03-16-2016, 11:34 AM
पद्गल द्रव्य के प्रदेश-
संधि विच्छेद-लोकाकाशे+अवगाह:
शब्दार्थ-लोकाकाश सब द्रव्यों को अवगाह (स्थान) देता है !
अर्थ-छ; द्रव्यों का अवगाहन लोकाकाश में है !
विशेष-
१-अनंत आकाश के जितने क्षेत्र में छहों द्रव्य पाये जाते है,वह लोकाकाश है और शेष अनंत आकाश अलोकाकाश है!धर्मादिक द्रव्य ही आकाश को, लोकाकाश और अलोकाकाश में विभाजित करते है !
२-शंका- छहों द्रव्यों का आधार लोकाकाश है तो आकाश का आधार क्या है ?
समाधान -आकाश का कोई अन्य आधार नहीं है वह स्व प्रतिष्ठित है !
शंका-यदि आकाश स्व प्रतिष्ठित है तब धर्मादि द्रव्य भी स्व प्रतिष्ठित होने चाहिए?यदि इनका आधार है तो आकाश का भी आधार होना चाहिए !
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि सभी दिशाओं में फैला हुआ अनंत आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है ,उसके परिमाण का अन्य द्रव्य कोई नहीं है!धर्मादिक द्रव्यों का आकाश को व्यवहारनय की अपेक्षा से अधिकरण/आधार कहा जाता है क्योकि धर्मादिक द्रव्य लोकाकाश के बाहर अलोकाकाश में नहीं है! किन्तु एवं भूत नय की अपेक्षा सब द्रव स्व प्रतिष्ठित है!निश्चयनय से सभी द्रव्य का अपना अपना आधार है कोई अन्य किसी द्रव्य का आधार नहीं है !
शंका-लोक में पूर्वोत्तर काल भावी होते है उन्ही में आधार और आधेयपन देखा जाता है जैसे मकान पहले बनता है बाद में उसमे रहने वाले मनुष्य आते है किन्तु धर्मादिक द्रव्यों में यह देखने में नहीं आता कि पहले आकाश बना हो और फिर बाद में ये धर्मादिक द्रव्य उसमे आये हो ,ऐसी स्थिति में व्यवहार नए से भी आधार और आधेयपन नहीं बनता ?
समाधान-शंका निर्मूल है क्योकि जो साथ में रहते है उनमे भी आधार और आधेयपन बनता है जैसे शरीर का हाथ साथ साथ बनता है किन्तु कहा जाता है की शरीर में हाथ है !इसी प्रकार यद्यपि छहों द्रव्य अनादिकाल से है फिर भी व्यवहार से कथन सदोष नहीं है कि आकाश में बाकी सभी द्रव्य रहते है !
धर्म और अधर्म द्रव्य के रहने के स्थान -
धर्माधर्मयो:कृत्स्ने !!१३!!
संधि विच्छेद-धर्म+अधर्मयो:+कृत्स्ने
शब्दार्थ-धर्म-धर्म ,और अधर्मयो:-अधर्म द्रव्य, कृत्स्ने-सम्पूर्ण लोकाकाश में समान व्याप्त है !
अर्थ-धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में तिल में तेल के समान व्याप्त है!ऐसे नहीं जैसे कि मकान के एक कोने में घड़ा रखा हो !
विशेष-
१-छहो द्रव्य लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त है किन्तु अवगाहनना शक्ति के निमित्त से इनके प्रदेश परस्पर में प्रविष्ट होकर एक दुसरे को बाधित नहीं करते!प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त जीवात्माये है और उनके साथ अनन्त पुद्गल वर्गणाये भी चिपकी है!धर्म,अधर्म आकाश और काल अमूर्तिक है इसलिए परस्पर में टकराने का प्रश्न ही नहीं उठता,वे पुद्गल की सूक्ष्म वर्गणाओं से नहीं टकराते ,जीव तो शुद्ध अवस्था में सूक्ष्म अमूर्तिक ही है !
पुद्गल के रहने के स्थान-
एकप्रदेशादिषुभाज्य:पुद्गलानाम् !!१४!!
संधि विच्छेद -एक+प्रदेशा/+आदिषु +भाज्य:+ पुद्गलानाम्
शब्दार्थ-एक प्रदेशादिषु-एक आदि में प्रदेश,भाज्य:-विभाजन कर,पुद्गलानाम्-पुद्गल द्रव्य की अवगाहन है
अर्थ-एक प्रदेश,दो प्रदेश,संख्यात प्रदेशों और असंख्यात प्रदेशों में पुद्गल रहते है !
विशेष -
१-अन्नत प्रदेश अलोकाकाश में इनके रहने का प्रश्न ही नहीं है !संख्यात परदेशी लोकाकाश में ही रहते है
२-पुद्गल का सबसे बड़ा स्कंध महास्कंध लोकप्रमाण है,सबसे छोटा परमाणु एक प्रदेशी है !
३-पुद्गल के दो परमाणु जुदा हो तो दो प्रदेशों में और यदि बंधे हो तो एक प्रदेश में रहते है!इसी प्रकार संख्यात,असंख्यात और अन्नंत प्रदेशी स्कंध लोकाकाश के एक/संख्यात/असंख्यात प्रदेशों में रहते है जैसे स्कंध हो तदानुसार स्थान में रहते है !अत: लोकाकाश के एक प्रदेश में एक पुद्गल को आदि लेकर उसमे संख्यात असंख्यात और अनंत पुद्गल परमाणुओ के प्रदेश स्म सकते है !
