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तत्वार्थ सुत्र अध्धाय-३ ३३ से ३९सुत्र तक - Printable Version

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तत्वार्थ सुत्र अध्धाय-३ ३३ से ३९सुत्र तक - scjain - 02-09-2016

भरत क्षेत्र का विस्तार -

भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवति शत भाग:  !!३३ !!
संधि विच्छेद -भरत+अस्य+ विष्कम्भ:+ जम्बूद्वीप+अस्य +नवति +शत +भाग:
शब्दार्थ-भरत-भरत क्षेत्र,अस्य-का ,विष्कम्भ:-विस्तार,जम्बूद्वीप-जम्बूद्वीप,अस्य-के ,नवतिश-एक सौ नब्बे वा, भाग:-भाग है 


अर्थ -भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के विस्तार एक लाख योजन का एक सौ नब्बे व भाग अर्थात १००००० /१९० =५२६-६/१९ योजन है !
विशेषार्थ -जम्बूद्वीप के  विस्तार का भरत क्षेत्र १ भाग,हिमवन पर्वत २ भाग ,हेमवत वर्ष ४ भाग,महा हिमवन पर्वत -८ भाग,हरिवर्ष  १६ भाग,निषध  पर्वत  ३२ भाग विदेहवर्ष  ६४ भाग,नील पर्वत ३२ भाग,रम्यकवर्ष  १६ भाग,रुक्मि  पर्वत के ८ भाग ,हैरण्यवत वर्ष ४ भाग ,शिखरिन पर्वत २ भाग और ऐरावत वर्ष  १ भाग है !इन सब का योग १९० है ,अत: भरत वर्ष का विस्तार जम्बूद्वीप के विस्तार का एक सौ नब्बेवा भाग है !
घातकी खंड द्वीप की रचना -





द्विर्घातकीखण्डे !!३
३!!
संधि  विच्छेद-द्वि:+घातकी +खण्डे
शब्दार्थ -द्वि:-दुगने ,घातकी -घातकी ,खण्डे-खंड द्वीप में
अर्थ -घातकी खंड द्वीप में दुगनी रचना है !
भावार्थ -घातकी खंड में जम्बूद्वीप से दुगने दुगने क्षेत्र,पर्वत,सरोवर ,नदियां आदि है !
विशेषार्थ -घातकीखंड द्वीप वलयाकार होने के कारण, इसमें उत्तर और दक्षिण में स्थित  दो  इक्ष्वाकार पर्वतो से  , जो उत्तर से दक्षिण तक द्वीप के विष्कम्भ -४ लाख योजन प्रमाण लम्बे है, एक छोर उनका कालोदधि समुद्र को और दूसरा छोर लवण समुद्र को स्पर्श करता है ,के  द्वारा  पूर्वार्द्ध  घातकीखंड और पश्चिमार्द्ध  घातकी खंड दो भागों में विभाजित है !प्रत्येक में एक एक; भरत,ऐरावत,हेमवत,हैरण्यवत,हरि,रम्यक,विदेहवर्ष कुल  ७ क्षेत्र ,हिमवन, महहिमवन,निषध , नील,रूक्मी,और शिखरिन -कुल ६ पर्वत , पदम, महापदम, तिगिन्छ ,केशरी,महापुण्डरीक,पुण्डरीक -कुल ६ सरोवर,गंगा-सिंधु,रोहित-रोहितास्य,हरि-हरिकांता,सीता-सीतोदा ,सुवर्णकुला-रूप्यकूला, रक्त-रक्तोदा -कुल १४ नदियां ,१-मेरु अर्थात  दोनों विभागों में कुल १४ क्षेत्र ,१२ पर्वत ,१२ सरोवर ,२८ महा नदियां ,२ मेरु है !इस द्वीप में ये सर्वत्र  समान विस्तार के पर्वत पहिये के आरे के समान है और क्षेत्र आरो के बीच में स्थित है !यहाँ क्षेत्रों ,पर्वतों,सरोवरों,नदियों के नाम जम्बूद्वीप के समान ही है ! विजय और अचल क्रमश पूर्व और पश्चिम घातकी खंड में स्थित मेरु के नाम है !
घातकी खंड द्वीप को कालोदधि समुद्र घेरे हुए है और घातकी खंड द्वीप ने लवण समुद्र को घेर रखा है !घातकी खंड में क्षेत्र कालोदधि के पास अधिक चौड़े और लवण समुद्र के पास कम चौड़े  है !जम्बूद्वीप में जिस स्थान पर जामुन का पार्थिव वृक्ष है ,घातकी खंड में उसी स्थान परघातकी अर्थात  धतूरे का विशाल पार्थिव वृक्ष है खंड द्वीप है ! 
पुष्कर द्वीप का 

