तत्वार्थ सूत्र अध्याय ९ भाग ५
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    1. शुक्लध्यान का लक्षण-त्र्येक योग काय योगायोगानाम् ४०संधि विच्छेद-त्रियोग +एकयोग +काययोग +अयोगानाम्  अर्थ -पृथकत्व वितर्कशुक्ल ध्यान तीनो योगो के अवलंबन से होता है ,एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान  किसी एक योग के अवलंबन से होता है  सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्ल ध्यान, सूक्ष्म काय योग के अवलंबन से औरव्युपरतक्रियानिवर्तीशुक्ल ध्यान  बिना किसी  योग के अवलंबन  से, आयोगकेवली के  होता है भावार्थ-त्रियोग -तीन योगो के आवलंबन से पृथकत्व वितर्क, एकयोग- किसी एक योग के अवलंबन से एकत्व वितर्क, काययोग -सिर्फ सूक्ष्म काय योग के अवलंबन से सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, अयोगानाम्-और बिना किसी योग के अवलंबन से व्युपरतक्रियानिवर्ती  शुक्लध्यान ,अयोग केवली के होता है!विशेष-चारों शुक्ल ध्यानों का काल अलग अलग अंतर्मूर्हत है!पृथकत्ववितर्क और एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान का काल १ मिनट  से भी बहुत कम है!सूक्ष्म क्रियाप्रतिपति का भी बहुत कम काल है और व्युप्रतक्रिय निवर्ति का काल तो मात्र ५ लघु अक्षर बोलने के समय  प्रमाण ,१४वे गुण स्थान का काल है !आदि के  दो शुक्ल ध्यान की विशेषता- एकाश्रयेसवितर्कवीचारेपूर्वे !! ४१!संधि विच्छेद -एकाश्रये+ सवितर्क+वीचारे+पूर्वे   शब्दार्थ-एकाश्रये -जिन्हे पहिले  दो ध्यान का आश्रय होता है वे एकाश्रय कहलाते है,सवितर्क-वितर्कसहित  श्रुत ज्ञान है, वीचार- वीचारे-विचार वाले है-अर्थात पलटन सहित है.कभी कुछ विचार करना और कभी कुछ  और विचारना,पूर्वे -पहिले के दो (शुक्ल ध्याअर्थ- जिन्होंने सम्पूर्ण श्रुत ज्ञान प्राप्त कर लिया उनके  द्वारा ही ये दो ध्यान,पृथक वितर्क और एकत्ववितर्क ध्याये जाते है
      1. जो वितर्क और विचार के साथ रहते है वे सवितर्क विचार है !विशेष -प्रथम दो शुक्ल ध्यान का आधार एक ही है ,श्रुत ज्ञानियों  होते है ,अत: दोनों ही  वितर्क और वीचार  सहित है !अर्थात उन्हें श्रुतज्ञान के अवलंबन और पलटन सहित होते है!
      1. अवीचारं द्वितीयम् !!४२ !
      शब्दार्थ-अवीचारं-वीचार अर्थात पलटन रहित है, द्वितीयम् -दुसरे शुक्ल  ध्यान -एकत्ववितर्कअर्थ-दूसरा अर्थात एकत्ववितर्क शुक्ल ध्यान अवीचारं-पलटन रहित है !एक आश्रय है श्रुतज्ञानियों को  श्रुतज्ञान  के अवलंबन से बिना पलटन के होता है!विशेष-पहिले शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्क ,सवितर्क और सविचार है जबकि दूसरा एकत्व वितर्क -सवितर्क एवं अविचार है !
    1.  वितर्क का लक्षण -
    1. वितर्क:श्रुतम् !!४३!!
    1. संधि विच्छेद-वितर्क:+श्रुतम्शब्दार्थ-वितर्क:-तर्क करने को वितर्क कहते है ,श्रुतम् -वितर्क  श्रुतज्ञान  को कहते है !