यह बात वर्तमान विज्ञान की कसौटी पर भी प्रमाणित हो चुका है !मनुष्य के सिर के बाल की मोटाई के १००वे भाग (१.३ माइक्रोन स्पेक ) पर (जो कि सम्भवत जैनदर्शन में उल्लेखित एक प्रदेश ही हो ) सम्पूर्ण अमेरिका के विद्युत ग्रिड की क्षमता से ३०० गुणा अधिक अर्थात ३००x १० की घात १२ (टेट्रा)वाट विद्युत समां गई !
शंका-धर्म अधर्म अमूर्तिक द्रव्य है इसलिए वे तो एक स्थान पर बाधारहित रह सकते है! किन्तु पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है अत: एक प्रदेश में अनेक मूर्तिक पुद्गल कैसे रह सकते है ?
समाधान-जिस प्रकार प्रकाश मूर्तिक है किन्तु एक कमरे में अनेकों दीपक का पुद्गल प्रकाश समा जाता है वैसे ही स्वभाव और सूक्ष्म परिणमन होने से लोकाकाश के एक प्रदेश में बहुत से पुद्गल परमाणु रह सकते है!
एक जीव के रहने के स्थान -
असंख्येयभागादिषुजीवानाम् !!१५!!
संधिविच्छेद-असंख्येय+भागादिषु+जीवानाम्
शब्दार्थ -असंख्येय-असंख्यात,भागादिषु-विभाजित करे प्रदेश,जीवानाम्-जीव रहता है
अर्थ-जीवों का अवगाह,लोक के (असंख्यात) प्रदेशों को असंख्यात से विभाजित करने पर अर्थात एक प्रदेश में कम से कम एक जीव लोक पर्यंत रहता है
भावार्थ-लोक के असंख्यत्वे भाग,अर्थात एक प्रदेश में न्यूनतम,सूक्ष्मत:एक निगोदिया जीव रहता है क्योकि उसका जघन्य अवगाहन है,वह लोक के एक प्रदेश (स्थान) को घेरता है!यदि जीव का अवगाहन अधिक होता है,तो वह लोक के एक,दो,चार आदि प्रदेशों में अर्थात लोक के असंख्यातवे भाग में रहता है,यहाँ तक की सर्व लोक तक भी व्याप्त हो जाता है (केवली समुद्घात के समय)
विशेष-
शंका-लोक के एक प्रदेश (असंख्यत्वे भाग में) पर एक जीव रहता है तो लोक के समस्त (असंख्यात) प्रदेशों में संख्या की अपेक्षा अनन्तानन्त सशरीरी जीव कैसे रह सकते है?
समाधान-सूक्ष्म-सूक्ष्म और बादर-स्थूल शरीर वाले दो प्रकार के जीव लोक में पाये जाते है!सूक्ष्म शरीर के जीव एक दुसरे को बाधित नहीं करते ,केवल स्थूल शरीर वाले जीव एक दुसरे को बाधित करते है!सूक्ष्म जीव,जितने प्रदेश में एक निगोदिया जीव (अर्थात १ प्रदेश) में रहता है उतने में अनन्तानन्त जीव साधारण काय के साथ रह सकते है क्योकि वे अन्य जीवों को बाधित नहीं करते अत: असंख्यात प्रदेशों में अनन्तान्त स शरीरी जीव रह सकते है,कही कोई विरोध नहीं है !
२८-२-१६
शंका-एक जीव को लोकाकाश के बराबर प्रदेश वाला कहा है फिर वह लोकाकाश के असँख्यातवे भाग अर्थात एक प्रदेश में कैसे रह सकता है?इस शंका का समाधान सूत्र १६ के माध्यम से आचर्य उमास्वामी जी !
समाधान -आत्मा/जीव के प्रदेशों में शरीर नामकर्म के उदय से संकुंचित/विस्तृत होने का गुण होता है इसलिए प्रदेश छोटे से छोटे जीव के शरीर के अनुसार संकुचित हो जाते है !
जीव द्रव्य का लोक के असंख्यातवे भाग में रहने का स्पष्टीकरण -
प्रदेश-संहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् !!१६!!
संधि विच्छेद -प्रदेश+संहार+विसर्पाभ्यां+प्रदीपवत्
शब्दार्थ-प्रदेश-(जीव के) प्रदेश ,संहार-संकोच और विसर्पाभ्यां-विस्तार के कारण,प्रदीपवत्-दीपक के प्रकाश् के समान
अर्थ -जीव के प्रदेश दीपक के प्रकाश के समान संकुचित और विस्तृत हो सकते है !
भावार्थ-जिस प्रकार एक कमरे में एक दीपक से प्रकाशित होने के पर भी उसमे अन्य दीपकों का प्रकाश भी समा जाता है,उसी प्रकार यद्यपि आत्मा के प्रदेश असंख्यात प्रदेशी है,वे प्रदेश; संकोच और विस्तार गुणों के कारण एक प्रदेश में समा जाते है!समुद्घात के समय केवली के आठ मध्य के आत्म प्रदेशो के अतिरिक्त,जो की मेरु के नीचे चित्रा पृथ्वी पर आठ दिशाओं में रहते है,शेष पूरे लोक में विस्तृत हो जाते है!यह बंध आत्म प्रदेशों के गुण है !
विशेष-
१-शुद्ध जीवात्मा स्वभावत:अमूर्तिकहै,किन्तु अनादिकाल से कर्मों से बंधे होने से कथंचित मूर्तिक हो रहा है,अत: कर्मबंध वश छोटा बड़ा शरीर नामकर्म के अनुसार आत्मप्रदेश,प्राप्त शरीर में व्याप्त हो जाते है !
२-सिद्धावस्था में अंतिम शरीर से कुछ छोटे ,आकार में मुक्त आत्म के प्रदेश सिद्धालय में रहते है !
