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तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ४ - Printable Version

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तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ४ - scjain - 03-16-2016

साता वेदनीय(सुख देने वाले) कर्मो के आस्रव के कारण-

भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगक्षांतिःशौचमितिसद्वेद्यस्य-१२
संधि विच्छेद -भूत+अनुकम्पा+व्रत्य+दान+सरागसंयम+आदि+योगः+क्षांतिः+शौचम्+इति+सद्वेद्यस्य
शब्दार्थ-भूत-(जीवमात्र) पर,अनुकम्पा-दया करना,व्रत्यदान-व्रतियो को दान देना,सरागसंयमादि-सराग संयम,-संयमासंयम,आदि(अकामनिर्जरा और बालतप) का भली प्रकार पालन करना,योगः-मन,वचन,काय की वृत्ति को त्यागना,क्षांतिः-कषायो की मंदता रखना,शौचम्-लोभ वृत्ति को त्यागना,इति-तथा अन्य शुभ कार्य,सद्वेद्यस्य-सातावेदनीय के आस्रव है।
भावार्थ-भूत अनुकम्पा-जीव मात्र पर दया करते हुए उनके दुःखो को दूर करने के परिणाम होना, तथा उनके निवारण हेतु प्रयासरत रहना,व्रत्यदान-व्रतियो को दान देना,कोई व्रती नगर मे आये तो स्वयं के लिए शुद्ध आहार बनाकर,पहले उन्हे शुद्ध आहारदान कर,स्वयं ग्रहण करना!भाव होना चाहिए कि मैंने यह आहार अपने लिए बनाया है,मेरे पुण्योदय से महाराज के स्वयं पधारने पर उन्हें आहार दूंगा!
मुनि महाराज के निमित्त का आहार कभी नही बनाया जाता है अन्यथा आहार सदोष होता है! उनके ठहरने के लिए स्थान,स्वाध्याय के लिए शास्त्रजी,पिच्छि-कमंडल की व्यवस्था करना।
दान-अपना द्रव्य दान मे,अपने व पर के कल्याण के लिए दिया जाता है।
नोट कुछ टीकाकारों ने,इस सूत्र के व्याख्या करते हुए कहा है भूत-प्राणी मात्र व्रती-'व्रतियों पर अनुकम्पा- दया और दान करना अर्थात उनके आहारादी,वैय्यावृत्ति की व्यवस्था आदि करना'-आचार्य श्री विद्या सागर जी एवं पंडित रतनलाल बैनाडा जी के अनुसार उचित नहीं प्रतीत होता क्योकि क्या हम व्रतीयों  पर दया कर उनके लिए आहार बनायेगे या वैयावृत्ति करेंगे?इस अपेक्षा से इसकी व्याख्या,"प्राणी मात्र पर अनुकम्पा -दया और व्रतियों को दान देना",होनी चाहिए.जो की ठीक प्रतीत होती है,!सरागसंयम-मुनि अवस्था धारण करना,संयमासंयम-व्रती,पहली प्रतिमा धारी से ११वी प्रतिमाधारी तक क्षुल्लक,ऐल्लक,आर्यिका बनना,अकाम निर्जरा-अचानक कष्ट आने से उसे शांत परिणामों के साथ सहना।जैसे खड़े-खड़े यात्रा करने पर कष्ट को सहजता से सहना। महिलाओं को अकाम निर्जर के प्रसंग बहुत आते है जैसे; परिवार के सभी सदस्यों को अपने से पहले भोजन कराने के बाद, अंत में, अपनी मन पसंद की वस्तु समाप्त हो गयी तो, यह उन्हें सहना पड़ता है,यदि वे इसे सहजता से,शांत परिणाम के साथ सहेगी तो अकाम निर्जर होगी!सत्याग्रह आदि के आन्दोलन में मान लीजिये कारागार जाना पड़े तो,कारावास सहजता से सहना,अकाम निर्जर है! बालतप-अन्य मति द्वारा अज्ञानता पूर्वक (जैन मत की अपेक्षा) किया गया तप,बालतप कहलाता है।वह भी कषायो की मंदता के कारण सातावेदनीय कर्म के आस्रव का कारण है।क्षांतिः-क्रोध,मान,माया,लोभ से दूर रहना। कषायो की मंदता रखना।क्रोध आदि के प्रसंगों में भी क्रोध नहीं करना, बहुत धन,संपत्ति,वैभव की प्राप्ति पर घमंड नहीं करना, कैसा ही प्रसंग आ जाये स्पष्ट बोलना,मायाचारी नहीं करना!शौचम्-अपनी आमदनी का आगमानुसार,निश्चित भाग बिना मांगे दान मे देना,लोभ वृत्ति को त्यागना,इति-तथा अन्य शुभ कार्य,जैसे जिनेन्द्र भगवान की पूजा,भक्ति,स्तवन,आरती करना,स्वयं स्वाध्याय करना, अन्यों को कराना,तपश्चरण,एकासन उपवास करना,किसी रस का त्याग कर भोजन लेना,गरीबो पर दया करना,उन मे कम्बलादि का वितरण करना,उनकी पढ़ाई के लिए छात्रवृति देना,उनकी बिमारी के लिये औषधि,औषधालय,डाक्टर आदि का प्रबंध करने से भी सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
