04-26-2016, 12:04 PM
- सूक्ष्म-साम्प्रायच्छद्मस्थवीतरागयो श्चतुर्दशा !!१० !!संधि विच्छेद-सूक्ष्म-साम्प्राय च्छद् मस्थ -वीतरागय: चतुर्दशाशब्दार्थ-सूक्ष्मसाम्प्राय-सूक्ष्म साम्पराय १०वे गुणस्थान, छद्मस्थवीतराग अर्थात उपशांत मोह ११वे गुण स्थान -वीतरागयो-वीतराग -क्षीण मोह ;१२वे गुणस्थान में, चतुर्दशा-चार+दस अर्थात १४ परिषह होते है !अर्थ-सूक्ष्म साम्पराय ११वे,उपशांतमोह १२ वे औरवीतराग क्षीणकषाय गुणस्थानों में १४ परिषह ही होते है !इन गुणस्थानों में निम्न १४ परिषह होती है! क्षुधा,तृषा,शीत,उष्ण दंशमशक,चर्या,शय्या,वध,अलाभ,रोग,तृणस्पर्श,मल,प्रज्ञा और अज्ञान! शंका -११वे और १२वे गुणस्थान में तो मोहनीय कर्म का पूर्णतया क्षय होने के कारण ,उसके उदय में होने वाले ८ परिषह नही होते किन्तु दसवे गुणस्थान में तो मोहनीय कर्म के संज्वलन लोभ का उदय होता है फिर ये ८ परिषह क्यों नहीं होते ?समाधान-१० वे गुणस्थान में चूँकि संज्वलन लोभ कषाय का अत्यंक सूक्ष्म उदय रहता है इसलिए वह भी वीतराग छद्मस्थ के तुल्य है ,अत; मोहनीय कर्म के उदय में होने वाली ८ परिषह वहां नहीं होती !शंका -इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता नही होने से और मंद उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है इसलिए इनके कार्य रूप से 'परिषह सज्ञा युक्ति को प्राप्त नहीं होती !समाधान-ऐसा नहीं है क्योकि यहाँ शक्ति मात्र विवक्षित है ! जिस प्रकार सर्वार्थ सिद्धि के देव के सातवी पृथ्वी तक गमन के सामर्थ्य के निर्देश उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए !सयोगकेवली १३ वे गुणस्थान में परिषह -एकादशजिने!!११ !!सन्धिविच्छेद -एकादश+जिनेशब्दार्थ-एकादश-ग्यारह परिषह संभव है ,जिने-जिनेन्द्र के अर्थ-जिनेन्द्र भगवान के ११ परिषह होती है भावार्थ -संयोग केवली ,१३वे गुणस्थान में जिनेन्द्र भगवान के उक्त १४ परीषहों में से अलाभ,प्रज्ञा और अज्ञान के अतिरिक्त शेष ११ परिषह होती हैविशेष -जिनेन्द्र भगवान ने यद्यपि चार घातिया कर्मों का क्षय कर लिया है किन्तु वेदनीय कर्म का सद्भाव होने के कारण उसके निमित्तक ११ परिषह होते है !शंका -केवली ११ परिषह में क्षुधा /प्यास भी है तो उन्हें भूख प्यास की बांधा होनी चाहिए ?समाधान-मोहनीय कर्म के क्षय के कारण,मोहनीय कर्म के उदय का अभाव होने पर वेदनीय कर्म में भूख-प्यास की वेदना उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रहती है!घतिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न चतुष्टाय से युक्त केवली भगवान के अंतराय कर्मों का अभाव हो जाता है और निरंतर शुभ नो कर्म वर्गणाओं का संचय होता है इन परिस्थितियों में निसहाय वेदनीय कर्म अपना कार्य नहीं कर पाता इसलिए केवली भगवान को भूख /प्यास की वेदना नही होती !केवली के वेदनीय कर्म का सद्भाव है इस अपेक्षा उपचार से उनके ११ परिषह कहे गए है वास्तव में उनके एक भी परिषह नहीं होता !