आस्रव-जो शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे योग कहते है!योगो की प्रवृत्ति से आत्मप्रदेशों में कर्मों का आस्रव होता है,कर्मों के आत्मप्रदेशों में आगमन को आस्रव कहते है!शुभ और अशुभ योग से क्रमश; दोनों प्रकार शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव होता है,जिस योग की प्रधानता होती है उसके अधिक और दुसरे के कम कर्म बंधते है!हमारे आत्मप्रदेशों में ही कर्मवर्गणाये,पुद्गल वर्गणाओं रूप में रहती है,जैसे ही हम मन,वचन,अथवा काय से कोई क्रिया करते है वे कर्माणपुद्गल वर्गणाए,आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द करने से कर्म रूप बंध जाती है!यह समस्त क्रिया बंध और आस्रव है,कर्मों का आस्रव-बंध एक ही समय युगपत् होता है!
इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री २७ सूत्रों के माध्यम से तीसरे ‘आस्रव’ तत्व के कारणों, उस के भेद,जीवाधिकरण,अजीवाधिकरण और अष्ट कर्मों के आस्रवों के कारणों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में योग को परिभाषित करते है-
आस्रव क्यों होता है-
कायवाड.मन:कर्मयोग: !!१!!
संधिविच्छेद:-काय+वाड.+मन:+कर्म+योग:
शब्दार्थ:-काय-शरीर,वाड.-वचन,मन:-मन की,कर्म-क्रिया,योग:-योग है!
अर्थ-काय-शरीर ,वचन और मन की क्रिया योग है
भावार्थ-शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन(हलन-चलन,/संकोच-विस्तार) को योग कहते है!योग के निमित्त,सामान्य से ३ और विशेष से १५ है!
आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन काया,वचन और मन की,क्रिया से क्रमश: काययोग, वचनयोग और मनोयोग कहलाता है!
काययोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होने पर औदारिकादि;सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा की सहायता से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है,उसे काययोग कहते है !
काययोग के भेद:-सात-१-औदारिक,२-औदारिकमिश्र,३-वैक्रियिक,४-वैक्रियिकमिश्र,५-आहारक,६-आहरकमिश्र तथा ७-कार्मण काययोग!
स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और श्रोत पंचेन्द्रियां भी काय में ही गर्भित है !
वचनयोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम होने से जीव में वाग्लाबधि प्रकट होती है और वह बोलने के लिए ततपर होता है,तब वचनमर्गणा के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे वचन योग कहते है !
वचनयोग के भेद:-चार;
१-सत्यवचनयोग- वचनों में सत्यत्व हो,२-असत्यवचनयोग-वचनों में असत्यत्व हो,३-उभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,तथा४- अनुभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों ही नही हो और
मनोयोग वीर्यान्तरायकर्म और नो इन्द्रयावरणकर्म के क्षयोपशम से मनोलब्धि के होने पर तथा मनो वर्गणा के आलंबन के निमित्त से,जीव के चिंतन के लिए ततपर,आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है,वह मनोयोग कहलाता है
मनोयोग के भेद:-चार;
१-सत्यमनोयोग-मन में सत्यत्व ,२-असत्यमनोयोग -होमन में असत्यत्व हो,३-उभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,४-अनुभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों ही नही हो इस प्रकार तीनो;,काय,वचन और मन,योगो के कुल १५ उत्तर भेद है!
विशेष
१-वर्तमान में हमारे चारों मनोयोग,चारों वचनयोग और औदारिक काययोग,कुल ९ में से,एक समय में एक ही योग हो सकता है!हमें भ्रान्ति हो सकती है कि जब हम चलते है,उसी समय बोलते भी है, उसी समय चिंतवन भी करते है,किन्तु वास्तव में ऐसा होना असंभव है!जब मनोयोग,वचनयोग अथवा काययोग का कोई भी एक भेद हो रहा हो तब योग का अन्य कोई भेद नहीं हो सकता!आत्मा का उपयोग जिस ऒर होता है,वही योग होता है अन्य नहीं! जब हम सोचते है,उस समय मनोयोग ही होता है चाहे हम संस्कार वश उसी समय शरीर से भाग भी रहे हो,किन्तु आत्मा का उपयोग उस ऒर नहीं हो रहा होता है, अत: उस समय काययोग नहीं होता है!जब हम टी.वी पर कोई कार्यक्रम देखते है,उस समय हमें चक्षुइंद्री से देखने और कर्ण इंद्री से सुनने की अनुभूति एक साथ होती है किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है क्योकि एक समय में हम आत्मा का उपयोग एक ही ऒर लगा सकते है!इस का प्रमाण है कि हम टी.वी.पर प्रवचन सुनते समय उसको निर्विघ्न काय (हाथ)से साथ-साथ लिख नहीं पाते है!
२-केवली भगवन के दो वचन योग:-१-सत्यवचनयोग-वचन सत्य होने के कारण,२-अनुभय वचन योग:-भाषा अनुभय होने के कारण तथा दो मनो योग:-१ सत्यमनोयोग-सत्य वचन बोलने से पहले जो मन का उपयोग सत्य बोलने के लिए हुआ,उस कारण और,२-अनुभय मनोयोग-अनुभय वचन होने के कारण!उनके तीन काययोग होते है!सामान्य से जब वे समवशरण में विराजमान रहते है अथवा विहार करते है तब उनका औदारिक काययोग होता है!उनका दंड-समुदघात में औदारिककाययोग,कपाट समुद घात में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर व लोकपूर्ण समुद्घात में कार्माण काय योग होता है।
विशेष-वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षय होने पर सयोगकेवली के तीन;वर्गणाओं; काय, वचन और मन की अपेक्षा जो आत्म प्रदेश में परिस्पंदन होता है वह कर्म क्षय निमित्तक योग है !जो की १३ वे गुणस्थान तक ही रहता है आयोग केवली के तीनों वर्गणाओं का आगमन रुक जाता है!जिससे वहां योग का अभाव हो जाता है !
३- योग के आठ अंग –
१-यम :-अहिंसा,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह रूप मन वचन काय का संयम यम है !
२-नियम:-शौच ,संतोष,तपस्या। स्वाध्याय,व् ईश्वर प्रणिधान ये नियम है !
३-आसान:-पद्मासन ,वीरासन ,आसान है
४-प्राणायाम -श्वासोच्छ्वास का गति निरोधप्राणायाम है !
५-प्रत्याहार-इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना प्रत्याहार है !
६-धारणा -विकल्पपूर्वक किसी एक काल्पनिक ध्येय में चित्त को नष्ट करना धारणा है
७-ध्यान-ध्यान,ध्याता व् ध्येय को एकाग्र प्रवाह ध्यान है !
८-समाधि-ध्यान,ध्याता व ध्येय रहित निवृत्त चित्त समाधि है !
चित्त (मन )की पांच अवस्थाये-
१-क्षिप्तचित्त-चित्त का संसारी विषयो में भटकना !
२-मूढ़चित्त-चित्त का निंद्रा आदि में रहना !
३-विक्षिप्तचित्त-सफलता-असफलता के झूले में झूलना !
४-एकाग्रचित्त-एक ही विषय में केंद्रित रहना !
५-निरुद्धचित्त-समस्त प्रवृत्तियों का रुक जाना !,
४-५ वी अवस्थाये योग के लिए उपयोगी है !
चित्त (मन) के रूप –
१-प्रख्या-अणिमा आदि ऋद्धियों की अनुरक्ति/प्रेमी प्रख्या है
२-प्रवृत्ति-विवेक बुद्धि के जागृत होने पर चित्त धर्ममेय समाधि में स्थित हो जाता है तब पुरुष का बिम्ब चित्त पर पड़ता है और चेतनवत् कार्य करने लगता है!यही चित्त की प्रवृत्ति है !

स आस्रव: -२
संधि विच्छेद-स+आस्रव:
शब्दार्थ- स=वह (योग जो पिछले सूत्र में कहा है), आस्रव:-आस्रव है!
अर्थ वह तीन प्रकार का योग ही आस्रव है
भावार्थ-त्रियोगों;मन,वचन और काय के द्वारा आत्माप्रदेशों में परिस्पंदन अर्थात योग ही पुद्गलकर्म वर्गणाओ का आत्मा की ऒर आने का कारण,आस्रव है!
विशेष-
१-कर्मों के आत्मा में आने के द्वार को आस्रव १५ भेद वाला योग है!कार्मणवर्गणाओ का कर्म रूप परिणमन आस्रव है!
२-जीव निरंतर मन,वचन,काय त्रियोगों में सोते-जागते प्रतिसमय प्रवृत्त रहता है,इसीलिए उसके प्रतिसमय कर्मों का आस्रव होता है यहाँ तक की जब आत्मा वर्तमान एक शरीर को त्याग कर विग्रह्गति में दुसरे भव के शरीर को धारण करने के लिए गमन करते समय भी उसमे क्रिया होती है,कर्मो का आस्रव होता है!
३-१३वे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के भी कर्मो का आस्रव होता है!
४–जिस प्रकार कुए के भीतर पानी आने में झिरे कारण है उसी प्रकार आत्मा के कर्म आने में योग कारण है!यद्यपि योग आस्रव में कारण है तथापि सूत्र में कारण में कार्य का उपचार कर उसे ही आस्रव कह दिया है!जैसे प्राणों की स्थिति में कारण अन्न को ही प्राण कह देते है!


