तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ भाग १
#1

अध्याय ५ (अजीव तत्व ) 

इस अध्याय में आचार्यश्री ने १-१६ सूत्रों में लोक में विध्यमान  ६ ही (हीनाअधिक नही ) द्रव्यों और उन  के विभिन्न गुणों,१७-२२ तक उनके उपकारों और २३-४२ में पुद्गल द्रव्य के लक्षणादि का निरूपण किया है!आइये इन ४२ सूत्रों के द्वारा मुख्यत: अजीव द्रव्य को समझने का प्रयास करते है!प्रथम सूत्र में आचार्य  बहु प्रदेशी (कायवान) अजीव  द्रव्य के भेदो का निरूपण करते  है-
इस अध्याय में हम लगभग २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर द्वारा  प्रतिपादित रसायन विज्ञान के रहस्यों को सूत्र २३-४२ तक समझ सकेंगे जिनको अनुसंधान  द्वारा आधुनिक वैज्ञानिको ने हमारे समक्ष भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग २५०० वर्ष  बाद १८वॆ-१९वी सदी में अनुसंधान द्वारा खोज कर रखा  है!  

 अजीवकायाधर्माधर्माकाशपुद्गला: !!१!! 
संधि विच्छेद -अजीव+काया+धर्म+अधर्म+आकाश+पुद्गला:
शब्दार्थ-अजीव-चेतन रहित,काया-, कायवान(बहुप्रदेशी),धर्म,अधर्म,आकाश,पुद्गला:
अर्थ-धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल चार द्रव्य;अजीव(चेतनरहित) और शरीर की भांति कायवान अर्थात  बहु प्रदेशी है !
भावार्थ-
धर्म द्रव्य-जो गतिशील जीव और पुद्गलों के गमन में निष्क्रिय उत्प्रेरक की भांति  सहायक/निमित्त होता है,रुके हुए पुद्गल और जीवों को गमन के लिए बाध्य नहीं करता,धर्म द्रव्य है !
अधर्म द्रव्य-जो द्रव्य स्थिर जीव और पुद्गलों के स्थिर रहने  में निष्क्रिय उत्प्रेरक की भांति सहायक/निमित्त  होता है,गतिशील पुद्गल और जीवों को  स्थिर होने  के लिए बाध्य नहीं करता,अधर्म द्रव्य है!
आकाश द्रव्य-समस्त द्रव्यों को अवकाश देने वाले द्रव्य को आकाश द्रव्य कहते है!इसके लोकाकाश-त्रिलोक मे जितने आकाश में धर्म/अधर्म द्रव्य है वह लोकाकाश कहलाता है और अलोकाकाश;-लोकाकाश से बाहर का अनन्त आकाश अलोकाकाश है ,दो भेद है ! 
पुद्गल द्रव्य -स्पर्श,रस,गंध और  रूप (वर्ण) गुणों सहित द्रव्य को पुद्गल कहते है !
विशेष-
१-छ:द्रव्यों में से दो द्रव्यों;जीव और काल को इस सूत्र में सम्मिलित नहीं लिया क्योकि जीव द्रव्य चेतन गुण युक्त है और काल द्रव्य यद्यपि अजीव है,किन्तु एक प्रदेशी है,बहु प्रदेशी नहीं है अर्थात कायवान नहीं हैं!इस सूत्र में केवल कायवान  अजीव द्रव्यों को ग्रहण किया है !
 २-एक से अधिक प्रदेशी को कायवान कहते है!यद्यपि पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी है,किन्तु वह अन्य पुद्गल परमाणु से संघात (मिल) कर स्कंध निर्मित करता है इस अपेक्षा से वह बहुप्रदेशी कहा जाता है जबकि कालाणु भी एक प्रदेशी है किन्तु वह अन्य कालाणुओं से संघात कर स्कंध नहीं बना सकता इसलिए उसे एक प्रदेशी कहा है और वह कायवान नहीं है !
३- उक्त सूत्र में इन चारों को द्रव्य नही खा है किन्तु अगले सूत्र में आचार्य स्पष्ट करते है की ये चारो द्रव्य है 
 द्रव्यों की गणना -
द्रव्याणि -!!२!!
संधि-विच्छेद-द्रव्य+आणि 
शब्दार्थ-द्रव्य-द्रव्य ,आणि -है 
अर्थ- ये चार पदार्थ धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल(उक्त सूत्र से ग्रहण किये गए  है)- द्रव्य है !
विशेष -
१-द्रव्य-द्रव्य का लक्षण सत (अस्तित्व) है!जो अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायों को प्राप्त करता है या उनसे प्राप्त होता है वह  द्रव्य है!जिस मे गुण पर्याय होते है वह द्रव्य है अथवा उत्पाद-ध्रौव्य व्यय युक्त पदार्थ द्रव्य है!
किसी द्रव्य में सदैव(प्रत्येक पर्याय में) विध्यमान रहने वाले धर्म को गुण कहते है!गुण द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्याप्त रहता है!जगत में पदार्थ परिणमनशील होते हुए भी ध्रुव है इसलिए उसे द्रव्य कहते है,वह अपने पर्याय और गुण का उल्लघन कभी नहीं करता !
जीव में द्रव्यत्व -
 जीवश्च !!३!!
संधि-विच्छेद -जीवा:+च 
शब्दार्थ-जीवा: -जीवों के अनेक भेद ( जीवाSmile,च- भी(द्रव्य है )
अर्थ-जीव (अनेक भेदों  सहित )भी द्रव्य है !
विशेष-
१-सूत्र में जीव द्रव्य के साथ बहुवचन लगाने का कारण है की इसके अनेक भेद है जैसे मुक्त-संसारी,स्थावर-त्रस, एकेन्द्रिय,पंचेन्द्रिय,संज्ञी-असंज्ञी,जीव आदि!१४ मार्गणा से भी जीव द्रव्य के अनेक भेद है !
२-सूत्र १ से ३ तक पांच द्रव्यों तथा सूत्र ३९ में काल द्रव्य सहित कुल छ द्रव्य की संख्या  निश्चित करके अन्यवादियों द्वारा माने गए पृथिवी,जल,अग्नि,वायु,मन का अंतर्भाव पुद्गल द्रव्यों में ही हो जाता है क्योकि ये स्पर्श,रस ,गंध,वर्ण युक्त है !
शंका-मन वायु में रुपादिक नहीं होते,ये पुद्गल कैसे है ?
समाधान-वायु में स्पर्श होता है,जिसे हमसभी अनुभव कर सकते है!इस प्रकार वायु में रूपादि प्रमाणित हुआ !उक्त चार पुद्गल के गुणों में से कोई भी एक अनुभव करने से उस मे बाकी गुण भी अवश्य ही होते है ,हमारी इन्द्रिय उन्हें अनुभव करने में असक्षम होती है!जैसे परमाणु को हमारी चक्षु इन्द्रिय देखने में सामर्थ्यवान नहीं है किन्तु उसका अस्तित्व,उससे निर्मित उसके बड़े स्कंध को देखकर प्रमाणित हो जाता  है! जल भी इसी प्रकार गंध वाला है किन्तु हमारी नासिका (घ्राणेंद्रिय)उसकी गंध को  सूंघने में सक्षम नहीं है,किन्तु एक स्पर्श होने के कारण पृथ्वी के सामान है!अग्नि भी रस गंध युक्त है !
मन;भाव मन और द्रव्य मन दो प्रकार का है!उन में,भाव मन ज्ञान रूप है और ज्ञान जीवो  का गुण  है ,इसलिए भाव मन का अंतर्भाव जीव में हो जाता है !द्रव्य मन में रूपदिक पाये जाते है इसलिए वह पुद्गल द्रव्य की पर्याय  हुई!जैसे मन रूपादिक सहित है,ज्ञानोपयोग का कारण होने से चक्षु इन्द्रिय के समान है!शब्द पौद्गलिक है, उसमे ज्ञानोपयोग  कारणता है !
शंका -परमाणु के समान मन और वायु में रूपादि गुण नहीं दीखते -
समाधान-वायु और मन भी रूपादि गुण युक्त सिद्ध होते है क्योकि सब परमाणुओं में,सब रूपादि गुणवाले कार्य होने की क्षमता मानी गई है!दिशा का भी अंतर्भाव आकाश में हो जाता है क्योकि सूर्य के उदय की अपेक्षा, आकाश प्रदेश पंक्तियाँ में,यहाँ अमुक दिशा है,इस प्रकार व्यवहार की उत्पत्ति होती है !
इस प्रकार जैन दर्शनानुसार बताये गए द्रव्य छ: ही है ,हीनाधिक नहीं !
द्रव्यों की विशेषता -

नित्यावस्थितान्यरूपाणि  !!४!!
संधि विच्छेद-नित्य+अवस्थिताणि+अन्यरूपाणि
शब्दार्थ-नित्य-अविनाशीहै,अवस्थिताणि-अवस्थित है;अर्थात उनकी संख्या छः ही है ,हीनाधिक नहीं, अन्यरूपाणि-अरूपी अर्थात स्पर्श,रस,गंध और रूप रहित है,अमूर्तिक है
अर्थ-सभी द्रव्य नित्य है;क्योकि अविनाशी है,अवस्थित है क्योकि इनकी संख्या छःही है हीनाधिक नहीं!समस्त जीवात्माओं की निश्चित संख्या है कभी भी हीनाधिक नहीं होती!द्रव्य अरूपी,अमूर्तिक है क्योकि इनमे रस गंध ,रूप और स्पर्श गुण नहीं है !
विशेष -
१-इस सूत्र में सामान्य से ५ द्रव्यों को अरूपी कहा है,अगले छठे  सूत्र में पुद्गलद्रव्य को रुपी बताया है ,यदि यह सूत्र नही लिखते तो पुद्गल द्रव्य के  भी अरूपी की अवधारणा होती !
२-प्रत्येक द्रव्य के सामान्य और विशेष दो गुण होते है!जैसे धर्म द्रव्य का विशेष गुण गतिशील पुद्गल और जीव द्रव्यों की गति में उत्प्रेरक की भांति सहायता देना है और अस्तित्व उसका सामान्य गुण है !किसी भी द्रव्य के गुण का विनाश कभी नहीं होता,उसका स्वभाव सदा ,प्रत्येक पर्याय में उसके साथ रहता है अत:सभी द्रव्य नित्य है  !
पुद्गल द्रव्य  रूपी है -
रूपिण:पुद्गला: !!५!!
संधि विच्छेद -रूपिण:+पुद्गला:
शब्दार्थ -रूपिण:-रूपी है,पुद्गला:-पुद्गल द्रव्य
अर्थ-पुद्गल द्रव्य रूपी है अर्थात मूर्तिक है !
विशेषार्थ-
१-इस सूत्र से यह भी स्पष्ट हो गया कि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पाँचों द्रव्य अरूपी अर्थात अमूर्तिक है!पुद्गल भी नित्य अवस्थित द्रव्य है अत:इनकी मात्र भी हीनाधिक नही होती है !
२-पुद्गला: बहु वचन में है जो सूचित करता है की पुद्गल द्रव्य भी है !
३-पुद्गल में रस,गंध,वर्ण (रूप),और स्पर्श चारों गुण,अभिनावी है,चारों एक साथ रहते है किन्तु दिखने में सिर्फ रूप ही आता है ,शेष गुण दीखते नहीं इसलिए पुद्गल को रुपी कहा है!जिस प्रकार जीव का दर्शन और ज्ञान गुण है किन्तु जब जीव की चर्चा करी जाती है तब ज्ञान गुण की ही चर्चा करी जाती है क्योकि दर्शन समझ नहीं आता, ज्ञान समझ में आ जाता है !
४-पुद्गल के परमाणु और स्कंध रूप अनेक भेद है !पुद्गल परमाणु से जुड़कर बड़े  स्कंध भी बनाते है और उनमे से परमाणु टूटकर छोटे स्कंध भी बनते है!यह गुण अन्य द्रव्यों में विध्यमान नहीं है!जैसे  दो जीवों  जुड़ते नहीं, आकाश ,धर्म और अधर्म  द्रव्य बड़े है किन्तु छोटों में खंडित नहीं होते!काल द्रव्य के अणु भी परस्पर  जुड़ कर स्कंध नहीं बनाते !