युक्ति पूर्वक प्रमाण, केवली भगवन के क्षुधा,पिपासा आदि परिषह नहीं होते!१-केवली जिन के शरीर में निगोदिया और त्रस जीव का अभाव १२ वे,क्षीणमोह गुणस्थान में,में होकर वे परमौदारिक शरीर के धारक हो जाते है!अत:भूख,प्यास ,रोगादि के कारणों का अभाव होने के कारण से उन्हें इनकी बाधा/वेदना नहीं होती !देवों के शरीर में इन जीवों के अभाव में जी विशेषता होती है ,उससे अनंत गुणी इनके शरीर में होती है !२-श्रेणी आरोहण पर प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर अनन्तगुणा प्रति समय बढ़ता है और अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग प्रति समय अनंत गुणा घटता जाता है !इसलिए १३ वे गुणस्थान में असाता वेदनीय प्रकृति का उदय इतना प्रबल ही नहीं रहता की वह शुद्धि /पिपासा आदि परिषह से पीड़ित कर जिससे उसे क्षुधादि जैसे कार्य का सूचक माना जा सके!३- असता वेदनीय की उदीरणा छट्ठे गुणस्थान तक ही होती है,आगे नही ,इसलिए उदीरणा के अभाव में वेदनीय कर्म क्षुधादि का वेदन करवाने में असमर्थ है !जब केवली जिन के शरीर को पाने/भोजन की आवश्यकता ही नहीं है ,तो इनके नहीं मिलने पर उन्हें शुधा /तृषा आदि कैसे हो सकती है !!वेदनीय कर्म का कार्य शरीर में पानी और भोजन तत्व का अभाव करना नहीं है उनका अभाव अन्य कारणों से होता है !हा इनके अभाव में जो वेदना होती है वह वेदनीय कर्म का कार्य है!अब केवली जिन के शरीर को उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती तब वेदनीय कर्म के निमित्त से तज्जनित वेदना कैसे हो सकती है !४-केवली जिन के साता का आस्रव सदा काल होने से उसकी निर्जरा भी सदा काल होती है !इसलिए जिस काल में असाता का उदय होता है ,उस काल में सिर्फ उसी का उदय नहीं होता बल्कि उसके साथ अनन्तगुणी साता के साथ वह उदय में आता है ! यद्यपि उसका स्वमुख उदय होता है किन्तु वह प्रति समय बंधने वाले कर्म परमाणुओं की निर्जरा के साथ होता रहता है !इसलिए असाता उदय वहां शुद्धादि रूप वेदना का कारण नहीं होता !५- सुखदुख का वेदन का कार्य वेदनीय कर्म का है किन्तु मोहनीय कर्म के अभाव में नहीं होता अर्थात मोहनीय कर्म की सहायता के बिना सुख दुःख का वेदन कराने में वेदनीय कर्म असहाय है !केवली जिन के मोहनीय कर्म का अभाव होता है अत:क्षुधा,पिपासा रूप वेदनाओं का सद्भाव होना युक्तिसंगत नहीं है !उक्त पांच प्रमाणों से प्रमाणित होता है कि केवली भगवंतों को शुद्धादि ११ परिषह नहीं होते !सूत्र में उपचार से कहे गए है क्योकि वेदनीय कर्म का सद्भाव तो केवली को है! छठे गुणस्थान तक परिषह-
संधि विच्छेद:-बादर+साम्पराये+सर्वे
शब्दार्थ-बादर-स्थूल,,साम्पराये-कषाय तक , सर्वे-सभी परिषह होते है
अर्थ-स्थूल कषाय तक अर्थात छठे गुणस्थान तक सभी परिषह होते है !
भावार्थ -जीव के स्थूल कषाय अर्थात छठे गुणस्थान तक सभी २२ परिषह होते है!
