कर्मों के बंध का कारण-
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाबंधहेतव: १ !
संधिविच्छेद-मिथ्यादर्शन+अविरति+प्रमाद+कषाय+योगा+बंध+हेतव:
शब्दार्थ-मिथ्यादर्शन-मिथ्यादर्शन,अविरति १२ प्रकार की अविरती,प्रमाद-धार्मिक क्रियाओं अरुचि होना, कषाय-आत्मा को कषने वाला,और योगा -योग;मन वचन काय ,बंध कर्मबंध,हेतव:- के कारण है
अर्थ-मिथ्यादर्शन,अविरति,प्रमाद,कषाय,और योग (मन वचन काय ) कर्म बंध के कारण है !
भावार्थ
मिथ्यादर्शन:मिथ्यात्व कर्मोदय से सात तत्वों, नौ पदार्थों में अश्रद्धान होना अथवा अतत्वों में श्रद्धान होना मिथ्यादर्शन है! मिथ्यादर्शन के दो भेद:-१-गृहित और २- अगृहित है!
१-गृहित मिथ्यादर्शन-परोपपदेश द्वारा अतत्वों में श्रद्धान होना गृहित मिथ्यादर्शन है –
२ अगृहित मिथ्यादर्शन- परोपपदेश के अभाव में मिथ्यात्व कर्मोदय से,अगृहित मिथ्यादर्शन होता है!मिथ्यदर्शन के पांच भेद है-
१एकांतमिथ्यादर्शन-वस्तु का स्वरुप अनेकांतमय है-किसी एक अपेक्षा से वस्तु नित्य है और दूसरी अपेक्षा से अनित्य है,किसी अपेक्षा से हेय है तथा किसी अन्य अपेक्षा से उपादेय है,किसी अपेक्षा से भिन्न है और किसी अन्य अपेक्षा से अभिन्न है! उसका स्वरुप अनेकांतमय नहीं मानकर,एकांतमय ही मानना जैसे,वस्तु नित्य हीहै अथवा अनित्य ही है अथवा उपादेय ही है हेय नहीं है,वह भिन्न ही है अथवा अभिन्न ही है, इस प्रकार दोनों विपरीत गुणों में से एक ही मानना,एकांत मिथ्यादर्शन है !
२-विपरीत मिथ्यादर्शन-वस्तु के स्वरुप को आगम के विरुद्ध मानना जैसे केवली कवालाहार करते है,परिगृह सहित भी गुरु होते है ,स्त्री को भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है,मात्र सम्यक् चारित्र से मोक्ष हो सकता है, सम्यग्दर्शन व सम्यगज्ञान की मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यकता नहीं है, इत्यादि मान्यताएं विपरीत मिथ्यादर्शन है!
३-संशय मिथ्यादर्शन-भगवान् के उपदेशित वचनों में संशय करना, जैसे भगवान् ने लोक में ७ नरक और १६ स्वर्गों का उपदेश दिया ,अथवा रत्नत्रय मोक्षमार्ग है;मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समूह है,जिनेन्द्र देव के वचनों मे संशय करना कि,ऐसा है भी या नहीं है,संशय मिथ्यादर्शन है !
४-विनय मिथ्यादर्शन-
अन्य मतियों के सभी देवी-देवताओं को जैनागम में प्रणीत देवों के सामान मानकर , सच्चे -झूठे का भेद जाने बिना,विनय,आदर श्रद्धान करना,विनय मिथ्यात्व है !
५-अज्ञान मिथ्यादर्शन-अपने हेतु कल्याणकारी अथवा अकल्याणकारी ज्ञान को प्राप्त करने में उदासीन रहना !जैसे कही सच्चे धर्म पर प्रवचन चलरहा हो वहाँ कहना कि धर्म में क्या रखा है,धर्म कुछ नहीं होता ,बस परोपकार रूप कार्य करना ही धर्म है!यह अज्ञान मिथ्यादर्शन है!
अविरति- संयम का अभाव अविरति है इसके १२ भेद है !
संयम-
१- प्राणी संयम- षटकाय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम, है इन की रक्षा नहीं करना प्राणी अविरति है और
२-इन्द्रिय संयम-पञ्च इन्द्रियों और एक मन को संयमित करना इन्द्रिय संयम है!इनको संयमित नहीं करना इन्द्रिय अविरति है!अर्थ पंच इन्द्रिय और मन के विषयों में रोकना !
प्रमाद -मोक्षमार्ग के कार्यों में /आत्मकल्याण कार्यों में अनादर होना,रूचि /उत्साह नहीं होना प्रमाद है!प्रमाद के १५ भेद है!
४ विकाथाओं-स्त्री कथा,राजकथा ,भोगकथा और,चोरकथ
४ कषायों-सामान्य से ४ कषाय क्रोध मान,माया ,लोभ ,
५ इन्द्रियां-स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और कर्ण तथा ,स्नेह और निंद्रा १५ भेद प्रमाद के है!कषाय-कषाय-२५ भेद ;चरित्र मोहनीय के-१६;क्रोध,मान,माया,लोभ,प्रत्येक की अनंतानुबंधी,अप्रत्याख्यानावर ण,प्रत्याख्यानवरण,संज्वलन तथा ९ नोकर्मकषाय;हास्य,रति,अरति,शोक,भय,जुगुप्सा स्त्रीवेद,पुरुषवेद,नपुंसक वेद,भेदहै !
अनन्तानुबन्धी (क्रोध,मान,माया,लोभ) कषाय-आत्मा के सम्यक्त्व और चरित्र गुणों का घात करती है !अप्रत्याख्यानावरण (क्रोध,मान,माया,लोभ) कषाय-आत्मा के देश चारित्र नहीं होने देतीप्रत्याख्यानावरण (क्रोध,मान,माया,लोभ) कषाय आत्मा के सकल चारित्र को नहीं होने देती,मुनि पद नही धारण करने देती।
संज्वलन(क्रोध,मान,माया,लोभ) कषाय -यथाख्यात,संपूर्ण चारित्र को नहीं होने देती।
नोकर्म कषाय-हास्य,रति,अरति, शोक,भय,जुगुप्सा, स्त्री वेद,पुरुष वेद,नपुंसकवेद,इस प्रकार कुल २५ भेद कषाय के है !

हास्य-कर्म के उदय से हंसी आती है,किसी का मज़ाक उड़ाते है।
रति- कर्म के उदय से किसी के प्रति राग उत्पन्न होता है
अरति-कर्म के उदय से किसी के प्रति द्वेष उत्पन्न होता ।
शोक-कर्म के उदय से इष्ट वस्तु के वियोग से दुःख रूप परिणाम होते है।
भय-कर्म के उदय से डर रूप परिणाम होते है।
जुगुप्सा- कर्म के उदय से ग्लानि रूप परिणाम होते है।
स्त्रीवेद,-कर्म के उदय से पुरूष से रति रूप परिणाम होते है।
पुरुषवेद,-,-कर्म के उदय से स्त्री से रति रूप परिणाम होते है।
नपुंसकवेद-कर्म के उदय से स्त्री और पुरूष दोनो मे रति रूप परिणाम होते है।
ये सब कर्म बंध के कारण है।प्रमाद में कषाय सामान्य से ली गयी है जबकि कषाय में विशेष रूप से ले गयी है!
योग-मन,वचन,काय की क्रिया से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे योग कहते है! इन योगो के कारण भी कर्म आत्मा में आकर चिपकते है!इसलिए योग को बंधका कारण कहा है!
योग के भेद १५ –
४ मनोयोग-सत्य मनोयोग,असत्य मनोयोग,उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोग
४ वचनयोग-सत्य वचनयोग,असत्यवचन,उभय वचनयोग और अनुभय वचनयोग
७ काययोग-औदारिक,औदारिकमिश्र,वैक्रियिक,वैक्रियिकमिश्र,आहारक,आहारकमिश्र,कर्माण काययोग
शंका -क्या संसार के सभी जीवों में बंध के पाँचों कारण पाए जाते है?
समाधान-नहीं,इन्हें गुणस्थानों की अपेक्षा समझना चाहिये जीवों में कर्मबंध का प्रथम कारण मिथ्यात्व,पहले गुणस्थान तक ही है!पहले गुणस्थान में बंध के पाँचों कारण है!
२, ३, ४ गुण स्थानों में मिथ्यात्व के अतिरिक्त;शेष चार अविरति,प्रमाद,कषाय और योग बंध के कारण है!
पांचवे गुण स्थान में क्योकि ६ काय के जीवों की रक्षा करने की प्रवृत्ति में त्रस जीवों की रक्षा से प्रारंभ हो जाते त्रस काय के जीवों की रक्षा करनी है,इसलिए १२ प्रकार की विरति में से त्रस अविरति को छोड़कर ११ अविरति,प्रमाद,कषाय,योग बंध के चार कारण है!इसलिए पांचवे गुणस्थान का नाम संयमासंयम रखा है!
छठे गुणस्थानव्रती मुनिमहाराज के अविरति नहीं होगी मात्र;प्रमाद,कषाय और योग बंध के,तीन कारण है!सप्तम गुणस्थानव्रती मुनिमहाराज के कर्मबंध के कारण मात्र कषाय और योगहै!१०वे गुणस्थान के बाद ११वे,१२वे और१३वे गुणस्थान में बंध का कारण मात्र योग है!१४ वे गुणस्थान में बंध का कोई भी कारण नहीं है!
मिथ्यादर्शन,दर्शनमोहनीय है!अवरति,प्रमाद और कषाय,चरित्र मोहनीय है,योग-योग है!अर्थात बंध के कारण मोह और योग है!पहले गुणस्थान में दर्शन मोहनीय,अन्य गुणस्थानों में चरित्र मोहनीय ऊपर तक है
इस प्रकार कर्मों के आने के ५७ द्वार है और वो ही बंध के कारण है!
बंध ,दो प्रकार का द्रव्यबंध और भावबंध !
द्रव्य बंध -कर्मों का आत्म प्रदेशों के साथ बंध जाना !
भाव बंध- आत्मा के जिन परिणामों के कारण द्रव्यबंध होता है,वे परिणाम भावबंध है!आत्मा के परिणाम;मिथ्यात्व,अविरति,प्रमाद,कषाय वयोग से कर्मों की बंध की अर्थात भावबंध की चर्चा हुई है !

द्रव्यबंध-
सकषायत्वाज्जीवःकर्मणोयोग्यान् पुदगलानादत्तेसबन्ध: २ ।
संधि विच्छेद-सकषाय त्वात्+जीव:+कर्मणा:+योग्यान्+पुद्गलान+आदत्ते +स +बन्ध:
शब्दार्थ:-सकषायत्वात्-कषाय सहित,जीव:-जीव के ,कर्मणा:-कर्म बनने के,योग्यान्-क्षमता रखने वाले ,पुद्गलान-पुद्गल परमाणुओं का ,आदत्ते-ग्रहण करना ,स -वह ,बन्ध:-बंध है !
अर्थ-जीव के कषाय(क्रोध,मान,माय ,लोभ,नोकषाय; हास्य,रति,आरती आदि ९ ) सहित कर्म बनने योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर,जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रवगाह होकर बंधना द्रव्यबंध है
भावार्थ :-आत्मा प्रदेशों पर अनंतानत विष्रोपचय/आगामी समय में आत्मा से साथ बंधने वाली कार्माण(कर्म रूप परिणमन करने योग्य) वर्गणाए विराजमान है!आत्मा में कषाय रूप परिणाम होते ही उनका आत्मा के साथ एक में एक हो कर बंधना द्रव्य बंध है!
बंध -तीन प्रकार से होता है
१-संयोग सम्बन्ध-जैसे कमीज में बटन लगाना!
२ संश्लेष सम्बन्ध-दो वस्तुओं में एक क्षेत्रवगाह सम्बन्ध,एक में एक होकर समाजाना जैसे आत्मा और कर्मों मेंएक क्षेत्रवागाह सम्बन्ध होना,आत्मा व कर्मों में यही बंध होता है! !
३-तादात्म सम्बन्ध-गुण और गुणीमें होता है!आत्मा में ज्ञान गुण है!आत्मा और ज्ञान गुण का तादात्मकसम्बन्ध-आत्मा है तो ज्ञान दर्शन है,ज्ञान-दर्शन है तो आत्मा है!
कर्मों का और आत्मा का एक क्षेत्रवागाह सम्बन्ध अनादि काल से है!
एक बार आत्मा कर्मों से मुक्त हो जाए तो उससे कर्म कभी बंधेगे ही नहीं क्योकि आत्मा के परिणाम कर्म बंध के योग्य होगे ही नहीं !
शंका-आत्मा अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक है तो इन दोनों का बंध कैसे संभव है?
समाधान-
संसारी जीव की आत्मा अनादिकाल से कर्मों के साथ बंधी होने के कारण व्यवहार नय से मूर्तिक ही है, इसकी पुष्टि धवलाकार आचार्य वीरसैन स्वामी ने भी करी है,शुद्ध निश्चय नय से ,शुद्धात्मा की तरह अमूर्तिक नहीं है,यद्यपि उसका स्वाभाविक परिणमन शुद्ध सिद्धावस्था में अमूर्तिक ही है!इसलिए सांसारिक अवस्था में तो आत्मामूर्तिक ही है और उसका मूर्तिक पुद्गल से बंध हो जाता है!बहुत से लोग एकांत से, आगम के विरुद्ध, अपनी आत्मा को त्रिकाल अमूर्तिक मानते है यह अनुचित है!
पुद्गल वर्गनणाये २३ प्रकार की होते है उनमे से ५ प्रकार की वर्गनणाये हमारी आत्मा के ग्रहण करने योग्य है !
१-नो कर्म वर्गनणाये- शरीर के योग्य नोकर्म आहार वर्गणाये.इनसे शरीर निर्मित होता है!
२-कार्मणवर्गनणाये – पौद्गालिक कार्मण वर्गनणाये,इनसे कर्म बनते है !
३-भाषा वर्गनणाये-शब्द भी भाषा पौद्गालिक वर्गनणाये है !
४-मनो वर्गनणाये-हमारा मन भी पौद्गालिक मनो वर्गनणाओ से बना है!
५-तेजस वर्गनणाये-तेजस शरीर जो की हमें कान्तिदेता है, भोजन पचता है, पौद्गालिक तेजस वर्गनणाओ से निर्मित है!विश्व में,आठ प्रकार की ज्ञानावरण,दर्शनावरण आदि कार्माणवर्गणाये है,ज्ञानावरण योग्य ज्ञानावरण होंगी, दर्शनावरण योग्य दर्शनावरण बनेगी इसलिय उन उन कर्मो के योग्य वर्गणाये आत्मा ग्रहण करती है! इसी का नाम बंध है!जीव कषाय सहित दोनों कर्म के योग्य कार्माण वर्गणाये और शरीर के योग्य नोकर्म वर्गणाये ग्रहण करता है!आस्रव और बंध दोनों एक ही समय में होते है,द्रव्य बंध और भाव बंध भी उसी समय होता है!


