04-26-2016, 12:00 PM
- आस्रव: निरोध: संवर: !!१!!संधि विच्छेद:-आस्रव:+निरोध:+संवर:शब्दार्थ-आस्रव:-आस्रव का ,निरोध:-रुकना ,संवर:-संवर है अर्थ-आस्रव का निरोध संवर है अर्थात कर्मो का आत्मा में आना आस्रव है और उन कर्मों के आने के कारणों को दूर कर,उन कर्मों का रुक जाना संवर है!
- विशेष:
१-आस्रव के दो भेद;कार्माणवर्गणाओ/पुद्गल परमाणुओं का आत्मा की ऒर आना द्रव्यास्राव है और जिन परिणामों के कारण द्रव्यस्रव होता है वह भावास्रव है!संवर के भी दो भेद ,द्रव्यसंवर और भावसंवर है!कार्माण वर्गणाओ का आत्मा की ऒर आने से रुकना द्रव्यसंवर और आत्मा के जिन परिणामों के कारण द्रव्यसंवर होता है वह भावसंवर है!२-मिथ्यादर्शन के कारण प्रथम गुणस्थान तक,बारह अविरति के कारण चौथे गुणस्थान तक,त्रस अविरति को छोड़कर,शेष ११ अविरति के कारण पाचवे गुणस्थान तक,प्रमाद के कारण छठे गुणस्थान तक,कषाय के कारण दसवें गुणस्थान तक,योग के कारण तेरहवे गुणस्थान तक आस्रव होता है !मिथ्यात्व के कारण पहले गुणस्थान तक आस्रव होता है और उसके बाद के शेष गुणस्थानों में मिथ्यात्व के अभाव में तत संबंधी मिथ्यात्व के कारण पड़ने वाली सोलह प्रकृतियों;मिथ्यात्व,नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति,एकसेचतुरेंद्रिय-४जाति,हुँडकसंस्थान,असंप्राप्तासृपाटिकासहनन,नरकगत्यानुपूर्वी, आतप,स्थावर,सूक्ष्म,अपर्याप्तक,और साधारण शरीर का संवर हो जाता है!३-असंयम के तीन भेद-अनंतानुबंधी,अप्रत्यख्यानवरण,प्रत्याख्यावरण के उदय के निमित्त जिन कर्मों का आस्रव होता है,उनके अभाव में,उन कर्मों का संवर है!जैसे अनंतानुबंधी कषाय के उदय से होने वाले असंयम की मुख्यता से,आस्रव को प्राप्त होने वाली निंद्रानिंद्रा,प्रचलाप्रचला,स्त्यानगृद्धि,अन्नतानुबन्धी (क्रोध,मान,माया,लोभ),स्त्रीवेद,तिर्यंचायु,तिर्यंचगति,चारमध्य के सहनन(वज्रनाराच,नाराच, अर्द्धनाराच औरकीलित),चारसंस्थान(नयोगोध्रपरिमंडल,स्वाति,कुब्जक,वाम),तिर्यंचगत्यानुपूर्वी,उद्योत, अप्रशस्त विहायोगगति,दुर्भाग,दू:स्वर,अनादेय और नीच गोत्र , ये २५ प्रकृतियाँ एकेन्द्रिय से सासादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव के बंधती है,अत:अनंतानुबंधी के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है !४-अप्रत्याख्यान कषायोदय से होने वाले असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाली अप्रत्याख्यान (क्रोध,मान,माया,लोभ),मनुष्यायु,मनुष्यगति,मनुष्यगत्यानुपूर्वी,औदारिकशरीर,औदारिकअंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसहनन,इन दस प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव बंध करते है!अत:अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है!विशेष बात है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुकर्म का बंध नहीं होता !५-प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में होने वाले असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाली प्रत्या ख्यावरण(क्रोध,मान,माया,लोभ),इन चार प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से पंचम गुणस्थान तक के जीव बंध करते है !अत:प्रत्यख्यानावरण के कषायोदय से होने वाले असंयम के अभाव में इनका संवर हो जाता है!