पुष्करार्द्धेच -३४ 
संधि विच्छेद -पुष्कर+अर्द्धे+च
शब्दार्थ -पुष्कर-पुष्कव र द्वीप के,अर्द्धे-आधे भाग में ,च-भी क्षेत्रो और पर्वतों की रचना भी घातकी खंड के समान जम्बूद्वीप से दुगनी दुगनी तरह ही है !
अर्थ -पुष्कवर द्वीप के आधे भाग में भी घातकी खंड के समान और जम्बूद्वीप से दुगने दुगने क्षेत्र ,पर्वत,सरोवर,नदिया उसी नाम से ,और मेरु पर्वत है !
भावार्थ -कालोदधि समुद्र को घेरे हुए १६ लाख योजन विस्तार का  पुष्कर द्वीप चूड़ी आकार मनुषोत्तर पर्वत से दो भागो में विभाजित है !इसके अंदरूनी  भाग तक  मनुष्य गति के जीव पाये जाते है !मानुषोत्तर  पर्वत के बाहर अर्द्ध पुष्कर द्वीप से लोक के अंत तक मनुष्य नहीं होते !जम्बू द्वीप ,घातकी खंड द्वीप और अर्द्ध पुष्कर द्वीप ,ढाई द्वीप कहते है !पुष्करार्द्ध  द्वीप को भी उत्तर और दक्षिण दोनों भागों को इक्ष्वाकर पर्वत पूर्वी और पश्चमी पुष्करार्ध दो भागो में विभाजित करता है जिसके प्रत्येक भाग में जम्बूद्वीप के सामान ही ७ क्षेत्र ,६ पर्वत,६ सरोवर १४ नदिया तथा क्रमश मंदार  और विद्युन्माली  मेरू पर्वत है !इस प्रकार यहाँ भी सभी जम्बूद्वीप से दुगने दुगने है
मनुष्य क्षेत्र -
 प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥३५॥

संधि विच्छेद -प्राक् +मानुषोत्तरात्+मनुष्याः
शब्दार्थ-प्राक् -पहिले तक, मानुषोत्तरात्-मानुषोत्तर पर्वत तक,मनुष्याः-मनुष्य है 
अर्थ -मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्य होते है ! 
भावार्थ -मानोषोत्तर पर्वत तक,जम्बूद्वीप,धातकी खंड और अर्द्धपुष्कर द्वीपों ,अर्थात  ढाई द्वीप क्षेत्र में ही  के  ४५लाख योजन क्षेत्र में मनुष्य होते है, उससे आगे ऋद्धिधारी मुनिराज भी नहीं जा सकते !