बंध के भेद –

प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधय:! ३
सन्धिविच्छेद:-प्रकृति+स्थिति+अनुभव+प्रदेशा:+तत्+विधय:
शब्दार्थ-प्रकृति-प्रकृति,स्थिति-स्थिति,अनुभव-अनुभव/अनुभाग,प्रदेशा:-प्रदेश का,तत्-उसके,विधय:-भेद है
अर्थ-उस(द्रव्यबंध)के;अथिति,अनुभव/अनुभाग,स्थिति और प्रदेश,चार भेद है !
भावार्थ:-प्रकृतिबंध-आत्मा की ओर अग्रसर कार्मण वर्गणाओ का कर्मरूप परिणमन कर उनका स्व भाव निश्चित/कार्य नियत होना,प्रकृतिबंध है!जैसे;ज्ञानावरण=ज्ञान+आवरण,कर्म का स्वभाव,आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करना है!ज्ञानावरण कर्म की प्रकृतियों में ज्ञान आवृत करने के स्वभाव को प्रकृति बंध कहते है!
स्थितिबंध-इन कर्मरूप परिणमन करने वाली वर्गणाए/बंधे कर्म का आत्मा के साथ जुड़े रहने का समय,स्थितिबंध है!आने वाली कार्मणवर्गणाओ में ठहरने वाले काल का निश्चित होना स्थितिबंध है!
अनुभव/अनुभाग बंध-बंधेकर्मों की फलदान शक्ति,तीव्र/मंद को अनुभव/अनुभागबंध कहते है!
प्रदेशबंध-आत्मा और कार्मणवर्गणाओ का एक दूसरे में एक में एक हो कर मिलना/आत्मा और कर्मों के प्रदेशों को एक दूसरे में समाजाना /आने वाली कार्मणवर्गणाओ की संख्या का ज्ञानावरण, दर्शना वरण,वेदनीय,मोहनीय आदि का विभाजन होना,प्रदेशबंध है!
शंका:-क्या सब जीवों में बंध एक सामान होता है या अलग- अलग ?
समाधान- प्रकृतिबंध-संसार का प्रत्येक जीव १०वे गुणस्थान तक प्रतिसमय आयुकर्म के अतिरिक्त, (जिसका बंध सातवे गुणस्थान तक ही होता है) का बंध करता है उसके बाद ग्रहण की गयी कर्म वर्गणाओ में आयुकर्म का स्वभाव नहीं पड़ता,शेष सातकर्मों के योग्य वर्गणाओ को ग्रहण करता है!कषाय रूप परिणाम दसवे गुणस्थान तक होते है!मोहनीय और आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य छ:कर्मों के योग्य वर्गणाओ का ग्रहण १०वें गुणस्थान तक होता है!११वें,से १३वें गुणस्थान तक,कर्मों के बंध योग्य वर्गणाओ को ग्रहण कर उनका मात्र सातावेद्नीय में बंध होता है!जैसे परिणाम होते है तदानु सार कर्मोंबंध होता है!
स्थिति बंध-प्रत्येक जीव में स्थितिबंध भिन्न भिन्न प्रकार का होता है!कर्म प्रकृतियों की १४८ प्रकृतियों को दो भागों;देवायु,तिर्यन्चायु,मनुष्यायु को एक तरफ और बाकी १४५ को दूसरी तरफ रखे !जीव के तीव्रकषाय,परिणामों की कम विशुद्धि के कारण,इन तीन शुभायु में से किसी एक के बंध का अपकर्ष काल(समय) होने से इन तीन शुभायु का स्थितिबंध कम और शेष १४५ प्रकृतियों का अधिक होगा!किन्तु मंदकषाय में,परिणामों की अधिक विशुद्धि के कारण इन तीन शुभायु का स्थिति बंध अधिक और शेष १४५ प्रकृतियों का कम स्थितिबंध होगा !
प्रत्येक जीव के भिन्न भिन्न परिणाम होते है इसलिए उनका स्थिति बंध भी भिन्न भिन्न होता है!
अनुभाग बंध-कर्मो के फल देने की शक्ति भी आत्मा के परिणामों पर निर्भर करती है!इसके लिए हम समस्त १४८ कर्मप्रकृतियों को शुभ-पुन्य १०० और पाप ६८ प्रकृतियों में विभाजित करते है!४७ घातिया कर्मों की समस्त प्रकृतिया पापरूप है.बाकी अघातियाकर्मों की १०१ प्रकृतियों में कुछ पापरूप जैसे; सातावेदनीय,उच्चगोत्र आदि तथा कुछ पाप रूप जैसे असातावेदनीय नीच्चगोत्र आदि है!२०-स्पर्श,रस, गंध और वर्ण की प्रकृतिया पाप और पुन्य दोनों रूप है इसलिए कुल प्रकृतियाँ १६८ हो जाती है!जीव के तीव्रकषाय के समय उसके बंधे पापकर्मों की फल देने की शक्ती अधिक होगी,पुन्य कर्मों की शक्ति कम होगी! इसके विपरीत मंद कषाय के साथ बंधे पापकर्मों में फल देने की शक्ति कम होगी और पुन्य कर्मों की शक्ति अधिक होगी!अर्थात पापकर्मो का फल कम और पुन्य कर्मों का अधिक होगा!
४-प्रदेश बंध-जीव के प्रदेशबंध हीनाधिक होता है!एक समय एक जीव कितनी (संख्या) वर्गणाओ को बांधता है!आचार्यों ने कहा है समयप्रबद्ध (अनंतानंत) वर्गणाओ को जीव प्रति समय बांधता है!प्रदेश बंध में सदा एक सी वर्गणाओ की संख्या नहीं आती है!मन,वचन,काय तीन योगो में किसी की क्रिया से यदि आत्मप्रदेशों का परिस्पंदन कम है तो आने वाले कर्म कम आयेगे किन्तु यदि अधिक है तो कर्म अधिक आयेगे!यह प्रदेशबंध-वर्गणाओ की संख्या-समयप्रबद्ध,आत्मा के प्रदेशों के परिस्पंदन पर निर्भर करता है!अत: प्रदेशबंध जीव के योग पर निर्भर करता है!जैसे जब जीव सामायिक में ध्यान मग्न होकर बैठा है तो आने वाले कर्म के प्रदेश कम आयेगें,छोटा समयप्रबद्ध और इसके विपरीत यदि किसी के साथ वह झगडा कर रहा है तो कर्म प्रदेश अधिक आयेंगे,बड़ा समयप्रबद्ध! इसलिए कर्मो की संख्या-समय प्रबद्ध,हमारे आत्मा के परिणामों पर निर्भर करती है
योग से प्रकृति और प्रदेशबंध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होता है! इन चारो बंधों में मिथ्यात्व का कोई रोल नहीं है! ये चारो प्रकार का बंध १३वे गुणस्थान तक होता है!
शंका:-कुछ लोगो का मत है की ११,१२,१३वे गुणस्थान में कषाय का सद्भाव है नहीं फिर स्थिति और अनुभाग बंध कैसे होता है?
समाधान-इसके लिए धवलाकर आचार्य वीरसैन स्पष्ट करते है किजब भी बंध होगा, चारों प्रकार का ही होगा!१३वें गुणस्थान में अर्हन्त भगवान् के योग है,मन,वचन,काय की क्रिया है,वे बैठते है,खड़े होते है,विहार करते है,उनकी दिव्य्ध्वानी होती है,श्वासोच्छ्वास होता है,इन सब के कारण योग है जो की बंध का कारण है!जब बंध है तो असंभव है की स्थिति और अनुभागबंध न हो!इसलिए कषाय रहित जीवों के बंध तो चारों प्रकार का होगा,प्रकृतिबंध मात्र सातावेद्नीय का होगा,प्रदेशबंध पूरा समयप्रबद्ध होगा,स्थितिबंध एक समय मात्र होगा और अनुभाग बंध १०वें गुणस्थान से असंख्यात्व भागहीन होगा!बहुत थोडा!अत: चारो प्रकार के बंध १३वें गुणस्थान तक प्रत्येक जीव के होगा!


प्रकृतिबंध भेद-

आद्योज्ञानदर्शनावरण वेदनीयमोह्नीयायुर्नामगोत्रान्तराय: ४
संधिविच्छेद-आद्य:+ज्ञानावरण+दर्शनावरण+वेदनीय+मोह्नीय+आयु:+नाम+गोत्र+अन्तराय:
शब्दार्थ-आद्य:-पहले/प्रकृतिबंध के;ज्ञानावरण,दर्शनावरण,वेदनीय,मोह्नीय,आयु,नाम,गोत्र और अन्तराय: कर्म भेद है
अर्थ
ज्ञानावरणकर्म-आत्मा के ज्ञानगुण को स्वभावत: आवृत करता है,आयी कार्मण वर्गणाए मे से कुछ में ज्ञानगुण को ढकने का स्वभाव पड़ने से,उन्हें ज्ञानावरण कर्म कहते है !
दर्शनावरण-आत्मा के दर्शन-सामान्य अवलोकन गुण को स्वभावत: आवृत करता है,आयी कार्मण वर्गणाए मे से कुछ में दर्शनगुण को ढकने का स्वभाव पड़ने से,उन्हें दर्शनावरण कर्म कहते है वेदनीयकर्म-आत्मा को सुख और दुःख का स्वभावत: वेदन कराने वाला वेदनीय कर्म है!
मोहनीयकर्म-आत्मा को स्वभावत: मोहित कर ५-आस्तिकाय,६ द्रव्यों ७ तत्वों,नव पदार्थों के परिचय में बाधक,मिथ्यात्व/कषायों को प्रेरित करने वाला मोहनीयकर्म है!
आयुकर्म-आत्मा को नरक,तिर्यंच,मनुष्य व देव के शरीर में स्वभावत: निश्चित समय तक रोकता है नामकर्म-आत्मा को स्वभावत:नाम देता है;उसके शरीर;देव,तिर्यंच,मनुष्य,नारकी का निर्माण करता है
गोत्रकर्म-आत्मा को उच्च या नीच्च कुल में स्वाभावत:उत्पन्न कराता है!
अन्तरायकर्म-आत्मा के दान,लाभ,भोगोपाभोग,वीर्य गुण में स्वभावत: बाधक होता है!
भावार्थ-प्रकृतिबंधकर्म के सामान्यत:;ज्ञानावरण,दर्शनावरण,वेदनीय,मोह्नीय,आयु,नाम,गोत्र और अन्तराय,८ भेद है!


