02-09-2016, 11:12 AM
जीव का तत्व/ असाधारण -भाव
औपशमिकक्षायिकौभावौमिश्रश्चजीवस्य् स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिकौच -१
संधि विच्छेद -
औपशमिक+क्षायिकौ+भावौ+मिश्र:+च +जीवस्य्+ स्वतत्त्वं +औदयिक+ पारिणामिकौ+च
शब्द्दार्थ -
औपशमिक-औपशमिक,क्षायिकौ-क्षायिक ,भावौ-भाव, मिश्र+च -और मिश्र अर्थात क्षयोपशमिक ,जीवस्य्-जीव के, स्वतत्त्वं-स्वतत्व अर्थात निजी भाव है, औदयिक-औदयिक परिणामिकौ-पारिणामिक ,च -और
अर्थ- जीव के औपशमिक ,क्षायिक और मिश्र अर्थात क्षायोपशमिक ,औदायिक और पारिणामिक,ये पांच निजी भाव है!
औपशमिकभाव -कर्म के उपशम से जो आत्मा में भाव होता है औपशमिक भाव है !
क्षायिकभाव -कर्मों के क्षय से जो आत्मा में भाव होता है ,वह क्षायिक भाव है और
मिश्र/ क्षायोपशमिकभाव-कर्मों के क्षयोपक्षम से आत्मा का भाव होता है क्षयोपशमिक भाव है!
औदायिक भाव -कर्मो के उदय से आत्मा को जो भाव होता है ,औदयिक भाव है !और
पारिणामिकभाव- कर्मो के उपशम,क्षयोपशम ,क्षय और उदय के अभाव में,भाव पारिणामिक भाव है !
उपशम-द्रव्य ,क्षेत्र,काल ,भाव के निमित्त से कर्म की शक्ति के प्रगट न होने के उपशम कहते है !जैसे जल से मल का निर्मली के संयोग ओर बैठ जाना !
क्षय-कर्म के सर्वथा विनाश को क्षय कहते है !जैसे जल से मल को छान कर अलग कर लेना ,सर्वथा स्वच्छ करना !
क्षयोपशम-सर्वघाती स्पर्धकों का उद्याभावी क्षय तथा आगे उदय में आने वाले निषेको का सत्ता में उपशम और देशघाती स्पर्धकों का उदय होने को क्षयोपशम कहते है !जैसे कुछ मल निकल जाने पर कुछ बने थने पर मल की क्षीण क्षीण वृत्ति होना!
कर्म की अपेक्षा आत्मा के भाव:-
मोहनीय कर्म की उपशम,क्षय,क्षयोपशम और उदय ,चार अवस्था में चार भाव होते है।
ज्ञानावरण ,दर्शनावरण और अंतराय कर्म की क्षयोपशम,क्षय और उदय तीन अवस्था होती है अत: तीन भाव होते है और शेष चार कर्मों की उदय दो अवस्था होती है अत:दो भाव होते है !
भावो के भेद -
द्विनवाष्टादशैंकविंशतित्रि भेदायथाकर्मम्-२
संधि विच्छेद -
द्वि+नव+अष्टादश+एकविंशति+त्रि+ भेदा+यथाकर्मम्
शब्दार्थ -
द्वि-दो,,नव-नौ, अष्टादश-अट्ठारह,एकविंशति इक्कीस ,त्रि-तीन , भेदा+-भेद यथाकर्मम्-क्रमश: है
अर्थ-औपशमिक,क्षायिक ,क्षोपशमिक,औदायिक और पारिणामिक भावों के क्रमश:२,९,18. १ और तीन भेद है इस प्रकार कुल ५३ भाव होते है !
सम्यक्त्वचारित्रे -३
संधि विच्छेद - सम्यक्त्व+चारित्रे
अर्थ-औपशमिक भाव के ,औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यकचारित्र ,दो भेद है !
विशेष -
१-औपशमिक सम्यक्त्व-चारित्र मोहनीय की अनंतानुबंधी चतुष्क; क्रोध,मान,माया,लोभ और दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व,सम्यकमिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से जो आत्मा में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह औपशमिक सम्यक्त्व है !
२-औपशमिकचारित्र-चारित्र मोहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों; १२ कषाय की अप्रत्यख्यानावरण,प्रत्याख्या नावरण और संज्वलन क्रोध ,मान,माया,लोभ तथा ९ नो कर्म के उपशम से जो चारित्र होता है वह औपशमिक चारित्र है !
क्षायिक भाव के भेद -
ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणिच -४
संधि विच्छेद -
ज्ञान+दर्शन+दान+लाभ+भोग+उपभोग+वीर्याणि+च -
शब्दार्थः-क्षायिक ज्ञान-केवल ज्ञान,क्षायिक दर्शन-केवल दर्शन ,क्षायिक दान,लाभ,भोग,उपभोग ,वीर्य ,च-ऊपर के दोनों क्षायिक सम्यक्त्व और क्षयिक्चारित्र
अर्थ-क्षायिकभाव के ज्ञान(केवलज्ञान),दर्शन(केवल दर्शन,क्षायिक दान.क्षायिकलाभ,क्षायिकभोग,क्षायिक उपभोग, क्षायिकवीर्य च-और क्षायिक सम्यक्त्व और क्षयिक्चारित्र (ऊपर के सूत्र से लिए है ),इस प्रकार कुल ९ भेद क्षायिक भाव के है!
विशेष -
केवल ज्ञान -ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है
केवल दर्शन -दर्शनावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है !
