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तत्वार्थ सुत्र अध्याय ८ भाग ३ - Printable Version

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तत्वार्थ सुत्र अध्याय ८ भाग ३ - scjain - 04-23-2016

दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेद्नीयाख्यासत्रि-द्वि-नव-षोडशभेदा: सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा स्त्रीपुन्नपुंसकवेदाअनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्जवलन विकल्पाश्चैकशःक्रोधमानमायालोभः !!९!!
संधिविच्छेद:-
(दर्शन+चारित्र)+मोहनीय+(अकषाय+कषाय)वेद्नीय+आख्यास+त्रि+द्वि-नव+षोडश+भेदा:+सम्यक्त्व+मिथ्यात्व+तत्+उभयानि+(अकषाय+,कषाय)वेद्नीय+हास्य+रति+अरति+शोक+भय+जुगुप्सा+स्त्रीवेदा+ पुरूषवेदा+नपुंसकवेदा+अनन्तानुबन्धि+अप्रत्याख्यान+प्रत्याख्यान+ संज्जवलन+विकल्पा:+च+ऐकशः+क्रोध+मान+माया+लोभः 
शब्दार्थ-दर्शन-दर्शनमोहनीय,चारित्र-चारित्रमोहनीय;अकषाय-अकषायवेदनीय और कषाय वेद्नीय,आख्यास-कहे है,त्रि-तीन,द्वि-दो,नव-नौ,षोडश-१६,भेदा:-भेद हैं,सम्यक्त्व+मिथ्यात्व+तत्+उभयानि+अकषायवेद्नीय कषायौवेद्नीय;हास्य,रति,अरति,शोक,भय,जुगुप्सा,स्त्रीवेदा,पुरूषवेदा,नपुंसकवेदा;अनन्तानुबन्धि,अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान,संज्जवलन,विकल्पा:-विकल्प से,चैकशः-चार-प्रत्येक के;क्रोध,मान,माया,लोभः 
अर्थ-मोहनीयकर्म के दो भेद;
१-दर्शनमोहनीय -तीन भेद; (क)सम्यक्त्वप्रकृति,
(ख)मिथ्यात्वप्रकृति और 
(ग) (तत्-उनके,उभायानि-उनके उभय )-अर्थात सम्यक-मिथ्यात्व प्रकृति है!और 
२-चरित्र मोहनीय-दो भेद; 
(क)अकषाय वेदनीय के ९- हास्य रति, अरति,शोक,भय,जुगुप्सा, स्त्रीवेद,पुरुषवेद और नपुंसक वेद है! और 
(ख) कषायवेदनीय के १६ भेदअनंतानुबंधी,अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान और संज्वलन के विकल्प से प्रत्येक के चार- चार भेद क्रोध,मान,माया,लोभ है,!
भावार्थ-
मोहनीय कर्म-जो कर्म आत्मा को मोहित करे,आत्मा के दर्शन,चरित्रगुण का घात करे!
१-दर्शनमोहनीय-जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करता है,दर्शनमोहनीय कर्म है!
(क)  सम्यक्त्व प्रकृति-सम्यक्त्वप्रकृति,सम्यक्त्व का घात तो नहीं करती,किन्तु सम्यक्त्व को सदोष करती है!सम्यगदर्शन में चल,मल,अगाढ़ दोष जिसके उदय में लगते हैं वह सम्यक्त्वप्रकृतिहै!  
चलदोष-शांतीनाथ भगवान् शांति प्रदान करते है पार्श्वनाथ भगवान् संकट मोचक है,अमुक हमारी बिरादरी का मंदिर है,आदि मानना चलदोष है! 
मल दोष-सम्यक्त्व के २५ दोष में से किसी का कदाचित कभी सम्यक्त्व में लग जाना!
अगाढ़ दोष-श्रद्धान है किन्तु प्रगाढ़ नहीं होना,अगाढ़ दोष है!जैसे किसी वृद्ध की लाठी चलते समय हिलती डुलती रहना! 
(ख)मिथ्यात्व प्रकृति- के उदय में तत्वों में श्रद्धान समाप्त अथवा विपरीत हो जाता है 
(ग) सम्यक-मिथ्यात्व प्रकृति-जहा आत्मा के कुछ परिणाम सम्यक्त्व रूप होते है और कुछ मिथ्यात्व रूप होते है जैसे अपने सच्चे देव वन्दनीय है ही,किन्तु अन्य मतियों के देवों का चमत्कार देख ने पर मानना की इनके पास इतन्रे भीड़ आती है ये भी सच्चेदेव से ही है,ऐसे मानते ही चतुर्थ गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में जीव आजाते है जिसका अधिकत्तम काल अंतरमूहूर्त है!यदि वह यही मानते रहे की अन्य मती के देव अपने जैसे सच्चे है तो तीसरे से प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान में,मिथ्यात्व के उदय के कारण गिर जायेगे किन्तु यदि पुन: अपने को संभाल कर विचार आया की नहीं अपने वीत रागी,हितोपदेशी,सर्वज्ञ ही सच्चे देव है अन्य नहीं तो तीसरे से फिर चौथे गुणस्थान में पहुँच जायेगे क्योकि मिथ्यात्व का उदय नहीं रहेगा! 
२-चरित्र मोहनीय-जो आत्मा के चरित्र गुण का घात करता है,चरित्र मोहनीय है! 