आस्रव का स्वरुप –
शुभ:पुण्यस्याशुभ:पापस्य: ३
संधि-विच्छेद-शुभ:+पुण्यस्य+अशुभ:+पापस्य:शब्दार्थ-शुभ:-शुभ(योग),पुण्यस्य-पुण्यकर्म और अशुभ:-अशुभ(योग),पापस्य-पापकर्म आस्रव है
अर्थ-शुभयोग पुण्यकर्म और अशुभयोग पापकर्म के आस्रव का कारण है
भावार्थ-शुभयोग-शुभ;मन वचन काय की प्रवृत्तियां(क्रियाये) जैसे;पूजा,पाठ,स्वाध्याय,धर्म ध्यानादि शुभ/पुण्यकर्मो का और अशुभयोग-अशुभ;मन;वचन,काय की प्रवृत्ति(क्रियाये) जैसे;सांसारिक राग-द्वेष, पंच पापों में लिप्ता आदि अशुभकर्मों-पापकर्मों का आस्रव होता है!
विशेष-१-जब हम धार्मिक कार्यो में प्रवृत्त रहते है उस समय हमें शुभ-पुण्यकर्मो का आस्रव तभी होगा जब हमारा अभिप्राय,पूजा की क्रिया विधि,और परिणाम दोनों ठीक होंगे अन्यथा अशुभ पाप कर्मों का ही आस्रव होता है!
अभिप्राय-मान लीजिये पूजा-पाठ आदि करने के पीछे हमारा अभिप्राय,सांसारिक सुखों की पूर्ती की इच्छाए है तब हमें कर्मों का पुण्यास्रव नहीं होगा,पापास्रव ही होगा क्योकि हम संसार से मुक्त होने की इच्छा नहीं रख रहे है!
शंका-१ अपने समय का श्रावक सदुपयोग कैसे करे?
समाधान-मन,वचन और काय की प्रवृत्ति अशुभ विकल्प रहित होंगी तब पुण्यास्रव होगा अन्यथापापास्रव होगा!आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के अनुसार हमें अपने समय;२४ घंटो को ८-८ घंटे के ३ भागों में , विभक्त करना चाहिए!प्रत्येक ८-८ घंटे; धार्मिककार्यो,व्यावसायिक कार्यों और काम अर्थात शरीर के लिए रखने चाहिये!
शंका:-२ शुभकर्म के आस्रव का कारण शुभयोग और अशुभकर्म के आस्रव का कारण अशुभयोग है,यदि ऐसा लक्षण कह दिया जाये तो क्या हानि है?
समाधान-यदि ऐसा लक्षण कह दिया जाए तो शुभ का अभाव हो जाएगा क्योकि आगमानुसार जीव के आयुकर्म के अतिरिक्त,सातों कर्मों का आस्रव प्रतिसमय होता है,अत: शुभयोग में भी ज्ञानावरण आदि पापकर्मों का आस्रव/बंध होता है,इसलिए उक्त कथन आगम विरुद्ध है !
शंका-३ जब शुभयोग से भी घातिया कर्मों का बंध होता है तो सूत्र में क्यों कहा है की शुभयोग से पुण्यकर्म का आस्रव/बंध होता है?
समाधान-घातियाकर्मों की अपेक्षा से नहीं,अघातिया(वेदनीय,आयु,नाम और गोत्र) कर्मों की अपेक्षा से कहा गया है!अघातिया कर्मों के पुण्य और पाप दो भेद होते है!शुभयोग से पुण्यकर्म का और अशुभयोग से पापकर्म का आस्रव होता है!शुभयोग रहते हुए भी घातिया कर्मों का अस्तित्व रहता है,उनका उदय भी रहता है और उसी से घातिया कर्म का बंध भी होता है !

साम्परायिक आस्रव के स्वामी की अपेक्षा दो भेद:-
सकषायाकषाययो:साम्परायिकेर्यापथयो:!४!
संधिविच्छेद-सकषाय+अकषाययो:+साम्परायिक:+ईर्यापथयो:
शब्दार्थ-सकषाय-कषायसहित और अकषाययो-कषायरहित जीवों के क्रमश: साम्परायिक-साम्परायिक आस्रव(कर्मो का आत्मा के पास आकर रुकना) और ईर्यापथयो-ईर्यापथ आस्रव (कर्मों का आत्मा के पास आकर नहीं रुकना अर्थात बिना रुके चले जाना) कहलाता है!
अर्थ-चार कषायों(क्रोध,मान,माया और लोभ) सहित जीवों के साम्परायिक और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है
भावार्थ-कषाय सहित जीवों के १० वे गुणस्थान तक साम्परायिक आस्रव होता है क्योकि कषाय १०वे गुणस्थान के बाद नहीं रहती!
ईर्यापथ आस्रव-स्थिति और अनुभाग रहित कर्मों के आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते है इस में, कर्म की स्थित १ समय की भी नहीं होती,वे आकर चले जाते है,क्योकि कषाय के अभाव में उन्हे बंधने का अवसर नहीं मिलता!कषाय रहित जीवों के केवल,योग के (सद्भाव में)कारण ११,१२,१३ वे गुणस्थान में ईर्यापथ आस्रव होता है,१४ वे गुणस्थान में योग के अभाव में वह भी नही रहता !
साम्परायिक आस्रव के भेद-

इन्द्रियकषायाव्रतक्रिया:पञ्चचतु:पञ्चपञ्चविंशतिसंख्या:पूर्वस्यभेदा:!५!

संधिविच्छेद:-इन्द्रिय+कषाय+अव्रत+क्रिया:+पञ्च+चतु:+पञ्च+पञ्चविंशति+संख्या:+पूर्वस्य+भेदा:
शब्दार्थ-इन्द्रिय-इन्द्रिय,कषाय-कषाय,अव्रत-पाप,क्रिया:-क्रिया के क्रमश: ,पञ्च-पांच,चतु:-चार,पञ्च-पाच, और पञ्चविंशति-पच्चीस,संख्या:-भेद,पूर्वस्य-उप्र के सूत्र में पहले वाले/साम्परायिक आस्रव,भेदा:-भेद है!
अर्थ-पूर्वसूत्र में पहिले,साम्परायिक आस्रवके इन्द्रिय,कषाय,पापो,क्रिया की अपेक्षा क्रमश:५,४,५,२५ भेद है
भावार्थ-साम्परायिक आस्रव के ३९;पञ्चइन्द्रिय विषयों(स्पर्श,रसना,घ्रण,चक्षु और कर्ण)-,४ कषायों (क्रोध,मान,माया और लोभ),५-पापो(हिंसा,चोरी,झूठ,कुशील और परिग्रह)और २५ क्रियाये,भेद है!
विशेष-
१-जीव के ३ योगो;मन,वचन,काय से ५-इन्द्रिय विषयों में,४-कषाय;क्रोध,मान,माया लोभ ,५-पापों; हिंसा, झूठ, चोरी,कुशील,परिग्रह तथा २५-क्रियाओं रूप प्रवृत्ति होने(विशेषत:सम्यक्त्व और मिथ्यात्व क्रिया) से,साम्परायिक आस्रव होता है!
सम्यक्त्व क्रिया-सम्यक्त्व की वृद्धि करने वाली क्रिया अर्थात सच्चे देव,शास्त्र, गुरुकी भक्ति आदि करना,सम्यक्त्व क्रिया है !
सच्चेदेव-वीतराग,हितोपदेशी,सर्वज्ञ,सच्चे देव है!
सच्चे शास्त्र-“भव्य जिन(जिनेन्द्र देव) की वाणी” है,जिनवाणी सच्चे शास्त्र है!
सच्चे गुरु-२८ मूलगुण धारी निर्ग्रन्थ गुरु सच्चे गुरु है! एक भी मूल गुण कम होने पर वे सच्चे गुरु की कोटि में नहीं आते है!
साम्प्रायिक आस्रव के होने में कारण २५-क्रियाये –
१-सम्यक्त्व-सम्यक्त्व की अभिवृद्धि करने वाली देव,शास्त्र,गुरु की पूजन आदि क्रियाये है!
इन की वृद्धि हेतु सच्चे,देव,शास्त्र,गुरु के स्वरुप को समझकर उनकी पूजा,भक्ति, अराधना, मनोयोग से करनी चाहिए!इसी से सम्यगदर्शन,सम्यग्ज्ञान,सम्यक्चरित्र प्राप्त हो सकता है!
हमारे अराध्य मात्र ९;देव,पंच परमेष्ठी,जिनवाणी,जिनधर्म,जिनचैत्यालय और जिनबिम्ब है!इनके अतिरिक्त अन्य देवी-देवता हमारे अराध्य/पूजनीय नहीं है!इनसे बचते हुए सम्यक्त्व में वृद्धि करनी चाहिए!अन्यथा दर्शनमोहनीय कर्म का बंध पुष्ट होगा!इस मनुष्य पर्याय का भरतक्षेत्र में जन्म लेने के लाभ से वंचित रह जायेगे!हमारी मनुष्यपर्याय,जिसमे अपना कल्याण कर सकते है,व्यर्थ जायेगी !सम्यक्त्व क्रियाये पुण्य के बंध और संसार से मुक्ती का कारण है,मिथ्यात्व क्रियाये घोर पापबंध और संसार का कारण है!
२-मिथ्यात्वक्रियाये-सम्यक्त्व क्रिया के विपरीत,मिथ्यातव वृद्धि हेतु सच्चे,देव,शास्त्र, निर्ग्रन्थ गुरु, जिनवाणीआदि के अतिरिक्तअन्य;देव शास्त्र गुरु,धर्म,भक्ति,सेवामें अनुरक्त रहना मिथ्यात्व क्रियाये है!
आज हम जैन लोग,नवरात्रि पूजा करने लगे है जिसका जैन शास्त्रों में कोई विधान नहीं है,नवग्रह विधान में लग रहे है,ये नवगृह हमारा कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं कर सकते!ये क्रियाये आगमविरुद्ध है!जैनी शनि अमावस्या मनाने लगे है,सभी देवी-देवताओं के मंदिर बनने लगे है,नवग्रह अष्ट निवारक मंदिर बनने लगे है,शनि वार को मुनिसुव्रत भगवान् की पूजा,शनि गृह के प्रकोप के निवारण हेतु करने लगे है,यह धारणा बिलकुल आगम विरुद्ध है!समस्त सिद्ध भगवानो की क्षमता में मात्र भी अंतर नहीं है!मिथ्यात्व और कुदेव,कुशास्त्रों,कुगुरू के चक्कर में पड़कर हम आज अपना वर्तमान जीवन और परलोक भी नष्ट कर रहे है! हमें सन्मार्ग दिखाने वाले गुरु भी आज हमें मिथ्यात्व की ऒर ले जाने लगे है!वे कहने लगे नवग्रह,देवी,देवताओं की पूजा करो!ये सब मिथ्यात्व क्रिया है!आज बहुत सी जैन महिलाए करवा चौथ का व्रत,अन्य धर्मों के अनुसरण में रखने लगी है,जिसका विधान जैनागम में नहीं है!अन्य धर्मो के त्योहारों को हम मानने लगे है,ये सब क्रियाये मिथ्यात्व की वृद्धि है,जिनसे बच कर हमें अपने धर्म के प्रति श्रद्धा प्रगाढ़ करनी चाहिए!इनसे बचे क्योकि पञ्च इन्द्रियों के विषयों में,चार कषायों,पञ्च अव्रत व २५ क्रियाओं में यदि हम अपना उपयोग लगा रहे है,तब साम्परायिक आस्रव होगा
३-प्रयोग क्रिया-शरीर आदि से गमनागमन रूप प्रवृत्ति,प्रयोग क्रिया है!
४-समादान क्रिया-संयमी का असंयम की ओर अभिमुख होना,समादान क्रिया है!
५-ईर्यापथ क्रिया-ईर्यापथ गमन हेतु क्रिया ईर्यापथ गमन क्रिया है!
६-प्रदोषिक क्रिया-क्रोध के आवेश में होने वाली द्वेषादिक रूप क्रिया,प्रदोषिक क्रिया है!
७-कायिकी क्रिया-मारना,गाली देना,आदि दुष्टता पूर्ण क्रियाये कायिकी क्रिया है !
८-आधिकारणि क्रिया-हिंसादि के उपकरण तलवार,पिस्टल,बंदूकआदि ग्रहण करना,आधिकारणि क्रिया है
९-परितापि की क्रिया-प्राणियों को दुखी करने वाली क्रियाएँ,परितापिकी क्रिया है !
१०-प्राणातिपाती की क्रिया-दुसरे जीव के शरीर,इन्द्रिय आदि प्राणों का ही घात करना,प्राणातिपाती की क्रिया है !
११-दर्शन क्रिया-राग के वशीभूत होकर मनोहर देखना,दर्शन क्रिया है!
१२-स्पर्शन क्रिया-रागवश किसी वस्तु को स्पर्श करना,स्पर्शन क्रिया है!
१३-प्रात्ययिकी क्रिया-विषयों की नयी नयी वस्तुओं को एकत्र करना,प्रात्ययिकी क्रिया है!
१४-समन्तानुपात क्रिया-स्त्रीपुरुष, के सोने/बैठने के स्थान पर मलमूत्र आदि क्षेपण करना,समन्तानुपात क्रिया है !
१५-अनाभोग क्रिया-बिना देखी,बिना शोधी जमीन पर उठने बैठने को अनाभोग क्रिया कहते है !
१६-स्वहस्त क्रिया -दुसरे के योग्य कार्य स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है!
१७-निसर्ग क्रिया-पाप की कारण प्रवृत्ति को भला समझने को निसर्ग क्रिया कहते है!
१८-विदारण क्रिया-पर द्वारा किये गए पापों को प्रकाशित करने को विदारण क्रिया कहते है !
१९-आज्ञाव्यापादिकी क्रिया-चारित्रमोहनीय के उदय से शास्त्रोक्त आवश्यकादि क्रियाओं के करने में असमर्थ होने पर उनका अन्यथा निरूपण करना, आज्ञाव्यापादिकी क्रिया कहते है !
२०-अनाकांक्षा क्रिया-प्रमाद/अज्ञान वश,आगमोक्त क्रियाओं में अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है !
२१-आरंभिकी क्रिया -छेदन भेदनादि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्त होना,अन्यों को प्रवृत्त होता देख प्रसन्न होना आरंभिकी क्रिया है !
२२-परिग्रहिकीक्रिया-परिग्रहों की रक्षा में लगे रहना परिग्रहिकी क्रिया है !
२३-माया क्रिया-ज्ञान दर्शन में कपट रूप प्रवृत्ति करना माया क्रिया है !
२४-मिथ्यादर्शन क्रिया-मिथ्यात्व रूप परिणीति मे,किसी को मिथ्यात्व की प्रशंसा कर,दृढ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है !
२५-अप्रत्याख्यान क्रिया-चारित्र मोहनीय के उदय से त्याज्य वस्तुओं में त्याग रूप प्रवृत्ति नहीं होना,अप्रत्याख्यान क्रिया है!