क्षायिक (दान ,लाभ,भोग,उपभोग और वीर्य ),अंतराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होते है
क्षायिक सम्यक्त्व -सात प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न होता है
क्षायिक चारित्र -चारित्र मोहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों; १२ कषाय की अप्रत्यख्यानावरण,प्रत्याख्या नावरण और संज्वलन क्रोध ,मान,माया,लोभ तथा ९ नोकर्म के क्षय से जो चारित्र होता है वह क्षायिकचारित्र है
जीव तत्व के क्षायोपशमिक भाव के १८ भेद :-
जीव तत्व के क्षायोपशमिक भाव के १८ भेद :-
क्षायोपशमिकभाव के अट्ठारह भेद -
ज्ञानाज्ञानदर्शनलबध्यश्चतुस्त्रीत्रिपञ्चभेदा:सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च -५
संधिविच्छेद-ज्ञान+अज्ञान+दर्शन+लबध्य:+चतु:+त्रि+त्रि+पञ्च+भेदा:सम्यक्त्व+चारित्र+संयमासंयमा+च
४ ३ ३ ५ १ १ १ =१८
अर्थ-क्षायोपशमिकभाव के सम्यगज्ञान, अज्ञान(मिथ्या ज्ञान) ,दर्शन,लब्धि के क्रमश:४,३,३,५ भेद है सम्यक्त्व,चारित्र और संयमासंयम ,ये अट्ठारह भेद है !
भावार्थ-चार ज्ञान;मति,श्रुत,अवधि, मन:पर्ययज्ञान ,३अज्ञान ; कुमति, कुश्रुत, कुअवधि , तीन दर्शन; चक्षु, अचक्षु, और अवधि, पांच लब्धियां; दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य,सम्यक्त्व,चारित्र और संयमासंयम ,कुल १८ क्षयोपशमिक भाव है !क्योकि ये अपने प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से होते है !
विशेष -
१- चार क्षयोपशमिक ज्ञान भाव ;वीर्यान्तराय और अपने २ प्रतिपक्षी मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्यय; ज्ञानावरण संबधी वर्तमानकालीन सर्वघाती स्पर्धकों का उदयभावी क्षय,आगामी कालीन उन्ही का सदावस्था रूप उपशम,उनके ही देशघाती स्पर्धकों के उदय ,इन के निमित्त में उतपन्न हुए आत्मा के मति ,श्रुत,अवधि और मन:पर्यय चार ज्ञान, क्षयोपशमिक ज्ञान भाव होते है! ये चारों ज्ञानावरण के देश घातिया स्पर्धकों के क्षयोपशम से होते है जबकि केवलज्ञान,केवलज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षय से ही होता है उनका क्षयोपशम नहीं होता !
२- मिथ्यादर्शन के उदय की निमित्त में आत्मा को तीन ३ क्षयोपशमिक अज्ञान भाव ; कुमति कुश्रुत कुअवधि प्रगट होते है ! इनके ज्ञान गुण का अंश प्रगट है, प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से ये भाव होते है !
३-अपने अपने प्रतिपक्षी दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से व्यक्त आत्मा के तीन क्षयोपशमिक दर्शन; चक्षु अचक्षु और अवधि होते है !इनके देश घाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होते है !इनमे दर्शन गुण का अंश है इसलिए क्षयोपशम होता है
४- आत्मा के ५ क्षयोपशमिक लब्धिया; दान ,लाभ,भोगोपभोग और वीर्य क्रमश: दानंतराय , लाभान्तराय, भोगोपभोग अंतराय और वीर्य अंतराय कर्म के क्षयोपशम की निमित्त में होते है!ये देशघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम से होते है !
५-क्षयोपशमिक सम्यक्त्व भाव - मिथ्यात्व रूप तीन दर्शनमोहनीय;मिथ्यात्व,सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति और चार अनंतानुबंधी क्रोध ,मान,माया ,लोभ कषाय;सात कर्म प्रकृतियों के क्षयोपशम की निमित्ता में हुआ तत्वार्थ श्रद्धान रूप आत्मा / जीव का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भाव होता है !
६-क्षयोपशमिकचारित्र भाव ; चारित्र मोहनीय के अप्रत्यख्यानावरण ,प्रत्यख्यानावरण और संज्वलन क्रोध,मान,माया लोभ कषायों १२ प्रकृतियों के सर्वघाति स्पर्धकों के उदयभावी क्षय,उन्ही का सदावस्था रूप उपशम तथा संज्वलन कषाय के देशघाती स्पर्धकों और यथासम्भव नो कषाय के उदयरूप क्षयोपशम की निमित्ता में प्रगट हुआ आत्मा का पर द्रव्यों से निवृत्ति रूप स्वरुप -स्थिरतामय भाव क्षायोपशमिक चारित्र है !सातवे/छट्टे गुणस्थानव्रती में मुनि राज के प्रगट चारित्र से आत्मा के यह भाव होता है और
७-क्षायोपशमिकसंयमासंयम भाव ; अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क ; क्रोध मान माया और लोभ का उदयाभावी क्षय ,सदवस्था रूप उपशम तथा प्रत्यख्यानावरण और संज्वलन क्रोध,मान,माया लोभ कषायों और यथा सम्भव नोकषायों के उदयरूप क्षयोपशम की निमित्ता में प्रगट हुआ आत्मा का विरताविरत मय भाव क्षायोपशमिक संयमासंयम ! पांचवे गुणस्थानव्रती जीवो का यह भाव होता है!संयमसंयम प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम से होते है !
अपने प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम की निमित्ता में प्रगट हुए ये क्षयोपशमिक भाव १८ ही है हीनाधिक नही !
