प्रतिष्ठाचार्य ब्र. सूरजमल जैन
★ गीता-छन्द ★
कल्पान्त काल प्रचंड वायु वेग से जब चलत है | कांपे सुभूधर वृक्ष टूटे नीर निधि भी हलत है ||
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है ||१७||
ॐ ह्रीं प्रचंड पवनोद्भवोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||१७ ॥
बीच सागर पतित नौका, फूटते जल आय है । शक्ति नहीं है तैरने की, आश जीवन जाय है ।।
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है|
ॐ ह्रीं नौका स्फुटित पतनोद्भवोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||१८||
घनघोर जंगल पर्वतों में भूल से फँस जाय है । व्याघ्र सिंह क्रूर चीता, आय कर डरपाय है ||
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं वननगमेदिनी भयंकरोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||१९||
नदिया सरोवर कूप वापि, मध्य उदधि जाय है । डूबते जल बीच में ही, पूर्ण जिन्दगी न पाय है ||
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं श्री नदी सरोवराधि कूपह्रदोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२०||
घनघोर गर्जे मेघ जब पानी पड़े बहु जोर से । चारों तरफ से बिजली कड़के, लगत भय चहुं ओर से । श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं श्री विद्युत्तापातादि मीमांबु वृष्टयुपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२१||
महा भयंकर युद्ध होवे, काटते सिर को जहाँ । शत्रु के वश हो गयो, निकसत नहीं पाये तहाँ ||
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं संग्रामस्थलादिनिकटोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२२||
पितृबन में नाचते डाकिन पिशाची क्रूर हो शाकिनी का महा उपद्रव देख सके नहीं सूर हो |
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं शाकिनी डाकिनी भूतप्रेत पिशाचादि भय निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२३||
मोहनीय स्तंभ विद्या नाम उच्चाटन कहे । इन कुविद्या वश में होवे मूढ़ जीवन को दहे ।।
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं मोहनथमनोच्चाटन प्रमुखदुष्टविद्योपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२४||
दुष्ट ग्रह अरु कर्मोदय से वेदना बहु पाय है । शमन करने हेतु सोचे पर नहीं वह जाय है ।।
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं दुष्टग्रहाद्युपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २५ ॥
चारों तरफ ही सांकलों से हाथ पैरों बांधिया । घाव होवे श्रृंखलों से दुक्ख जो जन पाइया ||
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं श्रृंखलाद्युपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२६||
अल्प आयु मरण होवे कष्ट पाते हैं सदा । मन निरंतर विकलता से रहत जिससे सुख विदा ॥
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं अल्पमृत्युपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२७|
बहु वृष्टि होवे अनावृष्टि शीत से जल जाय है । खेत में नहीं धान होवे कर्म से दुख पाय है ।।
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं दुर्भिक्षोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२८||
व्यापार के कारण सदा ही यत्र तत्र भ्रम रहा । पर लाभ हुआ है नहीं जिससे अति ही दुख सहा ।
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं व्यापारवृद्धिरहितोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||२९||
जनक माता भाई बन्धु पुत्र प्यारा है घना पर पाप कर्म उदय आवे हो विरोधी ये जना ।।
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं बन्धुत्वोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||३०||
जिसके न होवे पुत्र तिरिया वंश में कोई नहीं । होय आकुलता उसी से कष्ट भी पावे सही ||
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं अकुटुम्भोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||३१||
पाप कर्मोदय से प्राणी अयश पावे लोक में । नहीं दिखावे मुँह किसी को रात दिन हो शोक में ।।
श्री शान्तिनाथ जिनेश के पद कमल को नित ध्याय है । नाश होवे महा उपद्रव अन्त शिवपुर जाय है |
ॐ ह्रीं अपकीर्त्युपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||३२||
दोहा-
गुण अनन्त प्रभु राजते, कैसे गाऊँ नाथ | शक्ति दो प्रभु जी हमें गायें गुण हरषात ॥
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