शंका-सभी आत्माओं के तीनो;मन,वचन और काय योग कार्य है,अत:सब सैनी पंचेन्द्रिय संसारी जीव के समान रूप से प्राप्त होने के कारण;सभी को कर्म बंध के फल का अनुभव एक समान होना चाहिए !
समाधान-सब को एक समान कर्मबंध का फल नहीं मिलता क्योकि यद्यपि योग सभी सैनी पंचेन्द्रिय आत्मा के होते है किन्तु जीवों के परिणामों में तीव्रता /मन्दता अनन्त भेदों सहित होती है !इसलिए कर्म के फलों में भिन्नता आ जाती है! आचार्य श्री ने इसे निम्न सूत्र द्वारा स्पष्ट किया है

हीनाधिक साम्प्रायिक आस्रव के कारण-तीव्रमंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेष:!!६!!
संधिविच्छेद-तीव्र+मंद+ज्ञात+अज्ञात भाव+अधिकरण+वीर्य+विशेषेभ्य+तद्विशेष:
शब्दार्थ:-तीव्रभाव,मंदभाव,ज्ञातभाव,अज्ञातभाव,आधारविशेष और वीर्यविशेष से तद्विशेष:-उस( साम्प्रायिक आस्रव) में विशेषता ( हिनाधिक्ता) होती है

अर्थ-साम्परायिक आस्रव में विशेषता (हीनाधिक्ता),जीव के तीव्रभाव,मंदभाव,ज्ञातभाव,अज्ञातभाव अधिकरण विशेष और वीर्यविशेष से आती है!
भावार्थ-जीव के किसी कार्य में तीव्र राग-द्वेष ,कषाय से अधिक और मंद राग-द्वेष,कषाय से कम आस्रव होता है!
१-तीव्र/मंदभाव:-कोई जीव,नन्दीश्वर द्वीप/पंञ्चमेरु की पूजन, इनके अर्थ/विषय जाने बिना कर रहा है तो उनका,उस जीव की अपेक्षा कम मन लगेगा जिसको इनके अर्थ/विषय का ज्ञान है,ऐसे जीव के पुण्यकर्म का आस्रव,मन लगाकर पूजन करने वाले की अपेक्षा कम होगा!मन लगाकर पूजा करने वाले के नेत्रों के समक्ष नन्दीश्वर द्वीप/पञ्चमेरु के जिनालय बनने से वह भक्ति में डूब जायेगा जिससे उस के पुण्यकर्मों का आस्रव उत्कृष्टकोटि का होगा!इस प्रकार तीव्र और मंद भाव के आधार से परिणामों में विशेषता आने से ,तदानुसार आस्रव होता है!

२-ज्ञात/अज्ञातभाव:-कोई क्रिया ज्ञानता या अज्ञानता पूर्वक करी है,दोनों में भिन्न प्रकार का आस्रव होगा!जैसे किसी ने बाज़ार से अंडे से निर्मित आईस क्रीम के सेवन किया ,जब तक उसे ज्ञान नहीं है की उसमे अंडा है तब तक उसके,जानने के बाद सेवन करने की अपेक्षा,पापकर्म का कम आस्रव होगा!अज्ञातभाव से हिन्सा कम होती है,आस्रव कम होता है,ज्ञात भाव से जान बूझकर कार्य करने पर हिंसा बहुत होती है,आस्रव बहुत होता है!
३-अधिकरणविशेष-आस्रव के आधार को अधिकरण/प्रयोजन कहते है!किसी तीर्थ पर जाकर साफ़ सुथरी नई धोती,शुद्ध सामग्री,साफ़-सुथरे,चमकते चांदी के बर्तनों में अत्यंत भक्तिभाव से पूजन करने पर पुण्य आस्रव,अपेक्षाकृत,अशुद्ध सामग्री,गंदे टूटे-फूटे स्टील के बर्तनों में,गन्दी धोती पहन कर साधारण भक्तिभाव होने के कारण,अधिक होगा, क्योकि अधिकरण अर्थात आधार की विशेषता से पुण्य के आस्रव में अंतर होता है!
४-वीर्य विशेष- द्रव्य की शक्ति विशेष को वीर्य कहते है!पंच पापो ,पंचइन्द्रियों विषयों ,चार कषायों,२५ क्रियाओं की वीर्य/शक्ति अधिक से पुण्य/पाप का अधिक और कम शक्ति से कम पुण्य पापका आस्रव होगा !वर्तमान में हम सब का असंप्रप्तासृपाटिका संहनन है! हम अधिकतम तीसरे नरक तक जाने योग्य पापकर्म का आस्रव कर सकते है और यदि वज्रऋषभनारांच संहनन होता तब सातवे नरक तक जा ने योग्य पाप कर्म का आस्रव कर सकते। हम असंप्रप्तासृपाटिका संहनन के साथ अधिकतम ८ वे स्वर्ग तक जाने योग्य पुण्य कर्म का आस्रव कर सकते किन्तु वज्रऋषभनारांच सहनं के साथ सर्वार्थसिद्धी और मोक्ष तक जाने योग्य पुण्य का आस्रव कर सकते! अत: वीर्य विशेष से भी आस्रव में विशेषता-अंतर होता है!
विशेष- हमें शुभ कार्य में तीव्र भाव और अशुभ कार्यों में मंद भाव रखना चाहिए जिससे क्रमश पुण्य का अधिक और पाप का कम आस्रव हो !
सम्प्रायिक आस्रव किसके आधार से होता है? यह बताने के लिए निम्न सूत्र खा है !