विशेष- ढाई द्वीप के बाहर मनुष्य केवल निम्न तीन परिस्थितियों में पाये जाते है -
१-केवली भगवान के आत्म प्रदेश ८ समय  के लिए केवली समुद्घात ,मे वे अपनी आयु कर्म की स्थिति अन्य तीन अघातिया कर्मों वेदनीय,नाम और गोत्र कर्म की स्थिति के बराबर करते है,के समय सर्व लोक में व्याप्त होते है !२-जो जीव  ढाई द्वीप में अपनी आयु पूर्ण करने के बाद ढाई द्वीप के बहार के क्षेत्र की आयु बंध कर वहां उत्पन्न होने वाले  है,वे मरण से पूर्व,मरणान्तिक समुद्घात करते है तो ढाई द्वीप के बाहर पाये जाते है!
३-ढाई द्वीप से बाहर का कोई जीव यदि वह मनुष्यायु का बंध करता है तो उसके पूर्व की पर्याय  छोड़ने के अनन्तर ही मनुष्यादि कर्मों का उदय हो जाता है तब भी वह उत्पाद क्षेत्र तक पहुचने तक मनुष्यलोक से बाहर होता है ! 
मनुष्य के भेद -
आर्याम्लेच्छाश्च !!३६!!
संधि विच्छेद -आर्या+ म्लेच्छ:+च 
शब्द्दार्थ  - आर्या-आर्य , म्लेच्छ:-म्लेच्छ ,च-और 
अर्थ- मनुष्यो के आर्य और म्लेच्छ दो भेद है !
भावार्थ -१- आर्य और २-म्लेच्छा ,मनुष्यो के दो भेद है !
विशेष-
१-आर्य-अनेक गुणों से सम्पन्न ,गुणी पुरषों से सेवित ,आर्य मनुष्य है!इन आर्यों के दो उप भेद है 
१-ऋद्धिधारी आर्य -ऋद्धि सहित,ऋद्धि धारण की अपेक्षा ८  भेद है,आठ मे से कोई भी एक ऋद्धि  अथवा समस्त ऋद्धियों के धारी आर्य ,ऋद्धिधारी आर्य होते है १ 
२ अऋद्धिधारी आर्य -ऋद्धि से रहित आर्य है !इन  के निमित्त की अपेक्षा ५ भेद है -
१-क्षेत्रार्य-काशी,कौशल आदि क्षेत्रोंमें जन्म लेने वाले  क्षेत्रार्य है ! 
२ -जात्यार्य-इक्ष्वाकु भोज आदि वंश में जन्मे आर्य ,जात्यार्य है !
३-चारित्रार्य-स्वयं और अन्यों को चारित्र पालन करवाने वाले आर्य चारित्रार्य है!
४-दर्शनार्य-सन्यग्दृष्टि आर्य दर्शनार्य है 
५-कर्मार्य - क-सावद्य कर्मार्य ,ख-अल्प सावद्य कर्मार्य ,ग-असावद्य कर्मार्य !
क-सावद्य कर्मार्य -
१-असि कर्मार्य:-जो आर्य तलवार,शस्त्रों  आदि से अथवा युद्ध करके रक्षा करअपनी आजीविका अर्जित करते  है असि  कर्मार्य है !
२-मसि कर्मार्य -जो आय -व्यय लेखन कर आजीविका अर्जित करते है ,मसि कर्मार्य है !
३-कृषि कर्मार्य -जो खेती द्वारा आजीविका अर्जित करते है कृषि कर्मार्य है !
४ -विद्या कर्मार्य -जो विविध कलाओं में प्रवीणता प्राप्त कर आजीविका अर्जित करते है विद्या कर्मार्य है !
५-शिल्प कर्मार्य-धोबी ,कुम्हार,नाई,लोहार,सुनार,इत्यादि शिल्प से जीविका अर्जित करते है शिल्प  कर्मार्य है !
६-वाणिज्य कर्मार्य -जो वाणिज्य ,व्यापार आदि से जीविका अर्जित करते है वे वाणिज्य कर्मार्य है !
ख-अल्प सावद्य कर्मार्य -अणुव्रती श्रावक अल्पसंवाद्य कर्मार्य होते है !
ग-असावद्य कर्मार्य-पूर्ण संयम साधु असावद्य कर्मार्य होते है !
२-म्लेच्छ मनुष्य -
 म्लेच्छ- आचार,विचार से भ्रष्ट ,धर्म  कर्म व्यवस्था के विवेक से रहित मनुष्यों को  म्लेच्छ कहते  है! !ये दो प्रकार के होते है !
१-अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ -लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र के मध्य में स्थित  अंतरद्वीपोँ में रहने वाले कुभोगभूमिज मनुष्यों को अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ कहते है 
२-कर्मभूमिज म्लेच्छ -कर्म भूमि में ,आर्य संस्कृति से विहीन ,उत्पन्न होने वाले कर्म भूमिज म्लेच्छ कहते है !

