तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ३
#1

अजीव के आधार/आश्रय से आस्रव-
निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गाद्वि-चतुर्द्वि-त्रिभेदा:परम् ९
संधि विच्छेद-निर्वर्तना+निक्षेप+संयोग+निस:द्वि+चतुः+द्वि+त्रि+भेदा:+परम्शब्दार्थ-
निर्वर्तना=रचना करना,,निक्षेप=वस्तु को उठाना/रखना,संयोग=वस्तु को आपस में मिलाना,,निसग:=मन.वचन,काय से प्रवृत्ति,द्वि=दो,चतु:=चार,त्रि-तीन,भेदा:=भेद है ,परम्=(सूत्र ७ में बाद वाले अर्थात अजीव अधिकरण के है)!
भावार्थ- निर्वर्तना/रचना- दो, निक्षेप /वस्तु को उठाना /रखना-चार, संयोग/वस्तुओं को मिलाना-दो और निसग:/मन/वचन/कांय की प्रवृत्ति-तीन,कुल ११ अजीव अधिकरण है अर्थात अजीव के आधार से कर्मों का आस्रव होता है!
निर्वर्तना=रचना के दो भेद है 
१-मूलगुण निर्वर्तना=शरीर,मन,श्वासोच्छ्वास आदि की रचना करना
२-उत्तरगुण निर्वर्तना=पाषाण,लकड़ी,विध्वंसक कार्यों के लिए रोबोट आदि बनाना!इनके आश्रय से जो जीव के परिणाम में जो भाव आते है वह निर्वर्तना नामक अजीव अधिकरण है!जैसे आजकल शादियों में सलाद,मछली आदि के आकार में सजाई जाते है,उसको छूरी से काट कर खाते है! यह अजीव अधिकरण आस्रव है! यह अजीव के आश्रय से होने वाला पाप है! किसी चादर, कपडे, या साड़ी पर पशु-पक्षी,आदि जीव प्रिंट होने पर यदि हम उसे काटते है तो पापकर्म बंध होता है! यह भी अजीवा- धिकरण आस्रव है!चीनी के खिलौने पशु आकर बनवाकर खाना भी निर्वर्तना अजीव अधिकरण आस्रव है!
निक्षेप=पुद्गल वस्तुओं के रखने से पाप/पुण्य कैसे होता है-
१-अप्रत्यवेक्षित निक्षेप-बिना देखे शोधे वस्तु रखना
२-दु:प्रमृष निक्षेप-ढंग से देखे बिना वस्तु रख देना
३-सहसा निक्षेप-सहसा वस्तु रख देना-बिना स्थान को शोधे सहसा रख देना !
४-अनाभोग निक्षेप-यथायोग्य स्थान पर वस्तु न रखना!जैसे शास्त्र जी को स्वाध्याय के समय चौकी पर नहीं रखना,उसके बाद यथास्थान बिना,देखे शोधे नहीं स्थापित करना !
इन चारो क्रियाओं से पापकर्म बंध होता है चाहे कोई जीव मरे या न मरे क्योकि भाव से हमने जीव रक्षा का प्रयास नहीं करा है!यह पाप बंध अजीव के आश्रय से होने वाला कहलायेगा!
संयोग- के दो  भेद 
भक्तपान संयोग-दाल में राई और नमक का छौक लगाने से/दही और गुड को मिलाने से,जीव उत्पत्ति हो जाती है!सचित्त को अचित्त आहार पानी में मिलाना भक्तपान संयोग है!
उपकरण संयोग-ठन्डे उपकरण को गर्म उपकरण में एवं एक साधु के पिच्छी कमंडल दूसरे साधु के पिच्छी कमंडल से मिला देना,आदि उपकरण संयोग है 
निसग:-प्रवृत्ति अथवा क्रिया के तीन भेद है !
- मन[b]निसग:-[/b]मन की प्रवृत्ति दुष्टता पूर्वक करना !
२-वचन[b]निसग: वचन की प्रवृत्ति [/b]दुष्टता पूर्व करना 
३- काय[b]निसग: -काय की प्रवृति दुष्टता पूर्व करना ![/b]
मन, वचन, काय पौदगलिक है इनकी प्रवृत्ति के कारण आत्मा के जो परिणाम होते है उनमे अजीव अधिकरण आस्रव होता है!११ प्रकार के अजीव अधिकरण के आश्रय से होने वाले पापों के आस्रव से हमें बचना चाहिए!१०८ जीव के परिणामों के आधार से और ११ प्रकार के अजीव के आधार से होने वाले आस्रव से बचने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए!अष्टकर्मों के अस्राव के कारण -इनसे हमें सावधान रहना चाहिए !
१४-३-१६

तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाताज्ञानदर्शनावरणयो:!!१०!!

संधि विच्छेद- तत्+प्रदोष+निह्नव+मात्सर्य+अन्तराय+आसादन:+उपघात:+ज्ञानावरणयो:+दर्शनावरणयो:
शब्दार्थ- तत्=वह(आस्रव);प्रदोष,निह्नव,मात्सर्य,अन्तराय,आसादन और उपघात से ज्ञानावरण और दर्शनावरणयो-दर्शनावरण (कर्मों) का होता है!

भावार्थ-वह आस्रव;प्रदोष,निह्नव,मात्सर्य,अन्तराय,आसादन और उपघात,ज्ञानावरण के सम्बन्ध में होने से ज्ञानावरण और  दर्शनावरण के सम्बन्ध में होने से दर्शनावरण कर्मों का होता है!
प्रदोष=मन को किसी के द्वारा बताई गयी,सच्चे ज्ञान की बात नही सुहाना,प्रदोष है!किसी के सत्य अच्छे प्रवचन सुनकर प्रसन्न नहीं होना!
निह्नव=ज्ञान होने पर भी अन्यों को ज्ञान नही देना,कोई के द्वारा आपसे आपके ज्ञान का स्रोत्र पूछने पर उसको,गुरु-शास्त्र के नाम,जिनसे ज्ञान अर्जित किया है,को नही बताना और कहना मैंने तो ज्ञान स्वयं अर्जित किया है,किसी ने नहीं बताया आदि,निह्नव है!

मात्सर्य=किसी योग्य पात्र को,ईर्षा भाव से अपना ज्ञान भय वशीभूत, नहीं देना कि वह मेरे से अधिक ज्ञानी न हो जाए,मात्सर्य है 
अन्तराय=किसी के ज्ञान के साधनों में विघ्न डालना,जैसे उसकी पुस्तक छुपाना/जलाना/पाठशालाओं को,स्वाध्याय की परम्परा को,धार्मिक शिवरों को बंद करवाने का प्रयास करना/धार्मिक कार्यों में विघ्न डालना,अन्तराय है!
आसादन=सम्यग्ज्ञान को प्रकाशित करने से बाधित करना अथवा उसका अनादर करना,आसादन है!
उपघात= प्रशस्त ज्ञान में दोष लगाना/सम्यग्ज्ञान को अज्ञान बताकर,ज्ञान में दोष लगाना उपघात है!
ये छ: ज्ञानावरण कर्म के बंध के कारण है
ज्ञानावरणीय कर्म के आस्रव के अन्य कारण-  
१-अपने आचार्य,उपाध्याय की आज्ञानुसार नहीं चलना,२-प्रकाशन में अर्थ का अनर्थ कर देना,भावार्थ अपनी इच्छानुसार अपने मत की पुष्टि हेतु  बदल कर अभिप्राय को दूषित कर देना,!३-शुद्ध उच्चारण नहीं करना!४-ज्ञान के अध्ययन/अर्जन में आलस्य करना!५-आचार्य श्री के प्रवचन में बैठ कर आपस में बाते करना! ६-धन कमाने के उद्देश्य से ज्ञान देना! ७-शास्त्रों के विक्रय से आजीविका अर्जित करना! ८-जिनवाणी की ऒर पैर रखकर सोना तथा उन्हें यथायोग्य स्थान पर आदर सम्मान के साथ विराज मान नहीं करना!जैसे;अलमारी में सबसे नीचे के तख्ते पर विराजमान करना!९-अकाल में स्वाध्याय करना,जैसे महाराज श्री के प्रवचन के समय स्वाध्याय करना!सामायिक के काल में स्वाध्याय करना!
सूत्र के अंत में, 'ज्ञान दर्शनावरणयो' से तात्पर्य है की ये सब ज्ञान के सम्बन्ध में किये जाये तो ज्ञानावरणीय कर्म का और यदि दर्शन के सम्बन्ध में किये जाए तो दर्शानावरणीय कर्म का आस्रव होता है!
दर्शन के सन्दर्भ में-

