03-16-2016, 11:08 AM
अल्पारम्भपरिग्रह्त्वं मानुषस्य १७
संधिविच्छेद-अल्पारम्भ+अल्पपरिग्रह्त्वं+मानुषस्य
शब्दार्थ-अल्प आरम्भ=अल्प आरम्भ, अल्पपरिग्रह्त्वं= अल्प परिग्रह्त्व,मानुषस्य=मनुष्यायु के आस्रव के कारण है!
अर्थ-अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहत्व से मनुष्यायु का आस्रव होता है !
भावार्थ-अल्प आरम्भ; हिंसात्मक कार्य नहीं/कम करना,यदि हो भी रहे हो तो,निरंतर उन्हें कम करने के चिंतवन में लगे रहना,अल्पपरिग्रह्त्व-अर्थात परिग्रहों की अत्यंत वांछा नहीं रखना, कम से कम परिग्रह में संतुष्ट रहना!अल्पआरंभी और अल्पपरिग्रही होने से मनुष्यायु का आस्र व होता है! मनुष्यायु के इन आस्रव के प्रमुख कारणों के अतिरिक्त निम्न कारण भी है !
सरल व्यवहार/प्रवृत्ति,भद्र प्रकृत्ति होना ,कषायों की मंदता,पंचेंद्रिय विषयों में अरूचि,असंक्ले षित भाव से मरण होना, मनुष्यायु के आस्रव के कारण है!
शंका-मनुष्य और तिर्यंच गति में चारों आयु का आस्रव होता है,क्या देवगति और नरक गति में भी चारों आयु का आस्रव होता है ?
समाधान-मनुष्य और तिर्यंच में जीव चारों गतियों का अस्राव करते है किन्तु देव और नारकी मात्र मनुष्यायु या तिर्यंचायु का ही आस्रव करते है!
मनुष्यायु के आस्रव के अन्य कारण -
स्वभावमार्दवं च १८
संधि विच्छेद:-स्वभाव+मार्दवं+च
शब्दार्थ-स्वभाव-परिणामों की,मार्दव-कोमलता/सरलता से भी मनुष्यायु का आस्रव होता है!
अर्थ- मृदु/सरल स्वभावी/परिणामी होने से भी मनुष्यायु का आस्रव होता है !
भावार्थ-इस सूत्र को अलग से लिखने का कारण है कि, स्वभाव की सरलता भी मनुष्यायु के आस्रव का कारण तो है ही वह देवायु के आस्रव का भी कारण है!
चारों आयु के आस्रव के कारण-!
निःशीलव्रतत्वंचसर्वेषाम् !!१९!!
संधिविच्छेद:-निः(शील+व्रतत्वं)+च+सर्वेषाम्
शब्दार्थ:-निःशील-शीलरहित,नि:व्रतत्वं-व्रतोंरहित,च-और,सर्वेषाम्=सभी आयु के आस्रव का कारण है !
शील-तीन गुणव्रत;दिग्व्रत,देशव्रत,अनर्थदण्ड व्रत और ४ शिक्षाव्रत;सामयिक,प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग व्रत, व्रत-अणुव्रतों और महाव्रतों को व्रत कहते है!
अर्थ:- शील और व्रतों से रहित जीव चारों आयु का आस्रव करता है
भावार्थ कोई जीव शील और व्रतों से रहित है तो उसको चारों आयु में से किसी का आस्रव,उसके परिणामों के आधार पर हो सकता है!
विशेष-१ -सूत्र पृथक से इसलिए बनाया क्योकि शीलव्रतियों और अणु/महा व्रतियों के तो मात्र देवायु का ही आस्रव होता है!
२-बाल तपस्वी जीवों को भी देवायु का आस्रव होता है,यद्यपि उनके शीलव्रत और अणु/महाव्रत नहीं होते क्योकि उनके परिणामों में उनके धर्म के अनुसार सरलता होती है!
३-महात्मा गाँधी थे,उनके शील और अणु व्रत नहीं थे किन्तु परिणामों में सरलता के कारण,परिग्रह कम होने के कारण,तथा देश के लिए लड़ने के कारण,उनके स्वर्ग में देव बनना शक्य नहीं है!४-भोगभूमि के जीवों के भी शीलव्रत और अणु/महाव्रत नहीं होते,किन्तु सभी नियम से देवायु का बंध करते है!भोगभूमि में मिथ्यादृष्टि जीवों के भी देवायु का आस्रव होता है,किन्तु वे भवन्त्रिक में उत्पन्न होते है तथा सम्यगदृष्टि वैमानिक देव होकर पहले व दुसरे स्वर्गों तक उत्पन्न होते है!