दर्शन मोहनीय (संसार भ्रमण मे प्रबलत्तम) कर्मो के आस्रव के कारण-
केवलीश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य १३
संधि-विच्छेद-केवली+श्रुत+संघ+धर्म+देव+अवर्णवादो+दर्शनमोहस्य 
शब्दार्थ -केवलीअवर्णवादो -केवली भगवान् मे अविद्यमान दोषारोपण करना।जैसे केवली वस्त्र धारण करते है या वे कवलाहार लेते है।ऐसा कहना केवली अवर्णवाद है।ऐसा कहने वालो के महान दर्शनमोह नीय कर्मो का आस्रव होगा,श्रुत अवर्णवादो-भगवान द्वारा दिया गया उपदेश के अनुसार रचे गये शास्त्र और उनकी परम्परा से लिखी गई वर्तमान जिनवाणी मे दोषारोपण करना,जैसे कहना कि आलू मॆ सूक्ष्म जीव पाये जाते है अतः उसके सेवन मे दोष नही है,मांस सेवन मे दोष नही है ऐसा जिन वाणी मे लिखा है आदि कहना श्रुत अवर्णवाद है।श्रुत मे तो त्रस/स्थावर जीवो की हिंसा का पूर्णतया निषेध है।संघअवर्णवादो-चार प्रकार का ऋषि,यति,मुनि,अंगार या मुनि,आर्यिका श्रावक,श्राविका आदि मे गल्त दोष लगाना।मुनियो पर दोष लगाना कि ये मलिन है,मंजन,स्नान नही करते,य़े निर्लज है,नग्न रहते है।नग्नता उनकी काम वासना पर तथा शीत और उष्णता की बाधा पर विजय का प्रमाण पत्र है,ये उनके ख्याति के प्रसंग है,किंतु उन पर इस प्रकार दोषारोपण करना संघावर्णवाद है;जो दर्शन मोहनीय के आस्रव का कारण है,धर्मावर्णवादो-भगवान् द्वारा प्रणीत जिनधर्म मे गल्त दोष लगाना, जैसे कहना जिनधर्म हमे अहिंसावादि होने के कारण कायर बनाते है चिंटी को न मारो। ये धर्मावर्णवाद है;दर्शनमोहनीय के आस्रव का कारण है।ऐसे निन्दा करने वाले जीव अधोगति पाते है। देवअवर्णवादो-जो दोष देवो मे नही है वह उनमे गल्त दोष लगा देना। जैसे कहना कि देव मांस भक्ष्ण,मदिरा सेवन,सारे निंदनीय कार्य भी करते है ऐसा कहना देवो का अवर्णवादो है।यह दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है.अवर्णवादो-जो दोष उनमे नही है वह उनमे लगा देना। दर्शनमोहस्य -दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के कारण है।
भावार्थ-दर्शन मोहनीय का अर्थ मिथ्यात्व है।केवली,श्रुत,संघ,धर्म और देवों मे जो दोष नही है उनका दोषारोपण करने से अन्नतकाल तक संसार मे भ्रमण कराने वाले घोर दर्शनमोहनीय का आस्रव होता है।अतः इनसे हमे बचना चाहिए।
शंका-यदि हम केवली,श्रुत,संघ,धर्म और देवों में दोष न लगाये,क्या तब दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा?
समाधान- उक्त  मुख्य कारण दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के है, इनके अलावा अन्य बहुत से कारण भी है जैसे,1-जो रोज़ दर्शन करने मंदिर नही जाते,2-जो अन्य मतियो के देव-शास्त्र गुरू पर श्रद्धा रखते है,अपने पर नही रखते है,3-सप्त तत्वो के श्रद्धान मे दृढ़ता के अभाव मे, शिथिलता मे, सम्यक्तव के दोषो को न हटाने पर,६ अनायतनो मे लगे रहने से,८ मदो के सद्भाव मे,दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है,4-शास्त्रो के अर्थ का अनर्थ जान बूझकर,अपने मत की पुष्टि हेतु,शास्त्रो मे हेर फेर करने वालो के,दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा।5- सम्यक्त्व के विरोधी समस्त क्रियाओं से दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है!आदि भी दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है !
चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण-
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य १४
संधिविच्छेद-कषाय+उदयात्+तीव्र+परिणामः+चारित्रमोहस्य
शब्दार्थ--कषाय-कषाय,क्रोध,मान,माया,लोभ के,उदयात्-उदय से.तीव्र-तीव्र,परिणामः-परिणामो के होने से,चारित्रमोहस्य-चारित्रमेहनीय कर्म का आस्रव होता है
भावार्थ-तीव्र क्रोध,मान,माया,लोभ या तीव्र नो कषाय रूप परिणामो के होने से चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव होता है।जैसे बात-बात मे क्रोधित होना!धन,सम्पत्ति,ज्ञानादि अधिक होने पर घमण्डित होने से, मायाचारी से और निरंतर तीव्र लोभवश परिग्रहो के संघ्रह मे लगे रहने से, चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव होता है।
चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के अन्य कारण-
१-अपने को श्रेष्ठ मानकर,जो अन्यों की मजाक बनाते है,खिल्ली उड़ाते है,उनके हास्य नोकषाय कर्म का उदय/आस्रव होता है,२-जो अपने मकान, आदि को अच्छा बनाने में लगे रहते है उनके रति नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!३-जिन्हें अन्यों के गंदे मकान,गंदे वस्त्र आदि को देखकर अच्छा नहीं लगता,घृणा करते है,उनके अरति नोकषाय का आस्रव होता है!४-रोगी,कोडी,मुनि आदि को देखकर जो घृणा करते है उनके जुगुप्सा नोकषायकर्म का आस्रव होता है!५-जिन्हें अन्य को दु:खी करने में आनंद आता है उन्हें शोक नोकषाय का आस्रव होता है!६-जो स्वयं डरते है अथवा अन्यों को डराते है उन्हें भय नोकषायकर्म का आस्रव होता है!७-जो पुरुषों में वासना रूप परिणाम रखते है उनके स्त्री वेद नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!८-जो स्त्री में वासना रूप परिणाम रखते है उनके पुरुषवेद नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!९-जो स्त्री और पुरुषों दोनों में वासना रूप परिणाम रखते है उनके नपुंसक  नोकषायकर्म का आस्रव होता है!
ये समस्त कषाय और नो कषाय के आस्रव आत्मा को पतित करने वाले है,अत: हमें इनकी तीव्रता से बचना चाहिए जिससे चरित्र मोहनीय के आस्रव से हम बच सके!
क्या मंद कषाय होने से चारित्र मोहनीय का आस्रव नहीं होगा ?
यहाँ आस्रव के प्रमुख्य कारणों की चर्चा है, चारित्र मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट आस्रव कषायों के तीव्र उदय के कारण होता है!चारित्र मोहनीयकर्म का उत्कृष्ट आस्रव कषायों के तीव्र उदय के कारण होता है!आस्रव के अनेक कारण होते है!मंदकषाय के उदय में भी,४ थे से १०वे गुणस्थानों तक चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव/उदय तो होता ही है!किन्तु यहाँ तीव्र आस्रव की चर्चा करी है!
किस कर्म के उदय से स्त्री पर्याय मिलती है ?
1-जो दुसरे के दोषों को देखने में निरंतर लगे रहते है2-जो स्त्री पर्याय मिलने पर निरंतर श्रृंगार में लगी रहते है,अपनी स्त्री पर्याय में संतुष्ट रहती है,3-मायाचारी जिनमे विशेष रूप से पायी जाती है, उनके स्त्रीवेद का आस्रव होता है!
इससे बचने के लिए विचार करना चाहिए की स्त्री पर्याय बड़ी निंदनीय है क्योकि अनेकों अशुद्धि के प्रकरण स्त्री पर्याय में आते है,यह कितनी पराधीन पर्याय है,मैंने पूर्व जन्म में कैसे पाप कर्म किये होंगे जो मुझे स्त्री पर्याय प्राप्त हुई!इस प्रकार निरंतर स्त्री पर्याय की निंदा सहित उसमे प्रवृत रहना पुरुषवेद के आस्रव का कारण है!