अधिकरण/आस्रव का आधार
अधिकरणजीवाजीवाः ७
संधि विच्छेद -अधिकरण+जीव+अजीवाः
शब्दार्थ-अधिकरण-अधिकरण/आधार,जीव-जीव और अजीवाः-अजीव दो भेद है
अर्थ -जीव और अजीव के अधिकरण/आश्रय से साम्प्रयिक आस्रव होता है!
भावार्थ-जीव के हिंसा/दयारूप भाव के आश्रय से आस्रव होता है तो वह जीवाधिकरण/भावाधिकरण कहलाता है!
अजीव द्रव्य रूप हिंसा आदि के साधन रूप होना अजीवाधिकरण/द्रव्याधिकरण कहलाता है!यह द्रव्य रूप आस्रव होता है!जैसे तलवार,कैची,फावड़ा,पिच्ची,कमंडलादि के आश्रय से आस्रव होता है!
विशेष-यद्यपि जीव और अजीव द्रव्य दो ही है किन्तु उनकी पर्याय अनेक है इसलिए सूत्र में बहुवचन ‘जीवाजीवा:’ कहा है मतलब है कि किसी एक पर्याय से युक्त द्रव्य अधिकरण होता है,केवल द्रव्य नहीं!

जीव के आधार से आस्राव के द्वार-
आद्यंसंरम्भ-समारम्भारम्भयोगकृत-कारितानुमत-कषायविशेषैस्त्रि स्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः!!८!!
संधिविच्छेद-आद्यं+संरम्भ+समारम्भ+आरम्भ+योग+कृत+कारित+अनुमत+कषाय+विशेषै:+ त्रि:+त्रि:+त्रि:+चतु:+च+ऐकश:
शब्दार्थ-आद्यं(सूत्र ७ में) पहिले अर्थात जीवाधिकरण;संरम्भ-किसी कार्य की योजना बनाना,समारम्भ-योजना को कार्यन्वित करने के लिए आवश्यक सामाग्री एकत्र करना,आरम्भ-कार्य को आरम्भ करना, योग-योग,कृत-स्वयं कार्य करना,कारित-अन्य द्वारा कार्य को करवाना,अनुमत-किसी अन्य द्वारा कार्य किये जाने पर अनुमोदना करना,कषाय-कषाय,विशेषै:-से आस्रव में विशेषता आती है ,इनके क्रमश: त्रि:-तीन.त्रि:-तीन,त्रि:-तीन,चतु:-चार,च-और ऐकश:-(इन्हे परस्पर मिलाने/गुणित करने) से ,जीवाधिकरण द्वारा आस्रव के द्वार है!अर्थात जीवधिकरण आस्रव इन परिणामों से होता है!
भावार्थ-जीव के आधार से होने वाले आस्रव से १०८ परिणामों होते है!इनसे बचने के लिय ही जाप की माला में १०८ दाने होते है!
संरम्भ-जैसे शिविर लगाने की योजना बनाना संरम्भ है,
समारम्भ-उसके लिए सामग्री एकत्रित करना समारंभ और ,
आरम्भ-शिविर प्रारम्भ हो जाना आरम्भ है!
ये तीनो,तीन योगों;मन,वचन,काय से होती है जैसे मन,वचन,शरीर से योजना बनाना!तीन प्रकार से कार्य करना-अर्थात
कृत=स्वयं कार्य करना,
कारित=किसी अन्य से कार्य करवाना,
अनुमत=कार्यस्वयं नही करना किन्तु किसी अन्य द्वारा कार्य करने वाले की अनुमोद्ना करना !
चार-कषाय क्रोध,मान,माया,लोभ !इस प्रकार ( ३x ३x ३x ४ =१०८) परिणामों से जीव के जीवाधिकरण आस्रव होता है!
शंका:-कृत,कारित,अनुमोदन में से किस में पाप/पुण्य का अधिक बंध होगा ?
परिणामों की विशेषता अनुसार तीनों में से किसी में भी पाप/पुण्य का अधिक बंध हो सकता है!
उद्धाहरण के लिए
1-किसी ने चौका लगाने पर बड़े-बड़े मुनिमहाराजों ने आहार लेने पर उसे यदि घमंड हो गया “की बड़े से बड़े महाराज मेरे चौके में आते है,इनके मान कषाय की तीव्रता होने से,उस व्यक्ति के पुण्य का आस्रव अधिक होगा जो चौका तो नहीं लगा पा रहा है किन्तु वह भाव से इन चौका लगाने वाले सज्जन की अनुमोद्ना कर रहा है,कि ‘आप कितने भाग्यशाली है,आपने कितना पुण्य किया है ,आपके घर कितने बड़े-बड़े मुनि महाराज आहार लेने आये है,मुझे ऐसे सौभाग्य कब प्राप्त होगा,मुझे भी ऐसा पुण्य मिले’!इस दृष्टांत नमें अनुमोद्ना करने वाले के अधिक पुण्य का आस्रव होगा !
2-पञ्च कल्याणक में किसी व्यक्ति ने सौधर्मेन्द्र की बोली २१,३१,५१ लाख में,अन्य किसी को बोली नहीं लेने देने और शहर में अपनई प्रतिष्ठा का डंका बजाने के भाव से लेता है तो मान कषाय की वृद्धि के कारण इस से अधिक उस व्यक्ति के पुण्य का बंध होगा जो केवल अनुमोदन कर रहा है कि ”इस बोली लेने वाले व्यक्ति ने अपने धन का कितना सदुपयोग किया है,वह कितना पुण्यशाली है,मेरे पुण्य का कब उदय होगा जब मैं भी अपने धन का ऐसा सदुपयोग कर पाऊंगा!” जिसके परिणामों में विशुद्धि अधिक है,कषाय कम है,उसके पुण्य का अधिक बंध होगा! जिसके पापरूप क्रियाएँ करते हुए परिणामों में तीव्रता है उसके पाप का बंध अधिक होगा!
सामान्यता कृत के सबसे अधिक,कारित के उससे कम और अनुमोद्ना करने वाले के सबसे कम पाप/पुण्य का बंध होता है !
किसी व्यक्ति ने मुनिराज के लिए आहार बड़ी भक्ति भाव से बनाया किन्तु महाराज इनके चौके में नहीं पधारे,तब भी इनके अनुमोद्ना के कारण पुण्य का बंध होगा !
जैसे कार्य मन,वचन काय से कृत,कारित अथवा अनुमोद्ना करेगे तदानुसार पुण्य/पाप का बंध कषायों की तीव्रता,मंदता,ज्ञात,अज्ञात भावों के अनुसार होता है!

टीवी पर भैसे आदि की लड़ाई जैसे हिंसात्मक दृश्य देख कर आनंदित होने पर,अनुमोद्ना के कारण,भी पाप बंध होता है!इसी प्रकार धार्मिक कथा,पञ्चकल्याणक आदि जैसे प्रोग्राम देखने, सुनने पर पुण्यबंध होता है!
टीवी पर अन्य मतियों के प्रवचन,धार्मिक कार्यक्रम देखने सुनने से मिथ्यात्व की पुष्टि होती है,अत: इन से हमें बचना चाहिए!हमें विवेकता पूर्वक,[b]सच्चे शास्त्रों (प्रथमानुयोग करुणानुयोग,चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग),[/b]सच्चे गुरु के प्रवचनों से जानकर ही देखना सुनने का निर्णय करना चाहिए!

