जीव का तत्व/ असाधारण -भाव

औपशमिकक्षायिकौभावौमिश्रश्चजीवस्य् स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिकौच -१
संधि विच्छेद –
औपशमिक+क्षायिकौ+भावौ+मिश्र:+च +जीवस्य्+ स्वतत्त्वं +औदयिक+ पारिणामिकौ+च
शब्द्दार्थ –
औपशमिक-औपशमिक,क्षायिकौ-क्षायिक ,भावौ-भाव, मिश्र+च -और मिश्र अर्थात क्षयोपशमिक ,जीवस्य्-जीव के, स्वतत्त्वं-स्वतत्व अर्थात निजी भाव है, औदयिक-औदयिक परिणामिकौ-पारिणामिक ,च -और
अर्थ- जीव के औपशमिक ,क्षायिक और मिश्र अर्थात क्षायोपशमिक ,औदायिक और पारिणामिक,ये पांच निजी भाव है!
औपशमिकभाव -कर्म के उपशम से जो आत्मा में भाव होता है औपशमिक भाव है !
क्षायिकभाव -कर्मों के क्षय से जो आत्मा में भाव होता है ,वह क्षायिक भाव है और
मिश्र/ क्षायोपशमिकभाव-कर्मों के क्षयोपक्षम से आत्मा का भाव होता है क्षयोपशमिक भाव है!
औदायिक भाव -कर्मो के उदय से आत्मा को जो भाव होता है ,औदयिक भाव है !और
पारिणामिकभाव- कर्मो के उपशम,क्षयोपशम ,क्षय और उदय के अभाव में,भाव पारिणामिक भाव है !
उपशम-द्रव्य ,क्षेत्र,काल ,भाव के निमित्त से कर्म की शक्ति के प्रगट न होने के उपशम कहते है !जैसे जल से मल का निर्मली के संयोग ओर बैठ जाना !
क्षय-कर्म के सर्वथा विनाश को क्षय कहते है !जैसे जल से मल को छान कर अलग कर लेना ,सर्वथा स्वच्छ करना !
क्षयोपशम-सर्वघाती स्पर्धकों का उद्याभावी क्षय तथा आगे उदय में आने वाले निषेको का सत्ता में उपशम और देशघाती स्पर्धकों का उदय होने को क्षयोपशम कहते है !जैसे कुछ मल निकल जाने पर कुछ बने थने पर मल की क्षीण क्षीण वृत्ति होना!
कर्म की अपेक्षा आत्मा के भाव:-
मोहनीय कर्म की उपशम,क्षय,क्षयोपशम और उदय ,चार अवस्था में चार भाव होते है।
ज्ञानावरण ,दर्शनावरण और अंतराय कर्म की क्षयोपशम,क्षय और उदय तीन अवस्था होती है अत: तीन भाव होते है और शेष चार कर्मों की उदय दो अवस्था होती है अत:दो भाव होते है !


भावो के भेद –
द्विनवाष्टादशैंकविंशतित्रि भेदायथाकर्मम्-२
संधि विच्छेद –
द्वि+नव+अष्टादश+एकविंशति+त्रि+ भेदा+यथाकर्मम्
शब्दार्थ –
द्वि-दो,,नव-नौ, अष्टादश-अट्ठारह,एकविंशति इक्कीस ,त्रि-तीन , भेदा+-भेद यथाकर्मम्-क्रमश: है
अर्थ-औपशमिक,क्षायिक ,क्षोपशमिक,औदायिक और पारिणामिक भावों के क्रमश:२,९,18. १ और तीन भेद है इस प्रकार कुल ५३ भाव होते है !


सम्यक्त्वचारित्रे -३
संधि विच्छेद – सम्यक्त्व+चारित्रे
अर्थ-औपशमिक भाव के ,औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यकचारित्र ,दो भेद है !
विशेष –
१-औपशमिक सम्यक्त्व-चारित्र मोहनीय की अनंतानुबंधी चतुष्क; क्रोध,मान,माया,लोभ और दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व,सम्यकमिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से जो आत्मा में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह औपशमिक सम्यक्त्व है !
२-औपशमिकचारित्र-चारित्र मोहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों; १२ कषाय की अप्रत्यख्यानावरण,प्रत्याख्या नावरण और संज्वलन क्रोध ,मान,माया,लोभ तथा ९ नो कर्म के उपशम से जो चारित्र होता है वह औपशमिक चारित्र है !


क्षायिक भाव के भेद –
ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणिच -४
संधि विच्छेद –
ज्ञान+दर्शन+दान+लाभ+भोग+उपभोग+वीर्याणि+च –
शब्दार्थः-क्षायिक ज्ञान-केवल ज्ञान,क्षायिक दर्शन-केवल दर्शन ,क्षायिक दान,लाभ,भोग,उपभोग ,वीर्य ,च-ऊपर के दोनों क्षायिक सम्यक्त्व और क्षयिक्चारित्र
अर्थ-क्षायिकभाव के ज्ञान(केवलज्ञान),दर्शन(केवल दर्शन,क्षायिक दान.क्षायिकलाभ,क्षायिकभोग,क्षायिक उपभोग, क्षायिकवीर्य च-और क्षायिक सम्यक्त्व और क्षयिक्चारित्र (ऊपर के सूत्र से लिए है ),इस प्रकार कुल ९ भेद क्षायिक भाव के है!
विशेष –
केवल ज्ञान -ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है
केवल दर्शन -दर्शनावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है !
क्षायिक (दान ,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्य ),अंतराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होते है
क्षायिक सम्यक्त्व -सात प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न होता है
क्षायिक चारित्र -चारित्र मोहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों; १२ कषाय की अप्रत्यख्यानावरण,प्रत्याख्या नावरण और संज्वलन क्रोध ,मान,माया,लोभ तथा ९ नोकर्म के क्षय से जो चारित्र होता है वह क्षायिकचारित्र है
जीव तत्व के क्षायोपशमिक भाव के १८ भेद :-


क्षायोपशमिकभाव के अट्ठारह भेद –
ज्ञानाज्ञानदर्शनलबध्यश्चतुस्त्रीत्रिपञ्चभेदा:सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च -५
संधिविच्छेद-ज्ञान+अज्ञान+दर्शन+लबध्य:+चतु:+त्रि+त्रि+पञ्च+भेदा:सम्यक्त्व+चारित्र+संयमासंयमा+च
४ ३ ३ ५ १ १ १ =१८
अर्थ-क्षायोपशमिकभाव के सम्यगज्ञान, अज्ञान(मिथ्या ज्ञान) ,दर्शन,लब्धि के क्रमश:४,३,३,५ भेद है सम्यक्त्व,चारित्र और संयमासंयम ,ये अट्ठारह भेद है !
भावार्थ-चार ज्ञान;मति,श्रुत,अवधि, मन:पर्ययज्ञान ,३अज्ञान ; कुमति, कुश्रुत, कुअवधि , तीन दर्शन; चक्षु, अचक्षु, और अवधि, पांच लब्धियां; दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य,सम्यक्त्व,चारित्र और संयमासंयम ,कुल १८ क्षयोपशमिक भाव है !क्योकि ये अपने प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से होते है !
विशेष –
१- चार क्षयोपशमिक ज्ञान भाव ;वीर्यान्तराय और अपने २ प्रतिपक्षी मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्यय; ज्ञानावरण संबधी वर्तमानकालीन सर्वघाती स्पर्धकों का उदयभावी क्षय,आगामी कालीन उन्ही का सदावस्था रूप उपशम,उनके ही देशघाती स्पर्धकों के उदय ,इन के निमित्त में उतपन्न हुए आत्मा के मति ,श्रुत,अवधि और मन:पर्यय चार ज्ञान, क्षयोपशमिक ज्ञान भाव होते है! ये चारों ज्ञानावरण के देश घातिया स्पर्धकों के क्षयोपशम से होते है जबकि केवलज्ञान,केवलज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षय से ही होता है उनका क्षयोपशम नहीं होता !
२- मिथ्यादर्शन के उदय की निमित्त में आत्मा को तीन ३ क्षयोपशमिक अज्ञान भाव ; कुमति कुश्रुत कुअवधि प्रगट होते है ! इनके ज्ञान गुण का अंश प्रगट है, प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से ये भाव होते है !
३-अपने अपने प्रतिपक्षी दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से व्यक्त आत्मा के तीन क्षयोपशमिक दर्शन; चक्षु अचक्षु और अवधि होते है !इनके देश घाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होते है !इनमे दर्शन गुण का अंश है इसलिए क्षयोपशम होता है
४- आत्मा के ५ क्षयोपशमिक लब्धिया; दान ,लाभ,भोगोपभोग और वीर्य क्रमश: दानंतराय , लाभान्तराय, भोगोपभोग अंतराय और वीर्य अंतराय कर्म के क्षयोपशम की निमित्त में होते है!ये देशघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होते है !
५-क्षयोपशमिक सम्यक्त्व भाव – मिथ्यात्व रूप तीन दर्शनमोहनीय;मिथ्यात्व,सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति और चार अनंतानुबंधी क्रोध ,मान,माया ,लोभ कषाय;सात कर्म प्रकृतियों के क्षयोपशम की निमित्ता में हुआ तत्वार्थ श्रद्धान रूप आत्मा / जीव का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भाव होता है !
६-क्षयोपशमिकचारित्र भाव ; चारित्र मोहनीय के अप्रत्यख्यानावरण ,प्रत्यख्यानावरण और संज्वलन क्रोध,मान,माया लोभ कषायों १२ प्रकृतियों के सर्वघाति स्पर्धकों के उदयभावी क्षय,उन्ही का सदावस्था रूप उपशम तथा संज्वलन कषाय के देशघाती स्पर्धकों और यथासम्भव नो कषाय के उदयरूप क्षयोपशम की निमित्ता में प्रगट हुआ आत्मा का पर द्रव्यों से निवृत्ति रूप स्वरुप -स्थिरतामय भाव क्षायोपशमिक चारित्र है !सातवे/छट्टे गुणस्थानव्रती में मुनि राज के प्रगट चारित्र से आत्मा के यह भाव होता है और
७-क्षायोपशमिकसंयमासंयम भाव ; अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क ; क्रोध मान माया और लोभ का उदयाभावी क्षय ,सदवस्था रूप उपशम तथा प्रत्यख्यानावरण और संज्वलन क्रोध,मान,माया लोभ कषायों और यथा सम्भव नोकषायों के उदयरूप क्षयोपशम की निमित्ता में प्रगट हुआ आत्मा का विरताविरत मय भाव क्षायोपशमिक संयमासंयम ! पांचवे गुणस्थानव्रती जीवो का यह भाव होता है!संयमसंयम प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम से होते है !
अपने प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम की निमित्ता में प्रगट हुए ये क्षयोपशमिक भाव १८ ही है हीनाधिक नही !
८ -औपशमिक और क्षायिक भाव मे पूरा गुण प्रगट हो जाता है !
९-एक इन्द्रियजीव के ८ भाव होते है ,नारकी और देवों के ३ ज्ञान,३ दर्शन,५ लब्धिया, कुल ११ तथा १२ अधिकतम भाव सम्यकत्व होने पर होते है
१०-देशघाती कर्मों के स्पर्धकों का ही क्षयोपशम होता है!गुण अंशत: जैसे ज्ञान ,दर्शन,चारित्र ,और दान,लाभ,भोगोपभोग,वीर्य गुण अंशत: प्रगट होते है!
११–क्षयोपशम के सदर्भ में, १-उदयभावी क्षय-वर्तमान कालीन सर्वघाती स्पर्धकों की रसोदय रूप फल दिए बिना ही प्रदेशोदय रूप निर्जरा होती रहती है,यह उदयाभावी क्षय है!२-सदवस्था रूप उपशम -आगामी कालीन सर्वघाती स्पर्धक ,अपनी अपनी स्थिति पूर्ण कर अपने अपने उदय काल में फल दिए बिना ही प्रतिसमय प्रदेशोदय रूप से निर्जरित होते रहते है ,यह सदवस्था रूप उपशम है!३-उदय- देशघाति स्पर्धक प्रति समय अपने अपने रूप रस फल देते हुए ,उदय में आकर निर्जरित होते जाते है ,यही उदय है ! इन तीनों रूप एक साथ कर्मों का परिणमन क्षयोपशम है,तथा उस संबंधी जीव का परिणमन ,क्षायोपशमिक भाव है !
१२-स्पर्धक किसे कहते है –
संक्षेप में कर्माण वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते है !
विस्तार से-जीव के प्रति समय सिद्धराशि के अनंतवे भाग अथवा अभव्यराशि से अनन्तगुणे गुणे कर्म परमाणु उदय में आते है !इनमे से जघन्यतम गुण वाले परमाणु के अनुभाग(फल दान शक्ति) का बुद्धि से छेदन करने पर, शेष रहे अंतिम अविभागी प्रतिच्छेद सर्व जीव राशि से अनंत गुणे है !उनके समूह को वर्ग कहते है !
समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणु का समूह जघन्य वर्ग है ;
इन जघन्य वर्गों का समूह जघन्य वर्गणा है !
जघन्य वर्ग से जिनमे एक अविभागी प्रतिच्छेद अधिक है,उन परमाणुओं के समूहमय वर्ग का समुदाय द्वितीय वर्गणा है !इस प्रकार ,एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि के क्रम वाली कर्म वर्गणाओंं को जघन्य स्पर्धक कहते है !
इससे आगे ,जघन्य वर्गणा के वर्गो में जितने अविभाग प्रतिच्छेद है;उनसे दुगने जिस वर्गणा के वर्ग में अविभाग प्रतिच्छेद है ;वहा से दूसरा स्पर्धक प्रारम्भ होता है !इसमें भी एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि के क्रमवाले वर्गों के समूहमय वर्गणाओं के समुदाय को द्वितीय स्पर्धक कहते है !
प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के वर्ग में जितने अविभाग प्रतिच्छेद है ;उससे तीन गुने जिस वर्गणा के वर्गों में अविभाग प्रतिच्छेद है ;वहां से तृतीय स्पर्धक प्रारम्भ होता है !इसी प्रकार से और भी वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते है!एक उदय स्थान में अभव्यराशि से अनन्तगुणे या सिद्धराशि के अनंतवे भाग प्रमाण स्पर्धक होते है !
ये सभी स्पर्धक दो प्रकार है -सर्वघाति और देशघाति !जिनके उदय की निमित्ता में, आत्मा के तत्संबंधी गुण की किंचित भी प्रगटता नही होती है वे सर्वघाति स्पर्धक है !तथा जिनके उदय की निमित्ता में आत्मा के तत्संबंधी गुण की कुछ प्रगटता होती है ,वे देशघाति स्पर्धक है !
उक्त सूत्र संबंधी १२ विशेषों में उल्लेखित परिभाषाये कंठस्थ कर लेनी चाहिए !आगे जैन धर्म को समझने में उपयोगी होंगी