धर्म अधर्म आकाश द्रव्यों की संख्या -
आ आकाशादेकद्रव्याणि !!६!!
संधि-विच्छेद -आ+आकाशात+एक+द्रव्याणि
शब्दार्थ-आ-पर्यन्त,आकाशात-आकाश तक  ,एक-एक,द्रव्याणि -द्रव्य है !
अर्थ-सूत्र १ में आकाश तक एक -एक द्रव्य है !
भावार्थ-धर्म,अधर्म और आकाश एक एक द्रव्य है!
विशेष -
१-आकाश द्रव्य एक ही है!उसके लोकाकाश और अलोककाश दो भेद है!आकाश में जहाँ ,तक पांच  द्रव्य पाये जाते है वह लोकाकाश है और शेष अलोकाकाश है!अर्थात आकाश द्रव्य एक ही  है !
२-इस सूत्र में धर्म अधर्म और आकाश द्रव्य को एक एक बताने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अन्य द्रव्य अनेक है!जैन दर्शन के अनुसार जीव द्रव्य अनंत है,पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त और काल द्रव्य(अणु रूप) असंख्यात है ,क्योकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों पर एक एक कालणु स्थित रहता है !
धर्मादिक द्रव्यों की निष्क्रियता -
निष्क्रियाणि च !!७!!
संधि-विच्छेद-निष्क्रिय+आणि+ च
शब्दार्थ-निष्क्रिय-क्रिया रहित/गमन नही करते ,आणि-है, च-और 
 अर्थ-धर्म,अधर्म और आकाश तीनो द्रव्य क्रिया रहित है!अर्थात वे एक स्थान से दुसरे स्थान को गमन नहीं करते है  !
विशेष -
१- क्रिया-एक स्थान से दूसरा स्थान प्राप्त करने को क्रिया कहते है !
२- धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त है;आकाश द्रव्य समस्त लोक और अलोक में व्याप्त है, अत: अन्य क्षेत्र का अभाव होने के कारण इनमे हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती है !
-शंका-जैनसिद्धांत के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय उत्पाद और व्यय होता है किन्तु धर्मादि द्रव्यों को निष्क्रिय कहा है तो उनमे उत्पाद कैसे सम्भव है  क्योकि कुम्हार मिटटी को चाक पर रखकर जब घुमाता है तभी घड़े की उत्पत्ति होती है अत:बिना क्रिया के उत्पाद असम्भव है  और उत्पाद नहीं होगा तो व्यय भी नहीं होगा ?
समाधान-धर्मादिक द्रव्यों में क्रियापूर्वक उत्पाद नहीं होता!उत्पाद स्वनिमित्तिक और परनिमित्तिक दो प्रकार का होता है!जैनागम के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु  नामक अनंतगुण विध्यमान है !उन गुणों में षटगुण  हानि-वृद्धि सैदव होती रहती है जिसके निमित्त से द्रव्यों में स्वभावत: उत्पाद,व्यय होता है!यह स्व नैमित्तिक उत्पाद व्यय है!धर्मादि द्रव्य प्रति समय अश्व आदि अनेक जीवों और अन्य पुद्गल के गमन में , स्थिति में और अवकाश दान में निमित्त होते है,प्रति समय गति,स्थिति आदि में परिवर्तन होता है जिसके निमित्त से धर्मादि द्रव्यों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है यह पर नैमित्तिक उत्पाद व्यय है !
शंका -धर्मादि द्रव्य स्वयं तो चलते नहीं फिर अन्य जीवों और पुद्गलों को चलने में कैसे सहायक हो सकते है !क्योकि जल  गतिमान होता है तभी मछली के गमन में सहायक होता है ?
समाधान-जैसे चक्षु ,रूप देखने में, केवल जब हम देखना चाहते है तभी दिखाते है,किसी अन्य दिशा में हमारा उपयोग हो तब चक्षु, रूप को देखने लिए आग्रह नहीं करते !इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य क्रमश: गमन और स्थिरता में उदासीन निमित्त है 

धर्म ,अधर्म और एक जीव द्रव्य के प्रदेश -
असंख्येया:प्रदेशाधर्माधर्मैकजीवानाम् !!८!!
संधि-विच्छेद-असंख्येया:+प्रदेशा+ धर्म+अधर्म ,एक+जीवानाम्
शब्दार्थ -असंख्येया:-असंख्यात,प्रदेशा-प्रदेश , धर्म-धर्म, अधर्म -अधर्म ,एक  जीवा+नाम् -द्रव्य के है
अर्थ- धर्म,अधर्म और 'एक जीव' द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते है !
 विशेष-
१-प्रदेश-अविभागी पुद्गल के सूक्ष्मत अंश;एक परमाणु,द्वारा घेरे गए आकाश के क्षेत्र को प्रदेश कहते है !स्थान (unit of space) की इकाई प्रदेश है !
२- सब जीवों के अनन्तान्त प्रदेश होते है इसलिए सूत्र में 'एक जीव' ग्रहण किया गया है !
३- प्रत्येक जीवात्मा असंख्यात प्रदेशी होती है अर्थात प्रत्येक जीव आत्मा लोकप्रमाण विशाल होती है!जीवात्मा के प्रदेश असंख्यात ही होते है किन्तु उनमे संकुचित/विस्तारित होने की शक्ति होती है!इसीलिए केवली भगवान के आत्म प्रदेश समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोकप्रमाण प्रदेशों में फ़ैल जाते है!
समुद्घात के समय केवली जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु के नीचे चित्रा पृथ्वी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते है और शेष समस्त प्रदेश ऊपर,नीचे,तिर्यक,समस्त लोक में व्याप्त हो जाते है!इसी संकोच विस्तार गुण के कारण एक जीव(अशुद्धावस्था में)को,नाम कर्म केअनुसार,जैसा छोटा बड़ा शरीर मिलता है उसके अनुसार प्रदेश फ़ैल जाते है!जैसे  निगोदिया/चींटी आदि जैसे सूक्ष्म शरीर को और स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न होने वाले,मत्स्य(मगर) जैसे विशाल शरीर धारण  कर पाती है !
४- एक धर्म और एक अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश के प्रदेशों में व्याप्त है इसलिए दोनों असंख्यात प्रदेशी है !
आकाश के प्रदेश  -
आकाशस्यान्नता: !!९!!
संधिविच्छेद -आकाशस्य+अन्नता:
शब्दार्थ- आकाशस्य-आकाश द्रव्य के,अ न्नता:-अनन्त  प्रदेश है !
अर्थ-आकाश द्रव्य के अनन्त प्रदेश है !
विशेष-लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश है !
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#2

मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी महाराज
तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय | पंचम अध्याय | सूत्र 01 to 09 |
11 Sept.2020


Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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#3

Hello sir, its hard to understand. Can you please explain this in English or Hindi?
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#4

क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन
अजीवकाया धर्माधर्माकाश पुद्गला: ।। 5-1 ।।

अजीवकायों की संज्ञा व अजीवकाय शब्द का वृत्त्यर्थ―धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये 4 अजीवकाय हैं । धर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो जीव और पुद्गल के चलने में निमित्तभूत हो । अधर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो चलते हुए जीव पुद्गल के ठहरने में निमित्त कारण हो । आकाश द्रव्य उसे कहते हैं जो समस्त द्रव्यों का अवगाह देने में कारण हो, और पुद्गल द्रव्य उसे कहते हैं जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाये जायें । तो ये धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये 4 अजीवकाय हैं । अजीवकाय का अर्थ हे, अजीव होते हुए काय है अर्थात अजीव है और अस्तिकाय है । यहाँ यह समानाधिकरण वृत्ति है, कर्मधारय समास है । विशेषण विशेष्य के साथ जहाँ समास होता है वहाँ अन्य की व्यावृत्ति होती है । जैसे अजीव तो 5 हैं मगर वे सभी अस्तिकाय नहीं हैं । और अस्तिकाय भी 5 हैं मगर वे सभी अजीव नहीं है । तो अजीव होते हुए काय हो, ऐसे ये 4 पदार्थ ही है । जीव और काल अजीवकाय नहीं हैं । यद्यपि जीव अस्तिकाय है किंतु अजीव नहीं । कालद्रव्य अजीव है किंतु अस्तिकाय नहीं । अजीव होते हुए जो अस्तिकाय है वह ये 4 द्रव्य ही हैं ।

अजीवकाया: पद में भिन्नाधिकरण वृत्ति समास में भी अनापत्ति का सोदाहरण विवरण―यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि अजीव काय का समास समानाधिकरणरूप में किया है । यदि भिन्नाधिकरण रूप में समास किया जाये तो क्या हानि है? भिन्नधिकरणपने का अर्थ है जिसमें दोनों भिन्न हों । जैसे राजपुरुष, इसमें समास है राजा का पुरुष । तो ऐसे ही अजीवकाय, यहाँ समास कर दीजिए, जीवों की काय । तो इस प्रकार भिन्नाधिकरण करने से क्या हानि है । तो उत्तर यह हो सकता है कि भिन्नाधिकरण करने पर इसमें भिन्नता आ जायेगी । अजीव के काय, ऐसा बोलने पर अजीव कोई अलग चीज है, अस्तिकाय कुछ अलग चीज है, ऐसा अर्थ हो सकता है । जैसे राजपुरुष राजा अलग मनुष्य है और नौकर आदिक अलग मनुष्य हैं, ऐसी भिन्नता का प्रसंग हो जायेगा । शंकाकार कहता है कि भिन्नाधिकरण करने पर भी भिन्नता का प्रसंग नहीं आता । जैसे कोई कहता है कि स्वर्ण की मुदरी (अंगूठी) तो समास तो है भिन्नाधिकरण करने वाला, तत्पुरुष समास, मगर स्वर्ण और अंगूठी ये जुदी-जुदी चीजें नहीं हैं । तो इसी प्रकार यहाँ भी अजीव की काय ऐसा कह देने पर भी भिन्नता न आयेगी । अब इस शंका का समाधान करते हैं कि यहाँ दृष्टांत में भिन्नाधिकरण वाला जो समास है वह अन्य विशेषों की निवृत्ति के लिये है । जैसे स्वर्ण की अंगूठी अर्थात् यह चांदी की अंगूठी नहीं है । न अन्य धातु की है । तो इसी तरह भिन्नाधिकरण समास भी कर दीजिये, और अर्थ यह लगा कि अजीव के काय, तो इस विशेषण से भी यह अर्थ हो गया कि ये चार अजीव के काय हैं, जीव के काय नहीं हैं, और इस तरह अगर तत्पुरुष समास भी करें तो भी कहीं कुछ विरोध नहीं आता । अब यहाँ भेद, अभेद की बात का विचार किया जाता है । ये चार पदार्थ अजीव भी हैं और अस्तिकाय भी हैं । यों अभेद होने पर भी कथंचित इनमें भेद जाना जाता है । यदि सर्वथा अभेद हो तब कुछ व्यवहार भी न बन सकेगा । तो अजीव और अस्तिकाय इनमें संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिक के द्वारा भेद उत्पन्न होता है । जैसे स्वर्ण की अंगूठी ऐसा कहने पर स्वर्ण तो हुआ एक सामान्य और अंगूठी हुआ स्वर्ण का विशेष तो सामान्य और विशेष में संज्ञा लक्षण आदिक की अपेक्षा से कथन्चित भिन्नता है । जो स्वर्ण सामान्य है वह सब अंगूठी कहाँ है, और जो अंगूठी है वह स्वर्ण सामान्य कहाँ है? यद्यपि स्वर्ण से अंगूठी भिन्न नहीं है, स्वर्ण की रची हुई परिणति है फिर भी संज्ञा और लक्षण की अपेक्षा इनमें भेद है । यदि स्वर्ण और अंगूठी में सर्वथा एकत्व हो जाये, पूर्णतया अभेद हो तो जैसे स्वर्ण सामान्य अंगूठी में हुआ तो अब स्वर्ण सामान्य कुंडल आदिक में नहीं पहुंच सकता, क्योंकि यहाँ अभेद कर दिया । जो अंगूठी है सो ही सारा स्वर्ण है । अब आगे स्वर्ण रहा नहीं, अथवा जैसे स्वर्ण सामान्य सभी गहनों में पाया जाता है इसी तरह अंगूठीपना भी सभी गहनों में पाया जाना चाहिये, क्योंकि शंकाकार तो यहाँ स्वर्ण और अंगूठी को सर्वथा एकत्व बता रहा है इस कारण अन्य की निवृत्ति के लिए ही यह प्रयोग बनता है । यह अंगूठी स्वर्ण की है । चांदी आदिक की नहीं, ऐसी निवृत्ति तब ही की जा सकती है जब इसमें कथंचित भेद माना जाता है । यदि सर्वथा एकत्व हो जाए तब तो नाम भी नहीं लिया जा सकता । क्या लिया जाये?

