04-26-2016, 12:13 PM
इष्टवियोगज आर्तध्यान का लक्षण विपरीतं मनोज्ञस्य !!३१!!
संधि विच्छेद-विपरीतं-उक्त सूत्र का विपरीत अर्थात वियोग होना, मनोज्ञस्य-प्रिय वस्तुओं पुत्र पत्नी आदि का ,इष्ट वियोगज है !
अर्थ-प्रिय/इष्ट वस्तुओं पुत्र.पत्नी,सम्पत्ति आदि के वियोग होने पर निरंतर चिंतवन करना कि उनको कैसे प्राप्त किया जा सकता है ,इष्ट वियोगज आर्त्त ध्यान है !
वेदनाजन्य आर्तध्यान का लक्षण -
वेदनायाश्च !!३२!!
संधि विच्छेद -वेदना:+च
शब्दार्थ-वेदना:-वेदन से भी,च-और
अर्थ-रोगग्रस्त होने के कारण,शरीर में उत्पन्न पीड़ा की वेदना से, निरंतर उसी का चिंतवन करने से वेदनाजन्य आर्त्तध्यान होता है !
निदान आर्तध्यान का लक्षण -निदानंच !!३३!!
संधि विच्छेद-निदानं+ च
शब्दार्थ-निदानं+ च
अर्थ-भोगो की तृष्णा से पीड़ित होकर दिनरात। आगामी भोगों की प्राप्ति के लिए चिंतवन करते रहना निदान नामक आर्त्त ध्यान है !
भावार्थ -उक्त ३०,३१,३२,३३,सूत्रों के माध्यम से आर्त्त ध्यान के चार भेद बताये है
१-अनिष्ट संयोग जनित आर्त् ध्यान,
२-ईष्ट वियोग जनित आर्त्त ध्यान,
३-वेदना जनित आर्त्त ध्यान और
४-निदान आर्त्त ध्यान !गुणस्थानों की अपेक्षा आर्त्तध्यान के स्वामी है
तदविरत देशविरत प्रमत्तसंयतानाम् !!३४!!
संधि विच्छेद -तद+अविरत+देशविरत +प्रमत्तसंयतानाम्
शब्दार्थ-तदविरत-वह(आर्त्त ध्यान) अविरत चार गुणस्थानों में,देशविरत -पंचम गुणस्थान ,प्रमत्तसंयतानाम् और प्रमत्त संयत (छठे) गुणस्थान में होता है !
अर्थ-वह आर्त्त ध्यान अविरत चार गुणस्थानो,देशविरात-संयतसंयत पंचम गुणस्थान और १५ प्रकार के प्रमाद के कारण प्रमत्त संयत छटे गुणस्थान में होता है !
विशेष-फिले से छठे गुणस्थान तक अनिष्ट संयोगज ,इष्ट वियोगज ,और वेदना जन्य आर्त्त ध्यान तथा निदानज आर्त्त ध्यान आर्त्त ध्यान पंचम गुणस्थानवर्ती के होता है किन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान नामक आर्त्त ध्यान नहीं होता है क्योकि भाव लिंगी साधु को आगामी भोगों की आकांक्षा नहीं होती !अर्थात ४थे ,५वे और छटे गुणस्थानवर्ती जीवों के यह ध्यान क्वचित् कदाचित हो सकते है हमेशा नहीं रहते !किन्तु प्रथम आदि गुणस्थान में हमेशा रहते है
रौद्र ध्यान के भेद व स्वामी-,
हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्योरौद्रमविरतदेशविरतयो :!!३५!!
सन्धिविच्छेद -हिंसा+अनृत+स्तेय+विषय+संरक्षणेभ्यो +रौद्रम्+अविरत+देशविरतयो
शब्दार्थ-हिंसा-हिंसा,अनृत-झूठ, स्तेय-चोरी विषय-परिग्रह, संरक्षणेभ्यो-संचय की भावना से रौद्रम्-रौद्र ध्यान ,अविरत-अविरत आदि चार और देशविरतयो-देशकिरत गुणस्थानों में होता है !
अर्थ-हिंसा,झूठ ,चोरी और परिग्रहों के संचय की भावना से उत्पन्न रौद्र ध्यान अविरत के चार और देशविरत गुणस्थानों में होता है !
