तत्वार्थ सुत्र अध्याय ८ भाग ७
#1

विपाकोऽनुभवः !२१!

संधि-विच्छेद:-विपाक:+अनुभवः
शब्दार्थ:विपाक-कर्मोदय विपाक है,अनुभवः-विपाक का  अनुभव ही अथवा अनुभागबंध है!
अर्थ-विपाक-द्रव्य,क्षेत्र,काल,भाव के अनुसार कर्म का अपने समय पर पक कर फल देना विपाक है! अनुभव/अनुभाग-कर्म की फल देने की शक्ति अनुभव/अनुभाग बंध  है!
भावार्थ-अनुभव/अनुभाग बंध,कर्म का फल कैसा अनुभव किया जाता है या कर्म की फलदान शक्ति कैसी है!कर्मोदय का फल स्वमुख और परमुख,दो प्रकार से मिलता है!कोई कर्म स्वमुख से उदय में आये तो स्वमुख होता है जैसे असातावेदनीय स्वमुख के उदय से आये और दुःख देने में कारण बने तो स्वमुख और यदि असाता  वेदनीय द्रव्य,क्षेत्र,काल और भाव के अनुसार परमुख से उदय में आये तो परमुख! जैसे किसी जीव के शरीर में वेदना असातावेद्नीय के उदय से है,तो स्वमुख उदय है !यदि वही जीव समवशरण में प्रवेश कर जाता है तो वही असाता, साता वेदनीय रूप फल देने लगेगी असातावेदनीय का असाता रूप फल देना स्वमुख उदय है और असतावेदनीय का सातावेद्नीय रूप संक्रमण होकर,सतावेद्नीय रूप फल देना परमुख उदय है!
विशेष-शुभ परिणामों की अधिकता होने पर शुभ प्रकृतियों में  अधिक, अशुभ प्रकृतियों में कम अनुभाग होता है किन्तु अशुभपरिणामों की अधिकता में अशुभप्रकृतियों में अधिक,शुभप्रकृतियों में कम अनुभागबंध होता है !
अनुभाग बंध की बदलती अवस्थाये
अनुभाग बंध,बंधकाल में जैसा प्राप्त होता है सदैव वैसा ही नहीं रहता है!वह अपनी अवस्था काल में बदल भी सकता है और नहीं भी बदल सकता!बदलने में संक्रमण,उत्कर्षण,अपकर्षण तीन अवस्थाये होती है!संक्रमण मात्र  उत्तर प्रकृतियों में होता है,मूल प्रकृतियों में नहीं होता है!आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियों,दर्शन मोहनीय का चारित्र मोहनीय रूप और चारित्र मोहनीय का दर्शन मोहनीय रूप में संक्रमण नहीं होता है !
संक्रमण के चार भेद;प्रकृति संक्रमण,प्रदेश संक्रमण अनुभाग संक्रमण और स्थिति संक्रमण है!जहा प्रकृति और प्रदेश संक्रमण की प्रमुखता होती है वहां संक्रमण शब्द से और जहाँ मात्र स्थिति और अनुभाग संक्रमण होता है वहां उत्कर्षण और अपकर्षण से सम्बोधित किया  जाता  है !