    1. अर्थ- श्रुतज्ञान को वितर्क कहते है,श्रुत का विशेष विचार होना वितर्क है,ॐ,ह्रीं श्रीं आदि के ध्यान को वितर्क कहते है !विशेष-एकत्ववितर्क आदि शुक्लध्यान कषाय रहित उत्तम सहनन वाले जीवों के ही होता है,हमारे कषाय होती ही है,उत्तम सहनन है नहीं इसलिए हमारे  ध्यान की योग्यता नहीं होने के कारण,  हमे  शुक्ल ध्यान होना असंभव है!
    1. वीचार का लक्षण-
    1. वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रांति !!४३!!
    1.  संधि विच्छेद-वीचार:+ अर्थ+व्यञ्जन+योग+संक्रांतिशब्दार्थ-वीचार:-विचार है ,
    1. अर्थ-आठ अर्थात कभी द्रव्य/कभी पर्याय का चिंतवन करना  , व्यञ्जन-व्यञ्जन अक्षरों  अ,आ ,इ , ई आदि  , योग-मन,वचन ,काय योग , संक्रांति-पलटने को कहते है अर्थ वीचारो- वीचारअर्थसंक्रांति- अर्थ का पलटना अर्थात कभी द्रव्य का चिंतन ,कभी पर्याय का चिंतन करना व्यञ्जनसंक्रांति -व्यंजन का पलटना अर्थात कभी अ ,कभी आ कभी इ ,कभी ई का चिंतन, ॐ,ह्रीं श्रीं आदि से चिंतवन  करना व्यंजन संक्रांति है योगसंक्रांति -योग का पलटना, अर्थात कभी मन से,कभी वचन से और कभी काय से चिंतवन करना योग संक्रांति है! संक्रांति -के पलटने को कहते है! भावार्थ-इन तीनो के पलटने को अर्थ, व्यंजन और योग संक्रांति कहते है!इन तीनों प्रकार की संक्रांति  वीचार कहते है !एकत्ववितर्क में अर्थ,व्यंजन,योग की संक्रांति नहीं होती,एक आधार से ही ध्यान होता है,पृथकत्ववितर्क में तीनो संक्रांति होती है!पृथकत्ववितर्क शुक्लध्यान का फल मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम है! एकत्ववितर्क शुक्लध्यान का फल १२ वे गुणस्थान में ज्ञानावरण,दर्शनावरण.और अन्तराय कर्म  का क्षय है! जिन आचार्यों ने एकत्ववितर्क शुक्लध्यान ११ वे १२ वे गुणस्थान में माना है उनकी अपेक्षा यह कथन है! ८,९,१०.११ वे गुणस्थान में  पृथकवितर्क शुक्लध्यान हुआ उसने मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम फल हुआ !सूक्षमक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान केवली भगवान् को होता है,जब वे योग निरोध करते है तो उनकी दिव्यध्वनि बंद हो जाती है,वे निर्वाण स्थल के लिए विहार करते है,निर्वाण स्थल पर पहुँच कर वे ध्यान में एकाग्रचित हो जाते है!जब उनकी आयु अंतर्मूर्हत शेष रह जाती है तब वे केवली समुदघात,अन्य तीन अघातिया कर्मों नाम,गॊत्र और वेदनीय की ८५ कर्म प्रकृतियों की स्थिति, को आयुकर्म की शेष स्थिति, अंतर्मूर्हत के बराबर लाने के लिए, करते है!   आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार सभी केवलीयों को समुदघात करना पड़ता है किन्तु कुछ आचार्यों की मान्यता है की जिन केवलीयों की केवलज्ञान के बाद ६ माह से अधिक आयु रहती है उन्हें समुद घात करने या नहीं करने का कोई नियम नहीं है किन्तु जिनकी आयु ६ माह से कम रह जाती है उन्हें समुदघात करने का नियम है !