विशेष-निमित्त के आधार से रौद्र ध्यान के चार भेद-
१-हिंसानन्दी-हिंसा में आनंद मानकर उसके साधनो को जुटाने का यत्न करना हिंसानन्दी रौद्रध्यान है
२-मृषानन्दि-असत्य बोलने मे आनंद मानकर उसका चिंतवन करना मृषानन्दि रौद्रध्यान है!
३-चौर्यनन्दि -चोरी में आनंद मानकर उसी का चिंतवन करना चौर्यानंदी रौद्रध्यान है और
४-परिग्रह नन्दी-परिग्रहों में आनंद मानकर उनके रक्षण का चिंतवन करना परिग्रहनन्दि रौद्रध्यान है !
संयमी मुनि ,अर्थात छटे गुणस्थानवर्ती मुनि के रौद्र ध्यान नहीं होता अन्यथा वे असंयमी हो जाएंगे !
शंका-अविरत ,जो वर्ती नहीं है,के रौद्र ध्यान होना तो ठीक है किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के रौद्र ध्यान कैसे हो सकता है ?
समाधान-श्रावक को अपने धर्मायतनों ;स्त्री ,धन,इत्यादि की रक्षा का अभीष्ट भार होता है जिस की रक्षा करने के लिए,कभी हिंसा के आवेश में आकर रौद्र ध्यान हो सकता है किन्तु सम्यग्दृष्टि होने के कारण उसे नरक गति में ले जाने योग्य रौद्र ध्यान नहीं होता है !
धर्मध्यान का स्वरुप और चार भेद -
आज्ञापाय विपाक संस्थान विचयाय धर्म्यम् !!३६!!
संधि विच्छेद-आज्ञा+अपाय+विपाक+संस्थान+विचयाय+धर्म्यम्
शब्दार्थ-आज्ञा-आगम में जैसे आज्ञा है वैसा ही,अपाय-मिथ्यात्व में उलझे किन्तु मोक्ष के अभिलाषियोंके छुड़ाने के उपाय का विचार करना,विपाक-कर्मों के द्रव्य,क्षेत्र,काल,भव और भाव के निमित्त उदय पर फल का विचार करना ,संस्था-लोक के आकार और दशा का निरंतर चिंतवन करना, विचयाय-विचार /मानना धर्म्यम्-धर्मध्यान है
अर्थ-आज्ञा,अपाय,विपाक और संस्थान का निरंतर विचार/चिंतवन करना ,धर्मध्यान है !
भावार्थ-
१-आज्ञाविचय-अच्छे उत्कृष्ट उपदेशों/दृष्टान्तों के अभाव में/स्वयं की मंद बुद्धि/कर्मों के उदय/पदार्थों के अतिसूक्ष्म अथवा दूरवर्ती होने के कारण,सर्वज्ञ देव द्वारा कहे गए वचनो पर तदानुसार 'यह ऐसा ही है" दृढ श्रद्धान करना, क्योकि जिन अन्यथावादी नहीं होते,आज्ञाविचय धर्मध्यान है!स्वयं तत्वों का ज्ञाता होते हुए अन्यों को समझने के लिए युक्तियों और दृष्टान्तों का निरंतर चिंतवन करना,जिनसे उन्हें समझाया जा सके आज्ञा विचय धर्मध्यान है क्योकि उसके पीछे मूलभावना जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञा का प्रचार करना है !
२-अपायविचय-जो संसारी जीव मिथ्यात्व के वशीभूत कुमार्गों पर चल रहे है किन्तु मोक्ष के अभिलाषी है,उनके मिथ्यात्व से मुक्त करवाने के लिए, उपायों का निरंतर चिंतवन करना ,अपायविचाय धर्मध्यान है !
३-विपाक विचय-ज्ञानावरणीय कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र,काल,भाव और भव के अनुरूप उदय पर उनके फलों का निरंतर चिंतवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है !
४-संस्थानविचय-लोक के स्वरुप,आकार एवं स्थिति का निरंतर चिंतवन करना संस्थानविचयधर्मध्यान है
उक्त चार धर्म ध्यान के भेद है !
विशेष-
१-आचार्य पूजयपादस्वामी के अनुसार, उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों से युक्त उक्त धर्मध्यान चौथे अविरत , से ,७वे अप्रमत्त गुणस्थान तक होता है जबकि धवलाकार,आचार्यश्री वीरसैनस्वामी के मतानुसार १०वे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान तक होता है ,शुक्ल ध्यान उसके बाद होता है !