अजीव के आधार/आश्रय से आस्रव-
निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गाद्वि-चतुर्द्वि-त्रिभेदा:परम् ९
संधि विच्छेद-निर्वर्तना+निक्षेप+संयोग+निसग:द्वि+चतुः+द्वि+त्रि+भेदा:+परम्शब्दार्थ-
निर्वर्तना=रचना करना,,निक्षेप=वस्तु को उठाना/रखना,संयोग=वस्तु को आपस में मिलाना,,निसग:=मन.वचन,काय से प्रवृत्ति,द्वि=दो,चतु:=चार,त्रि-तीन,भेदा:=भेद है ,परम्=(सूत्र ७ में बाद वाले अर्थात अजीव अधिकरण के है)!
भावार्थ- निर्वर्तना/रचना- दो, निक्षेप /वस्तु को उठाना /रखना-चार, संयोग/वस्तुओं को मिलाना-दो और निसग:/मन/वचन/कांय की प्रवृत्ति-तीन,कुल ११ अजीव अधिकरण है अर्थात अजीव के आधार से कर्मों का आस्रव होता है!
निर्वर्तना=रचना के दो भेद है
१-मूलगुण निर्वर्तना=शरीर,मन,श्वासोच्छ्वास आदि की रचना करना
२-उत्तरगुण निर्वर्तना=पाषाण,लकड़ी,विध्वंसक कार्यों के लिए रोबोट आदि बनाना!इनके आश्रय से जो जीव के परिणाम में जो भाव आते है वह निर्वर्तना नामक अजीव अधिकरण है!जैसे आजकल शादियों में सलाद,मछली आदि के आकार में सजाई जाते है,उसको छूरी से काट कर खाते है! यह अजीव अधिकरण आस्रव है! यह अजीव के आश्रय से होने वाला पाप है! किसी चादर, कपडे, या साड़ी पर पशु-पक्षी,आदि जीव प्रिंट होने पर यदि हम उसे काटते है तो पापकर्म बंध होता है! यह भी अजीवा- धिकरण आस्रव है!चीनी के खिलौने पशु आकर बनवाकर खाना भी निर्वर्तना अजीव अधिकरण आस्रव है!
निक्षेप=पुद्गल वस्तुओं के रखने से पाप/पुण्य कैसे होता है-
१-अप्रत्यवेक्षित निक्षेप-बिना देखे शोधे वस्तु रखना
२-दु:प्रमृष निक्षेप-ढंग से देखे बिना वस्तु रख देना
३-सहसा निक्षेप-सहसा वस्तु रख देना-बिना स्थान को शोधे सहसा रख देना !
४-अनाभोग निक्षेप-यथायोग्य स्थान पर वस्तु न रखना!जैसे शास्त्र जी को स्वाध्याय के समय चौकी पर नहीं रखना,उसके बाद यथास्थान बिना,देखे शोधे नहीं स्थापित करना !
इन चारो क्रियाओं से पापकर्म बंध होता है चाहे कोई जीव मरे या न मरे क्योकि भाव से हमने जीव रक्षा का प्रयास नहीं करा है!यह पाप बंध अजीव के आश्रय से होने वाला कहलायेगा!
संयोग- के दो भेद
भक्तपान संयोग-दाल में राई और नमक का छौक लगाने से/दही और गुड को मिलाने से,जीव उत्पत्ति हो जाती है!सचित्त को अचित्त आहार पानी में मिलाना भक्तपान संयोग है!
उपकरण संयोग-ठन्डे उपकरण को गर्म उपकरण में एवं एक साधु के पिच्छी कमंडल दूसरे साधु के पिच्छी कमंडल से मिला देना,आदि उपकरण संयोग है
निसग:-प्रवृत्ति अथवा क्रिया के तीन भेद है !
१- मन[b]निसग:-[/b]मन की प्रवृत्ति दुष्टता पूर्वक करना !
२-वचन[b]निसग: वचन की प्रवृत्ति [/b]दुष्टता पूर्व करना
३- काय[b]निसग: -काय की प्रवृति दुष्टता पूर्व करना ![/b]
मन, वचन, काय पौदगलिक है इनकी प्रवृत्ति के कारण आत्मा के जो परिणाम होते है उनमे अजीव अधिकरण आस्रव होता है!११ प्रकार के अजीव अधिकरण के आश्रय से होने वाले पापों के आस्रव से हमें बचना चाहिए!१०८ जीव के परिणामों के आधार से और ११ प्रकार के अजीव के आधार से होने वाले आस्रव से बचने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए!अष्टकर्मों के अस्राव के कारण -इनसे हमें सावधान रहना चाहिए !

तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाताज्ञानदर्शनावरणयो:!!१०!!

संधि विच्छेद- तत्+प्रदोष+निह्नव+मात्सर्य+अन्तराय+आसादन:+उपघात:+ज्ञानावरणयो:+दर्शनावरणयो:
शब्दार्थ- तत्=वह(आस्रव);प्रदोष,निह्नव,मात्सर्य,अन्तराय,आसादन और उपघात से ज्ञानावरण और दर्शनावरणयो-दर्शनावरण (कर्मों) का होता है!

भावार्थ-वह आस्रव;प्रदोष,निह्नव,मात्सर्य,अन्तराय,आसादन और उपघात,ज्ञानावरण के सम्बन्ध में होने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण के सम्बन्ध में होने से दर्शनावरण कर्मों का होता है!
प्रदोष=मन को किसी के द्वारा बताई गयी,सच्चे ज्ञान की बात नही सुहाना,प्रदोष है!किसी के सत्य अच्छे प्रवचन सुनकर प्रसन्न नहीं होना!
निह्नव=ज्ञान होने पर भी अन्यों को ज्ञान नही देना,कोई के द्वारा आपसे आपके ज्ञान का स्रोत्र पूछने पर उसको,गुरु-शास्त्र के नाम,जिनसे ज्ञान अर्जित किया है,को नही बताना और कहना मैंने तो ज्ञान स्वयं अर्जित किया है,किसी ने नहीं बताया आदि,निह्नव है!
मात्सर्य=किसी योग्य पात्र को,ईर्षा भाव से अपना ज्ञान भय वशीभूत, नहीं देना कि वह मेरे से अधिक ज्ञानी न हो जाए,मात्सर्य है
अन्तराय=किसी के ज्ञान के साधनों में विघ्न डालना,जैसे उसकी पुस्तक छुपाना/जलाना/पाठशालाओं को,स्वाध्याय की परम्परा को,धार्मिक शिवरों को बंद करवाने का प्रयास करना/धार्मिक कार्यों में विघ्न डालना,अन्तराय है!
आसादन=सम्यग्ज्ञान को प्रकाशित करने से बाधित करना अथवा उसका अनादर करना,आसादन है!
उपघात= प्रशस्त ज्ञान में दोष लगाना/सम्यग्ज्ञान को अज्ञान बताकर,ज्ञान में दोष लगाना उपघात है!
ये छ: ज्ञानावरण कर्म के बंध के कारण है
ज्ञानावरणीय कर्म के आस्रव के अन्य कारण-
१-अपने आचार्य,उपाध्याय की आज्ञानुसार नहीं चलना,२-प्रकाशन में अर्थ का अनर्थ कर देना,भावार्थ अपनी इच्छानुसार अपने मत की पुष्टि हेतु बदल कर अभिप्राय को दूषित कर देना,!३-शुद्ध उच्चारण नहीं करना!४-ज्ञान के अध्ययन/अर्जन में आलस्य करना!५-आचार्य श्री के प्रवचन में बैठ कर आपस में बाते करना! ६-धन कमाने के उद्देश्य से ज्ञान देना! ७-शास्त्रों के विक्रय से आजीविका अर्जित करना! ८-जिनवाणी की ऒर पैर रखकर सोना तथा उन्हें यथायोग्य स्थान पर आदर सम्मान के साथ विराज मान नहीं करना!जैसे;अलमारी में सबसे नीचे के तख्ते पर विराजमान करना!९-अकाल में स्वाध्याय करना,जैसे महाराज श्री के प्रवचन के समय स्वाध्याय करना!सामायिक के काल में स्वाध्याय करना!
सूत्र के अंत में, ‘ज्ञान दर्शनावरणयो’ से तात्पर्य है की ये सब ज्ञान के सम्बन्ध में किये जाये तो ज्ञानावरणीय कर्म का और यदि दर्शन के सम्बन्ध में किये जाए तो दर्शानावरणीय कर्म का आस्रव होता है!
दर्शन के सन्दर्भ में-

प्रदोष-कोई व्यक्ति आचार्यश्री के दर्शन करने के बाद आकर वर्णन कर रहा है कि मैं ऐसे दर्शन करके आया,तो प्रसन्न न होना,प्रदोष है!
निह्नव- किसी के आपसे पूछने पर कि आचार्य श्री कहाँ है,उसे नहीं बताना,आचार्यश्री के दर्शन में विघ्न डालना,निह्नव है! !
मात्सर्य- इस भाव से नहीं बताना की वे कहाँ है,कि यदि ये वह भी वहाँ जाने लगे तो हमें कौन पूछेगा,इस शहर में तो आचार्यश्री हमें ही जानते है,यह मात्सर्य है!
अन्तराय-कोई आचार्य श्री के दर्शन के लिए दसलक्षण पर्व में जाना चाहते है,उन्हें यह कह कर रोकना की इस समय वहाँ बहुत भीड़ होगी क्या करोगे वहाँ जाकर,अन्तराय है!
आसादन-दर्शन के प्रति अनादर भाव रखना,क्या करोगे दर्शन करके व्यर्थ है,दर्शन करना,यह आसादन है
उपघात-आचार्यश्री के दर्शन से उन्हें बिलकुल रोक देना उपघात है !
दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव के अन्य कारण –
१-अपनी दृष्टि क्षमता पर गर्व करना! जैसे मेरे से अधिक दूर तक कोई नहीं देख सकता,
२-दिन में सोने से तीव्र दर्शनावरणीय का बंध होने पर संभवत अगले भव में चक्षु इन्द्रिय मिले ही नहीं!शास्त्रों में दिन में सोने की आज्ञा नहीं है,
३-मुनियों के देख कर उनसे घृणा आदि करना,
४-गलत श्रुत को आँखों से देख,पढ़ कर परिणामों को दूषित करना,ये सब दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव /बंध के कारण है!
इस सूत्र से, हमें ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के अस्राव के कारणों को समझ/जान कर उनसे बचने का प्रयास करना चाहिए!आज तक हमने ज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध में जो दोष या विघ्न डाले है,उनके लिए प्रायश्चित लेना चाहिए और संकल्प लेना चाहिए की भविष्य में सच्चे ज्ञान और दर्शन के प्रचार-प्रसार में कोई विघ्न नहीं डालेंगे! ऐसा करने से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होगा! इन कारणों से बचने से हमारे इन दोनों कर्मो का आस्रव नहीं होगा जिससे ज्ञान दर्शन में वृद्धि होगी!
विशेष- यद्यपि आयुकर्म के अतिरिक्त सातों कर्मों का आस्रव प्रतिसमय होता है तथापि प्रदोष,निह्नव आदि भावों के द्वारा जो ज्ञानावरणीय और दर्शावरणीय कर्मों का विशेष आस्रव/बंध होता है वह स्थिति और अनुभागबंध की अपेक्षा होता है,अर्थात प्रदेश/प्रकृति बंध तो सभी कर्मों का होता है किन्तु स्थिति/अनुभागबंध ज्ञाना[b]वरणीय और दर्शनावरणीय का अधिक होता है![/b]