अपने प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम की निमित्ता में प्रगट हुए ये क्षयोपशमिक भाव १८ ही है हीनाधिक नही !
८ -औपशमिक और क्षायिक भाव मे पूरा गुण प्रगट हो जाता है !
९-एक इन्द्रियजीव के ८ भाव होते है ,नारकी और देवों के ३ ज्ञान,३ दर्शन,५ लब्धिया, कुल ११ तथा १२ अधिकतम भाव सम्यकत्व होने पर होते है
१०-देशघाती कर्मों के स्पर्धकों का ही क्षयोपशम होता है!गुण अंशत: जैसे ज्ञान ,दर्शन,चारित्र ,और दान,लाभ,भोगोपभोग,वीर्य गुण अंशत: प्रगट होते है!
१०-देशघाती कर्मों के स्पर्धकों का ही क्षयोपशम होता है!गुण अंशत: जैसे ज्ञान ,दर्शन,चारित्र ,और दान,लाभ,भोगोपभोग,वीर्य गुण अंशत: प्रगट होते है!
११--क्षयोपशम के सदर्भ में, १-उदयभावी क्षय-वर्तमान कालीन सर्वघाती स्पर्धकों की रसोदय रूप फल दिए बिना ही प्रदेशोदय रूप निर्जरा होती रहती है,यह उदयाभावी क्षय है!२-सदवस्था रूप उपशम -आगामी कालीन सर्वघाती स्पर्धक ,अपनी अपनी स्थिति पूर्ण कर अपने अपने उदय काल में फल दिए बिना ही प्रतिसमय प्रदेशोदय रूप से निर्जरित होते रहते है ,यह सदवस्था रूप उपशम है!३-उदय- देशघाति स्पर्धक प्रति समय अपने अपने रूप रस फल देते हुए ,उदय में आकर निर्जरित होते जाते है ,यही उदय है ! इन तीनों रूप एक साथ कर्मों का परिणमन क्षयोपशम है,तथा उस संबंधी जीव का परिणमन ,क्षायोपशमिक भाव है !
१२-स्पर्धक किसे कहते है -
संक्षेप में कर्माण वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते है !
विस्तार से-जीव के प्रति समय सिद्धराशि के अनंतवे भाग अथवा अभव्यराशि से अनन्तगुणे गुणे कर्म परमाणु उदय में आते है !इनमे से जघन्यतम गुण वाले परमाणु के अनुभाग(फल दान शक्ति) का बुद्धि से छेदन करने पर, शेष रहे अंतिम अविभागी प्रतिच्छेद सर्व जीव राशि से अनंत गुणे है !उनके समूह को वर्ग कहते है !
समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणु का समूह जघन्य वर्ग है ;
इन जघन्य वर्गों का समूह जघन्य वर्गणा है !
जघन्य वर्ग से जिनमे एक अविभागी प्रतिच्छेद अधिक है,उन परमाणुओं के समूहमय वर्ग का समुदाय द्वितीय वर्गणा है !इस प्रकार ,एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि के क्रम वाली कर्म वर्गणाओंं को जघन्य स्पर्धक कहते है !
इससे आगे ,जघन्य वर्गणा के वर्गो में जितने अविभाग प्रतिच्छेद है;उनसे दुगने जिस वर्गणा के वर्ग में अविभाग प्रतिच्छेद है ;वहा से दूसरा स्पर्धक प्रारम्भ होता है !इसमें भी एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि के क्रमवाले वर्गों के समूहमय वर्गणाओं के समुदाय को द्वितीय स्पर्धक कहते है !
प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के वर्ग में जितने अविभाग प्रतिच्छेद है ;उससे तीन गुने जिस वर्गणा के वर्गों में अविभाग प्रतिच्छेद है ;वहां से तृतीय स्पर्धक प्रारम्भ होता है !इसी प्रकार से और भी वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते है!एक उदय स्थान में अभव्यराशि से अनन्तगुणे या सिद्धराशि के अनंतवे भाग प्रमाण स्पर्धक होते है !
ये सभी स्पर्धक दो प्रकार है -सर्वघाति और देशघाति !जिनके उदय की निमित्ता में, आत्मा के तत्संबंधी गुण की किंचित भी प्रगटता नही होती है वे सर्वघाति स्पर्धक है !तथा जिनके उदय की निमित्ता में आत्मा के तत्संबंधी गुण की कुछ प्रगटता होती है ,वे देशघाति स्पर्धक है !
उक्त सूत्र संबंधी १२ विशेषों में उल्लेखित परिभाषाये कंठस्थ कर लेनी चाहिए !आगे जैन धर्म को समझने में उपयोगी होंगी
जीव का तत्व /औदयिक भाव के २१ भेद -
१२-स्पर्धक किसे कहते है -
संक्षेप में कर्माण वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते है !
विस्तार से-जीव के प्रति समय सिद्धराशि के अनंतवे भाग अथवा अभव्यराशि से अनन्तगुणे गुणे कर्म परमाणु उदय में आते है !इनमे से जघन्यतम गुण वाले परमाणु के अनुभाग(फल दान शक्ति) का बुद्धि से छेदन करने पर, शेष रहे अंतिम अविभागी प्रतिच्छेद सर्व जीव राशि से अनंत गुणे है !उनके समूह को वर्ग कहते है !
समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणु का समूह जघन्य वर्ग है ;
इन जघन्य वर्गों का समूह जघन्य वर्गणा है !
जघन्य वर्ग से जिनमे एक अविभागी प्रतिच्छेद अधिक है,उन परमाणुओं के समूहमय वर्ग का समुदाय द्वितीय वर्गणा है !इस प्रकार ,एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि के क्रम वाली कर्म वर्गणाओंं को जघन्य स्पर्धक कहते है !