२-संसार ,भोग एवं शरीर से विरक्ति के फलस्वरूप उत्पन्न भावों की स्थिरता के लिए उत्तम क्षमादि १० धर्मों से युक्त ध्यान,को धर्म ध्यान कहते है !इनके निमित्त के भेद से आज्ञाविचय -तत्व निष्ठां में,अपायविचय-संसार, शरीर एवं भोगो से विरक्ति में,विपाकविचय-कर्मफल और उसके कारणों की विचित्रता का ज्ञान कराने में,तथा संस्थान विचय -लोक के स्वरुप /आकार ,स्थिति के ज्ञान में सहायक होते है!इससे उनके ज्ञान में दृढ़ता आती है !
३-विपाक विचय के स्वरुप में कर्मों के द्रव्य,क्शेत्रक़ाल,भाव और भव के निमित्त से कर्मों के उदय का विचार करने से अभिप्राय है की यद्यपि कर्मों के उदय या उदीरणा से जीव के औदायिक भाव एवं विभिन्न प्रकार के शरीरादि की प्राप्ति होती है किन्तु इन कर्मों का उदय अथवा उदीरणा किसी अन्य निमित्त के बिना नहीं होती है! जैसे उद्धाहरण के लिए -द्रव्यनिमित्तता- कोई व्यक्ति अपने परिवार के साथ घर की छत्त के नीचे बैठा मनोरंजन कर रहा है ,अकस्मात् छत गिर जाती है जिससे वह घायल होकर दुःख का वेदन करने लगता है ,यहाँ उस के दुःख में असाता वेदनीय कर्म का उदय उदीरणा में छत का टूट कर गिरना संयोग निमित्त है !गिरने वाली छत के निमित्त से उस व्यक्ति के असाता वेदनीय की उदय उदीरणा हुई जिसके फलस्वरूप उस व्यक्ति को असाता /दुःख का अनुभव /फल मिला!यही उक्त कथन का अभिप्राय है !इसी प्रकार अन्य कर्मों के उदय-उदीरणा में बाह्य द्रव्य के निमित्त का विचार कर लेना चाहिए !
काल निमित्त का विचार दो प्रकार से किया जाता है! १-प्रत्येक कर्म का उदय उदीरणा काल,२-वह काल जिसके निमित्त से ,बीच में ही कर्मों की उदय उदीरणा बदल जाती है !आगम में अध्रुवोदय रूप कर्म के उदय उदीरणा काल का निर्देश दिया है,उसके समाप्त होते ही विवक्षित कर्म के उदय उदीरणा का अभाव होकर ,उसका स्थान दुसरे कर्म की उदय-उदीरणा ले लेती है!जैसे हास्य और रति का उत्कृष्ट उदय-उदीरणा काल छह माह है इसके बाद इनकी उदय उदीरणा नहीं होकर शोक और अरति की उदय उदीरणा होने लगती है !किन्तु छ माह के अंदर ही हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही उनकी उदय उदीरणा बदल जाती है !यह कर्म का उदय उदीरणा काल है !उद्धाहरण के लिए कोई व्यक्ति देशान्तर के लिए निर्भय पूर्वक जा रहा है किन्तु किसी दिन मार्ग में रात्रि जंगल में ही,हिंसक पशुओं के बीच हो जाती है तथा उसे विश्राम के लिए सुरक्षित स्थान नहीं मिलता है !दिन भर वह नीताkintu रात्रि होते ही वह भयभीत होता है ! इससे उसकी असाता,अरति, भय,शोक का उदय-उदीरणा होने लगती है !यह काल निमितिक उदय उदीरणा है !इसी प्रकार क्षेत्र,भव,भाव निमित्तिक उदय उदीरणा को समझ सकते है !
उदय काल प्राप्त परमाणुओं के अनुभव (फल)को उदय कहते है !
उदीरणा -उद्यावली के बहार स्थित कर्म परमाणुओं को कषाय सहित या कषाय रहित योग; मन,वचन विशेष काय ,वीर्य विशेष दवरा उद्यावली में लाकर उनका उदयप्राप्त परमाणु के साथ अनुभव (फल) देने को उदीरणा कहते है !या प्रकार कर्म परमाणुओ का अनुभव उदय और उदीरणा दोनों में लिया जाता है !उदय में काल प्राप्त कर्म परमाणु और उदीरणा में अकाल प्राप्त कर्म परमाणु रहते है ,यही दोनों में अंतर है !