असातावेदनीय कर्मों के आस्रव के कारण
दु:खशोकतापाक्रंदनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयास्थानान्यसद्वेद्यस्य११
संधिविच्छेद:-दु:ख+शोक+ताप+आक्रंदन+वध+परिदेवनानि+आत्म+पर+उभय+स्थानानि+असद्वेद्यस्य
शब्दार्थ-दु:ख-चित्त में कष्ट का अनुभव करना,पीड़ा रूप परिणाम दु:ख है,
शोक-किसी इष्ट वस्तु के वियोग होने पर दु:खी होना शोक है! मकान के गिर जाने पर दुखी होना, पुत्र/पिता की मृत्यु पर दुखी होना!
ताप-समाज में अपनी निंदादि होने पर पश्चाताप,संताप के भाव होना! जैसे बेटी का विवाह करने के पश्चात उसके दुखी रहने पर पश्चाताप करना,
आक्रंदन-जोर जोर से रोना,
वध-किसी के इंद्रीय, बल आयु,श्वासोछावास आदि प्राणों का वियोग कर देना! जैसे किसी को जान से मार देना,
परिदेवन-इस प्रकार रोना कि सामने वाला भी रोने लगे,
आत्म-अपने को,पर-दूसरों को उभय=अपने और दुसरे दोनों को,स्थानानि-करना, असद्वेद्यस्य=असाता वेदनीय कर्म के आस्रव है
भावार्थ-स्वयं,दूसरे,अथवा दोनों को इन ६;दु:ख,शोक,ताप,आक्रंदन,वध और परिदेवन करने से असाता वेदनीय कर्म के आस्रव के कारण है!स्वयं दुखी,शोकित आदि होना,दूसरे को दुखी-शोकित आदि करने अथवा दोनों स्वयं और दूसरों को दुखी-शोकित आदि करने से असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है!
असाता वेदनीय कर्मों के आस्रव के अन्य कारण-
१-दूसरों की निंदा करना,
२-पाप से अजीविका अर्जित करना,
३-सप्त व्यसन का सेवन करना!,
४-तीव्र कषाय रूप परिणाम होना,
५-परिग्रहों में अत्यंत आसक्त होना,
६-अपने सेवकों को समय पर वेतन न देकर,
७-पशुओं को चाबुक-कोड़े मारना,
८-किसी जीव को समय से भोजन आदि नहीं देना!
९-झूठ बोलना,कुशील,अभद्र वचन बोलना,मायाचारी रूप प्रवृत्ति आदि!
सारांशत: समस्त पाप रूप कार्यों से असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है! इनसे हमें बचना चाहिए!


शंका -किसी के शोक करने पर असाता का आस्रव होता है,किन्तु किसी के वियोग होने पर रोना तो आता ही है तो क्या रोये नहीं ?
समाधान-हमें रोना नहीं चाहिए क्योकि रोने से जाने वाला वापिस आएगा नहीं! बल्कि रोने से आगे कर्मों का बंध और होगा जो कि भविष्य में दुःख का कारण होगा!हमें विचार करना चाहिए की जाने वाले की हमने सेवा खूब करी,इनका आयुकर्म इतना ही था,इतना ही हमारा साथ था,इसे हम बढ़ा नहीं सकते।इस प्रकार विचार करने से रोने पर नियंत्रण किया जा सकता है!


शंका-मुनिराज को केशलोंच करते हुए दुःख होता होगा,क्या उन्हें असातावेदनीय का आस्रव होता होगा?
समाधान-केश लोंच के समय मुनि महाराज को कष्ट महसूस नहीं होता,किसी दिन आहार नही मिलने पर भी वो विचार करते है,आज तो परिषयजय का मौका मिला है,कर्मों की इससे निर्जरा होगी!

साता वेदनीय(सुख देने वाले) कर्मो के आस्रव के कारण-

भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगक्षांतिःशौचमितिसद्वेद्यस्य-१२
संधि विच्छेद -भूत+अनुकम्पा+व्रत्य+दान+सरागसंयम+आदि+योगः+क्षांतिः+शौचम्+इति+सद्वेद्यस्य
शब्दार्थ-भूत-(जीवमात्र) पर,अनुकम्पा-दया करना,व्रत्यदान-व्रतियो को दान देना,सरागसंयमादि-सराग संयम,-संयमासंयम,आदि(अकामनिर्जरा और बालतप) का भली प्रकार पालन करना,योगः-मन,वचन,काय की वृत्ति को त्यागना,क्षांतिः-कषायो की मंदता रखना,शौचम्-लोभ वृत्ति को त्यागना,इति-तथा अन्य शुभ कार्य,सद्वेद्यस्य-सातावेदनीय के आस्रव है।
भावार्थ-भूत अनुकम्पा-जीव मात्र पर दया करते हुए उनके दुःखो को दूर करने के परिणाम होना, तथा उनके निवारण हेतु प्रयासरत रहना,व्रत्यदान-व्रतियो को दान देना,कोई व्रती नगर मे आये तो स्वयं के लिए शुद्ध आहार बनाकर,पहले उन्हे शुद्ध आहारदान कर,स्वयं ग्रहण करना!भाव होना चाहिए कि मैंने यह आहार अपने लिए बनाया है,मेरे पुण्योदय से महाराज के स्वयं पधारने पर उन्हें आहार दूंगा!
मुनि महाराज के निमित्त का आहार कभी नही बनाया जाता है अन्यथा आहार सदोष होता है! उनके ठहरने के लिए स्थान,स्वाध्याय के लिए शास्त्रजी,पिच्छि-कमंडल की व्यवस्था करना।
दान-अपना द्रव्य दान मे,अपने व पर के कल्याण के लिए दिया जाता है।
नोट कुछ टीकाकारों ने,इस सूत्र के व्याख्या करते हुए कहा है भूत-प्राणी मात्र व्रती-‘व्रतियों पर अनुकम्पा- दया और दान करना अर्थात उनके आहारादी,वैय्यावृत्ति की व्यवस्था आदि करना’-आचार्य श्री विद्या सागर जी एवं पंडित रतनलाल बैनाडा जी के अनुसार उचित नहीं प्रतीत होता क्योकि क्या हम व्रतीयों पर दया कर उनके लिए आहार बनायेगे या वैयावृत्ति करेंगे?इस अपेक्षा से इसकी व्याख्या,”प्राणी मात्र पर अनुकम्पा -दया और व्रतियों को दान देना”,होनी चाहिए.जो की ठीक प्रतीत होती है,!सरागसंयम-मुनि अवस्था धारण करना,संयमासंयम-व्रती,पहली प्रतिमा धारी से ११वी प्रतिमाधारी तक क्षुल्लक,ऐल्लक,आर्यिका बनना,अकाम निर्जरा-अचानक कष्ट आने से उसे शांत परिणामों के साथ सहना।जैसे खड़े-खड़े यात्रा करने पर कष्ट को सहजता से सहना। महिलाओं को अकाम निर्जर के प्रसंग बहुत आते है जैसे; परिवार के सभी सदस्यों को अपने से पहले भोजन कराने के बाद, अंत में, अपनी मन पसंद की वस्तु समाप्त हो गयी तो, यह उन्हें सहना पड़ता है,यदि वे इसे सहजता से,शांत परिणाम के साथ सहेगी तो अकाम निर्जर होगी!सत्याग्रह आदि के आन्दोलन में मान लीजिये कारागार जाना पड़े तो,कारावास सहजता से सहना,अकाम निर्जर है! बालतप-अन्य मति द्वारा अज्ञानता पूर्वक (जैन मत की अपेक्षा) किया गया तप,बालतप कहलाता है।वह भी कषायो की मंदता के कारण सातावेदनीय कर्म के आस्रव का कारण है।क्षांतिः-क्रोध,मान,माया,लोभ से दूर रहना। कषायो की मंदता रखना।क्रोध आदि के प्रसंगों में भी क्रोध नहीं करना, बहुत धन,संपत्ति,वैभव की प्राप्ति पर घमंड नहीं करना, कैसा ही प्रसंग आ जाये स्पष्ट बोलना,मायाचारी नहीं करना!शौचम्-अपनी आमदनी का आगमानुसार,निश्चित भाग बिना मांगे दान मे देना,लोभ वृत्ति को त्यागना,इति-तथा अन्य शुभ कार्य,जैसे जिनेन्द्र भगवान की पूजा,भक्ति,स्तवन,आरती करना,स्वयं स्वाध्याय करना, अन्यों को कराना,तपश्चरण,एकासन उपवास करना,किसी रस का त्याग कर भोजन लेना,गरीबो पर दया करना,उन मे कम्बलादि का वितरण करना,उनकी पढ़ाई के लिए छात्रवृति देना,उनकी बिमारी के लिये औषधि,औषधालय,डाक्टर आदि का प्रबंध करने से भी सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।