कर्म भूमियों के भेद -
भरतैरावतविदेहः कर्मभूमियोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥
सन्धि विच्छेद-भरत+ऐरावत+विदेहः कर्मभूमिय:+अन्यत्र+ देवकुरू+उत्तरकुरुभ्यः
शब्दार्थ -भरत,ऐरावत,विदेह, कर्मभूमिय:-कर्म भूमियाँ है, अन्यत्र -के अतिरिक्त देवकुरू+उत्तरकुरुभ्यः-देव और उत्तर कुरू के
अर्थ-भरत ऐरावत और ,विदेह में उत्तरकुरु के अतिरिक्त ,विदेह कर्म भूमियाँ है !

भावार्थ -जम्बू,धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप पांचो मेरु; संबंधी ५ भरत ,५ ऐरावत और ५ विदेह क्षेत्र,विदेह में देव और उत्तर कुरु के अतिरिक्त, ४५ लाख योजन के ढाई द्वीप में कुल १५ कर्म भूमियाँ हैं !
विशेष -
१-कर्मभूमि-जिन क्षेत्रों में मनुष्यों को जीविका अर्जित करने के लिए असि,मसि,कृषि, वाणिज्य, विद्या अथवा शिल्पी, छः कर्मों से कोई एक करना हो और वह बड़े से बड़ा पुण्य कर संसार चक्र से मुक्त हो कर मोक्ष प्राप्त कर सकता हो अथवा बड़े से बड़ा पाप कर्म कर संसार चक्र में ही भटक सकता हो ,वह कर्म भूमि कहलाती है!ढाई द्वीप में १५ कर्म भूमिया है !शेष क्षेत्रो में भोगभूमि है वहां आजीविका के लिए कोई कर्म नहीं करना पड़ता !दो समुद्रों के अंतरद्वीपों में ९६ भोग भूमिया है !

मनुष्य की उत्कृष्ट और जघन्यायु -
नृस्थितीपरावरेत्रिपल्योपमान्तर्मुर्हूर्ते !!३८!!

संधि विच्छेद -नृ + स्थिती+ पर+अवरे +त्रिपल्योपमा +अन्तर्मुर्हूर्ते
शब्दार्थ-नर-मनुष्य की,स्थिती-आयु,पर-उत्कृष्ट,आवरे-जघन्य,त्रिपल्योपम-तीन पल्य,अन्तर्मुर्हूर्ते-अन्तर्मुहूर्त है
अर्थ-मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु ३ पल्य (उत्तम भोगभूमि की अपेक्षा) और जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त (कर्म भूमि की अपेक्षा) है !
तिर्यन्चों की आयु-
तिर्यग्योनिजानां च ॥३९॥