प्रकृतिबंध के उत्तर भेद-
पञ्चनवद्व्यष्टाविंशतिचतुदर्विचत्वारिंशद्-द्विपञ्चभेदायथाक्रमम् ५

संधिविच्छेद-पञ्च+नव+द्वि+अष्टा+विंशति+चतु:+द्वि+चत्वारिंशद्+द्वि+पञ्च+भेदा+यथा+क्रमम्
शब्दार्थ-पञ्च-५,नव-९,द्वि-२,{अष्टा-८,विंशति-२०)}=२८,चतु:-४,द्वि -२ {चत्वारिंशद्-४x१०+द्वि-२)}-४२,पञ्च-५,भेदा-भेद,यथा-उक्त सूूत्र मे कहे गये,क्रमम्-क्रमश:
अर्थ-ज्ञानवरणीय-५,दर्शनावरणीय-९,वेदनीय-२,मोहनीय-२८,आयु-४,नाम-४२,गोत्र-२,अंतरायकर्म-५ भेद है!
भावार्थ-प्रकृतिबंध;ज्ञानावरण-५,दर्शनावरण-९,वेदनीय-२,मोहनीय-२८,आयु-४,नाम-४२,गोत्र-२ और अन्तराय -५ उत्तर भेद है !
विशेष-४ घातियाकर्म;ज्ञानावरण,दर्शनावरण,मोहनीय और अन्तराय आत्मा के अणुजीवी गुणों का घात करते है,४ अघातिया कर्म:वेदनीय,आयु,नाम और गोत्र कर्म प्रीतिजीवी गुणों,(जिनके अभाव में भी जीव का जीवत्व,सुरक्षित रहता है),का ही घात करते है!
इन कर्मों को इसी क्रम में रखने का कारण-
वेदनीयकर्म का अनुभव मोहनीय के साथ ही होता है,इसलिए उसे मोहनीय से पहले रखा है! अन्तराय कर्म अंत में इसलिए रखा है क्योकि यह घातियाकर्म;दान,लाभ,भोगोपभोग और वीर्य का घात पूर्णतया नहीं करता,संसार में कोई जीव ऐसे नहीं है जिनका इन ५ गुणों का क्षयोपशम नहीं हो,अंत: पूर्णतया नाश न करने से अघातियाकर्म के सामान ही कार्य करता है!अन्तराय कर्म;अपना फल तभी देता है जब आयु,गोत्र और नामकर्म अपना कार्य करते है!
कर्म के तीन भेद है!-
१-द्रव्यकर्म-आत्मा के साथ संश्लेषित होने वाली पुद्गल कार्मण वर्गणाए द्रव्यकर्म है!जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि ‘अजीव’ द्रव्यकर्म है !
२-भावकर्म-उन द्रव्य कर्मो के उदय से जीव के जो भाव होते है या जिन भावों के कारण द्रव्य कर्म आत्मा से संलेषित होते है,वे भावकर्म जीव के अत: ‘जीव’ है
३-नोकर्म-शरीर को नोकर्म कहते है!ये ‘अजीव’ है!
पुद्गलकार्मणवर्गणाए,आत्मा के राग-द्वेष आदि परिणामों के निमित्त से,कर्मरूप परिणमन कर,आत्मा से बंधती है और द्रव्य क्षेत्र,काल,भाव के अनुसार फल देती है!इनमे पुद्गल होने पर भी फल देने की शक्ति होती है!कार्मण वर्गणाओ के अतिरिक्त अन्य वर्गणा में फल देने की शक्ति नहीं होती है!

ज्ञानावरणप्रकृति बंध के ५ भेद –
मतिश्रुतावधिमन:पर्यायकेवलानाम् ६
सन्धिविच्छेद-मति+श्रुत+अवधि+मन:पर्याय+केवलानाम्
शब्दार्थ-मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्याय और+केवल ज्ञानवरण उनके(ज्ञानावरण कर्म प्रकृति के)नाम् है
अर्थ:-मतिज्ञानावरण-जिस कर्म के उदय में,मन और इन्द्रियों द्वारा होने वाले मतिज्ञान का आवरण होता है,मतिज्ञानावरण कर्म है!
श्रुत ज्ञानावरण-पदार्थों के मतिज्ञानपूर्वक जाने गए विशेषज्ञान को श्रुतज्ञान कहते है!जो कर्म श्रुतज्ञान का आवरण करता,वह श्रुतज्ञानावरणकर्म है!
अवधिज्ञानावरण-जिस कर्म के उदय से जीव के अवधिज्ञान का आवरण होता है,उसे होने नहीं देता, वह अवधिज्ञानावरणकर्म है!अवधिज्ञान;द्रव्य,क्षेत्र,काल,भाव की मर्यादा सहित रुपी पदार्थों को इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना,आत्मा से स्पष्ट जानता है!
मन:पर्यायज्ञानावरण-जिस कर्म के उदय में मन:पर्ययज्ञान का आवरण होता है,मन;पर्यायज्ञानावरण कर्म है!मन: पर्ययज्ञान दूसरे के मन को जानकर,उसके चिंतित और अचिंतित पदार्थों को जानता हैकेवलज्ञानावरण-केवल ज्ञान त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की अनंतांत पर्याय को क्रम रहित,आत्मा से युगपत स्पष्ट जानना है!जो कर्म केवलज्ञान का आवरण करता है वह केवलज्ञानावरण कर्म है!
भावार्थ-ज्ञानावरण प्रकृति कर्म के;मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्याय और केवलज्ञानावरण ५ भेद है!
क्या हमारे पाँचों ज्ञानों का उदय रहता है?
समाधान-हमारे पाँचों ज्ञानों का उदय रहता है!घातियाकर्मों के दो भेद;
१-देशघाती प्रकृति:-गुण का एकदेश और सर्वदेश दोनों तरह से घात करती है;मति,श्रुत,अवधि और मन:पर्यय देशघाती कर्म प्रकृति है और
२-सर्वघाती प्रकृति:-गुण का पूर्ण रूप से घात करती है! ज्ञानावरण की मात्र केवलज्ञानावरण सर्वघाती प्रकृति है!हमारे केवल ज्ञानावरण का उदय है इसलिए केवलज्ञान नही है,उसने केवलज्ञान को पूर्णतया आवृत कर रखा है!
हमें मन:पर्यायज्ञानावरण और अवधिज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय है,इसलिए मन:पर्याय और अवधिज्ञान नहीं है!हमारे सिर्फ मति और श्रुतज्ञान का उदय,इन दोनों के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने के कारण है,पूर्णतया ढका हुआ नहीं है,इसलिए आंशिक मति और श्रुतज्ञान है!उदय पाँचों ज्ञान का है!अवधि,मन:पर्यय के सर्वघाती स्पर्धकों का,केवलज्ञान के सर्वघातीप्रकृति का,मति और श्रुत के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहता है जिस के कारण मति और श्रुतज्ञान थोडा थोडा हमें रहता है !
शंका-अभव्य जीव के मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान की शक्ति होती है या नही?यदि है तो अभव्य नही और यदि नही है तो उसके ये दोनों के ज्ञानावरण मानना व्यर्थ है!
समाधान- द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा इन दोनों ज्ञान की शक्ति अभव्य जीवों में होती है किन्तु पर्यार्थिक नय की अपेक्षा नहीं होती है !
शंका-यदि भव्य और अभव्य दोनों में ही इन ज्ञानो को प्रगट करने की शक्ति होती है तो भव्य और अभव्य
का भेद नहीं बनता !समाधान-शक्ति होने या नहीं होने की अपेक्षा भव्य और अभव्य का भेद नहीं है बल्कि उन् शक्तियों को प्रगट करने और नहीं करने की क्षमता की अपेक्षा भव्य और अभव्य जीव में भेद है!जिस जीव के कभी सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगट होंगे वे भव्य और जिनके प्रगट नहीं होंगे उन्हें अभव्य जीव कहते है!

दर्शनावरण प्रकृति के ९ भेद –
चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानाम् निद्रा निद्रा निद्राप्रच्ला प्रच्ला प्रच्ला स्त्यांगृद्धयश्च ७
संधि विच्छेद:-चक्षु:+अचक्षु:+अवधि+केवलानाम्+निद्रा+निद्रानिद्रा+प्रच्ला+प्रच्लाप्रच्ला+स्त्यांगृद्धि:+च
शब्दार्थ:-चक्षु:,अचक्षु:,अवधि,केवलानाम्,निद्रा,निद्रानिद्रा,प्रच्ला,प्रच्लाप्रच्ला और स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म के ९ भेद है
अर्थ-चक्षु,अचक्षु,अवधि,केवल,निद्रा,निद्रानिद्रा,प्रचला,प्रचलाप्रचला व स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण प्रकृति के ९ भेद है
भावार्थ-
चक्षु:दर्शनावरण-चक्षुइन्द्रिय द्वारा होने वाले ज्ञान से पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकन को चक्षुदर्शन कहते है,जो कर्म उस चक्षुदर्शन को आवृत करे,चक्षुदर्शनावरण कर्म है!
अचक्षुदर्शनावरण-चक्षु इन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियों तथा मन से होने वाले ज्ञान से पूर्व जो सामान्य अवलोकन होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते है और जो कर्म उस अचक्षुदर्शन को आवृत करे, अचक्षुदर्शनावरण कर्म है !
अवधिदर्शनावरण-अवधिज्ञान से पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकन,को अवधिदर्शन कहते है और जो कर्म,उस अवधिदर्शन को आवृत करे,अवधिदर्शनावरणकर्म है!
केवलदर्शनावरण-केवलज्ञान के साथ होने वाले सामान्य अवलोकन को केवलदर्शन कहते है और जो कर्म उस केवलदर्शन को आवृत करे,केवल केवलदर्शनावरण कर्म है!
निद्रादर्शनावरण-जिस कर्म के उदय से नींद आती है,निद्रादर्शनावरण कर्म है
निद्रानिद्रादर्शनावरण-जिस कर्म के उदय से गहरी नींद आती है,निद्रानिद्रा दर्शनावरण कर्म है
प्रचलादर्शनावरण-जिस कर्म के उदय से कुछ जागे से,कुछ सोये से रहते है प्रचला दर्शनावरण है!
प्रचलाप्रचलादर्शनावरण-जिस कर्म के उदय से नींद में मुह विकृत हो जाता है और लार आती है वह प्रचलाप्रचलादर्शनावरण कर्म है!
स्त्यानगृद्धिदर्शनावरण-जिस कर्म के उदय से जीव सोते सोते नदी भी तैर कर दुसरे छोर पहुँच कर कार्य कर लौट आता है,पुन:सो जाता है किन्तु उसे स्मरण नहीं रहता,वह स्त्यानगृद्धिदर्शनावरण है!
दर्शनावरण प्रकृति कर्म के ये ९ भेद है
विशेष-
१-दर्शन-सामान्य अवलोकन,जहा आत्मा का ज्ञान की ऒर प्रयास तो होता है,किन्तु ज्ञान नहीं होता, उसे आत्मा का दर्शन गुण कहते है!जो कर्म दर्शन गुण को आवृत करे उसे दर्शनावरण कहते है! २-चक्षु,अचक्षु,अवधि और केवलदर्शन पहले चार दर्शनोपयोग में बाधक है,उसे आवृत करते है और शेष पांच दर्शनोपयोग होने पर उसका क्षय करते रहते है,इस लिए इन्हें सूत्र में अलग अलग रखा है!
३-दर्शनावरण के,पहले चार का उदय १२वे गुणस्थान तक सब जीवों में रहता है!इनके क्रमश उदय उन के दर्शनों को क्रमश आवृत करते है!हमारे केवलदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण का उदय होने से हमारे केवलदर्शन और अवधिदर्शन नहीं है!चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने,उसका क्षयोपशम होने से चक्षु और अचक्षु दर्शन है,इसलिए इन चारों का उदय प्रत्येक जीव;निगोदिया,एकेंद्रिय के भी रहता है!शेष पंचों निद्राओं में से एक समय में,जीव के एक का ही उदय रहता है!उससे अधिक का नहीं!जब निद्रा का उदय होगा तो अन्य चार का नहीं,जब प्रचला का उदय होगा तो अन्य चार का नहीं,इसी प्रकार सब निद्राओं में है,इसलिए हमारे पहली चार का निरंतर और बाकी पांच में से किसी एक का उदय रहता है!कोई भी जीव एक अंतरमूहर्त से अधिक लगातार न तो जाग सकता है और न ही सो सकता है,अर्थात पांच निद्राओं में कोई भी अंतर्मूर्हत से अधिक नहीं रह सकती,अंतर्मूर्हत के बाद इनमे से किसी का उदय आयेगा ही और अंतरमूहूर्त से अधिक रहता भी नहीं!अत: एक अंतरमूहूर्त के बाद जीव जागेगा ही,उसे कोई रोक नहीं सकता!


वेदनीय प्रकृति कर्म के भेद –
सदसद्वेद्ये !!८!!
संधिविच्छेद-सद्+असद्+वेद्ये
शब्दार्थ-सद्-साता,असद्-असाता,वेद्ये-वेदनी
अर्थ-वेदनीय कर्म के दो भेद है!
साता वेदनीय-जिस कर्म के उदय से सुखमय सामग्री की प्राप्ति होती है तथा
२-असाता वेदनीय-जिस कर्म के उदय से दुखमय सामग्री प्राप्त होती है, !
भावार्थ-संसार में जितनी भी सुख का अनुभव कराने वाली वस्तु जैसे गुणवान पत्नी,पुत्र,पुत्री,संपन्न परिवार,धन-दौलत,यश आदि साता वेदनीय कर्म के उदय से मिली है और जितनी दुःख देने वाली वस्तुये जैसे अपयश,रोग,खराब पति,पुत्र,पुत्री,दरिद्रपरिवार आदि असाता वेदनीय कर्म के उदय से मिली है!
विशेष-सातावेदनीयकर्म और असातावेदनीयकर्म की जघन्य स्थिति १२ अंतर्मूर्हत और उत्कृष्ट स्थिति क्रमश १५ कोड़ा कोडी सागर तथा ३० कोड़ाकोडीसागर है!सातावेदनीय कर्मबंध प्रथम गुणस्थान से १० वे गुणस्थान तक और ईर्यापथ आस्रव के साथ १३वे गुणस्थान तक १ समय स्थिति का,अत्यंत क्षीण अनुभाग का केवलीभगवान के होता है जबकि असातावेदनीयबंध प्रथम से छठेगुणस्थान तक होता है!

दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेद्नीयाख्यासत्रि-द्वि-नव-षोडशभेदा: सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा स्त्रीपुन्नपुंसकवेदाअनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्जवलन विकल्पाश्चैकशःक्रोधमानमायालोभः !!९!!
संधिविच्छेद:-
(दर्शन+चारित्र)+मोहनीय+(अकषाय+कषाय)वेद्नीय+आख्यास+त्रि+द्वि-नव+षोडश+भेदा:+सम्यक्त्व+मिथ्यात्व+तत्+उभयानि+(अकषाय+,कषाय)वेद्नीय+हास्य+रति+अरति+शोक+भय+जुगुप्सा+स्त्रीवेदा+ पुरूषवेदा+नपुंसकवेदा+अनन्तानुबन्धि+अप्रत्याख्यान+प्रत्याख्यान+ संज्जवलन+विकल्पा:+च+ऐकशः+क्रोध+मान+माया+लोभः
शब्दार्थ-दर्शन-दर्शनमोहनीय,चारित्र-चारित्रमोहनीय;अकषाय-अकषायवेदनीय और कषाय वेद्नीय,आख्यास-कहे है,त्रि-तीन,द्वि-दो,नव-नौ,षोडश-१६,भेदा:-भेद हैं,सम्यक्त्व+मिथ्यात्व+तत्+उभयानि+अकषायवेद्नीय कषायौवेद्नीय;हास्य,रति,अरति,शोक,भय,जुगुप्सा,स्त्रीवेदा,पुरूषवेदा,नपुंसकवेदा;अनन्तानुबन्धि,अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान,संज्जवलन,विकल्पा:-विकल्प से,चैकशः-चार-प्रत्येक के;क्रोध,मान,माया,लोभः
अर्थ-मोहनीयकर्म के दो भेद;
१-दर्शनमोहनीय -तीन भेद; (क)सम्यक्त्वप्रकृति,
(ख)मिथ्यात्वप्रकृति और
(ग) (तत्-उनके,उभायानि-उनके उभय )-अर्थात सम्यक-मिथ्यात्व प्रकृति है!और
२-चरित्र मोहनीय-दो भेद;
(क)अकषाय वेदनीय के ९- हास्य रति, अरति,शोक,भय,जुगुप्सा, स्त्रीवेद,पुरुषवेद और नपुंसक वेद है! और
(ख) कषायवेदनीय के १६ भेदअनंतानुबंधी,अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान और संज्वलन के विकल्प से प्रत्येक के चार- चार भेद क्रोध,मान,माया,लोभ है,!
भावार्थ-
मोहनीय कर्म-जो कर्म आत्मा को मोहित करे,आत्मा के दर्शन,चरित्रगुण का घात करे!
१-दर्शनमोहनीय-जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करता है,दर्शनमोहनीय कर्म है!
(क) सम्यक्त्व प्रकृति-सम्यक्त्वप्रकृति,सम्यक्त्व का घात तो नहीं करती,किन्तु सम्यक्त्व को सदोष करती है!सम्यगदर्शन में चल,मल,अगाढ़ दोष जिसके उदय में लगते हैं वह सम्यक्त्वप्रकृतिहै!
चलदोष-शांतीनाथ भगवान् शांति प्रदान करते है पार्श्वनाथ भगवान् संकट मोचक है,अमुक हमारी बिरादरी का मंदिर है,आदि मानना चलदोष है!
मल दोष-सम्यक्त्व के २५ दोष में से किसी का कदाचित कभी सम्यक्त्व में लग जाना!
अगाढ़ दोष-श्रद्धान है किन्तु प्रगाढ़ नहीं होना,अगाढ़ दोष है!जैसे किसी वृद्ध की लाठी चलते समय हिलती डुलती रहना!
(ख)मिथ्यात्व प्रकृति- के उदय में तत्वों में श्रद्धान समाप्त अथवा विपरीत हो जाता है
(ग) सम्यक-मिथ्यात्व प्रकृति-जहा आत्मा के कुछ परिणाम सम्यक्त्व रूप होते है और कुछ मिथ्यात्व रूप होते है जैसे अपने सच्चे देव वन्दनीय है ही,किन्तु अन्य मतियों के देवों का चमत्कार देख ने पर मानना की इनके पास इतन्रे भीड़ आती है ये भी सच्चेदेव से ही है,ऐसे मानते ही चतुर्थ गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में जीव आजाते है जिसका अधिकत्तम काल अंतरमूहूर्त है!यदि वह यही मानते रहे की अन्य मती के देव अपने जैसे सच्चे है तो तीसरे से प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान में,मिथ्यात्व के उदय के कारण गिर जायेगे किन्तु यदि पुन: अपने को संभाल कर विचार आया की नहीं अपने वीत रागी,हितोपदेशी,सर्वज्ञ ही सच्चे देव है अन्य नहीं तो तीसरे से फिर चौथे गुणस्थान में पहुँच जायेगे क्योकि मिथ्यात्व का उदय नहीं रहेगा!
२-चरित्र मोहनीय-जो आत्मा के चरित्र गुण का घात करता है,चरित्र मोहनीय है!
(क)अकषाय वेदनीय–किंचित (मंद) कषाय का वेदन कराये!(१) हास्य -जिसके उदय से हस्सी आवे ,२-रति-जिसके उदय से कोई वस्तु अच्छी लगे,३-अरती-जिसके उदय से कोई वस्तु अच्छी नहीं लगे,४-शोक-जिसके उदय से इष्ट वस्तु के वियोग में शोक अनुभव हो,५- भय-जिसके उदय से भय लगे,६-जुगुप्सा-जिसके उदय से घृणा का भाव जागृत हो,७-स्त्री वेद-जिसके उदय में पुरुष से रति के भाव जागृत हो,८-पुरुष वेद-जिसके उदय में स्त्री से रति के भाव जागृत हो,९-नपुंसकवेद-जिसके उदय में स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति रति के भाव जागृत हो !
(ख) कषाय वेदनीय-जो कर्म कषाय का वेदन कराये!
अनंतानुबंधी-क्रोध,मान,माया,लोभ.-अनंतानुबंधी कषाय आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र,दोनों गुणों का घात करती है!अनंतानुबंधी कषाय के उदय में विपरीत अभिप्राय होने से या अभिप्राय के दोषित होने से,सम्यक्त्व का घात होता है,तत्वों का श्रद्धान समाप्त हो जाता है!इसीलिए चतुर्थगुणस्थान में उपशम सम्यगदृष्टि जीव के कदाचित अनंतानुबंधी का उदय होसे वह सम्यक्त्व से छूट कर दूसरे गुणस्थान ससदान में आकर सम्यक्त्व रहित हो जाता है!अभी मिथ्यादृष्टि तो नहीं कहेगे,क्योकि मिथ्यात्व का उदय नहीं आया!अनंतानुबंधी कषाय चारित्र की घात करने वाली अन्य तीन अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्या ख्यानावरण और संज्वलन कषाय के प्रवाह को अनंत बनाये रखती है,कहती है जब तक मैं हूँ तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता! जो क्रोध,मान,माया,लोभ रूप परिणाम ६ माह से अधिक रह जाए जैसे किसी से लड़ाई होने पर बैर भाव बाँध लिया ६ माह तक क्षमा याचना नहीं हुई तो वह अनंतानुबंधी कषाय बन जाती है
अप्रत्याख्यान कषाय-क्रोध,मान,माया,लोभ.-के उदय में देशचारित्र लेने के योग्य परिणाम नहीं होते, अर्थात कोई कहे की एक-दो प्रतिमा ले लीजिये तो कहना की हम प्रतिमा नहीं ले सकते,ये परिणाम अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से होते है!यदि ये परिणाम १५ दिन से अधिक चल जाए तो अप्रत्या ख्यानावरण कषाय बन जाती है!
प्रत्याख्यान कषाय-क्रोध,मान,माया,लोभ- के उदय में सकल चारित्र धारण करने अर्थात मुनित्व योग्य परिणाम नहीं होते!यदि ये परिणाम अंतरमुर्हूर्त से अधिक चले तो प्रत्याख्यानावरण कषाय कहलाती है
संज्वलन कषाय -क्रोध,मान,माया,लोभ- जिस के उदय में यथाख्यात चारित्र नहीं होपाता,यदि ये परिणाम अंतरमूर्हूर्त तक ही रहे तो संज्वलन कषाय होती है! अनंतानुबंधी कषाय आत्मा के साथ करोड़ो,सागरों वर्षो तक चलती है! इन चारों कषायों का वासना काल उत्तरोत्तर बढता जाता है!इसीलिए क्षमावाणी पर्व वर्ष में तीन बार माघ,चैत्र और भादों में मनाया जाता है जिससे किसी भी जीव के प्रति ६ माह से अधिक ये कषाय नहीं रहे! आपस में अपने ह्रदय का मैल साफ़ करते रहे! जिससे अनंतानुबंधीकषाय नहीं बन सके और मिथ्यात्व से दूर रह सके! अनंतानुबंधी कषाय होने से मिथ्यात्व का साहचर्य होता ही है!मोहनीय कर्म की सबसे हानि कारक दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतिया मिथ्यात्व,सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृतियाँ है!इनमे भी सबसे खराब मिथियात्व प्रकृति है!इससे बचने के लिए जिनवानी का स्वाध्याय करना चाहिए उससे सात तत्वों,९ पदार्थों का स्वरुप,सच्चे देव शास्त्र गुरु का स्वरुप समझकर प्रगाढ़ श्रद्धांन होना चाहिए की जिनवाणी,हमारे शास्त्रों में जो लिखा है,उसके अनुसार ही पदार्थों,देव शास्त्र,गुरु आदि का स्वरुप है, सब कुछ वैसे ही है जैसा की तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि से गणधरदेव ने प्राप्त कर द्वादशांग रूप श्रुत गुथा!वही,श्रुतकेवली,पूर्वज्ञानी,अंगधारीयों और आचार्यों के माध्यम से हमारे पास जिनवानी के रूप में पहुंचा!ऐसा ज्ञान होने से हमें भेद ज्ञान होगा कि आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न है!जब हमें मालूम होगा की शरीर क्या है और मै क्या हूँ,कौन हूँ?जब उस पर दृढ श्रद्धां होगा तो दर्शनमोहनीय का उपशम होने से प्रथमोपशम सम्यगदर्शन होगा और दर्शनमोहनीय से पीछा छुट जाएगा !
सबसे पहले प्रथमोपशम समय्क्त्व ही होता है!प्रथमोपशम समय्क्त्व से तात्पर्य दर्शन मोहनीय की तीन और अनंतानुबंधी की चार प्रकृतियों के दब जाने से,इनके उदय का अभाव हो जाने से,आत्मा में सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है!हमारा लक्ष्य इस जीवन में प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति अवश्य होना चाहिए!यह लक्ष्य प्राप्त करते ही हमारा अनंत संसार भ्रमण बहुत थोडा रह जायेगा तथा आगामी भवों में से कभी न कभी तो मोक्ष प्राप्त होगा ही!
सम्यगदर्शन प्राप्त करने के लिए पूरा प्रयास करना चाहिए! साधारणतया हमें ज्ञात नहीं होता की सम्यगदर्शन हमें हुआ या नहीं!जो कहते है की सम्यगदर्शन होने पर आत्मा दिखने लगती है,यह गलत है क्योकि आत्मा तो अमूर्तिक है!
यदि हमें सात तत्वों,नव पदार्थों,सच्चे देवशास्त्र,गुरु में श्रद्धां दृढ है तो निश्चित रूप से सम्यगदर्शन हुआ है! हमें निरंतर इस जीवन में सम्यगदर्शन प्राप्त करने के लिय प्रयास करते रहना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए की हमारे सम्यक्त्व में २५ दोषों-८ शंकादि, ८ मद,६ अनायतन,३ मूढ़ताओं ,में से कोई लगने नहीं दे !सम्यगदर्शन प्राप्त करने के साथ साथ अपना आचरण भी हमें अच्छा रखना चाहिए, सप्तव्यसन का त्याग करे,अष्ट मूलगुण धारण करे तत्पश्चात अपना खाना-पीना ,व्यापार आदि अहिंसक बनाये!फिर धीरे धीरे १,२,३,४-११ प्रतिमा धारण करने का प्रयास करे जहाँ तक पहुँच सके उतना अच्छा है!स्त्री पर्याय हो तो आर्यिका तक पहुचने का प्रयास करे!पुरुष पर्याय है तो मुनि महाराज तक बन्ने का प्रयास करे!ये अनंत संसार काटने के उपाय है!इन्हें जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए!
नव-गृह पूजा मिथ्यात्वी है,कालसर्प विधान का जैन शास्त्रों में कोई विधान नहीं है!शनि को परास्त करने के लिए मुनिसुव्रत भगवान् की पूजा करना मिथ्यात्व का पोषण है!समस्त भगवन की शक्ति एक सामान है फिर यह भेद क्यों?देवी देवताओं की पूजाओं का बोलबाला हो रहा है जिससे मिथ्यात्व का ही पोषण हो रहा है!हमें इन सब को छोड़ना पडेगा तभी आगे बढ़ सकेगे,मात्र तत्वार्थ सूत्र का अध्ययन सुनने,पढ़ने से कुछ नहीं होगा उसे जीवन में भी उतारना पडेग!हमें अपने बच्चों को संस्का रित करना चाहिए,आजकल बच्चों को धर्म में रूचि नहीं रह गयी है,मंदिर नहीं जाते,जाते है तो आधे मन से,वे अंतर्जातीय विवाह करने लगे है,ऐसे ही चलता रहा तो जैन धर्म का विनाश समय से पूर्व शीघ्र हो जाएगा! मोहनीयकर्म के कारण ही हम संसार भ्रमण करते है!इसको ही नष्ट करने का प्रयास करना है!