दर्शन मोहनीय (संसार भ्रमण मे प्रबलत्तम) कर्मो के आस्रव के कारण-
केवलीश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य १३
संधि-विच्छेद-केवली+श्रुत+संघ+धर्म+देव+अवर्णवादो+दर्शनमोहस्य
शब्दार्थ -केवलीअवर्णवादो -केवली भगवान् मे अविद्यमान दोषारोपण करना।जैसे केवली वस्त्र धारण करते है या वे कवलाहार लेते है।ऐसा कहना केवली अवर्णवाद है।ऐसा कहने वालो के महान दर्शनमोह नीय कर्मो का आस्रव होगा,श्रुत अवर्णवादो-भगवान द्वारा दिया गया उपदेश के अनुसार रचे गये शास्त्र और उनकी परम्परा से लिखी गई वर्तमान जिनवाणी मे दोषारोपण करना,जैसे कहना कि आलू मॆ सूक्ष्म जीव पाये जाते है अतः उसके सेवन मे दोष नही है,मांस सेवन मे दोष नही है ऐसा जिन वाणी मे लिखा है आदि कहना श्रुत अवर्णवाद है।श्रुत मे तो त्रस/स्थावर जीवो की हिंसा का पूर्णतया निषेध है।संघअवर्णवादो-चार प्रकार का ऋषि,यति,मुनि,अंगार या मुनि,आर्यिका श्रावक,श्राविका आदि मे गल्त दोष लगाना।मुनियो पर दोष लगाना कि ये मलिन है,मंजन,स्नान नही करते,य़े निर्लज है,नग्न रहते है।नग्नता उनकी काम वासना पर तथा शीत और उष्णता की बाधा पर विजय का प्रमाण पत्र है,ये उनके ख्याति के प्रसंग है,किंतु उन पर इस प्रकार दोषारोपण करना संघावर्णवाद है;जो दर्शन मोहनीय के आस्रव का कारण है,धर्मावर्णवादो-भगवान् द्वारा प्रणीत जिनधर्म मे गल्त दोष लगाना, जैसे कहना जिनधर्म हमे अहिंसावादि होने के कारण कायर बनाते है चिंटी को न मारो। ये धर्मावर्णवाद है;दर्शनमोहनीय के आस्रव का कारण है।ऐसे निन्दा करने वाले जीव अधोगति पाते है। देवअवर्णवादो-जो दोष देवो मे नही है वह उनमे गल्त दोष लगा देना। जैसे कहना कि देव मांस भक्ष्ण,मदिरा सेवन,सारे निंदनीय कार्य भी करते है ऐसा कहना देवो का अवर्णवादो है।यह दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है.अवर्णवादो-जो दोष उनमे नही है वह उनमे लगा देना। दर्शनमोहस्य -दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के कारण है।
भावार्थ-दर्शन मोहनीय का अर्थ मिथ्यात्व है।केवली,श्रुत,संघ,धर्म और देवों मे जो दोष नही है उनका दोषारोपण करने से अन्नतकाल तक संसार मे भ्रमण कराने वाले घोर दर्शनमोहनीय का आस्रव होता है।अतः इनसे हमे बचना चाहिए।
शंका-यदि हम केवली,श्रुत,संघ,धर्म और देवों में दोष न लगाये,क्या तब दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा?
समाधान- उक्त मुख्य कारण दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के है, इनके अलावा अन्य बहुत से कारण भी है जैसे,1-जो रोज़ दर्शन करने मंदिर नही जाते,2-जो अन्य मतियो के देव-शास्त्र गुरू पर श्रद्धा रखते है,अपने पर नही रखते है,3-सप्त तत्वो के श्रद्धान मे दृढ़ता के अभाव मे, शिथिलता मे, सम्यक्तव के दोषो को न हटाने पर,६ अनायतनो मे लगे रहने से,८ मदो के सद्भाव मे,दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है,4-शास्त्रो के अर्थ का अनर्थ जान बूझकर,अपने मत की पुष्टि हेतु,शास्त्रो मे हेर फेर करने वालो के,दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा।5- सम्यक्त्व के विरोधी समस्त क्रियाओं से दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है!आदि भी दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है !


चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण-
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य १४
संधिविच्छेद-कषाय+उदयात्+तीव्र+परिणामः+चारित्रमोहस्य
शब्दार्थ–कषाय-कषाय,क्रोध,मान,माया,लोभ के,उदयात्-उदय से.तीव्र-तीव्र,परिणामः-परिणामो के होने से,चारित्रमोहस्य-चारित्रमेहनीय कर्म का आस्रव होता है
भावार्थ-तीव्र क्रोध,मान,माया,लोभ या तीव्र नो कषाय रूप परिणामो के होने से चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव होता है।जैसे बात-बात मे क्रोधित होना!धन,सम्पत्ति,ज्ञानादि अधिक होने पर घमण्डित होने से, मायाचारी से और निरंतर तीव्र लोभवश परिग्रहो के संघ्रह मे लगे रहने से, चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव होता है।
चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के अन्य कारण-
१-अपने को श्रेष्ठ मानकर,जो अन्यों की मजाक बनाते है,खिल्ली उड़ाते है,उनके हास्य नोकषाय कर्म का उदय/आस्रव होता है,२-जो अपने मकान, आदि को अच्छा बनाने में लगे रहते है उनके रति नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!३-जिन्हें अन्यों के गंदे मकान,गंदे वस्त्र आदि को देखकर अच्छा नहीं लगता,घृणा करते है,उनके अरति नोकषाय का आस्रव होता है!४-रोगी,कोडी,मुनि आदि को देखकर जो घृणा करते है उनके जुगुप्सा नोकषायकर्म का आस्रव होता है!५-जिन्हें अन्य को दु:खी करने में आनंद आता है उन्हें शोक नोकषाय का आस्रव होता है!६-जो स्वयं डरते है अथवा अन्यों को डराते है उन्हें भय नोकषायकर्म का आस्रव होता है!७-जो पुरुषों में वासना रूप परिणाम रखते है उनके स्त्री वेद नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!८-जो स्त्री में वासना रूप परिणाम रखते है उनके पुरुषवेद नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!९-जो स्त्री और पुरुषों दोनों में वासना रूप परिणाम रखते है उनके नपुंसक नोकषायकर्म का आस्रव होता है!
ये समस्त कषाय और नो कषाय के आस्रव आत्मा को पतित करने वाले है,अत: हमें इनकी तीव्रता से बचना चाहिए जिससे चरित्र मोहनीय के आस्रव से हम बच सके!
क्या मंद कषाय होने से चारित्र मोहनीय का आस्रव नहीं होगा ?
यहाँ आस्रव के प्रमुख्य कारणों की चर्चा है, चारित्र मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट आस्रव कषायों के तीव्र उदय के कारण होता है!चारित्र मोहनीयकर्म का उत्कृष्ट आस्रव कषायों के तीव्र उदय के कारण होता है!आस्रव के अनेक कारण होते है!मंदकषाय के उदय में भी,४ थे से १०वे गुणस्थानों तक चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव/उदय तो होता ही है!किन्तु यहाँ तीव्र आस्रव की चर्चा करी है!
किस कर्म के उदय से स्त्री पर्याय मिलती है ?
1-जो दुसरे के दोषों को देखने में निरंतर लगे रहते है2-जो स्त्री पर्याय मिलने पर निरंतर श्रृंगार में लगी रहते है,अपनी स्त्री पर्याय में संतुष्ट रहती है,3-मायाचारी जिनमे विशेष रूप से पायी जाती है, उनके स्त्रीवेद का आस्रव होता है!
इससे बचने के लिए विचार करना चाहिए की स्त्री पर्याय बड़ी निंदनीय है क्योकि अनेकों अशुद्धि के प्रकरण स्त्री पर्याय में आते है,यह कितनी पराधीन पर्याय है,मैंने पूर्व जन्म में कैसे पाप कर्म किये होंगे जो मुझे स्त्री पर्याय प्राप्त हुई!इस प्रकार निरंतर स्त्री पर्याय की निंदा सहित उसमे प्रवृत रहना पुरुषवेद के आस्रव का कारण है!

अल्पारम्भपरिग्रह्त्वं मानुषस्य १७
संधिविच्छेद-अल्पारम्भ+अल्पपरिग्रह्त्वं+मानुषस्य
शब्दार्थ-अल्प आरम्भ=अल्प आरम्भ, अल्पपरिग्रह्त्वं= अल्प परिग्रह्त्व,मानुषस्य=मनुष्यायु के आस्रव के कारण है!
अर्थ-अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहत्व से मनुष्यायु का आस्रव होता है !
भावार्थ-अल्प आरम्भ; हिंसात्मक कार्य नहीं/कम करना,यदि हो भी रहे हो तो,निरंतर उन्हें कम करने के चिंतवन में लगे रहना,अल्पपरिग्रह्त्व-अर्थात परिग्रहों की अत्यंत वांछा नहीं रखना, कम से कम परिग्रह में संतुष्ट रहना!अल्पआरंभी और अल्पपरिग्रही होने से मनुष्यायु का आस्र व होता है! मनुष्यायु के इन आस्रव के प्रमुख कारणों के अतिरिक्त निम्न कारण भी है !
सरल व्यवहार/प्रवृत्ति,भद्र प्रकृत्ति होना ,कषायों की मंदता,पंचेंद्रिय विषयों में अरूचि,असंक्ले षित भाव से मरण होना, मनुष्यायु के आस्रव के कारण है!
शंका-मनुष्य और तिर्यंच गति में चारों आयु का आस्रव होता है,क्या देवगति और नरक गति में भी चारों आयु का आस्रव होता है ?
समाधान-मनुष्य और तिर्यंच में जीव चारों गतियों का अस्राव करते है किन्तु देव और नारकी मात्र मनुष्यायु या तिर्यंचायु का ही आस्रव करते है!


मनुष्यायु के आस्रव के अन्य कारण –
स्वभावमार्दवं च १८
संधि विच्छेद:-स्वभाव+मार्दवं+च
शब्दार्थ-स्वभाव-परिणामों की,मार्दव-कोमलता/सरलता से भी मनुष्यायु का आस्रव होता है!
अर्थ- मृदु/सरल स्वभावी/परिणामी होने से भी मनुष्यायु का आस्रव होता है !
भावार्थ-इस सूत्र को अलग से लिखने का कारण है कि, स्वभाव की सरलता भी मनुष्यायु के आस्रव का कारण तो है ही वह देवायु के आस्रव का भी कारण है!