जीव का तत्व /औदयिक भाव के २१ भेद –
गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश् चतुस्त्रयेकैकैकैकषड्भेदा:६
४ ४ ३ १ १ १ १ ६ =२१
संधि विच्छेद-
गति+कषाय+लिंग+मिथ्यादर्शन+अज्ञान+असंयत+असिद्ध+लेश्या:+चतु:+चतु:+त्रि:+कै+कै+कै+क+षड्भेदा:
शब्दार्थ- ४ गति ,४ कषाय,३ लिंग,१ मिथ्यादर्शन,१ अज्ञान,१ असंयत,१ असिद्ध,६ लेश्या: -भेद है
अर्थ -कर्मों के उदयमें होने वाले जीव के औदयिक भाव २१ है !
१-औदयिकगतिभाव- जिस गतिनामकर्म के उदय से आत्मा को नारक ,तिर्यंच,देव, अथवा मनुष्य आदि, गति भाव की प्राप्ति होती है,वह औदयिकगतिभाव है! इसके ४ भेद है-
१-औदयिकनरकगति ,२-औदयिकदेवगति,३-औदयिकतिर्यंचगति,४-औदयिकमनुष्यगति,
२-औदयिक कषाय भाव-चारित्र-मोहनीय के भेद रूप कषाय-वेदनीय के उदय में आत्मा के क्रोध ,मान, माया, लोभ रूप चार भेद वाली कलुषता होना, औदयिककषायभाव है!जो आत्मा को कसे ,दुख दे/उसका घात करे ,वह कषाय है इन के चार भेद है:-
१-औदयिकक्रोधकषायभाव,२-औदयिकमानकषायभाव,३-औदयिकमायाकषायभाव,४-औदयिकलोभकषायभाव ३-औदयिकलिंगभाव-चरित्रमोहनीय के भेद रूप;अकषाय (नो कर्म) वेदनीय के उदय में आत्मा को स्त्री,पुरुष, नपुंसक के साथ रमण करने रूप परिणाम होना औदयिकलिंगभाव है!इसके तीन भेद:-
१ औदयिक स्त्री लिंग (वेद)भाव, २-औदयिक पुरुषलिंग(वेद) भाव और ३-औदयिक नपुंसक लिंग (वेद) भाव है !
लिंग के दो भेद है
१-द्रव्यलिंग -अंगोपांग नाम कर्म के उदय में हुई योनि,शिशिन आदि आकार रूप शरीर द्रव्यलिंग है !
२-भावलिंग-स्त्री ,पुरुष,नपुंसक के साथ रमण रने की अभिलाषा रूप भाववेद मात्र आत्मा का परिणाम है !यह भाव लिंग ही यहां ग्रहण करना है !
४-औदयिकमिथ्यादर्शनभाव:-दर्शन-मोह के उदय की निमित्ता में, आत्मा को तत्वार्थ का अश्रद्धान रूप परिणाम होना, मिथ्यादर्शनऔदयिकभाव है!मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में उपदेश सुनने पर भी जीव को तत्वार्थों का श्रद्धान उत्पन्न नही होता !भावमिथ्यात्व कर्म के उदय मे एक मिथ्यादर्शनभाव होता है ,
५-औदयिकअज्ञानभाव-ज्ञानावरणकर्म के उदय की निमित्ता में आत्मा को पदार्थों का ज्ञान नही होना,एक औदयिकअज्ञानभाव है!जैसे एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन के अतिरिक्त; शेष चारो इन्द्रियों संबंधी मतिज्ञानवरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से उन्हें रस,गंध,रूप,शब्दमय विषयों का ज्ञान नही होना, अज्ञानरूप औदयिक भाव है !अज्ञान भाव १२ गुणस्थान तक रहता है!
६-औदयिकअसंयतभाव- चारित्रमोहनीय की सर्वघाति स्पर्धकों के उदय की निमित्ता में,प्राणियों के घात और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त नही होना,विशेष आत्म स्थिर नही होना,एक औदयिकअसंयतभाव है!यह संयम नहीं लेने पर होता है!
७-औदयिकअसिद्धभाव-अनादिकालीन अष्टकर्म बंधनों की पराधीनता से, सामान्यतया कर्म के उदय की निमित्ता में,सिद्ध पर्याय की प्राप्ति नही होना,एक औदयिकअसिद्ध भाव है, और
८-औदयिक लेश्या भाव-कषायों के उदय से अनुरंजित शरीरनाम कर्म के तीन, मन वचन काय योगों की प्रवृत्ति ,लेश्या है !इनके भेद छ: है !
१-कृष्ण,२-नील,३-कपोत,४-पीत ५-पदम और ६-शुक्ल )
प्रत्येक के दो दो भेद है
१-द्रव्य लेश्या-पुद्गल-विपाकी नामकर्म के उदय में शरीर का कृष्णादि वर्ण होना द्रव्य लेश्या है!
२-भावलेश्या-आत्मा के परिणामों की अशुद्धतामय कषाय से लिप्त मन,वचन,काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों की चंचलता रूप भावलेश्या ही विवक्षित है!कर्मोदय में होने के कारण लेश्या भी औदयिक भाव है!इसके छ भेद लेश्यों की अपेक्षा क्रमश
१-औदयिककृष्णलेश्याभाव,२-औदयिकनीललेश्याभाव.३-औदयिककपोतलेश्याभाव,४-औदयिकपीतलेश्या भाव,५-औदयिकपद्म लेश्याभाव.६-औदयिक शुक्ल लेश्या भाव, है !
एक समय जीव के किसी एक लेश्या का उदय रहता है !जब हम किसी धार्मिक क्रिया मे प्रवृत्त होते है उस समय पद्म अथवा शुक्ल लेश्या का उदय हो सकता है,इस प्रकार जीव तत्व के औदयिक भाव कुल २१ है !
विशेष –
१-दुसरे सूत्र में ‘यथाक्रमम्’ शब्द अनुवृत्ति करने से गति आदि शब्दों के साथ क्रमश ४ आदि संख्या ली गई है !
२-औदयिक भाव, संसार भ्रमण के कारण है क्योकि कर्मोदय से क्रोध आता है,उसमे हम संयमित नही रहने के कारण उत्कृष्तम डेढ़ सौ गुना कर्म बाँध लेते है!
मानलीजिए १०० कर्म उदय में आये !डेढ़गुना =१५० ,इन का १०० गुना=१००x १५०=१५००० नवीन कर्म संसार चक्र में घूमने के लिए बंधे !अत: विशेष सावधानी की आवश्यकता है !


जीवभव्याभव्यत्वानि च -७
संधि विच्छेद –
जीव +भव्य+अभव्य+त्वानि +च
शब्दार्थ – जीव +त्व =जीवत्व ,भव्य+त्व =भव्यत्व,अभव्य++त्व =अभव्यत्व ,
च =अस्तित्व,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेत्व,अगुरुलघुत्व ,प्रदेशत्व आदि सामान्य/साधारण भावों का भी ग्रहण होता है
अर्थ-जीवत्व,भव्यत्व,अभव्यत्व ,तीन जीवके असाधारण पारिणामिक भाव है जो जीव में ही पाये जाते है!’च’ से अस्तित्व,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेत्व, अगुरुलघुत्व , प्रदेशत्व आदि साधारण भावों(जो की अन्य द्रव्यों के भी होते है) का भी ग्रहण होता है !किन्तु असाधारण पारिणामिक भाव जीव के ३ ही है !
१-जीवत्व पारिणामिक भाव -पदार्थों के सामान्य और विशेष रूप को जानने वाली चेतना लक्षण सहित आत्मा का परिणाम/स्वाभाविक भावों जीवत्व पारिणामिक भाव है! यह प्रथम गुणस्थान से सिद्ध भगवान तक सभी जीवों में होता है !दर्पण के समक्ष रंग बिरंगी वस्तुए रखी होनेपर दर्पण में विभिन्न रंग दिखते है किन्तु वे रंग स्वभाव नही है !साधारणतया हर दृष्टि दर्पण में झलकते रंगों को देखती है किन्तु जो दृष्टि दर्पण की स्वच्छता को देखे वह आत्मा के पारिणामिक भाव है !
२-भव्यत्व पारिणामिक भाव -सम्यग्दर्शनादि पर्याय रूप परिणमित होने की योग्यता ,भव्यत्व पारिणामिक भाव है-यह भाव चतुर्थ से १४वे गुणस्थान तक के जीवों के होता है
३-अभव्यत्व पारिणामिक भाव-सम्यग्दर्शनादि पर्याय रूप परिणमित होने की योग्यता नही होना,अभव्यत्व पारिणामिक भाव है !मात्र प्रथम गुणस्थान के जीवों के होता है !
ये तीनों अनादिकालीन भाव;कर्म के उदय,उपशम,क्षयोपशम ,क्षय की अपेक्षा से रहित है ,स्वयं द्रव्य के परिण मन रूप है !इनके साथ अन्य द्रव्यका संबंध नही है!
हमारे जीवत्व भाव तो है ,हमे अपना भव्यत्व भाव माना चाहिए जबकि यह केवली का विषय है !
विशेष-जीवों का विभिन्न भावों की अपेक्षा अल्पबहुत्व -संसार में सबसे कम औपशमिक भाव वाले जीव,उससे अधिक क्षयिक भाव वाले,उससे अधिक क्षयोपशमिकभाव वाले ,उससे औदयिक भाव वाले और उतने ही पारिणामिक भाव वाले जीव है !


जीव का लक्षण -जो जीव मे ही पाया जाता है
उपयोगोलक्षणम् -८
संधि विच्छेद
-उपयोगो++लक्षणम्
अर्थ -(जीव का) लक्षण उपयोग है !
उपयोग-आत्मा/जीव का जो भाव वस्तु को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते है !
विशेष -चैतन्य के होने पर होने वाले परिणाम उपयोग कहते है !


उपयोग के भेद –
सद्विविधोऽष्टचतुर्भेद:-९
संधि विच्छेद – स+द्विविध: +अष्ट+चतुः +भेद :
शब्दार्थ –
स (वह उपयोग )द्विविध:-दो पकार का ;ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग है ,उसके क्रमश:अष्ट-आठ और चतुः -चार ,भेद:-भेद है
अर्थ – उपयोग के ज्ञानोपयोगऔर दर्शनोपयोग दो भेद है !ज्ञानोपयोग के आठ भेद ,मति,श्रुत,अवधि,मन: पर्यय, केवलज्ञान,कु(मति,श्रुत,अवधि) और दर्शनोपयोग के चक्षु,अचक्षु,अवधि और केवलदर्शन दर्शनोपयोग चार भेद है

जीव के भेद

संसारिणो मुक्ताश्च -१०
शब्दार्थ-संसारिणो-संसारी ,मुक्त-मुक्त, च-यद्यपि अरिहंत ने चार घातिया कर्मों का क्षय कर लिया है किन्तु चार अघातिया कर्मों का क्षय नहीं किया है इसलिए वे संसारी ही है
अर्थ संसारी और मुक्त जीव दो प्रकार के होते है!यहाँ ‘च’ दर्शाता है की यद्यपि अरिहंत ने चार घातिया कर्मों का क्षय कर लिया है किन्तु चार अघातिया कर्मों का क्षय नहीं किया है इसलिए वे संसारी ही है !


संसारी जीव के भेद
समनस्कामनस्का:-११
संधि विच्छेद –
समनस्क+अमनस्का:
शब्दार्थ -समनस्क-मन सहित अर्थात सैनी ,अमनस्का: -मन रहित अर्थात असैनी
अर्थ-संसारी जीव सैनी ,मन सहित और असैनी -मन रहित;दो प्रकार के होते है !


संसारी जीवों के त्रस और स्थावर की अपेक्षा दो भेद –
संसारिणस्त्रसस्थावर: !!१२!!
संधि विच्छेद –
संसारिण:+त्रस+स्थावर:
शब्दार्थ –
संसारिण:-संसारी जीव ,त्रस-त्रस और स्थावर भेद से दो प्रकार के होते है
अर्थ -संसारी जीव त्रस और स्थावर दो प्रकार के होते है !
त्रस -दो से पंचेंद्रियों से युक्त जीव त्रस कहलाते है !
स्थावर-एक स्पर्शन इंद्री से युक्त जीव स्थावर कहलाते है !