(क)अकषाय वेदनीय–किंचित (मंद) कषाय का वेदन कराये!(१) हास्य -जिसके उदय से हस्सी आवे ,२-रति-जिसके उदय से कोई वस्तु अच्छी लगे,३-अरती-जिसके उदय से कोई वस्तु अच्छी नहीं लगे,४-शोक-जिसके उदय से इष्ट वस्तु के वियोग में शोक अनुभव हो,५- भय-जिसके उदय से भय लगे,६-जुगुप्सा-जिसके उदय से घृणा का भाव जागृत हो,७-स्त्री वेद-जिसके उदय में पुरुष से रति के भाव जागृत हो,८-पुरुष वेद-जिसके उदय में स्त्री से रति के भाव जागृत हो,९-नपुंसकवेद-जिसके उदय में स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति रति के भाव जागृत हो !  
(ख) कषाय वेदनीय-जो कर्म कषाय का वेदन कराये!

अनंतानुबंधी-क्रोध,मान,माया,लोभ.-अनंतानुबंधी कषाय आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र,दोनों गुणों का घात करती है!अनंतानुबंधी कषाय के उदय में विपरीत अभिप्राय होने से या अभिप्राय के दोषित होने से,सम्यक्त्व का घात होता है,तत्वों का श्रद्धान समाप्त हो जाता है!इसीलिए चतुर्थगुणस्थान में उपशम सम्यगदृष्टि जीव के कदाचित अनंतानुबंधी का उदय होसे वह सम्यक्त्व से छूट कर दूसरे गुणस्थान ससदान में आकर सम्यक्त्व रहित हो जाता है!अभी मिथ्यादृष्टि तो नहीं कहेगे,क्योकि मिथ्यात्व का उदय नहीं आया!अनंतानुबंधी कषाय चारित्र की घात करने वाली अन्य तीन अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्या ख्यानावरण और संज्वलन कषाय के प्रवाह को अनंत बनाये रखती है,कहती है जब तक मैं हूँ तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता! जो क्रोध,मान,माया,लोभ रूप परिणाम ६ माह से अधिक रह जाए जैसे किसी से लड़ाई होने पर बैर भाव बाँध लिया ६ माह तक क्षमा याचना नहीं हुई तो वह अनंतानुबंधी कषाय बन जाती है
अप्रत्याख्यान कषाय-क्रोध,मान,माया,लोभ.-के उदय में देशचारित्र लेने के योग्य परिणाम नहीं होते, अर्थात कोई कहे की एक-दो प्रतिमा ले लीजिये तो कहना की हम प्रतिमा नहीं ले सकते,ये परिणाम अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से होते है!यदि ये परिणाम १५ दिन से अधिक चल जाए तो अप्रत्या ख्यानावरण कषाय बन जाती है!
प्रत्याख्यान कषाय-क्रोध,मान,माया,लोभ- के उदय में सकल चारित्र धारण करने अर्थात मुनित्व  योग्य परिणाम नहीं होते!यदि ये परिणाम अंतरमुर्हूर्त से अधिक चले तो प्रत्याख्यानावरण कषाय कहलाती है
संज्वलन कषाय -क्रोध,मान,माया,लोभ- जिस के उदय में यथाख्यात चारित्र नहीं होपाता,यदि ये परिणाम अंतरमूर्हूर्त तक ही रहे तो संज्वलन कषाय होती है!  अनंतानुबंधी कषाय आत्मा के साथ करोड़ो,सागरों वर्षो तक चलती है! इन चारों कषायों का वासना काल उत्तरोत्तर बढता जाता है!इसीलिए क्षमावाणी पर्व वर्ष में तीन बार माघ,चैत्र और भादों में मनाया जाता है जिससे किसी भी जीव के प्रति ६ माह से अधिक  ये कषाय नहीं रहे! आपस में अपने ह्रदय का मैल साफ़ करते रहे! जिससे अनंतानुबंधीकषाय नहीं बन सके और मिथ्यात्व से दूर रह सके! अनंतानुबंधी कषाय होने से मिथ्यात्व का साहचर्य होता ही है!