तिर्यंच जीवों की भी यही है !
अर्थ- तिर्यन्चों की भी उत्कृष्ट आयु मनुष्यों की भांति ३ पल्य और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है !
विशेष-स्थिति के दो भेद है !
१-भव स्थिति-आत्मा एक पर्याय में जितने काल रहे वह उस जीव की भव स्थिति है,यहाँ भव स्थिति बतायी है!तिर्यन्चों में; पृथ्वीकायिक के उत्कृष्ट भव स्थिति २२००० वर्ष,जलकायिको की ७००० वर्ष,अग्निकायिक की ३ दिनरात,वायुकायिक की ३००० वर्ष और वनस्पतिकायिक की १०००० वर्ष है,द्वीन्द्रिय की १२ वर्ष,त्रीन्द्रिय की ४९ दिन,चतुरिंद्रिय की ६ माह,पंचेन्द्रिय में मच्छली आदि जलचरों की पूर्व कोटि प्रमाण,गोह व् नकुल आदि परीसर्पों की नौ पूर्वाङ्ग,सर्पो की ४२ हज़ार वर्ष और चतुष्पदों की ३ पल्योपम है !
२ -काय स्थिति- पुन :पुन :उसी पर्याय में निरंतर उत्पन्न होना, दूसरी जाती में नहीं जाना, काय स्थिति है !
पृथ्वीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्येय लोक प्रमाण है और वनस्पतिकायिक की अनंत काल प्रमाण है जो की असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण स्वरुप व आव्लिका के असंख्यात भाग स्वरुप कही जाती है !विकलेन्द्रिय की असंख्यात हज़ार वर्ष है,पंचेन्द्रिय तिर्यंच/ पूर्व कोटि पृथकत्व अधिक ३ पल्य है, देव और नारकी की भव स्थिति ही काय स्थिति है !
३-१ पूर्वाङ्ग =८४ लाख वर्ष,१ पूर्व =८४ लाख पूर्वाङ्ग
तत्वार्थ सूत्र (मोक्षशास्त्र )अध्याय ३  मध्य लोक का वर्णन  सहधर्मी भाइयों बहिनजैजिनेन्द्र देव की !पंचपरमेष्ठी की जय !विश्व धर्म जैन धर्म की जय !संत श्रोमणि आचार्यश्री विद्यासागर  जय !

मध्य लोक से संबंधित महत्व पूर्ण सूचनाये -

१-पैमाइश की उपयोगी इकाइया -

अंगुल-तीन प्रकार के है  -
१-उत्सेधांगुल -अंगुल,उत्सेधांगुल या सूच्यांगुल है !उत्सेधांगुल से देव,मनुष्य,तिर्यंच ,नार्कियों के शरीर के लम्बाई का प्रमाण और चारो प्रकार के देवों  के निवास स्थान एवं नगरआदि  का प्रमाण मापा जाता है !
२-प्रमाणांगुल -५०० उत्सेधांगुल प्रमाण अवसर्पिणी काल के प्रथम चक्रवर्ती के एक अंगुल का नाम प्रमाणांगुल है ! द्वीप,समुद्र,कुलांचल,वेदी,नदी,कुण्ड,सरोवर ,जगती,भरत आदि क्षेत्रों का प्रमाण -प्रमाणांगुल  से ही  मापे  जातेहै!
३-आत्मांगुल - जिस जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो जो मनुष्य होते है,उस काल में उन्ही मनुष्य के
अंगुल का नाम आत्मांगुल है !झारी,कलश,दर्पण ,हल,मूसल,सिंहासन,बाण,नली,अक्ष चामर,दुन्दभि,पीठ,छत्र, मनुष्य के निवास स्थान,नगर और उद्यान की संख्या आत्मांगुल से ही मापे जाते है!
२- ६अँगुल =१ पाद,२ पाद=१ विलस्ति ,२ विलस्ति =१ हाथ ,२ हाथ=१ रिंकू,२ रिंकू =१ दण्ड =४ हाथ=१ धनुष,मूसल/नाली  ,२००० धनुष/दण्ड =१ कोस ,४ कोस=१योजन ,५००योजन =१ महायोजन =२०००कोस 
४-सागर का नाप - एक योजन गहरे और इतने ही विस्तार के गड्ढे  को ,उत्तम भोग  भूमि के ७ दिन तक के मेढे के बच्चे के रोमो  को कैची से आगे अविभाज्य टुकड़ों से ठसाठस  भरण के बाद ,प्रत्येक सौ वर्ष में १ -१ रोम  का सूक्ष्मत टुकड़ा निकलने पर ,गड्ढे को खाली करने में जितना समय लगता है उतना समय  व्यवहार पल्य है !
ऐसे गोल गड्ढे के क्षेत्र का क्षेत्र घन  फल =१ x १ x १० =१९/६ परिधि,१९/(६ x ४ )=१९/२४ घनफल !इस गड्ढे में १-७ दिन के मेढ़े के ४.१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२९९२ x १० की घात ४४ रोम आते है !प्रत्येक १०० वर्ष में १ रोम निकालने में ४.१३४५२६३०३०८२०३१७७७ ४९५१२९९२ x १० की घात ४६ वर्ष लगेंगे =१ व्यवहार पल्य !
ऐसे असंख्यात व्यवहार पल्य का १ उद्धार पल्य  है !असंख्यात उद्धार पल्य का १ अद्धा  पल्य है !ऐसे दस करोड़ अद्धा पल्य का को १० करोड़ अद्धा पल्य से गुना करने पर १ सागर की माप होती है !
१ अवसर्पिणी=१  उत्सर्पिणी =४,१३ x १० की घात ७६ सोलर वर्ष (REf  cosmology by Mr.G ,R ,Jain )
५- १ अचल =८४ की घात ३१ x १० की घात ८० से १ अधिक संख्या असंख्यात हो जाती है!सन्दर्भ  आदिपुराण पृष्ठ ६५ ,आचार्य जिनसेन विरचित 