प्रदोष-कोई व्यक्ति आचार्यश्री के दर्शन करने के बाद आकर वर्णन कर रहा है कि मैं ऐसे दर्शन करके आया,तो प्रसन्न न होना,प्रदोष है!
निह्नव- किसी के आपसे पूछने पर कि आचार्य श्री कहाँ है,उसे नहीं बताना,आचार्यश्री के दर्शन में विघ्न डालना,निह्नव है! !
मात्सर्य- इस भाव से नहीं बताना की वे कहाँ है,कि यदि ये वह भी वहाँ जाने लगे तो हमें कौन पूछेगा,इस शहर में तो आचार्यश्री हमें ही जानते है,यह मात्सर्य है!
अन्तराय-कोई आचार्य श्री के दर्शन के लिए दसलक्षण पर्व में जाना चाहते है,उन्हें यह कह कर रोकना की  इस समय वहाँ बहुत भीड़ होगी क्या करोगे वहाँ जाकर,अन्तराय है!
आसादन-दर्शन के प्रति अनादर भाव रखना,क्या करोगे दर्शन करके व्यर्थ है,दर्शन करना,यह आसादन है
उपघात-आचार्यश्री के दर्शन से उन्हें बिलकुल रोक देना उपघात है !
दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव के अन्य कारण -
१-अपनी दृष्टि क्षमता पर गर्व करना! जैसे मेरे से अधिक दूर तक कोई नहीं देख सकता,
२-दिन में सोने से तीव्र दर्शनावरणीय का बंध होने पर संभवत अगले भव में चक्षु इन्द्रिय मिले ही नहीं!शास्त्रों में दिन में सोने की आज्ञा नहीं है,
३-मुनियों के देख कर उनसे घृणा आदि करना,
४-गलत श्रुत को आँखों से देख,पढ़ कर परिणामों को दूषित करना,ये सब दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव /बंध के कारण है!
इस सूत्र से, हमें ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के अस्राव के कारणों को समझ/जान कर उनसे बचने का प्रयास करना चाहिए!आज तक हमने ज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध में जो दोष या विघ्न डाले है,उनके लिए प्रायश्चित लेना चाहिए और संकल्प लेना चाहिए की भविष्य में सच्चे ज्ञान और दर्शन के प्रचार-प्रसार में कोई विघ्न नहीं डालेंगे! ऐसा करने से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होगा! इन कारणों से बचने से हमारे इन दोनों कर्मो का आस्रव नहीं होगा जिससे ज्ञान दर्शन में वृद्धि होगी!
विशेष- यद्यपि आयुकर्म के अतिरिक्त सातों कर्मों का आस्रव प्रतिसमय होता है तथापि प्रदोष,निह्नव आदि भावों के द्वारा जो ज्ञानावरणीय और दर्शावरणीय कर्मों का विशेष आस्रव/बंध होता है वह स्थिति और अनुभागबंध की अपेक्षा होता है,अर्थात प्रदेश/प्रकृति बंध तो सभी कर्मों का होता है किन्तु स्थिति/अनुभागबंध ज्ञाना[b]वरणीय और दर्शनावरणीय का अधिक होता है![/b]
१६-३-१६ 