विशेष-बादरसाम्पराय,अनिरिवृत्तिकरण नामक नौवे गुणस्थान का अन्त्दीपक न्याय से दूसरा नाम है!सूत्र में 'बादरसाम्प्राय पद' से इस गुणस्थान के ग्रहण के निषेध के लिए टीकाकार ने कथन किया है क्योकि बादर साम्प्राय(स्थूलकषाय) में तो २२ परिषह संभव है,किन्तु इस बादरसाम्प्राय नामक नौवे गुणस्थान में नहीं क्योकि इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय का उदय नहीं होता!दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों में से,सम्यक्त्व मोहनीय का उदय ७वे अप्रमत्त गुणस्थान तक ही सम्भव है क्योकि यही तक वेदक सम्यक्त्व होता है,इसलिए बादरसंपाराय सम्प्राय अर्थात स्थूल कषाय में सब परिषह संभव है,यही अर्थ लेना चाहिए न की नैव गुणस्थान तक !
ज्ञानावरण के उदय में होने वाली परिषह -
ज्ञानावरणेंप्रज्ञाज्ञाने!!१३!!
संधि विच्छेद-ज्ञान +आवरणें+ प्रज्ञा+अज्ञाने
शब्दार्थ-ज्ञाना-ज्ञान ,आवरणें-आवरण से ,प्रज्ञा-प्रज्ञा और अज्ञान-ज्ञान दो परिषह होते है
अर्थ:- ज्ञानावरण के उदय में प्रज्ञा और ज्ञान ,दो परिषह होते है !
शंका-ज्ञानावरण के उदय में ज्ञान परिषह होना ठीक है किन्तु प्रज्ञा कैसे हो सकता है क्योकि प्रज्ञा का अर्थ ज्ञान है ,और ज्ञान आत्मा का स्वभाव है !
समाधान-प्रज्ञा परिषह जय का अर्थ है ज्ञान का मद नही होने देना,मद,ज्ञानावरण के उदय में ही होता है जिसके समस्त ज्ञानावरण नष्ट हो जाते है उसको ज्ञान का मद नहीं होता,अत; प्रज्ञा परिषह ज्ञानावरण के उदय होता है दर्शन मोह और अंतराय कर्म के उदय में होने वाले परिषह -
दर्शन-मोहान्तराययोरदर्शनालाभौ !!१४!!
संधि विच्छेद -दर्शन+मोहनीययो+अंतराययो+अदर्शन+अलाभौ
शब्दार्थ-दर्शन-दर्शन, मोहनीययो-मोहनीय के,अंतराययो-अंतराय के उदय में,क्रमश:अदर्शन-अदर्शन,अलाभौ -अलाभ परिषह होते है !
अर्थ-दर्शन मोहनीय कर्म के उदय में अदर्शन और अंतराय कर्म के उदय में अलाभ परिषह होते है !