इससे आगे ,जघन्य वर्गणा के वर्गो में जितने अविभाग प्रतिच्छेद है;उनसे दुगने जिस वर्गणा के वर्ग में अविभाग प्रतिच्छेद है ;वहा से दूसरा स्पर्धक प्रारम्भ होता है !इसमें भी एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की वृद्धि के क्रमवाले वर्गों के समूहमय वर्गणाओं के समुदाय को द्वितीय स्पर्धक कहते है !
प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के वर्ग में जितने अविभाग प्रतिच्छेद है ;उससे तीन गुने जिस वर्गणा के वर्गों में अविभाग प्रतिच्छेद है ;वहां से तृतीय स्पर्धक प्रारम्भ होता है !इसी प्रकार से और भी वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते है!एक उदय स्थान में अभव्यराशि से अनन्तगुणे या सिद्धराशि के अनंतवे भाग प्रमाण स्पर्धक होते है !
ये सभी स्पर्धक दो प्रकार है -सर्वघाति और देशघाति !जिनके उदय की निमित्ता में, आत्मा के तत्संबंधी गुण की किंचित भी प्रगटता नही होती है वे सर्वघाति स्पर्धक है !तथा जिनके उदय की निमित्ता में आत्मा के तत्संबंधी गुण की कुछ प्रगटता होती है ,वे देशघाति स्पर्धक है !
उक्त सूत्र संबंधी १२ विशेषों में उल्लेखित परिभाषाये कंठस्थ कर लेनी चाहिए !आगे जैन धर्म को समझने में उपयोगी होंगी
जीव का तत्व /औदयिक भाव के २१ भेद -
गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश् चतुस्त्रयेकैकैकैकषड्भेदा:६
४ ४ ३ १ १ १ १ ६ =२१
संधि विच्छेद-
गति+कषाय+लिंग+मिथ्यादर्शन+अज्ञान+असंयत+असिद्ध+लेश्या:+चतु:+चतु:+त्रि:+कै+कै+कै+क+षड्भेदा:
शब्दार्थ- ४ गति ,४ कषाय,३ लिंग,१ मिथ्यादर्शन,१ अज्ञान,१ असंयत,१ असिद्ध,६ लेश्या: -भेद है
शब्दार्थ- ४ गति ,४ कषाय,३ लिंग,१ मिथ्यादर्शन,१ अज्ञान,१ असंयत,१ असिद्ध,६ लेश्या: -भेद है
अर्थ -कर्मों के उदयमें होने वाले जीव के औदयिक भाव २१ है !
१-औदयिकगतिभाव- जिस गतिनामकर्म के उदय से आत्मा को नारक ,तिर्यंच,देव, अथवा मनुष्य आदि, गति भाव की प्राप्ति होती है,वह औदयिकगतिभाव है! इसके ४ भेद है-
१-औदयिकनरकगति ,२-औदयिकदेवगति,३-औदयिकतिर्यंचगति,४-औदयिकमनुष्यगति,
१-औदयिकगतिभाव- जिस गतिनामकर्म के उदय से आत्मा को नारक ,तिर्यंच,देव, अथवा मनुष्य आदि, गति भाव की प्राप्ति होती है,वह औदयिकगतिभाव है! इसके ४ भेद है-
१-औदयिकनरकगति ,२-औदयिकदेवगति,३-औदयिकतिर्यंचगति,४-औदयिकमनुष्यगति,
२-औदयिक कषाय भाव-चारित्र-मोहनीय के भेद रूप कषाय-वेदनीय के उदय में आत्मा के क्रोध ,मान, माया, लोभ रूप चार भेद वाली कलुषता होना, औदयिककषायभाव है!जो आत्मा को कसे ,दुख दे/उसका घात करे ,वह कषाय है इन के चार भेद है:-
१-औदयिकक्रोधकषायभाव,२-औदयिकमानकषायभाव,३-औदयिकमायाकषायभाव,४-औदयिकलोभकषायभाव ३-औदयिकलिंगभाव-चरित्रमोहनीय के भेद रूप;अकषाय (नो कर्म) वेदनीय के उदय में आत्मा को स्त्री,पुरुष, नपुंसक के साथ रमण करने रूप परिणाम होना औदयिकलिंगभाव है!इसके तीन भेद:-
१ औदयिक स्त्री लिंग (वेद)भाव, २-औदयिक पुरुषलिंग(वेद) भाव और ३-औदयिक नपुंसक लिंग (वेद) भाव है !
लिंग के दो भेद है
१-द्रव्यलिंग -अंगोपांग नाम कर्म के उदय में हुई योनि,शिशिन आदि आकार रूप शरीर द्रव्यलिंग है !
२-भावलिंग-स्त्री ,पुरुष,नपुंसक के साथ रमण रने की अभिलाषा रूप भाववेद मात्र आत्मा का परिणाम है !यह भाव लिंग ही यहां ग्रहण करना है !
१-औदयिकक्रोधकषायभाव,२-औदयिकमानकषायभाव,३-औदयिकमायाकषायभाव,४-औदयिकलोभकषायभाव ३-औदयिकलिंगभाव-चरित्रमोहनीय के भेद रूप;अकषाय (नो कर्म) वेदनीय के उदय में आत्मा को स्त्री,पुरुष, नपुंसक के साथ रमण करने रूप परिणाम होना औदयिकलिंगभाव है!इसके तीन भेद:-
१ औदयिक स्त्री लिंग (वेद)भाव, २-औदयिक पुरुषलिंग(वेद) भाव और ३-औदयिक नपुंसक लिंग (वेद) भाव है !