RE: तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ४ - Manish Jain - 09-27-2020

मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी महाराज
तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय | अध्याय 6 | सूत्र 11 12 13 | 
23 Sept.2020


तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय | अध्याय 6 | सूत्र 14 , 15 ,16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23 |
24 Sept.2020




RE: तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ४ - SaloniSharma - 02-05-2021

What are these adhyay all about?


RE: तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ४ - Manish Jain - 05-11-2023

क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

(59) भूतानुकंपा और व्रत्यानुकंपा की सद्वेद्यास्रवहेतुता―भूतानुकंपा, व्रत्यनुंपा दान, सरागसंयम आदिक का योग क्षमा, पवित्रता ये सब सातावेदनीय के आस्रव के कारण होते हैं । इसमें 1-प्रथम कारण बताया है भूतानुकंपा । भूतों की अनुकंपा―अनुकंपा दया को कहते हैं, किसी दुःखी को देखकर उसके अनुसार दिल कंप जाना सो अनुकंपा है । भूत कहते हैं प्राणियों को । भूत शब्द बना है भू धातु से, जिसमें अर्थ यह भरा है कि आयु नाम कर्म के उदय से जो उन योनियों में होते हैं। जन्म लेते हैं वे सब प्राणीभूत कहते हैं। सर्व जीवों की दया करना सो भूतानुंपा है । इस जीवदया के परिणाम से सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है । जिसके उदयकाल में यह जीव भी साता पायगा । 2-दूसरा है व्रत्यनुकंपा―व्रती जनों पर अनुकंपा होना सो व्रत्यनुकंपा है । व्रत हैं 5―अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन व्रतों का जो संबंध बनाता है, इन व्रतों का जो पालन करता है वह व्रती कहलाता है चाहे गृहस्थ हो और चाहे गृहस्थों को छोड़कर निर्ग्रंथ दिगंबर हों, उन सब व्रतियों पर अनुकंपा होना व्रत्यनुकंपा है । यहां एक शंका यह हो सकती है कि जब पहले भूतानुकंपा कही जिसमें सर्व जीवों की दया आ ही गई तो व्रती अनुकंपा का शब्द अलग से करना व्यर्थ है । तो उत्तर इसका यह है कि भले ही सामान्य का निर्देश करने से सर्व विशेष भी आ गए, सब जीवों में व्रती भी आ गए फिर भी सर्व जीवों की अपेक्षा से व्रतियों की प्रधानता बतलाने के लिए व्रत्यनुकंपा शब्द अलग से कहा गया है, जिसका स्पष्ट अर्थ यह होता है कि जीवों में जो अनुकंपा की जाती है उसकी अपेक्षा व्रतियों में अनुकंपा करना प्रधानभूत है अर्थात् विशिष्ट है, श्रेष्ठ है, तो ऐसा प्रधान बतलाने के लिए व्रत्यानुपकंपा अलग से कहा है । अनुकंपा का अर्थ है अनुग्रह से भीगे हुए चित्त में दूसरे की पीड़ा का इस तरह अनुभव करना कि मानो मुझ ही में हो रही है । पीड़ा इस तरह अपने हृदय में पीड़ा करने पर जो अनुकंपन होता है, दयालु चित्त होता है, उस दुःख की वेदना होने लगती है वह कहलाती है अनुकंपा । अनुकंपा शब्द एक है और वह दोनों में लगना है, भूतों में अनुकंपा और व्रती जनों में अनुकंपा । सो पहले भूत और व्रती इन दो शब्दों का द्वंद्व समास किया गया है । 'भूतानि च व्रतिन: च इति भूत व्रतिनः' फिर इसमें तत्पुरुष समास किया गया । 'भूतव्रतिषु अनुकंपा भूतव्रत्यानुकंपा' । प्राणी और वृतियों में अनुकंपा होना ।