विशेष-
अदर्शन भाव मोहनीय कर्म और अलाभ भाव अंतराय करण के उदय में होते है का प्रमाण -
यहाँ दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्वप्रकृति ली है जिसके उदय में चल,मल,अगाढ़ दोष उत्पन्न होते है !सम्यक्त्व रहते हुए भी आप्त,आगम और पदार्थों में नाना विकल्प होना चल दोष है !जिस प्रकार जलके स्वस्थ होते हुए भी उसमे वायु के निमित्त से तरंगमाला उठा करती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने स्वरुप में स्थित रहता है किन्तु सम्यक्त्व मोहनीय के उदय में उसशंकादि के निमित्त से की बुद्धि आप्त,आगम और सदर्भ में चलायमान रहती है !यह चल दोष है !सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से शंकादि के निमित्त से सम्यग्दर्शन का मलीन होना मल दोष है !सम्यग्दृष्टि जीव लौकिक प्रयोजनवश कदाचित तत्व चलायमान है यह अगाढ़ दोष है !जैसे सम्यग्दृष्टि भली प्रकार जानता है की अन्य अन्य नहीं होता किन्तु रागवश वह स्थिर नहीं रह पाता !ये तीनों एक ही है फिर भी विभिन्न अभिप्राय की दृष्टि से पृथक पृथक इन्हे परिगणित किया है !प्रकृत में इसी दोष को ध्यान में रखते हुए अदर्शन
परिषह का निर्देश दिया है !यह दर्शन मोहनीय के उदय में ही होता है यह दर्शन मोह का कार्य है!भोजन आदि पदार्थों का प्राप्त न होना अन्य बात है किन्तु भोजन आदि पदार्थ न मिलने पर जिसके 'अलाभ' परिणाम होता है उसका वह परिणाम लाभान्तराय कर्म का कार्य कहा है !पर के लाभ को स्व का लाभ मानना मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय का कार्य है,इसकी विवक्षा यहाँ नहीं है !यहाँ तो अलाभ परिणाम किसके उदय में होता है ,मात्र इतना ही विचारणीय है !इस प्रकार अदर्शन भाव मोहनीय कर्म और अलाभ लाभान्तराय कर्म का कार्य निश्चित हुए !चारित्र मोह के उदय में होने वाले परिषह -
चारित्रमोहेनागन्यारतिस्त्रीनिषध्याक्रोशयाचनासत्कारपुरुस्कारा:!!१५!!
सन्धिविच्छेद--चारित्र +मोहे +नागन्या+अरति +स्त्री+निषधा+आक्रोश+याचना+सत्कार पुरुस्कारा:
शब्दार्थ-चारित्र मोहे-चारित्र मोहनीय के,उदय में,नागन्या-नगनतव,अरति अरति ,स्त्री-स्त्री,निषध्या-निषध्या ,आक्रोश-आक्रोश,याचना-याचना,और सत्कार पुरुस्कारा:-सत्कारपुरूस्कार परिषह होते हैं !
अर्थ-चारित्र मोहनीय के उदय में नाग्न्य,अरति ,स्त्री,निष ध्या,आक्रोश,याचना और सत्कारपुरूस्कार सात परिषह होते है !शंका-नाग्न्यादि परिषह पुंवेदोदय आदि के निमत्त से होने के कारण महोदय कहते है किन्तु निष ध्या परिषह मोह के उदय के निमित्त से कैसे होता है ?
उसमे प्राणी पीड़ा के परिहार की मुख्यता होने से वह मोहोदयनिमित्तिक माना गया है ,क्योकि महोदय के होने पर प्राणिपीड़ा रूप परिणाम होते है !
यदि चर्या और शय्या,वेदनीय नैमित्तिक है तो इसे वेदनीय निमित्तक क्यों नहीं है जब कि ये दोनों एक ही श्रेणी के है !इसका उत्तर है कि प्राणी पीड़ा रूप परिणाम मोहोदय से होता है और निषध्या परिषह जय में इस प्रकार के परिणामों पर विजय पाने की मुख्यता है इसलिए इसे कारित्रमोह निमित्तक माना है !इस विवक्षा से शय्या और चर्या को भी मोहोदयनिमित्तक मान सकते थे किन्तु वहां लंत्कादिक के निमित्त से होने वाली वेदना की मुख्यता करके उक्त दोनों को परिषह को वेदनीय निमित्तक कहा है !!तातपर्य है कि चर्या,शय्या और निष ध्या ,इनमे प्राणिपीड़ा और कण्टकादिनिमित्तक वेदना ,ये दोनों कार्य सम्भव है !इसलिए इन दोनों कार्यों का परिज्ञान कराने के लिए निष मोहनिमित्तक और शेष दो को वेदनीय निमित्तक कहा है !
वेदनीय के उदय में होने वाले परिषह -वेदनीये शेषा:!!१६!!