सामान्य नियम है की जहाँ जिस कर्म का उदय होता है वहां उसकी उदीर्ण अवश्य होती है फिर भी इसमें कुछ विशेषताए है -
१-मिथ्यात्व का उदय उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है!किन्तु उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव को अंतिम आवली प्रमाण काल में मिथ्यात्व की उदीरना नहीं होती ,वहां उसका मात्र उदय ही होता है !एकेन्द्रिय से चतुरिंद्रिय जाति,आतप,स्थावर,सूक्ष्म,अपर्याप्त,और साधारण इन ९ प्रकृतियों की उदय उदीरणा मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होती है, अनंतानुबंधी चतुष्कक की उदय उदीरणा प्रथम २ गुणस्थानों में होती है आगे नहीं !सम्यग्मिथ्यात्व की उदय उदीरणा तीसरे गुणस्थान तक है,अन्य में नहीं !
सूत्र ३६ -आगे
-
४ थे गुणस्थान में अप्रयाख्यान चतुष्कक,नरकगति,देवगति,वैक्रयिक(शरीर,अंगोपांग), दुर्भग,अनादेय ,अयश कीर्ति ,(११) तथा नरकायु और देवायु कर्म प्रकृतियों का उदय उदीरणा होता है ,
इसके आगे नहीं !मात्र मरण के समय, आयु के अंतिम आंवलि काल में उदय उदीरणा नही होती !
चार अनुपूर्वियों की उदय-उदीरणा पहिले ,दुसरे और चौथे गुणस्थानों में होती है उसके आगे नहीं !
पांचवे संयतासंयत गन स्थान में प्रत्याख्यान चतुष्कक,तिर्यंच गति,उद्योत और नीच गोत्र (७)प्रकृतियों की उदय उदीरणा होती है उससे आगे नहीं !तिर्यंचायु के भी पांचवे गुणस्थान में मरण से पूर्व अंतिम आंवलि काल में उदीर्ण नहीं होती ,उदय होता है !मनुष्य आयु की छठे गुणस्थान तक उदीरणा और चौदवे गुणस्थान तक उदय रहता है !
आदि के दो शुक्ल ध्यान के स्वामी
शुक्लेचाद्येपूर्विद: ३७
शब्दार्थ-शुक्ले-शुक्ल ध्यान के, च ,आद्ये-आदि के,पूर्विद-पुर्वज्ञानधारी के होते है
अर्थ-आदि के दो शुक्ल ध्यान पूर्व ज्ञानधारी श्रुतकेवली के होता है उनके श्रेणी आरोहण से पूर्व 'च' का अभिप्राय ,धर्मध्यान और बाद में कर्म से पृथकत्व वितर्क और एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान क्रम से होता है!
संधि विच्छेद-विपरीतं-उक्त सूत्र का विपरीत अर्थात वियोग होना, मनोज्ञस्य-प्रिय वस्तुओं पुत्र पत्नी आदि का ,इष्ट वियोगज है !
अर्थ-प्रिय/इष्ट वस्तुओं पुत्र.पत्नी,सम्पत्ति आदि के वियोग होने पर निरंतर चिंतवन करना कि उनको कैसे प्राप्त किया जा सकता है ,इष्ट वियोगज आर्त्त ध्यान है !
वेदनाजन्य आर्तध्यान का लक्षण -
वेदनायाश्च !!३२!!
संधि विच्छेद -वेदना:+च
शब्दार्थ-वेदना:-वेदन से भी,च-और
अर्थ-रोगग्रस्त होने के कारण,शरीर में उत्पन्न पीड़ा की वेदना से, निरंतर उसी का चिंतवन करने से वेदनाजन्य आर्त्तध्यान होता है !
निदान आर्तध्यान का लक्षण -निदानंच !!३३!!
संधि विच्छेद-निदानं+ च
शब्दार्थ-निदानं+ च
अर्थ-भोगो की तृष्णा से पीड़ित होकर दिनरात। आगामी भोगों की प्राप्ति के लिए चिंतवन करते रहना निदान नामक आर्त्त ध्यान है !
