तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र २१से ३० तक -
scjain - 02-16-2016
गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना: !!२१!!
संधि विच्छेद -गति+शरीर+परिग्रहा+अभिमानतो +हीना:
शब्दार्थ -गति-शरीर-परिग्रह- अभिमानतो हीना: क्रमश कम कम
अर्थ - नीचे के स्वर्गों से ऊपर ऊपर के स्वर्गों के देवों में गति,शरीर,परिग्रह,अभिमान क्रमश हीन हीन होता है !विशेष-
१-गति-जिससे प्राणी एक स्थान से दुसरे स्थान को जाता है वह गति है !यह गति ऊपर ऊपर के विमानों के देवों में क्रमश कम कम होती जाती है यद्यपि शक्ति की अपेक्षा अधिक सामर्थ्य होती है किन्तु वे प्रमाद वश ही कही आते जाते नहीं !सोलहवे स्वर्ग से ऊपर के देव अपना विमान छोड़कर कही नहीं जाते है !इनके शरीर में दुर्गन्ध,मल मूत्र,रुधिर,चर्बी आदि नहीं होता है !
२-शरीर -शरीर की अवगाह्न्ना अर्थात ऊंचाई क्रमश ऊपर के स्वर्गों में कम कम होती जाती है !डिवॉन का शरीर वैक्रयिक होता है जिसको वे अपनी इच्छानुसार छोटा बड़ा कर सकते है !तीर्थंकरों के जन्मोत्सव के समय जो १ लाख योजन ऐरावत हाथी का कथन आता है वह वैक्रयिक शरीर आभियोग्य जाती के देव का होता है !यह विक्रिया करने की शक्ति उत्तरोत्तर नीचे से ऊपर के स्वर्गों में क्रमश घटती जाती है !
३-परिग्रह-लोभ कषाय के उदय वश जो इन्द्रिय विषयों में ममत्व भाव होता है,उसे परिग्रह कहते है !यह उत्तरोत्तर नीचे से ऊपर के स्वर्गों के डिवॉन में क्रमश कम कम होता है !
४-अभिमान-मान कषाय के उदय से उत्पन्न होने वाले अहंकार ,अभिमान है !स्थिति,प्रभाव ,शक्ति आदि के निमित्त से अभिमान उत्त्पन्न होता है किन्तु ऊपर ऊपर के डिवॉन में मान कषाय क्रमश घटती है इसलिए
अभिमान भी घटता हुआ होता है संवेग परिणामों की उत्तरोत्तर अधिकता होने से अभिमान में हानि होती है !
५-शवासोच्छवास व आहार - देवों की जितने सागर की आयु होती है ,उतने पक्षों के अंतराल पर श्वासोच्छ्वास लेते है और उतने सहस्र वर्ष के अंतराल पर आहार विषयक विकल्प होते ही कंठ से अमृत झड़ता है,इसी को लेकर तृप्त हो जाते है !
पूर्व भव की कषायों का देव गति में जन्म लेने पर प्रभाव -
असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच अपने शुभ परिणामों से पुण्य कर्म का बंध कर भवनवासी और व्यंतर देवों में और सैनी पर्याप्त कर्म भूमियाँ मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच भवनत्रिक में उत्पन्न हो सकते है और सम्यग्दृष्टि प्रथम स्वर्ग युगल तक जन्म ले सकते है !
कर्मभूमिया मिथ्यदृष्टि /सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य भवनवासी से उपरिम ग्रैवियक तक उत्पन्न हो सकते है,किन्तु जो द्रव्य से जिन लिंगी ही ग्रैवियक तक उत्पन्न हो सकते है !
अभव्य मिथ्यादृष्टि जिन लिंग धारण कर,तप के प्रभाव से,मरकर उप्रीम ग्रैवियक तक में उत्पन्न हो सकते है !
परिव्राजक तपस्वी मरकर ५ वे स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते है !आजीविक सम्प्रदाय के साधु १२ वे स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते है !१२वे स्वर्ग से ऊपर अन्य लिंगी साधु उत्पन्न नहीं हो सकते !