लिंग के दो भेद है
१-द्रव्यलिंग -अंगोपांग नाम कर्म के उदय में हुई योनि,शिशिन आदि आकार रूप शरीर द्रव्यलिंग है !
२-भावलिंग-स्त्री ,पुरुष,नपुंसक के साथ रमण रने की अभिलाषा रूप भाववेद मात्र आत्मा का परिणाम है !यह भाव लिंग ही यहां ग्रहण करना है !
४-औदयिकमिथ्यादर्शनभाव:-दर्शन-मोह के उदय की निमित्ता में, आत्मा को तत्वार्थ का अश्रद्धान रूप परिणाम होना, मिथ्यादर्शनऔदयिकभाव है!मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय में उपदेश सुनने पर भी जीव को तत्वार्थों का श्रद्धान उत्पन्न नही होता !भावमिथ्यात्व कर्म के उदय मे एक मिथ्यादर्शनभाव होता है ,
५-औदयिकअज्ञानभाव-ज्ञानावरणकर्म के उदय की निमित्ता में आत्मा को पदार्थों का ज्ञान नही होना,एक औदयिकअज्ञानभाव है!जैसे एकेन्द्रिय जीव के स्पर्शन के अतिरिक्त; शेष चारो इन्द्रियों संबंधी मतिज्ञानवरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से उन्हें रस,गंध,रूप,शब्दमय विषयों का ज्ञान नही होना, अज्ञानरूप औदयिक भाव है !अज्ञान भाव १२ गुणस्थान तक रहता है!
६-औदयिकअसंयतभाव- चारित्रमोहनीय की सर्वघाति स्पर्धकों के उदय की निमित्ता में,प्राणियों के घात और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त नही होना,विशेष आत्म स्थिर नही होना,एक औदयिकअसंयतभाव है!यह संयम नहीं लेने पर होता है!
७-औदयिकअसिद्धभाव-अनादिकालीन अष्टकर्म बंधनों की पराधीनता से, सामान्यतया कर्म के उदय की निमित्ता में,सिद्ध पर्याय की प्राप्ति नही होना,एक औदयिकअसिद्ध भाव है, और
८-औदयिक लेश्या भाव-कषायों के उदय से अनुरंजित शरीरनाम कर्म के तीन, मन वचन काय योगों की प्रवृत्ति ,लेश्या है !इनके भेद छ: है !
१-कृष्ण,२-नील,३-कपोत,४-पीत ५-पदम और ६-शुक्ल )
प्रत्येक के दो दो भेद है
१-द्रव्य लेश्या-पुद्गल-विपाकी नामकर्म के उदय में शरीर का कृष्णादि वर्ण होना द्रव्य लेश्या है!
२-भावलेश्या-आत्मा के परिणामों की अशुद्धतामय कषाय से लिप्त मन,वचन,काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों की चंचलता रूप भावलेश्या ही विवक्षित है!कर्मोदय में होने के कारण लेश्या भी औदयिक भाव है!इसके छ भेद लेश्यों की अपेक्षा क्रमश
१-औदयिककृष्णलेश्याभाव,२-औदयिकनीललेश्याभाव.३-औदयिककपोतलेश्याभाव,४-औदयिकपीतलेश्या भाव,५-औदयिकपद्म लेश्याभाव.६-औदयिक शुक्ल लेश्या भाव, है !
एक समय जीव के किसी एक लेश्या का उदय रहता है !जब हम किसी धार्मिक क्रिया मे प्रवृत्त होते है उस समय पद्म अथवा शुक्ल लेश्या का उदय हो सकता है,इस प्रकार जीव तत्व के औदयिक भाव कुल २१ है !
१-कृष्ण,२-नील,३-कपोत,४-पीत ५-पदम और ६-शुक्ल )
प्रत्येक के दो दो भेद है
१-द्रव्य लेश्या-पुद्गल-विपाकी नामकर्म के उदय में शरीर का कृष्णादि वर्ण होना द्रव्य लेश्या है!
२-भावलेश्या-आत्मा के परिणामों की अशुद्धतामय कषाय से लिप्त मन,वचन,काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों की चंचलता रूप भावलेश्या ही विवक्षित है!कर्मोदय में होने के कारण लेश्या भी औदयिक भाव है!इसके छ भेद लेश्यों की अपेक्षा क्रमश
१-औदयिककृष्णलेश्याभाव,२-औदयिकनीललेश्याभाव.३-औदयिककपोतलेश्याभाव,४-औदयिकपीतलेश्या भाव,५-औदयिकपद्म लेश्याभाव.६-औदयिक शुक्ल लेश्या भाव, है !
एक समय जीव के किसी एक लेश्या का उदय रहता है !जब हम किसी धार्मिक क्रिया मे प्रवृत्त होते है उस समय पद्म अथवा शुक्ल लेश्या का उदय हो सकता है,इस प्रकार जीव तत्व के औदयिक भाव कुल २१ है !
विशेष -
१-दुसरे सूत्र में 'यथाक्रमम्' शब्द अनुवृत्ति करने से गति आदि शब्दों के साथ क्रमश ४ आदि संख्या ली गई है !
२-औदयिक भाव, संसार भ्रमण के कारण है क्योकि कर्मोदय से क्रोध आता है,उसमे हम संयमित नही रहने के कारण उत्कृष्तम डेढ़ सौ गुना कर्म बाँध लेते है!