भावार्थ -उक्त ३०,३१,३२,३३,सूत्रों के माध्यम से आर्त्त ध्यान के चार भेद बताये है
१-अनिष्ट संयोग जनित आर्त् ध्यान,
२-ईष्ट वियोग जनित आर्त्त ध्यान,
३-वेदना जनित आर्त्त ध्यान और
४-निदान आर्त्त ध्यान !गुणस्थानों की अपेक्षा आर्त्तध्यान के स्वामी है
तदविरत देशविरत प्रमत्तसंयतानाम् !!३४!!
संधि विच्छेद -तद+अविरत+देशविरत +प्रमत्तसंयतानाम्
शब्दार्थ-तदविरत-वह(आर्त्त ध्यान) अविरत चार गुणस्थानों में,देशविरत -पंचम गुणस्थान ,प्रमत्तसंयतानाम् और प्रमत्त संयत (छठे) गुणस्थान में होता है !
अर्थ-वह आर्त्त ध्यान अविरत चार गुणस्थानो,देशविरात-संयतसंयत पंचम गुणस्थान और १५ प्रकार के प्रमाद के कारण प्रमत्त संयत छटे गुणस्थान में होता है !
विशेष-फिले से छठे गुणस्थान तक अनिष्ट संयोगज ,इष्ट वियोगज ,और वेदना जन्य आर्त्त ध्यान तथा निदानज आर्त्त ध्यान आर्त्त ध्यान पंचम गुणस्थानवर्ती के होता है किन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान नामक आर्त्त ध्यान नहीं होता है क्योकि भाव लिंगी साधु को आगामी भोगों की आकांक्षा नहीं होती !अर्थात ४थे ,५वे और छटे गुणस्थानवर्ती जीवों के यह ध्यान क्वचित् कदाचित हो सकते है हमेशा नहीं रहते !किन्तु प्रथम आदि गुणस्थान में हमेशा रहते है
रौद्र ध्यान के भेद व स्वामी-,
हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्योरौद्रमविरतदेशविरतयो :!!३५!!
सन्धिविच्छेद -हिंसा+अनृत+स्तेय+विषय+संरक्षणेभ्यो +रौद्रम्+अविरत+देशविरतयो
शब्दार्थ-हिंसा-हिंसा,अनृत-झूठ, स्तेय-चोरी विषय-परिग्रह, संरक्षणेभ्यो-संचय की भावना से रौद्रम्-रौद्र ध्यान ,अविरत-अविरत आदि चार और देशविरतयो-देशकिरत गुणस्थानों में होता है !
अर्थ-हिंसा,झूठ ,चोरी और परिग्रहों के संचय की भावना से उत्पन्न रौद्र ध्यान अविरत के चार और देशविरत गुणस्थानों में होता है !
विशेष-निमित्त के आधार से रौद्र ध्यान के चार भेद-
१-हिंसानन्दी-हिंसा में आनंद मानकर उसके साधनो को जुटाने का यत्न करना हिंसानन्दी रौद्रध्यान है
२-मृषानन्दि-असत्य बोलने मे आनंद मानकर उसका चिंतवन करना मृषानन्दि रौद्रध्यान है!
३-चौर्यनन्दि -चोरी में आनंद मानकर उसी का चिंतवन करना चौर्यानंदी रौद्रध्यान है और
४-परिग्रह नन्दी-परिग्रहों में आनंद मानकर उनके रक्षण का चिंतवन करना परिग्रहनन्दि रौद्रध्यान है !
संयमी मुनि ,अर्थात छटे गुणस्थानवर्ती मुनि के रौद्र ध्यान नहीं होता अन्यथा वे असंयमी हो जाएंगे !
शंका-अविरत ,जो वर्ती नहीं है,के रौद्र ध्यान होना तो ठीक है किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के रौद्र ध्यान कैसे हो सकता है ?
समाधान-श्रावक को अपने धर्मायतनों ;स्त्री ,धन,इत्यादि की रक्षा का अभीष्ट भार होता है जिस की रक्षा करने के लिए,कभी हिंसा के आवेश में आकर रौद्र ध्यान हो सकता है किन्तु सम्यग्दृष्टि होने के कारण उसे नरक गति में ले जाने योग्य रौद्र ध्यान नहीं होता है !