भिन्नाधिकरण वृत्ति में भी अजीवकाय पद की सार्थकता―उक्त दृष्टांत की तरह अजीवकाय में भी अजीव की काय है, ऐसा कहने पर संज्ञा, लक्षण आदिक के द्वारा कथंचित भिन्नता ज्ञात होती है अन्यथा यदि अजीव और काय इन दो शब्दों के वाच्य सर्वथा एक हो जायें तो जैसे धर्मादिक द्रव्यों में एकपना है ऐसे ही प्रदेशों में भी एकपना हो जायेगा, क्योंकि काय नाम प्रदेश प्रचय का है । उस प्रदेश प्रचयपने को और अजीव को सर्वथा एक मान लें तो प्रदेश भी अनेक न रह सकें । जैसे कि आगे बताया जायेगा कि धर्मादिक द्रव्यों में असंख्यात प्रदेश होते हैं । दूसरा दोष यह है कि अजीव और काय इन दोनों में सर्वथा एकत्व मान लिया जाये तो जैसे प्रदेश बहुत हैं ऐसे ही धर्मादिक भी बहुत हो जायेंगे । इस कारण अन्य की निवृत्ति के लिये यह प्रयोग युक्त है कि धर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य, ये अजीव के काय हैं, जीव के काय नहीं हैं । यदि इनमें सर्वथा एकत्व हो जाये तब फिर नाम व्यवहार भी नहीं बन सकता । तो संज्ञा लक्षण आदिक की दृष्टियों से इनमें भेद बनता है इस कारण भिन्नाधिकरण वृत्ति वाला समास भी युक्त है । अब यहाँ शंकाकार कहता है कि अभेद होने पर भी तो लोक में व्यवहार देखा जाता है । जैसे कोई कहता कि यह केतु का शरीर है, यह राहु का सिर है । तो शरीर मात्र ही तो केतु है या सिर मात्र ही राहु है, कुछ भेद नहीं है । जो धड़ है वही केतु है, फिर भी उसमें भेद व्यवहार देखा गया या नाम भेद देखा । गया कि केतु का शरीर राहु का सिर । उत्तर देते हैं कि भाई सर्वथा अभेद वहाँ भी नहीं है, वहाँ पर भी भेद है । वह किस प्रकार? शक्तियों से देखिये―जो अनेक क्रियायों को बनावे ऐसे शक्ति भेद से सर्वथा भिन्न तो केतु है और उसका यह शरीर एक क्रिया विषयक है । ऐसा शब्द कल्पना से या बुद्धि भेद से इनमें भी कथंचित् भेद समझ में आता है । भेद कुछ जाने बिना व्यपदेश व्यवहार नहीं बन सकता, तो यहाँ पर भी अन्य की निवृत्ति के लिये विशेषण है कि यह शरीर केतु का है, मनुष्यादिक का नहीं । जैसे कहा कि यह सिर राहु का है तो अन्य निवृत्ति यहाँ भी है, किसी दूसरे मनुष्यादिक का नहीं । सो मात्र चित्त भेद समझे बिना व्यवहार नहीं बन सकता, तीर्थ प्रवृत्ति नहीं बन सकती । यदि सर्वथा एकांत मान लिया जाये―अभेद, तो अन्य की निवृत्ति नहीं हो सकती । जैसे कोई प्रयोग करे―स्वर्ण का स्वर्ण, सोने का सोना है, तो इसमें अन्य की निवृत्ति नहीं कही जाती कि अन्य का सोना नहीं है । वह तो एक वचन मात्र की बात है ।

अजीव शब्द का पर्युदास अर्थ―अब अजीव शब्द के अर्थ पर एक शंकाकार कहता है कि अजीव का यह अर्थ किया जाना चाहिये कि अजीव, जीव नहीं और ऐसा अर्थ करने पर अभाव मात्र ही समझा जायेगा । कोई वस्तु न जानने में आयेगी । उत्तर कहते हैं कि भेद मात्र अर्थ न लेना, जीव नहीं, इतना ही अर्थ न लेना किंतु जीवन क्रिया से भिन्न क्रिया वाले ये पदार्थ हैं । पुद्गल द्रव्य सद्भूत पदार्थ हैं । सब सामने दिख रहे हैं और ये अजीव कहलाते हैं, और ये दिख रहे हैं तो इनको सिर्फ इतना न समझना कि जीव का अभाव मात्र है यह किंतु रूप, रस, गंध स्पर्श के पिंडभूत ये पदार्थ हैं । जैसे अनश्व याने अश्व नहीं अघड़ा, घड़ा नहीं, ऐसा कहा जाये तो यह अर्थ होगा कि यह अश्व नहीं हैं, किंतु और कोई जानवर है । कहीं अभाव मात्र का बोध नहीं होता । कुछ है ही नहीं, अभाव का जहाँ प्रयोग होता है वहाँ अन्य है, यह ध्वनित होता है, आवांतर में अभाव की प्रत्पत्ति होती है । जैसे गधा और घोड़ा दोनों करीब-करीब एक शकल के होते हैं । खच्चर, गधा तो प्राय: बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं । फर्क उनमें थोड़ा होता है । तो वहाँ खड़ा तो था गधा और किसी ने कहा घोड़ा तो दूसरा समझाता है कि यह घोड़ा नहीं है । अनश्व है, तो उसका अर्थ यह नहीं है कि कुछ है ही नहीं । अर्थ उसका यह है कि घोड़े से अतिरिक्त कोई है । इसी प्रकार यहाँ जीव शब्द कहा है । धर्मादिक पदार्थ अजीव हैं । तो जीव का प्रतिबंध करने से तुच्छाभाव अर्थ न लेना कि कुछ भी नहीं है, जिसका उपयोग लक्षण नहीं किंतु अन्य लक्षण हैं, ऐसे धर्मादिक द्रव्य हैं, यह अजीव का अर्थ है । यहाँ शंकाकार कहता है कि गधे में अनश्व कहा तो कुछ सदृशता थी, उस सदृशता से भ्रम तो था । जब कहा कि यह घोड़ा नहीं । अगर जीव की और धर्मादिक द्रव्यों में कुछ सदृशता ही नहीं है तो वहाँ कैसे अजीव शब्द से उसका बोध हो जायेगा । समाधान यह है कि जीव में और धर्मादिक अजीव पदार्थों में सदृशता है किसी दृष्टि से । जैसे सत्त्व जीव में है, सत्त्व उन धर्मादिक द्रव्यों में भी है । द्रव्यपना जीव में है तो द्रव्यपना उन अजीव पदार्थों में भी है । ऐसी सदृशता पायी जाती है । सो अभाव शब्द कहने से जीव का अभाव याने शून्य अर्थ नहीं है, किंतु जीव न होकर अन्य लक्षण वाले पदार्थ हैं, यह अर्थ है ।

काय शब्द का प्रकाश―यहाँ काय शब्द का अर्थ है―काय की तरह जो हो वह काय । काय मायने शरीर । जैसे―शरीर में अनेक प्रदेश हैं, परमाणु हैं उसकी तरह जो बहुत प्रदेश हों उसे काय कहते हैं । जैसे औदारिक आदिक शरीर नामकर्म के उदय से पुद्गल के द्वारा जो इकट्ठे होते हैं वे काय हैं ऐसे ही धर्मादिक पदार्थों में अनादि पारिणामिक भावत: असंख्यात प्रदेश का प्रचय है इसलिये उन्हें काय कहते हैं । इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहण प्रदेश रूप अवयवों की अनेकता जतलाने के लिये है । याने धर्मादिक द्रव्यों में अनेक प्रदेश हैं । यद्यपि प्रदेश नाम स्थान की इकाई का है याने आकाश का सबसे छोटा अविभागी एक हिस्सा प्रदेश कहलाता है लेकिन वह प्रदेश एक नाप में आया, बुद्धि में तो उस बुद्धि के द्वारा उस आकाश प्रदेश की नाप से उनमें असंख्यात आदिक प्रदेश स्वीकार किये जाते हैं और प्रदेशों की बहुतायत बताने के लिये इस सूत्र में काय शब्द को ग्रहण किया गया है ।

सूत्र में काम शब्द के ग्रहण की अनर्थकता का प्रश्न―यहाँ एक जिज्ञासु प्रश्न करता है कि जब आगे एक सूत्र आयेगा―असंख्येया: प्रदेशा: धर्माधर्मैक जीवानां....? तो उस सूत्र से ही बहुप्रदेशपना सिद्ध हो जाता है, फिर इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहणकरना निरर्थक है । कदाचित कोई यह कहे कि प्रदेश की संख्या का निश्चय हो जाये इसके लिये उस सूत्र की उपयोगिता होगी, सो भी बात नहीं, क्योंकि उस सूत्र से भी पदार्थों का समूह है, इतनी मात्र प्रतीत होती है । कोई यहाँ यह दलील देवें कि इस सूत्र में कहीं तीनों का मिलकर असंख्यात प्रदेश न समझ लेवें इस कारण कि एक-एक में असंख्यात प्रदेश होते हैं । इस प्रसिद्धि के लिये यहाँ काय का ग्रहण किया है । यहाँ काय का ग्रहण करने पर भी निश्चय नहीं बनता है । काय कहा तो उससे भी इतनी ही सिद्धि होगी कि बहुत प्रदेश हैं, फिर किस तरह निश्चय होगा । और सुनो―एक सूत्र आगे आयेगा―लोकाकाशेवगाह: उस सूत्र से निश्चय हो जायेगा, कैसे? जब यह मालूम पड़ गया कि धर्म, अधर्म द्रव्य का लोकाकाश में अवगाह है और वह भी ‘‘धर्माधर्मयो:कृत्सने’’ इस सूत्र से धर्म, अधर्म द्रव्यों के प्रदेशों के परिमाण का निश्चय भी हो जाता है । कोई कहे कि सूत्र में काय ग्रहण न करने से अप्रदेशी एकपने का प्रसंग आ जायेगा, सो भी नहीं आ सकता, क्योंकि आगे के असंख्येया: आदिक सूत्र से बहुप्रदेशपना सूचित हो ही जाता हे । एक बात और भी विशेष यह है कि 5 अस्तिकाय हैं, ऐसा आगम उपदेश प्रसिद्ध हे । इसके लिये काय शब्द का ग्रहण सार्थक हो जायेगा । कोई ऐसा कहे तो भी ठीक नहीं, क्योंकि असंख्येया: सूत्र से ही बहुप्रदेशपना सिद्ध हो जाता है । कोई कहे कि कहीं कोई यह न समझ ले कि बहुप्रदेशीपना का स्वभाव छूट जायेगा इसलिये काय शब्द का ग्रहण किया है, तो यह भी सोचना ठीक नहीं है क्योंकि अभी ही सूत्र आयेगा कि यह नित्य अवस्थित है । इससे ही यह सिद्ध हो जायेगा कि यह अपना स्वभाव कभी छोड़ता नहीं है ।

सूत्र में काय शब्द के ग्रहण की सार्थकता का कथन―अब उक्त पूर्व पक्ष का समाधान करते हैं । तब इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहण किया है और उससे यह सिद्ध हो गया कि इन अस्तिकायों में अथवा पांचों ही अस्तिकायों में बहुप्रदेशपना है, अर्थात् जब बहुप्रदेशपना सिद्ध हो गया तब ही तो असंख्या आदिक सूत्र से उसके प्रदेशों का अवधारण बन सकेगा । इन पदार्थों में असंख्यात ही प्रदेश हैं । न संख्यात है और न अनंत हैं, क्योंकि पहले सामान्यतया विधिपूर्वक अवधारण तो बन जाये कि यह द्रव्य बहुप्रदेशी है, अस्तिकाय है, फिर तो आगे के सूत्र उनकी गणना बतायेंगे । साथ ही फिर यह जानना कि काल द्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है । सो काल द्रव्य के अस्तिकायपना का निषेध करने के लिये इस सूत्र में काय का ग्रहण करना बिल्कुल उपयुक्त है, क्योंकि काल द्रव्य एक प्रदेशी है और इसीलिए द्वितीय आदिक प्रदेश न होने के कारण अप्रदेशी भी कहते हैं । तो सामान्यतया सर्वप्रथम अस्तिकाय के द्रव्यों को कायपना सिद्ध करने के लिये इस सूत्र में काय शब्द का ग्रहण किया गया है । आगे अभी तीसरा सूत्र आयेगा―जीवाश्च, सो वह भी अस्तिकाय है । यह सिद्ध हो ही जायेगा ।