प्रमाद के निमित्त से होने वाले कर्मो के आस्रव का संवर,उस प्रमाद के अभाव में छठे गुणस्था के आगे हो जाता है ! ६-ये असातावेदनीय,अरति,शोक,अस्थिर,अशुभ और अयशकीर्ति ,छ प्रकृतियाँ है!देवायु के बंध का आरम्भ प्रमाद और उसके नजदीकी अप्रमाद हेतु भी होता है !अत:इसका अभाव होने पर उसका संवर जानना चाहिए!जिस कर्म का आस्रव मात्र कषाय के निमित्त से होता है,प्रमादादि के निमित्त से नहीं,उसका कषाय के अभाव में संवर ही है!प्रमादादि के आभाव में होने वाली कषाय तीव्र,मध्यम एवं जघन्य,तीन गुणस्थानों में अवस्थित है!उसमे अपूर्वकरण(८वे )गुणस्थान के प्रारम्भिक असंख्येय भाग में निद्रा और प्रचला प्रकृतियाँबंध को प्राप्त होती है!इसके आगे के संख्येय भाग में ३० प्रकृतियाँ-देव गति,पंचेन्द्रियजाति,(वैक्रियिक,आहारक,तेजस,कार्माण)शरीर,(वैक्रयिक,आहारक)अंगोपाग.समचतुर संस्थान(वर्ण,गंध, रस)शरीर,देवगत्यानुपूर्वी,अगुरुलघु,उपघात,परघात,उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोग गति, त्रसबादर,पर्याप्त, प्रत्येक शरीर,स्थिर,शुभ,सुभग,सुस्वर,आदेय,निर्माण और तीर्थंकर बंध को प्राप्त होती है तथा इसी गुणस्थान में हास्य,रति,भय,जुगुप्सा चार प्रकृतियाँ बंध को प्राप्त होती है!ये तीव्र कषाय से आस्रव को प्राप्त होने वाली प्रकृतियाँ है इसलिए तीव्र कषाय का उत्तरोत्तर अभाव होने के कारण विवेक्षित भाग के आगे इनका संवर हो जाता है! ७-अनिवृत्ति बादर सम्प्राय,नौवे गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर उसके संख्यात भागों में पुरुषवेद और संज्वलनक्रोध,दो प्रकृतियों का,इससे आगे शेष संख्यात भागों में संज्वलन मान और माया,दो प्रकृतियों का और उसी के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का बंध होता है!इन प्रकृतियों का आस्रव मध्यम कषाय के निमित्त से होता है,अत:मध्यम कषाय का उत्तरोत्तर अभाव होने के कारण,विवक्षित भागों के आगे इन प्रकृतियों का संवर हो जाता है!मंदकषाय के निमित्त से आस्रव को प्राप्त करने वाली ज्ञानावरण की ५,दर्शनावरण की ४,यश कीर्ति,उच्च गोत्र और अंतराय कर्म की ५ ,कुल १६ प्रकृतियों का बंध जीव सूक्ष्म सम्प्राय १० वे गुणस्थान में करता है!अत: मंद कषाय का अभाव होने पर इनका आगे संवर हो जाता है!
- ८-केवल योग निमित्त से आस्रव को प्राप्त होने वाली सातावेदनीय का उपशांतकषाय(११वेगुणस्थान), क्षीणकषाय(१२वेगुणस्थान)और सयोगकेवली(१३वेगुणस्थान)में जीव के बंध होता है!१४वे गुण स्थान अयोगकेवली में,योग के अभाव में इनका संवर हो जाता है!वास्तव में ११,१२,१३ वे गुण स्थान में जो बंध उपचार से कहा है क्योकि यहाँ ईर्यापथ आस्रव होता है अर्थात एक समय में आत्मा में आने वाले कर्म बिना फल दिए अगले समय में ही चले जाते है !
९-संवर,जीवन में नए दोषों और उन दोषो के कारणों को एकत्रित नहीं होने देने का मार्ग है!संवर होने पर ही संचित दोषों व उनके कारणों का परिमार्जन किया जा सकता है!उसके बाद ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है प्राणी मात्र को अपने कल्याण हेतु आस्रव के कारणों को समझकर उनसे बचकर संवर करना चाहिए संवर उपादेय है !
संवर के उपाय-
सगुप्तिसमिति धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः!!२!!