असातावेदनीय कर्मों के आस्रव के कारण
दु:खशोकतापाक्रंदनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयास्थानान्यसद्वेद्यस्य११
 संधिविच्छेद:-दु:ख+शोक+ताप+आक्रंदन+वध+परिदेवनानि+आत्म+पर+उभय+स्थानानि+असद्वेद्यस्य
शब्दार्थ-दु:ख-चित्त में कष्ट का अनुभव करना,पीड़ा रूप परिणाम दु:ख है,
शोक-किसी इष्ट वस्तु के वियोग होने पर दु:खी होना शोक है! मकान के गिर जाने पर दुखी होना, पुत्र/पिता की मृत्यु पर दुखी होना!
ताप-समाज में अपनी निंदादि होने पर पश्चाताप,संताप के भाव होना! जैसे बेटी का विवाह करने के पश्चात उसके दुखी रहने पर पश्चाताप करना,
आक्रंदन-जोर जोर से रोना,
वध-किसी के इंद्रीय, बल आयु,श्वासोछावास आदि प्राणों का वियोग कर देना! जैसे किसी को जान से मार देना,
परिदेवन-इस प्रकार रोना कि सामने वाला भी रोने लगे,
आत्म-अपने को,पर-दूसरों को उभय=अपने और दुसरे दोनों को,स्थानानि-करना, असद्वेद्यस्य=असाता वेदनीय कर्म के आस्रव है
भावार्थ-स्वयं,दूसरे,अथवा दोनों को इन ६;दु:ख,शोक,ताप,आक्रंदन,वध और परिदेवन करने से असाता वेदनीय कर्म के आस्रव के कारण है!स्वयं दुखी,शोकित आदि होना,दूसरे को दुखी-शोकित आदि  करने अथवा दोनों स्वयं और दूसरों को दुखी-शोकित आदि करने से असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है!
असाता वेदनीय कर्मों के आस्रव के अन्य कारण-
१-दूसरों की निंदा करना,
२-पाप से अजीविका अर्जित करना,
३-सप्त व्यसन का सेवन करना!,
४-तीव्र कषाय रूप परिणाम होना,
५-परिग्रहों में अत्यंत आसक्त होना,
६-अपने सेवकों को समय पर वेतन न देकर,
७-पशुओं को चाबुक-कोड़े मारना,
८-किसी जीव को समय से भोजन आदि नहीं देना! 
-झूठ बोलना,कुशील,अभद्र वचन बोलना,मायाचारी रूप प्रवृत्ति आदि!
सारांशत: समस्त पाप रूप कार्यों से असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है! इनसे हमें बचना चाहिए!
शंका -किसी के शोक करने पर असाता का आस्रव होता है,किन्तु किसी के वियोग होने पर रोना तो आता ही है तो क्या रोये नहीं ?
समाधान-हमें रोना नहीं चाहिए क्योकि रोने से जाने वाला वापिस आएगा नहीं! बल्कि रोने से आगे कर्मों का बंध और होगा जो कि भविष्य में दुःख का कारण होगा!हमें विचार करना चाहिए की जाने वाले की हमने सेवा खूब करी,इनका आयुकर्म इतना ही था,इतना ही हमारा साथ था,इसे हम बढ़ा नहीं सकते।इस प्रकार विचार करने से रोने पर नियंत्रण किया जा सकता है!
शंका-मुनिराज को केशलोंच करते हुए दुःख होता होगा,क्या उन्हें असातावेदनीय का आस्रव होता होगा?
समाधान-केश लोंच के समय मुनि महाराज को कष्ट महसूस नहीं होता,किसी दिन आहार नही मिलने पर भी वो विचार करते है,आज तो परिषयजय का मौका मिला है,कर्मों की इससे निर्जरा होगी!
१६-३-१६ 
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#2

मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी महाराज तत्त्वार्थसूत्र स्वाध्याय
22 Sept.2020
तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय | अध्याय 6 | सूत्र 7 , 8, 9, 10 |



तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय | अध्याय 6 | सूत्र 11 12 13 |

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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#3

अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10
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