शंका-केवली भगवन शेष ३ अघातिया कर्मों की स्थिति आयुकर्म की अंतर्मूर्हत स्थिति करने  के बाद क्या करते है? समाधान-अंतर्मूर्हत स्थिति होने के बाद,केवली अल्प विश्राम लेकर बादर काययोग के द्वारा, बादर वचनयोग,बादर मनो योग,बादर श्वासोच्छ्वास को समाप्त कर फिर विश्राम कर सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्मवचनयोग,सूक्ष्ममनोयोग और सूक्ष्म श्वासोच्छवास को समाप्त करते है.फिर विश्राम कर,मात्र सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान ध्याते है जिसके द्वारा शेष तीन कर्मो की स्थिति जो अंतर्मूर्हत हो गयी थी उस,अंतर्मूर्हत को आयुकर्म के बराबर कर लेते है!शंका-केवली के कौन से काययोग होते है?समाधान- केवली भगवान् के दंड समुदघात में औदारिककाययोग होता है, कपाट समुदघात में औदारिकमिश्रकाययोग,प्रतर और लोकपूर्ण समुदघात में कार्मणकाययोग होता है,शरीर में आत्मप्रदेश रहते है किन्तु शरीर से सम्बन्ध नहे रहता ! लौटते हुए कपट में औदारिकमिश्रकाययोग और दंड समुद घात में औदारिककाययोग होता है! उसके बाद वे आत्म प्रदेश शरीर में प्रवेश कर जाते है!शंका-केवली भगवान् के कितने प्राण होते है ?समाधान-केवली भगवन के १३ वे गुणस्थान में,समवशरण में भी पञ्च इंद्र और मन,६ के अतिरिक्त चार प्राण,वचनबल प्राण,कायबलप्राण,आयुप्राण और श्वासोच्छवास प्राण होते है!प्रतर और लोकपूर्ण समुदघात में उनके दो प्राण,कायबल और आयुप्राण रहते है,१४वे गुणस्थान में कायबल प्राण भी समाप्त हो जाता है, मात्र आयुप्राण शेष रह जाता है ! शंका-केवली भगवान् पर्याप्तक है या अपर्याप्तक ? समाधान -दंड समुदघात में पर्याप्तक है,कपाट समुद्घात में औदारिकमिश्रकाययोग होने के कारण निवर्तपर्याप्तक है,प्रतर और लोकपूर्ण समुदघात में कार्मणकाययोग है इसलिए अपर्याप्तक है !शंका-समुद घात का क्या काम है?समाधान-गीली धोती को यदि निचोड़ कर रख दे तो उसे सूखने मे फ़ैलाने के अपेक्षाकृत अधिक समय लगेगा,यदि दोनों छोर से पकड़  कर, फैलाकर उसे हिलाते रहे तो जल्दी सुख जायेगी! इसी प्रकार केवली भगवान् आत्म प्रदेशों को निकालकर,लोक में फैलाकर अपने अघातियाकर्मों की स्थिति, अंतर्मूर्हत प्रमाण कर लेते है!शंका-सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली में कोई अंतर होता है? समाधान-गुणों की अपेक्षा कोई अंतर नहीं रहता, समुदघात दोनों को ही करना होता है!प्राण,पर्याप्तियां  भी एक सामान होते है! १३ वे गुण स्थान के अंत से १४ वे  गुणस्थान की समस्त क्रियाये दोनों को करनी होती है! सामान्य केवली भी अनेक प्रकार के होते है किन्तु इन सब की अपेक्षा उन में भी कोई अंतर नहीं होता!शंका-१४ वे गुणस्थान का समय ५ लघु अक्षर सामान है,किन्तु हर जीव की बोलने की गति भिन्न भिन्न है ,फिर यह समय कैसे निर्धारित होता है? समाधान- जो मुनि राज वचनबल ऋद्धि के  द्वारा द्वादशांग का पाठ अंतर्मूर्हत में कर लेते  है,उन्हें जितना समय ५ लघु ह्रस्व अक्षर बोलने में लगता है वह १४ वे गुणस्थान का काल है!यह काल वचन,बल ऋद्धिधारी मुनिमहाराजों का एक सामान होगातत्वार्थ सत्र  
  1. पात्रों की अपेक्षा निर्जरा का क्रम-

  2. सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा:!! ४५ !!