मानलीजिए १०० कर्म उदय में आये !डेढ़गुना =१५० ,इन का १०० गुना=१००x १५०=१५००० नवीन कर्म संसार चक्र में घूमने के लिए बंधे !अत: विशेष सावधानी की आवश्यकता है !
१-दुसरे सूत्र में 'यथाक्रमम्' शब्द अनुवृत्ति करने से गति आदि शब्दों के साथ क्रमश ४ आदि संख्या ली गई है !
२-औदयिक भाव, संसार भ्रमण के कारण है क्योकि कर्मोदय से क्रोध आता है,उसमे हम संयमित नही रहने के कारण उत्कृष्तम डेढ़ सौ गुना कर्म बाँध लेते है!
मानलीजिए १०० कर्म उदय में आये !डेढ़गुना =१५० ,इन का १०० गुना=१००x १५०=१५००० नवीन कर्म संसार चक्र में घूमने के लिए बंधे !अत: विशेष सावधानी की आवश्यकता है !
जीवभव्याभव्यत्वानि च -७
संधि विच्छेद -
जीव +भव्य+अभव्य+त्वानि +च
शब्दार्थ - जीव +त्व =जीवत्व ,भव्य+त्व =भव्यत्व,अभव्य++त्व =अभव्यत्व ,
च =अस्तित्व,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेत्व,अगुरुलघुत्व ,प्रदेशत्व आदि सामान्य/साधारण भावों का भी ग्रहण होता है
अर्थ-जीवत्व,भव्यत्व,अभव्यत्व ,तीन जीवके असाधारण पारिणामिक भाव है जो जीव में ही पाये जाते है!'च' से अस्तित्व,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेत्व, अगुरुलघुत्व , प्रदेशत्व आदि साधारण भावों(जो की अन्य द्रव्यों के भी होते है) का भी ग्रहण होता है !किन्तु असाधारण पारिणामिक भाव जीव के ३ ही है !
१-जीवत्व पारिणामिक भाव -पदार्थों के सामान्य और विशेष रूप को जानने वाली चेतना लक्षण सहित आत्मा का परिणाम/स्वाभाविक भावों जीवत्व पारिणामिक भाव है! यह प्रथम गुणस्थान से सिद्ध भगवान तक सभी जीवों में होता है !दर्पण के समक्ष रंग बिरंगी वस्तुए रखी होनेपर दर्पण में विभिन्न रंग दिखते है किन्तु वे रंग स्वभाव नही है !साधारणतया हर दृष्टि दर्पण में झलकते रंगों को देखती है किन्तु जो दृष्टि दर्पण की स्वच्छता को देखे वह आत्मा के पारिणामिक भाव है !
२-भव्यत्व पारिणामिक भाव -सम्यग्दर्शनादि पर्याय रूप परिणमित होने की योग्यता ,भव्यत्व पारिणामिक भाव है-यह भाव चतुर्थ से १४वे गुणस्थान तक के जीवों के होता है
३-अभव्यत्व पारिणामिक भाव-सम्यग्दर्शनादि पर्याय रूप परिणमित होने की योग्यता नही होना,अभव्यत्व पारिणामिक भाव है !मात्र प्रथम गुणस्थान के जीवों के होता है !
ये तीनों अनादिकालीन भाव;कर्म के उदय,उपशम,क्षयोपशम ,क्षय की अपेक्षा से रहित है ,स्वयं द्रव्य के परिण मन रूप है !इनके साथ अन्य द्रव्यका संबंध नही है!
हमारे जीवत्व भाव तो है ,हमे अपना भव्यत्व भाव माना चाहिए जबकि यह केवली का विषय है !
विशेष-जीवों का विभिन्न भावों की अपेक्षा अल्पबहुत्व -संसार में सबसे कम औपशमिक भाव वाले जीव,उससे अधिक क्षयिक भाव वाले,उससे अधिक क्षयोपशमिकभाव वाले ,उससे औदयिक भाव वाले और उतने ही पारिणामिक भाव वाले जीव है !
जीव का लक्षण -जो जीव मे ही पाया जाता है
जीव +भव्य+अभव्य+त्वानि +च
शब्दार्थ - जीव +त्व =जीवत्व ,भव्य+त्व =भव्यत्व,अभव्य++त्व =अभव्यत्व ,
च =अस्तित्व,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेत्व,अगुरुलघुत्व ,प्रदेशत्व आदि सामान्य/साधारण भावों का भी ग्रहण होता है
अर्थ-जीवत्व,भव्यत्व,अभव्यत्व ,तीन जीवके असाधारण पारिणामिक भाव है जो जीव में ही पाये जाते है!'च' से अस्तित्व,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेत्व, अगुरुलघुत्व , प्रदेशत्व आदि साधारण भावों(जो की अन्य द्रव्यों के भी होते है) का भी ग्रहण होता है !किन्तु असाधारण पारिणामिक भाव जीव के ३ ही है !
१-जीवत्व पारिणामिक भाव -पदार्थों के सामान्य और विशेष रूप को जानने वाली चेतना लक्षण सहित आत्मा का परिणाम/स्वाभाविक भावों जीवत्व पारिणामिक भाव है! यह प्रथम गुणस्थान से सिद्ध भगवान तक सभी जीवों में होता है !दर्पण के समक्ष रंग बिरंगी वस्तुए रखी होनेपर दर्पण में विभिन्न रंग दिखते है किन्तु वे रंग स्वभाव नही है !साधारणतया हर दृष्टि दर्पण में झलकते रंगों को देखती है किन्तु जो दृष्टि दर्पण की स्वच्छता को देखे वह आत्मा के पारिणामिक भाव है !