(60) दान व सरागसंयम की सद्वेद्यास्रवहेतुता―(3) तीसरा कारण बतला रहे हैं दान । दूसरे पर अनुग्रह बुद्धि होनेसे अपने वस्तु का त्याग करना दान कहलाता है । जैसे किसी प्राणी पर दया आयी अथवा किसी व्रती पर भक्ति उमड़ी तो उनकी सेवा के लिए अपने धन का परित्याग करना यह दान कहलाता है । (4) चौथा कारण बतला रहे हैं सरागसंयम । सराग का अर्थ है रागसहित । पहले उपार्जित किए गए कर्म के उदय से ऐसा संस्कार बना है, अभिप्राय बना है कि कषाय का निवारण नहीं हो सकता । फिर भी जो कषाय निवारण के लिए तैयार है ऐसा पुरुष सराग कहलाता है । यद्यपि सराग शब्द का सीधा अर्थ है रागसहित, किंतु इसके साथ संयम लगा होने से यह अर्थ ध्वनित हुआ कि यद्यपि राग का निवारण नहीं किया जा सकता फिर भी रागनिवारण के लिए जिसका लक्ष्य बना है, राग दूर करना चाहता है उसे कहते हैं सराग और संयम का अर्थ है प्राणियों की रक्षा करना या इंद्रिय विषयों में प्रवृत्ति न होने देना यह है संयम । भले प्रकार आत्मा में नियंत्रण करने को संयम कहते हैं । सो सराग पुरुषके संयम को सराग संयम कहते हैं अथवा राग सहित संयम को सराग संयम कहते हैं ।