चारों आयु के आस्रव के कारण-!
निःशीलव्रतत्वंचसर्वेषाम् !!१९!!
संधिविच्छेद:-निः(शील+व्रतत्वं)+च+सर्वेषाम्
शब्दार्थ:-निःशील-शीलरहित,नि:व्रतत्वं-व्रतोंरहित,च-और,सर्वेषाम्=सभी आयु के आस्रव का कारण है !
शील-तीन गुणव्रत;दिग्व्रत,देशव्रत,अनर्थदण्ड व्रत और ४ शिक्षाव्रत;सामयिक,प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग व्रत, व्रत-अणुव्रतों और महाव्रतों को व्रत कहते है!
अर्थ:- शील और व्रतों से रहित जीव चारों आयु का आस्रव करता है
भावार्थ कोई जीव शील और व्रतों से रहित है तो उसको चारों आयु में से किसी का आस्रव,उसके परिणामों के आधार पर हो सकता है!
विशेष-१ -सूत्र पृथक से इसलिए बनाया क्योकि शीलव्रतियों और अणु/महा व्रतियों के तो मात्र देवायु का ही आस्रव होता है!
२-बाल तपस्वी जीवों को भी देवायु का आस्रव होता है,यद्यपि उनके शीलव्रत और अणु/महाव्रत नहीं होते क्योकि उनके परिणामों में उनके धर्म के अनुसार सरलता होती है!
३-महात्मा गाँधी थे,उनके शील और अणु व्रत नहीं थे किन्तु परिणामों में सरलता के कारण,परिग्रह कम होने के कारण,तथा देश के लिए लड़ने के कारण,उनके स्वर्ग में देव बनना शक्य नहीं है!४-भोगभूमि के जीवों के भी शीलव्रत और अणु/महाव्रत नहीं होते,किन्तु सभी नियम से देवायु का बंध करते है!भोगभूमि में मिथ्यादृष्टि जीवों के भी देवायु का आस्रव होता है,किन्तु वे भवन्त्रिक में उत्पन्न होते है तथा सम्यगदृष्टि वैमानिक देव होकर पहले व दुसरे स्वर्गों तक उत्पन्न होते है!

देवायु के आस्रव के कारण –

सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य २०
संधि विच्छेद-सरागसंयम+संयमासंयम+अकामनिर्जरा+बालतपांसि+देवस्य
शब्दार्थ- सरागसंयम- राग सहित संयम,छठा-सातवाँ गुणस्थानवर्ती दिगंबर मुनिराज केसारंग संयम होता है संयमासंयम-संयम असंयम,पंचम गुणस्थानवर्ती.प्रतिमाधारी श्रावक,क्षुल्लिका,क्षुल्लक,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी के होता है,अकामनिर्जरा-आकस्मिक कष्ट आने पर उसे सहजता से,शान्तीपूर्वक सहना अकाम निर्जरा है जिस से कषायों में मंदता होती है,लेश्या शुभ होती है,बाल तपांसि=जो तपश्चरण तो करते है,किन्तु उन्हें अभी तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई या अन्य मति तपश्चर्ण करते हुए परिणामों में सरलता रखते है,उनका तप, बालतप कहलाता है!,देवस्य-देवायु का आस्रव होता है!
भावार्थ:-सरागसंयम के धारी,छठा-सातवाँ गुणस्थानवर्ती दिगंबर मुनिराज के सराग संयम होता है देवायु के आस्रव का कारण है,वीतराग संयमी मुनि देवायु का आस्रव नहीं करते है! संयम-असंयम,पंचम गुणस्थानवर्ती.प्रतिमाधारी श्रावक,क्षुल्लिका,क्षुल्लक,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी के होने से देवायु का आस्रव होता है! अकाम निर्जरा अर्थात आकस्मिक आये कष्टों(जैसे जेल जाना पड़े अथवा यात्रा करते हुए खड़े खड़े हुए कष्टों) को शान्तिपूर्वक सहने से कषायों की मंदता और शुभ लेश्या होती है ,इसलिए अकाम निर्जरा भी देवायु के आस्रव का कारण है!बाल तप ,जो की सम्यक्त्व के अभाव में अन्य मटियों के द्वारा किये जाते है वे भी देवायु के आस्रव के कारण है क्योकि वे अपने धर्म की निष्ठांपूर्वक पालन कर रहे होते है जिससे उनके परिणामों में सरलता होती है !
शंका-सूत्र में बताये गए सभी सराग संयम,संयमसंयम देवायु के आस्रव के कारण है ?
समाधान-नहीं किन्तु ,सम्यक्त्व के अभाव में सारंग संयम और संयमासंयम नहीं होते,और सम्यक्त्व वैमानिक देवों के आस्रव का कारण है ,इसलिए सरागसँयम और संयमासंयम वैमानिक देवायु के आस्रव के कारण हुए !

सम्यक्त्वं च !!२१!!
शब्दार्थ- सम्यग्दर्शन भी देवायु के आस्रव का कारण है!
भावार्थ-यद्यपि सम्यगदर्शन को आस्रव के कारणों में नहीं लिया,किन्तु इस सूत्र के लिखने का अभि प्राय है,सम्यगदृष्टि मनुष्य,सम्यक्त्व अवस्था में आयु बंध करे तो विशेषतःवैमानिक देवायु का आस्रव ही करेगा क्योकि उसके परिणाम सरल और आचरण बहुत अच्छा रहता है,वह भवनन्त्रिक में नहीं उत्पन्न होता!यदि कोई सम्यगदृष्टि देव है,वह मात्र मनुष्यायु का आस्रव करेगा !
शंका-एक जीव, अपने जीवनकाल में, आयु कर्म का आस्रव कितनी बार और कब करता है ?

समाधान- सभी जीवों के आयुकर्म के आस्रव और बंध का काल एक ही ‘समय’ है!जीव अपनी अगले भव की आयु,आठ अपकर्ष कालों में,आयुकर्म के बंधने के लिए यथायोग्य परिणाम होने पर बांधता है! प्रथम अपकर्षकाल उसके,उस भव की बंध आयु के २/३ भाग समाप्त होने के बाद प्रथम अंतर्मूहर्त में आता है!दूसरा उसकी शेष आयु के २/३ भाग व्यतीत होने के बाद प्रथम अंतर्मूहर्त में,शेष का २/३ व्यतीत होने पर तीसरा प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा,इसी प्रकार ८ अपकर्ष काल आयु बंध के जीव के जीवन में आते है!उद्दाहरण के लिए;किसी जीव की उस भव की बंध आयु ८१ वर्ष की है! उसका प्रथम अपकर्ष काल,८१ का २/३ भाग अर्थात ५४ वर्ष व्यतीत होने के बाद ,५५ वर्ष की आयु के प्रथम अंत र्मूहर्त में आता है ,दूसरा अपकर्ष काल शेष आयु अर्थात (८१-५४)= २७ वर्ष का २/३ अर्थात १८ वर्ष व्यतीत होने पर अर्थात उसकी ५४+१८=७२ वर्ष की आयु व्यतीत होने के बाद ७३ वर्ष आयु के ,प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा! तीसरा अपकर्ष काल उसकी शेष आयु ८१-७२=९ के २/३ भाग अर्थात ६ वर्ष व्यतीत होने पर,अर्थात उसकी आयु के ७२+६ =७८ वर्ष के आयु के बाद ७९ वर्ष आयु के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!चौथा अपकर्ष काल उसकी शेष आयु ८१-७८=३ वर्ष का २/३ भाग अर्थात २ वर्ष के व्यतीत होने के बाद अर्थात उसकी ७८+२ =८० वर्ष की आयु के बाद,८१ वर्ष के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!पांचवा अपकर्ष काल शेष आयु ८१-८०=१ वर्ष के २/३=८ माह व्यतीत होने के बाद उसकी ८०+८ माह की आयु के बाद,८० वर्ष ९वे माह के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!छठा अपकर्ष काल शेष ४ माह की आयु के २/३ समय अर्थ १२० दिन के २/३ दिन ८० दिन व्यतीत होने के बाद ८० वर्ष १० माह २० दिन की आयु व्यतीत होने के बाद ८० वर्ष १० माह २१वे दिन के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा! सातवाँ अपकर्ष काल शेष आयु ४० दिन के २/३ अर्थात २६ दिन १६ घंटे व्यतीत होने के बाद अर्थात ८० वर्ष ११ माह १६दिन १६ घंटे की आयु के बाद ८० वर्ष ११ माह १७वे दिन के १७वे घंटे के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!आठवा अपकर्ष काल शेष आयु अर्थात १३ दिन ८ घंटे का २/३ भाग ८ दिन २१ घंटे २० मिनट व्यतीत होने पर अर्थात ८० वर्ष ११ माह २५ दिन १३ घंटे २० मिनट आयु के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!यदि इस समय भी जीव के आयु बंध के कर्मों का आस्रव के यथा योग्य परिणाम के कारण नहीं होता,तो मरने से पूर्व आवली का संख्यातवा भाग आयु शेष रहने पर, निश्चित रूप से आयु बंध हो ही जायेगा क्योकि नियम से जीव आयुबंध के बिना वर्तमान शरीर छोड़ता नहीं है,उसे असंक्षेपाधा काल कहते है! अर्थात आवली का संख्यात्वा भाग आयु शेष रहना!
एक जीव अपने जीवन में कम से कम एक बार और अधिकतम ८ बार आयु बाँध सकता है!कोई जीव आठों अपकर्ष कालों में आयु बाँध सकता है बशर्ते की जो उसने सबसे पहले आयु बांधी है ,उसी के योग्य परिणाम होगे तो अगले अपकर्ष कालों में आयु बंध होगा अन्यथा नहीं!किसी ने पहले अपकर्ष काल में यदि देवायु बंधी है,और अगले अपकर्ष काल में उसके मनुष्य आयु के योग्य परिणाम है तो आयु बंध नहीं होगा,तीसरे अपकर्ष काल में तिर्यंचायु के योग्य परिणाम है तो बंध नहीं होगा,चौथे अपकर्ष काल में यदि देवायु के योग्य परिणाम होंगे तो बंध हो जायेगा! जिन जीवों की १/२४ सेकंड आयु होती है,उनके भी आयुबंध के आठ अपकर्ष काल आते है! देवों नारकियों की आयु उनके आयु के अंतिम ६ माह में,८ अपकर्ष काल में आकर आयु बंधती है!हमें आर्त,रौद्र ध्यान,अत्यंत आरम्भ, अत्यंत परिग्रहों,मयाचारी से से बचना चाहिए तभी तिर्यंच और नरक गति से बच सकते है!

अधिक जानकारी के लिए …. 

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1 thought on “तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra) अध्याय 6

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