स्थावर जीवों के भेद-
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय:स्थावर:-१३
संधि विच्छेद –
पृथिवी+अप्+तेज:+वायु+वनस्पतय:+स्थावर
शब्दार्थ-पृथिवी-पृथिवीकायिक,अप्-जलकायिक,तेज-अग्निकायिक, वायु-वायुकायिक और वनस्पतय:-वनस्पति कायिक,स्थावर-स्थावर जीव है !
अर्थ-पृथिवीकायिक,जलकायिक ,अग्निकायिक,वायुकायिक और वनस्पिकायिकजीव, पांच स्थावर जीव के भेद है !
विशेष –
१-पृथिवीकायिक ,जलकायिक ,अग्निकायिक,वायुकायिक और वनस्पिकायिक जीव की काय/शरीर ही क्रमश: पृथिवी,जल,अग्नि,वायु और वनस्पति है !
२-विग्रहगति मे जीव क्रमश:पृथिवीजीव:,जलजीव:,अग्निजीव:,वायुजीव:और वनस्पतिजीव: होता है!जब अंतर्मूर्हत समय में यह जीव, स्थावर नामकर्म के उदय से क्रमश:पुद्गल पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु,वनस्पति को अपना शरीर बनाकर जन्म ले लेता है तब क्रमश:पृथिवीकायिक ,जलकायिक ,अग्निकायिक,वायुकायिक और वनस्पिकायिक जीव होता है!जब यह जीव अपनी बद्ध आयु पूर्ण कर के अन्य भव की यात्रा के लिए चला जाता है तो फिर से क्रमश: अपनी अपनी पुद्गलकाय; पृथ्वी,जल ,अग्नि,वायु और वनस्पति को छोड़कर चला जाता है!जो पुद्गल काय बचती हैवह क्रमश पृथ्वीकाय ,जलकाय ,अग्निकाय ,वायुकाय और वनस्पतिकाय कहलाती है!
इसे उद्धाहरण से समझ सकते है –
हाइड्रोजन और आक्सीजन के संयोग से शुद्ध जल बनता है,यह पुद्गल जल,जीव रहित है !अंतर्मूर्हत में कोई जल जीव: विग्रह गति से आकर,जलकायिकस्थावर नाम कर्म के उदय से इस जल में प्रवेश कर ,इस जल को अपना शरीर बना कर जन्म ले लेता है, तब वह जलकायिक जीव हो जाता है!इस जल को छानकर त्रस जीव को अलग कर लेते है तो नीचे स्थावर जीव सहित जल छनकर आता है किन्तु वे जीव हमें सूक्ष्मता और जल ही उनका शरीर /काय होने के कारण नहीं दीखते !अब इस छने जल को हम जब उबालते है तो उसके जलकायिक जीव समाप्त हो जाते है और २४ घंटे के लिए हमें जीव रहित, प्रासुक पुद्गल जल मिल जाता है !यह पुद्गल जल अजीव है,जीव रहित है,मात्र जलकाय है !
२-स्थावर-स्थावर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की पर्याय विशेष को स्थावर कहते है !
३- पांच स्थावर जीवों की उत्कृष्ट आयु-
मृदु पृथ्वीकायिक की १२००० वर्ष,खर पृथ्वीकायिक की २२००० वर्ष,जलकायिक की ७००० वर्ष,अग्निकायिक की ३ दिन ,वायुकायिक की ३००० वर्ष,वनस्पतिकायिक की १०००० वर्ष है


त्रस जीवों के भेद –
द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:-१४
संधि विच्छेद –
द्वीन्द्रिय:+आदय +त्रसा:
शब्दार्थ -द्वीन्द्रिय:-द्वीन्द्रिय को,आदय -को पहिला मानकर सब ,त्रसा:त्रस जीव है !
अर्थ- द्वीन्द्रिय को पहला मानकर उस सहित सभी अर्थात द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय ,चतुरुन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव, त्रस जीव है !
विशेष-विकलत्रय जीव की उत्कृष्ट आयु-(द्वी से चतुरिंद्रिय जीव विकलत्रय जीव कहलाते है)
दो इन्द्रिय जैसे शंख,सीप,केंचुआ ,जौंक आदि की उत्कृष्ट आयु १२ वर्ष,तीन इन्द्रिय;चींटी,मकोड़ा आदि की ४९ दिन और चतुरिंद्रिय;भौरा,मक्खी ,पतन्गादि की ६ माह है !
पंचेन्द्रिय मनुष्य,गाय,पक्षी आदि जीवो के उत्कृष्ट आयु सातवे नरक /सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर है जघन्य अंतर्मूर्हत है !


इन्द्रियों की संख्या के भेद
पञ्चेन्द्रियाणि-१५
संधि विच्छेद –
पञ्च+ इन्द्रियाणि
शब्दार्थ -पञ्च-पांच , इन्द्रियाणि-इन्द्रियां होती है
अर्थ -इन्द्रियां पांच होती है !
इंद्र-आत्मा;संसारी जीव के लिंग को;उसे पहिचानने के चिन्ह को;इन्द्रिय/जाति,अंगोपांग नामकर्म के उदय की निमित्ता में हुई, शरीर में इन्द्रिय रूप आकार की रचना को इन्द्रिय कहते है !अपने अपने विषय का ज्ञान करने के लिए पाचों इन्द्रिय,स्पर्शन,रसना ,घ्राण,चक्षु और श्रोत स्वतंत्र है,अन्य की अपेक्षा से रहित है !
शंका-मन के माध्यम से भी आत्मा के उपयोग की प्रवृत्ति होती है किन्तु मन को इन्द्रियों में क्यों नही गिना ?
समाधान-जिस प्रकार चक्षु,आदि इन्द्रियां पृथक पृथक नियम से बाह्य स्थान में स्थित है वैसे मन बाह्य स्थान में नही दीखता अत: इसे अनिन्द्रियपना जानिये !

इन्द्रियों के भेद –

द्विविधानि -१६
संधि विच्छेद -द्वि+विधानि
शब्दार्थ- द्वि -दो ,विधानी-प्रकार की होती है
अर्थ इन्द्रिया दो प्रकार की होती है !
१-द्रव्य इन्द्रिय-पुद्गल का परिणाम है,इन्द्रिय नाम कर्म के उदय से होती है और
२-भाव इन्द्रिय-आत्मा का परिणाम है; इन्द्रिय ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती है !


द्रव्येन्द्रिय का स्वरुप –
निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् -१७
निवृत्ति+उपकरण+ द्रव्य +इन्द्रियम ,
संधि विच्छेद -निवृत्ति+उपकरण+ द्रव्य +इन्द्रियम ,
शब्दार्थ -निर्वृत्ति – निर्वृत्ति ,उपकरण-उपकरण द्रव्य-द्रव्य ,इन्द्रियम-इंद्रीय कहते है !
अर्थ – द्रव्येंद्रिय निर्वृत्ति और उपकरण रूप है !
निर्वृत्ति-अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाली इन्द्रियों की रचना विशेष को निर्वृत्ति कहते है !इसके दो भेद आभ्यन्तर निर्वृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति है !
आभ्यंतर निर्वृत्ति-आत्मा के प्रदेशों का इन्द्रियाकार होना आभ्यंतर निर्वृत्ति है ,यह जीव है जो चक्षु इंद्री आँख (उपकरण )से देखती है आत्मा के कान के आकार के आत्म प्रदेश सुनते है!
बाह्य निर्वृत्ति -पुद्गल के परमाणुओं का इन्द्रियाकार होना बाह्य निर्वृत्ति है !
उपकरण -निर्वृत्ति के उपकारक पुद्गलों को उपकरण कहते है!ये भी आभ्यंतर और बाह्य उपकरण दो प्रकार के होते है !जैसे नेत्र में जो काल और सफ़ेद मंडल काली पुतली को रोकने में सहायक, वह आभ्यंतर उपकरण और पलके तथा रोम बाह्य उपकरण है!इसे प्रकार कान के पर्दे को रोकने वाला आभ्यंतर उपकरण है और कान बाह्य उपकरण है !आत्मा के प्रदेश कान के परदे के आकार के सुनते है वे जीव है आभ्यंतर निर्वृत्ति है !तथा पुद्गल परमाणुओं का कर्णकार होना बाह्य निर्वृत्ति है ,ये अजीव है !
इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के सन्दर्भ में भी समझना चाहिए !


भावेन्द्रिय का स्वरुप –
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् -१८
संधि विच्छेद -लब्धि+उपयोगौ+ भावेन्द्रियम्
अर्थ लब्धि और उपयोग भावेन्द्रिय है !
लब्धि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में परिणमन करने की शक्ति उतपन्न होने को लब्धि कहते है !
उोपयोग-लब्धि के निमित्त से आत्मा के प्रदेशोंमें परिस्पंदन (परिणमन ) होता है उसे उपयोग कहते है !
विशेष -जीव में देखने की शक्ति होने पर भी ,यदि उसका उपयोग उस वस्तु को देखने में नहीं है तो वह उस वस्तु को नहीं देख पाता है !इसी प्रकार किसी वस्तु को जानने की इच्छा होते हुए भी यदि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम नहीं हो तो उसे नहीं जान सकते !अत: ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में जानने की शक्ति प्रगट होती है वह तो लब्धि है और उसके होने पर आत्मा का पदार्थ की ओर अभिमुख होना उपयोग कहलाता है !लब्धि और उपयोग दोनों के मिलने से ही पदार्थ का ज्ञान होता है !
इन्द्रियों के नाम-
स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि =१९
संधि विच्छेद-स्पर्शन+रसन+घ्राण+चक्षुः+ श्रोत्राणि
अर्थ स्पर्शन त्वचा,रसन-जीव्हा,घ्राण-नासिका चक्षुः-नेत्र और श्रोत्र -कर्ण ,अणि -ये पांच इन्द्रिया है
स्पर्शन-आत्मा जिससे अपने विषय को स्पर्श करती है वह स्पर्शन,जिससे आस्वाद लेती है रसना,जिससे गंध को सूंघती है वह घ्राण ,जिससे रूप को देखता है वह चक्षु और जिससे शब्द सुनता है ,वह श्रोत्र इन्द्रिय है !
ये परतन्त्रत्व से करण-साधन रूप जैसे कहा जाता है कि ‘मैं नेत्रों से भली भांति देखता हूँ’और स्वतन्त्रत्व से करता-साधन रूप है जैसे खा जाता है कि ‘मेरे नेत्र देखते है’ !
आत्मा वीर्यान्तराय और मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की निमित्ता में अंगोपांग नामकर्म के उदय में आत्मा अपने विषय का स्पर्शन करता है ,वह स्पर्शन है;स्वाद लेता है ,वह रसन है;सूघता है वह घ्राण है,, वह चक्षु और सुनता है वह श्रोत्र है!
सूत्र में इन्द्रियों को इसी क्रम में रखने का कारण है कि स्पर्शन इन्द्रियों सहित सबसे अधिक एकेन्द्रिय जीव अनादिकाल से संसार में है, इनके एक ही इंद्री होती है शेष नही !सभी जीवों के यह है !उसके बाद द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन और रसना दो इन्द्रिय,त्रीन्द्रिय के घ्राण तीन ,चतुरिंद्रिय के स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु चार इन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों के पाँचों इन्द्रिय होती है !
इन्द्रियों के आकार-
श्रोत्रेन्द्रिय-कान-जौ की बीच की नाली के समान ,नेत्रेन्द्रिय -मसूर के समान,घ्राणेंद्रिय -तिल के फूल समान.रसना इन्द्रिय-अर्ध समान,स्पर्शनीन्द्रिय-शरीर के समान !


इन्द्रियों के विषय-
स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदर्था:-२०
संधि विच्छेद-स्पर्श +रस+ गंध+ वर्ण+ शब्द:+ तदर्था:-
अर्थ तदर्था:-विषय है ;उन पांच इन्द्रियों के विषय क्रमश: स्पर्श ,रस, गंध,रूप /वर्ण और शब्द है !
स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श को,(जो स्पर्श करने योग्य है वह स्पर्श है ) ,रसना इन्द्रिय रस(जिसका स्वाद लेते है,आस्वादन रूप है , रस है ) को ,घ्राण इन्द्रिय गंध को( जिसे सूघते है अथ्वा जो सूंघने योग्य है वह गंध है ) ,चक्षु इन्द्रिय (जो देखने रूप है वह वर्ण है) को तथा श्रोत्र इन्द्रिय /कर्ण शब्द (जिसे सुनते है अथवा जो शब्द रूप है )को विषय करती है ! इन्द्रिय अपने अपने विषयों को स्वतंत्र रूप से ग्रहण करती है !यह विषय जड़ पुद्गल है !जानने का कार्य भावेन्द्रिय का है ! पुद्गल इन्द्रिय उसके निमित्त है !ज्ञान आत्मा का गुण है यदि पुद्गल में ज्ञानत्व हो जाये तो जीव द्रव्य का ही होजायेगा !
स्पर्श:-स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा आत्मा पदार्थ के ठंडे-गर्म,कठोर-नरम,हल्का-भारी स्निग्ध-रुक्ष का ज्ञान उसे स्पर्श कर करती है !
रस: रसना इन्द्रिय अर्थात जीव्हा द्वारा आत्मा पदार्थ के खट्टे ,मीठे,कडुवा, चरपरे और कैसला स्वाद का ज्ञान प्राप्त करता है !
गंध:-घ्राणेन्दीय र्थत नासिका के द्वारा आत्मा पदार्थ की सुगंध अथवा दुर्गन्ध का ज्ञान प्राप्त करता है !
वर्ण:-चक्षुइन्द्रिय अर्थात नेत्रों से आत्मा पदार्थ के सफ़ेद,लाल,पीले नी,ले काले वर्ण गुणों को ग्रहण करता है !
शब्द:-श्रोत्रन्द्रिय अर्थात करण द्वारा आत्मा के द्वारा उत्पन्न शब्दों का ग्रहण करता है !शब्द के षड्ज,ऋषभ,गांधर ,मध्यम,पंचम,धैवत,निषध (सा,रे,गा ,म,प ध,न ) सात भेद है!इस प्रकार ५ इन्द्रियों विषय संबंधी कुल २७ भेद है !
एक इन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र धनुष /योजनों में क्रमश वृद्धिगत दूना दूना है –
जीव की इन्द्रिय स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु
१- एकेन्द्रिय ४०० X X X
२-द्वीइंद्रिय ८०० ६४ X X
३-त्रीन्द्रिय १६०० १२८ १०० X
४-चतुरिंद्रिय ३२०० २५६ २०० २९५४ (योजन)
५-असैनी पंचेन्द्रिय ६४०० ५१२ ४०० ५९०८ (योजन )
६- सैनी पंचेन्द्रिय ९ (योजन) ९(योजन) ९(योजन) ४७२६३ +७/२० (योजन)

मन का विषय –
श्रुतमनिन्द्रियस्य -२१
संधि विच्छेद -श्रुतं+अनिन्द्रियस्य
शब्दार्थ -श्रुतं -श्रुत अर्थात ज्ञानागोचर पदार्थ ,अंनिन्द्रिय -इन्द्रियों रहित ;मन का विषय है
अर्थ- मन का विषय,इन्द्रियों से पृथक ही श्रुत जानना,श्रुतज्ञान है!
मन का विषय रूप पदार्थ इन्द्रियों के व्यापार की अपेक्षा रहित है!मन का प्रयोजनभूत पदार्थ मन के स्वाधीन ही साध्य है!’मन’ रुपी और अरूपी पदार्थों को अनेक प्रकार से ग्रहण करता है इसलिए इसका क्षेत्र असीमित है मन का कार्य विचार करना है,विचार इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गए अथवा नही ग्रहण किये गए सभी विषयों का हो सकता है!इस विचार का ही नाम श्रुत है!अत: मन का विषय ‘श्रुत’ -रूपी और अरूपी सभी पदार्थों के स्वरुप का चिंतन है!