३-शंका-यदि आत्म प्रदेशों में संकोच विस्तार का गुण है तो वे इतने संकुचित क्यों नहीं हो जाते की लोकाकाश के एक प्रदेश पर एक ही जीवात्मा रह सके ?
समाधान-आत्माप्रदेशों में संकोच विस्तार,शरीरनामकर्म के अनुसार होता है!सूक्ष्मत: शरीर,सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य पर्याप्तक जीव का होता है जिसकी अवगाहना अंगुल का असंख्यात्व भाग है,अत:जीव की अवगाहना इसे कम नहीं हो सकती इसलिए वह लोक के असंख्यातवे भाग प्रमाण है!
धर्म अधर्म द्रव्य का कार्य/लक्षण /उपकार -
गतिस्थित्युपग्रहौधर्माधर्मोयोरुपकार:!!१७!!
संधि-विच्छेद-गति+स्थिति+उपग्रहौ+धर्म+अधर्म:+उपकार:!!
शब्दार्थ-गति-गति,स्थिति:-स्थिति,उपग्रहौ-सहकारी क्रमश:धर्म-धर्म,अधर्म-अधर्मद्रव्य का उपकार:-उपकार है !
अर्थ-धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार,पुद्गल और जीव के क्रमश गति और स्थिति में सहकारी होना है!
विशेष -
१-मछली के जल में तैरने में,जल केवल बाह्य सहायक है,यदि मछली तैरना नहीं चाहे तो उसे तैरने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है!धर्म द्रव्य भी इसी प्रकार से पुद्गल और जीव के गमन करनी की इच्छा होने पर सहायता करना है किन्तु उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें गमन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता !जैसे सिद्ध भगवान की आत्मा को लोक के शिखर पर पहुचने में धर्म द्रव्य सहकारी है,उसके ऊपर यद्यपि आत्मा में अनंत शक्ति है किन्तु धर्म द्रव्य के अभाव मे उस से ऊपर आत्मा अन्ननत अलोकाकाश में नहीं गमन कर सकती !
२-किसी पथिक को गर्मी में वृक्ष की छाया जिस प्रकार ठहरने में सहायक है (उसे ठहरने के लिए प्रेरित करती है),किन्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे ठहरने लिए बाध्य नहीं करती इसी प्रकार अधर्म द्रव्य पुद्गल व जीव को जो कही स्थिर रहना चाहे तो उनके ठहरने में सहायता करता है !जैसे सिद्धालय में सिद्ध भगवान की आत्मा स्थिर हो जाती है !
३-वस्तुओं की गति और स्थिति में भूमि,जल आदि को सहायक देखा जाता है फिर धर्म और अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व क्यों माना जाए ?
समाधान-भूमि और जल किसी किसी वस्तु के गति और स्थिति में सहायक है सब वस्तुओं के नहीं किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य सभी वस्तुओं के गमन और स्थिरता में सहायक है,वह सभी पुद्गल और जीवों के गति और ठहरने में साधारण सहायक है,तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है इसलिए उनके अस्तित्व को मानने में कोई बाधा नहीं है !
४-शंका -धर्म /अधर्म के उपकार को यदि सर्वगत आकाश का मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है ?
समाधान -धर्मादिक द्रव्यों को आकाश का उपकार अवगाहन देना है!यदि एक द्रव्य के अनेक उपकार मान लिए जाए तो लोकालोक का विभाजन का अभाव हो जाएगा इसलिए धर्म अधर्म द्रव्यों के उपकार को आकाश का उपकार मानना अनुचित है !
५-शंका-अधर्म और धर्म द्रव्य तुल्य बलवान है अत स्थिति का गति से और गति से स्थिति का प्रतिबंध होना चाहिए ?
समाधान-ये दोनों द्रव्य उदासीन प्रेरक है ,जबरदस्ती किसी से नहीं करते इसलिए शंका निर्मूल है !
६-शंका-धर्म अधर्म द्रव्य नहीं है क्योकि इनकी उपलब्धि नहीं है जैसे गधे के सिर पर सींग?
समाधान-सभी वादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से इन दोनों पदार्थों को स्वीकार करते है इसलिए इनका अभाव नहीं कहा जा सकता!दूसरा हम जैनो के प्रति "अनुपलब्धि हेतु असिद्ध है 'क्योकि जिनके सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञान रूपी नेत्र विध्यमान है,ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानते है और उपदेश से श्रुतज्ञानी भी जानते है !
७-शंका-सूत्र में'उपग्रह 'निरर्थक है क्योकि केवल उपकार से काम चल सकता था ?
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि यथा क्रम निराकरण के लिए उपग्रह पद रखा है !जिस प्रकार धर्म और अधर्म के साथ गति व् स्थिति का क्रम से संबंध होता है जैसे धर्म द्रव्य का उपकार जीवों की गति है और अधर्म द्रव्य उपकार पुद्गलों की स्थिति है ,इसका निराकरण करने के लिए सूत्र में उपग्रह पद रखा है !
आकाश द्रव्य का उपकार/कार्य -
आकाशस्यावगाह: !!१८!!
संधि विच्छेद -आकाशस्य +अवगाह:
शब्दार्थ-आकाशस्य-आकाश द्रव्य ,अवगाह:-स्थान(अवकाश )देता है
अर्थ-सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देना आकाश द्रव्य का उपकार है !
विशेष-
१-अनंन्त आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है,इसको अन्य कोई द्रव्य अवकाश नहीं देता,स्वयं सहित यह पाँचों द्रव्यों को अवकाश देता है!लोकाकाश के बहार भी अलोकाकाश मे असीमित अवगाहन शक्ति होने के बावजूद भी,धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव में वह किसी भी द्रव्य को अवगाहन नहीं दे सकता है !