देवायु के आस्रव के कारण -
सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य २०
संधि विच्छेद-सरागसंयम+संयमासंयम+अकामनिर्जरा+बालतपांसि+देवस्य
शब्दार्थ- सरागसंयम- राग सहित संयम,छठा-सातवाँ गुणस्थानवर्ती दिगंबर मुनिराज केसारंग संयम होता है संयमासंयम-संयम असंयम,पंचम गुणस्थानवर्ती.प्रतिमाधारी श्रावक,क्षुल्लिका,क्षुल्लक,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी के होता है,अकामनिर्जरा-आकस्मिक कष्ट आने पर उसे सहजता से,शान्तीपूर्वक सहना अकाम निर्जरा है जिस से कषायों में मंदता होती है,लेश्या शुभ होती है,बाल तपांसि=जो तपश्चरण तो करते है,किन्तु उन्हें अभी तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई या अन्य मति तपश्चर्ण करते हुए परिणामों में सरलता रखते है,उनका तप, बालतप कहलाता है!,देवस्य-देवायु का आस्रव होता है!
भावार्थ:-सरागसंयम के धारी,छठा-सातवाँ गुणस्थानवर्ती दिगंबर मुनिराज के सराग संयम होता है देवायु के आस्रव का कारण है,वीतराग संयमी मुनि देवायु का आस्रव नहीं करते है! संयम-असंयम,पंचम गुणस्थानवर्ती.प्रतिमाधारी श्रावक,क्षुल्लिका,क्षुल्लक,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी के होने से देवायु का आस्रव होता है! अकाम निर्जरा अर्थात आकस्मिक आये कष्टों(जैसे जेल जाना पड़े अथवा यात्रा करते हुए खड़े खड़े हुए कष्टों) को शान्तिपूर्वक सहने से कषायों की मंदता और शुभ लेश्या होती है ,इसलिए अकाम निर्जरा भी देवायु के आस्रव का कारण है!बाल तप ,जो की सम्यक्त्व के अभाव में अन्य मटियों के द्वारा किये जाते है वे भी देवायु के आस्रव के कारण है क्योकि वे अपने धर्म की निष्ठांपूर्वक पालन कर रहे होते है जिससे उनके परिणामों में सरलता होती है !
शंका-सूत्र में बताये गए सभी सराग संयम,संयमसंयम देवायु के आस्रव के कारण है ?
समाधान-नहीं किन्तु ,सम्यक्त्व के अभाव में सारंग संयम और संयमासंयम नहीं होते,और सम्यक्त्व वैमानिक देवों के आस्रव का कारण है ,इसलिए सरागसँयम और संयमासंयम वैमानिक देवायु के आस्रव के कारण हुए !
सम्यक्त्वं च !!२१!!
शब्दार्थ- सम्यग्दर्शन भी देवायु के आस्रव का कारण है!
भावार्थ-यद्यपि सम्यगदर्शन को आस्रव के कारणों में नहीं लिया,किन्तु इस सूत्र के लिखने का अभि प्राय है,सम्यगदृष्टि मनुष्य,सम्यक्त्व अवस्था में आयु बंध करे तो विशेषतःवैमानिक देवायु का आस्रव ही करेगा क्योकि उसके परिणाम सरल और आचरण बहुत अच्छा रहता है,वह भवनन्त्रिक में नहीं उत्पन्न होता!यदि कोई सम्यगदृष्टि देव है,वह मात्र मनुष्यायु का आस्रव करेगा !
शंका-एक जीव, अपने जीवनकाल में, आयु कर्म का आस्रव कितनी बार और कब करता है ?