स्पर्शन इन्द्रिय के स्वामी –
वनस्पतयन्तानमेकम्-२२
संधि विच्छेद -वनस्पति+अन्तानाम+एकम्
शब्दार्थ-वनस्पति- वनस्पतिकाय ,अन्तानाम-अंत में है,एकम् -उनके एक( स्पर्शन) इंद्री होती है !
अर्थ-(स्थावरजीव),जिनके अंत में वनस्पतिकाय है अर्थात पृथ्वीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक,वायुका यिक और वनस्पतिकायिक जीवो के (एकम) एक स्पर्शन इन्द्रिय है!
वीर्यान्तरायकर्म और स्पर्शनइन्द्रियावरणके क्षयोपशम ,शेष इन्द्रिय- कर्म संबंधी सर्वघाती स्पर्धकों के उदय और शरीर,आंगोपांग,एकेन्द्रिय जाति आदि नाम कर्म के उदय की निमि त्ता में जीव के एक स्पर्शन इंद्री व्यक्त होती है !
शेष इन्द्रियों के स्वामी –
कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि -२३
संधि विच्छेद-कृमि+पिपीलिका+भ्रमर+मनुष्य+आदीना मे+एक+एक+ वृद्धानि
शब्दार्थ-कृमि-लत,पिपीलिका-चिवटी,भ्रमर-भौरा,मनुष्यादीना-मनुष्य आदि मे एक -एक एक, वृद्धानि -क्रमश: बढ़ते हुए इन्द्रिय है अर्थात लट आदि ; द्विइन्द्रिय के दो ( स्पर्शन और रसना) ,पिपीलिका-चिवटी आदि के तीन इन्द्रिय-(स्पर्शन रसना घ्राण) ,भँवरे आदि की चार (स्पर्शन ,रसना घ्राण और चक्षु इन्द्रिय है), मनुष्य के पांचो ;(स्पर्शन रसना घ्राण ,चक्षु ,और श्रोत्र )इन्द्रिय होती है !
इस सूत्र में पिछले सूत्र में स्थावर जीवों की एक इंद्री से क्रमश एक एक बढ़ते बढ़ते द्वी,त्रि ,चतुर और पंचेन्द्रिय जीवों की इन्द्रिय बताई गई है !


समनस्क का लक्षण –
सञ्ज्ञिनः समनस्काः-२४
शब्दार्थ -सञ्ज्ञिनः-संज्ञी ,सैनी , समनस्काः-मन सहित होते है
अर्थ -मनसहित जीव संज्ञी अर्थात सैनी होते है !
सैनी/संज्ञी -हित और अहित परीक्षा तथा गुण /दोषो का विचार तथा स्मरण आदि करने में सामर्थ्यवान होते है!
शंका-हित और अहित में प्रवृत्ति मन की सहायता से होती है,विग्रह गति में मन रहता नहीं। फिर जीव मन के बिना विग्रह गति में नया शरीर धारण करने के लिए गमन कैसे करता है ?
समाधान –
विग्रहगतौ कर्म योग -२५
संधि विच्छेद- विग्रह+गतौ +कर्म योग
शब्दार्थ-विग्रह-विग्रह ,गतौ -गति में,कर्म योग -कर्म योग रहता है !
अर्थ-विग्रहगति में जीव कर्म योग अर्थात कार्माण योग होता है जिससे एक गति से दूसरी गति में जाता है !
विग्रह गति-नया शरीर धारण करने के लिए गमन करने को विग्रह गति है !
कर्मयोग-ज्ञानावरणीय कर्मो के समूह को कार्मण शरीर कहते है!कार्माण काययोग के निमित्त से आत्मा के प्रदेशोंमें परिस्पंदन /कम्पन्न होता है उसे कर्मयोग /कार्माण योग कहते है !इसी के द्वारा जीव मृत्यु स्थान से नवीन जन्म स्थान को गमन करता है !


जीव और पुद्गल के गमन का क्रम –
अनुश्रेणि गति:-२६
संधि विच्छेद- अनु+श्रेणि+ गति:
शब्दार्थ-अनु-अनुक्रमरूप/क्रमानुसार,श्रेणि-लोक के मध्य से लेकर उपर ,नीचे,तिर्यक् रूप आकाश के प्रदेशो की पंक्ति, गति:-गमन करता है
अर्थ -जीव और पुद्गलों का गमन आकाश-प्रदेशों के अनुक्रम से श्रेणी रूप होता है,यह अनुश्रेणी गति है -यह गति सीधी दिशाओ के अनुसार है,वक्रता रूप दिशाओं में नही है !
श्रेणी-लोक के मध्य से लेकर ऊपर ,नीचे तथा तिर्यक दिशा में(पूर्व,दक्षिण, पश्चिम उत्तर दिशाओं में )आकाश के प्रदेशों की सीधी पंक्तियो को श्रेणी कहते है!जैसे ग्राफ पेपर पर x -अक्ष और y- अक्ष और z- अक्ष पर सीधी सीधी पंक्तिया होती है उसी प्रकार आकाश के प्रदेशों की भी पंक्तिया होती है ,इन्हे श्रेणी कहते है !
विशेष-१-जीव का मृत्यु के पश्चात,विग्रह गति में गमन,श्रेणी अनुसार होता है किसी अन्य प्रकार से नहीं होता !इसी प्रकार पुद्गल का शुद्ध परमाणु एक चौदह राजू गमन श्रेणी के अनुसार करता है बाकी अशुद्ध सब पुद्गलों का नहीं होता है !
२- यहाँ यद्यपि प्रकरण जीव का है किन्तु गमन का ग्रहण है जो की पुद्गल और जीव दोनों है ,इसलिए इस सूत्र में जीव के साथ,गतिमान सभी पदार्थों को ग्रहण किया है अत: पुद्गल के गमन को भी ग्रहण किया है !अगले सूत्र में जीवस्य है इसलिए इस सूत्र में पुद्गल का ग्रहण स्वत: हो जाता है
शंका-१ मेरु प्रदिक्षणा के समय चन्द्रमादि ज्योतिष्क देवो,विद्याधर आदि अन्य जीवोकी गति श्रेणी के अतिरिक्त भी दृष्टिगोचर है ,अत: श्रेणीबद्ध गमन का नियम नही बनता ?
समाधान -यहां काल और क्षेत्र का नियम रूप कथन मरण की अपेक्षा है!अत:मरणोपरांत जीव की और शुद्ध पुद्गल परमाणु की गति सीधी श्रेणीबद्ध रूप ही होता है !
शंका-२ जीव और पुद्गल एक समय में १४ राजू गमन कैसे करते
समाधान-क्षेत्र का नियम है कि यदि कोई जीव नीचे के वातवलय से निकलकर ऊपर सिद्धशिला अथवा तनुवातवलय में उत्पन्न होता है तो उसका १४ राजू ऊपर गमन होता है इसी प्रकार पुद्गल की भी १४ राजू गति है !
मुक्त जीव की गति-
अविग्रहा जीवस्य -२७
संधि विच्छेद_अविग्रहा+जीवस्य
शब्दार्थ -अविग्रहा-मोड़ रहित सीधी,जीवस्य-जीव की गति होती है !
अर्थ-मुक्त जीव का गमन मोड रहित उर्ध्व (उत्तर) दिशा में होती है !
भावार्थ -श्रेणी के अनुसार होने वाली गति के दो भेद है !
१-विग्रहवती -जिसमे जीव को गनतव्यस्थल तक पहुचने के लिए मुड़ना पड़ता है !
२-अविग्रहा-जिसमे जीव को गंताव्यस्थल तक पहुचने के लिए मुड़ना नहीं पड़ता कर्मों को क्षय कर मुक्त जीवों की गति सिद्धशिला की ओर अविग्रहगति ही होती है !अगले सूत्र में संसारी जीव की गति का उल्लेख है इसलिए इस सूत्र में स्वत: मुक्त जीवों की गति का उल्लेख हो गया !
३- सूत्र में मुक्त जीव का उल्लेख नही है फिर मुक्त जीव क्यों कहा गया है?
समाधान – ऐसा इसलिए है क्योकि अगले सूत्र में संसारी जीवों के गमन का उल्लेख है अत: यहाँ स्वत: मुक्त जीव से सूत्र का भाव हो जाता है !
संसारी जीव की गति और समय –
विग्रहवतीचसंसारिणी:प्राक्चतुर्भ्य:-२८
संधि विच्छेद-विग्रहवती+च+संसारिणी:+प्राक्+चतुर्भ्य:
शब्दार्थ-विग्रहवती-मोड सहित गति, च-और (पिछले सूत्र से अविग्रह अर्थात सीधी मोड़ रहित गति)जैसे होती है,संसारिणी:-संसारी जीव की,प्राक्-पूर्व ,चतुर्भ्य:-चार समय से
अर्थ-संसारी जीव की गति चार समय से पूर्व; मोड सहित और मोड़े रहित ,दोनों प्रकार की होती है !
विशेष-संसारी जीव की गति मोड रहित और मोड सहित होती है!मोड रहित गति में केवल एक समय लगता है !जिस मे एक मोड लेने पड़ते है उसमे २ समय, जिसमे २ मोड लेने पड़ते है उसमे ३ समय.तीन मोड़ें में ४ समय लगते है! ४ समय से पूर्व जीव नियम से जन्म ले लेता है,चार समय तक कोई जीव विग्रहगति में नहीं रहता !इस लिए विग्रहगति का समय चार समय से पूर्व कहा है !
२-विग्रह गति के चार भेद है
१- विग्रहगति -ऋजुगति (इषुगति )-आनुपूर्वी कर्म के उदय के अनुसार,संसारी अथवा मुक्त जीवो, जिनका उत्पत्ति स्थान सरल रेखा में होता है उनकी ऋजु गति होती है।इसे इषुगति भी कहते है!इशू अर्थात वाण ,धनुष से छूटने के बाद वह सरल -सीधा ही जाता है इस प्रकार जो गति सरल होती है उसे इषुगति कहते है !
२-विग्रहवती गति-आनुपूर्वी कर्म के उदय के अनुसार, जिन संसारी जीवो का उत्पत्ति स्थान वक्र रेखा में होता है उनकी विग्रहवती गति होती है !इसके तीन भेद
१-पाणिमुक्तगति पानी पर रखा हुआ मुक्त एक मोड़ लेकर जमीन पर गिरता है,जिस गति में एक मोड़ा लेना पड़े वह पाणिमुक्तगति है
२-लाङ्गलिका गति-लाङ्ग-हल को कहते है अर्थात जिस की गति में हल की भांति दो मोड़े होते है वह लाङ्गलिक़ा गति कहते है !
३-गोमूत्रगति -जिस गति में गो मूत्र के सामान ३ अथवा अनेक मोड़े हो उसे गोमूत्र गति कहते है !
यहाँ अनेक का अर्थ अधिकतम ३ है क्योकि इससे अधिक मोड़ें किसी भी जीव को नवीन शरीर की उत्पत्ति के लिए नहीं लेने पड़ते!सबसे वक्ररेखा में स्थित निष्कुट क्षेत्र बतलाया है किन्तु वहां भी उत्पन्न होने के लिए अधिकतम ३ मोड़ें लेने पड़ते है !
मोड़ेंरहित ऋजुगति में उत्पत्ति स्थान तक पहुचने में जीव को१ समय,पाणिमुक्त गति में २ समय , लाङ्गलिका गति में ३ समय और गोमूत्र गति में ४ समय लगते है
अर्थात जितने मोड़ें है उससे १ समय जीव को उत्पत्ति स्थान तक पहुचने में अधिक लगता है !
अविग्रह मोड रहित ऋजु गति में मुक्त जीव को सिद्ध शीला के ऊपर तनुवातवलय से स्पर्श करते हुए सिद्धालय पर पहुचने में १ समय लगता है !


अविग्रह गति का समय –
एक-समयाविग्रहा -२९
संधि विच्छेद-एक+समय+अविग्रहा
शब्दार्थ:-एक-एक,समय-समय,अविग्रहा -मोड़ें रहित गति अर्थात ऋजु गति मे
अर्थ:-मोड़ें रहित ,अविग्रह गति में मात्र एक समय लगता है!
विशेष –
अविग्रह मोड रहित ऋजुगति में मुक्तजीव को सिद्ध शीला के ऊपर ,तनुवातवलय से स्पर्श करते हुए,५२५ योजन मोटे सिद्धालय पर पहुचने में १ समय लगता है !