धर्मध्यान का स्वरुप और चार भेद -
आज्ञापाय विपाक संस्थान विचयाय धर्म्यम् !!३६!!
संधि विच्छेद-आज्ञा+अपाय+विपाक+संस्थान+विचयाय+धर्म्यम्
शब्दार्थ-आज्ञा-आगम में जैसे आज्ञा है वैसा ही,अपाय-मिथ्यात्व में उलझे किन्तु मोक्ष के अभिलाषियोंके छुड़ाने के उपाय का विचार करना,विपाक-कर्मों के द्रव्य,क्षेत्र,काल,भव और भाव के निमित्त उदय पर फल का विचार करना ,संस्था-लोक के आकार और दशा का निरंतर चिंतवन करना, विचयाय-विचार /मानना धर्म्यम्-धर्मध्यान है
अर्थ-आज्ञा,अपाय,विपाक और संस्थान का निरंतर विचार/चिंतवन करना ,धर्मध्यान है !
भावार्थ-
१-आज्ञाविचय-अच्छे उत्कृष्ट उपदेशों/दृष्टान्तों के अभाव में/स्वयं की मंद बुद्धि/कर्मों के उदय/पदार्थों के अतिसूक्ष्म अथवा दूरवर्ती होने के कारण,सर्वज्ञ देव द्वारा कहे गए वचनो पर तदानुसार 'यह ऐसा ही है" दृढ श्रद्धान करना, क्योकि जिन अन्यथावादी नहीं होते,आज्ञाविचय धर्मध्यान है!स्वयं तत्वों का ज्ञाता होते हुए अन्यों को समझने के लिए युक्तियों और दृष्टान्तों का निरंतर चिंतवन करना,जिनसे उन्हें समझाया जा सके आज्ञा विचय धर्मध्यान है क्योकि उसके पीछे मूलभावना जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञा का प्रचार करना है !
२-अपायविचय-जो संसारी जीव मिथ्यात्व के वशीभूत कुमार्गों पर चल रहे है किन्तु मोक्ष के अभिलाषी है,उनके मिथ्यात्व से मुक्त करवाने के लिए, उपायों का निरंतर चिंतवन करना ,अपायविचाय धर्मध्यान है !
३-विपाक विचय-ज्ञानावरणीय कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र,काल,भाव और भव के अनुरूप उदय पर उनके फलों का निरंतर चिंतवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है !
४-संस्थानविचय-लोक के स्वरुप,आकार एवं स्थिति का निरंतर चिंतवन करना संस्थानविचयधर्मध्यान है
उक्त चार धर्म ध्यान के भेद है !
विशेष-
१-आचार्य पूजयपादस्वामी के अनुसार, उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों से युक्त उक्त धर्मध्यान चौथे अविरत , से ,७वे अप्रमत्त गुणस्थान तक होता है जबकि धवलाकार,आचार्यश्री वीरसैनस्वामी के मतानुसार १०वे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान तक होता है ,शुक्ल ध्यान उसके बाद होता है !
२-संसार ,भोग एवं शरीर से विरक्ति के फलस्वरूप उत्पन्न भावों की स्थिरता के लिए उत्तम क्षमादि १० धर्मों से युक्त ध्यान,को धर्म ध्यान कहते है !इनके निमित्त के भेद से आज्ञाविचय -तत्व निष्ठां में,अपायविचय-संसार, शरीर एवं भोगो से विरक्ति में,विपाकविचय-कर्मफल और उसके कारणों की विचित्रता का ज्ञान कराने में,तथा संस्थान विचय -लोक के स्वरुप /आकार ,स्थिति के ज्ञान में सहायक होते है!इससे उनके ज्ञान में दृढ़ता आती है !