  3. संधि विच्छेद-सम्यग्दृष्टि+श्रावक+विरत+अनन्तवियोजक+दर्शनमोहक्षपक+उपशमक+उपशांतमोह+क्षपक+क्षीणमोह+जिना: क्रमश:+असंख्येयगुणनिर्जरा अर्थ-सम्यग्दृष्टि,श्रावक,विरत,अनंतवियोजक,दर्शनमोहक्षपक,उपशमक,उपशांतमोह,क्षपक,क्षीणमोह,जिना:-जिनेन्द्र भग वान् की उत्तरोतर वृद्धिगत,क्रमशो -क्रमश:,असंख्येयगुण-असंख्यात गुणी-असंख्यातगुणी निर्जरा प्रति समय होती है 
  4. ! भावार्थ-अविपाक निर्जरा का प्रारंभ प्रथमगुणस्थान,जिस समय,मिथ्यादृष्टिजीव सम्यक्त्व के सम्मुख होता है,उसके करण लब्धि में प्रवेश होने पर,अध:करण के उपरान्त,अपूर्वकरण के पहले समय से हो कर,प्रतिसमय वृद्धिगत असंख्यातगुणी निर्ज रा होती है!अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण तक बढ़ती है,अनिवृत्ति के अंतिम समय के उपरान्त वह जीव प्रथमोपशम सम्य ग्दृष्टि हो जाता है!मिथ्यादृष्टि जीव के अविपक निर्जरा,अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में जितनी होती है,उससे असंख्यात गुणी निर्जरा सम्यगदृष्टि जीव की होती है!प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव की जब तक विशुद्धि बढ़ती है तब तक निर्जरा  प्रति समय,असंख्यात गणी वृद्धिगत होती है और विशुद्धि के घटने के साथ साथ  निर्जरा घटने लगती है!    
      पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक,१ से ११वॆ प्रतिमाधारी तक,आर्यिकामाताजी की २४ घंटे,प्रतिसमय निर्जरा,सम्यग्दृष्टि की उत्कृष्ट निर्जरा से असंख्यातगुणी होती है और परिणामों के अनुसार घटती-बढ़ती है!सम्यगदृष्टि के निर्जरा प्रति समय सदा नहीं होती केवल विशुद्धि के बढ़ने तक ही होती है! प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि  जीव,क्षयोपशमिक या क्षयिक सम्यग्दृष्टि भी हो जाये तब भी उसके प्रतिसमय निर्जरा होने का विधान नहीं है! ६-७ वे गुणस्थानवर्ती विरत मुनिमहाराज की निर्जरा श्रावक से असंख्यात गुणी,चारों गतियों के अनन्तानुबन्धी वियोजक जीवों की इनसे असंख्यात गुणी निर्जरा होती है,अनन्तानुबन्धी वियोजक,नारकी जीव की निर्जरा विरतमुनिराज से अधिक होती है किन्तु नारकी की निर्जरा उस अन्तर्मुहूर्त तक ही होगी.बाद में समाप्त हो जायेगी उस अन्तर्मुहूर्त में वह नारकी अनंतानुबंधी के द्रव्य का परिणमन अप्रत्याख्यानावरण,प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन में कर लेगा!किन्तु मुनिराज की निर्जरा २४ घंटे होगी!दर्शनमोह के क्षपणा करने वाले जीव की निर्जरा इनसे असंख्यातगुणी होती है,यह चौथे गुणस्थानवर्ती भी हो सकता है,जिसके निर्जरा मात्र अन्तर्मुहूर्त  होती है!इनसे असंख्यातगुणी निर्जरा उपशमक श्रेणी पर चढ़ने वाले,८वे -९वे ,१०वे  गुणस्थानवर्ती मुनिमहाराजों की होती है!इससे असंख्यात गुणी उपशांत मोह अर्थात ११वे गुण स्थान वर्ती मुनि महाराज की होती है!उससे असंख्यात गुणी निर्जरा क्षपक  श्रेणी पर चड़ने वाले ८-९-१० गुणस्थान वर्ती मुनिराज की होती है!उससे असंख्यात गुणी निर्जरा १२वे क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनिमहाराज की होती है!इनसे असंख्यात गुणी निर्जरा  १३वे गुणस्थानवर्ती जिनेन्द्र भगवान् की होती है,इनसे असंख्यात गुणी  निर्जरा केवली भगवान् की १४वे गुण स्थान में होती है! इनके क्रमस: असंख्य असंख्यात गुणी निर्जरा होती है! शंका- ८वे गुणस्थान वर्ती मुनिराज,क्षपकश्रेणी पर चढ़ते मुनिराज,सामायिक छेदोपस्थापना चरित्र वालों की निर्जरा उपशम मोह ११वे गुणस्थानवर्ती मुनिराज,यथाख्यात चरित्र वालों से, असंख्यात गुणी कैसे हो सकती है क्योकि इनके तो कषाय का उदय अभी  है?