विग्रह गति में आहारक और अनाहारक की व्यवस्था –
एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:-३०
संधि विच्छेद -एकं+ द्वौ+ त्रीन् +वा +अनाहरक:
शब्दार्थ-एकं-एक समय, द्वौ-दो समय , त्रीन् -तीन समय तक ,वा-वह (विग्रह गति मेंजीव ) ,अनाहरक:-अनाहारक( पुद्गल-आहार वर्गणाओं को ग्रहण नही करना ) होता है !
अर्थ – विग्रह गति में जीव एक ,दो और तीन ‘समय’ तक अनाहारक रहता है ! इस सूत्र में पिछले सूत्र से समय की अनुवृत्ति है !
भावार्थ-इशुगति में जीव अनाहारक नही है !पाणिमुक्तगति में १ समय के लिए ,लांगलिका गति में २ समय तथा गोमूत्रगति में ३ समय के लिए जीव अनाहारक है !इससे आगे चतुर्थ समय में आहारक ही है !
विशेष-१-आहारक-औदारिक,वैक्रियिक,आहारक शरीर तथा छ:-(आहार,शरीर,इन्द्रिय,शवासोछ्वास भाषा,और मन) पर्या प्तियों के योग्य पुद्गल वर्गणाओं के जीव द्वारा ग्रहण करना आहारक है और उनका ग्रहण नही होना , अनाहारक है !यहाँ आहारक से मतलब आहार-भोजन से नहीं बल्कि औदारिक ,वैक्रयिक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाओं के ग्रहण करने से है!संसारी जीव मोड़ रहित गति में आहारक ही रहता है क्योकि जिस समय पूर्व शरीर छोड़ते है उससे आहार और उसके अनन्तर नवीन शरीर से आहार लेते है!
२- जीवों के शरीर ५ प्रकार के होते है ;कार्माण और तेजस शरीर जीव के मुक्त होने तक उसके साथ रहता है ,आहारक शरीर लब्धिरूप(छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के) होता है शेष दो में से एक ही औदारिक अथवा वैक्रयिक शरीर की पर्याप्ति होती है !
३-६: पर्याप्तियां –
आहार पर्याप्ति-एक शरीर को छोड़कर दुसरे नवीन शरीर के लिए कारणभूत नोकर्मवर्गणाओं को ग्रहण कर ,पर्याप्ति नाम कर्म के उदय में उनहे खल/रस भाग रूप परिणमाने की जीव की शक्ति पूर्ण होना आहार पर्याप्ति है !
२-शरीर पर्याप्ति-शरीर नाम कर्म के उदय में उक्त वर्गणाओं में से खल भाग को हड्डी आदि कठोर अवयवों में तथा रस भाग को खून आदि नरम व् पतले द्रव्यों रूप अवयवों रूप परिणमाने की जीव की शक्ति पूर्ण होना ,शरीर पर्याप्ति है !
३-इन्द्रिय पर्याप्ति-इन्द्रिय नाम कर्म के उदय में उसी आहार पर्याप्ति में नोकर्मवर्गणाओं में से कुछ को अपने २ इद्रियों के स्थान पर ,द्रव्येंद्रिय के आकार रूप जीव की परिणमाने की शक्ति पूर्ण होना इन्द्रिय पर्याप्ति है !
४-श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति-उन्ही में से कुछ स्कन्धों को श्वासोच्छ्वास रूप परिणामाने की जीव की शक्ति पूर्ण होना,श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति है !
५-भाषापर्याप्ति-भाषा (पुद्गल) वर्गणाओं को वचन रूप जीव की परिणमाने की शक्ति पूर्ण होना भाषापर्याप्ति है ६-मन पर्याप्ति- द्रव्य मन योग्य मनोवर्गणाओं को, द्रव्य मन के आकार रूप जीव के परिणमाने की शक्ति पूर्ण होना मन पर्याप्ति है !
उक्त ६ की ६ पर्याप्तियां संज्ञी जीवों के ही ,इसी क्रम से ,प्रत्येक अंतर्मूर्हत-अंतर्मूर्हत काल में अलग अलग पूर्ण होती है ,जबकि प्रारम्भ सब का युगपत होता है तथा सभी के पूर्ण होने का समय भी अंतर्मूर्हत है!उत्तरोत्तर पर्याप्तियों के पूर्ण होने का काल अंतर्मूर्हत काल क्रमश: बढ़ता जाता है !द्वी इन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मन के अतिरिक्त पाँचों पर्याप्ति होती है !एकेन्द्रिय जीव के प्रथम चार पर्याप्ति होती है!यदि जीव की शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाती है तो वह पर्याप्तक ही कहलाता है चाहे शेष ४ पर्याप्ति पूर्ण नही हो !शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पूर्व वह निवृत्यर्याप्तक कहलाता है !
इतनी सूक्ष्मता से जीव की संसार में उत्पत्ति काल के विकास का वर्णन जैनागम में ही उपलब्ध है अन्यत्र कही नही !आहार पर्याप्ति जीव नवीन जन्म से पूर्व ,पहिले भव के अंतिम समय में प्राप्त करता है!शेष ५ पर्याप्तियां एक अंतर्मूर्हूत काल में अवश्य पूर्ण करलेता है !पर्याप्तियां सूक्ष्म होती है किसी भी वैज्ञानिक यंत्रों से भी वर्तमान में उन्हें देखना सम्भव नही है !अल्ट्रा साउंड में भी जीव के अंग प्रत्यंगों के विकसित होने तक देखना असम्भव है !

संसारी जीव के मरण एवं जन्म का चक्र –
१-संसारी जीव जीवित अवस्था -जीव के औदारिक/वैक्रियिक शरीर ,तेजस और कार्मण शरीर है !जैसे ही संसारी जीव के प्राणांत होता है उसका चेतन आत्मा ,”विग्रहवतीचसंसारिणी:प्राक्चतुर्भ्य:”-२८ और “एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:”-३० के अनुसार सर्वप्रथम ऊर्ध्वगमन करता यदि उसका नया जन्मस्थल वही (उर्ध्व दिशा में ) है तो वह एक समय में ही वहां जन्म ले लेता है उसके मृत्यु के अंतिम समय में वह पूर्व शरीर से और अगले समय में नवीन शरीर से आहार वर्गणाए ग्रहण करना आरम्भ करता है इसलिए नवीन जन्म लेने तक वह आहारक ही रहता है !अन्यथा १,२ अथवा ३ मोडे लेने के पश्चात चौथे समय में आहार वर्गणाए लेना प्रारम्भ कर नवीन जन्म स्थल पर जन्मले लेता है।नवीन भव मे उत्पन्न व पूर्व शरीर को त्यागने मे अधिकत्तम ४ समय लगते हैवहअधिकत्तम तीन समय अनआहारक रह कर अंतिमसमय मे आहारक हो जाता है।
संसारी जीव की मृतावस्था-उसके मात्र औदारिक शरीर मृत देह रूप हैै।चेतना जीव चेतना , उसमे मात्र कार्माण और तेजस शरीर है।

जन्म के भेद –

सम्मूर्च्छनगर्भोपपादा:जन्म -३१
संधि विच्छेद -सम्मूर्च्छन+गर्भ:+उपपादा:+जन्म
शब्दार्थ -सम्मूर्च्छन ,गर्भ और उपपाद ,जन्म के तीन भेद है !
अर्थ-संसारी जीवो का जन्म सम्मूर्च्छन,गर्भ अथवा उपपाद ,तीन प्रकार से होता है !
भावार्थ-
१-सम्मूर्च्छनजन्म- माता के रज और पिता के वीर्य की अपेक्षा रहित ,जीव द्वारा सभी ओर से अपने शरीर के रचना योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर नवीन शरीर की रचना करना सम्मूर्च्छन जन्म है!जैसे स्थावर और विकलेन्द्रि त्रस जीवों का नियम से सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है ! उर्ध्व,मध्य,अधोमय तीनों लोक में जहां तहाँ अवयवों सहित शरीर बन जाना सम्मूर्च्छन है ! यहां सम्मूर्च्छन का अर्थ अवयवों की कल्पना !है
२-गर्भजन्म-माता के उदर में रज और पिता के वीर्य के संयोग ,मिश्रण होना गर्भ है !उसमे जीव के शरीर की रचना होना गर्भ जन्म है जैसे मनुष्य,पशु,पक्षी,कबूतर,चील,मुर्गी,शेर,हिरण इत्यादि का गर्भजन्म होता है और
३-उपपाद जन्म-माता के ऱज और पिता के वीर्य की अपेक्षा रहित देवों / नारकियों के वैक्रियिक शरीर की रचना यथायोग्य परमाणुओं को ग्रहण कर उपपाद शैया पर होना ,उपपाद जन्म है ! देव और नारकी का नियम से उपपाद जन्म ही होता है , वे अंतर्मूर्हत काल में ही पूर्ण होकर जन्म ले,उठने,बैठने ,चलने लगते है !
उक्त सूत्र में सम्मूर्च्छन ,गर्भ और उपपाद जन्म को इसी क्रम में इसलिए रखा है क्योकि सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न जीवों की आयु अपेक्षाकृत अल्पत्तम;तदुपरांत गर्भ जन्म वालों की और उपपाद जन्म वाले जीवों की सर्वाधिक है !
गर्भ जन्म (महीनों में) वाले जीवों को जन्म लेने में सम्मूर्च्छन जीवों(अंतर्मूर्हूत) से अधिक काल लगता है अत: उन्हें सम्मूर्च्छन के बाद रखा है !
उपपाद जन्म वाले जीवों की दीर्घतम आयु है,सांसारिक भोगोपभोग तथा अधिक ऋद्धि के धारक है इसलिए उन्हें अंत में रखा है !