३-विपाक विचय के स्वरुप में कर्मों के द्रव्य,क्शेत्रक़ाल,भाव और भव के निमित्त से कर्मों के उदय का विचार करने से अभिप्राय है की यद्यपि कर्मों के उदय या उदीरणा से जीव के औदायिक भाव एवं विभिन्न प्रकार के शरीरादि की प्राप्ति होती है किन्तु इन कर्मों का उदय अथवा उदीरणा किसी अन्य निमित्त के बिना नहीं होती है! जैसे उद्धाहरण के लिए -द्रव्यनिमित्तता- कोई व्यक्ति अपने परिवार के साथ घर की छत्त के नीचे बैठा मनोरंजन कर रहा है ,अकस्मात् छत गिर जाती है जिससे वह घायल होकर दुःख का वेदन करने लगता है ,यहाँ उस के दुःख में असाता वेदनीय कर्म का उदय उदीरणा में छत का टूट कर गिरना संयोग निमित्त है !गिरने वाली छत के निमित्त से उस व्यक्ति के असाता वेदनीय की उदय उदीरणा हुई जिसके फलस्वरूप उस व्यक्ति को असाता /दुःख का अनुभव /फल मिला!यही उक्त कथन का अभिप्राय है !इसी प्रकार अन्य कर्मों के उदय-उदीरणा में बाह्य द्रव्य के निमित्त का विचार कर लेना चाहिए !
काल निमित्त का विचार दो प्रकार से किया जाता है! १-प्रत्येक कर्म का उदय उदीरणा काल,२-वह काल जिसके निमित्त से ,बीच में ही कर्मों की उदय उदीरणा बदल जाती है !आगम में अध्रुवोदय रूप कर्म के उदय उदीरणा काल का निर्देश दिया है,उसके समाप्त होते ही विवक्षित कर्म के उदय उदीरणा का अभाव होकर ,उसका स्थान दुसरे कर्म की उदय-उदीरणा ले लेती है!जैसे हास्य और रति का उत्कृष्ट उदय-उदीरणा काल छह माह है इसके बाद इनकी उदय उदीरणा नहीं होकर शोक और अरति की उदय उदीरणा होने लगती है !किन्तु छ माह के अंदर ही हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही उनकी उदय उदीरणा बदल जाती है !यह कर्म का उदय उदीरणा काल है !उद्धाहरण के लिए कोई व्यक्ति देशान्तर के लिए निर्भय पूर्वक जा रहा है किन्तु किसी दिन मार्ग में रात्रि जंगल में ही,हिंसक पशुओं के बीच हो जाती है तथा उसे विश्राम के लिए सुरक्षित स्थान नहीं मिलता है !दिन भर वह नीताkintu रात्रि होते ही वह भयभीत होता है ! इससे उसकी असाता,अरति, भय,शोक का उदय-उदीरणा होने लगती है !यह काल निमितिक उदय उदीरणा है !इसी प्रकार क्षेत्र,भव,भाव निमित्तिक उदय उदीरणा को समझ सकते है !
उदय काल प्राप्त परमाणुओं के अनुभव (फल)को उदय कहते है !
उदीरणा -उद्यावली के बहार स्थित कर्म परमाणुओं को कषाय सहित या कषाय रहित योग; मन,वचन विशेष काय ,वीर्य विशेष दवरा उद्यावली में लाकर उनका उदयप्राप्त परमाणु के साथ अनुभव (फल) देने को उदीरणा कहते है !या प्रकार कर्म परमाणुओ का अनुभव उदय और उदीरणा दोनों में लिया जाता है !उदय में काल प्राप्त कर्म परमाणु और उदीरणा में अकाल प्राप्त कर्म परमाणु रहते है ,यही दोनों में अंतर है !
सामान्य नियम है की जहाँ जिस कर्म का उदय होता है वहां उसकी उदीर्ण अवश्य होती है फिर भी इसमें कुछ विशेषताए है -
१-मिथ्यात्व का उदय उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है!किन्तु उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव को अंतिम आवली प्रमाण काल में मिथ्यात्व की उदीरना नहीं होती ,वहां उसका मात्र उदय ही होता है !एकेन्द्रिय से चतुरिंद्रिय जाति,आतप,स्थावर,सूक्ष्म,अपर्याप्त,और साधारण इन ९ प्रकृतियों की उदय उदीरणा मिथ्यात्वगुणस्थान में ही होती है, अनंतानुबंधी चतुष्कक की उदय उदीरणा प्रथम २ गुणस्थानों में होती है आगे नहीं !सम्यग्मिथ्यात्व की उदय उदीरणा तीसरे गुणस्थान तक है,अन्य में नहीं !