आयुकर्म के भेद-
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि!!१०!!
संधिविच्छेद-नारक+तैर्यग्योन+मानुष+दैवानि
शब्दार्थ -नारक-नारक ,तैर्यग्योन-तिर्यंच योनि ,मानुष-मनुष्य और दैवानि-देव भेद है
अर्थ-नारकी,देव,तिर्यंच या मनुष्य शरीर में आत्मा को निश्चित समय तक रोकने वाला आयु कर्म है उसके क्रमश:नारकायु,तिर्यंचायु,देवायु,और मनुष्यायु भेद है!

विशेष-ये चारो भव विपाकी कर्म प्रकृति है !जिस पर्याय में जीव उतपन्न होता है वहां उसका जीना मरना उस पर्याय संबंधी आयुकर्म के आधीन है ,प्राणों में आयु कर्म मुख्य है भव धारण का मुख्य कारण आयुकर्म है


नामकर्म प्रकृति बंध के भेद-

गतिजातिशरीरान्गोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंध वर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयप्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययश:कीर्तिसेतराणितीर्थं करत्वं च!!११!!
संधिविच्छेद-गति+जाति+शरीर+अंगोपांग+निर्माण+बंधन+संघात+संस्थान+संहनन+स्पर्श+रस+गंध+वर्ण+आनुपूर्वि+अगुरुलघु+उपघात+आतप+उद्योत+उच्छ्वास+विहायोगतय-:+प्रत्येक+शरीर+त्रस+सुभग+सुस्वर+ शुभ+सूक्ष्म+पर्याप्ति+स्थिर+आदेय+यश:कीर्ति+सेतराणि+तीर्थंकरत्वं+च!
अर्थ-नामकर्म के भेद:-
१-गति नामकर्म-के उदय से जीव को नरक,देव,तिर्यंच या मनुष्य गति मिलती है!नरक,देव,तिर्यंच और मनुष्यगति,गतिनाम कर्म के ४ भेद है !
२-जाति नामकर्म-के उदय से जीव पांच में से किसी एक जाति में उत्पन्न होते है! जाति के एक,द्वि,त्रि,चार और पंचेन्द्रिय ५ भेद है!
३-शरीर नामकर्म-के उदय से जीव को औदारिक,वैक्रियिक,आहारक,तेजस और कार्मण शरीर मिलता है! सांसारिक जीव के तेजस और कार्माण और पहिले दो में से कोई एक शरीर प्राप्त होता है!आहारक शरीर,छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज को ततपश्चरण फलस्वरूप मिलता है !
४-अंगोपांग नामकर्म-के उदय से प्राप्त शरीर के अंगो और उपांगों का निर्माण होता है!
५-निर्माण नामकर्म-के उदय से प्राप्त शरीर में यथास्थान,यथाप्रमाण अंगो का निर्माण होता है!
६-बंधन नामकर्म-के उदय से शरीर के योग्य प्राप्त नोकर्म वर्गणाये आपस में एक में एक होकर जुडती है!पांचों शरीर के पञ्च बंधन; क्रमश:औदारिकबंधन,वैक्रियिकबंधन,आहारकबंधन,तेजसबंधन और कार्मणबंधन,भेद है
७-संघात नामकर्म-के उदय से,बंधन नाम कर्म द्वारा प्राप्त नोकर्म वर्गणाओ का बंधन,छिद्र रहित चिकना,एक में एक होकर मिल जाता है,पांचों शरीर के पञ्च संघात क्रमश:औदारिकसंघात,,वैक्रियिक[b]संघात,आहारक[/b][b]संघात,तेजससंघातऔर कार्मणसंघात,[/b]भेद है
८-संस्थान नामकर्म-के उदय से शरीर को आकार मिलता है,इसके ६ भेद है
१-समचतुरस्र संस्थान-शरीर के सम्पूर्ण आकार-प्रकार का अनुपात,समुचितशास्त्रों के अनुसार सर्वो त्कृष्ट होता है!
२-न्यग्रॊधपरिमंडल संसथान-शरीर ऊपर से बढ़ के पेड़ की तरह बड़ा और नीचे छोटा होता है!
३-स्वाति संस्थान-शरीर ऊपर छोटा और नीचे बड़ा होता है!
४-कुब्जक संस्थान-कुबड़ा शरीर मिलता है!
५-बामन संस्थान -इस के उदय से बोना शरीर मिलता है
६-हुन्डकसंस्थान-शरीर के अंग उपांग अस्त व्यस्त होते है कोई एक बार देखने पर पुंन: नहीं देखना चाहेगा!
९-संहनन नामकर्म-के उदय से शरीर में अस्थियों का बंधन प्राप्त होता है,इसके ६ भेद है!
१-बज्रऋषभ नाराच संहनन-अस्थियों,कीले और अस्थियों के ऊपर वेष्ठन वज्र का होता है!
२-वज्र नाराच संहनन-कीले और अस्थियाँ वज्र की होती है किन्तु वेष्ठन वज्र का नहीं होता!
३-नाराच संहनन-अस्थियोंकी संधि कीलीत होती है!वेष्ठन सामान्य होता है!
४-अर्धनाराच संहनन- अस्थियों की संधि अर्ध कीलित होती है
५-कीलित संहनन- के उदय से अस्थिया परस्पर में कीलित होती है
६-असंप्राप्तासृपाटिका संहनन- के उदय से शरीर की अस्थियाँ नसों से बंधी होती है!

प्रथम तीन उत्तम सहनन कहलाते है ,वर्तमान में हम सब का छटा सहनन है !
१०-स्पर्श नामकर्म-के उदय से ८ प्रकार के स्पर्श मिलते है,इसके स्निग्ध-रुक्ष,शीत-उष्ण,नरम कठोर और हल्का-भारी ८ भेद है!
११-रस नामकर्म- के उदय से ५ प्रकार के रस मिलते है इसके मीठा,नमकीन,कड़ुवा,केसला ,चरपरा ५ भेद है !
१२-गंध नामकर्म-के उदय से २ प्रकार की गंध मिलती है सुगंध/दुर्गन्ध प्राप्त होती है
१३-वर्ण नामकर्म-के उदय से ५ प्रकार के वर्ण काला,सफ़ेद,पीला,नीला,लाल में से एक वर्ण मिलता है जैसे नीबू को गंध उसके गंध नामकर्म के उदय से,वर्ण पीला, वर्णनामकर्म के उदय से,रस खट्टा रस नामकर्म के उदय से और कठोरता तथा चिकना स्पर्श,स्पर्श नामकर्म के उदय से मिला है!
१४-आनुपूर्विनामकर्म- के उदय से,आत्मा वर्तमान शरीर त्यागकर नवीन शरीर ग्रहण करने के लिए गमन करती है तो उस समय,आकार पूर्व शरीर के अनुसार रहता है!
१५-अगुरुलघुनामकर्म -के उदय से शरीर न तो अत्यंत भारी होता है और नहीं रुई की तरह अत्यंत हल्का!इसी नामकर्म के उदय में हम पानी में तैर सकते है अथवा कूद सकते है!
१६-उपघात नामकर्म–के उदय से अपना शरीर ही अपनी मृत्यु का कारण बनता है!जैसे मोती का बनना,नाभी में कस्तूरी आदि होना!
१७-परघातनामकर्म-के उदय से ऐसे अंगोपांग मिलते है जिससे अपना बचाव और दुसरे का घात हो सकता है जैसे गाय के सींग!
१८-आतपनामकर्म-के उदय से मूल ठंडा हो किन्तु प्रकाश गर्म हो!सूर्य में जो एकेंद्रिये जीव होते है उनके इसका उदय रहता है!

१९-उद्योत नामकर्म-के उदय से ठंडा प्रकाश हो अथवा शरीर चमकवाला हो इसका उदय तिर्यन्चों में होता है!
२०-उच्छ्वासनामकर्म -के उदय से श्वासोच्छ्वास करने योग्य शरीर का निर्माण होता है!
२१-विहायोगति नामकर्म-के उदय से आकाश में गमन करने की योग्यता प्राप्त होती है!
१-प्रशस्तविहायोगति-चाल अच्छी होना और
२-अप्रशस्तविहायोगगति-चाल अच्छी नहीं होना!
२२-प्रत्येक शरीर नामकर्म-के उदय से जीव एक शरीर का एक ही स्वामी होता है! जैसे मनुष्य
२३-साधारण शरीर नामकर्म-के उदय से एक शरीर के स्वामी अनंत जीव होते है! जैसे आलू ,में अनंत आत्माए निवास करती है !
२४-त्रस नामकर्म-के उदय से जीव को त्रस पर्याय मिलते है! जैसे एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीव!
२५ स्थावरनामकर्म -के उदय से जीव को स्थावर पर्याय मिलती है!जैसे जीव का जलकायिक आदि एकेन्द्रिय में जन्म होना !
२६-सुभगनाम कर्म-के उदय से लोगो को जीव के अंगोपांग लोकप्रिय होते है!
२७-असुभग नामकर्म-के उदय से अंगोपांग अच्छे होने पर भी लोकप्रिय नहीं होते
२८-सुस्वर नामकर्म -के उदय से जीव का स्वर अच्छा होता है,कर्ण प्रिय होता है
२९-दु:स्वर नामकर्म -के उदय से जेव का स्वर अच्छा नहीं होता,कर्ण प्रिय स्वर नहीं होता है!
३०-शुभनामकर्म -के उदय से जीव के मस्तक आदि अंगोपांग सुंदर होते है
३१-अशुभनामकर्म -के उदय से जीव के मस्तक आदि अंगोपांग सुंदर नहीं होते है
३२-सूक्ष्मनामकर्म-के उदय से सूक्ष्म शरीर मिलता है जो किसी वस्तु से बाधित नहीं होता और नहीं किसी को बाधित करता है!
३३-बादर नामकर्म-के उदय से ऐसे स्थूल शरीर मिलता है जो वस्तु से बाधित भी होता है और उन्हें बाधित भी करता है!
३४-पर्याप्ति नामकर्म-के उदय से प्राप्त अपनी योग्यतानुसार छ पर्याप्तियाँ,आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासो च्छ्वास, भाषा,मन पूर्ण होती है ,जीव पर्याप्तक कहलाते है !

३५-अपर्याप्ति नामकर्म-के उदय से पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती है जीव अपर्याप्तक कहलाते है !
३६-स्थिरनामकर्म -के उदय से शरीर के रस,रुधिर,मांस मेदा ,हाड,मज्जा और शुक्र,सप्त धातुएं स्थिर होती है!उपवास आदि करने पर भी शरीर की क्षमता में गड़बड़ी नहीं होती है !
३७-अस्थिर नामकर्म-के उदय से शरीर के रस,रुधिर,मांस मेदा,हाड,मज्जा और शुक्र,सप्त धातुएं अस्थिर होती है,वे सुचारू रूप से नहीं बनती!
३८-आदेय नामकर्म-के उदय से शरीर प्रकाश युक्त होता है व्यक्तित्व आकर्षक होता है
३९-अनादेय नाम कर्म-के उदय से व्यक्तित्व आकर्षक नहीं बनता है
४०-यशकीर्ति नामकर्म-के उदय से गुणों का यश फैलता है !
४१-अपयशकीर्ति नामकर्म -के उदय से गुणों का यश नहीं फैलता है!
सेतराणि -विपरीत च-और
४२ तीर्थंकरत्वं नामकर्म-के उदय से पञ्च कल्याणक रूप देवों और इन्द्रों के द्वारा पूजा और महिमा प्राप्त होती है !
पंचमकाल में पाए जाने वाले संहनन-शास्त्रों के अनुसार अर्धनाराचसंहनन,कीलितसंहनन और असंप्राप्ता सृपाटिका संहनन,इस काल में पाए जाते है!वर्तमान में हम सब के असंप्राप्तासृपाटिका संहनन दृष्टि गोचर होता है!क्योकि हमारी अस्थियाँ नसों से बंधी हुई है! इनमे से पहले दो संहनन संभवत: उनके होते होंगे जिनका शरीर बहुत मज़बूत होता है!
हमारा समचतुरस्रसंस्थान हीन अनुभाग के साथ है क्योकि अन्य पाँचों संस्थानों में से निश्चित रूप से हमारा कोई सा संस्थान नहीं है!जिनका शरीर कुबड़ा है उनका हुन्डक संस्थान है !
किस नामकर्म के उदय से हाथी ,घोडा आदि बनते है?
आचार्य विद्यासागरजी के अनुसार हाथी नामकर्म के उदय से हाथी, घोडा नामकर्म से घोडा बनता है!नामकर्म के असंख्यात भेद है,यहाँ संक्षेप में प्रमुख नामकर्म के भेद बताये है! ये नामकर्म की पिंड प्रकृतियाँ है!प्रकृति से तात्पर्य जैसे गति,जाति,आदि लेंगे तो,एक नामकर्म के ४२ भेद हुए किन्तु चारो गति,पञ्च जाति जब लेंगे तो ९३ भेद हो जायेगे!
आनुपूर्वि नाम कर्म का कार्य-कोई आत्मा हाथी की पर्याय समाप्त कर देव पर्याय प्राप्त करने को जा रही है तो रास्ते में आत्मा के आत्मप्रदेशों का आकार हाथीवत बनाये रखना आनुपूर्वि नामकर्म का कार्य है!आनुपूर्वि नामकर्म,विग्रहगति में,जीव के आत्मप्रदेशों का आकार छोड़े हुए शरीररूप बनाये रखता है! इसके चार भेद है!यदि कोई जीव तिर्यंचगति में जा रहा है,तो तिर्यंचगत्यानुपूर्वी,देवगति में जा रहा है तो देवगत्यानुपूर्वी,नरकगति में जा रहा है तो नारकगत्यानुपूर्वी और मनुष्यगति में जा रहा है मनुष्यगत्यानुपूर्वी !
सेतराणि ‘ का सम्बन्ध विहायोगति के बाद के नामकर्मों से जोड़ना है!