समाधान-यद्यपि संयम लब्धि स्थान ११वे गुणस्थान वाले का उच्च है,किन्तु विशुद्धिलब्धि स्थान ८ वे गुणस्थानवर्ती  क्षपक का ऊँचा  है!इसलिए ८ वे गुणस्थानवर्ती की निर्जरा अधिक  होती है!शं का-पंचम  गुणस्थानवर्ती जीव पंचेन्द्रिय विषयों का सेवन करते है फिर उनकी प्रति समय निर्जरा कैसे होती है?समाधान-प्रथम प्रतिमाधारी से ११वॆ प्रतिमाधारी ,आर्यिका माता जी के संयामसंयम है,देश चारित्र है,उन्होंने जीवन पर्यन्त नियम व्रत लिए है उनके इस संयम के कारण प्रति समय निर्जरा होती ही है क्योकि उनके सदा भाव रहते ही की उनसे कोई हिंसा नहीं हो जाए,इन्ही भावों के कारण वे घर गृहस्थी के कार्य में लगे रहने के बावजूद भी प्रति समय निर्जरा करते है!उनका देश संयम निर्जरा में कारण है! चौथे गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि के प्रति समय निर्जरा नहीं होती,किन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती चाहे क्षयोपशमिक समयगदृष्टि है,देश संयमी है तो उसके असंख्यात गुणी निर्जरा प्रति समय होती है!अनन्तानुबंधी की विसंयोजना का क्या तात्पर्य है ?आत्मा के परिणामों की विशुद्धि से,जो क्षयोपशामिकसम्यगदृष्टि जीव अनंतानुबंधी के समस्त द्रव्य को आत्मा से अलग कर,अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान,और संज्वलन और नोकषाय रूप करने को अनंतानुबंधी की विसंयोजना कहते है!यद्यपि यह विसंयोजना क्षय जैसी ही है,क्षय नहीं कहा है क्योकि यदि विसंयोजना वाला जीव मिथ्यात्व में आ जाता है तो अनंतानुबंधी की पुन:संयोजना हो जाती है और यदि क्षय हो जाए तो वह सत्ता में नहीं आती!वि संयाज्नो मात्र अनंतानुबंधी की ही होती है,अन्य किसी प्रकृति की नहीं!असंख्यात गुणी से क्या तात्पर्य है?पहले समय में जितनी निर्जरा हुई उससे असंख्यात गुणी निर्जरा दुसरे समय में,उससे अगले/ तीसरे  समय में दुसरे समय की निर्जरा से असंख्यात गुणी !विशेषार्थ-दस गुण स्थान को प्राप्त जीवों के परिणाम उत्तरोत्तर  अधिक विशुद्ध होते जाते है इसलिए उनके कर्मों की निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यात गुनी होती है इतना ही नहीं वहां  निर्जरा काल असंख्यत्व भाग -असंख्यत्व भाग भी उत्तरोत्तर  घटता जाता है !जिनेन्द्र भगवान का निर्जरा काल न्यूनतम है उससे संख्यात गुना क्षीण कषाय का है !इस प्रकार ,यद्यपि निर्जरा काल सातिशय मिथ्यादृष्टि तक  अधिकाधिक होता है किन्तु सामान्य से प्रत्येक का निर्जरा काल अन्तर्मुहूर्त ही है !इस उत्तरोत्तर कम  में निर्जरा  उत्तरोत्तर अङ्कधिक होती है !सम्यग्दृष्टि को गुण श्रेणी निर्जरा  (उक्त वर्णित) में जो अन्तर्मुहूर्त काल लगता है उससे श्रावक को संख्यात गुणा  हीन  काल लगता है !किन्तु सम्यग्दृष्टि द्वारा जितने कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती है उससे संख्यात गुणे कर्म परमाणुओं  की निर्जरा श्रावक  करता है !इस सूत्र में दस गुणश्रेणी निर्जरा का निर्देश दिया है !असंख्यात गुणी कम ,श्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होना गुणश्रेणी निर्जरा है 

 














निर्ग्रन्थ मुनि महाराज के भेद- 