(61) आदि शब्द से गृहीत अकामनिर्जरा संयमासंयम व बालतप की सद्वेद्यास्रवहेतुता―सरागसंयम के बाद आदि शब्द दिया है अर्थात् आदि लगाकर अन्य भी ऐसी ही बात सातावेदनीय के आस्रव का कारण होती है यह जानना । तो उस आदि शब्दसे क्या-क्या ग्रहण करना, उनमें से कुछ का नाम बतलाते हैं कि जैसे (5) अकामनिर्जरा―जीव स्वयं नहीं चाह रहा कि मैं ऐसा तप करूं या ऐसा उपसर्ग अपने पर लूं या दुःख का परिणाम बनाऊँ, फिर भी किसी परतंत्रता के कारण उपभोग का निरोध होना, ऐसी स्थिति आ जाये तो शांति से सह
लेना अर्थात् कोई उपद्रव आ जाये, भूखा रहना पड़े, गर्मी सहनी पड़े, कहीं पहुंच रहे, कुछ चाहते भी नहीं है ऐसा क्लेश, पर अगर आ गया है तो उसे शांति से सह लेना यह कहलाती है अकामनिर्जरा । (6) एक है संयमासंयम । कुछ निवृत्ति होना, सर्वथा पापसे तो निवृत्ति। नहीं है, पर एक देश पापसे हट जाना संयमासंयम कहलाता है । ये सब सातावेदनीय के आस्रव के कारण होते हैं । (7) एक है बालतप―मिथ्यादृष्टि जीवों के जो तप है, जैसे अग्निप्रवेश, पंचाग्नि तप, यह बालतप कहलाता है । ये भी सातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं, मगर हैं ये
निकृष्ट कारणभूत । विशिष्ट सातावेदनीय का आस्रव नहीं है साधारणरूप से, क्योंकि उनके अज्ञान छाया है, जानकर समझकर विवेकपूर्वक कोई प्रवृत्ति नहीं है, लेकिन धर्म नाम की श्रद्धा है, मैं धर्म के लिए कर रहा हूं, ऐसी स्थिति में उन मिथ्यादृष्टि जनों का जो तपश्चरण आदिक है वह बालतप कहलाता है ।

(62) योग क्षांति व शौचभाव की सद्वेद्यास्रवहेतुता―(8) योग―निर्दोष क्रिया करने का नाम योग है । अर्थात् पूर्व उपयोग से जुट जाना, दूषण से हट जाना । इसके अतिरिक्त (9) क्षमाभाव भी सातावेदनीय के आस्रव का कारण है । शुभ परिणाम से क्रोधादिक हटा देना क्षमा कहलाता है । इस क्षमासे सातावेदनीय का आस्रव होता जिसके कारण आगे इन कर्मों का उदय होने पर इस जीव को साता मिलेगी । (10) एक कारण है शौच, पवित्रता―लोभ के प्रकारों से अलग हो जाना शौच है, जिस लोभ के मुख्य तीन प्रकार हैं―अपने द्रव्य का त्याग न कर सकना, दूसरे के द्रव्य का हरण कर लेना, और किसी की धरोहर को हड़प जाना और भी अनेक प्रकार हैं । पर एक व्यवहार में लोभीजनों की जैसी वृत्ति होती है उसके अनुसार कह रहे हैं । एक तो ऐसे लोभी होते जो स्वद्रव्य का त्याग नहीं कर सकते धन खर्च नहीं कर सकते, एक ऐसे लोभी होते हैं कि जो दूसरे के द्रव्य का भी हरण करना चाहते हैं व करते हैं, और एक ऐसे लोभी कि जिनके पास कोई अपनी चीज रख जाये तो उसको हड़पना चाहते और हड़प लेते हैं । इस प्रकार लोभ का परित्याग करना शौच भाव है । ऐसी वृत्ति अर्थात् ऐसे ऐसे अन्य भाव भी साता वेदनीय के आस्रव के कारण हैं ।