औदारिक,वैक्रियक,आहारक के अंगोपांग होते है इसलिए अंगोपांग के तीन भेद बताये है! तेजस और कार्मण के अंगोपांग नहीं होते!

देव और नरक पर्याय में संहनन नामकर्म का उदय नहीं होता क्योकि उनके शरीर में अस्थियाँ नहीं होती है!संस्थान नामकर्म का उदय होता है!
हम सब आकाश में ही चलते है!इसलिए हमारे विहायोंगति का उदय है
तिर्यंचआयु शुभ और तिर्यंचगति अशुभ क्यों है?
कोई भी जीव तिर्यंच बनना नहीं चाहता इसलिए अशुभगति कहा है किन्तु कोई तिर्यंच मरना भी नहीं चाहता इसलिए तिर्यंचायु को शुभ कहा है! नरकायु अशुभ है क्योकि कोई नारकी वहां जीना भी नही चाहता, गति तो अशुभ है ही क्योकि कोई नरकगति में नहीं जाना चाहते है!
पहले तीन संहनन उत्तम है क्योकि इनसे ग्रैवयक आदि में उत्पत्ति होती है!लेकिन शुभ केवल वज्र ऋषभनाराचसंहनन है! बाकी पंचों अशुभ है!
देवों के प्रकाशवान शरीर क्यों मिलता है?
आदेय नामकर्म के उदय से उन्हें प्रकाशवान शरीर मिलता है और वर्ण नामकर्म के उदय से शरीर उन्हें वैसा मिलता है!
अधिकतर महाराजो के अनुसार अंगोपांग नामकर्म का उदय एकेंद्रियों में नहीं होता किन्तु अकलंक स्वामी राजवार्तिक में लिखते है की एकेंद्रियों के अंगोपांग नामकर्म का उदय होता है!

गोत्र कर्म के भेद –
उच्चैर्नीचैश्च !!१२!!
संधि विच्छेद उच्चै:+नीचै:+च
शब्दार्थ-उच्चै:-उच्च , नीचै:-नीच ,च-और
अर्थ:-उच्च और नीच गोत्र कर्म के दो भेद है !
भावार्थ -प्राणी ऊँच और नीच गोत्र कर्म के उदय में क्रमश: लोकमान्य ऊँचे (प्रतिष्ठित )और नीचे (निंदनीय )कुल में उत्पन्न होता है !इस प्रकार गोत्र कर्म के उच्च और नीच दो भेद है !
विशेष-१-नीच गोत्र कर्मबंध प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में तथा उच्चगोत्र का प्रथम से दसवे गुणस्थान तक होता है !नीचगोत्र कर्म का उदय प्रथम से पांचवे गुणस्थान तक होता है !
२-गोत्र कर्म इस जीव को उच्च अथवा नीचे गोत्र में उत्पन्न करवाता है!यह निमित्त नैमित्तिक संबंध है!यहाँ उच्च और नीच से अभिप्राय है-जिस कुल में माता-पिता द्वारा सदाचार की प्रवृत्ति हो,उस ओर झुकाव हो, जिन धर्म की प्रभावना,संस्कार,रत्नत्रय का पालन हो(यह संबंध शरीर रक्त से नही है,आचार-विचार से है),श्रद्धान से परिपूर्ण उच्चगोत्र में जन्म कहा जाता है,इस प्रकार उच्च कुल है जिस कुल में यह प्रभावना,आचरण, श्रद्धान नहीं है वह नीच कुल है !


अंतराय प्रकृतिबंध कर्म के भेद-
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् !!१३!!
संधि विच्छेद-दान+लाभ+भोग+उपभोग+वीर्याणाम्
शब्दार्थ-दान-दान,लाभ-लाभ,भोग-भोग,उपभोग-उपभोग, वीर्याणाम्-वीर्यान्तराय कर्म
अर्थ:-दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्यान्तराय,अंतराय कर्म के ५ भेद है !
भावार्थ-किसी के द्वारा दान,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्य में विघ्न डालने से क्रमश:दानन्तराय,लाभान्तराय, भोगान्तराय,उपभोगान्तराय,और वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है !
विशेष:-१-दानन्तराय-कोई व्यक्ति किसी संस्था अथवा धार्मिक कार्य में दान देना चाहता है,आप उसके दान देने की प्रवृत्ति को कहकर बाधित कर दे कि,यहाँ दान देने से कोई लाभ नहीं है,क्योकि सब दान दिया द्रव्य खाया पीया जाता है,ऐसा करने से आपके दानान्तराय कर्मबंध होगा जिससे,आप जब दान देना चाहेंगे तब नहीं दे पाएंगे
२-लाभान्तराय कर्म-आप किसी प्रतिद्वंदी/सगे संबंधी के व्यापार अथवा उसके अन्य किसी प्रकार होने वाले लाभ को बाधित करते है तो आपको लाभान्तराय कर्मबंध होगा!जैसे किसी प्रतिद्वंदी का आर्डर निरस्त करवा ने,उसके लाभको बाधित करने से,आपके लाभ में भी इस कर्म के उदय में लाभ नहीं होगा !
३-भोगान्तराय-किसी वस्तु जैसे भोजन का एक ही बार उपयोग करना भोग है !घर/कार आदि बार बार भोगना उपभोग है!किसी के भोजन/जल आदि की प्राप्तिको बाधित करने पर,जैसे अपने कर्मचारी को समय पर भोजन ग्रहण करने के लिए, अधिक कार्य में व्यस्त रखने के कारण,अनुमति नहीं देने से आपको भोगान्तराय कर्मबंध होगा!आपके भी भोग की सामग्री / भोजन /जल ग्रहण करने के समय,इस कर्म के उदय में विघ्न पड़ेगा !
४-उपभोगान्तराय-किसी के उपभोग की सामग्री को बाधित करने से आपके उपभोग अंतराय कर्मबंध होता है !इस कर्म के उदय में आपके भी उपभोग की सामग्री ग्रहण करने में विघ्न पड़ेगा!जैसे;कोई आपका कोई मित्र घर या कार खरीदना जा रहा है,आप उसकी खरीद को यह कह कर बाधित कर दे कि यह कार अथवा घर बिलकुल बेकार हैक्या करोगे लेकर, तो आपके उपभोग अंतराय कर्मबंध होगा जिसके उदय के समय आपके भी उपभोग की सामग्री संचित करने में विघ्न पडेगा!और
५-वीर्यान्तराय कर्म-किसी की शक्ति को कम करने से वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है जिसके उदय में आपकी भी शक्ति में विघ्न पड़ता है!जैसे सर्प के दांत निकलवा कर,सपेरा उस की काटने की शक्ति से उसे विहीन कर देता है,उस सपेरे के वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है!अथवा कोई विद्यार्थी किसी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठना चाह रहा हो,आप उसे यह कहकर रोक दे की तुम इसमें उत्तीर्ण नहीं हो पाओगे,तुम्हारे बस का नहीं है,ऐसा करने से आप के वीर्यान्तराय कर्मबंध होता है !
मोहनीयकर्म के बाद सबसे खराब अंतराय कर्म है क्योकि यह कब आता है,पता ही नहीं लगता, कब चुपके से आकर अपना काम कर चला जाता है अत:अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है !

कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबंध –
आदितस् तिसृणामन्तरायस्यचत्रिंशत्सागरोपमकोटिकोट्य:परास्थिति:!१४!!
संधि विच्छेद:-आदितस्+तिसृणाम्+अन्तरायस्य+च +त्रिंशत्सागरोपम+कोटि+कोट्य:+परा+स्थिति:
शब्दार्थ:-
आदितस् -आदि के तीन (ज्ञानावरण,दर्शनावरण और वेदनीय ) तिसृणाम -इन तीन ,अन्तरायस्य -अंतराय ,च -और ,त्रिंशत्सागरोपम -तीस सागरोपम , कोटि-कोड़ा, कोट्य: -कोडी ,परा-उत्कृष्ट ,स्थिति:- बंध की अवधि है
भावार्थ-ज्ञानावरण,दर्शनावरण,वेदनीय ,इन तीन कर्म और अंतराय कर्म के बंध की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ा कोडी सागर है !
विशेष-१-इस उत्कृष्ट स्थिति का बंध सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीव के ही होता है !
२- कोड़ा कोडी =१ करोड़ X १ करोड़ ,सागर=दस कोड़ा कोडी अद्धा पल्य !


मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति –
सप्ततिर्मोहनीयस्य !!१५!!
संधि विच्छेद -सप्तति: +मोहनीयस्य
शब्दार्थ-सप्तति:-७० ,मोहनीयस्य -मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थितिबंध -(सूत्र १४ से लिया परास्थिति:)है
अर्थ-मोहनीय कर्म के बंध की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा कोडी सागर है !
विशेष-१-मोहनीय कर्म के मोहनीय और चारित्र मोहनीय आदि २८ भेदों में दर्शन मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ा कोडी सागर और चारित्र मोहनीय की४० कोड़ा कोडी सागर तथा जघन्य स्थिति अंतर्मूर्हत है !
२-अनंतानुबंधी क्रोधादि कषायों की स्थिति संख्यात,असंख्यात और अनंत भव हो सकती है!क्रोध का जघन्य स्थितिबंध २ माह,मान का १ माह,माया का १५ दिन और लोभ का अंतर्मूर्हत प्रमाण है!


नाम और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति –
विंशतिर्नामगोत्रयो :!!१६!!
विच्छेद-विंशति:+नाम+गोत्रयो
शब्दार्थ-विंशति-बीस,नाम, गोत्र कर्म : की उत्कृष्ट स्थिती (उत्कृष्ट स्थितिबंध है-सूत्र १४ से लिया परास्थिति:) है
अर्थ-नाम और गोत्र कर्म के बंध की उत्कृष्ट स्थिति २० कोड़ा कोडी सागर है!
विशेष-नीच गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति २० कोड़ाकोडीसागर और उच्च गोत्रकर्म की १० कोड़ाकोडीसागर है

आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थितिबंध –
त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष:!!१७!!
संधि विच्छेद:-त्रयस्त्रिंशत्+सागरोपमाण्य +आयुष :
शब्दार्थ-त्रयस्त्रिंशत्-३३,सागरोपपमाण्य-सागर प्रमाण,आयुष:-आयु कर्म की (उत्कृष्ट स्थितिबंध है-सूत्र १४ से लिया परास्थितिSmile
अर्थ-आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबंध ३३ सागर है!(यह देवायु और नारकायु है)
मनुष्यायु और तिर्यगायु की उत्कृष्ट ३ पल्य और जघन्य स्थिति अंतर्मूर्हत है!नारकी की जघन्य आयु १०००० वर्ष है !
वेदनीय कर्मों का जघन्य स्थितिबंध :-

अपराद्वादशमुहूर्तावेदनीयस्य !!१८!!
संधि विच्छेद -अपरा+द्वादश+मुहूर्ता+वेदनीयस्य
शब्दार्थ-अपरा-जघन्य स्थिति, द्वादश-बारह,मुहूर्ता-मूर्हूत ,वेदनीयस्य -वेदनीय कर्म की है !
अर्थ:-वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुर्हूत है !
भावार्थ-वेदनीय कर्म बंध कम से कम १२ मुर्हूत का होता है!


नाम और गोत्र कर्म का जघन्य स्थिति बंध-
नामगोत्रयोरष्टौ !!१९ !
संधि विच्छेद-नाम+गोत्र:+अरष्टौ
शब्दार्थ- नाम-नाम ,गोत्र:-गोत्र कर्म की,अरष्टौ-आठ मुर्हूत जघन्य स्थित बंध(सूत्र १८ से अपरा ,स्थिति: सूत्र १४ से लिया) है !
अर्थ:नाम और गोत्र कर्म के जघन्य स्थितिबंध आठ मुर्हूत है !
भावार्थ -नाम और गोत्र कर्म का स्थिति बंध न्यूनतम/जघन्य ८ मुर्हूत का होता है !


शेष पांचों कर्मों का जघन्य स्थिति बंध-
शेषाणामन्तर्मुहूर्ता: !!२० !!
संधिविच्छेद :-शेषाणाम्+अन्तर्मुहूर्ता:
शब्दार्थ:-शेषाणाम शेष कर्मों की,अन्तर्मुहूर्ता:-अन्तर्मुहूर्त है !
अर्थ:-
शेष ५ कर्मों;ज्ञानावरण,दर्शनावरण,मोहनीय,आयु और अंतरायकर्मों का स्थितिबंध जघन्य अन्तर्मुहूर्त (सूत्र १४ से स्थित: और अपरा १८ से लिया)है!
भावार्थ:-
ज्ञानावरण,दर्शनावरण,मोहनीय,आयु और अंतरायकर्म का स्थितिबंध न्यूनतम/जघन्य अन्तर्मुहूर्त होगा!