संधि विच्छेद-वेदनीय+शेषा:
शब्दार्थ-वेदनीय-वेदनीय के उदय में ,शेषा:-शेष ग्यारह परिषह होते है!
अर्थ-वेदनीय कर्म के उदय में शेष ग्यारह क्षुधा,तृषा,शीत ,उष्ण,दंशमशक,चर्या,शय्या,वध ,रोग,तृणस्पर्श,और मल परिषह होते है !
एक साथ होने वाले परिषह -
विशेषार्थ-
शरीर में भोजन/जल का कम होना,कंठ का सूखना,ठंडा /गर्म लगना किसी के द्वारा मारना ,गाली गलौज करना,रोगग्रस्त होना ,तिनका आदि चुभना,शरीर में मल एकत्र होना आदि अपने २ कारणों से होते है इनका कारण वेदनीय कर्म का उदय नहीं है, किन्तु
इन कामों के होने पर भूख की/प्यास की वेदना कराना ,वेदनीय कर्म के उदय का कार्य है
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशते:!!१७!!
सन्धिविच्छेद-एकादय:+भाज्य:+युगपत्+एकस्मिन् +आ+ऐकोनविंशते:
शब्दार्थ-एकादय:-एक को आदि लेकर,भाज्य:-विभक्त करना चाहिये,युगपत्-एक साथ,एकस्मिन्-एक जीव में,आ ऐकोनविंशते:-एक कम बीस अर्थात उन्नीस परिषह हो सकते है !
अर्थ-एक साथ एक जीव मे एक को आदि लेकर उन्नीस परिषह तक विभक्त करना चाहिए !
भावार्थ -एक जीव में एक समय में एक से लेकर अधिकतम १९ परिषह हो सकते है क्योकि शीत और उष्ण में से एक तथा शय्या, चर्याऔर निषध्या-तीन में से एक काल में ही परिषह होगा !अत: २२-५ +२ =१९ परिषहएक काल में किसी जीव के अधिकत्तम हो सकते है!
चारित्र के भेद -
सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम्!!१८!!
संधि विच्छेद- सामायिक+ छेदोपस्थापना +परिहारविशुद्धि+सूक्ष्मसाम्पराय +यथाख्यात + इति +चारित्रम्
शब्दार्थ -सामायिक+ छेदोपस्थापना +परिहारविशुद्धि+सूक्ष्मसाम्पराय +यथाख्यात + इति +चारित्रम्
अर्थ-सामायिक,छेदोपस्थापना,परिहारविशुद्धि ,सूक्ष्मसामपराय और यथाख्यात चारित्र के ५ भेद है !
सामयिक चारित्र-सम्पूर्ण सावध्य योग अर्थात समस्त पाप कार्यों का त्याग कर,धारण किया चारित्र सामायिक चारित्र है,यह छठे से नौवे गुणस्थान के मुनिराज के होता है!सामयिकी स्वाध्याय नियत काल और ईर्या पथ अनियतकाल दो भेद की है !
छेदोपस्थापना चारित्र-प्रमादवश सामायिकचारित्र में लगे दोषों का प्रायश्चित द्वारा निवारण/छेदन कर,निर्दोष चारित्र धारण करना छेदोपस्थापना चारित्र है!समस्त सावद्य योगों का भेद रूप अर्थात हिना,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रह का त्याग छेदोपस्थापना चारित्र है!ये भी छठे से नौवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के होता है!
परिहारविशुद्धि चारित्र-जिस चारित्र में प्राणि हिंसा की सर्वथा निवृत्ति होने से विशेष विशुद्धि प्राप्त होती है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है!जिसने अपने जन्म से ३० वर्ष आयु तक सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर,जिन दीक्षा ले कर तीर्थंकर के निकट रह कर,८ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक ९वे पूर्व को पढ़ा हो और तीनो सांध्य कालों को छोड़ कर २ कोस विहार करने का नियम लिया हो,ऐसे दुर्धर चर्या के पालक मुनिराज को ही परिहारविशुद्धि चारित्र होता है!इस चारित्र के धारक के शरीर से जीवो का घात नहीं होता है!इसीलिए इसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहते है ये छठे से नौवे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के होता है!
सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र-अत्यंत सूक्ष्म लोभकषायवश,१०वें गुणस्थान में रहने वाले चारित्र को सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहते है! जैसे मुझे तपस्या के फल स्वरुप मुक्ति ही मिल जाए !
यथाख्यात चारित्र-समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से आत्मा का निर्विकार स्वभाव होना यथाख्यात चारित्र है!इसको अथाख्यात चारित्र भी कहते है क्योकि अथ का अर्थ अनन्तर है और यह समस्त मोहनीय के क्षय अथवा उपशम के अंतर ही होता है !यथाख्यात इसलिए कहते है क्योकि आत्मा के स्वरुप के अनुरूप इस चारित्र का स्वरुप है !
सूत्र में 'इति' पद से सूचित होता है कि यथाख्यात चारित्र में सकल कर्मों के क्षय की पूर्ती हो जाती है!ये ११वे से १४वे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के तथा गुणस्थान रहित सिद्ध परमेष्ठी के होता है !
विशुद्धि लब्धि-सामयिकी चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र की जघन्य विशुद्धि अति अल्प होती है,परिहार विशुद्धि की उससे अनन्तगुणी होती है,इससे उसकी उत्कृष्ट विशुद्धिलब्धिअनन्तगुणी होती है,इससे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र की जघन्य विशुद्धिलब्धि अनंत गुणी होती है,इससे उसकी उत्कृष्य विशुद्धि लब्धि अनन्त गुणी होती है ,इससे यथाख्याचारित्र की विशुद्धिलब्धि अन्नंत गुणी होकर एक समान हो जाती है !विशुद्धि के कारण ही सूत्र में चरित्रों को यथाक्रम रखा है!दस धर्म के अंतर्गत संयम धर्म में चारित्र का अंतर्भाव हो जाता है इसलिए वहां चारित्र को अलग से नहीं रखा!किन्तु समस्त कर्मों का क्षय चारित्र से ही होता है,यह दिखलाने के लिए यहां चारित्र का पृथक रूप से व्याख्यान किया है !
बाह्य तप के भेद -
अनशनावमौर्दयवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशबाह्यंतप:!!१९!!
संधिविच्छेद-अनशन+अवमौर्दय+वृत्तिपरिसंख्यान+रसपरित्याग+विविक्तशय्यासन+कायक्लेश+बाह्यं+तप:
अर्थ-बाह्य तप के अनशन,अवमौर्दय,वृत्तिपरिसंख्यान,रसपरित्याग,विविक्तशय्यासन,कायक्लेश छ भेद है!
भावार्थ-
१-अनशनतप-लौकिक फल; धन-सम्पत्ति,ख्याति,मंत्र सिद्धि आदि की अपेक्षा से रहित, राग द्वेष के उच्छेद, कर्मों के क्षय,ध्यान,संयम की सिद्धि के लिए चार प्रकार के आहार:-खाद्य,पेय,स्वाद्य और चाटय का त्याग करना अनशन तप है!
२-अवमौर्दयतप-राग भाव के लिए तथा स्वाध्याय एवं विचारों की शांति तथा संतोष के लिए भूख से अल्प आहार ग्रहण करना अवमौर्दय तप है !भूख से एक कौर भी कम लेने से इस तप की पूर्ती हो जाती है!