संसारी जीव के नवीन जन्म स्थान को योनि कहते है –
योनियों के भेद –
सचित्तशीतसंवृतास्सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनय:-३२
संधिविच्छेद-सचित्त+शीत+संवृता:+सेतरा:+मिश्रा:+च+एकश:+तद्योनय :–
शब्दार्थ-सचित्त,शीत,संवृत और सेतरा:-इनकी क्रमश:विपरीत अर्थात अचित्त,उक्षण और विवृत और क्रम से इनकी मिश्र एक एक अर्थात सचित्ताचित्त ,शीतोष्ण और संवृतविवृत,तद्योनय: -ये नौ ,उन सम्मूर्च्छन आदि जन्मो की योनियां अर्थात जीवों के उत्पन्न होने वाले, जन्म स्थान को योनि कहते है!
अर्थ-सचित्त,शीत,संवृत और (सेतराSmile-इनकी क्रमश:उल्टी अर्थात अचित्त,उष्ण और विवृत और क्रम से इनकी एक एक मिश्र अर्थात सचित्ताचित्त ,शीतोष्ण और संवृतविवृत ,(तद्योनय: -वे उन (सम्मूर्च्छन आदि जन्मों के स्थान;योनिया है!
योनि आधार है जन्म अधेय है !क्योकि सचित्ताचित योनि में जीव सम्मूर्च्छन जन्म लेकर उत्पन्न होता है !
विशेषार्थ –
१-सचित्तयोनि- आत्मा सहित प्रवृत्ति करने वाला ,आत्मा का चैतन्य विशेष रूप परिणाम चित्त है ,उस चित्त सहित योनि सचित्त योनि है,चेतना सहित योनि को सचित्त योनि कहते है!योनि रूप पुद्गलों का होना सचित्त योनि है!माता के उदर में जन्म सचित्त है !
२-शीतयोनि-शीत स्पर्श युक्त पुद्गल योनि को शीत योनि कहते है जैसे ठंडे स्थानों ;बर्फ आदि में जीवों की उत्पत्ति होना शीत योनि है !
३-संवृतयोनि -ऐसे जीव के उत्पत्ति स्थान जो किसी को दिखाई नहीं देते !जैसे माता का गर्भ में जीव का गर्भ धारण करना संवृतयोनि है !
४-अचित्तयोनि -चेतना रहित,मात्र अचेतन पुद्गलमयी योनि अचित्त योनि है,दीवार ,कुर्सी इत्यादि में जो जीव जाते है उनकी चित्त योनी है !
५-उष्ण योनि -उष्ण स्पर्श युक्त पुद्गल योनि को उष्ण योनि कहते है !गर्म स्थानो जैसे मरुस्थल में जीवों की उत्पत्ति होना उष्ण योनि है !
६-विवृतयोनि-ऐसे जीव के उत्पत्ति स्थान जो स्पष्ट/प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते है !जैसे जल में उत्पन्न होने वाली काई ,विवृत योनि है !
७-सचिताचित्योनि-जो योनि चेतन और अचेतन दोनों युक्त है !मनुष्यों (सचित्त )की टोपियों(चित्त )में जीवों की उत्पत्ति होना सचित्ताचित्त रूप मिश्र योनि है !
८-शीतोष्णयोनि-जो पुद्गलमयी योनी शीत और उष्ण दोनों स्पर्श रूप होती है वह शीतोष्ण योनि होती हैजैसे ठंडे जल के गड्ढे में सूर्य की जीवों की उत्पत्ति होना ,शीतोष्ण योनि है !
९-संवृतविवृत-जिस पुद्गलमयी योनि का कुछ भाग नहीं दिखाई देती हो और कुछ भाग दिखाई देता, संवृतविवृत योनि है !
चतुर्गति में जीवों की योनिया-
देव और नारकियों की अचित्त,संवृत तथा शीत और उष्ण स्पर्श की योनि होती है !
गर्भज मनुष्यो और तिर्यन्चों की सचित,अचित,शीत, उष्ण,शीतोष्ण तथा संवृत,विवृत योनि होती है !सम्मूर्च्छन जन्म वालो की सचित ,अचित्त,शीत -शीतोष्ण और उष्ण योनियाँ होती है !एकेन्द्रिय की संवृत और विलेन्द्रिय जीवों की विवृत योनी होती है !
इस प्रकार से सामन्य से ९ और विस्तार से ८४ लाख योनियाँ होती है !नित्यनिगोद,इतर निगोद,पृथ्वीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक वायुकायिक जीवों की सात-सात लाख योनिया,वनस्पति कायिक की दस लाख,विकलेन्द्रियों में प्रत्येक की २ -२ लाख ,देव,तिर्यंच और नारकी -प्रत्येक की ४-४ लाख, मनुष्यों की १४ लाख ,कुल ८४ लाख योनियाँ होती है !
श्री गोम्मटसारजी,जीवसमास नामक दुसरे अधिकार में,आचर्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने गर्भ जन्म के सदर्भ में स्त्री की योनि के निम्न तीन भेद बताये है!
१-शंखावर्त,-इसमें गर्भ ठहरता ही नही और यदि ठहर भी जाए तो बीच में ही नष्ट हो जाता है,इसमें जीव उत्पन्न नही होता है इसे बाध्य/बाँझ भी कहते है !इसका आकार शंखवत होता है इसलिए यह नाम है
२-कूर्मोन्नत योनि -इसमें तीर्थंकर,चक्रवर्ती,नारायण,प्रतिनारायण बलभद्र उर उनके शेष भाई-बहिन जन्म लेते है ! यह कछुए /कूर्म के समान उठे आकार की होने से नाम यह है और
३-वंशपत्र योनि-इसका आकार वंश/बांस के पत्र -पत्ते के आकार का होता है इसमें सामन्य मनुष्य उत्पन्न होते है !
गर्भ जन्म के स्वामी –
जरायुजाण्डजपोतानां गर्भ-३३
संधि विच्छेद
जरायुज+अण्डज+पोत+अनां+गर्भ-३३
अर्थ-जरायुज अंडज और पोत,प्राणियों गर्भ जन्म होता है!गर्भ जन्म उक्त प्राणियों के ही होता है!
१-जरायुज-जन्म के समय प्राणियों के शरीर से जाल,रुधिर,और मांस की खोल लिपटी होती है उसे जरायु अथवा जर कहते है!उसमे जो उत्पन्न होता है उसे जरायुज कहते है!जैसे गाय,भैस,मनुष्य आदि के गजरायुज गर्भजन्म है !
२-अण्डज-जो की नख की त्वचा के समान कठोर और जिसका आवरण शुक्र और शोणित से बना है उसे अंडा कहते है जिन जीवों उत्पत्ति अन्डो से होती है जैसे कबूतर,पक्षी,चील,मुर्गी ,तिर्यंच आदि का अण्डज गर्भजन्म है
३-पोत-उत्पत्ति के समय जिन प्राणियों के ऊपर कोई आवरण नही होता,वे पैदा होते ही चलने फिरने लगते है,हिरण,सिंहादि के पोत गर्भजन्म है!
१-सूत्र में जरायुजादि कर्म से ही गर्भ जन्म के भेद बताये है क्योकि असाधारण सुंदर रूप,भाषा अध्ययन मोक्षादि शुभ क्रियाएँ जरायुज जन्म के जीवों के ही होती है अन्यों के नही ,शलाका पुरुष इसे से जन्म लेते है अत: सर्वप्रथम जरायुज को सूत्र में रखा है! पोत जन्म वाले जीवों की अपेक्षा अंडज जन्म वाले जीवों के प्रधानत्व है क्योकि शुक,सरकादि पक्षी अक्षरों के उच्चारण आदि क्रियाओं से युक्त ही उत्पन्न होते है अत:जरायुज के बाद और उसके बाद पोत को रखा है !
२- तीर्थंकर बालक आवरण रहित; उत्पन्न होते है,उनके शरीर पर रुधिर मांस रूप जाल के समान जरायु नही होता फिर भी इनका जन्म पोत न होकर जरायुज इसलिए कहा है क्योकि पोत जन्म वाले जीवों के समान वे जन्म लेते ही,अपनी पर्याय योग्य चलना,बोलना इत्यादि कार्य आरम्भ नही करते है ! अत: इनका जन्म जरायुज ही है ,ये तीर्थ के प्रवर्तन करते है !
उपपाद जन्म के स्वामी –
देवनारकाणामुपपाद -३४
संधि विच्छेद -देव+नारकाणाम+उपपाद-
शब्द्दार्थ-देव-देव ,नारकाणाम-नारकियों का ही,उपपाद-उपपाद जन्म होता है !
अर्थ-नियम से उपपाद जन्म देव और नारकियों का ही होता है !
देवों का जन्म-सभी प्रकार के देवों संबंधी प्रसूति-स्थान पर अति सुगंधित ,कोमल ,संपुट आकार के आकार की उत्पाद शैय्या बनी हुई है वहां अंतर्मूर्हूत काल में सम्पूर्ण यौवन अवस्था प्राप्त देवों का जन्म होता है !इनकी कांति ,लम्बाई ,सौंदर्य आयु पर्यन्त समान रहता है !
नारकीयों का जन्म-सातों ही पृथ्वियों के नरक बिलो की छत में मधुमखी के छत्ते समान उलटे ,अधोमुख रूप उतपत्ति स्थानॉन में नारकियों का जन्म होता है !
सम्मूर्च्छन जन्म के स्वामी –
शेषाणां सम्मूर्च्छनम् -३५
शब्दार्थ-शेषाणां शेष अर्थात गर्भ और उपपाद जन्म वालो के अतिरिक्त सभी जीवों का ,सम्मूर्च्छनम् -सम्मूर्च्छन जन्म है
अर्थ-शेष जीवों के सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है!समस्त एकेन्द्रिय स्थावरो,विकलेन्द्रिय ,मनुष्य तथा कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यन्च जीवों का सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है !
विशेष-सूत्र ३२,३३,३४ सूत्र नियम दोनों ओर से नियम है!अर्थात जरायुज,अंडज और पोत के गर्भ जन्म ही है,अन्य कोई नही !देवों और नारकियों का ही, उपपाद जन्म होता है,अन्य कोई नही,शेष जीवों का,सम्मूर्च्छन जन्म ही है अन्य कोई नही!मनुष्य और तिर्यन्चों के गर्भ और सम्मूर्च्छन दो जन्म है !
लब्धय पर्याप्तक सम्मूर्च्छन जन्म वाले ही होते है,उप्पाद जन्म वाले नही!
सम्मूर्च्छनमनुष्य संज्ञी अपर्याप्तक ही,पर्याप्तक नही,असंज्ञी भी नही, नपुंसकवेदी होते है!ये स्त्री की योनियों,स्तनों,मूत्रों आदि में उतपन्न होते है!

जीव के शरीरों के भेद

औदारिकवैक्रियिकाहारकतेजसकर्माणानिशरीराणि -३६-

संधि विच्छेद:-औदारिक+वैक्रियिक+आहारक+तेजस+कर्माणानि+शरीराणि[

अर्थ-औदारिक,वैक्रयिक,आहारक,तेजस और कर्माण, शरीर है !

१-औदारिकशरीर-स्थूल शरीर जो अन्य शरीरों को बाधित भी करता है और स्वयं उनसे बाधित भी होता है,औदारिक शरीर है जैसे मनुष्य,पशु आदि का शरीर !

२-वैक्रियिक शरीर-जो शरीर एक,अनेक,स्थूल,सूक्ष्म,हल्का,भारी,लम्बा,छोटा आदि अणिमा आदि ऋद्धि द्वारा अथवा वैक्रयिक शरीर नाम कर्म के उदय में अनेक प्रकार से परिवर्तित किया जा सके वह वैक्रियिकशरीर है! देव और नारकी का होता है, ये दीखते भी है और नहीं भी दिख सकते!तपस्वी मुनिराज ऋद्धि प्राप्त कर अपने औदारिक शरीर को भी वैक्रयिक करते है !

३आहारकशरीर-छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज,अपनी सूक्ष्म पदार्थों के सन्दर्भ में शंका निवारण,वर्तमान में उपलब्ध केवली अथवा श्रुत केवली के पास शंका समाधान के लिए,अपने संयम की रक्षा के लिए या देव वंदना के लिए अपने जिस शरीर को भेजते है,उनके सिर से एक हाथ का पुतला निकलता है,आहारक शरीर है !

४-तेजसशरीर-औदारिक,वैक्रियिक,आहारक तीन शरीर की काँति और तापमान नियंत्रित करने वाला, शंख के समान श्वेत वर्णीय(अनि:सरणीय) तेजस शरीर है,यह सभी संसारी जीवों के होता है!

तपश्चरण की लब्धि से उत्पन्न नि:सरणीय तेजस शरीर के दो भेद है

१-शुभ नि;सरण तेजसशरीर-कोई तपस्वी ऋद्धिधारी मुनिराज करुणावश , किसी दुर्भिक्ष उपद्रव से प्रताड़ित ,१२ योजन क्षेत्र में अपने दाहिने कंधे से आत्मा के कुछ प्रदेशों सहित एक तेज़रूप पिंड निकाल कर जीवों का कष्ट निवारण के लिए भेजते है,वह दुःख का निवारण कर पुन: मूलशरीर में प्रविष्ट कर जाता है ! और

२-अशुभ नि:सरण तेजस-किसी ऋद्धिधारी मुनिराज को क्रोद्धवश, बाए कंधे से कुछ आत्मा प्रदेशों सहित एक तेजस रूप पिंड,अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण निकलकर क्रमश बढ़ते बढ़ते १२ योजन प्रमाण होकर इतने क्षेत्र को भस्म कर पुन:मुनिराज के शरीर में प्रविष्ट कर,उन्हें भी भस्म कर देता है यह अशुभ नि:सरण तेजसशरीर है!दीपायानमुनि द्वारा द्वारिका का भस्म होना इसका ज्वलंत उद्धाहरण है !

और

५-कर्माण शरीर-ज्ञानवारणादि अष्टकर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते है,यह सभी संसारी जीवों के होता है!सभी शरीर को उत्पन्न करने वाला है !कार्माण शरीर का निमित्त जीव का मिथ्यादर्शन है!यह श्वेत वर्णीय है !

जीव की मुक्ति तक,आत्मा के साथ साथ तेजस और कार्मण शरीर समस्त भवों में यात्रा करते है,औदारिक और वैक्रियिक शरीर जीव को गति के बंध के अनुसार विभिन्न भव में मिलते है !

पांचों शरीर को सूत्र में उक्त क्रम से रखने का कारण-

औदारिक शरीर सबसे स्थूल (बड़ा) है ,इन्द्रियगोचर है,इसे सर्वप्रथम इसलिए रखा है !उसे आगे के शरीर क्रमश उत्तरोत्तर सूक्ष्म है !इसलिए इस क्रम में रखे है!सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में स्थूलत्व नही है फिर उनका औदारिक शरीर इसलिए कहा है क्योकि उनका सूक्ष्म शरीर = वैक्रियिकशरीर की अपेक्षा स्थूल है !

शरीर के आकार –

परं परं सूक्ष्मम् -३७[

शब्दार्थ – ये पांच शरीर क्रमश:उत्तरोत्तर सूक्ष्म सूक्ष्म है !

अर्थ-औदारिकशरीर से वैक्रियिक सूक्ष्म है;आहारक,वैक्रियिक से सूक्ष्म है;तेजस आहारक से सूक्ष्म है और कार्माण तेजस से सूक्ष्म है !

प्रथम तीन शरीरों के प्रदेश-

प्रदेशतोऽसंख्येय गुणं प्राक् तैजसात्-३८

संधि विच्छेद-प्रदेशत:+असंख्ये+गुणं+प्राक्+तैजसात्

शब्दार्थ-प्रदेशत-प्रदेशो/ परमाणु की संख्या की अपेक्षा,असंख्येय-असंख्यात ,गुणं-गुणे प्राक्-पहिले तक,तैजसात्-तेजस् शरीर से

अर्थ-प्रदेशों/परमाणु की (शरीर के बनाने में परमाणु की इस्तमाल करी गई वर्गणाए)अपेक्षा तेजस् शरीर से पहले पहले शरीर असंख्यात-असंख्यात गुणे है!

भावार्थ-औदारिकशरीर की अपेक्षा असंख्यात गुणे प्रदेश/(परमाणु),वैक्रियिक शरीर में है और वैक्रियिकशरीर की अपेक्षा असंख्यातगुणे प्रदेश आहारक शरीर में होते है!क्योकि वर्गणाए उत्तरोत्तर शरीरों की पतली होती जाती है!

शंका-औदारिक शरीर से आगे के शरीर में असंख्यात गुणे अधिक परमाणु होने पर भी वे अधिक सूक्ष्म की जगह अधिक स्थूल होने चाहिए ?

समाधान-उनमे क्रमश परमाणुओ का बंधन अधिक ठोस होने के कारण स्थूल नहीं है,इसीलिए आगे आगे के शरीर अधिक परमाणु होने का बावजूद भी अधिक सूक्ष्म है!जैसे लोहे का पिंड रुई के पिंड से सूक्ष्म होता है यदि दोनों वजन बराबर होने पर भी!

तेजस् और कार्माण शरीर के प्रदेश –

अनन्तगुणे परे-३९

संधि-विच्छेद-अनंत+गुणे +परे

शब्दार्थ-अनन्त- अन्नत ,गुणे -गुणे,परे- (आहारक )के बाद अर्थात, दो शरीर अर्थात तेजस् और कार्मण शरीर के है

अर्थ-तेजस् शरीर के प्रदेश(परमाणु) आहारकशरीर से अनंतगुणे और कार्माणशरीर के प्रदेश(परमाणु) तेजस् शरीर से अनन्तगुणे है!

तेजस् और कार्माण शरीर की विशेषता –

अप्रतिघाते -४०
संधि विच्छेद-अ+प्रतिघाते
शब्दार्थ -अ-नही ,प्रतिघाते -अड़चन डालना/ रुकावट डालना /अथवा रुकना
अर्थ-तेजस् और कार्माण दोनों शरीर अप्रतिघाती अर्थात बाधा रहित/ दोनों समस्त लोक में किसी भी मूर्तिक पदार्थ से न स्वयं रुकते है और न ही उन्हें रोकते है !जैसे अग्नि लोह के पिंड में प्रवेश कर लेती है वैसे ही ये दोनों शरीर, किसी वज्रमय पटल से भी बाधित नहीं होते !मूर्तिक पदार्थ तो एक दुसरे को बाधित करते है !वे प्रतिघाती होते है !
शंका-तेजस और कार्माण शरीर में इतने अधिक (अनंत गुणे – अंतहींन से अनंत गुणे ) परमाणु होने से संसारी जीव इन दोनों शरीर के साथ अपने इच्छित प्रदेश को गमन नहीं कर सकता है?
समाधान-ये दोष नहीं है क्योकि ये दोनों शरीर अप्रतिघाती है,अर्थात ये दोनों एक दुसरे का व्याघात नहीं करते तथा अन्य किसी को भी बाधित नहीं करते अत: दोनों बाधा रहित है !
शंका-वैक्रियिक और आहारक शरीर भी सूक्ष्म होने के कारण किसी को रोकते नहीं,फिर इन्हे अप्रतिघाती क्यों नहीं कहा ?
समाधान -तेजस् और कार्माण शरीर सर्व लोक में अप्रतिघाती अर्थात बाधा रहित गमन कर सकते है जबकि आहारक शरीर मात्र ढाई द्वीप तक , देवों का वैक्रियिक शरीर;मात्र त्रसनाड़ी के अंदर ही ऊपर १६ स्वर्गो से नीचे तीसरे नरक तक ही बाधारहितगमन कर सकता है.ऋद्धिधारी ऋषियों का वैक्रियिक/आहारक शरीर भी मनुष्यलोक तक ही बाधा रहित गमन कर सकता है, लोक में अन्य स्थान पर ये शरीर नहीं गमन कर सकते इसलिए इन्हेअप्रतिघाती नहीं कहा है!अत:समस्त लोक में बाधा रहित विचरण करने के कारण तेजस् और कार्माण शरीर ही अप्रतिघाति है!