बंधकाल में जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त होते है उसको कम करना अपकर्षण और  बढ़ाना उत्कर्षण है !इस प्रकार विविध अवस्थाओं से गुजरते हुए उदयकाल में अनुभाग रहता है उसे परिपाक कहते है!अनुद्य अवस्था को प्राप्त प्रकृतियों का,परिपाक उदय अवस्था को प्राप्त सजातीय प्रकृति रूप से होता है!इस विषय में नियम है कि उद्यावली प्रकृतियों का फल स्वमुख से मिलता है और अनुद्यावली प्रकृतियों का फल परमुख से प्राप्त होता है! जैसे साता का उदय रहने पर उसका भोग साता रूप ही रहता है किन्तु असाता स्तिबुक संक्रमण द्वारा साता रूप में परिणमन करती रहती है,इसलिए उसका उदय परमुख से होता है!उदयकाल से एक समय पहिले,अनुद्य रूप प्रकृति के निषेक का उदय को प्राप्त हुई प्रकृति रूप से परिणमन कर जाना स्तिबुक संक्रमण है!जो प्रकृतियाँ जिस काल में उदय में नही होती,किन्तु सत्ता रूप में विध्यमान रहती है उनका प्रति समय इसी प्रकार परिणमन  होता रहता है !
शंका-प्रकृति और अनुभाग बंध अलग-२ क्यों है?अनुभाग बंध स्वतंत्र क्यों है ?
समाधान-अनुभव,अनुभाग,फलदान शक्ति पर्यायवाची है !कर्म बंध के समय जिस कर्म की योग-मन,वचन काय के निमत्त से जो प्रकृति होती है तदानुसार उसका कषाय के निमित्त से अनुभागबंध होता है,उस कर्म की /फल देने की  शक्ति उसे प्राप्त होती है!जैसे ज्ञानवरण की प्रकृति ज्ञान को ढकने की है इसलिए इसे इसी के अनुरूप फलदान शक्ति मिलती है!प्रकृति से अभिप्राय कर्म का स्वभाव से तथा अनुभाग/अनुभवबंध से उस कर्म के स्वभाव अनुरूप फल भोगने से है!यदि प्रकृति और अनुभाग/अनुभव का इतना ही मतलब है तब साधारणतया मान सकते है की दोनों को अलग अलग रखना अनुचित है क्योकि जिस कर्म की जैसी प्रकृति का बंध होगा उसे तदानुसार भोगना स्वयं सिद्ध है!इसलिए प्रकृति और अनुभव/अनुभागबंध स्वतंत्र सिद्ध नहीं होते बल्कि प्रकृति बंध में ही अनुभाग/अनुभव बंध का समावेश हो जाता है!यदि यहाँ कहा जाए कि  ज्ञानावरणीयादि रूप की कर्म प्रकृतियाँ फलदान शक्ति के निमित्त से होती है इसलिए प्रकृति बंध में अनुभव बंध का अंतर्भाव नहीं किया जा सकता तो इसका  प्रकृति बंध योग के निमित्त से और अनुभव बंध हीनाधिक कषाय के निमित्त से होता है फिर फलदान की शक्ति के निमित्त से प्रकृति बंधती है,नहीं माना जा सकता!थोड़ी देर के लिए यदि मान भी ले तब प्रकृति और अनुभाग अलग क्यों माना गया है तथा उनके स्वन्तंत्र कारण योग और कषाय क्यों माने गये  है ?सूत्रकार ने भी बंध के ४ भेद करके विपाक अर्थात कर्म भोग को अनुभव कहा है और उसे प्रकृति अनुरूप बताया है इससे यह सिद्ध होता है कि यह दो नहीं एक ही है,बंध समय की अपेक्षा जो प्रकृति है उसे ही उदय काल की अपेक्षा अनुभव कहते है ! 
   इसका समाधान है कि कर्मबन्ध के समय,कर्म का विविध रूप से विभाग योग के निमित्त से ही होता है और विभाग को प्राप्त कर्मों में हीनाधिक फलदान शक्ति कषाय के निमित्त से प्राप्त होती है इसलिए दोनों को अलग अलग माना गया है!यद्यपि यह भी सही है की शक्ति के अभाव में किसी कर्म की प्रकृति नहीं बन सकती!स्वतंत्र प्रकृति कहने से उसका शक्ति बोध तो हो ही जाता है फिर भी ऐसी शक्तियों की एक सीमा होती है!उसका उल्लघ न करके जो हीनाधिक शक्ति प्राप्त करी जाती है उसका बोध करना अनुभागबंध का कारण है!उद्धाहरण के लिए ११, १२,१३ वे गुणस्थानों में सातावेदनीय का प्रकृति बंध होता है,यह प्रकृतिबंध एक नियत मर्यादा में अनुभाग को लिए होता है फिर भी यहाँ अनुभाग बंध का निषेध किया है क्योकि जो अनुभाग सकषाय अवस्था में साता वेदनीय को प्राप्त होता था वह यहाँ प्राप्त नहीं होता है!सकषाय अवस्था में प्राप्त जघन्य अनुभाग से भी अनंतवे भाग मात्र होता है!जो की सकषाय अवस्था में भी प्राप्त नहीं होता!इस से प्रकृति और अनुभाग बंध को अलग अलग कहने की उपयोगिता सिद्ध हो जाती है!अभिप्राय है कि प्रकृतिबंध में कर्म भेद को स्वीकार करके भी न्यूना धिक फलदान शक्ति स्वीकार नहीं करी है किन्तु अनुभागबंध में,इसका और इसके कारण का स्वतंत्र रूप विचार किया जाता है इसीलिए पकृतिबंध व अनुभागबंध का स्वतंत्र  कारण है,यह निश्चित होता है!सूत्रकार ने विपाक को अनुभव इसलिए कहा है क्योकि सभी जीवों का विपाक न्यूनाधिक होता है,एक समान नहीं होता!यही कारण है की सूत्रकार अनुभागबंध की स्वतंत्र परिगणना करते है और उसकी पुष्टि विपाक के  माध्यम से करते है !