निर्ग्रन्थ लिंग के धारक यदि द्रव्य लिंगी है तो उपरिम ग्रैवियक तक और भावलिंगी _सर्वार्थ सिद्धि तक उत्पन्न हो सकते है !श्रावक पहिले से सोलवे स्वर्ग तक ही जन्म ले सकते है!
इस प्रकार कषायों की मंदता के साथ ही मरने पर ऊपर ऊपर के स्वर्गों में जन्म होता है !,उसी प्रकार ऊपर के देवों में कषायों की मंदता होती है !\
वैमानिक देवों की लेश्याए -
पीतपद्मशुक्ललेश्याद्वित्रिशेषेषु २२
सन्धिविच्छेद -पीत+ पद्म+शुक्ल+ लेश्या+ द्वि+ त्रि +शेषेषु
शब्दार्थ- पीत , पद्म शुक्ल लेश्या, द्वि -दोयुगलों में ,त्रि-तीनयुगलों में , शेषेषु-शेष ससत विमानों में
अर्थ-प्रथम दो युगलों में ,तीन युगलों में और शेष समस्त विमानों में देवों की क्रमश पीत ,पढम और शुक्ल लेश्याए होती है !भावार्थ- प्रथम युगल सौधर्मेन्द्र-ईशांत स्वर्गोंके विमानों में देवों की पीत लेश्या है ,द्वित्य स्वर्ग युगल सानात्कुमार-माहेन्द्र में देवों की नीचे पीत और ऊपर के देवों की पद्म लेश्या है, ५वे से ८वे स्वर्गों के युग्ल.९वे से १२वे युग्ल में नीचे तक पद्म लेश्या है और ऊपर शुक्ल लेश्या है!१३वे से १६ वे स्वर्ग के युगलों में देवों की शुक्ल लेश्या है! शेषेषु- अर्थात ग्रैवेयक तक के देवों की शुक्ललेश्या है !
विशेष
१-अनुदिशों और अनुत्तरों में परम शुक्ल लेश्या है ,किन्तु राजवार्तिक के अनुसार परम शुक्ल लेश्या मात्र अनुत्तरों में है !
२-वैमानिक देवो के भाव लेश्या के समान द्रव्य लेश्या होती है किंतु उनके द्वारा बनाये गये वैक्रियिक शरीर की छ:लेश्यारूप वर्णमय है।अर्थात मूल शरीर एक ही द्रव्य लेश्यारूप है किंतु उत्तर शरीर सभी द्रव्य लेश्यारूप है!
शंका-देवों में आयु का बंध मात्र कापोत और पीत लेश्या मे होता है,किन्तु पांचवे स्वर्ग से ऊपर देवो के पद्म लेश्या और ११वे स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि तक ऊपर शुक्ल व परम शुक्ल लेश्या है फिर देवो की आयु का बंध कैसे होता है।
समाधान - उनकी त्रिभंगी आयु के बंध के समय, उनके परिणाम कापोत या पीत लेश्या रूप हो जाते है जिससे उनके भाव उस समय आयु बंध के अनुकूल हो जाते है।अतः निमित नैमित्तक संबंध मिलने से आयु का बंध हो जाता है।अन्य समयो मे,स्वर्गानुसार निर्दिष्ट लेश्याएँ जीवन पर्यंत रहती है।गोम्मेटसार के अनुसार ऐसा ही नरक मे भी रहता है। कल्प कहाँ तक है -
प्राग्ग्रैवेयकेभ्यःकल्पाः २३
संधि विच्छेद -प्राक्+ग्रैवेयकेभ्य:+कल्प:
शब्दार्थ -प्राक -पाहिले तक, ग्रैवेयकेभ्यः -ग्रैवेयक से ,कल्पाः-कल्प है !
अर्थ- ग्रैवेयको से पहिले अर्थात १६ वे स्वर्ग तक कल्प कहते है क्योकि वही तक के देवों में इन्द्रादिक दस भेदो की कल्पना है !