कार्माण व् तेज़स शरीर का संबंध –
अनादिसंबन्धेच -४१
शब्दार्थ–अनादि काल से ,संबंध -संबंध है, च- यह सादि संबंध भी है
अर्थ-(तेजस् शरीर और कार्माण शरीर का) आत्मा से अनादि संबंध है !’च’ विकल्पार्थक है जो सूचित करता है की आत्मा से तेजस् और कार्माण शरीर का संबंध सादि भी है देखिये कैसे ?
कार्य और कारण रूप बंध की अपेक्षा तो,तेजस् और कार्माण शरीर का अनादि संबन्ध है अर्थात औदारिक,वैक्रियिक और आहारक शरीर का संबंध जीव से अनित्य है -कभी कोई शरीर आत्मा के साथ होता है कभी दूसरा होता है किन्तु तेजस् और कार्माण शरीर संसारी आत्मा /जीव के साथ सदैव रहते है !अत: इनका आत्मा के साथ अनादि संबंध ,जीव की मुक्ति तक है!
पूर्व मे बंधे तेजस् शरीर और कार्मण कर्म की प्रति समय निर्जरा होती रहती है और नवीन शरीर बनते रहते है अर्थात परमाणु वर्गणाए बदलती रहती है,इस अपेक्षा से इनका आत्मा से इनका संबंध सादि है !
विशेषार्थ -जो लोग आत्मा शरीर का संबंध सर्वथा सादि अथवा सर्वथा अनादि मानते है उसमे अनेको दोष आ जाते है !यदि संबंध सर्वथा सादि ही माना जाये तो शरीर से संबंध होने से पूर्व आत्मा विशुद्ध ,अत्यंत शुद्ध थी ऐसी अवस्था में सर्वथा शुद्ध आत्मा का किसी,निमित्त के अभाव में शरीर के साथ संबंध कैसे हो सकता है!यदि शुद्धात्मा का निमित्त के अभाव में शरीर से संबंध हो सकता है तब मुक्त जीवों का भी शरीर संबंध होने का प्रसंग आएगा और मुक्त आत्माओं का ही अभाव जाएगा !
आत्मा और शरीर का संबंध एकांत से अनादि ही माना जाये तो जो सदैव से अनादि है उसका अंत नहीं हो सकता अत:जीव कर्मों से मुक्त नहीं होगा!इसीलिए आत्मा का शरीर से संबंध कदाचित् अनादि और कदाचित् सादि है
तेजस् और कार्माण शरीर की विशेषता –

सर्वस्य -४२
संधि विच्छेद -सर्वस्य-सर्व+अस्य
शब्दार्थ-सर्व-सभी संसारी जीवों ,अस्य- के साथ है !
भावार्थ -तेजस् और कार्माण शरीर सभी संसारी जीवो के( चारो गतियों में) होते है !
एक जीव के युगपत होने वाले शरीर –
तदादीनिभाज्यानियुगपदेकस्याचतुर्भ्य:-४३
संधि विच्छेद -तत् +आदिनि +भाज्यानि+युगपत् +एकस्य +आचतुर्भ्य:-
शब्दार्थ -तत्-उन (तेजस् और कार्माण सरीर को ) आदिनि-आदि लेकर , भाज्यानि-विभक्त करना चाहिए, युगपद्-एक साथ , एकस्य -एक जीव के ,आचतुर्भ्य:-चार शरीर तक हो सकते है !
अर्थ-उन(३६ वे सूत्र में आये ) तेजस और कार्माण, दोनों शरीर को आदि लेकर एक संसारी जीव में एक साथ चार शरीर में विभक्त करना चाहिए!अर्थात
१-संसारी जीव के विग्रह गति में तेजस् और कार्माण दो शरीर होते है !
२-कार्माण,तेजस् और औदारिक/वैक्रियिक-तीन शरीर होते है जैसे क्रमश: मनुष्य और तिर्यंच तथा नारकी और देवों के होते है,
३-तेजस् कार्माण,औदारिक और आहारक चार शरीर होते है जैसे छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के होते है ! वैक्रयिक और आहारक शरीर किसी जीव के एक साथ नहीं हो सकते !अत: किसी भी जीव के चार से अधिक शरीर एक साथ नहीं हो सकते


कार्माण शरीर की विशेषता –
निरुपभोगमन्त्यम् -४४
संधि विच्छेद-निरुपभोगम्+अंत्यम्
शब्दार्थ-निरुपभोगम् -उपभोग रहित है ,अंत्यम् -अंतिम शरीर अर्थात कार्माण शरीर
अर्थ -अंत का कार्माण शरीर उपभोग रहित है !
उपभोग-इन्द्रियों,शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते है !विग्रह गति में कार्माण शरीर के द्वारा ही योग होता है किन्तु विग्रहगति के समय लब्धि रूप भावेन्द्रिय हीं होती है, द्रव्येंद्रियां नहीं होती है !इसलिए शब्द आदि विषयों का अनुभव विग्रहगति में नहीं होने के कारण कार्मण शरीर को निरुपभोग कहा है !
शंका-तेजस् शरीर भी तो निरुपभोग है उसे ऐसा क्यों नहीं कहा है ?
समाधान -तेजस् शरीर योग में भी निमित्त नहीं है !अर्थात जैसे अन्य शरीरों के निमित्त से आत्म प्रदेशों में कम्पन होता है तेजस् शरीर के निमित्त से भी वह नहीं होता !अत: वह तो निरुपभोग ही है इसलिए उसे नहीं कहा है क्योकि निरुपभोग और सपोभोग करते समय उसी शरीर का विचार है जो योग में निमित्त है !ऐसे शरीर, तेजस् के अतिरिक्त चार है,उनमे भी केवल कार्मण शरीर निरुपभोग मय है बाकी तीनो सपोभोग है क्योकि उनमे इन्द्रिय होती है जिनके माध्यम से जीव इन्द्रिय विषयों को भोगता है!

औदारिक शरीर का लक्षण –
गर्भसम्मूर्च्छनजमाद्यम्-४५
संधि विच्छेद-गर्भ+सम्मूर्च्छनजम्+आद्यम्
शब्दार्थ-गर्भ-गर्भ,सम्मूर्च्छनज-सम्मूर्च्छनज,आद्यम्-आदि/पहिला वाला,औदारिक शरीर होता है
अर्थ-गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न हुए जीवों का औदारिक शरीर है !
भावार्थ-गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म तिर्यन्चों और मनुष्यों का ही होता है अत: उनका सूत्र में पहिला औदारिक शरीर होता है!
वैक्रियिक शरीर का लक्षण –
औपपादिकंवैक्रयिकम्-४६
शब्दार्थ-औपपादिकं-उपपाद जन्म वाले जीवों का,वैक्रयिकम्-वैक्रियिक शरीर होता है !
अर्थ- उपपाद जन्म वाले देवों और नारकियों का वैक्रियिक शरीर है !
यदि वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म वाले जीवों के ही होता है ,तो उपपाद जन्म रहित जीवों में विक्रिया का अभाव मानना पड़ेगा ,अन्यत्र विक्रिया का सद्भाव बताने के लिए निम्न सूत्र में आचार्य कहते है-


विशेष वैक्रियिक का लक्षण –
लब्धिप्रत्ययंच-४७
संधि विच्छेद-लब्धि +प्रत्ययं+च
शब्दार्थ -लब्धि-लब्धि,प्रत्ययं-निमित्तक ,च-भी होता है
अर्थ -वैक्रियिक शरीर लब्धि-(तपश्चर्ण) के निमित्त से भी होता है !
भावार्थ-तपस्या के फलस्वरुप प्राप्त ऋद्धि को लब्धि कहते है!अत:तप के प्रभाव से भी वैक्रयिक शरीर होता है !विशेष -जैसे विष्णु महाराज ने अपने शरीर को वैक्रियिक कर विशाल कर दो डग में मध्य लोक को और समेरू पर्वत पर्यन्त क्षेत्र को नाप दिया था! चक्रवर्ती का मूल औदारिक शरीर पटरानी के पास रहते हुए शेष ९५९९९ रानियों के साथ संसर्ग के लिए उनका उत्तर शरीर अंतर्मूर्हूत काल में जाकर सन्तानोत्पत्ति कर मूल शरीर में आजाते है! इस विक्रिया में जीव अपने औदारिक शरीर में ही लब्धि के निमित्त से छोटे ,बड़े ,हल्के -भारी,एक से अनेक शरीर रूप विक्रिया करते है !


लब्धि प्रत्यय शरीर और भी है-
तेजसमपि -४८
संधि विच्छेद-तेजसं+अपि
अर्थ-तेजस शरीर भी लब्धि प्रत्यय भी होता है !अर्थात तपस्वी जीवों को भी लब्धि प्रत्यय/ऋद्धि से प्राप्त होता है!
भावार्थ -यह अनि:सरण, तेजस शरीर-शरीर को कांति,तापमान प्रदान करने वाला,भोजन को पचाने वाला ,सभी संसारी जीवों के होता है और
तेजस् शरीर भी लब्धि प्रत्यय नि:सरण तेजस शरीर अर्थात तपश्चरण द्वारा ऋद्धि प्राप्त करने से होता है यह
२- मुनिराज के शरीर से निकलकर बाहर निकलने वाला तेजस् शरीर ऋद्धि प्राप्त कर दो प्रकार का
१-शुभतेजस् शरीर-किसी क्षेत्र के जीव दुर्भिक्ष/महामारी/रोगों आदि से पीड़ित होने पर ,उनके प्रति अत्यंत करुणा के भाव उत्पन्न होने पर, मुनिराज के दाहिने कंधे से शुभ सफ़ेद रंग का तेजस शरीर निकल कर १२ योजन क्षेत्र के मनुष्यों का कष्ट दूर कर पुन: उनके शरीर में प्रवेश कर जाता है ! और
२-अशुभतेजस् शरीर-मुनिराज के किसी के प्रति अत्यंत क्रोधित भाव उत्पन्न होने पर,उनके बाए कंधे से सिन्दूर के सामान लाल रंग का अशुभतेजस् शरीर निकलकर, उस क्षेत्र के १२ योजन के जीवों को भस्म कर पुन :मुनिराज के शरीर में प्रवेश कर उन्हें भी भस्म कर देता है!ये तेजस् शरीर भी लब्धि निमित्तिक /ऋद्धि प्राप्ति के द्वारा तपस्वी मुनिराज के होते है !प्रथमानुयोग के ग्रंथों में उल्लेखित दीपायान मुनि के क्रोद्ध से द्वारिका के विनाश की लीला किसी से छुपी नहीं है और अंतत: मुनिराज का शरीर भी भस्म हो गया था!
वर्तमान में किसी भी मुनिमहाराज शरीर उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है !


आहारक शरीर के स्वामी के लक्षण-
शुभंविशुद्धमंव्यघातीचाहरकंप्रमत्तसंयतस्यैव -४९
संधि विच्छेद-शुभं+विशुद्धं+अव्यघाती+च+आहरकं+प्रमत्त+संयतस्य्+ऐव्
शब्दार्थ-शुभं-शुभ कार्य के लिए ही निकलता है,विशुद्धं-अत्यंत विशुद्ध होता है,महान पुण्य का फल से होता है अर्थात सप्तधातुओं से रहित होता है,अव्यघाती-अबाधित होता है,किसी को बाधित नहीं करता और स्वयं भी बाधित नहीं होता है,च-और,आहरकं-आहारक शरीर,प्रमत्तसंयतस्य् -छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत मुनिराज के,ऐव-ही होता है,सातवे गुणस्थानवर्ती मुनि के नहीं होता !
अर्थः-आहारकऋद्धिधारी,प्रमत्तसंयत छठेगुणस्थानवर्तीमुनिराज के ही शुभ-शुभ कार्य करने के कारण है, विशुद्ध-विशुद्धकर्म का कार्य होने के कारण विशुद्ध है-महान पुण्य के फलस्वरूप सप्तधातु रहित,अबाधित रुकावट रहित आहारक शरीर होता है!यह शरीर किसी के भी मार्ग में बाधक नही होता और नहीं कोई इसके मार्ग को बाधित कर सकता है!यह शरीर शुभ कार्य करने के कारण शुभ है
यह छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज की इच्छानुसार अंतर्मूर्हत के लिए शरीर से निकलता है,अपना कार्य पूर्ण कर वापिस मुनिराज के मूल शरीर में प्रवेश कर जाता है!इसकी रचना,मुनिराज
१-अपनी, शंका समाधान के लिए केवली के पद मूल में जाकर शंका समाधान के लिए अथवा
२-कोई आचार्य समाधी मरण ले रहे हो उनके स्वस्थ क्षेम के पता लगाने के लिए,अपने संयम की रक्षा के लिए,जीवों की हिंसा से बचने के लिए अथवा
३-दूरगामी स्थान जैसे शिखर जी/ गिरनार जी पर वंदना करने के लिए ,करते है !
इसकी अवगाहना १ हाथ और रंग सफ़ेद होता है!आहारक ऋद्धिधारी मुनि के मस्तक से यह शरीर निकलकर अनुश्रेणी गमन करता है !
इस प्रकार सूत्र ३६ से ४९ तक पांचों संसारी जीवों के शरीरों का निरूपण हुआ !