२-भव्यत्व पारिणामिक भाव -सम्यग्दर्शनादि पर्याय रूप परिणमित होने की योग्यता ,भव्यत्व पारिणामिक भाव है-यह भाव चतुर्थ से १४वे गुणस्थान तक के जीवों के होता है
३-अभव्यत्व पारिणामिक भाव-सम्यग्दर्शनादि पर्याय रूप परिणमित होने की योग्यता नही होना,अभव्यत्व पारिणामिक भाव है !मात्र प्रथम गुणस्थान के जीवों के होता है !
ये तीनों अनादिकालीन भाव;कर्म के उदय,उपशम,क्षयोपशम ,क्षय की अपेक्षा से रहित है ,स्वयं द्रव्य के परिण मन रूप है !इनके साथ अन्य द्रव्यका संबंध नही है!
हमारे जीवत्व भाव तो है ,हमे अपना भव्यत्व भाव माना चाहिए जबकि यह केवली का विषय है !
विशेष-जीवों का विभिन्न भावों की अपेक्षा अल्पबहुत्व -संसार में सबसे कम औपशमिक भाव वाले जीव,उससे अधिक क्षयिक भाव वाले,उससे अधिक क्षयोपशमिकभाव वाले ,उससे औदयिक भाव वाले और उतने ही पारिणामिक भाव वाले जीव है !
जीव का लक्षण -जो जीव मे ही पाया जाता है
उपयोगोलक्षणम् -८
संधि विच्छेद
-उपयोगो++लक्षणम्
अर्थ -(जीव का) लक्षण उपयोग है !
उपयोग-आत्मा/जीव का जो भाव वस्तु को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते है !
उपयोग-आत्मा/जीव का जो भाव वस्तु को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते है !
विशेष -चैतन्य के होने पर होने वाले परिणाम उपयोग कहते है !
उपयोग के भेद -
सद्विविधोऽष्टचतुर्भेद:-९
संधि विच्छेद - स+द्विविध: +अष्ट+चतुः +भेद :
शब्दार्थ -
स (वह उपयोग )द्विविध:-दो पकार का ;ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग है ,उसके क्रमश:अष्ट-आठ और चतुः -चार ,भेद:-भेद है
अर्थ - उपयोग के ज्ञानोपयोगऔर दर्शनोपयोग दो भेद है !ज्ञानोपयोग के आठ भेद ,मति,श्रुत,अवधि,मन: पर्यय, केवलज्ञान,कु(मति,श्रुत,अवधि) और दर्शनोपयोग के चक्षु,अचक्षु,अवधि और केवलदर्शन दर्शनोपयोग चार भेद है जीव के भेद
संसारिणो मुक्ताश्च -१०
शब्दार्थ-संसारिणो-संसारी ,मुक्त-मुक्त, च-यद्यपि अरिहंत ने चार घातिया कर्मों का क्षय कर लिया है किन्तु चार अघातिया कर्मों का क्षय नहीं किया है इसलिए वे संसारी ही है
अर्थ संसारी और मुक्त जीव दो प्रकार के होते है!यहाँ 'च' दर्शाता है की यद्यपि अरिहंत ने चार घातिया कर्मों का क्षय कर लिया है किन्तु चार अघातिया कर्मों का क्षय नहीं किया है इसलिए वे संसारी ही है !
संसारी जीव के भेद
समनस्कामनस्का:-११
संधि विच्छेद -
समनस्क+अमनस्का:
शब्दार्थ -समनस्क-मन सहित अर्थात सैनी ,अमनस्का: -मन रहित अर्थात असैनी
अर्थ-संसारी जीव सैनी ,मन सहित और असैनी -मन रहित;दो प्रकार के होते है !
संसारी जीवों के त्रस और स्थावर की अपेक्षा दो भेद -
संसारिणस्त्रसस्थावर: !!१२!!
संधि विच्छेद -
संसारिण:+त्रस+स्थावर:
शब्दार्थ -
संसारिण:-संसारी जीव ,त्रस-त्रस और स्थावर भेद से दो प्रकार के होते है
अर्थ -संसारी जीव त्रस और स्थावर दो प्रकार के होते है !
त्रस -दो से पंचेंद्रियों से युक्त जीव त्रस कहलाते है !
स्थावर-एक स्पर्शन इंद्री से युक्त जीव स्थावर कहलाते है !
स्थावर जीवों के भेद-
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय:स्थावर:-१३
संधि विच्छेद -
पृथिवी+अप्+तेज:+वायु+वनस्पतय:+स्थावर
शब्दार्थ-पृथिवी-पृथिवीकायिक,अप्-जलकायिक,तेज-अग्निकायिक, वायु-वायुकायिक और वनस्पतय:-वनस्पति कायिक,स्थावर-स्थावर जीव है !
अर्थ-पृथिवीकायिक,जलकायिक ,अग्निकायिक,वायुकायिक और वनस्पिकायिकजीव, पांच स्थावर जीव के भेद है !
विशेष -
१-पृथिवीकायिक ,जलकायिक ,अग्निकायिक,वायुकायिक और वनस्पिकायिक जीव की काय/शरीर ही क्रमश: पृथिवी,जल,अग्नि,वायु और वनस्पति है !