समाधान- सभी जीवों के आयुकर्म के आस्रव और बंध का काल एक ही 'समय' है!जीव अपनी अगले भव की आयु,आठ अपकर्ष कालों में,आयुकर्म के बंधने के लिए यथायोग्य परिणाम होने पर बांधता है! प्रथम अपकर्षकाल उसके,उस भव की बंध आयु के २/३ भाग समाप्त होने के बाद प्रथम अंतर्मूहर्त में आता है!दूसरा उसकी शेष आयु के २/३ भाग व्यतीत होने के बाद प्रथम अंतर्मूहर्त में,शेष का २/३ व्यतीत होने पर तीसरा प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा,इसी प्रकार ८ अपकर्ष काल आयु बंध के जीव के जीवन में आते है!उद्दाहरण के लिए;किसी जीव की उस भव की बंध आयु ८१ वर्ष की है! उसका प्रथम अपकर्ष काल,८१ का २/३ भाग अर्थात ५४ वर्ष व्यतीत होने के बाद ,५५ वर्ष की आयु के प्रथम अंत र्मूहर्त में आता है ,दूसरा अपकर्ष काल शेष आयु अर्थात (८१-५४)= २७ वर्ष का २/३ अर्थात १८ वर्ष व्यतीत होने पर अर्थात उसकी ५४+१८=७२ वर्ष की आयु व्यतीत होने के बाद ७३ वर्ष आयु के ,प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा! तीसरा अपकर्ष काल उसकी शेष आयु ८१-७२=९ के २/३ भाग अर्थात ६ वर्ष व्यतीत होने पर,अर्थात उसकी आयु के ७२+६ =७८ वर्ष के आयु के बाद ७९ वर्ष आयु के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!चौथा अपकर्ष काल उसकी शेष आयु ८१-७८=३ वर्ष का २/३ भाग अर्थात २ वर्ष के व्यतीत होने के बाद अर्थात उसकी ७८+२ =८० वर्ष की आयु के बाद,८१ वर्ष के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!पांचवा अपकर्ष काल शेष आयु ८१-८०=१ वर्ष के २/३=८ माह व्यतीत होने के बाद उसकी ८०+८ माह की आयु के बाद,८० वर्ष ९वे माह के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!छठा अपकर्ष काल शेष ४ माह की आयु के २/३ समय अर्थ १२० दिन के २/३ दिन ८० दिन व्यतीत होने के बाद ८० वर्ष १० माह २० दिन की आयु व्यतीत होने के बाद ८० वर्ष १० माह २१वे दिन के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा! सातवाँ अपकर्ष काल शेष आयु ४० दिन के २/३ अर्थात २६ दिन १६ घंटे व्यतीत होने के बाद अर्थात ८० वर्ष ११ माह १६दिन १६ घंटे की आयु के बाद ८० वर्ष ११ माह १७वे दिन के १७वे घंटे के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!आठवा अपकर्ष काल शेष आयु अर्थात १३ दिन ८ घंटे का २/३ भाग ८ दिन २१ घंटे २० मिनट व्यतीत होने पर अर्थात ८० वर्ष ११ माह २५ दिन १३ घंटे २० मिनट आयु के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!यदि इस समय भी जीव के आयु बंध के कर्मों का आस्रव के यथा योग्य परिणाम के कारण नहीं होता,तो मरने से पूर्व आवली का संख्यातवा भाग आयु शेष रहने पर, निश्चित रूप से आयु बंध हो ही जायेगा क्योकि नियम से जीव आयुबंध के बिना वर्तमान शरीर छोड़ता नहीं है,उसे असंक्षेपाधा काल कहते है! अर्थात आवली का संख्यात्वा भाग आयु शेष रहना!
एक जीव अपने जीवन में कम से कम एक बार और अधिकतम ८ बार आयु बाँध सकता है!कोई जीव आठों अपकर्ष कालों में आयु बाँध सकता है बशर्ते की जो उसने सबसे पहले आयु बांधी है ,उसी के योग्य परिणाम होगे तो अगले अपकर्ष कालों में आयु बंध होगा अन्यथा नहीं!किसी ने पहले अपकर्ष काल में यदि देवायु बंधी है,और अगले अपकर्ष काल में उसके मनुष्य आयु के योग्य परिणाम है तो आयु बंध नहीं होगा,तीसरे अपकर्ष काल में तिर्यंचायु के योग्य परिणाम है तो बंध नहीं होगा,चौथे अपकर्ष काल में यदि देवायु के योग्य परिणाम होंगे तो बंध हो जायेगा! जिन जीवों की १/२४ सेकंड आयु होती है,उनके भी आयुबंध के आठ अपकर्ष काल आते है! देवों नारकियों की आयु उनके आयु के अंतिम ६ माह में,८ अपकर्ष काल में आकर आयु बंधती है!हमें आर्त,रौद्र ध्यान,अत्यंत आरम्भ, अत्यंत परिग्रहों,मयाचारी से से बचना चाहिए तभी तिर्यंच और नरक गति से बच सकते है!