विशेष -१६ वे स्वर्ग से ऊपर समस्त ग्रैवेयक ,अनुदिश और अनुत्तोर कल्पातीत है क्योकि यहाँ देवो मे कोई भेद नहीं है , अह्मिन्द्र है !
लौकांतिक देवों का लक्षण -
ब्रह्म-लोकालया लौकान्तिका: !!२४!!
संधि विच्छेद-ब्रह्म+लोक+आलया+ लौकान्तिका:
शब्दार्थ ब्रह्म-लोक -ब्रह्म लोक ,आलया -निवासहै, स्थान लौकान्तिका:-लौकांतिक देवो का
अर्थ --ब्रह्म लोक ,पांचवे स्वर्ग के निवासी देव लौकांतिक देव कहलाते है !
विशेष -
१- लौकांतिक देव देवऋषि कहलाते है!लौकांतिक देवों में मनुष्य आयु पूर्ण कर वे ही दिगंबर निर्ग्रन्थ, शरीर से नि:स्पृह, मुनि उत्पन्न होते है जो मनुष्य भव में सर्वपरिग्रहों के त्यागी और घोर तपश्चरण द्वारा सुख दुःख,मित्रता शत्रुता आदि में संमभावी होते है !
२-ये लौकांतिक देव ब्रह्म स्वर्ग के अंत के दिशा और विदिशाओं के विमानों में रहते है!
३-ये द्वादशांग के पाठी ,ब्रह्मचारी और एक भवावतारी अर्थात अगले भाव में मनुष्य पर्याय में जन्म लेकर मुक्त होते है !
४-इनके विमानों में देवियों का प्रवेश वर्जित है !इनकी देवांगनाएँ नहीं होती है !
५-ये केवल तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणकों में दीक्षा की अनुमोदना के लिए दीक्षा स्थल पर जाते है
लौकांतिक देवों के भेद /नाम -
सारस्वातादित्य बहन्यरुण गर्दतोय तुषितावया बाधारिष्टाश्च !!२५!!
संधि विच्छेद-
सारस्वात+आदित्य + वहिन +अरुण + गर्दतोय +तुषित +अवयाबाध+ अरिष्ट:+ च
शब्दार्थ-
सारस्वत आदित्य वहि्न अरुण गर्दतोय तुषित अवयाबाध अरिष्ट: च (यहाँ च से सूचित होता है कि प्रत्येक के बीच २-२ लौकांतिक देव और है !
अर्थ-लौकांतिक देवों के सारस्वत,आदित्य,वहि्न,अरुण,गर्दतोय,तुषित,अवयाबाध और अरिष्ट आठ भेद नाम है !यहाँ च से सूचित होता है कि प्रत्येक के बीच २-२ लौकांतिक देव और है !
विशेष -
१ --उपर्युक्त आठों लौकांतिक देव ब्रह्म लोक की प्रत्येक दिशा में क्रमश एक एक होते है!
सारस्वत देव(७००) के विमान पूर्वोत्तर दिशा (ईशान ) में ,पूर्व दिशा में आदित्य देव (७००),वहि्न देवों(७००७) के पूर्व दक्षिण दिशा में,अरुण देवों(७००७) के दक्षिण दिशा में ,गर्दतोय देवों (९००९) के दक्षिण-पश्चिम दिशा में, तुषित देवों (९००९)पश्चिम दिशा में,अवयाबाध देवों (११०११)के पश्चिम उत्तर दिशा में और अरिष्ट:देवों (११०११) के विमान उत्तर दिशा में है सदर्भ सर्वार्थ सिद्धि पृष्ठ-१९३
ये लौकांतिक देव, इन्ही नाम कर्मों के उदय के कारण,इन्ही नामों से लौकांतिक देवो में जन्म लेते है!ये सभी एक समान होते है कोई छोटा बड़ा नहीं होता है ,किसी इंद्र के आधीन नहीं होते है !,ये समस्त विषयों से विरक्त होते है इसलिए इन्हे देवऋषि कहते है!अन्य देवों के बीच इनकी बहुत प्रतिष्ठा होती है !ये सभी अगले भव से मुक्त होने वाले होते है !