लोक में मध्य लोक एक झालर के सामान दीखता है जो की चित्र पृथ्वी के तल से सुदर्शन मेरु की चूलिका १लाख  ४० योजन ऊँचा और तिर्यक दिशा में लोक के अंत तक १ राजू लम्बे क्षेत्र में असंख्यात द्वीप और समुद्रों से घिरा हुआ है !ये सभी द्वीप समुद्र चित्र पृथ्वी के ऊपर है !
 समरू पर्वत के पाण्डुक वन ,पाण्डु ,पांडुकंबला  ,रक्त और रक्तकम्ब्ला नमक चार शिलाये है जिनमे क्रमश: भरत ,पश्चिम विदेह,ऐरावत,और पूर्व विदेह क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों के जन्माभिषेक होते है !चारो पाण्डु शिलाओं पर चारो दिशाओं में ३-३ सिंहासन होते है !मध्य के सिंहासन पर जिनेन्द्र भगवन विराजमान होते है और उनके दाए हाथ अर्थात दक्षिण की तरफ सौधर्मेन्द्र और उत्तर में ईशान इंद्र विराजमान होते है !

  समुद्रों में लवण समुद्र का जल  खारा,क्षीर सागर का जल दूध के समान ,घृतवर सागर का जल घृत के समान ,कालोदधि और पुष्कर सागर ,स्वयभूरमण  सागर के जल का स्वाद साम्य जल के समान होता है !बाकी समुद्रो के जल का स्वाद गन्ने के रस के समान होता है !
 लवण समुद्र,कालोदधि और स्वयंभूरहै मण  सागर में जलचर जीव होते है शेष में नहीं होते !स्वयंभू रमन सागर में महामत्स्य १००० योजन लम्बा २५० योजन चौड़ा और ५००   योजन ऊँचा है !जो की मरकर सातवे नरक में जन्म लेता है !
 मध्य लोक में तेरहर्वे रुचिकर द्वीप तक  ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय है,!पांचो मेरु पर्वत पर ८०,३० कुलांचल पर ३०,बीस गजदंत पर्वत पर २०,वक्षार गिरी पर ८०,इक्ष्वाकर पर्वत पर ४,मनुशोत्तर पर्वत पर ४,विज्यार्ध पर्वत पर १७०,जम्बू वृक्ष पर ५ शाल्मली वृक्ष पर ५ ,नन्दीश्वर द्वीप पर ५२,कुण्डलगिरी पर्वत पर ४,रूचक द्वीप के रूचक पर्वत पर ४ है !प्रत्येक चैत्यलत में १०८ भव्य जिम प्रतिमाये है ! इनमे ढाई द्वीप में ३९८ अकृत्रिमचैत्यालय है !जम्बू द्वीप में ७८ है !,धातकी खंड और पुश्राद्ध द्वीप में में १५८ -१५८ है !
नन्दीश्वर द्वीप का विस्तार एक सौ तरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है 


RE: तत्वार्थ सुत्र अध्धाय-३ ३३ से ३९सुत्र तक - Manish Jain - 06-13-2023

अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10