मोहनीय कर्म की सबसे हानि कारक दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतिया मिथ्यात्व,सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृतियाँ है!इनमे भी सबसे खराब मिथियात्व प्रकृति है!इससे बचने के लिए जिनवानी का स्वाध्याय करना चाहिए उससे सात तत्वों,९ पदार्थों का स्वरुप,सच्चे देव शास्त्र गुरु का स्वरुप समझकर प्रगाढ़ श्रद्धांन  होना चाहिए की जिनवाणी,हमारे शास्त्रों में जो लिखा है,उसके अनुसार ही पदार्थों,देव शास्त्र,गुरु आदि का स्वरुप है, सब कुछ वैसे ही है जैसा की तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि से गणधरदेव ने प्राप्त कर द्वादशांग रूप  श्रुत गुथा!वही,श्रुतकेवली,पूर्वज्ञानी,अंगधारीयों और आचार्यों के माध्यम से हमारे पास जिनवानी के रूप में पहुंचा!ऐसा ज्ञान होने से हमें भेद ज्ञान होगा कि आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न है!जब हमें मालूम होगा की शरीर क्या है और मै क्या हूँ,कौन हूँ?जब उस पर दृढ श्रद्धां होगा तो दर्शनमोहनीय का उपशम होने से प्रथमोपशम सम्यगदर्शन होगा और दर्शनमोहनीय से पीछा छुट जाएगा ! 
सबसे पहले प्रथमोपशम समय्क्त्व ही होता है!प्रथमोपशम समय्क्त्व से तात्पर्य दर्शन मोहनीय की तीन और अनंतानुबंधी की चार प्रकृतियों के दब जाने से,इनके उदय का अभाव हो जाने से,आत्मा में सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है!हमारा लक्ष्य इस जीवन में प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति अवश्य होना चाहिए!यह लक्ष्य प्राप्त करते ही हमारा अनंत संसार भ्रमण बहुत थोडा रह जायेगा तथा आगामी भवों में से कभी न कभी तो मोक्ष प्राप्त होगा ही! 
सम्यगदर्शन प्राप्त करने के लिए पूरा प्रयास करना चाहिए! साधारणतया हमें ज्ञात नहीं होता की सम्यगदर्शन हमें हुआ या नहीं!जो कहते है की सम्यगदर्शन होने पर आत्मा दिखने लगती है,यह गलत है क्योकि आत्मा तो अमूर्तिक है! 
यदि हमें सात तत्वों,नव पदार्थों,सच्चे देवशास्त्र,गुरु में श्रद्धां दृढ है तो निश्चित रूप से सम्यगदर्शन हुआ है! हमें निरंतर इस जीवन में सम्यगदर्शन प्राप्त करने के लिय प्रयास करते रहना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए की हमारे सम्यक्त्व में २५ दोषों-८ शंकादि, ८ मद,६ अनायतन,३ मूढ़ताओं ,में से कोई लगने नहीं दे !सम्यगदर्शन प्राप्त करने के साथ साथ अपना आचरण भी हमें अच्छा रखना चाहिए, सप्तव्यसन का त्याग करे,अष्ट मूलगुण धारण करे तत्पश्चात अपना खाना-पीना ,व्यापार आदि अहिंसक बनाये!फिर धीरे धीरे १,२,३,४-११ प्रतिमा धारण करने का प्रयास करे जहाँ तक पहुँच सके उतना अच्छा है!स्त्री पर्याय हो तो आर्यिका तक पहुचने का प्रयास करे!पुरुष पर्याय है तो मुनि महाराज तक बन्ने का प्रयास करे!ये अनंत संसार काटने के उपाय है!इन्हें जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए!