संधिविच्छेद-अल्पारम्भ+अल्पपरिग्रह्त्वं+मानुषस्य
शब्दार्थ-अल्प आरम्भ=अल्प आरम्भ, अल्पपरिग्रह्त्वं= अल्प परिग्रह्त्व,मानुषस्य=मनुष्यायु के आस्रव के कारण है!
अर्थ-अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहत्व से मनुष्यायु का आस्रव होता है !
भावार्थ-अल्प आरम्भ; हिंसात्मक कार्य नहीं/कम करना,यदि हो भी रहे हो तो,निरंतर उन्हें कम करने के चिंतवन में लगे रहना,अल्पपरिग्रह्त्व-अर्थात परिग्रहों की अत्यंत वांछा नहीं रखना, कम से कम परिग्रह में संतुष्ट रहना!अल्पआरंभी और अल्पपरिग्रही होने से मनुष्यायु का आस्र व होता है! मनुष्यायु के इन आस्रव के प्रमुख कारणों के अतिरिक्त निम्न कारण भी है !
सरल व्यवहार/प्रवृत्ति,भद्र प्रकृत्ति होना ,कषायों की मंदता,पंचेंद्रिय विषयों में अरूचि,असंक्ले षित भाव से मरण होना, मनुष्यायु के आस्रव के कारण है!
शंका-मनुष्य और तिर्यंच गति में चारों आयु का आस्रव होता है,क्या देवगति और नरक गति में भी चारों आयु का आस्रव होता है ?
समाधान-मनुष्य और तिर्यंच में जीव चारों गतियों का अस्राव करते है किन्तु देव और नारकी मात्र मनुष्यायु या तिर्यंचायु का ही आस्रव करते है!
मनुष्यायु के आस्रव के अन्य कारण -
स्वभावमार्दवं च १८
संधि विच्छेद:-स्वभाव+मार्दवं+च
शब्दार्थ-स्वभाव-परिणामों की,मार्दव-कोमलता/सरलता से भी मनुष्यायु का आस्रव होता है!
अर्थ- मृदु/सरल स्वभावी/परिणामी होने से भी मनुष्यायु का आस्रव होता है !
भावार्थ-इस सूत्र को अलग से लिखने का कारण है कि, स्वभाव की सरलता भी मनुष्यायु के आस्रव का कारण तो है ही वह देवायु के आस्रव का भी कारण है!
चारों आयु के आस्रव के कारण-!
निःशीलव्रतत्वंचसर्वेषाम् !!१९!!
संधिविच्छेद:-निः(शील+व्रतत्वं)+च+सर्वेषाम्
शब्दार्थ:-निःशील-शीलरहित,नि:व्रतत्वं-व्रतोंरहित,च-और,सर्वेषाम्=सभी आयु के आस्रव का कारण है !
शील-तीन गुणव्रत;दिग्व्रत,देशव्रत,अनर्थदण्ड व्रत और ४ शिक्षाव्रत;सामयिक,प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग व्रत, व्रत-अणुव्रतों और महाव्रतों को व्रत कहते है!
अर्थ:- शील और व्रतों से रहित जीव चारों आयु का आस्रव करता है
भावार्थ कोई जीव शील और व्रतों से रहित है तो उसको चारों आयु में से किसी का आस्रव,उसके परिणामों के आधार पर हो सकता है!
विशेष-१ -सूत्र पृथक से इसलिए बनाया क्योकि शीलव्रतियों और अणु/महा व्रतियों के तो मात्र देवायु का ही आस्रव होता है!
२-बाल तपस्वी जीवों को भी देवायु का आस्रव होता है,यद्यपि उनके शीलव्रत और अणु/महाव्रत नहीं होते क्योकि उनके परिणामों में उनके धर्म के अनुसार सरलता होती है!
३-महात्मा गाँधी थे,उनके शील और अणु व्रत नहीं थे किन्तु परिणामों में सरलता के कारण,परिग्रह कम होने के कारण,तथा देश के लिए लड़ने के कारण,उनके स्वर्ग में देव बनना शक्य नहीं है!४-भोगभूमि के जीवों के भी शीलव्रत और अणु/महाव्रत नहीं होते,किन्तु सभी नियम से देवायु का बंध करते है!भोगभूमि में मिथ्यादृष्टि जीवों के भी देवायु का आस्रव होता है,किन्तु वे भवन्त्रिक में उत्पन्न होते है तथा सम्यगदृष्टि वैमानिक देव होकर पहले व दुसरे स्वर्गों तक उत्पन्न होते है!