- संधि विच्छेद:-स+गुप्ति+समिति +धर्म+अनुप्रेक्षा+परीषहजय+चारित्रै:
- शब्दार्थ- स-वह(संवर),गुप्ति,समिति,धर्म,अनुप्रेक्षा,परीषहजय और चारित्र से होता है !
अर्थ:-संवर ३ गुप्तियों-(मन,वचन,काय की प्रवृति रोकना गुप्ति है ),समितियों-(जीवों की हिंसा से बचने के लिए मन,वचन,काय की प्रवृत्तियां (चलना,उठना,बैठना,ग्रहण करना,उठाना-रखना,मोचन आदि) यत्नाचार पूर्वक करना समिति है!समिति के पांच भेद है-ईर्यासमिति,भाषासमिति,ऐषणासमिति,आदाननिक्षेपणसमिति,प्रतिष्ठापन/व्युत्सर्गसमिति! धर्म-जो संसार के दुखों को छुड़ा कर अभीष्ट स्थान,मोक्ष पहुंचा दे,वह धर्म है!धर्म के १० भेद है- उत्तमक्षमा,उत्तममार्दन,उत्तमार्जव,अत्तमस्त्य,उत्तमशौच,उत्तामसंयम,उत्तमतप,उत्तमत्याग,उत्तम आकिंचन,उत्तम ब्रह्मचर्य !अनुप्रेक्षा-संसार,शरीर आदि के स्वरुप का पुन: पुन: चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है,अनुप्रेक्षा के १२ भेद है -अनित्यभावना,अशरणभावना,संसारभावना,एकत्वभावना,अन्यत्वभावना,अशुचिभावना,आस्रवभावना, संवरभावना,निर्जराभावना,लोकभावना,बोधिदुर्लभभावना,धर्मभावना! परीषहजय-क्षुधा,तृषा,ठंड,गर्मी आदि की वेदना होने पर,कर्मों की निर्जरा के लिए,शांति पूर्वक सहना परीषहजय है.इसके २२ भेद है-शुधा,तृषा,शीत, उष्ण,दंशमशक,नग्नता,अरति, स्त्री,चर्या, निषधा, शैया, आक्रोश,वध,याचना,अलाभ,रोग,तृण स्पर्श,मल,सत्कार पुरूस्कार,प्रज्ञा,अज्ञान,अदर्शन !चारित्र- संसार भ्रमण से बचने के लिए ,कर्म बंध योग्य क्रियाओं का त्यागना चारित्र है !इसके ५ भेद है -सामयिक,छेदोपस्थापना,परिहारविशुद्धि,सूक्ष्म सम्प्राय और यथाख्यात भावार्थ-गुप्ति,समिति,धर्म,अनुप्रेक्षा,परीषहजय और चारित्र धारण करने से कर्मों का आस्रव रुकेगा, इन्ही से संवर होगा,जो की सूत्र में 'स' पद से सूचित होता है!इस कथन से तीर्थयात्रा करने,अभिषेक करने ,दीक्षालेने,उपहार स्वरुप शीर्ष अर्पण करने अथवा देवताओं की आराधना आदि करने का निराकरण हो जाता है!मन,वचन काय की प्रवृत्ति के कारण आस्रव होता है,इनकी प्रवृत्ति को रोकने से कर्मों का संवर होता है! उक्त छ: संवर में कारण है
निर्जर-संवर के कारण
तपसानिर्जराच !!३!! संधि विच्छेद-तपसा+निर्जरा+च शब्दार्थ-तपसा -तप से,निर्जरा-कर्मों की निर्जरा भी होती हैं ,च-और संवर भी होता है अर्थ:-तप से निर्जर भी होती है ! भावार्थ-तप से संवर होता है और निर्जर भी होती हैविशेष-यद्यपि तप का अंतर्भाव १० धर्मों में हो जाता है किन्तु तप को अलग से कहने का भाव है की इससे नवीन कर्मों का आना भी रुक जाता है और पूर्व बंधे कर्मों निर्जरा भी होती है तथा तप संवर का मुख्य कारण है !शंका-तप को सांसारिक अभ्युदय का कारण माना है क्योकि उसे देवेन्द्रादि पदों के प्राप्ति का कारण माना है,अत: वह निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है ?