नव-गृह पूजा मिथ्यात्वी है,कालसर्प विधान का जैन शास्त्रों में कोई विधान नहीं है!शनि को परास्त करने के लिए मुनिसुव्रत भगवान् की पूजा करना मिथ्यात्व का पोषण है!समस्त भगवन की शक्ति एक सामान है फिर यह भेद क्यों?देवी देवताओं की पूजाओं का बोलबाला हो रहा है जिससे मिथ्यात्व का ही पोषण हो रहा है!हमें इन सब को छोड़ना पडेगा तभी आगे बढ़ सकेगे,मात्र तत्वार्थ सूत्र का अध्ययन सुनने,पढ़ने से कुछ नहीं होगा उसे जीवन में भी उतारना पडेग!हमें अपने बच्चों को संस्का रित करना चाहिए,आजकल बच्चों को धर्म में रूचि नहीं रह गयी है,मंदिर नहीं जाते,जाते है तो आधे मन से,वे अंतर्जातीय विवाह करने लगे है,ऐसे ही चलता रहा तो जैन धर्म का विनाश  समय से पूर्व शीघ्र हो जाएगा! मोहनीयकर्म के कारण ही हम संसार भ्रमण करते है!इसको ही नष्ट करने का प्रयास करना है!
चैत्रशुक्ल द्वादशी २०१६ 
आयुकर्म के भेद-
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि!!१०!!
संधिविच्छेद-नारक+तैर्यग्योन+मानुष+दैवानि
शब्दार्थ -नारक-नारक ,तैर्यग्योन-तिर्यंच योनि ,मानुष-मनुष्य और  दैवानि-देव भेद है 
अर्थ-नारकी,देव,तिर्यंच या मनुष्य शरीर में आत्मा को निश्चित समय तक रोकने वाला  आयु कर्म है उसके   क्रमश:नारकायु,तिर्यंचायु,देवायु,और मनुष्यायु भेद  है!


विशेष-ये चारो भव विपाकी कर्म प्रकृति है !जिस पर्याय में जीव उतपन्न होता है वहां उसका जीना मरना उस पर्याय संबंधी आयुकर्म के आधीन है ,प्राणों में आयु कर्म मुख्य है भव धारण का मुख्य कारण आयुकर्म है 
नामकर्म प्रकृति बंध के भेद-गतिजातिशरीरान्गोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंध वर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयप्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययश:कीर्तिसेतराणितीर्थं करत्वं च!!११!!
संधिविच्छेद-गति+जाति+शरीर+अंगोपांग+निर्माण+बंधन+संघात+संस्थान+संहनन+स्पर्श+रस+गंध+वर्ण+आनुपूर्वि+अगुरुलघु+उपघात+आतप+उद्योत+उच्छ्वास+विहायोगतय-:+प्रत्येक+शरीर+त्रस+सुभग+सुस्वर+ शुभ+सूक्ष्म+पर्याप्ति+स्थिर+आदेय+यश:कीर्ति+सेतराणि+तीर्थंकरत्वं+च!
अर्थ-नामकर्म के भेद:- 
१-गति नामकर्म-के उदय से जीव को नरक,देव,तिर्यंच या मनुष्य गति मिलती है!नरक,देव,तिर्यंच और मनुष्यगति,गतिनाम कर्म के ४ भेद है !
२-जाति नामकर्म-के उदय से जीव पांच में से किसी एक जाति में उत्पन्न होते है! जाति के एक,द्वि,त्रि,चार और पंचेन्द्रिय ५ भेद है!
३-शरीर नामकर्म-के उदय से जीव को औदारिक,वैक्रियिक,आहारक,तेजस और कार्मण शरीर मिलता है! सांसारिक जीव के तेजस और कार्माण और पहिले दो में से कोई एक शरीर प्राप्त होता है!आहारक शरीर,छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज को ततपश्चरण फलस्वरूप मिलता है !
४-अंगोपांग नामकर्म-के उदय से प्राप्त शरीर के अंगो और उपांगों का निर्माण होता है!
५-निर्माण नामकर्म-के उदय से प्राप्त शरीर में यथास्थान,यथाप्रमाण अंगो का निर्माण होता है!
६-बंधन नामकर्म-के उदय से शरीर के योग्य प्राप्त नोकर्म वर्गणाये आपस में एक में एक होकर जुडती है!पांचों शरीर के पञ्च बंधन; क्रमश:औदारिकबंधन,वैक्रियिकबंधन,आहारकबंधन,तेजसबंधन और कार्मणबंधन,भेद है
७-संघात नामकर्म-के उदय से,बंधन नाम कर्म द्वारा प्राप्त नोकर्म वर्गणाओ का बंधन,छिद्र रहित चिकना,एक में एक होकर मिल जाता है,पांचों शरीर के पञ्च संघात क्रमश:औदारिकसंघात,,वैक्रियिक[b]संघात,आहारक[/b][b]संघात,तेजससंघातऔर कार्मणसंघात,[/b]भेद है
८-संस्थान नामकर्म-के उदय से शरीर को आकार मिलता है,इसके ६ भेद है