अनुभाग बंध कर्म  के नाम के अनुसार होता है -

सयथानाम !!२२!!
संधि विच्छेद-स+यथानाम
शब्दार्थ -स-वह,अनुभागबंध,यथानाम-कर्मोके नाम अनुसार होता है !

अर्थ स -वह (कर्मों के फल).यथानाम- अपने अपने कर्म के नाम के अनुसार होता है
भावार्थ-ज्ञानावरणकर्म का फल,आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करने रूप होगा!दर्शनावरणकर्म का फल आत्मा के दर्शन गुण को आवृत करने रूप होगा!वेदनीयकर्म का फल उसे सुख या दुःख का अनुभव कराने रूप होगा!मोहनीयकर्म आत्मा को मोहित करने रूप होगा अर्थात मिथ्यात्व रूप परिणाम कराने वाला,सम्यक्त्व को हटाने वाला,चारित्र मोहनीय-कषाय रूप परिणाम कराने वाला होगा!आयुकर्म का फल,आत्मा को एक शरीर में से निश्चित अवधि(आयु) तक निकलने नहीं देगा! नामकर्म का फल विभिन्न प्रकार के नाम देने रूप होगा,जैसे मनुष्य है/देव है/तिर्यंच है/नारकी है,विभिन्न शरीर आदि का निश्चय नामकर्म से होता है! गोत्रकर्म विशेष उच्च या निच्च कुल में जीव को उत्पन्न कराता है!अन्तराय कर्म आत्मा के दान,लाभ,भोग उपभोग और शक्ति गुण में विघ्न डालता है!
घातिया कर्म का अनुभाग कितने प्रकार का होता है?
घातियाकर्मों का अनुभाग चार प्रकार शैल.अस्थि,दारु और लता रूप होता है! इन चारो में कठोरता उत्तरोत्तर हीन है!जैसे शैल-पत्थर सबसे अधिक कठोर है,अस्थि-हड्डी उससे मुलायम है,दारु-लकड़ी उससे मुलायम हैऔर लता सबसे मुलायम है!अर्थात जो घातियाकर्म सबसे कठोर फल देते है उन्हें शैल,जो उससे कम कठोर फल देते है उन्हें अस्थि,जो उससे भी कम कठोर फल देते है उन्हें दारु और जो उससे भी कम कठोर फल  देते है उन्हें लता रूप कहते है! 
अघातियाकर्म दो प्रकार के पाप-पुण्य रूप होते है!-पापरूप कर्मो का फल उत्तरोत्तर नीम,कांजीर,विष और हलालल रूप अधिकाधिक होता है!नीम में कडवापन सबसे कम है,उससे अधिक कडवी कांजीर होती है, उससे अधिक कडवा विष होता है और उससे भी अधिक कडवा हलालल होता है!पाप कर्मों का फल यदि अधिकतम कठोर है तो हलालाल उससे कम कठोर है तो विष,उससे कम कठोर है तो कांजीर और उससे भी कम कठोर है तो नीम रूप होता है !
अघातिया कर्मों की पुण्यरूप प्रक्रितियों का फल-
गुड,खांड,शक्कर और अमृत रूप होते है!अघातियाकर्मों की प्रकृतिय पुण्य का सबसे कम गुड,उससे अधिक खांड,उससे अधिक शक्कर और सबसे अधिक अमृत सामान देती है!
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#2

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तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
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