समाधान-तप का प्रमुख फल,कर्मों का क्षय ही है और गौण फल सांसारिक अभ्युदय की प्राप्ति है जैसे ,गेहूं की खेती मे प्रधान फल गेहूं उत्पन्न करना है,और गौण फल भूस है!इसी प्रकार तप भी अनेक कार्य करता है!अत:तप अभ्युदय एवं कर्म क्षय ,दोनों का हेतु है ! गुप्ति के लक्षण और भेद- सम्यग्योगनिग्रहोगुप्ति:!!४ !! संधि विच्छेद-सम्यग्योग +निग्रहो+ गुप्ति:शब्दार्थ-सम्यग्योग-भली प्रकार,अर्थात प्रशंन्सा के लिए नहीं ,वाहवाही के लिए नहीं वरन आत्मकल्याण के लिए ,योग - मन,वचन ,काय के की प्रवृत्ति, निग्रहो -को रोकना ,गुप्ति -गुप्ति है! भावार्थ-मन की प्रवृत्ति रोकना मनो गुप्ति.वचन की प्रवृत्ति को रोकना वचन गुप्ति और काय के प्रवृत्ति रोकना काय गुप्ति है!आचार्यों ने यहाँ अशुभ प्रवृत्ति को रोककर शुभ प्रवृत्ति करना भी गुप्ति कहा है!विशेष-योग अर्थात मन,वचन,काय की स्वछन्द प्रवृति का बंद होना निग्रह है सम्यक विशेषण से लौकिक प्रतिष्ठा अथवा विषय सुख की अभिलाषा से मन वचन काय की प्रवृत्ति का निषेध किया है !अर्थात लौकिक प्रतिष्ठा अथवा सुख की वांछा से मन वचन काय की प्रवृत्ति को रोकना गुप्ती नहीं है !अत:जिसमे परिणामों में किसी प्रकार का संक्लेश पैदा नहीं हो,इस रीति से मन वचन काय की स्वेच्छाचारिता को रोकने से,उसके निमित्त से होने वाले कर्मों का आस्रव नहीं होता ,उस गुप्ती के मनोगुप्ति,वचनगुप्ति और काय गुप्ती तीन भेद है ! यद्यपि मुनिराज मन वचन काय की प्रवृत्ति को रोकते है किन्तु उन्हें भी आहार,निहार और विहार के लिए प्रवृत्ति अवश्य करनी पड़ती है ! समिति के भेद -
ईर्या-भाषैषणादान-निक्षेपोत्सर्गाःसमितयः ५
संधि विच्छेद-ईर्या +भाषा+ऐषणा+आदान+निक्षेपण +उत्सर्गा +समितय:अर्थ- ईर्यासमिति,भाषासमिति,ऐषणासमिति,आदाननिक्षेपण समिति और उत्सर्गसमिति ,५ समितियां है !यहाँ भी सम्यक पद की पुनरावृत्ति होती है !! सम्यक ईर्यासमिति -चार-हाथ जमीन देखकर इस भाव से चलना की किसी जीव की हिंसा नहीं हो जाये,ईर्या समिति है !सम्यक भाषासमिति-हित-मित.प्रिय वचन बोलना, भाषा समिति है!सम्यक ऐषणासमिति -४६ दोषों से रहित निरन्तराय आहार ग्रहण करना ऐषणा समिति है!सम्यक आदाननिक्षेपणसमिति-सावधानी पूर्वक,इस भाव से कि किसी जीव की हिंसा नहीं हो जाए वस्तु स्थान से उठाना और पीछी से स्थान साफ़ कर वस्तु रखना, आदाननिक्षेपण समिति है ! सम्यक उत्सर्ग समिति -उत्सर्ग समितिया है - मल,मूत्र ,कफ आदि क्षेपण करने से पहले उस स्थान को पिच्ची से साफ कर जीव रहित करना,उत्सर्ग समिति है! पिच्छी के बिना गमन नहीं करना है अन्यथा समितियों का पालन न हो सकेगा,आज कल पिच्ची को आशीर्वाद देने का उपकरण बना लिया गया है,गलत है ,ऐसे नहीं है,वह तो मुनिराज के पास भूमिस्थान आदि के शोधन हेतु होती है! संयम का उपकरण है!