१-समचतुरस्र संस्थान-शरीर के सम्पूर्ण आकार-प्रकार का अनुपात,समुचितशास्त्रों के अनुसार  सर्वो त्कृष्ट होता है!
२-न्यग्रॊधपरिमंडल संसथान-शरीर ऊपर से बढ़ के पेड़ की तरह बड़ा और नीचे छोटा होता है!
३-स्वाति संस्थान-शरीर ऊपर छोटा और नीचे बड़ा होता है!
४-कुब्जक संस्थान-कुबड़ा शरीर मिलता है!
५-बामन संस्थान -इस के उदय से बोना शरीर मिलता है
६-हुन्डकसंस्थान-शरीर के अंग उपांग अस्त व्यस्त होते है कोई एक बार देखने पर पुंन: नहीं देखना चाहेगा!
९-संहनन नामकर्म-के उदय से शरीर में अस्थियों का बंधन प्राप्त होता है,इसके ६ भेद है!
१-बज्रऋषभ नाराच संहनन-अस्थियों,कीले और अस्थियों के ऊपर वेष्ठन वज्र का होता है!
२-वज्र नाराच संहनन-कीले और अस्थियाँ वज्र की होती है किन्तु वेष्ठन वज्र का नहीं होता!
३-नाराच संहनन-अस्थियोंकी संधि कीलीत होती है!वेष्ठन सामान्य होता है!
४-अर्धनाराच संहनन- अस्थियों की संधि अर्ध कीलित होती है
५-कीलित संहनन- के उदय से अस्थिया परस्पर में कीलित होती है
६-असंप्राप्तासृपाटिका संहनन- के उदय से शरीर की अस्थियाँ नसों से बंधी होती है! 

प्रथम तीन उत्तम सहनन कहलाते है ,वर्तमान में हम सब का छटा सहनन  है !
१०-स्पर्श नामकर्म-के उदय से ८ प्रकार के स्पर्श मिलते है,इसके स्निग्ध-रुक्ष,शीत-उष्ण,नरम कठोर और हल्का-भारी ८ भेद है!
११-रस नामकर्म- के उदय से ५ प्रकार के रस मिलते है  इसके मीठा,नमकीन,कड़ुवा,केसला ,चरपरा ५ भेद है ! 
१२-गंध नामकर्म-के उदय से २ प्रकार की गंध मिलती है सुगंध/दुर्गन्ध प्राप्त होती है 

१३-वर्ण नामकर्म-के उदय से ५ प्रकार के वर्ण काला,सफ़ेद,पीला,नीला,लाल में से एक वर्ण मिलता  है जैसे नीबू को गंध उसके गंध नामकर्म के उदय से,वर्ण पीला, वर्णनामकर्म के उदय से,रस खट्टा रस नामकर्म के उदय से और कठोरता तथा चिकना स्पर्श,स्पर्श नामकर्म के उदय से मिला है! 
१४-आनुपूर्विनामकर्म- के उदय से,आत्मा वर्तमान शरीर त्यागकर नवीन शरीर ग्रहण करने के लिए गमन करती है तो उस समय,आकार पूर्व शरीर के अनुसार रहता है!
१५-अगुरुलघुनामकर्म -के उदय से शरीर न तो अत्यंत भारी होता है और नहीं रुई की तरह  अत्यंत  हल्का!इसी नामकर्म के उदय में हम पानी में तैर सकते है अथवा कूद सकते है!
१६-उपघात नामकर्म--के उदय से अपना शरीर ही अपनी मृत्यु का कारण बनता है!जैसे मोती का बनना,नाभी में कस्तूरी आदि होना!
१७-परघातनामकर्म-के उदय से ऐसे अंगोपांग मिलते है जिससे अपना बचाव और दुसरे का घात हो सकता है जैसे गाय के सींग!
१८-आतपनामकर्म-के उदय से मूल ठंडा हो किन्तु प्रकाश गर्म हो!सूर्य में जो एकेंद्रिये जीव  होते है उनके इसका उदय रहता  है!