सूत्रोक्त धर्म, अधर्म आदिक शब्दों के वाच्य का निर्णय―अब यहाँ धर्मादिक द्रव्यों के विषय में यह जानना कि वे जो नाम धरे गये हैं सो वे रूढ़ शब्द हैं । आगम में दो शब्दों से उन द्रव्यों का बोध कराया गया है, अथवा यदि व्युत्पत्ति पूर्वक देखें तो इन संज्ञाओं का अर्थ भी ठीक बैठता है । जैसे धर्म का अर्थ है जो धारण करे सो धर्म । क्या धारण करे? स्वयं क्रिया परिणत जीव और पुद्गल को जो साचित्य धारण करे अर्थात् सहायक हो वह धर्म है । तो इसी प्रकार स्थिति में जो साचित्य धारण करे सो धर्म द्रव्य है । आकाश का शब्दार्थ है कि जहाँ पर जीवादिक द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों के साथ प्रकाशमान हो जो खुद भी अपने को प्रकाशित करे वह आकाश है । या यह अर्थ कर लिया जाये कि जो अन्य सब द्रव्यों को अवकाश दान दे वह आकाश है । यहाँ कोई यह जिज्ञासा कर सकता हे कि लोकाकाश में तो अन्य द्रव्यों का अवगाह है नहीं फिर वहाँ आकाश का लक्षण कैसे घटित होगा, तो उसका उत्तर दो तरह से समझें । एक तो शक्ति की दृष्टि से उस आकाश में भी अवकाश दान की योग्यता है, भले ही धर्म द्रव्य के वहाँ न होने से जीव और पुद्गल का गमन नहीं है और काल द्रव्य भी नहीं है, पर आकाश तो आकाश ही है, उनमें जो शक्ति है सो तो वह है ही । दूसरी बात यह समझें कि आकाश द्रव्य अखंड द्रव्य है जब अवगाह हो रहा है लोकाकाश में तो वह आकाश है और अखंड द्रव्य होने से वे सभी हैं । पुद्गल का अर्थ है पूरण गलन को प्राप्त हो वह पुद्गल है । पूरण का अर्थ है मिलकर, गलन का अर्थ है घटकर कम हो जाये उसे पुद्गल कहते हैं । सो जो स्कंध दिखते हैं उनमें यह बात स्पष्ट पायी जाती है कि अनेक परमाणुओं का बंध होकर वह परिणाम में बढ़ जाता है और परमाणुओं का विच्छेद होकर वह घट जाता है । यह पूरण गलन स्वभाव स्कंधों में तो स्पष्ट है, अब शक्ति अपेक्षा परमाणुओं में भी पूरण गलन स्वभाव है । परमाणुओं में भी गुणों का परिणमन होता रहता है, गुण वृद्धि और गुण हानि होती रहती है, सो वहाँ भी पूरण गलन व्यवहार मानने में कोई बाधा नहीं है । अथवा पुद्गल का यह भी अर्थ कर सकते―पु मायने पुरुष अर्थात् जीव उसके द्वारा जो निगले जायें सो पुद्गल हैं । जीव, शरीर, आहार, विषय आदिक के रूप में पुद्गल को निगलते ही हैं, और जब स्कंध दशा में वे निगले गये तो परमाणु भी निगले गये समझिये । तो व्युत्पत्ति अर्थ की अपेक्षा भी ये सब नाम अन्वर्थक हैं ।

धर्मादिक द्रव्यों की स्वतंत्रता व सूत्र में नामक्रम के कारणों का प्रकाश―इस सूत्र में धर्माधर्माकाश पुद्गला: यह बहुवचन का पद है जिसमें सबका स्वातंत्र्य जाना जाता है, अर्थात् ये सभी द्रव्य अपने आपमें स्वयं परिणत होते हैं अथवा धर्माधर्म आदिक द्रव्य जीव पुद्गल की गति आदिक में स्वयं निमित्त होते हैं । जीव का पुद्गल उन द्रव्यों को प्रेरणा नहीं देते । इस सूत्र में चार द्रव्यों के नाम दिये गये हैं । तो पहले-पीछे जैसे नाम दिये गये हैं उनका कारण है । तो सबसे पहले धर्म का नाम दिया है । तो धर्म शब्द की लोक में बहुत बड़ी प्रतिष्ठा है, इस कारण सूत्र में धर्म का पहले नाम दिया, इसके बाद अधर्म का नाम लिया । सो एक तो धर्म का प्रतिपक्षी शब्द हैं इस कारण बाद में नाम दिया, दूसरा दोष यह है कि धर्म द्रव्य के कारण इस लोक में पुरुषाकार आकृति व्यवस्थित रहती है इस कारण अधर्म का उसके बाद नाम दिया है । यदि अधर्म द्रव्य न माना जाता तो जीव और पुद्गल अलोकाकाश में भी पहुँचता, तब लोक का कोई आकार न रहता । इस कारण जो कि लोकालोक के विभाग का कारण अधर्म द्रव्य का रहना है इससे अधर्म द्रव्य को धर्म के बाद कहा है फिर आकाश द्रव्य को कहा, क्योंकि धर्म-अधर्म के द्वारा ही आकाश का विभाग बनता है । यह लोकाकाश है और यह अलोकाकाश है और यह अलोकाकाश है । जहाँ तक धर्म अधर्म द्रव्य है वह लोक है, और इसके बाद अलोक है, और फिर अमूर्त होने से आकाश में धर्म अधर्म के साथ सजातीयपना है, इसके अंत में पुदगल का ग्रहण पारिशेष व्यापक है और फिर आकाश में पुद्गल अवकाश पाते हैं जो कि स्पष्ट है इसलिए आकाश के पास पुद्गल का नाम रखा ।

आधार होने के कारण आकाश शब्द को सूत्र में नामों में सर्वप्रथम कहने की आरेका का समाधान―यहाँ शंकाकार कहता है कि सूत्र में नामों में सर्वप्रथम आकाश का ग्रहणकरना चाहिये, क्योंकि धर्म-अधर्म और पुद्गल ये सभी आकाश में ही तो रहते हैं, सबका आधार आकाश है । अत: आकाश का ही प्रथम ग्रहण उचित था । इसका समाधान करते हैं कि निश्चय से देखा जाये तो किसी भी द्रव्य का आधार कोई दूसरा द्रव्य नहीं होता । समस्त लोक के अतिरिक्त समस्त द्रव्यों की रचना अनादि से है । प्रत्येक पदार्थ अपने आप सत् है । इसमें आधार आधेय भाव या कुछ पहले, कुछ बाद यह रंच भी नहीं है, क्योंकि जब किसी द्रव्य की आदि नहीं तो यह कैसे कहा जा सकेगा कि यह आधार है यह आधेय है? जिनकी आदि होती है उनका ही आधार आधेय पहले ये बातें उसमें सिद्ध होती हैं । जैसे बर्तन और दूध । तो दूध की आदि है, अब निकलता है तो कहेंगे कि वर्तन तो आधार है और दूध आधेय है । बर्तन पहले है, दूध बाद में है । तो वहाँ तो यह बात संभव होती है मगर जहाँ सभी पदार्थ अनादि से हैं वहाँ कैसे बताया जा सकता कि यह तो आधार है और यह आधेय है? भले ही आगम में लिखा है कि धनोदधि वातवलय तनुवातवलय के आधार हैं, तनुवातवलय आकाश के आधार है, और आकाश अपने आपके आधार है । ऐसा इसी मोक्ष शास्त्र के तृतीय अध्याय में सर्वप्रथम सूत्र में कहा गया है । सो इसका भी विरोध नहीं है, और प्रत्येक द्रव्य अपने आपके आधार है इसका भी विरोध नहीं, उसका कारण यह है कि आधार आधेय भाव का सर्वथा निषेध नहीं है और सर्वथा विधान नहीं है, किंतु जब द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता से देखते हैं तो वहाँ सभी द्रव्य अपने-अपने आधार विदित होते हैं । सो द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में आधार आधेय भाव नहीं है, फिर भी पर्यायार्थिकनय की प्रधानता में आधार आधेय भाव है । इस प्रकार व्यवहारनय से आकाश को आधार कहते, अन्य द्रव्य को आधेय कहते ।

वस्तुत: प्रत्येक द्रव्य का स्वयं स्वयं में ही आधाराधेय भाव―द्रव्यार्थिकनय की प्रधानता किस तरह है? छहों द्रव्यों में पर्याय दृष्टि से आदि विदित होता है क्योंकि पर्यायें नई-नई अपने समय में उत्पन्न होती रहती हैं । तो पर्याय की दृष्टि में तो जब आदि हो गई और आकाश को देखा कि यह तो है ही पहले से तो अब यहाँ आधार आधेय की कल्पना हो गई । तब एवं भूतनय से देखा तो यह लोकरचना अनादि से पारिणामिक है, स्वयं है, किसी के द्वारा की गई नहीं है, वहाँ आधार आधेय भाव नहीं है, व्यवहार में तनु वातवलय का आधार आकाश को माना है और आकाश को स्वप्रतिष्ठित माना है । वहाँ यह शंका नहीं की जाना चाहिये कि फिर तो आकाश का आधार भी अन्य बताया जाना चाहिये । फिर उस आकाश का जो आधार हो उसका भी आधार कोई अन्य आकाश होना चाहिये । और इस तरह आधार आधेय भाव के निरखने में सर्वथा दोष हो जायेगा । सो यह शंका यों ठीक नहीं कि आकाश तो सर्वव्यापी है और अनंत है, उसमें अन्य आधार की कल्पना नहीं बनती । जो सर्वगत न हो, जो अत्यंत सत् हो, जो मूर्तिमान हो, जिसमें अवयव हो, ऐसे पदार्थ में ही अन्य आधार की कल्पना हो सकती है । तो द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखा जाए तो सभी द्रव्य अपने-अपने आधार में है । अनादि से ही आकाश है, अनादि से ही सब द्रव्य हैं, और सब द्रव्यों के समूह का नाम लोक है इसलिए वहाँ आधार आधेय की कल्पना नहीं बनती, पर पर्याय दृष्टि में व्यवहार में आधार आधेय भाव है । तो व्यवहार से भी आकाश अन्य आकाश के आधार हो, यह बात नहीं है, क्योंकि आकाश सर्वव्यापी है, इस कारण से उसका आधार नहीं कहा जा सकता ।

जीवद्रव्य व कालद्रव्य की वक्ष्यमाणता का संकेत―इस सूत्र में काल द्रव्य का नाम नहीं लिया गया । काल अजीव पदार्थ है और अजीव का इसमें वर्णन चल रहा, पर काल का नाम यहाँ इस कारण नहीं दिया कि वह अस्तिकाय नहीं है । छह द्रव्य बताये गये हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल । इस सूत्र में जीव का भी नाम नहीं है क्योंकि अजीवकाय के ही नाम इस सूत्र में लिये गये हैं । जीव तो अजीव नहीं है और काल का भी नाम नहीं है, क्योंकि काल अस्तिकाय नहीं है । इसका लक्षण आगे बताया जायेगा और वहाँ ही यह भी दिखाया जायेगा कि काल द्रव्य एक प्रदेशी है, इस कारण अस्तिकाय नहीं है । इस तरह इस प्रथम सूत्र में अजीव होते हुए जो अस्तिकाय हैं उनका वर्णन किया । इस अध्याय में वर्णन तो किया जाना है सभी द्रव्यों का, पर सूत्र विधि के अनुसार इस तरह वर्णन चल रहा है कि सूत्र में शब्द अधिक न बोले जायें और कम शब्दों से सूत्र बनकर सबका अर्थ आ जावे, उस नीति के अनुसार यहाँ अजीव कायों का वर्णन किया है । अब जो जीव और काल शेष रह गये उनका वर्णन समय पाकर होगा । अब इस समय यह एक जिज्ञासा होती है कि पहले अध्याय में एक सूत्र आया था―‘‘सर्व द्रव्य पर्यायेषु केवलस्य ।’’ अर्थात केवल ज्ञान का विषय समस्त द्रव्य और समस्त पर्याय है । तो उसमें द्रव्य शब्द बताया गया तो वह द्रव्य चीज क्या कहलाती है? इस जिज्ञासा के समाधान में सूत्र कहते हैं―

Manish Jain Luhadia 
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द्रव्याणि ।। 5-2 ।।

द्रव्य का स्वरूप―प्रथम सूत्र में जो 4 पदार्थ बताये गये वे सब द्रव्य हैं । द्रव्य तो जीव और काल भी हैं मगर सूत्र नीति के अनुसार इन 4 को द्रव्य कह दिया और जीव को इसके आगे बतायेंगे कि द्रव्य है और काल का भी वर्णन यथा समय किया जायेगा । यहाँ इस सूत्र में धर्म, अधर्म आकाश और पुद्गल ये द्रव्य हैं जिनका वर्णन ऊपर के सूत्र में किया गया है वे सब द्रव्य है । द्रव्य कहते किसे हैं ? अपने और पर पदार्थों के निमित्त से जो उत्पाद व्यय की पर्यायों से चलता रहे उसको द्रव्य कहते हैं । जो शाश्वत है, सदा काल रहने वाला है और अनेक पर्यायों में से चलता रहता है उस एक शाश्वत पदार्थ को द्रव्य कहते हैं । ऐसे द्रव्य अनंत हैं इस कारण यहाँ बहुवचन शब्द दिया है । धर्म द्रव्य एक है, अधर्म द्रव्य एक है, यह आकाश एक है और पुद्गल द्रव्य अनंतानंत हैं । और शेष के जीव द्रव्य भी अनंतानंत हैं । कालद्रव्य असंख्यात हैं और इस लक्षण में कि जो स्व पर निमित्तक उत्पाद व्यय की पर्यायों से चलता रहे उसे द्रव्य कहते हैं ।