- धर्म के भेद -
उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्म: !!६!!
- संधि विच्छेद:-
उत्तम+(क्षमा+ मार्दव+आर्जव+शौच+सत्य+संयम +तप+स्त्याग+आकिञ्चन्य +ब्रह्मचर्याणि+धर्म:
शब्दार्थ:-_
उत्तमक्षमा -सम्यग्दर्शन सहित,आत्मकल्याण के लिए क्षमा,क्रोधादि का प्रसंग आने पर रोक देना।क्रोध के निमित्त होने पर भी परिणामों में मलिनता को नियंत्रित कर क्रोधित नही होना !जैसे कोई भिक्षु आहार आदि लेने जाते समय किसी के द्वारा अपशब्द कहने पर (गाली आदि देने पर ),परिणामों में कलुषता नहीं आने दे, उत्तम क्षमा है ! उत्तममार्दव-सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान,उत्तम कुल,उत्तम जाति,रूप,ऐश्वर्य,/ सम्पत्ति आदि होने पर घमंड नहीं करना, मार्दव धर्म है ,मार्दव से अभिप्राय मान/घमंड नही करने से है! उत्तमआर्जाव-सम्यग्दर्शन सहित योगों (मन,वचन,काय) की कुटिलता नहीं होना उनमे सरलता होना /मायाचारी का अभाव होना/छल कपट नहीं करना,उत्तम आर्जव धर्म है उत्तमशौच-सम्यग्दर्शन सहित लोभ का अत्यंत त्यागी होना,चार लोभ-जीवन,निरोगता,इन्द्रियों और योग्य सामग्री का भी लोभ नहीं होना ,उत्तम शौच धर्म है ! उत्तमसत्य -सम्यग्दर्शन सहित झूठ नहीं बोलना अर्थात रागद्वेष पूर्वक असत्य वचन का बोलने का त्यागी होना,हित -मीत वचन बोलना, उत्तम सत्य धर्म है ! उत्तमसंयम-सम्यग्दर्शन सहित,अर्थात ईर्या आदि समितियों का पालन करते हुए प्रवृत्त रहते हुए एकेंद्रिय स्थावर जीव से पंचेन्द्रिय षटकाय जीवों को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं देते हुए उनकी रक्षा करना,प्राणी संयम है !स्वयं का पंचेंद्रियो और मन के विषयों में राग नहीं होना इन्द्रिय संयम है इन दोनों संयम का पालन उत्तम संयम है ! उत्तमतप-सम्यग्दर्शनसहित,अर्थात;अनशन,अवमौर्द्य,रसपरित्याग,वृत्तिपरिसंख्यान,विविक्तशय्या- सन,कायाकलेश,प्रायश्चित,विनय,वैयावृत्य,व्युत्सर्ग और ध्यान,१२ तपों को कर्मों के क्षय के लिए तपना, उत्तम तप है! उत्तमत्याग- सम्यग्दर्शन सहित,चेतन और अचेतन परिग्रहों को/ममत्व को त्यागना ,त्याग है!यह उत्तम त्याग है !संयत के लिए चार प्रकार का दान देना,वस्तुओं से ममत्व छोडना त्याग है ! उत्तमआकिञ्चनय-सम्यग्दर्शन सहित;पर पदार्थों शरीर आदि से ममत्व भाव त्यागना ,पिच्ची,कमंडल से ममत्व छोड़,सिर्फ आत्मा को अपनी मानना ,उत्तम आकिंचन है उत्तमब्रह्मचर्य-सम्यग्दर्शन सहित, स्त्री के साथ पूर्व में भोगे सुखों को स्मरण नहीं करना ,उन की कथा सुनने से विरत होकर और उनके साथ एक ही शैय्या पर नही बैठकर केवल स्वआत्मस्वरुप में लीन रहना,उत्तमब्रह्मचर्य है! धर्म:-ये धर्म है! भावार्थ-उत्तमक्षमा,उत्तममार्द्व ,उत्तमआर्जव,उत्तमशौच,उत्तमसत्य,उत्तमसंयम,उत्तमतप,उत्तम त्याग,उत्तमआकिंचन,उत्तमब्रह्मचर्य ,ये दस धर्म संवर के कारण है ! विशेष-१-इन १० धर्मों से, प्रतिकूल प्रवृत्ति होने से उत्पन्न परिणामो से जो आस्रव होता है,वह इनके अनुरूप प्रवृत्ति होने से ,उत्पन्न परिणामो से रुक जाता है!