देवायु के आस्रव के कारण -
सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य २०
संधि विच्छेद-सरागसंयम+संयमासंयम+अकामनिर्जरा+बालतपांसि+देवस्य
शब्दार्थ- सरागसंयम- राग सहित संयम,छठा-सातवाँ गुणस्थानवर्ती दिगंबर मुनिराज केसारंग संयम होता है संयमासंयम-संयम असंयम,पंचम गुणस्थानवर्ती.प्रतिमाधारी श्रावक,क्षुल्लिका,क्षुल्लक,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी के होता है,अकामनिर्जरा-आकस्मिक कष्ट आने पर उसे सहजता से,शान्तीपूर्वक सहना अकाम निर्जरा है जिस से कषायों में मंदता होती है,लेश्या शुभ होती है,बाल तपांसि=जो तपश्चरण तो करते है,किन्तु उन्हें अभी तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई या अन्य मति तपश्चर्ण करते हुए परिणामों में सरलता रखते है,उनका तप, बालतप कहलाता है!,देवस्य-देवायु का आस्रव होता है!
भावार्थ:-सरागसंयम के धारी,छठा-सातवाँ गुणस्थानवर्ती दिगंबर मुनिराज के सराग संयम होता है देवायु के आस्रव का कारण है,वीतराग संयमी मुनि देवायु का आस्रव नहीं करते है! संयम-असंयम,पंचम गुणस्थानवर्ती.प्रतिमाधारी श्रावक,क्षुल्लिका,क्षुल्लक,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी के होने से देवायु का आस्रव होता है! अकाम निर्जरा अर्थात आकस्मिक आये कष्टों(जैसे जेल जाना पड़े अथवा यात्रा करते हुए खड़े खड़े हुए कष्टों) को शान्तिपूर्वक सहने से कषायों की मंदता और शुभ लेश्या होती है ,इसलिए अकाम निर्जरा भी देवायु के आस्रव का कारण है!बाल तप ,जो की सम्यक्त्व के अभाव में अन्य मटियों के द्वारा किये जाते है वे भी देवायु के आस्रव के कारण है क्योकि वे अपने धर्म की निष्ठांपूर्वक पालन कर रहे होते है जिससे उनके परिणामों में सरलता होती है !
शंका-सूत्र में बताये गए सभी सराग संयम,संयमसंयम देवायु के आस्रव के कारण है ?
समाधान-नहीं किन्तु ,सम्यक्त्व के अभाव में सारंग संयम और संयमासंयम नहीं होते,और सम्यक्त्व वैमानिक देवों के आस्रव का कारण है ,इसलिए सरागसँयम और संयमासंयम वैमानिक देवायु के आस्रव के कारण हुए !
सम्यक्त्वं च !!२१!!
शब्दार्थ- सम्यग्दर्शन भी देवायु के आस्रव का कारण है!
भावार्थ-यद्यपि सम्यगदर्शन को आस्रव के कारणों में नहीं लिया,किन्तु इस सूत्र के लिखने का अभि प्राय है,सम्यगदृष्टि मनुष्य,सम्यक्त्व अवस्था में आयु बंध करे तो विशेषतःवैमानिक देवायु का आस्रव ही करेगा क्योकि उसके परिणाम सरल और आचरण बहुत अच्छा रहता है,वह भवनन्त्रिक में नहीं उत्पन्न होता!यदि कोई सम्यगदृष्टि देव है,वह मात्र मनुष्यायु का आस्रव करेगा !
शंका-एक जीव, अपने जीवनकाल में, आयु कर्म का आस्रव कितनी बार और कब करता है ?