पर्यायोत्पाद की स्वपर प्रत्ययकता―यहाँ एक यह सिद्धांत आया कि उत्पाद व्यय स्वपरप्रत्ययक होता है । स्व प्रत्ययक के मायने स्वयं की शक्तियों से होता है, पर प्रत्ययक के मायने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार होता है । तो पर प्रत्यय तो कहलाया द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप बाह्य प्रत्यय और स्व प्रत्यय कहलाया अपने आपका सामर्थ्य । कभी बाह्य पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भी मिले और पदार्थ में स्वयं में वह पर्याय योग्यता नहीं, तो उस रूप परिणमन नहीं होता । पदार्थ में पर्याय योग्यता है किंतु परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि न मिलें तो परिणमन तदनुरूप नहीं होता । दोनों ही का जब योग होता है तो पर्यायों का तदनुरूप उत्पाद व्यय होता है । एक के अभाव में उस प्रकार का कार्य नहीं होता जैसे उड़द कोठी में रखे हैं । उनको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का योग नहीं है पकने का तो वह नहीं पकता है । भोजन बनता नहीं है । और जो कुरडू उड़द है वह 24 घन्टे भी पानी में पकाने को रखा जाये तो भी पकता नहीं है । पकने के योग्य उर्दों में योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न रहा और अग्नि पानी आदिक का संयोग मिलने पर भी कुरडू उड़द को पकाने में समर्थ नहीं है इसी प्रकार स्व और पर के हेतु से होने वाले उत्पाद व्ययों रूप अपनी-अपनी पर्यायों से जो जाते हैं, पर्यायों को प्राप्त होते चलते हैं उन्हें द्रव्य कहते हैं ।

पर्याय की द्रव्य से अपृथक्ता―यहाँ द्रव्य और पर्याय भिन्न-भिन्न नहीं हैं फिर भी भेद विवक्षा करके कर्ता और कर्म का निर्देश किया गया है अर्थात पदार्थ अपनी पर्यायों को उत्पन्न करते हैं । यहाँ द्रु धातु से द्रव्य शब्द बना है । य प्रत्यय लगा है, जिसका अर्थ है द्रवति गच्छति इति द्रव्यं । अर्थात उत्पाद विनाश आदिक अनेक पर्यायों के होते रहने पर भी जो संतति से, द्रव्यदृष्टि से गमन करता जाये मायने तीनों काल में रहे उसे द्रव्य कहते हैं । अथवा द्रव्य का भव्य अर्थ में भी भाव समझना चाहिये । अर्थात जो पर्यायों रूप हो सके उसे द्रव्य कहते हैं । होता ही है पर्यायोंरूप । जैसे कोई सीधी लकड़ी बढ़ई के प्रयोग से टेबल, कुर्सी आदिक अनेक आकारों को प्राप्त होती है उसी प्रकार द्रव्य भी स्व और पर प्रत्ययों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है । द्रु नाम लकड़ी का भी है । उसकी तरह जो अनेक पर्यायोंरूप होता रहे उसको द्रव्य कहते हैं।

द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य होने के सिद्धांत की मीमांसा―यहाँ शंकाकार कहता है कि द्रव्य शब्द का जो अर्थ बताया और यह सिद्ध किया कि कोई एक पदार्थ हैं और वह अनेक पर्यायों को प्राप्त होता रहता है, सो यह ठीक जंचता नहीं है कि उसमें पर्यायें होती हैं, और इस कारण से उसका नाम द्रव्य रखा गया है । किंतु यह मानना चाहिये कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है । जैसे डंडे के संबंध से कोई पुरुष डंडी कहलाता है । छतरी के संबंध से कोई पुरुष छतरी वाला कहलाता है । ऐसे ही द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है । द्रव्यत्व सामान्यरूप भी है । पृथ्वी आदि पदार्थों में द्रव्य, द्रव्य ऐसा ज्ञान और शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है । इसमें वे पृथ्वी आदिक भी द्रव्य विशेष हैं और चूंकि पृथ्वी आदिक सभी में द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है तो द्रव्य सामान्य भी है और वह द्रव्य, गुण और कर्म से जुदा है । द्रव्यत्व के योग से द्रव्य कहलाता है, न कि पर्याय को पाने से द्रव्य कहलाता है यहाँ शंकाकार का यह अभिप्राय है कि द्रव्य जैसे स्वतंत्र पदार्थ है ऐसे ही गुण और कर्म भी स्वतंत्र पदार्थ हैं । गुण और पर्यायों को पाने से द्रव्य कहलाये सो बात नहीं, किंतु द्रव्यत्व के संबंध द्रव्य से कहलाता है, तो उसमें पर्याय की कोई बात नहीं आती । अब इस शंका के समाधान में कहते हैं कि उक्त शंका ठीक नहीं है, उसका कारण यह है कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है यह बात सिद्ध नहीं हो सकती । हाँ यह तो सिद्ध हो लेगा कि दंड के संबंध से पुरुष दंडी कहलाता है । दंडी में संबंध तो सिद्ध इस कारण होता है कि डंडे का जब तक संबंध न हुआ था तब तक भी वह देवदत्त था और डंडा जुदा था । दंडा अपने स्वरूप से है, देवदत्त अपने स्वरूप से है और अपने-अपने स्वरूप से स्वतंत्र-स्वतंत्र पदार्थ हैं । इनका संयोग हो गया तो देवदत्त दंडी कहलाने लगा, पर इस तरह द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य पाया नहीं जाता ।

द्रव्य और द्रव्यत्व को भिन्न मानने और फिर संबंध बनाकर व्यवहार बनाने की अटपट कल्पनाओं का चित्रण―शंकाकार ही बताये कि द्रव्यत्व का संबंध जब द्रव्य में हुआ तो उससे पहले द्रव्य पाया गया या नहीं? यदि यह कहो कि द्रव्यत्व के संबंध से पहले भी द्रव्य है तब द्रव्यत्व का संबंध हुआ तो संबंध से पहले भी जब द्रव्य है तो अब संबंध की जरूरत ही क्या रही? संबंध की कल्पना अनर्थक है । तो द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य नहीं है और द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्यत्व भी नहीं है क्योंकि द्रव्य के संबंध बिना द्रव्यत्व नाम कैसे बोलेंगे? वह चीज क्या है? तो जो यहाँ माने कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य कहलाता है तो उसके यहाँ न द्रव्य सत् रहेगा और न द्रव्यत्व सत् रहेगा, तो इस प्रकार असत् का संबंध हो ही नहीं सकता है, और कथंचित मान लो कि द्रव्य और द्रव्यत्व ये संबंध से पहले भी सत् हैं तो जब ये अलग-अलग पड़े हुये हैं तब द्रव्य में द्रव्यत्व की शक्ति नहीं है । द्रव्यत्व में द्रव्यत्व की शक्ति नहीं है । संबंध से पहले कदाचित सत् भी मान ले तो वे दोनों शक्तिहीन ही रहे । तो जब यह स्वयं शक्तिहीन है तो इसका संबंध होने पर भी उत्पादन शक्ति नहीं हो सकती है । जैसे कि जन्म के अंधे दो पुरुष हैं तो वे अलग-अलग कुछ देख नहीं सकते और उनको इकट्ठे भी बैठाल दिया जाये तो भी वे देख न सकेंगे, क्योंकि उनमें देखने की शक्ति है ही नहीं, तो मिलकर भी शक्ति कहां से आयेगी? ऐसे ही द्रव्य और द्रव्यत्व में जब शक्ति नहीं है तो दोनों का संबंध होने पर भी वह व्यवहार न बन सकेगा । वह उत्पाद न बन सकेगा, याने द्रव्यत्व बना पड़ा हुआ द्रव्य द्रव्यपने का काम कैसे कर सकेगा? द्रव्य के बिना पड़ा हुआ द्रव्यत्व अपने द्रव्यपना का क्या व्यवहार बना सकेगा? यदि द्रव्यत्व के संबंध के पहले भी द्रव्य अपने में द्रव्य का व्यवहार करा सके तो संबंध की आवश्यकता ही क्या रही और द्रव्यत्व की कल्पना ही निरर्थक रही ।

द्रव्यत्व के संबंध से पहले असत् रहे द्रव्य व द्रव्यत्व में संबंध मानने का अज्ञानमय दुराग्रह―द्रव्यत्व के संबंध से पहले यदि द्रव्य सत् स्वरूप भी होता तो द्रव्यत्व का संबंध मानना उचित होता । किंतु द्रव्य स्वत: सत् भी तो नहीं है, क्योंकि इन शंकाकारों ने द्रव्य को सत् सत्ता के समवाय से माना है । अब द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य सत् है ही नही, असत् रहा तो उस असत् में सत्ता का समवाय भी कैसे पहुँच जायेगा? अगर असत् में सत्ता का समवाय होने लगे तो जो असत् कल्पित है खरविषाण आकाश पुष्प इनमें भी सत्ता का समवाय संबंध हो जाना चाहिये । तो लो कितनी विडंबना है । सत् अलग है, द्रव्य अलग है, द्रव्यत्व अलग है । उनके संबंध से फिर पदार्थ का व्यवहार है । कितने आश्चर्य की बात है । सीधा जैसा वस्तुस्वरूप है वैसा न मानकर उनके खंड करना, विभाग बनाना यह कहां का न्याय है ।

भिन्न माने गये द्रव्यत्व का गुण कर्म सामान्य आदि सबमें संबंध होने का प्रसंग―और भी देखिये― द्रव्यत्व सामान्य सर्वगत है, ऐसा शंकाकार ने माना है । अत: यदि अतदात्मक द्रव्य में वह द्रव्यत्व समवाय संबंध से रहता है तो गुण और सामान्य आदिक में भी द्रव्यत्व को समवाय संबंध से रह जाना चाहिये, याने द्रव्य अलग है, द्रव्यत्व अलग है, तो इसके मायने यह ही तो हुआ कि द्रव्य द्रव्यमय नहीं है । तो जो द्रव्यत्वमय नहीं है ऐसा द्रव्य में द्रव्यत का तो समवाय संबंध बन जायेगा और द्रव्यत्वमय गुण भी नहीं है । कर्म भी नहीं है, उनमें द्रव्यत्व का संबंध न बने, इसका कारण तो बताये कोई । याने द्रव्यत्व का संबंध द्रव्य में ही क्यों होता है? द्रव्य का संबंध गुण आदिक में क्यों नही हो जाता, जब कि द्रव्यत्वमय नहीं, गुण भी द्रव्यत्वमय नहीं है । तो द्रव्यत्व का संबंध जुटाने के लिये द्रव्य और गुण एक ही समान हो गए । यदि शंकाकार यह कहे कि द्रव्य तदात्मक है याने वह द्रव्यत्वमय है इस कारण द्रव्य में ही द्रव्यत्व का समवाय होता है तो उत्तर यह है कि जब द्रव्यत्व के संबंध से पहले द्रव्य तादात्मक रहा, द्रव्यत्वमय रहा तो अब द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना करना बिल्कुल निरर्थक है ।

भिन्न द्रव्यत्व का समवायी कारण द्रव्य को मानने की असिद्धि―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्यसमवायी कारण है इस कारण द्रव्यत्व का समवाय द्रव्य में ही होता है, गुण में नहीं, खरविषाण आदिक असत् में नहीं । उत्तर यह है कि द्रव्यत्व के संबंध से पहले जब द्रव्य का कोई स्वरूप ही न बना तो फिर द्रव्य का समवायी कारण कैसे कहा जा सकता? यदि स्वरूप रहित द्रव्य समवायी कारण माना जाये तो खरविषाण आकाश पुष्प आदिक को भी समवायी कारण क्यों नही माना जाता? क्योंकि जब स्वरूप नहीं है तो उसका कुछ तथ्य भी नही है, कदाचित यह शंकाकार कहे कि खरविषाण आदिक तो असत् हैं, गधे का सींग कुछ है ही नहीं, तो असत् होने से वह समवायी कारण नहीं हो सकता । तो अर्थ इसका यह है कि असत् तो शंकाकार का द्रव्य भी है क्योंकि उनके सिद्धांत में द्रव्य स्वयं असत् नहीं, किंतु सत्ता के समवाय से असत् है । जैसे यहाँ द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य बता रहे हो ऐसे ही सत्ता के समवाय से उसको सत् बताया था । तो जब सत्ता का समवाय नहीं है उस स्थिति में द्रव्य असत् ही तो रहा, सो यही समस्या यहाँ रहती कि द्रव्य असत् है तो वह द्रव्य का समवायी कारण कैसे हो सकता? सारांश यह है कि कुछ भी कारण सोचें जिस कारण से द्रव्यत्व का द्रव्य ही समवायी कारण माना जाये, गुण कर्म आदिक न माने जायें तो जिस कारण से द्रव्य का समवायी कारण माना उस ही कारण से यह क्यों नहीं मान लेते कि द्रव्य का निज स्वरूप ही आत्मा है याने द्रव्यत्वमय द्रव्य है । द्रव्य के धर्म को द्रव्यत्व कहते हैं और उस ही द्रव्य स्वरूप से द्रव्यों का व्यवहार होता है । क्यों इतनी टेढ़ी लाइन चलते जा रहे हैं कि द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य होता है और फिर एक झूठ को ठीक करने के लिये साथ में 50 झूठ बोले जायें? तो सीधा ही मान लेना चाहिये कि द्रव्य का यह स्वरूप अनादि है । पारिणामिक है, द्रव्य से बाहर कोई द्रव्यत्व नाम का तत्त्व नहीं है कि जिसके संबंध से इसको द्रव्य कहा जाये ।