२-विग्रहगति मे जीव क्रमश:पृथिवीजीव:,जलजीव:,अग्निजीव:,वायुजीव:और वनस्पतिजीव: होता है!जब अंतर्मूर्हत समय में यह जीव, स्थावर नामकर्म के उदय से क्रमश:पुद्गल पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु,वनस्पति को अपना शरीर बनाकर जन्म ले लेता है तब क्रमश:पृथिवीकायिक ,जलकायिक ,अग्निकायिक,वायुकायिक और वनस्पिकायिक जीव होता है!जब यह जीव अपनी बद्ध आयु पूर्ण कर के अन्य भव की यात्रा के लिए चला जाता है तो फिर से क्रमश: अपनी अपनी पुद्गलकाय; पृथ्वी,जल ,अग्नि,वायु और वनस्पति को छोड़कर चला जाता है!जो पुद्गल काय बचती हैवह क्रमश पृथ्वीकाय ,जलकाय ,अग्निकाय ,वायुकाय और वनस्पतिकाय कहलाती है!
इसे उद्धाहरण से समझ सकते है -
हाइड्रोजन और आक्सीजन के संयोग से शुद्ध जल बनता है,यह पुद्गल जल,जीव रहित है !अंतर्मूर्हत में कोई जल जीव: विग्रह गति से आकर,जलकायिकस्थावर नाम कर्म के उदय से इस जल में प्रवेश कर ,इस जल को अपना शरीर बना कर जन्म ले लेता है, तब वह जलकायिक जीव हो जाता है!इस जल को छानकर त्रस जीव को अलग कर लेते है तो नीचे स्थावर जीव सहित जल छनकर आता है किन्तु वे जीव हमें सूक्ष्मता और जल ही उनका शरीर /काय होने के कारण नहीं दीखते !अब इस छने जल को हम जब उबालते है तो उसके जलकायिक जीव समाप्त हो जाते है और २४ घंटे के लिए हमें जीव रहित, प्रासुक पुद्गल जल मिल जाता है !यह पुद्गल जल अजीव है,जीव रहित है,मात्र जलकाय है !
२-स्थावर-स्थावर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की पर्याय विशेष को स्थावर कहते है !
३- पांच स्थावर जीवों की उत्कृष्ट आयु-
मृदु पृथ्वीकायिक की १२००० वर्ष,खर पृथ्वीकायिक की २२००० वर्ष,जलकायिक की ७००० वर्ष,अग्निकायिक की ३ दिन ,वायुकायिक की ३००० वर्ष,वनस्पतिकायिक की १०००० वर्ष है
त्रस जीवों के भेद -
द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:-१४
संधि विच्छेद -
द्वीन्द्रिय:+आदय +त्रसा:
शब्दार्थ -द्वीन्द्रिय:-द्वीन्द्रिय को,आदय -को पहिला मानकर सब ,त्रसा:त्रस जीव है !
अर्थ- द्वीन्द्रिय को पहला मानकर उस सहित सभी अर्थात द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय ,चतुरुन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव, त्रस जीव है !
विशेष-विकलत्रय जीव की उत्कृष्ट आयु-(द्वी से चतुरिंद्रिय जीव विकलत्रय जीव कहलाते है)
दो इन्द्रिय जैसे शंख,सीप,केंचुआ ,जौंक आदि की उत्कृष्ट आयु १२ वर्ष,तीन इन्द्रिय;चींटी,मकोड़ा आदि की ४९ दिन और चतुरिंद्रिय;भौरा,मक्खी ,पतन्गादि की ६ माह है !
पंचेन्द्रिय मनुष्य,गाय,पक्षी आदि जीवो के उत्कृष्ट आयु सातवे नरक /सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर है जघन्य अंतर्मूर्हत है !
इन्द्रियों की संख्या के भेद
इन्द्रियों की संख्या के भेद
पञ्चेन्द्रियाणि-१५
संधि विच्छेद -
पञ्च+ इन्द्रियाणि
शब्दार्थ -पञ्च-पांच , इन्द्रियाणि-इन्द्रियां होती है
अर्थ -इन्द्रियां पांच होती है !
इंद्र-आत्मा;संसारी जीव के लिंग को;उसे पहिचानने के चिन्ह को;इन्द्रिय/जाति,अंगोपांग नामकर्म के उदय की निमित्ता में हुई, शरीर में इन्द्रिय रूप आकार की रचना को इन्द्रिय कहते है !अपने अपने विषय का ज्ञान करने के लिए पाचों इन्द्रिय,स्पर्शन,रसना ,घ्राण,चक्षु और श्रोत स्वतंत्र है,अन्य की अपेक्षा से रहित है !
शंका-मन के माध्यम से भी आत्मा के उपयोग की प्रवृत्ति होती है किन्तु मन को इन्द्रियों में क्यों नही गिना ?
समाधान-जिस प्रकार चक्षु,आदि इन्द्रियां पृथक पृथक नियम से बाह्य स्थान में स्थित है वैसे मन बाह्य स्थान में नही दीखता अत: इसे अनिन्द्रियपना जानिये !
इंद्र-आत्मा;संसारी जीव के लिंग को;उसे पहिचानने के चिन्ह को;इन्द्रिय/जाति,अंगोपांग नामकर्म के उदय की निमित्ता में हुई, शरीर में इन्द्रिय रूप आकार की रचना को इन्द्रिय कहते है !अपने अपने विषय का ज्ञान करने के लिए पाचों इन्द्रिय,स्पर्शन,रसना ,घ्राण,चक्षु और श्रोत स्वतंत्र है,अन्य की अपेक्षा से रहित है !
शंका-मन के माध्यम से भी आत्मा के उपयोग की प्रवृत्ति होती है किन्तु मन को इन्द्रियों में क्यों नही गिना ?
समाधान-जिस प्रकार चक्षु,आदि इन्द्रियां पृथक पृथक नियम से बाह्य स्थान में स्थित है वैसे मन बाह्य स्थान में नही दीखता अत: इसे अनिन्द्रियपना जानिये !