समाधान- सभी जीवों के आयुकर्म के आस्रव और बंध का काल एक ही 'समय' है!जीव अपनी अगले भव की आयु,आठ अपकर्ष कालों में,आयुकर्म के बंधने के लिए यथायोग्य परिणाम होने पर बांधता है! प्रथम अपकर्षकाल उसके,उस भव की बंध आयु के २/३ भाग समाप्त होने के बाद प्रथम अंतर्मूहर्त में आता है!दूसरा उसकी शेष आयु के २/३ भाग व्यतीत होने के बाद प्रथम अंतर्मूहर्त में,शेष का २/३ व्यतीत होने पर तीसरा प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा,इसी प्रकार ८ अपकर्ष काल आयु बंध के जीव के जीवन में आते है!उद्दाहरण के लिए;किसी जीव की उस भव की बंध आयु ८१ वर्ष की है! उसका प्रथम अपकर्ष काल,८१ का २/३ भाग अर्थात ५४ वर्ष व्यतीत होने के बाद ,५५ वर्ष की आयु के प्रथम अंत र्मूहर्त में आता है ,दूसरा अपकर्ष काल शेष आयु अर्थात (८१-५४)= २७ वर्ष का २/३ अर्थात १८ वर्ष व्यतीत होने पर अर्थात उसकी ५४+१८=७२ वर्ष की आयु व्यतीत होने के बाद ७३ वर्ष आयु के ,प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा! तीसरा अपकर्ष काल उसकी शेष आयु ८१-७२=९ के २/३ भाग अर्थात ६ वर्ष व्यतीत होने पर,अर्थात उसकी आयु के ७२+६ =७८ वर्ष के आयु के बाद ७९ वर्ष आयु के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!चौथा अपकर्ष काल उसकी शेष आयु ८१-७८=३ वर्ष का २/३ भाग अर्थात २ वर्ष के व्यतीत होने के बाद अर्थात उसकी ७८+२ =८० वर्ष की आयु के बाद,८१ वर्ष के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!पांचवा अपकर्ष काल शेष आयु ८१-८०=१ वर्ष के २/३=८ माह व्यतीत होने के बाद उसकी ८०+८ माह की आयु के बाद,८० वर्ष ९वे माह के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!छठा अपकर्ष काल शेष ४ माह की आयु के २/३ समय अर्थ १२० दिन के २/३ दिन ८० दिन व्यतीत होने के बाद ८० वर्ष १० माह २० दिन की आयु व्यतीत होने के बाद ८० वर्ष १० माह २१वे दिन के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा! सातवाँ अपकर्ष काल शेष आयु ४० दिन के २/३ अर्थात २६ दिन १६ घंटे व्यतीत होने के बाद अर्थात ८० वर्ष ११ माह १६दिन १६ घंटे की आयु के बाद ८० वर्ष ११ माह १७वे दिन के १७वे घंटे के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!आठवा अपकर्ष काल शेष आयु अर्थात १३ दिन ८ घंटे का २/३ भाग ८ दिन २१ घंटे २० मिनट व्यतीत होने पर अर्थात ८० वर्ष ११ माह २५ दिन १३ घंटे २० मिनट आयु के प्रथम अंतर्मूहर्त में आएगा!यदि इस समय भी जीव के आयु बंध के कर्मों का आस्रव के यथा योग्य परिणाम के कारण नहीं होता,तो मरने से पूर्व आवली का संख्यातवा भाग आयु शेष रहने पर, निश्चित रूप से आयु बंध हो ही जायेगा क्योकि नियम से जीव आयुबंध के बिना वर्तमान शरीर छोड़ता नहीं है,उसे असंक्षेपाधा काल कहते है! अर्थात आवली का संख्यात्वा भाग आयु शेष रहना!
एक जीव अपने जीवन में कम से कम एक बार और अधिकतम ८ बार आयु बाँध सकता है!कोई जीव आठों अपकर्ष कालों में आयु बाँध सकता है बशर्ते की जो उसने सबसे पहले आयु बांधी है ,उसी के योग्य परिणाम होगे तो अगले अपकर्ष कालों में आयु बंध होगा अन्यथा नहीं!किसी ने पहले अपकर्ष काल में यदि देवायु बंधी है,और अगले अपकर्ष काल में उसके मनुष्य आयु के योग्य परिणाम है तो आयु बंध नहीं होगा,तीसरे अपकर्ष काल में तिर्यंचायु के योग्य परिणाम है तो बंध नहीं होगा,चौथे अपकर्ष काल में यदि देवायु के योग्य परिणाम होंगे तो बंध हो जायेगा! जिन जीवों की १/२४ सेकंड आयु होती है,उनके भी आयुबंध के आठ अपकर्ष काल आते है! देवों नारकियों की आयु उनके आयु के अंतिम ६ माह में,८ अपकर्ष काल में आकर आयु बंधती है!हमें आर्त,रौद्र ध्यान,अत्यंत आरम्भ, अत्यंत परिग्रहों,मयाचारी से से बचना चाहिए तभी तिर्यंच और नरक गति से बच सकते है!