  1. पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानिर्ग्रन्था: ४६
  1. संधि विच्छेद -पुलाक+वकुश+कुशील+निर्ग्रन्थ+स्नातका+निर्ग्रन्था:अर्थ-निर्ग्रन्थमुनि ५ है- पुलाक, वकुश,कुशील,निर्ग्रन्थ,स्नातक होते है पुलाक-जिन के उत्तर गुणों की भावना  होती ही नहीं और उनके मूल गुणों में भी किसी क्षेत्र  अथवा काल में कथित-कदाचित दोष लग जाते है,वे पुलाक मुनि महाराज होते है! वकुश-जो मुनिराज मूलगुणों (बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रहों के त्याग)का निर्दोष पालन करते है किन्तु अपने शरीर  उपकरणों पिच्छी, कमंडलादि से स्नेह रखते है, उनकी शोभा बढाने में लगे रहते है,वे परिग्रह से घिरे रहते है,वकुश मुनिराज है! वकुश का अर्थ है चितकबरा !जैसे  सफ़ेद  कपड़े पर काले धब्बों  का लग जान उसी प्रकार मुनि के निर्मल आचार विचार में मोह के धब्बे होते है !उत्तर गुणों का पालन करते है,उत्तर गुणों में कथित-कदाचित दोष लग जाते है!
  1. कुशील साधु के दो भेद प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील है !
  1.  कुशील प्रतिसेवना-इन मुनिराजों के मूल और उत्तरगुण परिपूर्ण होते है किन्तु उत्तरगुणों में कथित कदाचित कभी दोष लग जाता है वे प्रतिसेवना कुशील मुनि होते है! कषाय कुशील-संजवलन कषाय के अतिरिक्त अन्य कषायों का कोई प्रभाव नहीं होता,उनके उदय को  उन्होंने वश  में कर लिया हो ,वे कषाय कुशील साधु कहलाते है निर्ग्रन्थ-जिन्होंने मोहनीय कर्मों का क्षय कर लिया हो तथा शेष घातिया कर्मों का उदय भी जल में रेखाके समान रह जाता है.तथा अन्तर्मुहूर्त के समय बाद ही उन्हें केवल ज्ञान एवं दर्शन प्रकट होने वाला हो उन १२वे गुणस्थानवर्ती कषाय रहित मुनिराज को  निर्ग्रन्थ साधु कहते है!,स्नातक-चारों घातिया  कर्मों का क्षय करने वाले केवली भगवान् को स्नातक कहते है निर्ग्रन्था- ये ५ प्रकार के निर्ग्रन्थ मुनि राज है!ये पांचों प्रकार के ६-७ और इनसे ऊपर के गुणस्थान वाले भावलिंगी मुनि होते है! द्रव्य लिंगी के नहीं !वर्तमान समय में मुनिराज जो मूल गुणों का पालन नहीं करते उन्हें पुलाक मुनि में ले सकते है या नहीं?पुलाक मुनि वे है जिनमे उत्तर गुणों के पालने की तो भावना होती ही नहीं है तथा उनके मूलगुणों में कथित-कदाचित दोष लग जाते है!जिन मुनिराज के दोष नित्य प्रति लग रहे है,जिन्हें मूलगुणों की चिंता ही नहीं है, उनको पुलाक मुनि में नहीं ले सकते! जैसे वर्तमान में जो मुनिराज लैपटॉप,मोबाइल,आदि रखते है,कूलर.पंखे वातानुकुलित उपकरणों,हीटर का प्रयोग करते हों, उन्हें मूलगुणों की चिंता ही नहीं है,आचार्यों  ने कथित-कदाचित मूलगुणों में दोष लगने पर पुलाक मुनि कहा है न की निरंतर दोष लगने पर! इन उपकरणों के प्रयोग से त्रस-स्थावर जीवों की बहुत हिन्सा होती है जिससे उनके अहिंसा महाव्रत का पालन नहीं होगा!सचित फल का सेवन करने से अहिंसामहाव्रत का पालन नहीं हो सकेगा!जिनको मूलगुणों की चिंता ही नहीं उन्हें भावलिंगी या पुलाक कैसे कह सकते है!वर्तमान के मुनि, ऐसा आचरण करने वाले,इन पांचों में से किसी में भी नहीं आयेगे!ये तो द्रव्यलिंगी  भी नहीं है! द्रव्यलिंगी मुनिराज मूलगुणों का पूर्ण पालन करते है किन्तु उनके सम्यग्दर्शन नहीं होता!द्रव्यलिंगी मुनिराज का गुणस्थान यद्यपि आचार्यों ने १-५ तक बताया है,किन्तु जिनके मूलगुणों का पालन ही नहीं है उनका गुण स्थान पहला ही है!  