अर्थात क्षमा धारण करने से क्रोध के द्वारा होने वाले आस्रव का निरोध होता है! २-दसधर्म आत्मा के स्वभाव है,सत्य या शौच को पहले या पीछे रखने से कोई फर्क नहीं पड़ता ,तत्वार्थ सूत्र की परम्परा में पहले शौच है और बाद में सत्य है,दसों धर्म आत्मा में प्रति समय रहने चाहिए !३-'उत्तम' विशेषण का अभिप्राय है की यदि क्षमा आदि किसी लौकिक प्रसिद्धि केप्रयोजन से करी जा रही है तो वह उत्तम क्षमा नहीं है शंका-सत्य धर्म का अंतर्भाव भाषा समिति के अंतर्गत हो जाता है फिर इसमें क्या अंतर है?समाधान-संयमी मनुष्य किसी साधूजनों/असाधुजनों से भी बातचीत करते हुए हितमित वचन ही बोलता है अन्यथा बहुत बातचीत करने से अनर्थदण्ड आदि दोष का भागी होता है,यह भाषा समिति है !
- सत्य धर्म में प्रवृत्त मुनि/सज्जनपुरुष/दीक्षित अपनेके भक्तो में,सत्य वचन बोलता हुआ भी,ज्ञान चारित्र के शिक्षण के निमित्त से बहुविध कर्तव्यों की सूचना देते है!वह ये सब धर्मवृद्धि के अभिप्राय से करता है !इसलिए सत्य धर्म का, भाषासमिति में अंतर्भाव नहीं होता है!अर्थात सत्यधर्म में संयमीजनों को ,श्रावक को ज्ञान चरित्र की शिक्षा देने के उद्देश्य से अधिक बोलना पड़ता है जो की उचित है!
- बारह अनुप्रेक्षाये -
अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव-संवर-निर्जारा-लोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिंतनमनुप्रेक्षा !!७ !!
संधिविच्छेद-अनित्य+अशरण+संसार+ऐकत्व+अन्यत्व+अशुचि+आस्रव+संवर+निर्जारा+लोक+बोधिदुर्लभ+धर्म+ स्वाख्या +तत्त्वानु+चिंतनं +अनुप्रेक्षा
शब्दार्थ-
अनित्य अशरण-संसार एकत्व अन्यत्व अशुचि आस्रव संवर-निर्जारा-लोक+बोधिदुर्लभ धर्म
स्वाख्या -इनका जैसे स्वरुप कहा गया है,तत्त्वानुचिंतन-उसी के अनुसार चिंतवन करना, अनुप्रेक्षा -अनुप्रेक्षा है!
भावार्थ-
अनित्य,अशरण,संसार,एकत्व,अन्यत्व,अशुचि,आस्रव,संवर,लोक,बोधिदुर्लभ और धर्म भावनाओं का जैसे स्वरुप कहा गया है तदानुसार (पुन:पुन चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है !
अनित्यभावना-संसार में इन्द्रिय विषय,धन,सम्पत्ति,यौवन,जीवन,पुत्र,पिता,पत्नि,माँ आदि सब जल के बुलबुले के समान क्षण भंगुर है,इस प्रकार चिंतवन बार बार करने से इनका वियोग होने पर जीव को दुःख नहीं होता क्योकि वह इन्हे नित्य मानकर दुखी होता है.अनित्यभावना/ अनुप्रेक्षा है!वास्तव में आत्मा के दर्शन और ज्ञान उपयोग के स्वभाव के अतिरिक्त कुछ भी ध्रुव नहीं है
अशरणभावना-संसार में धर्म के अतिरिक्त किसी की शरण नहीं है,यहाँ तक की अपने द्वारा पोषित शरीर भी कष्ट में अपना साथ नहीं देता वरन कष्ट का ही कारण होता है,बंधु,मित्र ,रिश्तेदार मृत्यु से रक्षा नहीं कर पाते है!'मै सदा अशरण हूँ',इस भाव के रहने से जीव को संसार के कारण,पर पदार्थों में ममत्व भाव नहीं रख कर अरिहन्त देव द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलने का प्रयास करता है!इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना अशरण भावना है!