द्रव्य को द्रव्यत्व का आधार बताकर द्रव्य को समवायी कारण मानने की कल्पना की निरर्थकता―शंकाकार कहता है कि द्रव्य एक ऐसी विशेषता है कि जिसके कारण द्रव्य ही द्रव्यत्व का समवायी कारण होता है । गुण कर्म आदिक समवायी कारण नहीं होते और इसी वजह से द्रव्यत्व समवाय संबंध से द्रव्य में ही रहता है, अन्य में नहीं रहता, और वह विशेषता है आधार । द्रव्यत्व का आधार द्रव्य है इस कारण द्रव्यत्व का समवायी कारण द्रव्य रहा । इसका समाधान यह है कि द्रव्य में द्रव्य का आधार यह शंकाकार सिद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि द्रव्य स्वतः सिद्ध ही नहीं । जो स्वत: सिद्ध हो वही तो किन्हीं आधेयों का आश्रय हो सकता है । जैसे जल आदिक का आश्रय घट है तो घट कोई चीज है तो वहाँ जल आधेय हो गया, ऐसे ही द्रव्यत्व कोई वस्तु नहीं है तो द्रव्यत्व का आधार कैसे बन जायेगा? तो द्रव्यत्व बिना द्रव्य क्या चीज रही? और अगर द्रव्यत्वमय है तो फिर द्रव्यत्व के संबंध की कल्पना ही क्यों करते? तो जैसे आधार कह रहे शंकाकार उसका सिद्धि ही नहीं कर सकते, फिर द्रव्यत्व का आधार कैसे बनेगा?

भिन्न-भिन्न द्रव्य व द्रव्यत्व की कल्पना करने वालों के ‘‘द्रव्य’’ शब्द बोलने का भी अशक्यपना―अब दूसरी बात सुनो कि यह शंकाकार ‘द्रव्य’ इतना शब्द भी नहीं बोल सकता, क्योंकि द्रव्यत्व अलग है, द्रव्य अलग है तो द्रव्यत्व के बिना अन्य कुछ भी द्रव्य कैसे कहा जा सकता है? तो जो लोग द्रव्यत्व के संबंध से द्रव्य मानते हैं उनको तो द्रव्य शब्द बोलना भी न चाहिये, बोला ही न जा सकेगा । कैसे? सो सुनो―उसको द्रव्य कैसे कहते हैं? द्रव्यत्व का अभेद है इस कारण द्रव्य कहते हो या द्रव्यत्व तो द्रव्य से भेद रूप से रहता है । इन दो पक्षों में से क्या स्वीकार करते हो? यदि कहो कि द्रव्यत्व का द्रव्य में अभेद है और उससे द्रव्य नाम पड़ गया है तो सुनो―यदि किसी अन्य के संबंध से, द्रव्यत्व के संबंध से वहाँ द्रव्य नाम बोलते हो तो संबंध होने से द्रव्यत्व नाम कहो, द्रव्य नाम क्यों कहते? जैसे लाठी से सहित पुरुष लाठी वाला कहा जाता है ऐसे ही द्रव्यत्व से सहचरित कुछ भी ‘द्रव्यत्व’ इस नाम से कहा जाना चाहिये । द्रव्य इस शब्द से न कहा जाना चाहिए । इस संबंध में शंकाकार यदि ऐसा कहे कि द्रव्यत्व शब्द का वाच्य जैसे द्रव्यत्व है ऐसे ही द्रव्यत्व का वाच्य द्रव्य भी है । तब द्रव्यत्व के संबंध से उसे द्रव्य का भी व्यवहार हो सकता है । ऐसा कहना शंकाकार का यों युक्त नहीं है कि यदि द्रव्यत्व की द्रव्य संज्ञा स्वत: मान ली गई तो द्रव्य को स्वत: मानने में क्यों असंतोष होता है याने यह संज्ञा स्वत: मान लेना चाहिये । यदि किसी अन्य पदार्थ के संबंध से ‘द्रव्य’ यह नाम माना जाये तो फिर वह ही दोष आयेगा, जैसे कि अब तक देते आये हैं । वह अभेद है या भेद है, दोनों की सिद्धि नहीं हो सकती है । फिर एक बात और भी सोचो कि द्रव्यत्व का वाच्य द्रव्य नाम माना शंकाकार ने और द्रव्यत्व भी माना, तो जैसे द्रव्य इस संज्ञा की हठ कर रहे हैं ऐसे ही उसे द्रव्यत्व भी क्यों नहीं बोल डालते ।

द्रव्य व द्रव्यत्व का व्यपदेश भेद मूलक मानने की आशंका का समाधान―अब यदि शंकाकार भेद सूत्रक व्यपदेश माने अर्थात् जैसे लाठी वाला ऐसा कहने में लाठी अलग मालूम होती है और लाठी वाला पुरुष अलग मालूम होता है । इस शब्द से दो का ज्ञान होता है कि ये जुदे हैं पुरुष और लाठी, फिर संबंध से लाठी वाला कहा । तो ऐसा भेद मूलक अगर द्रव्य संज्ञा मानते हो तो उसे द्रव्य न कहना चाहिये किंतु द्रव्यत्व वाला । जैसे लाठी के संबंध से लाठी वाला कहा जाना चाहिये । ‘द्रव्य’ यह न कहा जाना चाहिये, यदि शंकाकार यह समाधान देने का प्रयत्न करे कि जैसे शुक्ल गुण के संबंध से कपड़ा भी शुक्ल कहा जाता, शुक्लवान कोई नहीं कहता, यह कपड़ा शुक्ल है । ऐसा कोई नहीं कहता कि यह कपड़ा शुक्ल वाला है । तो जैसे शुक्ल गुण के योग से कपड़े को भी शुक्ल कहा जाता वहाँ वाला साथ में कोई नहीं लगाता और है वहाँ भेद । कपड़ा अलग नहीं है, शुक्ल गुण अलग नहीं है, कपड़ा ही शुक्ल है तो उस अभेद में भी वाला शब्द का प्रयोग हुआ । संस्कृत में कहते हैं इसे मतुप् प्रत्यय, जैसे बुद्धिमान हिंदी में कहेंगे बुद्धि वाला । तो शंकाकार यह कह रहे हैं कि जैसे शुक्ल पट में शुक्ल गुण के संबंध से शुक्ल कहा जाता है, वहाँ वाला शब्द का प्रयोग नहीं होता ऐसे ही द्रव्यत्व गुण के संबंध में यह द्रव्य कहा जायेगा, द्रव्यत्व वाला ऐसा वाला शब्द का प्रयोग न होगा । उत्तर यह है कि शंकाकार का यह समाधान करना निष्फल चेष्टा है, क्योंकि व्याकरण में गुणवाची शब्द से तो मतुप् प्रत्यय का लोप माना है सो शुक्ल पट में मतुप् प्रत्यय बोले बिना ही तो काम चल गया पर यह भी तो समझें कि शुक्ल द्रव्यवाची भी है और गुणवाची भी है । तो द्रव्यवाची होने मे वहाँ मतुप् की जरूरत नहीं है, किंतु यह द्रव्यत्व शब्द गुणवाची नहीं है इसलिये द्रव्यत्व का संबंध लगाकर मतुप् प्रत्यय बोलना ही पड़ेगा, फिर बोला―द्रव्यत्व वाला । और ऐसा भी नहीं है कि द्रव्यत्व में से तो हो जाये जो संबंध के कारण इसलिए झट यह व्यपदेश हो नहीं सकता ।

भेदैकांतवाद में ‘‘द्रव्यत्व’’ शब्द बनने ही असंभवता―एक बात यह भी सोचना चाहिये कि द्रव्यत्व शब्द बना कैसे लिया गया है । द्रव्य शब्द से भाव अर्थक त्व प्रत्यय लग ही नहीं सकता, क्योंकि वे यह बतायें कि द्रव्यत्व का भाव द्रव्यत्व है सो वह भाव द्रव्य से क्या अभिन्न है या भिन्न है? यदि भाव द्रव्यों से अभिन्न है तो मायने वह भाव द्रव्य का ही आत्म स्वरूप हुआ । सो अनादि पारिणामिक द्रव्य रूप ही कहलाता है । तो द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न रहा नहीं, फिर द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना ही खत्म हो जाती । यदि शंकाकार कहे कि द्रव्य का भाव द्रव्य से भिन्न है तो वह द्रव्य का कैसे कहा जा सकता? द्रव्य से भिन्न अनेक पदार्थ पड़े हैं, लेकिन वे एक द्रव्य के तो न कहलायेंगे । जो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं उन्हें यह नहीं कहा जा सकता कि यह इसकी चीज है, और भी समझिये । जिस प्रकार द्रव्य का भाव द्रव्यत्व माना जाता है तो द्रव्यत्व का भी भाव होना चाहिये । यदि उसमें एक त्व और लगा दिया जाये ‘द्रव्यत्वत्व’ फिर उसका भी भाव तो यों त्व लगाते जाइये, उसका कहीं विराम ही न हो पायेगा, अनवस्था दोष आता है । यदि कोई कहे कि द्रव्यत्व का कोई भाव नहीं होता इस कारण एक तब लगाने की जरूरत नहीं । तो जिसका कोई भाव नहीं है वह तो स्वभाव शून्य कहलायेगा । द्रव्यत्व का भाव नहीं तो द्रव्यत्व भी कुछ न रहा । स्वभाव शून्य होने से द्रव्यत्व का अभाव हो जायेगा ।

नित्य एक निरवयव द्रव्यत्व का पृथिवी जल आदिक सब पदार्थों में संबंध की असिद्धि―अब शंकाकार यह बतलाये कि जिस द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य कहा जा रहा है वह द्रव्यत्व शंकाकार ने माना नित्य एक निरवयव, तो वह द्रव्यत्व अनेक पृथ्वी आदिक में कैसे रह सकता है? द्रव्यत्व एक है और वह पृथ्वी में भी है, जल में भी है । तो पृथ्वी पड़ी किसी जगह, जल है दूर पत्थर में है, आदमी में है । तो ये भिन्न-भिन्न पदार्थों में एक द्रव्यत्व कैसे रह सकता । द्रव्यत्व कहीं टूट तो न जायेगा कि बीच में द्रव्यत्व न रहा । तो द्रव्य एक नित्य पृथ्वी आदिक में संभव नहीं । पृथ्वी आदिक में माना ही है कि द्रव्यत्व तो एक है पर वह कहलाता है समस्त पदार्थों में तब तो वह रूप आदिक की तरह द्रव्यत्व भी अनेक बन जायेगा । जैसे पृथ्वी में जो रूप है वह पृथ्वी का है, जल में जो रूप है वह जल का है, ऐसे ही पृथ्वी में द्रव्यत्व पृथ्वी का है, पत्थर आदिक में द्रव्यत्व पत्थर आदिक का है, काठ में द्रव्यत्व काठ आदिक का है । तो यों द्रव्यत्व अनेक तरह का हो जायेगा ।

अमहत्द्रव्यत्वं को सर्वव्यापक सिद्ध करने के लिये आकाश का दृष्टांत देने की असंगतता―यदि शंकाकार ऐसा कहे कि जैसे आकाश अनेक द्रव्यों को व्याप करके रहता है ऐसे ही द्रव्यत्व अनेक द्रव्यों को व्याप करके रहता है । आकाश भी तो नित्य एक निरवयव है और वह सब पदार्थों में व्यापकर रहता है, ऐसे ही द्रव्यत्व भी सब द्रव्यों में व्यापकर रह लेगा सो यह बात यों नहीं बनती कि आकाश तो महापरिमाण वाला है । उसका तो एक साथ अनेक द्रव्यों को व्याप्त करना बन जायेगा, परंतु द्रव्यत्व सामान्य में यह बात नहीं । एक व महापरिमाण वाला आकाश तो सबको व्यापता है किंतु गुण तो द्रव्य में रहते हैं तो अमहत् द्रव्यत्व सबको कैसे व्याप सकता है । यदि शंकाकार यह कहे कि एकत्व संख्या के गुण की तरह उपचार से द्रव्यत्व महापरिमाण वाला बन जायेगा सो यह बात यों ठीक नहीं कि यह तो सब असिद्ध के द्वारा ही सिद्ध करने का प्रयास चल रहा है क्योंकि उपचरित पदार्थ मुख्य कार्य नहीं कर सकता । आकाश तो अनंत प्रदेश वाला है सो प्रदेश भेद होने से आकाश का सर्वत्र वर्तन बनता है । सब द्रव्य उसमें व्याप जाते हैं, किंतु द्रव्यत्व में तो यह बात नहीं है । अनेक कपड़ों में जैसे रंग भिदाया गया, मानो नीले रंग से कपड़ा रंगा गया तो वहाँ वह पीला द्रव्य एक नहीं है । कपड़े का जितना विस्तार है उसका एक-एक अंश में अलग-अलग रंग पड़ा हुआ है, ऐसे ही द्रव्यत्व का संबंध बनाया जाये तो द्रव्यत्व सबमें अलग-अलग ही कहलायेगा । वह एक नित्य निरवयव नहीं हो सकता ।