शंका-क्रियावान द्रव्य पुद्गल और जीव को आकाश द्रव्य द्वारा अवकाश देना तो उचित लगता है किन्तु निष्क्रिय धर्म और अधर्म द्रव्य अनादिकाल से जहा के तहाँ स्थित (नित्य) है,आकाश का उन्हें अवकाश देना उचित नहीं लगता ?
समाधान-आकाश कभी चलता नहीं किन्तु उसे सर्वगत कहते है क्योकि सब जगह विध्यमान है इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्यों में अवगाहरूप क्रिया नहीं पायी जाती फिर भी लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त है।अत: उन्हेँ अवग्राही उपचार से कहते है!यद्यपि पुद्गल और जीव को मुख्यत आकाश ही अवकाश देता है !
शंका-यदि आकाश द्रव्य का स्वभाव अवकाश देना है तब एक मूर्तिक द्रव्य का अन्य मूर्तिक द्रव्य से प्रतिघात नहीं होना चाहिए,किन्तु देखने में आता है की मूर्तिक मनुष्य मूर्तिक दीवार से टकरा कर रुक जाता है ?
समाधान-जब कोई मनुष्य दीवार से टकराता है तब पुद्गल,पुद्गल से टकराता है ,इसमें आकाश द्रव्य का कोई दोष नहीं है!जैसे सवारियों से भरी रेलगाड़ी में बैठे यात्री यदि अन्य यात्रियों को चढ़ने नहीं दे तो इसमें रेलगाड़ी का तो कोई दोष नहीं है वह तो बराबर अवकाश/स्थान दे रही है !
शंका-अलोकाकाश में कोई द्रव्य नहीं रहता है तो क्या आकाश में अवकाश दान की शक्ति नहीं है?
समाधान-अलोकाकाश में यदि कोई द्रव्य नहीं रहता तो इससे प्रमाणित नहीं होता की उसमे अवकाश देने की शक्ति नहीं है ठीक वैसे जैसे किसी खाली घर में कोई नहीं रह रहा हो तो इसका अर्थ यह नहीं है की उस मकान में किसी को ठहरने की शक्ति नहीं है!कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव को छोड़कर नहीं रह सकता !
संख्येयाऽसंख्येयाश्चपुद्गलानाम !!१०!!
संधि विच्छेद -संख्येय+असंख्येया:+च +पुद्गलानाम
शब्दार्थ-संख्येय-संख्यात,असंख्येया:-असंख्यात ,च -और अर्थात अनन्त ,पुद्गलानाम -पुद्गल द्रव्य के प्रदेश है
अर्थ- पुद्गल द्रव्य के संख्यात,असंख्यात और अन्नत प्रदेश होते है !
विशेष-
१- शुद्ध पुद्गल द्रव्य;- एक अविभागी परमाणु तो एक प्रदेशी ही है(सूत्र १० )!किन्तु दो परमाणुओं में भेद और संघात (मिलने और बिच्छुड़ने)की शक्ति द्वारा स्कंध निर्मित करते है !सूक्ष्मत:स्कंध दो (संख्यात प्रदेशी) परमाणुओं के संघात से बनता है जबकि अन्य स्कंध २,३,४,अथवा संख्यात,असंख्यात और अनांत परमाणुओं के संघात से बनते है अत: पुद्गल द्रव्य क्रमश संख्यात ,असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होता है !
२-संख्यात-मति व श्रुत ज्ञान द्वारा जीव जहाँ तक जान सकते है वह संख्या संख्यात है!अवधिज्ञानी और मन: पर्ययज्ञानी जहाँ तक जानते है वह संख्या असंख्यात है!केवली भगवान जहाँ तक जानते है उसे अनन्त कहते है !संख्या की इकाई अचल अर्थात ८४ की घात ३१ x १० की घात ८० तक की संख्या,संख्यात है ,इससे १ अधिक होने पर असंख्यात हो जाती है!(सदर्भ -आदिनाथपुराण-पृष्ठ ६५ )
३- यद्यपि शुद्ध परमाणु एक प्रदेशी है,किन्तु उसमें अवगाहनना गुण होने के कारण,अनन्त परमाणु को उसमे समाने की क्षमता होती है,इसीलिए उस परमाणु के एक प्रदेश में अन्नंत परमाणु को स्थान देने की क्षमता है!यह प्रत्येक द्रव्य में विध्यमान अवगाहनना गुण के कारण होती है!इसी अवगाहनना गुण के कारण असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्त जीव और पुद्गल समाये हुए है !
इस को एक दृष्टांत से समझा जा सकता है-
एक कमरे में एक मोमबती का प्रकाश फ़ैल जाता है!उसी कमरे में २,५०,१०० आदि अनेक मोमबत्तियों का प्रकाश भी फ़ैल जाता है!यह पुद्गल प्रकाश में दुसरे पौद्गलिक प्रकाश को स्थान देने (अवगाहना) की क्षमता के कारण होता है!पुद्गल परमाणु सूक्ष्मत: होने के कारण अपने प्रदेश में अन्नत परमाणुओं को समाने के लिए स्थान दे देता है !