(63) सूत्रोक्त सब परिणामों का समास करके एक पद न करने का कारण एवंविध अन्य भावों का संग्रहण―इस सूत्र में बात दो ही तो कही गई हैं कि ऐसी ऐसी बातें साता वेदनीय आस्रव के कारण हैं । तो केवल दो ही पद होने चाहिएँ थे सो उस एक पद को जिसमें सारी घटनायें बतायी हैं आस्रव के कारणभूत उनके लिए तीन पद किए गए हैं और फिर इति शब्द भी लगाया है । उनका समास क्यों नहीं किया गया, समास कर देते तो सूत्र में लघुता आ जाती । यहाँ एक ऐसी शंका होती है । उसका उत्तर यह है कि अलग-अलग कुछ पद यों लगाये कि ऐसे अन्य भाव भी संग्रहीत कर लिए जाये मायने इतने भाव तो सूत्र में बताये हैं पर ऐसे ही अन्य भाव हैं जो सातावेदनीय के आस्रव के कारण होते हैं, और इसी प्रकार यह भी प्रश्न हो सकता कि इति शब्द लिखना भी व्यर्थ है । तो एक तो समास न करके अलग-अलग लिखा और एक इति शब्द लिखा तो यह कुछ अनर्थक सा होकर सार्थकता को घोषित करता है । अर्थात् अन्य का भी संग्रह करना । वह अन्य क्या-क्या है जिसका यहां संग्रह किया जाना चाहिए । तो सुनो―अरहंत प्रभु की पूजा, यह परिणाम साता वेदनीय के आस्रव का कारण है । वयोवृद्ध तपस्वीजनों की सेवा यह परिणाम साता वेदनीय के आस्रव का कारण है । छल कपट न होना, सरलता बनी रहना, किसी को लोंधा पट्टी की बात न कहना ऐसी स्वच्छता साता वेदनीय के आस्रव का कारणभूत है । ऐसे ही विनयसंपन्नता पर जीवों का आदर करना सबके लिए विनयशील रहना यह भी साता वेदनीय के आस्रव का कारण है ।

(64) नित्यत्व या अनित्यत्व के एकांत में परिणामों की अनुपपत्ति―यहां एक दार्शनिक बात समझना कि जीव को जो लोग सर्वथा नित्य मानते हैं, उनके ये बातें घटित नहीं हो सकती याने दया करना, दान करना, संयम पालना आदिक बातें जीव को सर्वथा नित्य मानने वाले में घटित नहीं हो सकती और आत्मा से सर्वथा भिन्न, क्षणिक मानने में भी ये सब घटित नहीं हो सकते । जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है पर्यायदृष्टि से अनित्य है । ऐसा जीव का स्वभाव है । बना रहता है और परिणमता रहता है । तो ऐसे जीव के अनुकंपा आदिक परिणाम विशेष होते हैं । पर केवल नित्य हो तो परिणति ही नहीं, दया आदिक कहाँ से हो सके? एक अनित्य हो । एक समय को ही आत्मा है फिर नहीं है तो वहाँ करुणा, दान आदिक कैसे संभव हो सकते? सर्वथा नित्य मानने वालों के यहां तो विकार माना ही नहीं गया, उनमें कुछ बदल परिणमन जब नहीं माना गया तो दया आदिक कैसे हो सकते? और यदि दया आदिक मान लिये जायें तो वे सर्वथा नित्य कहां रहे? इसी तरह जो क्षणिक एकांत का सिद्धांत मानते हैं तो उनका ज्ञान तो क्षणिक रहा और दया आदिक तब ही बनते जब पहली और उत्तर पर्याय का घटना का ग्रहण किया जाये । सो यह बात क्षणिक में कैसे बनेगी सो अनुकंपा भी नहीं बन सकती । इससे जीव नित्यानित्यात्मक है तब ही तो वहां अनुकंपा आदिक के परिणाम बनते हैं । इस प्रकार सातावेदनीय के आस्रव के कारण बताये । अब इसके अनंतर मोहनीय कर्म का नंबर है जैसा कि सूत्र में ही क्रम दिया जायेगा । सो मोहनीय के दो भेद हैं―1-दर्शनमोहनीय और 2-चारित्रमोहनीय जो आत्मा के सम्यक्त्वगुण को प्रकट न होने दे वह है दर्शनमोहनीय और जो आत्मा में चारित्रगुण को न प्रकट कर सके सो है चारित्रमोहनीय । तो उसमें दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारण बताये जा रहे हैं ।


RE: तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ४ - Manish Jain - 07-17-2023

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