नारकसम्मूर्च्छिनोनपुंसकानि -५०
संधि विच्छेद-नारक+सम्मूर्च्छिनो+नपुंसकानि
शब्दार्थ-नारक-नारकी,सम्मूर्छिनो-सम्मूर्च्छन जन्म वाले,नपुंसकानि-नपुंसक होते है !
अर्थ-नारकी और सम्मूर्च्छन जन्म वाले मनुष्य, तिर्यन्चों का नपुंसक वेद होता है !
विशेषः-
१- वेद/लिंग-जिसका वेदन/अनुभव करते है,वेद/लिंग है!इसके पुरुष,स्त्री और नपुंसक तीन भेद है प्रत्येक के द्रव्य और भाव से दो भेद है!अंगोपांग आदि नामकर्म के उदय में निर्मित;योनि,स्तन,आदि द्रव्यस्त्रीलिंग/वेद , शिशिन,दाढ़ी ,मूछें आदि द्रव्य पुरुष वेद/लिंग है !
स्त्री वेद के उदय में जो गर्भ धारण करे वह स्त्री है,पुरुषवेद के उदय में जो पुत्रादि उत्पन्न करे वह पुरुष है , नपुंसक वेद के उदय में दोनों शक्ति से रहित ,नपुंसक है !
ये सज्ञाए रूढ़ि शब्द रूप ही है अन्यथा ऐसा नही मानने पर,गर्भ धारण नही करनी वृद्धाये,देवियाँ,कार्मण काययोगमय विग्रह गति में स्थित स्त्रियां,गर्भ धारण से रहित होने के कारण स्त्री नही कहलाएंगी !इसी प्रकार पुत्रादि उत्पन्न नही करने की स्थिति में पुरुष कहना असम्भव होगा !
चारित्र मोहनीय की नो कर्मकषाय-वेदनीय की तीन; पुरुष, स्त्री, नपुंसक वेद कर्म प्रकृतियों के उदय में आत्मा के काम-विकार रूप परिणाम होना क्रमश:पुरुष ,स्त्री, नपुंसक भाव वेद है ! स्त्री वेद में कामाग्नि कंडे की अग्नि के सामान धीरे धीरे सुलगती रहती है पुरुष वेद में तृण अग्नि के समान जलती तीव्रता से है ,किन्तु अल्प काल में शांत हो जाती है !नपुंसक वेद की यह ईंट के भट्टे की अग्नि के समान सदा धधकती रहती है ,कभी शांत नही होती !
नपुंसक वेद-चारित्र मोहनीय की नोकषाय, नपुंसक वेद के उदय की निमित्त से ,यह जीव नपुंसक वेदी भाव युक्त होता है!कर्मोदय में यह स्त्री ,पुरुष दोनों ही नही है!उसके स्त्री पुरुष मनोज्ञ विषय का कदापि सुख नही है !
देवों का वेद
न देवा: ५१
अर्थ-देव नपुंसक वेद के नहीं होते !अर्थात देवों में स्त्री और पुरुष वेद ही होता है !
विशेष-
१-इस सूत्र में नपुंसक पिछले सूत्र अनुवृत्त है!
२- पुण्य के उदय से देवगति में जीव पुरुष और स्त्री संबंधी उत्कृष्ट सुख भोगते है वहां स्त्री और पुरुष दो ही वेद है ,नपुंसक वेद नही है !


मनुष्य और तिर्यन्चों के वेद
शेषास् त्रिवेदा:-५२
शब्दार्थ -शेषास्=शेष जीव,त्रिवेदा:-तीनो वेद के होते है !
अर्थ-शेष;सूत्र ५० और ५१ में उल्लेखित अतिरिक्त सब कर्मभूमियों के जीवों;गर्भ जन्म वाले मनुष्य/तिर्यन्च तीनो वेदी होते है !
भोगभूमिज तथा म्लेच्छ खंड के जीवों के स्त्री अथवा पुरुषवेद ही होता है !


अकाल मृत्यु निम्न लिखित जीवों की नहीं होती है –
औपपादिकचर्मोत्त्मदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः-५३
संधि विच्छेद -औपपादिक+चर्मोत्त्मदेह+असंख्येय+वर्षायुषो+ऽनपवर्त्य+आयुष:
शब्दार्थ-औपपादिक-उपपादजन्म वाले देवों/नारकियों की,चर्मोत्त्मदेह-उत्तम देह वाले;तत्भव मोक्षगामी जीव /श्रेष्ठ तीर्थंकरभगवान,असंख्येय-असंख्यात वर्षों से अधिक (पल्य आयु वाले भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच) जीवों ,वर्षायुषो-वर्षों की आयु वाले की ,ऽनपवर्त्य+आयुष:-अनपवर्त्य आयु होती है अर्थात इनकी आयु भुजयमान आयु से कम नहीं हो सकती!ये बध आयु को पूर्ण कर ही शरीर छोड़ते है !
अर्थ -उपपाद जन्म वाले देव /नारकी,चरमशरीरी वाले तद्भव मोक्षगामी जीव और उत्कृष्ट जीव तीर्थंकर भगवान,भोगभूमिज(उत्तर कुरु ,देवकुरुमें उत्पन्न दीर्घायु के जीव) के असंख्यात वर्ष की आयु वाले (पल्य आयु वाले)जीव मनुष्य/तिर्यंच का अकाल मरण नही होता,वे अपनी पूर्ण भुजयमान बध आयु पूर्ण कर ही शरीर त्यागते है!उनकी आयु कम नहीं हो सकती अर्थात इनका अकाल मरण नहीं होता है!
विशेष-
१-संख्यात आयु -की इकाई अचल अर्थात ८४ की घात ३१ x१० की घात ८० है !इससे ऊपर की संख्या असंख्यात है !सन्दर्भ-आदि पुराण पृष्ठ ६५-विरचित आचर्य जिनसैन !
२-ऽनपवर्त्य आयुष:-जिन जीवों की आयु ,बंध आयु से कम नहीं होती!अपवर्त्य आयु -जिनकी आयु विष आदि के सेवन से कम हो सकती है !
३-भुजयमान आयु का उत्कृष्ण नहीं हो सकता,मात्र उदीरणा हो कर कम हो सकती है !इसलिए प्रश्न उठता है की क्या सभी संसारी जीवों की आयु का क्षय हो सकता है ?या इसके कोई अपवाद भी है !
इसका उत्तर देने के लिए आचार्य उमास्वामी जी ने उक्त सूत्र रच कर बताया है, कि उपपाद जन्म वाले नारकी /देवों का,तद्भवमोक्षगामी मनुष्यों/तीर्थंकरों,असंख्यात वर्षो की आयु वाले मनुष्य/तिर्यन्चों की भुजयमान आयु का क्षय नहीं होता है!उनकी पूर्ण आयु भोगकर ही पर्यायका अंत होता है!इन जीवों की भुज्यमान आयु के प्रारम्भ होने के प्रथम समय से,आयु के जितने निषेक होते है वे क्रमश: एक एक ही उदय में आकर निर्जरित होते है! शस्त्र,विषादिक बाह्य निमित्तों से उनका घात नही होता है!किन्तु ऐसा नहीं है कि इन जीवों के आयुकर्म की उदीरणा नहीं होती हो!उदीरणा होना संभव है किन्तु निषेक का स्थिति घात न होकर ही उदीरणा होती है !स्थितिघात का अर्थ है कि इनके पूरे निषेको का उदीरणा के द्वारा क्षय नहीं होता है !
इस विशेष नियम करने का कारण है कि कर्मशास्त्र के अनुसार; निकचित,निधत्ति और उपशमकरण को प्राप्त कर्म के अतिरिक्त, अन्य कोई भी अधिक स्थिति वाला कर्म, उभयरूप कारण विशेष के मिलने पर अल्पकाल में भोगा जा सकता है!भुजयमान आयु पर भी यह नियम लागू होता है इसलिए इस सूत्र की व्यवस्था करी गई है !
अकाल मृत्यु का कारण -कर्म भूमि के मनुष्यो और तिर्यन्चों की भुजयमान आयु की उदीरणा होती है जिससे आयु की स्थिति जल्दी पूर्ण होकर अकाल मृत्यु हो जाती है!जैसे कि आम को पाल मे रखकर समय से पूर्व पका लिया जाता है !इसको एक उद्धाहरण से समझते है –
किसी जीव ने मनुष्यायु के १०० वर्ष की स्थिति का बंध कर १०० वर्ष की आयुबांधी!आयुकर्म के जितने प्रदेशबंध किया १००वर्ष के जितने समय होते है उतने समयों में उन कर्म परमाणुओं की निषेक रचना तत्काल हो गयी!जब वह जीव मरकर मनुष्य पर्याय में आया तो प्रति समय एक एक आयु कर्म का निषेक उदय में आ कर निर्जरित होने लगा!इसी प्रकार यदि प्रत्येक समय एक एक आयुकर्म का निषेक उदय में आकर निर्जरित होता रहता तो १०० वर्ष में सारे निषेक उदय में आते जिससे १०० वर्ष की मनुष्य पर्याय की बंध आयु पूर्ण हो जाती !अब ५२ वर्ष तक तो प्रति समय १-१ निषेक आयुकर्म के उदय में आकर निर्जरित होते रहे जिससे ५२ वर्ष की आयु पूर्ण हो गयी !इसके बाद किसी ने पाप कर्म के उदय में विष दे दिया /या स्वयं ले लिया /या किसी रोग से ग्रसित हो जाने पर/किसी के द्वारा वध किये जाने पर.शेष बंध आयु के ४२ वर्ष में आने वाले आयु कर्म के निषेकों की उदीरणा अंतर्मूर्हत में ही हो जाने से अकाल मरण होजाता है !
यदि किसी जीव ने आयु ही ५ वर्ष की बांधी तो यह अकाल मरण नहीं है !
४- कुछ लोगो की मान्यता है की केवली ने,सब कुछ केवलज्ञान में देख/जान रखा है की अमुक जीव की अमुक आयु है,तब अकाल मरण कैसे सम्भव है क्योकि केवली ने तो पहिले ही उस जीव की आयु जान रखी है ?
समाधान-जो लोग ऐसा मानते है वह आगम सम्मत नहीं है क्योकि केवली ने तो केवलज्ञान में यह भी जाना/देखा है कि अमुक जीव ने अमुक आयु का बंध किया है और अमुक वर्षो मे ही अकाल मृत्यु को प्राप्त कर जाएगा!इसलिए जो अकाल मृत्यु नहीं मानते उनकी धारणा,आगम सम्मत नही है !
५-निगोदिया और सूक्ष्म जीवों का भी अकाल मरण संभव है उनका नाम भी उक्त सूत्र में नही है!
आचार्यश्री उमास्वामी जी की मानव सभ्यता सदा ऋणी रहेगी जिन्होने भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जीव विज्ञान को हमारी पीढ़ी तक पहुँचाया!आधुनिक विज्ञान तो अभी नित्य नवीन अनुसंधानों में ही लगा है,कुछ का ज्ञान प्राप्त करने में सफल हुआ है जबकि ज्ञान का अथाह सागर अभी भविष्य की गर्थ में लुप्त है!उद्धाहरण के लिए स्थावर जीवों ;पृथिवीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक ,वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की सत्ता जैनागम में पूजनीय ऋषभदेव भगवान तीर्थंकरो ने बहुत पहिले प्रतिपादित करी है किन्तु आधुनिक विज्ञान मात्र वनस्पतिकायिक की सत्ता प्रमाणित करने में कुछ वर्षों पूर्व ही सफल हुआ है !
इस प्रकार आचार्य उमास्वामी विरचित तत्वार्थ सूत्र जी के द्वितीय अध्याय,जीवों की उत्पत्ति,भेद और विकास की इतिश्री हुई!मुझ जैसे अल्पज्ञानी द्वारा त्रुटियाँ रह गई हो तो बुद्धिजीवी प्रबुद्ध विनम्र निवेदन है उन्हें ठीक कर मेरा मार्ग दर्शन कर अनुग्रहित करने की कृपा करे!

आचार्य वीर सेन स्वामी के अनुसार जीव का अकाल मरण नही होता है क्योकि – , !
धवला जी पुष्प १० .पृ. २३७
“परभविआउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चेव वेदेदित्ति जाणावणट्ठं कमेण कालादोत्ति उत्तं।परभवियाउअं बंधिय भुंजमाणाउए घादिज्जमाणे को दोसो त्ति उत्तेण, णिज्जिण्ण भुंजमाणा उअस्स अपत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगइबाहिर- स्स जीवस्स अभावप्पसंगादो।जीवा णं भंते।
अर्थ-परभव संबंधी आयु के बंधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघातनही होता,किन्तु वह जितनी थी उतनी का वेदनकरता है,इस बात का ज्ञ…ान कराने के लिए ‘क्रम से काल’ को प्राप्त होकर’ यह कहा है !
शंका -परभविक आयु को बांधकर भुज्यमान आयु का घात मानने में कौन सा दोष है ?
समाधान-नही,क्योकि ,जिसकी भुजयमान आयु की निर्जरा हो चुकी है,किन्तु अभी तक पर भविक आयु का उदय नही प्राप्त हुआ है,उस जीव का चतुर्गति के बाह्य हो जाने से अभाव को प्राप्त होता है !

Animations and Visualizations.

मुनि श्री 108 प्रणम्यसागरजी तत्वार्थ सूत्र with Animation

अधिक जानकारी के लिए …. 

अध्याय 1 | अध्याय 2 | अध्याय 3 | अध्याय 4 | अध्याय 5 | अध्याय 6 | अध्याय 7 | अध्याय 8 | अध्याय 9 | अध्याय 10

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3 thoughts on “तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra) अध्याय 2

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