  पुलाकादि मुनियों की विशेषता -  
संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्योपपादस्थानविकल्पत:साध्य: !! ४७ !!
 संधि विच्छेद -संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थ-लिंग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पत:साध्य: 
अर्थ-निर्ग्रथ पुलाकादि मुनिराज में  संयम,श्रुत,प्रतिसेवना,तीर्थ,लिंग,लेश्या उपपाद,स्थान ,इन आठ अनुयोग के अपेक्षा विशेषता-भेद से मानी जाती  है!
१-संयम-पुलाक,वकुश और प्रतिसेवनकुशील के सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र (२ संयम) ,कषाय-कुशील के इन दोनों सहित परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र (४ संयम) और निर्ग्रन्थ और स्नातक के यथाख्यातचारित्र (१-संयम) होता है यद्यपि ये पाँचों मुनिराज निर्ग्रन्थ है किन्तु संयम की अपेक्षा इनमे अंतर है !
२-श्रुत-पुलाक,वकुश और प्रतिसेवनाकुशील का,उत्कृष्ट श्रुत; अभिन्नाक्षर,१० पूर्व के ज्ञाता, कषायकुशील और निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट श्रुत १४ पूर्व के ज्ञाता,,पुलाक का जघन्य श्रुत;आचारांग के ज्ञाता मात्र,वकुश,कुशील और निर्ग्रन्थ का जघन्य श्रुत अष्टप्रवचन मात्र पांच समिति और तीन गुप्ती मात्र  ,स्नातक श्रुतज्ञान से रहित केवलज्ञानी होते है,उनके श्रुत के अभ्यास का प्रश्न ही नहीं उठता !
३-प्रतिसेवना -से तातपर्य व्रतों का दूषित हो जाना !पुलाक मुनिराज पंच महाव्रतों में से किसी एक अथवा रात्रि भोजन त्याग व्रत में परवश कदाचित दोष लगा लेते है !वकुश मुनिराज की  शरीर और उपकरणों की सुंदरता में आसक्ति होने के कारण विराधना होती है !
लिंग-भाव लिंग की अपेक्षा कोई अंतर इनमे नहीं होता किन्तु द्रव्यलिंग की अपेक्षा,कोई मुनिराज पिच्छी,कमंडल दोनों रखते है!प्रतिसेवना कुशील अपने उत्तर गुणों में कभी कदाचित दोष लगा लेते है !कषाय कुशील,निर्ग्रन्थ और स्नातक के प्रतिसेवना  नहीं होती क्योकि वे त्यागी वस्तुओं का सेवन कभी नहीं करते !
४-तीर्थ -तीर्थ अर्थात सभी तीर्थंकरों के तीर्थ (काल)में पांचो प्रकार के साधु होते है !