जैन दर्शन में सूक्ष्मत्व-जैनदर्शन में सूक्ष्मता का अर्थ कल्पना से भी दूर है!एक आलू के सुई के नोक से भी छोटे कण में अनन्तानन्त आत्माए वास करती है !वे आत्माए कितनी है? आज तक सिद्ध हो चुकी आत्माओं से अनंत गुणी जीवात्माये, आलू के कण में हैं !सूक्ष्म परिणमन होने के कारण एक के अंदर एक विराजमान है!उनमे जो अनन्तानन्त आत्माए विराजमान है,प्रत्येक के साथ अनन्तानन्त कार्माण वर्गणाये चिपकी हुई है!प्रत्येक कर्माण वर्गणा में अनन्तानन्त परमाणु है!उस आत्मा के साथ उससे अनंत गुणे नो कर्म परमाणु है!इनसे भी अन्नत गुणे वे परमाणु है जो अगले समयों में कर्म रूप परिणमन करने वाले विस्रोपत्च कहलाते है!यह सूक्ष्मत्व और अवगाहना गुण के कारण सम्भव है!
परमाणु के प्रदेश -
परमाणु के प्रदेश -
नाणो: !!११!!
संधिविच्छेद-न +अणु
शब्दार्थ-परमाणु/अणु के दो आदि प्रदेश (खंड) नहीं होते अर्थात वह एक प्रदेशी है !
अर्थ- शुद्ध परमाणु /अणु संख्यात,असंख्यात अथवा अनन्त प्रदेशी नहीं होता,केवल एक प्रदेशी होता है !
विशेष-
१-पुद्गल अणु से सूक्ष्मत: है इससे सूक्ष्म कुछ नहीं होता ,उसके बराबर केवल काल द्रव्य का कालणु होता है,वह भी पुद्गल परमाणु के बराबर स्थान घेरता है !
२-पुद्गल और काल अणु में अंतर-पुद्गल के सूक्ष्मत अविभाज्य परमाणु /अणु क्रियावान है जबकि कालणु में नहीं है!परमाणु /पुद्गल अणु परिणमनशील है कभी शुद्ध होता है और कभी अशुद्ध जबकि कालणु अनंत काल से शुद्ध ही है ,शुद्ध ही रहता है!
३-जैन दर्शन का अणु परमाणु पर्यायवाची है जबकि विज्ञान के अनुसार जो अणु है वह जैन दर्शन में वर्णित स्कंध है!
४-जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान में परिभाषित परमाणु-अणु में अंतर -
जैन दर्शना में परिभाषित परमाणु और अणु पर्यायवाची है,पुद्गल का सूक्ष्मत:अविभाज्य भाग है किन्तु आधुनिक विज्ञान के अनुसार अणु (मॉलिक्यूल )दो सा दो से अधिक परमाणुओं (जैन दर्शनानुसार उल्लेखित)का स्कंध है !विज्ञान में परिभाषित परमाणु के ; इलेक्ट्रान,प्रोटोन ,न्यूट्रॉन उसके घटक है,वह द्रव्य का सूक्ष्मत अविभाज्य अंग नही है अत: वह जैनदर्शनानुसार स्कंध ही है!
समस्त द्रव्यों के रहने का स्थान-
लोकाकाशेऽवगाह: !!१२!!४-जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान में परिभाषित परमाणु-अणु में अंतर -
जैन दर्शना में परिभाषित परमाणु और अणु पर्यायवाची है,पुद्गल का सूक्ष्मत:अविभाज्य भाग है किन्तु आधुनिक विज्ञान के अनुसार अणु (मॉलिक्यूल )दो सा दो से अधिक परमाणुओं (जैन दर्शनानुसार उल्लेखित)का स्कंध है !विज्ञान में परिभाषित परमाणु के ; इलेक्ट्रान,प्रोटोन ,न्यूट्रॉन उसके घटक है,वह द्रव्य का सूक्ष्मत अविभाज्य अंग नही है अत: वह जैनदर्शनानुसार स्कंध ही है!
समस्त द्रव्यों के रहने का स्थान-
संधि विच्छेद-लोकाकाशे+अवगाह:
शब्दार्थ-लोकाकाश सब द्रव्यों को अवगाह (स्थान) देता है !
अर्थ-छ; द्रव्यों का अवगाहन लोकाकाश में है !
विशेष-
१-अनंत आकाश के जितने क्षेत्र में छहों द्रव्य पाये जाते है,वह लोकाकाश है और शेष अनंत आकाश अलोकाकाश है!धर्मादिक द्रव्य ही आकाश को, लोकाकाश और अलोकाकाश में विभाजित करते है !
२-शंका- छहों द्रव्यों का आधार लोकाकाश है तो आकाश का आधार क्या है ?
समाधान -आकाश का कोई अन्य आधार नहीं है वह स्व प्रतिष्ठित है !
शंका-यदि आकाश स्व प्रतिष्ठित है तब धर्मादि द्रव्य भी स्व प्रतिष्ठित होने चाहिए?यदि इनका आधार है तो आकाश का भी आधार होना चाहिए !
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि सभी दिशाओं में फैला हुआ अनंत आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है ,उसके परिमाण का अन्य द्रव्य कोई नहीं है!धर्मादिक द्रव्यों का आकाश को व्यवहारनय की अपेक्षा से अधिकरण/आधार कहा जाता है क्योकि धर्मादिक द्रव्य लोकाकाश के बाहर अलोकाकाश में नहीं है! किन्तु एवं भूत नय की अपेक्षा सब द्रव स्व प्रतिष्ठित है!निश्चयनय से सभी द्रव्य का अपना अपना आधार है कोई अन्य किसी द्रव्य का आधार नहीं है !
शंका-लोक में पूर्वोत्तर काल भावी होते है उन्ही में आधार और आधेयपन देखा जाता है जैसे मकान पहले बनता है बाद में उसमे रहने वाले मनुष्य आते है किन्तु धर्मादिक द्रव्यों में यह देखने में नहीं आता कि पहले आकाश बना हो और फिर बाद में ये धर्मादिक द्रव्य उसमे आये हो ,ऐसी स्थिति में व्यवहार नए से भी आधार और आधेयपन नहीं बनता ?
