देने के उपरान्त आरती करने से ,दान का फल अधिक मिलेगा,
द्रव्य विशेष-द्रव्य; पात्र के स्वास्थ्य,शरीर,मौसम के अनुकूल होने पर द्रव्य विशेष माना जाता है!जैसे मुनिराज को ज्वर होने पर लौकी,तौरी,रोटी आहार में देने से अधिक पुण्यार्जन होगा बजाये घी से परिपूर्ण हलवा/दाल बाटी देने से !आहार आगमानुकूल निर्दोष,४६ दोषों रहित बना होना चाहिए,रात्रि में नहीं बना हो,आटा रात्रि में पिसा न हो,जल रात्रि में गर्म नहीं किया होना चाहिए!इस प्रकार का आहार में द्रव्य विशेष गुण होंगे !
दाता विशेष- क्षमाशील,विवेकशील,श्रद्धावान,भक्त अलोलुप्त ,संतोषी ,शक्तिवान दाता के सात गुण है !दाता को ज्ञान भी होना चाहिए कि कौन से द्रव्य के बाद कौन सा द्रव्य आहार में देना है!वृद्ध महाराज के यथायोग्य आहार देना चाहिए जिससे वे अपने दांतों से सरलता से चबा सके !दाता में उपयुक्त गुणों में से जितने अधिक होंगे दान का फल उतना अधिक मिलेगा !
पात्र विशेषता-ब्रह्मचारी जी ,क्षुल्लक जी/क्षुल्लिकजी,ऐलाकमहाराज,आर्यिकामाताजी,मुनिमहाराज उपाध्याय महाराज,आचर्यश्री,तीर्थंकर/केवली को आहार दान देते समय, दाता के क्रमश: भावों में उत्तरोत्तर वृद्धिगत वि- शुद्धि होने से उत्तरोत्तर अधिक दान का लाभ मिलता है !
विशेष:
१-पात्रो में -उत्तम-तीर्थंकर,मध्यम गणधर ऋद्धिधारी ऋषिराज,जघन्य-सामान्य भावलिंगी मुनि,जो मुनि राज २८ मूल गुणोँ का पालन करते हुए चर्या करते हों वे उत्तम पात्र की जघन्य कोटि में आते है ! !
मध्यम पात्र के तीन भेद -१-ऐल्लक,क्षुल्लक,प्रतिमधारी
जघन्य पात्र के तीन भेद-उत्तम-क्षायिक सम्यग्दृष्टि,मध्यम-औपशमिक सम्यग्दृष्टि,जघन्य-क्षयोपशमिक सम्यग्दृष्टि!
कुपात्र-जिन्होंने व्रतों को धारण तो किया है किन्तु आगमानुकूल २८ मूल नहीं पालते, उनकी चर्या नहीं है !
कुपात्रों के तीन भेद-उत्तम-द्रव्यलिंगी मुनि,माध्यम-द्रव्यलिंगी अणुव्रती,जघन्य-अगृहीत मिथ्यदृष्टि
अपात्र-जिनके चारित्र ही नहीं है
अपात्र तीन भेद-उत्तम-परिग्रही मुनि,मध्यम-भाव और चरित्र से हींन गृहस्थ,जघन्य-गृहीत और अगृहीत मिथ्यात्व सहित !
उत्तम पात्र को दिए गए दान का फल उत्तम कोटि का है,जो की जघन्य पात्र तक क्रमश घटता जाता है
कुपात्र को दिया दान कुगति में ले जाने वाला है !अपात्र को दिया दान उपयोगी नहीं है !
मुनि महाराज की नवधा भक्ति सहित किन्तु ऐल्लक,क्षुल्लक,आर्यिका माता जी के पाद प्रक्षालन एवं आरती की आवश्यकता नहीं है!उनकी परिक्रमा भी नहीं ली जाती !उन्हें पड़गाहन कर अंदर घर में लाया जाता है !प्रतिमधारियों को मन वचन काय शुद्ध है कहकर ही आहार दिया जाता है !

अधिक जानकारी के लिए …. 

अध्याय 1 | अध्याय 2 | अध्याय 3 | अध्याय 4 | अध्याय 5 | अध्याय 6 | अध्याय 7 | अध्याय 8 | अध्याय 9 | अध्याय 10

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2 thoughts on “तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra) अध्याय 7

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