३-वृत्तिपरिसंख्यान तप-भिक्षा ग्रहण करने के लिए जाते हुए मुनिराज कोई आंकडी (विधि)लेकर चलते है ,जिस चौके में वह विधि मिल जाती है तो उस में वे आहार ग्रहण करते है अन्यथा निराहार लौट जाते है !यह तप,भोजन की आशा को रोकने के लिए मुनिराज करते है!जै भगवान से स्वामी,जब आहार लेने के लिए निकले तो उन्होंने बिधि ली, कि " राजकुमारी बेड़ियों से बंधी होगी तब ही आहार लूँगा अन्यथा नहीं" उनके कर्मों के संयोग से ,उन्हें चंदनबाला आहार देने के लिए मिल गई थी ,विधि मिलने पर ही उन्होंने आहार ग्रहण किया!
४-रसपरित्याग तप-इन्द्रियों के दमन और निंद्रा पर विजय एवं सुखपूर्वक स्वाध्याय के लिए इस तपमें मुनिराज १,२,३,४,५,अथवा ६ (घी,दूध,दही,तेल,मीठा,नमक ) रसों का त्याग केर आहार ग्रहण करते है !इन छ रसों में से किसी एक का या करना रस परित्याग तप है!
५-विविक्तशय्यासन तप-ब्रह्मचर्य ,स्वाध्याय एवं ध्यान की सिद्धि के लिए एकांत और पवित्र स्थान पर सोना,आसान लगाकर बैठना विविक्तशय्यासन तप है !
६-कायक्लेश तप -कष्ट सहने के अभ्यास के लिए तथा धर्म की प्रभावना की अभिवृद्धि के लिए ग्रीष्म ऋतू में वृक्ष के नीचे,बैठकर अथवा सर्दियों में खुले मैदान में ध्यान में लीन रहना,किसी पर्वत पर शीला पर में बैठकर ध्यान करना ,ये कायक्लेश तप के अंतर्गत है !
ये तप बाह्य में दीखते है तथा बाह्य द्रव्य भोजन आदि की अपेक्षा किये जाते है इसलिए इन्हे बाह्य तप कहा जाता है !
परिषह और कायक्लेश में अंतर-परिषह स्वयं अपनी मर्ज़ी से आते है जबकि कायक्लेश स्वेच्छा से निमंत्रण देकर किया जाता है !
अभ्यंतर तप के भेद-
प्रायश्चित्तविनयवैय्यावर्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्!!२०!!
संधि विच्छेद-प्रायश्चित्त+विनय+वैय्यावर्त्य+स्वाध्याय+व्युत्सर्ग=ध्यान+अन्युत्तरम्
शब्दार्थ-प्रायश्चित्त विनय वैय्यावर्त्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान अभ्यंतर तप कर भेद ६ है
अर्थ-प्रायश्चित्त,विनय,वैय्यावर्त्य,स्वाध्याय,व्युत्सर्ग और ध्यान छ आभ्यांतर तप है !
भावार्थ-ये अभ्यंतर तप, मन को वश में करने के लिए किये जाते है और बाह्य में दीखते नहीं इसलिए इन्हे आभ्यांतर तप कहते है !इनके छ भेद निम्न है !
१-प्रायश्चित्त तप-प्रमाद अथवा अज्ञानतावश लगे दोषोंके निवारण हेतु,उन दोषों को आचर्यश्री से बताकर , समुचित प्रायश्चित इस तप में लिया जाता है!
२-विनयतप-पूजनीय पुरषों,रत्नत्रय और उनके धारको का यथायोग्य आदर सत्कार करना विनय तप है !
३-वैय्यावर्त्यतप-शरीर अथवा अपने सहधर्मी मुनियों की सेवा करना वैय्याव्रत्य तप है !
४ -स्वाध्यायतप-आलस्य त्याग कर आराधना करना स्वाध्याय तप है
५-व्युत्सर्गतप -बाह्य और अभ्यंतर २४ परिग्रहों का त्यागना व्युत्सर्ग तप है और
६-ध्यानतप-चित्त की चंचलता को नियंत्रित /रोककर उसको किसी एकपदार्थ पर एकाग्रचित कर उसका चिंतवन करना ध्यानतप है !