संसारभावना-संसार के सभी जीव चतुर्गति में घूमता हुआ,कभी धनवान/निर्धन, स्वयं का ही पुत्र,पत्नी,स्वामी,दास-दासी बनते हुए,सभी दुख भरते है,अत:संसार असार है!इस प्रकार चिंतवन करने से जीव संसार के दुखो से भयभीत रहते हुए,अपने संसार को नष्ट करने में प्रयत्नशील रहता है !इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना संसार भावना/अनुप्रेक्षा है !
एकत्व भावना-जीव संसार में अकेला जन्म लेता है,अकेला मरता है,अपने किये कर्मफल अकेला भोगता है!मेरा कोई अपना नहीं है,इस प्रकार चिंतवन करना एकत्व भावना है !वह विचार करता है मेरा केवल धर्म साथ देने वाला है,ऐसे चिंतवन करने से जीव को स्वजनो के प्रति राग और पर जनो से द्वेष का बंध नहीं !
अन्यत्वभावना-मै अकेला ही आत्मस्वरूप हूँ अन्य शरीर पुत्र,पत्नी,पति आदि मेरा कोई नहीं है,
पर है!शरीर आदि अनित्य,परपदार्थों से अपनी आत्मा को भिन्न,नित्य समझना अन्यत्व भाव ना है!इस भावना से अपने शरीर आदि से भी मोह नहीं रहता है,जिससे तत्वज्ञान की भावपूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होने पर आत्यंतिक मोक्ष सुख के प्राप्ति होती है !
अशुचिभावना-शरीर सप्त धातुओं से निर्मित होने के कारण उसकी अशुचिता/अपवित्रता,जो की किसी भी स्नान करने या,धुप,इत्र आदि लगाने से दूर होना असम्भव है,वह अशुचिता जीव की मात्र,अच्छी भावना द्वारा समयग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त कर आत्यंतिक वि शुद्धि प्रकट कर दूर होती है!इस प्रकार चिंतवन करना वास्तविक अशुचि भावना है!इसप्रकार चिंतवन करने वाले जीव शरीर से विमुक्त होकर मोक्ष मार्ग की ओर प्रयासरत रहते है !
आस्रवभावना-जिन कारणों से कर्म आस्रव होता है उनका पुन:पुन:चिन्तवन करना!आस्रवभाव ना है!आस्रव इहीलोक और परलोक दोनों में दुखदायी है!आस्रव के दोष इन्द्रिय,कषाय और अव्रत रूप है उनमे स्पर्शनादि इन्द्रिय वन गज,कौवा,सर्प,आदि को दुःख रूप समुद्र में अवगाहन करवा ती है,कषायादि भी इस भव में वध,अपयश,क्लेषादिक उत्पन्न करते है तथा परलोक में दुखों से प्रज्वलित नाना गतियों में घूमती है इसप्रकार आसव के कारणों का चिंतन करना आस्रव अनुप्रे क्षा है!
संवर भावना -जिन कारणों से आस्रव रोकता है उनका पुन: चितवन करना,संवरभावना है!जिस प्रकार पानी के जहाज मे छिद्र होने पर,निरन्तर जहाज में पानी के आस्रव से यात्रियों को सागर पार करना असम्भव है उसी प्रकार कर्मों के आस्रव के कारण जीव को संसार सागर पार करना असम्भव है!किन्तु आत्मा में कर्मों का आस्रव रोक दिया जाए/ संवर कर दिया जाए (कर्मों को रोक दिया जाए) तो संसार सागर पार करना उसी प्रकार संभव है जैसे जहाज में छिद्रों को बंद कर,जहाज में पानी का जल आने से रोक देने पर समुद्र पार किया जा सकता है!इस प्रकार संवर के गुणों का चिंतवन करना संवर अनुप्रेक्षा है !