भिन्न द्रव्यत्व की सिद्धि के लिये असंगत वचन बोलने की व्यर्थ माथापच्ची―अब यहाँ शंकाकार एक तर्क उपस्थित करता है कि जैसे अग्नि की उष्णता सिद्ध करने के लिये कोई दृष्टांत नहीं मिल रहा, फिर भी यह खूब समझ में है कि अग्नि स्वभाव से उष्ण है, तो दृष्टांत न मिलने पर भी अग्नि की उष्णता, स्वभाव से है, यह बात माननी पड़ती है, इसी प्रकार एक पदार्थ अनेक जगह रहता है ऐसा सिद्ध करने में दृष्टांत न भी मिले तो भी एक स्वभाव से सिद्ध समझ लेना चाहिये । तो द्रव्यत्व की बात कही जा रही कि द्रव्यत्व एक है और वह एक होकर निरवयव और नित्य होकर भी अनेक जगहों में उसको वृत्ति है, पर उसका दृष्टांत नहीं मिलता सो न मिले दृष्टांत, तो भी स्वभावत: यह सिद्ध हो जायेगा, जैसे कि अग्नि की गर्मी स्वभावत: सिद्ध हो जाती है, ऐसा शंकाकार का तर्क करना भी असंगत है, क्योंकि दृष्टांत के अभाव में भी काम सिद्ध होता है, इसको सिद्ध करने के लिये आपने एक दृष्टांत स्वतंत्र दिया है इसलिये स्ववचन विरोध है, दृष्टांत के अभाव में भी सादृश्य सिद्ध होता है इसका निर्णय दृष्टांत दिये बिना नहीं कर सकते आप, सो ऐसे ही यहाँ युक्ति के अभाव होने पर भी द्रव्यत्व से अनेक की स्थिति मानते हो तो द्रव्य को ही स्वत: द्रव्य क्यों नहीं मान लेते? समवाय कोई संबंध नहीं है, संबंध तो भिन्न-भिन्न पदार्थों में होता है । शेष तो तादात्म्य है । द्रव्य ही द्रव्यत्व धर्म में तन्मय है फिर समवाय की कुछ आवश्यकता नहीं । संयोग संबंध में भिन्न पदार्थों का संयोग बनता है और संयोग शब्द से वाच्य संयोग बराबर समझ में आता है, उसकी आदि है, पर द्रव्य में द्रव्यत्व का प्रारंभ नहीं है कि कब से द्रव्य में द्रव्यत्व आया? त्रिकाल द्रव्य है, द्रव्यत्व है, वह द्रव्य के ही स्वरूप को द्रव्यत्व कहा है, सो द्रव्य को अनेक का संबंधी मानने का परिश्रम व्यर्थ करते हो, द्रव्य को ही स्वतः द्रव्य क्यों नहीं मान लेते?

सर्वथा एकांत पक्ष में ‘‘जो गुणों को प्राप्त हो सो द्रव्य है’’ इस लक्षण की अनुपपत्ति―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्य का लक्षण यह है सही गुण संद्भाव: द्रव्यं, अर्थात् जो गुणों को प्राप्त हो वह द्रव्य कहलाता है । इसके संबंध में समाधान यह है कि गुणों को प्राप्त होना सो द्रव्य है । इसमें यह बतलाओ कि वे गुण द्रव्य से अभिन्न हैं या भिन्न हैं । जिन गुणों को प्राप्त करने वाला द्रव्य है वे गुण और ये द्रव्य ये भिन्न हैं या अभिन्न हैं? यदि गुणों से द्रव्य को अभिन्न मानोगे तो यह भी द्रव्य कर्ता है ऐसा कर्ता रूप कर्म से बोल न सकेंगे । अभेद पक्ष में तो कोई बात एक ही होती है, दो नहीं होती, दो हैं तो भेद है, याने गुणों से द्रव्य को अभिन्न मानने पर या तो द्रव्य ही रहेगा या गुण रहेंगे । तो यदि यह कहे कोई कि गुण ही रह जाये तो इसमें क्या आपत्ति है? तो देखिये निराश्रय गुणों का अभाव हो जायेगा । गुण ही रहे, द्रव्य साथ नहीं तो गुणों का आश्रय तो कुछ रहा नहीं, तो आश्रय रहित गुण कभी होता ही नहीं, गुणों का अभाव हो जायेगा । यदि कहा जाये कि द्रव्य ही रहा आवे अभेद करने में कुछ भी एक बोलना चाहिये ना, चाहे द्रव्य बोले चाहे गुण बोले तो द्रव्य ही बोला जाये वही कहलाता है, तो सुनो । द्रव्य और गुण को अभेद करने पर द्रव्य को ही रहना माना है, गुण रहे नहीं तो गुण से ही तो लक्षण समझा जाता है, गुण से ही स्वभाव जाना जाता है । गुण तो रहे नहीं, एक द्रव्य मात्र ही रहा तो यह लक्षण या स्वभाव के बिना उस द्रव्य का कुछ भी अस्तित्त्व नहीं रह सकता । सो यदि द्रव्य और गुणों को भिन्न माना जाये याने गुणों को जो प्राप्त करे सो द्रव्य है ऐसे कथन में दो बातें ध्यान में आयीं, गुण और द्रव्य, सो उन्हें अगर भिन्न माना जाये तो गुण के बिना द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है और द्रव्य के बिना गुण की भी सत्ता नहीं है । तो स्वरूप रहित होने से दोनों का ही अभाव हो जायेगा । इस कारण गुणों का संगम द्रव्य है अर्थात् जो गुणों को प्राप्त होवे सो द्रव्य है । द्रव्य का बाहरी लक्षण सही नहीं होता ।

जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाये सो द्रव्य है, इस लक्षण की सर्वथा एकांत पक्ष में अनुपपत्ति―यहाँ शंकाकार कहता है कि द्रव्य का लक्षण हम यह करेंगे―जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य कहलाता है । इस शंका का उत्तर बताया है कि गुणों को तो निष्क्रिय माना गया है । वैशेषिक दर्शन में 5वें अध्याय के दूसरे पद में 21वें, 22वें सूत्र में बताया है कि दिशा, काल और आकाश ये निष्क्रिय हैं क्योंकि क्रियावान पदार्थों से विलक्षण है, और इस ही से कर्म और गुण भी निष्क्रिय कहे गये हैं । तो यों जब गुण निष्क्रिय हैं तो वे द्रव्य के प्रति किस तरह से प्राप्त होंगे? यदि यह कहा जाये कि द्रव्य का लक्षण हम यों कर देंगे कि जो गुणों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है सो यह भी नहीं बन सकता, क्योंकि द्रव्य भी निष्क्रिय है । तो गुणों के प्रति कहे जायेंगे अथवा गुण तो निष्क्रिय माने ही गये हैं । उन गुणों के प्रति द्रव्य कैसे पहुँचेगा? दूसरी बात यह देखिये कि गुण तो स्वत: असिद्ध हैं । गुण का लक्षण ही नहीं बन सकता । जहाँ भेदवाद है वहाँ तो द्रव्य गुण किसी का भी लक्षण नहीं बनता । तो जब स्वत: सिद्ध नहीं है गुण तो गुण व द्रव्य में प्राप्यप्रापकभाव कैसे बन सकता । कोई भी मनुष्य अगर ग्राम आदिक को प्राप्त होता है तो स्वतः सिद्ध हैं ना ग्राम आदिक तब ही तो उनको प्राप्त होते हैं । गुण तो स्वत: सिद्ध है नहीं तो द्रव्य उनको कैसे प्राप्त करेंगे?

सर्वथैकांतवाद द्रव्य व गुण में प्राप्यप्रापकभाव की असिद्धि―शंकाकार कहता है कि हम गुणों की सिद्धि इस तरह से करते हैं कि जैसे लोक में कच्चे घड़े को पकाने से रंग बदलता है तो वहाँ यह कह सकते हैं कि उस घड़े ने कालेपन को छोड़कर लालपन को प्राप्त किया है । तो लो यों गुणों के द्वारा द्रव्य प्राप्त हो गया । इसका उत्तर यह है कि यदि इस तरह से व्यवहार द्वारा गुण और द्रव्यों की प्राप्ति का संबंध बन गया तो इसमें पृथक सिद्धपने का प्रसंग आयेगा । जो पृथक सिद्ध हो वही तो प्राप्य प्रापकभाव बनता है । जैसे देवदत्त ने गांव को प्राप्त किया तो देवदत्त एक पुरुष है, गाँव अपनी जगह है, तो भिन्न सिद्ध है तभी तो पाने की बात बनती है । जब द्रव्य तो ठहरा रहता है और रूपादिक नष्ट होते हैं, पैदा होते हैं तो यही तो सिद्ध हुआ कि द्रव्य और रूपादिक पृथक सिद्ध भये । यदि इनको अभेद माना जाये तो जैसे द्रव्य नित्य है तो ये लाल पीले आदिक गुण भी नित्य होने चाहिये । अथवा जैसे लाल, पीला रंग आदिक गुण अनित्य हैं ऐसे ही द्रव्य भी अनित्य होना चाहिए । अत: यह लक्षण ही ठीक नहीं बैठता कि जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जाये सो द्रव्य है या जो गुणों को प्राप्त करता है सो द्रव्य है ।

समवायीकारण द्रव्य व गुणों का एकत्र रहने में विरोध―और भी देखिये―जैसे पंडित और मूर्ख में परस्पर विरोध है । जो पंडित है वह मूर्ख नहीं, जो मूर्ख है वह पंडित नहीं । इसी तरह समवायी कारण द्रव्य से, रूपादिक को अपृथक माना जायेगा तो वे द्रव्य की तरह न तो उत्पन्न ही होंगे और न विनष्ट ही होंगे । यदि विनष्ट भी होंगे और उत्पन्न भी होंगे और द्रव्य स्थिर रहेगा । तो मानना चाहिये कि यह अभेद नहीं है । भेद रूप से हे तब ही तो गुण नष्ट विनष्ट उत्पन्न हुए और द्रव्य ज्यों का त्यों रहा । यहाँ द्रव्य के स्वरूप के संबंध में विचार चल रहा है । वास्तविक बात तो यह है कि प्रत्येक सत् द्रव्य है । और ये सब सत् की विशेषतायें हैं कि उनमें गुण और पर्याय की समझ बनती है और इस समझ के द्वारा उस सत् द्रव्य को पहिचाना जाता है पर समझने की पद्धति में अभेद को परमार्थ मान लिया उस शंकाकार ने इस कारण द्रव्य का लक्षण वहाँ मत में ठीक नहीं बैठ रहा । गुण और द्रव्य दों सत् मानकर वहाँ संबंध बनाना यह सिद्ध नहीं हो पाता । अगर वह अभेद है तो संबंध नहीं बनता और लक्षण यदि गुण और द्रव्य पृथक हैं तो संबंध नहीं बनता और लक्षण भी नहीं बनता । गुणों के द्वारा द्रव्य का प्राप्त होना भेदवाद में उसी तरह असंभव है जैसे कि जैसे घट के द्वारा पट का लाभ नहीं ।