२ सूत्र में " च" से सूचित होता है कि प्रत्येक के बीच २-२ लौकांतिक देव प्रकार है !
सारस्वत-आदित्य के बीच अगन्य और सूर्यप्रभ,
आदित्य-वहि्न के बीच चन्द्रभ और सत्यप्रभ ,
वहि्न-अरुण के बीच श्रेयस्कर और क्षेमप्रभ ,
अरुण-गर्दतोय के बीच वृषभेष्ठ और कामचोर ,
गर्दतोय-तुषितदेवों के बीच निर्माण और रजस,
तुषित-अवयाबाध देवों के बीच आत्मरक्षित और सर्वरक्षित,
अवयाबाध-अरिष्ट देवों के बीच मरुत और वायु, तथा
अरिष्ट-सारस्वत के बीच अश्व और विश्व देव है !
इस प्रकार २४ लौकांतिक देव ये है
अनुदिशों और अनुत्तरों देव वासियों में मोक्ष प्राप्ति का नियम
विजयादिषुद्विचरमा: !!२६ !!
संधि विच्छेद -विजय+आदिषु+द्विचरमा:
शब्दार्थ-विजय+आदिषु-विजय आदि में,द्विचरमा:-द्वी भवतारी
अर्थ-नव अनुदिश के नौ और ४ अनुत्तरों; विजय ,वैजयंत,जयंत,अपराजित के देव उत्कृष्टता से दो भवतारी होते है !
भावार्थ-नवअनुदिश और चार अनुत्तरों के;१३ देव अधिकतम २ भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेते है!अर्थात देव इस भव की आयु से च्युत होकर ,मनुष्य भव में उत्पन्न होकर संयमादि धारण कर पुन:विजयादि में उत्पन्न होकर अगला भव पुन: मनुष्य भव पाकर मोक्ष प्राप्त करते है !
विशेष-
१-नवअनुदिशों और ५ अनुत्तरों में ,मिथ्यादृष्टि नहीं केवल सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते है!
२-सूत्र में,सर्वार्थसिद्धि के देवों को नहीं लिया क्योकि वे उत्कृष्टतम विशुद्धि के धारक एक भवतारी ही होते है अर्थात यहाँ से च्युत होकर,मनुष्य पर्याय में उपन्न होकर नियम से मोक्ष प्राप्त करते है ! इनके अतिरिक्त दक्षिणेन्द्र,सौधर्मेन्द्र की इन्द्राणी,सौधर्मेन्द्र स्वर्ग के लोकपाल,और लौकांतिक देव भी एक भवतारी होते है !
३- नवअनुदिशों और ४ अनुत्तरों के ये १३ देव एक भव में भी मोक्ष प्राप्त कर सकते है किन्तु नियम से दूसरी बार मनुष्य भव में उत्पन्न होकर तो निश्चित रूप से मुक्त हो जाते है !
तिर्यंच का लक्षण
औपपादिकमनुष्येभ्य:शेषास्तिर्यग्योनय:!!२७!!
सन्धिविच्छेद :-औपपादिक +मनुष्येभ्य:+शेषा:+तिर्यञ्च+योनय :
शब्दार्थ -औपपादिक-उपपाद जन्म वाले ,मनुष्येभ्य:-मनुष्यों,शेषा:-के अतिरिक्त सभी, तिर्यंच :-तिर्यंच, योनय:-योनी वाले है
अर्थ-उपपाद जन्म वाले देवों ,नारकियों और मनुष्यों के अतिरिक्त सभी तिर्यंच योनी के जीव है !
भावार्थ -देव नारकी और मनुष्यों के अतिरिक्त समस्त जीव तिर्यंच है !