समाधान-शंका निर्मूल है क्योकि जो साथ में रहते है उनमे भी आधार और आधेयपन बनता है जैसे शरीर का हाथ साथ साथ बनता है किन्तु कहा जाता है की शरीर में हाथ है !इसी प्रकार यद्यपि छहों द्रव्य अनादिकाल से है फिर भी व्यवहार से कथन सदोष नहीं है कि आकाश में बाकी सभी द्रव्य रहते है !
धर्म और अधर्म द्रव्य के रहने के स्थान -
धर्माधर्मयो:कृत्स्ने !!१३!!
संधि विच्छेद-धर्म+अधर्मयो:+कृत्स्ने
शब्दार्थ-धर्म-धर्म ,और अधर्मयो:-अधर्म द्रव्य, कृत्स्ने-सम्पूर्ण लोकाकाश में समान व्याप्त है !
अर्थ-धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में तिल में तेल के समान व्याप्त है!ऐसे नहीं जैसे कि मकान के एक कोने में घड़ा रखा हो !
विशेष-
१-छहो द्रव्य लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त है किन्तु अवगाहनना शक्ति के निमित्त से इनके प्रदेश परस्पर में प्रविष्ट होकर एक दुसरे को बाधित नहीं करते!प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त जीवात्माये है और उनके साथ अनन्त पुद्गल वर्गणाये भी चिपकी है!धर्म,अधर्म आकाश और काल अमूर्तिक है इसलिए परस्पर में टकराने का प्रश्न ही नहीं उठता,वे पुद्गल की सूक्ष्म वर्गणाओं से नहीं टकराते ,जीव तो शुद्ध अवस्था में सूक्ष्म अमूर्तिक ही है !
पुद्गल के रहने के स्थान-
एकप्रदेशादिषुभाज्य:पुद्गलानाम् !!१४!!
संधि विच्छेद -एक+प्रदेशा/+आदिषु +भाज्य:+ पुद्गलानाम्
शब्दार्थ-एक प्रदेशादिषु-एक आदि में प्रदेश,भाज्य:-विभाजन कर,पुद्गलानाम्-पुद्गल द्रव्य की अवगाहन है
अर्थ-एक प्रदेश,दो प्रदेश,संख्यात प्रदेशों और असंख्यात प्रदेशों में पुद्गल रहते है !
विशेष -
१-अन्नत प्रदेश अलोकाकाश में इनके रहने का प्रश्न ही नहीं है !संख्यात परदेशी लोकाकाश में ही रहते है
२-पुद्गल का सबसे बड़ा स्कंध महास्कंध लोकप्रमाण है,सबसे छोटा परमाणु एक प्रदेशी है !
३-पुद्गल के दो परमाणु जुदा हो तो दो प्रदेशों में और यदि बंधे हो तो एक प्रदेश में रहते है!इसी प्रकार संख्यात,असंख्यात और अन्नंत प्रदेशी स्कंध लोकाकाश के एक/संख्यात/असंख्यात प्रदेशों में रहते है जैसे स्कंध हो तदानुसार स्थान में रहते है !अत: लोकाकाश के एक प्रदेश में एक पुद्गल को आदि लेकर उसमे संख्यात असंख्यात और अनंत पुद्गल परमाणुओ के प्रदेश स्म सकते है !
यह बात वर्तमान विज्ञान की कसौटी पर भी प्रमाणित हो चुका है !मनुष्य के सिर के बाल की मोटाई के १००वे भाग (१.३ माइक्रोन स्पेक ) पर (जो कि सम्भवत जैनदर्शन में उल्लेखित एक प्रदेश ही हो ) सम्पूर्ण अमेरिका के विद्युत ग्रिड की क्षमता से ३०० गुणा अधिक अर्थात ३००x १० की घात १२ (टेट्रा)वाट विद्युत समां गई !
शंका-धर्म अधर्म अमूर्तिक द्रव्य है इसलिए वे तो एक स्थान पर बाधारहित रह सकते है! किन्तु पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है अत: एक प्रदेश में अनेक मूर्तिक पुद्गल कैसे रह सकते है ?
समाधान-जिस प्रकार प्रकाश मूर्तिक है किन्तु एक कमरे में अनेकों दीपक का पुद्गल प्रकाश समा जाता है वैसे ही स्वभाव और सूक्ष्म परिणमन होने से लोकाकाश के एक प्रदेश में बहुत से पुद्गल परमाणु रह सकते है!
एक जीव के रहने के स्थान -
असंख्येयभागादिषुजीवानाम् !!१५!!
संधिविच्छेद-असंख्येय+भागादिषु+जीवानाम्
शब्दार्थ -असंख्येय-असंख्यात,भागादिषु-विभाजित करे प्रदेश,जीवानाम्-जीव रहता है
अर्थ-जीवों का अवगाह,लोक के (असंख्यात) प्रदेशों को असंख्यात से विभाजित करने पर अर्थात एक प्रदेश में कम से कम एक जीव लोक पर्यंत रहता है
भावार्थ-लोक के असंख्यत्वे भाग,अर्थात एक प्रदेश में न्यूनतम,सूक्ष्मत:एक निगोदिया जीव रहता है क्योकि उसका जघन्य अवगाहन है,वह लोक के एक प्रदेश (स्थान) को घेरता है!यदि जीव का अवगाहन अधिक होता है,तो वह लोक के एक,दो,चार आदि प्रदेशों में अर्थात लोक के असंख्यातवे भाग में रहता है,यहाँ तक की सर्व लोक तक भी व्याप्त हो जाता है (केवली समुद्घात के समय)
विशेष-
शंका-लोक के एक प्रदेश (असंख्यत्वे भाग में) पर एक जीव रहता है तो लोक के समस्त (असंख्यात) प्रदेशों में संख्या की अपेक्षा अनन्तानन्त सशरीरी जीव कैसे रह सकते है?