सर्वथा भेदभाव में द्रव्य व गुण में प्राप्यप्रापकभाव की असिद्धि―अब शंकाकार कहता है कि प्राप्यप्रापकभाव भेदभाव में ही देखा जाता है । जैसे अनुमान बनाते हैं कि धूम से द्वारा अग्नि पहिचानी गई तो जब यहाँ भेद है तब तो लक्ष्य-लक्षण बना । तो द्रव्यों ने गुण को पाया या गुणों ने द्रव्य को पाया, यह बात तब ही बने जब ये दो भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं । अभेद में प्राप्यप्रापकभाव नहीं बनता क्योंकि अभेद है, एक ही हैं तो उसमें वृत्ति का विरोध है । जैसे अंगुली का अग्र भाग अपने अग्र भाग को छू नहीं सकता, अंगुली का अग्र भाग दूसरे भाग को ही तो छुवेगा या अन्य पदार्थ को । तो जैसे अंगुली का अग्र भाग अपने आपको नहीं छूता क्योंकि अभेद ही एक हे इसी तरह जो भी एक होगा वह एक दूसरे को प्राप्त नहीं कर सकता । शंका के समाधान में कहते हें कि आपका कहना ही आपकी बात को काट रहा है । अग्नि और धूम आदिक भिन्न-भिन्न हैं । उनमें लक्ष्य लक्षण भाव बनता है । वह पृथक सिद्ध है यह तो सही है, पर द्रव्य और गुण की पृथक प्रसिद्धि नहीं है । वे जुदे-जुदे सत् नहीं हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न रूप से ये दोनों पाये नहीं जाते और फिर जो यह कहा है कि अपने आपमें अपना व्यापार नहीं होता, सो इसकी भी हठ ठीक नहीं है । अपने आपमें भी अपना व्यापार होता है । जैसे दीपक अपने आपको प्रकाशित करता है तो खुद ने खुद पर अपना प्रभाव किया ना । और यह बात बिल्कुल सिद्ध है । सभी पहचानते हैं कि दीपक खुद अपने स्वरूप को प्रकाशित करता है । अगर दीपक अपने प्रकाश करने में अन्य दीपक की मदद ले याने दूसरे दीपक के द्वारा कोई दीपक देखा जाये तो वह दीपक ही न रहा, क्योंकि स्वयं प्रकाशक नहीं है ना; जैसे घट, पट आदिक स्वयं प्रकाशक नहीं हैं तो वे दीपक की अपेक्षा रखते हैं । सो कोई भी दीपक किसी अन्य दीपक की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह स्वयं जल रहा है प्रकाशमान है ।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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स्वात्मवृत्ति का विरोध करने वालों के स्ववचन विरोध―अच्छा, स्वात्मा में वृत्ति का विरोध करने वाले जरा इस तत्त्व के उपदेष्टा शंकाकार यह बतलायें कि वह उपदेष्टा अपने आपको जानता है या नहीं? यदि नहीं जानता है तो स्ववचन का विरोध है, क्योंकि उन्हीं वैशेषिकों ने वैशेषिक दर्शन के 9वें अध्याय के पहले बाद के 11वें सूत्र में बताया गया है कि आत्मा में आत्मा मन के संयोग विशेष से आत्म प्रत्यक्षता होती है । तो अपने आपको प्रत्यक्ष जानना माना है ना; किंतु स्वात्मवृत्ति का विरोध करने वाले लोग जानते हैं और यह नहीं कह सकते, और यदि आत्मा अपने आपको नहीं जानता तो असर्वज्ञपने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि यदि यह अपने को ही नहीं जानता तो अन्य को कैसे जानेगा? जब स्व पर किसी को भी नहीं जानता तो सर्वज्ञ कैसे कहलायेगा? अब यदि यह कहा जाये कि आत्मा अपने आपको जानता है तब तो जो पहले यह कहा था कि किसी पदार्थ का अपने आपमें व्यापार नहीं होता तो यह कथन गलत हुआ । तब तो यह सिद्ध हुआ कि अपने आपमें भी अपने व्यापार का विरोध नही है । तब द्रव्यात्मक ही पर्यायें हैं । गुण पर्याय द्रव्य सब एक है । सो ये पर्यायें द्रव्य को लक्षित कर लेती हैं अर्थात प्रतिबोध करा देती हैं ।

एकांतवाद में ‘गुणसंद्राव द्रव्यम्’ इस लक्षण की अनुपपत्ति―अब शंकाकार कहता है कि द्रव्य तो गुण का समुदाय मात्र है । गुण समुदाय से भिन्न अन्य कुछ भी द्रव्य नहीं है । इस शंका का समाधान यह है कि किसी दृष्टि में बात तो ठीक है, मगर भेद एकांत में यह कथन भी बनता नहीं है । जो यह लक्षण कहा गया है भेदवादियों का कि गुणों का समुदाय द्रव्य है, यह बात यों नहीं बनती कि फिर कर्ता कर्म का भेद ही नहीं बन सकता । गुण समुदाय मात्र द्रव्य है, ऐसा कहने पर गुण तो कोई पृथक रहे नहीं और न समुदाय कुछ अलग है । जब कुछ भेद ही न रहा तो कर्ता कर्म भाव को कैसे कहा जा सकता? शंकाकार कहता है कि नहीं भेद रहा, अभेद में भी तो कर्ता कर्मभाव देखा गया है । जैसे दीपक अपने को प्रकाशित करता है तो यहाँ अभेद होने पर भी कर्ता कर्मभाव प्रकट हुआ है । उत्तर में कहते हैं कि यहाँ पर भी कथंचित भेद होना ही चाहिये । दीपक अपने को प्रकाशित करता है, ऐसे कर्ता प्रयोग की हालत में दीपक एक द्रव्य के स्थानीय हे और वह प्रकाश भासुर रूप कर्म के स्थानीय है, सो यदि सर्व प्रकार से इनमें भेद माना जाये तो उसका अर्थ यह होगा कि समस्त द्रव्य भासुररूप हो जायेंगे और भासुर द्रव्य सदा भासुर रूप वाला ही बना रहे मगर देखो ना कि जिसको दीपक कहते हैं उसमें कालापन भी आ जाता है । कज्जल आदिक उसी से ही पैदा होते हैं, और सीधी सी बात यह है कि जब गुण और द्रव्य को किसी भी दृष्टि से पृथक नहीं समझा जा रहा है तो उनके समुदाय की कल्पना भी निरर्थक है ।

सर्वथा अभेद या सर्वथा भेद में गुण समुदाय की अशक्यता―गुण का अर्थ है विशेषण याने द्रव्य की विशेषता जो बताया उसी का नाम विशेषण है और द्रव्य हुआ विशेष्य । गुणी कहो या द्रव्य कहो तो गुणी के बिना गुणों से गुणपना कैसे आ सकता? और फिर वह गुणों का समुदाय गुणों से यदि अभिन्न है तो यों तो समुदाय ही रहा या गुणी? और यदि भिन्न है तो यह गुणों का समुदाय है यह व्यवहार नहीं बन सकता । और, यदि अवक्तव्य है तो सर्वथा अवक्तव्य होने पर अवक्तव्य शब्द से भी कथन नहीं हो सकता, क्योंकि यह समुदाय है तो अवक्तव्य नहीं और यदि अवक्तव्य है तो समुदाय नही । इसका कारण यह है कि जो भी संज्ञा होती है वह विद्यमान पदार्थों में ही होती है । सर्वथा अवक्तव्य अगर कुछ है तो वह स्वरूप रहित ही है । यदि कहो कि वक्तव्य अर्थात गुण है, समुदाय अवक्तव्य है तो यों यहीं लक्षण भेद है । समुदाय का ढंग और है, वक्तव्य का ढंग और है । जब यहीं भेद बन गया तो समुदाय कैसे बन सकता है? शंकाकार की ओर से जो यह प्रस्ताव आया था कि गुणों का समुदाय मात्र को द्रव्य मान लिया जाये सो उनके गुण शाश्वत शक्ति से मतलब नहीं रखते, किंतु काला, पीला, नीला आदिक पर्यायों को भी गुण कहा करते हैं । ऐसे गुण के समुदाय की बात चल रही थी । अब उसी समुदाय विषयक एक बात और कही जा रही है कि रूपादिक परमाणु को समुदायात्मक द्रव्य माना जाये, जैसे कि घट पट आदिक पदार्थ या इन स्कंधों को द्रव्य कहा जाता तो यों रूपादिक परमाणु को मात्र समुदाय कहा गया है ऐसा मानने पर उस स्कंध में कोई नवीन पर्याय की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि अणु है अतिंद्रिय स्वभाव याने इंद्रिय द्वारा ग्राह्य नहीं होते तो परमाणु अपने स्वभाव का उल्लंघन न करेगा और अदृश्य परमाणुओं का समुदाय कहा गया है स्कंध, तब जो कुछ दिख रहा है यह सब भ्रम कहना पड़ेगा । अदृश्यों का समुदाय भी अदृश्य ही रहेगा । यदि स्कंध प्रतीति से भ्रांत माने जाते हैं तो प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष भास में फिर कोई भेद न रहा और अनुमान तथा अनुमानाभास में भी कोई भेद न रह पायेगा ।

सर्वथैकांतवाद में द्रव्य के भवनयोग्य लक्षण की अनुपपत्ति―अब शंकाकार कहता है कि हम द्रव्य का लक्षण भव्य अर्थ में मानते हैं याने जो द्रव्य के योग्य हो, प्राप्ति के योग्य हो उसका नाम द्रव्य है । उत्तर―एकांतवादियों के यहाँ द्रव्य संभव ही नहीं है क्योंकि जब द्रव्य स्वत: असिद्ध है तो असत् में भव्य अर्थ कैसे लग सकता है? वैशेषिकों के यहाँ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष, ये सब जुदे-जुदे माने गये हैं । जब द्रव्य गुण आदिक से सर्वथा भिन्न हैं तो वह असत् हो गया । गुणरहित पर्यायरहित द्रव्य की चीज क्या रही? जब स्वयं असत् हो गया तो जो होने योग्य है ऐसा कैसे कहा जा सकता? भवन क्रियाओं का कर्ता असत् नहीं बन सकता । जो स्वयं सत् है उसमें समवाय संबंध की कल्पना करके स्वरूप की कल्पना करना एक विडंबना है, ऐसा संभव ही नहीं है । सो गुण समुदाय द्रव्य है, इस पक्ष में एकांतवादियों का समुदाय काल्पनिक है, गुणों का कोई पृथक स्वरूप है ही नहीं । तो गुण भी असत् द्रव्य भी असत् । वहाँ फिर भवन क्रिया की बात करना तो बिल्कुल ही अनुचित है । हां अनेकांतवादियों के गुण समुदाय द्रव्य हैं या भवन योग्य द्रव्य हैं, यह सब सिद्ध होता है । क्योंकि इसमें कथंचित भेद और कथंचित अभेद जाना जाता है । अभेद तो है ही क्योंकि इसके प्रदेश अलग नहीं हैं । वही एक सत् है और पर्याय और पर्यायी में संज्ञा लक्षण आदिक से भेद है, इस कारण सूत्र में कहे गए पदार्थ द्रव्य हैं सो उसका अर्थ यही है कि ये सब सत् हैं और गुणपर्यायमय हैं ।

धर्म द्रव्य व अधर्म द्रव्य की पदार्थता का कथन―यहां कोई ऐसी जिज्ञासा कर सकता है कि धर्म और अधर्म तो आत्मा के गुण हैं । जैसे वैशेषिकों में 24 गुण जो माने गये हैं उनमें धर्म-अधर्म भी गिनाये गये हैं । तो धर्म-अधर्म भी आत्मा के गुण हुये । ये द्रव्य नहीं माने जा सकते । और कुछ लोग ऐसा कह सकते हैं कि आकाश भी कोई द्रव्य नहीं है, आकाश के मायने है मूर्त द्रव्यों का अभाव, याने कुछ न होना उसका नाम आकाश है, किंतु उन दोनों को सोचना अविचरित है । यहाँ धर्म, अधर्म, गुण, रूप नहीं किंतु गुणी हैं । जो जीव पुद्गल के गमन और स्थिति में निमित्त कारण मात्र है ऐसे पुण्य पाप को यहाँ नही बताया जा रहा किंतु सद्भूत धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य कहा जा रहा है, जो कि जीव पुद्गल की गति स्थिति में कारण है । इसी प्रकार आकाश भी तुच्छाभावरूप नहीं है, किंतु वह भी सद्भूत है गुणवान होने से ।

सूत्रपद के वचन के प्रयोग का प्रयोजन―इस सूत्र में एक पद है द्रव्याणि, और वह भी बहुवचन है, जिससे यह सिद्ध होता है कि पूर्व सूत्र में कहे गये धर्म अधर्म द्रव्य बहुत हैं, उन्हीं का समानाधिकरण्य रूप से यह द्रव्य है अर्थात वे सब द्रव्य हैं । यहाँ द्रव्य शब्द नपुंसकलिंग में प्रयुक्त है । वह अजहल्लिंग है अर्थात अपने लिंग को छोड़ नहीं सकता । द्रव्य शब्द नपुंसकलिंग है सो इससे प्रथमसूत्र में अजीवकाय का समानाधिकरण होने से पुर्लिंग में प्रयोग है । किंतु यह सूत्र नपुंसकलिंग में प्रयुक्त किया गया है । अब यहाँ तक 4 पदार्थों को द्रव्य बताया गया है । धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल । सो ये चार ही द्रव्य नहीं हैं किंतु और भी द्रव्य हैं । सो उस अन्य का ग्रहण करने के लिये सूत्र कहते हैं ।

Manish Jain Luhadia 
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तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
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