अनुभाग बंध का लक्षण:-
विपाकोऽनुभवः !२१!
संधि-विच्छेद:-विपाक:+अनुभवः
शब्दार्थ:विपाक-कर्मोदय विपाक है,अनुभवः-विपाक का अनुभव ही अथवा अनुभागबंध है!
अर्थ-विपाक-द्रव्य,क्षेत्र,काल,भाव के अनुसार कर्म का अपने समय पर पक कर फल देना विपाक है! अनुभव/अनुभाग-कर्म की फल देने की शक्ति अनुभव/अनुभाग बंध है!
भावार्थ-अनुभव/अनुभाग बंध,कर्म का फल कैसा अनुभव किया जाता है या कर्म की फलदान शक्ति कैसी है! कर्मोदय का फल स्वमुख और परमुख,दो प्रकार से मिलता है!कोई कर्म स्वमुख से उदय में आये तो स्वमुख होता है जैसे असातावेदनीय स्वमुख के उदय से आये और दुःख देने में कारण बने तो स्वमुख और यदि असाता वेदनीय द्रव्य,क्षेत्र,काल और भाव के अनुसार परमुख से उदय में आये तो परमुख! जैसे किसी जीव के शरीर में वेदना असातावेद्नीय के उदय से है,तो स्वमुख उदय है !यदि वही जीव समवशरण में प्रवेश कर जाता है तो वही असाता, साता वेदनीय रूप फल देने लगेगी असातावेदनीय का असाता रूप फल देना स्वमुख उदय है और असतावेदनीय का सातावेद्नीय रूप संक्रमण होकर,सतावेद्नीय रूप फल देना परमुख उदय है!
विशेष-शुभ परिणामों की अधिकता होने पर शुभ प्रकृतियों में अधिक, अशुभ प्रकृतियों में कम अनुभाग होता है किन्तु अशुभपरिणामों की अधिकता में अशुभप्रकृतियों में अधिक,शुभप्रकृतियों में कम अनुभागबंध होता है !
अनुभाग बंध की बदलती अवस्थाये
अनुभाग बंध,बंधकाल में जैसा प्राप्त होता है सदैव वैसा ही नहीं रहता है!वह अपनी अवस्था काल में बदल भी सकता है और नहीं भी बदल सकता!बदलने में संक्रमण,उत्कर्षण,अपकर्षण तीन अवस्थाये होती है!संक्रमण मात्र उत्तर प्रकृतियों में होता है,मूल प्रकृतियों में नहीं होता है!आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियों,दर्शन मोहनीय का चारित्र मोहनीय रूप और चारित्र मोहनीय का दर्शन मोहनीय रूप में संक्रमण नहीं होता है !
संक्रमण के चार भेद;प्रकृति संक्रमण,प्रदेश संक्रमण अनुभाग संक्रमण और स्थिति संक्रमण है!जहा प्रकृति और प्रदेश संक्रमण की प्रमुखता होती है वहां संक्रमण शब्द से और जहाँ मात्र स्थिति और अनुभाग संक्रमण होता है वहां उत्कर्षण और अपकर्षण से सम्बोधित किया जाता है !
बंधकाल में जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त होते है उसको कम करना अपकर्षण और बढ़ाना उत्कर्षण है !इस प्रकार विविध अवस्थाओं से गुजरते हुए उदयकाल में अनुभाग रहता है उसे परिपाक कहते है!अनुद्य अवस्था को प्राप्त प्रकृतियों का,परिपाक उदय अवस्था को प्राप्त सजातीय प्रकृति रूप से होता है!इस विषय में नियम है कि उद्यावली प्रकृतियों का फल स्वमुख से मिलता है और अनुद्यावली प्रकृतियों का फल परमुख से प्राप्त होता है! जैसे साता का उदय रहने पर उसका भोग साता रूप ही रहता है किन्तु असाता स्तिबुक संक्रमण द्वारा साता रूप में परिणमन करती रहती है,इसलिए उसका उदय परमुख से होता है!उदयकाल से एक समय पहिले,अनुद्य रूप प्रकृति के निषेक का उदय को प्राप्त हुई प्रकृति रूप से परिणमन कर जाना स्तिबुक संक्रमण है!जो प्रकृतियाँ जिस काल में उदय में नही होती,किन्तु सत्ता रूप में विध्यमान रहती है उनका प्रति समय इसी प्रकार परिणमन होता रहता है !
शंका-प्रकृति और अनुभाग बंध अलग-२ क्यों है?अनुभाग बंध स्वतंत्र क्यों है ?
समाधान-अनुभव,अनुभाग,फलदान शक्ति पर्यायवाची है !कर्म बंध के समय जिस कर्म की योग-मन,वचन काय के निमत्त से जो प्रकृति होती है तदानुसार उसका कषाय के निमित्त से अनुभागबंध होता है,उस कर्म की /फल देने की शक्ति उसे प्राप्त होती है!जैसे ज्ञानवरण की प्रकृति ज्ञान को ढकने की है इसलिए इसे इसी के अनुरूप फलदान शक्ति मिलती है!प्रकृति से अभिप्राय कर्म का स्वभाव से तथा अनुभाग/अनुभवबंध से उस कर्म के स्वभाव अनुरूप फल भोगने से है!यदि प्रकृति और अनुभाग/अनुभव का इतना ही मतलब है तब साधारणतया मान सकते है की दोनों को अलग अलग रखना अनुचित है क्योकि जिस कर्म की जैसी प्रकृति का बंध होगा उसे तदानुसार भोगना स्वयं सिद्ध है!इसलिए प्रकृति और अनुभव/अनुभागबंध स्वतंत्र सिद्ध नहीं होते बल्कि प्रकृति बंध में ही अनुभाग/अनुभव बंध का समावेश हो जाता है!यदि यहाँ कहा जाए कि ज्ञानावरणीयादि रूप की कर्म प्रकृतियाँ फलदान शक्ति के निमित्त से होती है इसलिए प्रकृति बंध में अनुभव बंध का अंतर्भाव नहीं किया जा सकता तो इसका प्रकृति बंध योग के निमित्त से और अनुभव बंध हीनाधिक कषाय के निमित्त से होता है फिर फलदान की शक्ति के निमित्त से प्रकृति बंधती है,नहीं माना जा सकता!थोड़ी देर के लिए यदि मान भी ले तब प्रकृति और अनुभाग अलग क्यों माना गया है तथा उनके स्वन्तंत्र कारण योग और कषाय क्यों माने गये है ?सूत्रकार ने भी बंध के ४ भेद करके विपाक अर्थात कर्म भोग को अनुभव कहा है और उसे प्रकृति अनुरूप बताया है इससे यह सिद्ध होता है कि यह दो नहीं एक ही है,बंध समय की अपेक्षा जो प्रकृति है उसे ही उदय काल की अपेक्षा अनुभव कहते है !
इसका समाधान है कि कर्मबन्ध के समय,कर्म का विविध रूप से विभाग योग के निमित्त से ही होता है और विभाग को प्राप्त कर्मों में हीनाधिक फलदान शक्ति कषाय के निमित्त से प्राप्त होती है इसलिए दोनों को अलग अलग माना गया है!यद्यपि यह भी सही है की शक्ति के अभाव में किसी कर्म की प्रकृति नहीं बन सकती!स्वतंत्र प्रकृति कहने से उसका शक्ति बोध तो हो ही जाता है फिर भी ऐसी शक्तियों की एक सीमा होती है!उसका उल्लघ न करके जो हीनाधिक शक्ति प्राप्त करी जाती है उसका बोध करना अनुभागबंध का कारण है!उद्धाहरण के लिए ११, १२,१३ वे गुणस्थानों में सातावेदनीय का प्रकृति बंध होता है,यह प्रकृतिबंध एक नियत मर्यादा में अनुभाग को लिए होता है फिर भी यहाँ अनुभाग बंध का निषेध किया है क्योकि जो अनुभाग सकषाय अवस्था में साता वेदनीय को प्राप्त होता था वह यहाँ प्राप्त नहीं होता है!सकषाय अवस्था में प्राप्त जघन्य अनुभाग से भी अनंतवे भाग मात्र होता है!जो की सकषाय अवस्था में भी प्राप्त नहीं होता!इस से प्रकृति और अनुभाग बंध को अलग अलग कहने की उपयोगिता सिद्ध हो जाती है!अभिप्राय है कि प्रकृतिबंध में कर्म भेद को स्वीकार करके भी न्यूना धिक फलदान शक्ति स्वीकार नहीं करी है किन्तु अनुभागबंध में,इसका और इसके कारण का स्वतंत्र रूप विचार किया जाता है इसीलिए पकृतिबंध व अनुभागबंध का स्वतंत्र कारण है,यह निश्चित होता है!सूत्रकार ने विपाक को अनुभव इसलिए कहा है क्योकि सभी जीवों का विपाक न्यूनाधिक होता है,एक समान नहीं होता!यही कारण है की सूत्रकार अनुभागबंध की स्वतंत्र परिगणना करते है और उसकी पुष्टि विपाक के माध्यम से करते है !

अनुभाग बंध कर्म के नाम के अनुसार होता है –
सयथानाम !!२२!!
संधि विच्छेद-स+यथानाम
शब्दार्थ -स-वह,अनुभागबंध,यथानाम-कर्मोके नाम अनुसार होता है !
अर्थ स -वह (कर्मों के फल).यथानाम- अपने अपने कर्म के नाम के अनुसार होता है
भावार्थ-ज्ञानावरणकर्म का फल,आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करने रूप होगा!दर्शनावरणकर्म का फल आत्मा के दर्शन गुण को आवृत करने रूप होगा!वेदनीयकर्म का फल उसे सुख या दुःख का अनुभव कराने रूप होगा!मोहनीयकर्म आत्मा को मोहित करने रूप होगा अर्थात मिथ्यात्व रूप परिणाम कराने वाला,सम्यक्त्व को हटाने वाला,चारित्र मोहनीय-कषाय रूप परिणाम कराने वाला होगा!आयुकर्म का फल,आत्मा को एक शरीर में से निश्चित अवधि(आयु) तक निकलने नहीं देगा! नामकर्म का फल विभिन्न प्रकार के नाम देने रूप होगा,जैसे मनुष्य है/देव है/तिर्यंच है/नारकी है,विभिन्न शरीर आदि का निश्चय नामकर्म से होता है! गोत्रकर्म विशेष उच्च या निच्च कुल में जीव को उत्पन्न कराता है!अन्तराय कर्म आत्मा के दान,लाभ,भोग उपभोग और शक्ति गुण में विघ्न डालता है!
घातिया कर्म का अनुभाग कितने प्रकार का होता है?
घातियाकर्मों का अनुभाग चार प्रकार शैल.अस्थि,दारु और लता रूप होता है! इन चारो में कठोरता उत्तरोत्तर हीन है!जैसे शैल-पत्थर सबसे अधिक कठोर है,अस्थि-हड्डी उससे मुलायम है,दारु-लकड़ी उससे मुलायम हैऔर लता सबसे मुलायम है!अर्थात जो घातियाकर्म सबसे कठोर फल देते है उन्हें शैल,जो उससे कम कठोर फल देते है उन्हें अस्थि,जो उससे भी कम कठोर फल देते है उन्हें दारु और जो उससे भी कम कठोर फल देते है उन्हें लता रूप कहते है!
अघातियाकर्म दो प्रकार के पाप-पुण्य रूप होते है!-पापरूप कर्मो का फल उत्तरोत्तर नीम,कांजीर,विष और हलालल रूप अधिकाधिक होता है!नीम में कडवापन सबसे कम है,उससे अधिक कडवी कांजीर होती है, उससे अधिक कडवा विष होता है और उससे भी अधिक कडवा हलालल होता है!पाप कर्मों का फल यदि अधिकतम कठोर है तो हलालाल उससे कम कठोर है तो विष,उससे कम कठोर है तो कांजीर और उससे भी कम कठोर है तो नीम रूप होता है !
अघातिया कर्मों की पुण्यरूप प्रक्रितियों का फल-गुड,खांड,शक्कर और अमृत रूप होते है!अघातियाकर्मों की प्रकृतिय पुण्य का सबसे कम गुड,उससे अधिक खांड,उससे अधिक शक्कर और सबसे अधिक अमृत सामान देती है!