विशेष-
१-एकेन्द्रिय जीव भी तिर्यंच ही है जो की समस्त लोक में व्याप्त है!इसलिए इनका कोई अलग से लोक नहीं है !
२-त्रस जीव मात्र लोकनाड़ी में रहते है !
भवनवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति
स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणाम्सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिता:!!२८!
सन्धिविच्छेद :-स्थिति+असुर+नाग+सुपर्ण+द्वीप+शेषाणाम्+सागरोपम+त्रि+पल्योपम+अर्द्ध+हीनमिता:
शब्दार्थ-स्थिति-आयु,असुर,नाग,सुपर्ण,द्वीप+शेषाणाम्-बाकियों की,सागरोपम-सागर त्रि-तीन,पल्योप-पल्य+अर्द्ध-आधा-आधा,हीनम् -कम कम +इताअर्थात आधा आधा पल्य कम ,क्रमश २.५ ,२.०,१.५ पल्य है
अर्थ- भवनवासी देवों में असुरकुमार की आयु १ सागर ,नाग कुमार की ३ पल्य , सुपर्ण कुमार की २.५ पल्य ,द्वीप कुमार की २ पल्य तथा शेष छ देवोँ विद्युतकुमार,अग्निकुमार,वातकुमार ,स्तनिक कुमार ,उदधि कुमार और दिक्कुमार की १.५ पल्य है!
सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्ग में उत्कृष्टायु -
सौधर्मैशानयो:सागरोपमेअधिक !!२९!!
संधि-विच्छेद -सौधर्म+ऐशानयो:+सागरोपमे+अधिक
शब्दार्थ-सौधर्म-सौधर्म,ऐशानयो-:और ऐशान स्वर्गों में, सागरोपमे- दो सागरसे, अधिक-अधिक (कुछ)
अर्थ-सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्गों के देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागर से कुछ अधिक है !
भावार्थ-सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्गों में देवो की उत्कृष्ट आयु साधारणतया २ सागर है !किन्तु घातायुष्क सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा उत्कृष्ट आयु २ सागर से आधा सागर अधिक अर्थात ढाई सागर है !
विशेष-
१-घातायुष्क-उस जीव को कहते है जो पहले आयु बंध के अपकर्ष काल में विशुद्ध परिणामों के कारण अधिक आयु की स्थिति बंध कर किसी उपरिम स्वर्ग की आयु का बंध करता है किन्तु किसी बाद के अपकर्ष काल में परिणामों की विशुद्धता में कमी आने के कारण कम स्थिति करलेता है यह उस जीव की घातायुष्क कहलाती है !
२-किसी जीव ने यदि २ सागर की आयु का वैमानिक देव की गति का बंध किया तो वह प्रथम युगल में २ सागर की आयु के साथ जन्म लेगा और यदि २ सागर से १ समय अधिक का बंध किया तो वह दुसरे युगल अर्थात सनत्कुमार-महेंद्र में २ सागर १ समय की आयु के साथ उत्पन्न होगा !
किन्तु यदि कोई मुनिराज पाहिले नव ग्रैवेयिक की आयु ३१ सागर का बंध करते है किन्तु बाद में विशुद्धि के गिरने के कारण प्रथम स्वर्गों की २ सागर का बंध कर लेते है तब वे घातायुष्क सम्यग्दृष्टि है, उनका उत्कृष्तायु का बंध इस स्वर्गों के युगल में वह ढाई सागर से १ अंतर्मूर्हत कम का होगा,न की २ सागर का
सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों में देवों की उत्कृष्टायु -
सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: सप्त !!३०!!
संधि विच्छेद-सानत्कुमार+माहेन्द्रयो:+सप्त
शब्दार्थ-सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: -सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में,सप्त -सात सागर से कुछ अधिक उत्कृष्ट आयु है
अर्थ -सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट आयु सात सागर है !घातायुष्क सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा सात सागर से आधा सागर अधिक अंतर्मूर्हत कम है !
RE: तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र २१से ३० तक -
Manish Jain - 07-15-2023
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तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1
अध्याय 2
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