समाधान-सूक्ष्म-सूक्ष्म और बादर-स्थूल शरीर वाले दो प्रकार के जीव लोक में पाये जाते है!सूक्ष्म शरीर के जीव एक दुसरे को बाधित नहीं करते ,केवल स्थूल शरीर वाले जीव एक दुसरे को बाधित करते है!सूक्ष्म जीव,जितने प्रदेश में एक निगोदिया जीव (अर्थात १ प्रदेश) में रहता है उतने में अनन्तानन्त जीव साधारण काय के साथ रह सकते है क्योकि वे अन्य जीवों को बाधित नहीं करते अत: असंख्यात प्रदेशों में अनन्तान्त स शरीरी जीव रह सकते है,कही कोई विरोध नहीं है !
२८-२-१६
शंका-एक जीव को लोकाकाश के बराबर प्रदेश वाला कहा है फिर वह लोकाकाश के असँख्यातवे भाग अर्थात एक प्रदेश में कैसे रह सकता है?इस शंका का समाधान सूत्र १६ के माध्यम से आचर्य उमास्वामी जी !
समाधान -आत्मा/जीव के प्रदेशों में शरीर नामकर्म के उदय से संकुंचित/विस्तृत होने का गुण होता है इसलिए प्रदेश छोटे से छोटे जीव के शरीर के अनुसार संकुचित हो जाते है !
जीव द्रव्य का लोक के असंख्यातवे भाग में रहने का स्पष्टीकरण -
प्रदेश-संहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् !!१६!!
संधि विच्छेद -प्रदेश+संहार+विसर्पाभ्यां+प्रदीपवत्
शब्दार्थ-प्रदेश-(जीव के) प्रदेश ,संहार-संकोच और विसर्पाभ्यां-विस्तार के कारण,प्रदीपवत्-दीपक के प्रकाश् के समान
अर्थ -जीव के प्रदेश दीपक के प्रकाश के समान संकुचित और विस्तृत हो सकते है !
भावार्थ-जिस प्रकार एक कमरे में एक दीपक से प्रकाशित होने के पर भी उसमे अन्य दीपकों का प्रकाश भी समा जाता है,उसी प्रकार यद्यपि आत्मा के प्रदेश असंख्यात प्रदेशी है,वे प्रदेश; संकोच और विस्तार गुणों के कारण एक प्रदेश में समा जाते है!समुद्घात के समय केवली के आठ मध्य के आत्म प्रदेशो के अतिरिक्त,जो की मेरु के नीचे चित्रा पृथ्वी पर आठ दिशाओं में रहते है,शेष पूरे लोक में विस्तृत हो जाते है!यह बंध आत्म प्रदेशों के गुण है !
विशेष-
१-शुद्ध जीवात्मा स्वभावत:अमूर्तिकहै,किन्तु अनादिकाल से कर्मों से बंधे होने से कथंचित मूर्तिक हो रहा है,अत: कर्मबंध वश छोटा बड़ा शरीर नामकर्म के अनुसार आत्मप्रदेश,प्राप्त शरीर में व्याप्त हो जाते है !
२-सिद्धावस्था में अंतिम शरीर से कुछ छोटे ,आकार में मुक्त आत्म के प्रदेश सिद्धालय में रहते है !
३-शंका-यदि आत्म प्रदेशों में संकोच विस्तार का गुण है तो वे इतने संकुचित क्यों नहीं हो जाते की लोकाकाश के एक प्रदेश पर एक ही जीवात्मा रह सके ?
समाधान-आत्माप्रदेशों में संकोच विस्तार,शरीरनामकर्म के अनुसार होता है!सूक्ष्मत: शरीर,सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य पर्याप्तक जीव का होता है जिसकी अवगाहना अंगुल का असंख्यात्व भाग है,अत:जीव की अवगाहना इसे कम नहीं हो सकती इसलिए वह लोक के असंख्यातवे भाग प्रमाण है!
धर्म अधर्म द्रव्य का कार्य/लक्षण /उपकार -
गतिस्थित्युपग्रहौधर्माधर्मोयोरुपकार:!!१७!!
संधि-विच्छेद-गति+स्थिति+उपग्रहौ+धर्म+अधर्म:+उपकार:!!
शब्दार्थ-गति-गति,स्थिति:-स्थिति,उपग्रहौ-सहकारी क्रमश:धर्म-धर्म,अधर्म-अधर्मद्रव्य का उपकार:-उपकार है !
अर्थ-धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार,पुद्गल और जीव के क्रमश गति और स्थिति में सहकारी होना है!
विशेष -
१-मछली के जल में तैरने में,जल केवल बाह्य सहायक है,यदि मछली तैरना नहीं चाहे तो उसे तैरने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है!धर्म द्रव्य भी इसी प्रकार से पुद्गल और जीव के गमन करनी की इच्छा होने पर सहायता करना है किन्तु उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें गमन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता !जैसे सिद्ध भगवान की आत्मा को लोक के शिखर पर पहुचने में धर्म द्रव्य सहकारी है,उसके ऊपर यद्यपि आत्मा में अनंत शक्ति है किन्तु धर्म द्रव्य के अभाव मे उस से ऊपर आत्मा अन्ननत अलोकाकाश में नहीं गमन कर सकती !