कर्मों के फल देने के बाद उनकी निर्जरा होती है –
ततश्चनिर्जरा-!!२३!!
संधि विच्छेद-ततश्च +निर्जरा
शब्दार्थ-ततश्च -उसके बाद (कर्मों के फल देने के बाद) ,निर्जरा-कर्म आत्मा से पृथक हो जाते है
अर्थ-इसके बाद(फल देने के बाद),वे कर्म आत्मा से पृथक हो जाते है;कर्मोद्य में आकर कर्म,फल देने के पश्चात आत्मा से पृथक हो जाते है अर्थात उनकी निर्जरा हो जाती है!
निर्जरा के भेद-दो !
१-सविपाक-कर्मों की स्थिति पूर्ण होकर,उदय में आकर(फल देकर) कर्मों का आत्मा से पृथक होना सविपाकनिर्जरा है!यहसंसार के समस्त जीवों, (निगोदिया) के भी होती है!
२-अविपाक निर्जरा-कर्मों की स्थिति पूर्ण होने से पूर्व ही, कर्म फल देने के समय से पूर्व ही,तपश्चरण द्वारा,उन्हें उदय में लाकर,फल लेकर,आत्मा से पृथक करना अविपाक निर्जरा है!यह सम्यकत्व के सम्मुख जीव के होती है,व्रतों के धारण करने वाले जीवों की होती है!
अविपाक निर्जरा का प्रारंभ पहले गुणस्थान से होता है!मिथ्यादृष्टि जीव जो सम्यक्त्व प्राप्त करने की ऒर अग्रसर हो रहा है,सम्यकत्व प्राप्ति के सम्मुख है,पञ्च लाब्धियों में से करणलब्धि में आगया है, उसे अध:करण में नहीं,अपूर्वकरण के प्रारम्भ से पहले ही,प्रथम गुणस्थान से अविपाक निर्जरा शुरू हो जाती है!अविपाक निर्जरा का प्रारंभ प्रथम गुणस्थान के उस जीव के हो जाता है,जो सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए अपूर्वकरण में प्रवेश कर चुका है!अपूर्वकरणकाल और अनिवृतिकरणकाल में मिथ्यादृष्टि की असंख्यात-असंख्यात गुणी निर्जरा होती है!फिर वह चौथे गुणस्थान में पहुँचता है,वहा से अलग-अलग प्रकार से निर्जरा होती रहती है!दूसरे-तीसरे गुणस्थान में कोई अविपाक निर्जरा नहीं होती,मात्र सविपाक निर्जरा होती है!पहले गुणस्थान में भी यदि सम्यक्त्व के सम्मुख जीव करणलब्धि में नहीं है,उसने अपूर्वकरण में प्रवेश नहीं किया तब भी अविपाक निर्जरा नहीं होगी !
अकाम निर्जरा क्या होती है-अकाम निर्जरा-अकस्मात् कोई कष्ट आने पर शांति से सहना,अकाम निर्जरा है!संसार के सभी सम्यगदृष्टि,मिथ्यादृष्टि जीवों के यह हो सकती है!किन्तु यह अविपाकनिर्जरा नहीं है,अकामनिर्जरा है!
कर्मों की अविपाक निर्जरा प्रति समय-प्रत्येक जीव; वह एकेन्द्रि ही हो,समयप्रबद्ध कार्मण वर्गणाओ (अनंत कार्मण वर्गणाओ को) प्रति समय ग्रहण करता है,कर्म बंधते है तथा अनंत कार्मण वर्गणाये फल देकर झरती है!
कर्मो का अनुभाग तीव्र या मंद किस प्रकार होता है?
१४८ कर्म प्रकृतियों को पृथक-पृथक पुण्य और पाप प्रकृतियों में विभक्त करे! घातियाकर्मों की ४७ प्रकृतियां पापरूप ही है,अघातिया कर्मों की प्रकृतिया पाप और पुण्य,दोनो रूप है! पुण्य प्रकृतियों का कषाय कम होने पर अनुभाग अधिक होगा किन्तु कषाय अधिक है तो इन पुण्य प्रकृति का अनुभाग कम बंधेगा,अगर कषाय की मंदता से सातावेदनीय बंधी है तो फलदान अधिक होगा,यदि तीव्रकषाय से बंधी है तो सातावेदनीय का फलदान कम होगा!पापकर्मबंध के समय कषायों की तीव्रता होने पर पापकर्म में फलदान शक्ति अधिक होगी,कषायों मे मंदता होने पर पापकर्मों में फलदान शक्ति मंद होगी !
बंधे कर्मों का अनुभाग बदला जा सकता है-
किसी कर्म को कोई जीव तीव्रकषाय में बांधता है तो उसका पापबंध तीव्र फलदान वाला होगा किन्तु यदि वह क्षमा याचना कर लेता है अथवा प्रायश्चित ले लेता है तो उससे बंधेकर्म की फलदान शक्ति, मंद हो जाती है इसी कारण मुनिमहाराज दिन में तीन बार प्रतिक्रमण करते है जिसके फलस्वरूप अपने बंधेकर्मों का अनुभाग कम कर लेते है!इसीलिए प्रायश्चित करने का विधान है!बंधे कर्म का अनुभाग उदय के समय बढ़- घट सकता है!यदि पाप बंध मंद कषाय में बंधा है तो उसका अनुभाग मंद बंधेगा जो की बाद में परिणामों में तीव्र कषाय आने से बढ़ जाता है!कर्मों के अनुभाग का बढना उत्कर्षण और घटना अपकर्षण कहलाता है
प्रदेश बंध के लक्षण (कितनी कर्माणवर्गणाये आत्मा के साथ बंधती है)
नामप्रत्यया:सर्वतोयोगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावागाहस्थिता:सर्वात्म-प्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः !!२४!!
संधि विच्छेद-नामप्रत्यया:+सर्वत:+योगविशेषात्+सूक्ष्म+ऐकक्षेत्रावागाह+स्थिता:+सर्वात्मप्रदेशेषु+अनन्तानन्त+प्रदेशाः!
शब्दार्थ:-नामप्रत्यया:-अपने २ नाम में कारण रूप अर्थात जैसे दर्शनावरण/ज्ञानावरण प्रकृति के कारण ,जो कर्माण वर्गणाय़े परिणमन करने की योग्यता रखती है वे दर्शनावरण/ज्ञानावरनादि कर्म रूप बंधती है! यह नाम प्रत्यय से सूचित होता है कि कर्म प्रदेश ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्म प्रकृतियों के कारण है !
सर्वत:- कर्माणवर्गणाये प्रति समय सभी भवों में बंधती है !अर्थात कर्म प्रदेश सब भवो में बंधते है !
योगविशेषात्:-योग;मन,वचन,काय की क्रिया द्वारा आत्मप्रदेशों के परिस्पंदन हीनाधिकता अनुसार क्रमश : हीन परिस्पन्दन होने पर, कम कर्म रूप पुद्गल ग्रहण किये जाते है अर्थात हीन कर्मों का प्रदेश बंध होता है , अधिक परिस्पंदन है तो अधिक कर्म प्रदेश बंधेंगे !
सूक्ष्म-किसी से नहीं रुकने वाली और किसी को नहीं रोक ने वाली सूक्ष्म कर्माणवर्गणाय़े ही कर्म रूप परिणमन करती है स्थूल नहीं अर्थात बंध सूक्ष्म ही है स्थूल नहीं !
ऐकक्षेत्रावागाह-आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप,अर्थात पहले से अनेक वर्गणाए मोजूद होती है!क्षेत्र के अंतर के निराकरण के लिए एक क्षेत्रावगाह कहा है,अर्थात जिस आकाशप्रदेश में आत्मप्रदेश रहते है उसी आकाश प्रदेश में कर्म योग्य पुद्गल भी ठहर जाते है !
स्थिता:-रुकी हुई होती है!क्रियान्तर की निवृति के लिए स्थिता: कहा है अर्थात ग्रहण करने योग्य पुद्गल स्थिर होते है गमन नहीं करते!
सर्वात्म-प्रदेशेषु -कर्माणवर्गणाये,कर्म रूप होकर,सभी आत्मप्रदेशों में बंधती है! कर्म प्रदेश आत्मा के एक प्रदेश में नहीं वरन समस्त दिशाओं के प्रदेशों में व्याप्त होकर स्थिर रहते है!जैसे हमने एक हाथ से सामग्री चढ़ाई तो सातावेदनीय का बंध मात्र उसी हाथ में ही नहीं होता बल्कि शरीर के समस्त आत्म प्रदेशों में प्रदेश बंध होता है!अनन्तानन्त प्रदेशाः-अनंतानंत प्रदेश परमाणु प्रति समय बंधते है!
भावार्थ -संसार में आठ प्रकार के कर्माणवर्गणाये है,जो ज्ञानावरण योग्यता वाली आयेगी वे ज्ञानावरणकर्म रूप, दर्शनावरण योग्यता वाली दर्शनावरणकर्म रूप,आयु कर्म योग्यता वाली आयुकर्म रूप परिणमन करेगी इसी प्रकार अन्य पञ्च कर्मों की योग्यता वाली कर्माणवर्गणाये अपने अपने नामानुसार कर्म रूप परिणमन करेगी!अनन्तानन्त प्रति समय आने वाले पुद्गल कर्मो का विभाजन आयुकर्म अपकर्ष कालों के अतिरिक्त ,प्रति समय सातों कर्मों में होता है और अपकर्ष कालों में आठों कर्मों में होता है !
कर्माणवर्गणाओ का अष्ट कर्मों में विभाजन-सबसे अधिक कर्माणवर्गणाये वेदनीयकर्म के हिस्से में आती है क्योकि सबसे अधिक काम में सुख-दुःख रूप यही आता है!उससे कम मोहनीय कर्म को मिलती है क्योकि मोह्नीय कर्म का स्थितिबंध सर्वाधिक ७० कोड़ाकोडी सागर है,उस से कम ज्ञानावरण,दर्शनावरण और अन्तरायकर्म को बराबर मिलता है क्योकि इनका स्थितिबंध ३० कोड़ाकोडी सागर है!,इस से कम नामकर्म और गोत्रकर्म को बराबर मिलता है क्योकि उनका स्थितिबंध २०-कोड़ा कोडी सागर है!न्यूनतम आयुकर्म को,केवल अपकर्षकाल में मिलता है!
कर्माणवर्गणाये प्रति समय आती है!योग की विशेषता अर्थात मन,वचन ,काय की क्रिया द्वारा यदि आत्मप्रदेशो में परिस्पंदन अधिक होता है तो अधिक आयेगी और यदि कम होता है तो कम आयेगी!अत: योग की विशेषता से कर्म-प्रदेश बंध होता है!ये कर्माणवर्गणाये सूक्ष्म होती है,आत्मप्रदेशो के साथ एक क्षेत्रावागाह(एक में एक) होकर स्थित रहती है!ये समस्त आत्मप्रदेशों से बंधती है!
विशेष-उक्त सूत्र में प्रदेश बंध का विचार किया गया है जो पुद्गल परमाणु कर्म रूप जीव द्वारा सभी भवों में ग्रहण किये जाते है वे योग के निमित्त से ,आयुकर्म के आठ अपकर्ष कालों के अतिरिक्त ज्ञानावारणीयादि सात कर्मों में प्रति समय परिणमन करते है तथा अपकर्ष कालों में आठों कमो में परिणमन करते है !जिस क्षेत्र में आत्मा स्थित होती है उसी क्षेत्र के कर्म परमाणु को ग्रहण करती है अन्य के नही ग्रहण किये गए अनन्तानन्त कर्म परमाणु आत्मा के सभी प्रदेशों में व्याप्त होते है!

पुण्य प्रकृतियाँ-
सद्वेद्य -शुभायुर्नाम गोत्रणि पुण्यं !!२५!!
संधि विच्छेद -सद्वेद्य+शुभ( आयु:+नाम)+गोत्रणि+पुण्यं
शब्दार्थ -सद्वेद्य-साता वेदनीय,शुभआयु:,शुभनाम,गोत्रणि-शुभ/उच्च गोत्र कर्म,प्रकृतियाँ ,पुण्य प्रकृतियां है !
अर्थ-साता वेदनीय,शुभ आयु-अर्थात तिर्यंच,देव और मनुष्य आयु ,उच्च गोत्र, और शुभ नामकर्म की पुण्य प्रकृतियाँ है!
भावार्थ-
साता वेदनीय-१ ,शुभ ३-आयु कर्म अर्थात तिर्यंच,देव और मनुष्य आयु ,शुभनाम-३७ और उच्च गोत्र -१ पुण्य प्रकृतियाँ है! शुभ नाम कर्म की ३७ प्रकृतियाँ-
गति-मनुष्य और देव-२,जाति पंचेन्द्रिय-१,शरीर-५,अंगोपांग-३,समचतुरसंस्थान-१,वज्रऋषभनारांचसहनन-१, प्रशस्त (शुभ )रस,गंध,वर्ण,स्पर्श-४,मनुष्य और देवगत्यानुपूर्वी-२,अगुरुलघु-१,परघात-१,उच्छवास-१,आतप-१ उद्योत-१,प्रशस्त विहायोगति-१,त्रस-१,बादर-१,पर्याप्ति-१,प्रत्येकशरीर-१, स्थिर-१,शुभ-१, सुभग-१,सुस्वर-१, आदेय-१, यशकीर्ति -१,निर्माण-१,तीर्थंकर -१,ये ४२-पुण्य प्रकृतियाँ है !

पाप प्रकृतियाँ-
अतोऽन्यत्पापम् !!२६ !!
संधि विच्छेद- अतो अन्यत् +पापम्

शब्दार्थ-अतो अन्यत् -इसके अलावा सब ,पापम् -पाप प्रकृतियाँ है!
अर्थ-पुण्य प्रकृतियों के अतिरिक्त सभी पाप प्रकृतियाँ हैं !
भावार्थ-
घातिया कर्मो की सभी(ज्ञानावरण की ५,दर्शनावरण-९,मोहनीय -२६,अंतराय-५,)४५ प्रकृतियाँ पापरूप प्रकृतियाँ है!वेदनीय में असाता वेदनीय,गोत्र में नीच गोत्र, आयु में नरकायु,नाम कर्म की गति-नरक और तिर्यंच-२,जाति;एकेन्द्रिय से चतुरिंद्रिय-४,संस्थान-५,सहनन-५,अपर्याप्तक,अप्रशस्त(रस,गंध,वर्ण, [b])[/b]-[b]-४ ,साधारण शरीर-१ ,अस्थिर-१ ,अशुभ-१, दुर्भग-१ दुस्वर-१ , अनआदेय-१, अपयश-१ ,

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5 thoughts on “तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra) अध्याय 8

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