५-लिंग -द्रव्य और भाव लिंग के दो भेद है !भाव लिंग की अपेक्षा पांचों साधु भाव लिंगी है क्योकि संयमी और सम्यग्दृष्टि है !द्रव्य लिंग की अपेक्षा सभी साधु दिगंबर होते हुए भी स्नातक पिच्छी कमंडल नही रखते,जैसे तीर्थंकर प्रभु के पास मुनि होने पर पिच्ची, कमंडल दोनों नहीं होते,चक्रवर्ती के मल,मूत्र नहीं होता इसलिए मुनि बन्ने पर उनके पास कमंडल नहीं होता,मात्र पिच्छी रखते है,शेष दोनों रखते है !इस प्रकार अंतर्लिंग की अपेक्षा इनमे अंतर नहीं है,किन्तु बाह्य लिंग की अपेक्षा अंतर है!
६-लेश्या-साधारणतया पुलाक मुनि के पीत,पदम्,शुक्ल तीन शुभ लेश्याये होती है किन्तु कभी उपकरण में आसक्ति वश अशुभ लेश्याए भी हो सकती है!वकुश और प्रतिसेवना कुशील के कदाचित छ: लेश्याये होती है,कषायकुशील के कापोत,पीत.पद्म और शुक्ल चार लेश्याये होती है!स्नातक और निर्ग्रन्थ के मात्र शुक्ल लेश्या होती है!आयोगकेवली लेश्या रहित होते है ! 
७-उपपाद-पुलाक मुनिराज का उत्कृष्ट उपपाद  सहस्रार ,१२वे कल्प के उत्कृष्ट देवों की स्थिति में होता है!वकुश और प्रतिसेवना कुशील का उत्कृष्ट उपपाद आरण्य और अच्युत कल्प  १६वे स्वर्ग में २२ सागर स्थिति वाले देवों में होता है!कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट उपपाद सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर स्थिति वाले देवों में होता है !११वे गुणस्थान तक के निर्ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते है,१२वे गुणस्थानवर्ती और स्नातक का पुनर्जन्म नहीं होता!पांचो साधु का जघन्य उपपाद सौधर्मेन्द्र कल्प में २ सागर की स्थिति वाले देवों में होता है!
८-स्थान-कषाय निमित्तक अन्य संयम स्थान है!पुलाक  और कषायकुशील के जघन्यतम लब्धिस्थान है वे दोनों असंख्यात स्थानों तक एक साथ जा सकते है!इसके बाद पुलाक की व्युच्छिति होती है!आगे कषायकुशील असंख्यात स्थानो तक अकेला जाता है इसके आगे कषायकुशील प्रतिसेवनकुशील और बकुश असंख्यात स्थानों तक एक साथ जाते है!यहाँ बकुश की व्युच्छिति  होती है!इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर प्रतिसेवनकुशील की व्युच्छिति होती है!पुन: इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर कषायकुशील की व्युच्छिति होती है!इससे आगे अकषाय स्थान है जिनहे निर्ग्रन्थ प्राप्त करता है!इससे असंख्यात स्थान आगे जाकर इनकी  व्युच्छिति हो जाती है!इससे एक स्थान आगे जाकर स्नातक निर्वाण को प्राप्त करता है !इनकी संयम लब्धि अनंत गुनी होती है !

पुलाक मुनि से ऊपर उत्तरोतर विशुद्धि वृधिगत होती है!
वर्तमान में तीन प्रकार के मुनि दृष्टिगोचर होते है!पुलाक,बकुश और प्रतिसेवना कुशील,इनकी उत्पत्ति १६ वे स्वर्ग तक है!वर्तमान में जीवों के ३ ही सहनन है,कषाय कुशील,मिर्ग्रंथ और स्नातक नहीं होते!जो मुनिराज मूलगुणों का पालन करते हो और जिनके अन्तरंग में भाव लिंग हो,जिसका ज्ञान हमें नहीं हो सकता!उनका गुणस्थान हमें नहीं मालूम क्योकि पहले गुणस्थान वाले महाराजो में भी मूल गुणों का पालन उत्कृष्ट रूप से पाया जाता है!हम तो ऊपर से उनके २८ मूल गुण देख सकते है!केवल २८ मूलगुणधारी मुनि ही पूजनीय  है,वे इन तीन रूप हो सकते है!वर्तमान में,आचार्यों के अनुसार पुलाक,वकुश और प्रतिसेवना कुशील अत्यंत बिरले ही पाए जाते है!
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अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10
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