१९-उद्योत नामकर्म-के उदय से ठंडा प्रकाश हो अथवा शरीर चमकवाला हो इसका उदय तिर्यन्चों में होता है!
२०-उच्छ्वासनामकर्म -के उदय से श्वासोच्छ्वास करने योग्य शरीर का निर्माण होता है!
२१-विहायोगति नामकर्म-के उदय से आकाश में गमन करने की योग्यता प्राप्त होती है! 
१-प्रशस्तविहायोगति-चाल अच्छी होना और
२-अप्रशस्तविहायोगगति-चाल अच्छी नहीं होना!
२२-प्रत्येक शरीर नामकर्म-के उदय से जीव एक शरीर का एक ही स्वामी होता है! जैसे मनुष्य 

२३-साधारण शरीर नामकर्म-के उदय से एक शरीर के स्वामी अनंत जीव होते है! जैसे आलू ,में अनंत आत्माए निवास करती है !
२४-त्रस नामकर्म-के उदय से जीव को त्रस पर्याय मिलते है! जैसे एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीव!
२५ स्थावरनामकर्म -के उदय से जीव को स्थावर पर्याय मिलती है!जैसे जीव का जलकायिक आदि एकेन्द्रिय  में जन्म होना !
२६-सुभगनाम कर्म-के उदय से लोगो को जीव के अंगोपांग लोकप्रिय होते है!
२७-असुभग नामकर्म-के उदय से अंगोपांग अच्छे होने पर भी लोकप्रिय नहीं होते
२८-सुस्वर नामकर्म -के उदय से जीव का स्वर अच्छा होता है,कर्ण प्रिय होता है
२९-दु:स्वर नामकर्म -के उदय से जेव का स्वर अच्छा नहीं होता,कर्ण प्रिय स्वर नहीं होता है!
३०-शुभनामकर्म -के उदय से जीव के मस्तक आदि अंगोपांग सुंदर होते है
३१-अशुभनामकर्म -के उदय से जीव के मस्तक आदि अंगोपांग सुंदर नहीं होते है 
३२-सूक्ष्मनामकर्म-के उदय से सूक्ष्म शरीर मिलता है जो किसी वस्तु से बाधित नहीं होता और नहीं किसी को बाधित करता है!
३३-बादर नामकर्म-के उदय से ऐसे स्थूल शरीर मिलता है जो वस्तु से बाधित भी होता है और उन्हें बाधित भी करता है!
३४-पर्याप्ति नामकर्म-के उदय से प्राप्त अपनी योग्यतानुसार छ पर्याप्तियाँ,आहार,शरीर,इन्द्रिय,श्वासो च्छ्वास, भाषा,मन पूर्ण होती है ,जीव पर्याप्तक कहलाते है !