सूत्र ३६ -आगे
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४ थे गुणस्थान में अप्रयाख्यान चतुष्कक,नरकगति,देवगति,वैक्रयिक(शरीर,अंगोपांग), दुर्भग,अनादेय ,अयश कीर्ति ,(११) तथा नरकायु और देवायु कर्म प्रकृतियों का उदय उदीरणा होता है ,
इसके आगे नहीं !मात्र मरण के समय, आयु के अंतिम आंवलि काल में उदय उदीरणा नही होती !
चार अनुपूर्वियों की उदय-उदीरणा पहिले ,दुसरे और चौथे गुणस्थानों में होती है उसके आगे नहीं !
पांचवे संयतासंयत गन स्थान में प्रत्याख्यान चतुष्कक,तिर्यंच गति,उद्योत और नीच गोत्र (७)प्रकृतियों की उदय उदीरणा होती है उससे आगे नहीं !तिर्यंचायु के भी पांचवे गुणस्थान में मरण से पूर्व अंतिम आंवलि काल में उदीर्ण नहीं होती ,उदय होता है !मनुष्य आयु की छठे गुणस्थान तक उदीरणा और चौदवे गुणस्थान तक उदय रहता है !
आदि के दो शुक्ल ध्यान के स्वामी
शुक्लेचाद्येपूर्विद: ३७
- संधि विच्छेद -शुक्ले+ च +आद्ये +पूर्विद:
अर्थ-आदि के दो शुक्ल ध्यान पूर्व ज्ञानधारी श्रुतकेवली के होता है उनके श्रेणी आरोहण से पूर्व 'च' का अभिप्राय ,धर्मध्यान और बाद में कर्म से पृथकत्व वितर्क और एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान क्रम से होता है!
- बाद के शुक्ल ध्यान के स्वामी
- परे केवलिन : ३८
- शब्दार्थ- परे -बाद के दो,केवलिन -केवली के होते है अर्थ- परे -बाद के दो अर्थात सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान और व्युपरतक्रियानिवर्ती शुक्ल ध्यान केवालिन :-सयोगकेवली और योग केवली के होते है !
- शुक्ल ध्यान के चार भेद
- -पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरतक्रिर्यानिवर्तीनि ३९
- संधि विच्छेद- पृथकत्ववितर्क+एकत्ववितर्क+सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति+व्युपरतक्रिर्यानिवर्तीनि
- अर्थ -पृथकत्ववितर्क,एकत्ववितर्क,सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति,व्युपरतक्रिर्यानिवर्तीनि शुक्ल ध्यान के ४ भेद है भावार्थ- पृथकत्ववितर्क- वितर्क -श्रुतज्ञान ,उस के अवलंबन के साथ पृथक्त्व होना जैसे कभी ॐ ,कभी ह्रीं ,कभी श्रीं का ध्यान करना ! एकत्ववितर्क -श्रुत का अवलंबन एकत्व के साथ होना,जैसे ॐ पर ध्यान केन्द्रित रहना ,उससे हटना नहीं ,एकत्ववितर्क शुक्लध्यान है! यह पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान से उत्कृष्ट है! सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति-सूक्ष्मक्रिया-शरीर की क्रिया सूक्ष्म रह गयी हो,अर्थात १३वे गुणस्थान के लगभग अंत के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में,जहाँ सूक्ष्म काययोग शेष रह गया हो और जहा से अप्रतिपाती-नीचे गिरना संभव हो ,सूक्ष्मक्रियाप्रतिपति शुक्ल ध्यान होता है! व्युपरतक्रिर्यानिवर्तीनि-व्युप्रत क्रिया निवर्तिनि-जहा मन ,वचन,काय की समस्त क्रिया समाप्त हो गयी हो ऐसे १४वे गुणस्थानवर्ती केवली भगवान् के व्युपरतक्रिर्यानिवर्ती शुक्ल ध्यान होता है!यद्यपि केवली भगवान् के ध्यान होता नहीं है,आचार्यों ने कहा है कि १३वे गुण स्थान के अंत और १४वे गुणस्थान में केवल उपचार से उनके ध्यान है, क्योकि ध्यान का कारण निर्जर वहां देखी जा रही है !उपचार से क्यों कहा क्योकि केवली भगवान् संसार के समस्त पदार्थों को एक साथ देखते जानते है,और ध्यान की परिभाषा है एकाग्र चिंतन योग इन समस्त वस्तुओं पर चिंतन को वे रोके, तब ध्यान होगा जो असंभव है!