२-किसी पथिक को गर्मी में वृक्ष की छाया जिस प्रकार ठहरने में सहायक है (उसे ठहरने के लिए प्रेरित करती है),किन्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे ठहरने लिए बाध्य नहीं करती इसी प्रकार अधर्म द्रव्य पुद्गल व जीव को जो कही स्थिर रहना चाहे तो उनके ठहरने में सहायता करता है !जैसे सिद्धालय में सिद्ध भगवान की आत्मा स्थिर हो जाती है !
३-वस्तुओं की गति और स्थिति में भूमि,जल आदि को सहायक देखा जाता है फिर धर्म और अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व क्यों माना जाए ?
समाधान-भूमि और जल किसी किसी वस्तु के गति और स्थिति में सहायक है सब वस्तुओं के नहीं किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य सभी वस्तुओं के गमन और स्थिरता में सहायक है,वह सभी पुद्गल और जीवों के गति और ठहरने में साधारण सहायक है,तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है इसलिए उनके अस्तित्व को मानने में कोई बाधा नहीं है !
४-शंका -धर्म /अधर्म के उपकार को यदि सर्वगत आकाश का मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है ?
समाधान -धर्मादिक द्रव्यों को आकाश का उपकार अवगाहन देना है!यदि एक द्रव्य के अनेक उपकार मान लिए जाए तो लोकालोक का विभाजन का अभाव हो जाएगा इसलिए धर्म अधर्म द्रव्यों के उपकार को आकाश का उपकार मानना अनुचित है !
५-शंका-अधर्म और धर्म द्रव्य तुल्य बलवान है अत स्थिति का गति से और गति से स्थिति का प्रतिबंध होना चाहिए ?
समाधान-ये दोनों द्रव्य उदासीन प्रेरक है ,जबरदस्ती किसी से नहीं करते इसलिए शंका निर्मूल है !
६-शंका-धर्म अधर्म द्रव्य नहीं है क्योकि इनकी उपलब्धि नहीं है जैसे गधे के सिर पर सींग?
समाधान-सभी वादी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से इन दोनों पदार्थों को स्वीकार करते है इसलिए इनका अभाव नहीं कहा जा सकता!दूसरा हम जैनो के प्रति "अनुपलब्धि हेतु असिद्ध है 'क्योकि जिनके सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञान रूपी नेत्र विध्यमान है,ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानते है और उपदेश से श्रुतज्ञानी भी जानते है !
७-शंका-सूत्र में'उपग्रह 'निरर्थक है क्योकि केवल उपकार से काम चल सकता था ?
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि यथा क्रम निराकरण के लिए उपग्रह पद रखा है !जिस प्रकार धर्म और अधर्म के साथ गति व् स्थिति का क्रम से संबंध होता है जैसे धर्म द्रव्य का उपकार जीवों की गति है और अधर्म द्रव्य उपकार पुद्गलों की स्थिति है ,इसका निराकरण करने के लिए सूत्र में उपग्रह पद रखा है !
आकाश द्रव्य का उपकार/कार्य -
आकाशस्यावगाह: !!१८!!
संधि विच्छेद -आकाशस्य +अवगाह:
शब्दार्थ-आकाशस्य-आकाश द्रव्य ,अवगाह:-स्थान(अवकाश )देता है
अर्थ-सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देना आकाश द्रव्य का उपकार है !
विशेष-
१-अनंन्त आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है,इसको अन्य कोई द्रव्य अवकाश नहीं देता,स्वयं सहित यह पाँचों द्रव्यों को अवकाश देता है!लोकाकाश के बहार भी अलोकाकाश मे असीमित अवगाहन शक्ति होने के बावजूद भी,धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव में वह किसी भी द्रव्य को अवगाहन नहीं दे सकता है !
शंका-क्रियावान द्रव्य पुद्गल और जीव को आकाश द्रव्य द्वारा अवकाश देना तो उचित लगता है किन्तु निष्क्रिय धर्म और अधर्म द्रव्य अनादिकाल से जहा के तहाँ स्थित (नित्य) है,आकाश का उन्हें अवकाश देना उचित नहीं लगता ?
समाधान-आकाश कभी चलता नहीं किन्तु उसे सर्वगत कहते है क्योकि सब जगह विध्यमान है इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्यों में अवगाहरूप क्रिया नहीं पायी जाती फिर भी लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त है।अत: उन्हेँ अवग्राही उपचार से कहते है!यद्यपि पुद्गल और जीव को मुख्यत आकाश ही अवकाश देता है !
शंका-यदि आकाश द्रव्य का स्वभाव अवकाश देना है तब एक मूर्तिक द्रव्य का अन्य मूर्तिक द्रव्य से प्रतिघात नहीं होना चाहिए,किन्तु देखने में आता है की मूर्तिक मनुष्य मूर्तिक दीवार से टकरा कर रुक जाता है ?
समाधान-जब कोई मनुष्य दीवार से टकराता है तब पुद्गल,पुद्गल से टकराता है ,इसमें आकाश द्रव्य का कोई दोष नहीं है!जैसे सवारियों से भरी रेलगाड़ी में बैठे यात्री यदि अन्य यात्रियों को चढ़ने नहीं दे तो इसमें रेलगाड़ी का तो कोई दोष नहीं है वह तो बराबर अवकाश/स्थान दे रही है !
शंका-अलोकाकाश में कोई द्रव्य नहीं रहता है तो क्या आकाश में अवकाश दान की शक्ति नहीं है?
समाधान-अलोकाकाश में यदि कोई द्रव्य नहीं रहता तो इससे प्रमाणित नहीं होता की उसमे अवकाश देने की शक्ति नहीं है ठीक वैसे जैसे किसी खाली घर में कोई नहीं रह रहा हो तो इसका अर्थ यह नहीं है की उस मकान में किसी को ठहरने की शक्ति नहीं है!कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव को छोड़कर नहीं रह सकता !