३५-अपर्याप्ति नामकर्म-के उदय से पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती है जीव अपर्याप्तक कहलाते है !   
३६-स्थिरनामकर्म -के उदय से शरीर के रस,रुधिर,मांस मेदा ,हाड,मज्जा और शुक्र,सप्त धातुएं स्थिर होती है!उपवास आदि करने पर भी शरीर की क्षमता में गड़बड़ी नहीं होती है !
३७-अस्थिर नामकर्म-के उदय से शरीर के रस,रुधिर,मांस मेदा,हाड,मज्जा और शुक्र,सप्त धातुएं अस्थिर होती है,वे सुचारू रूप से नहीं बनती!
३८-आदेय नामकर्म-के उदय से शरीर प्रकाश युक्त होता है व्यक्तित्व आकर्षक होता है
३९-अनादेय नाम कर्म-के उदय से व्यक्तित्व आकर्षक नहीं बनता है     
४०-यशकीर्ति नामकर्म-के उदय से गुणों का यश फैलता है !
४१-अपयशकीर्ति नामकर्म -के उदय से गुणों का यश नहीं फैलता है!
सेतराणि -विपरीत -और
४२ तीर्थंकरत्वं नामकर्म-के उदय से पञ्च कल्याणक रूप देवों और इन्द्रों के द्वारा पूजा और महिमा प्राप्त होती है !
पंचमकाल में पाए जाने वाले संहनन-शास्त्रों के अनुसार अर्धनाराचसंहनन,कीलितसंहनन और असंप्राप्ता सृपाटिका संहनन,इस काल में पाए जाते है!वर्तमान में हम सब के असंप्राप्तासृपाटिका संहनन दृष्टि गोचर होता है!क्योकि हमारी अस्थियाँ नसों से बंधी हुई है! इनमे से पहले दो संहनन संभवत: उनके होते होंगे जिनका शरीर बहुत मज़बूत होता है!
 हमारा समचतुरस्रसंस्थान हीन अनुभाग के साथ है क्योकि अन्य पाँचों संस्थानों में से निश्चित रूप से हमारा कोई सा संस्थान नहीं है!जिनका शरीर कुबड़ा है उनका हुन्डक संस्थान है !
किस नामकर्म के उदय से हाथी ,घोडा आदि बनते है?
आचार्य विद्यासागरजी के अनुसार हाथी नामकर्म के उदय से हाथी, घोडा  नामकर्म से घोडा बनता है!नामकर्म के असंख्यात भेद है,यहाँ संक्षेप में प्रमुख नामकर्म के भेद बताये है! ये नामकर्म की पिंड प्रकृतियाँ है!प्रकृति से तात्पर्य जैसे गति,जाति,आदि लेंगे तो,एक नामकर्म के ४२ भेद हुए किन्तु चारो गति,पञ्च जाति जब लेंगे तो ९३ भेद हो जायेगे!
आनुपूर्वि नाम कर्म का कार्य-कोई आत्मा हाथी की पर्याय समाप्त कर देव पर्याय प्राप्त करने को जा रही है तो रास्ते में आत्मा के आत्मप्रदेशों का आकार हाथीवत बनाये रखना आनुपूर्वि नामकर्म का कार्य है!आनुपूर्वि नामकर्म,विग्रहगति में,जीव के आत्मप्रदेशों का आकार छोड़े हुए शरीररूप बनाये रखता है! इसके चार भेद है!यदि कोई जीव तिर्यंचगति में जा रहा है,तो तिर्यंचगत्यानुपूर्वी,देवगति में जा रहा है तो देवगत्यानुपूर्वी,नरकगति में जा रहा है तो नारकगत्यानुपूर्वी और मनुष्यगति में जा रहा है मनुष्यगत्यानुपूर्वी !
सेतराणि ' का सम्बन्ध विहायोगति के बाद के नामकर्मों से जोड़ना है!

औदारिक,वैक्रियक,आहारक के अंगोपांग होते है इसलिए अंगोपांग के तीन भेद बताये है! तेजस और कार्मण के अंगोपांग नहीं होते!

देव और नरक पर्याय में संहनन नामकर्म का उदय नहीं होता क्योकि उनके शरीर में अस्थियाँ नहीं होती है!संस्थान नामकर्म का उदय होता है!
हम सब आकाश में ही चलते है!इसलिए हमारे विहायोंगति का उदय है
तिर्यंचआयु शुभ और तिर्यंचगति अशुभ क्यों है?
कोई भी जीव तिर्यंच बनना नहीं चाहता इसलिए अशुभगति कहा है किन्तु कोई तिर्यंच मरना भी नहीं चाहता इसलिए तिर्यंचायु को शुभ कहा है! नरकायु अशुभ है क्योकि कोई नारकी वहां जीना भी नही  चाहता, गति तो अशुभ है ही क्योकि कोई नरकगति में नहीं जाना चाहते है!
पहले तीन संहनन उत्तम है क्योकि इनसे ग्रैवयक आदि में उत्पत्ति होती है!लेकिन शुभ केवल वज्र ऋषभनाराचसंहनन है! बाकी पंचों अशुभ है!
देवों के प्रकाशवान शरीर क्यों मिलता है?
आदेय नामकर्म के उदय से उन्हें प्रकाशवान शरीर मिलता है और वर्ण नामकर्म के उदय से शरीर उन्हें वैसा मिलता है!
अधिकतर महाराजो के अनुसार अंगोपांग नामकर्म का उदय एकेंद्रियों में नहीं होता किन्तु अकलंक स्वामी राजवार्तिक में लिखते है की एकेंद्रियों के अंगोपांग नामकर्म का उदय होता है!



RE: तत्वार्थ सुत्र अध्याय ८ भाग ३ - Manish Jain - 07-17-2023

अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10