निर्जरा भावना-उन कारणों का चिंतवन करना जिनसे कर्मों की निर्जरा होती है!कर्मों का आत्मा से तप से पृथक होना अविपाक निर्जरा है जो की मोक्ष प्राप्ति में कारण है!इस प्रकार निर्जरा तत्व का चिंतवन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है !
लोकभावना-लोक का चिंतवन जिनेन्द्र भगवान के द्वारा बताये अनुसार करना जैसे,३४३ घन राजू प्रमाण लोक की रचना है इत्यादि का निरंतर चिंतवन करना लोकभावना है!इस प्रकार चिंतवन करने वाले जीव के तत्व ज्ञान की विशुद्धि होती है !
बोधिदुर्लभभावना-रत्नत्रय की प्राप्ति बहुत दुर्लभ है किन्तु मनुष्य पर्याय में प्राप्त करी जा सक ती है,इसलिए मुझे उसमे लगना चाहिए,इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना बोधिदुर्लभभावना है !
धर्म भावना-मिथ्यात्व और कषाय रहित आत्मा के परिणाम ही धर्म है,अरिहंत देव द्वारा कहा धर्म ही मोक्ष का कारण है,यही संसार और परलोक में सुख का कारण है,अत:मुझे धर्म में लगना चाहिए,इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना धर्म भावना है!इस धर्म का लक्षण अहिंसा,आधार-सत्य,मूल-विनय,बल-क्षमा,ब्रह्मचर्य से रक्षित,उसकी उपशम प्रधानता है,नियति लक्षण है!परि ग्रह रहित होना उसका अवलंबन है!इसके अभाव में जीव भ्रमण करता है!किन्तु इस्का लाभ होने पर नाना प्रकार के अभ्युदय पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है!इस प्रकार निरंतर चिंतवन करना धर्म अनुप्रेक्षा है !
उक्त बारह भावनाओ का आगमानुसार चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है !
संवेग वैराग्य भाव के लिए इन १२ भावनाओ का चिंतवन हम सबको प्रात; काल में उठकर करना चाहिए !
- परीषह सहना -
मार्गाच्यवननिर्जरार्थपरिषोढव्याःपरीषहा:!८! संधि विच्छेद-मार्ग+अच्यवन+निर्जरार्थ+परिषोढव्याः+परीषहा: शब्दार्थ-मार्ग-मार्ग (संवर मार्ग से ),अच्यवन-अच्युत होने के लिए,निर्जरार्थ-कर्मों की निर्जरा के लिए परिषोढव्याः-जो सहने योग्य है, परीषहा-परीषह कहते है ! अर्थ-मार्ग से च्युत नहीं होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए जो सहने योग्य है उसे परिषह:कहते है भावार्थ- संवर का प्रसंग होने के कारण, संवर के मार्ग(लेना चाहिए) से च्युत नहीं होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए सहने योग्य को,परीषहों कहते है !विशेष-जिनेन्द्र भगवान द्वारा सहने योग्य क्षुधा,तृषा,शीट,उष्ण,दंशमंडक,अरति आदि परीषहों के २२ भेद अगले सूत्र में बताये गए है! संवर से च्युत नहीं होकर कर्मों की निर्जरा के लिए आवश्यक है !यदि परीषह सहने का अभ्यास नहीं होगा तो मुनिराज के महाव्रतों का पालन,साधना आदि भली भांति नहीं हो पायेगी !जैसे मान लीजिये किसी दिन मुनिराज को आहार नहीं मिला और क्षुधा.तृषा आदि परीषह सहने का अभ्यास नहीं है तो साधना,तप समायिकी,ध्यान आदि में एकाग्रचित हो कर बैठ नहीं पायेगे क्योकि भूख और प्यास के कारण मन बार २ विचलित होगा,साधना में विघ्न पड़ेगा!
परीषहों के भेद - क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंतमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषध्याशय्याक्रोश वधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरुस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ९ संधि विच्छेद -क्षुत+पिपासा शीत+उष्ण+दंतमशक+नाग्न्य+ अरति+स्त्री+चर्या+निषध्या+शय्या +आक्रोश +वध +याचना +लाभ +रोग + तृणस्पर्श+मल+सत्कारपुरुस्कार+प्रज्ञा+अज्ञान भ+अदर्शनानि