उर्ध्व लोक का वर्णन
देवों के भेद
देवाश्चतुर्णिकाया: !!१!!
संधि विच्छेद -देवा:+चतुर्णिकाया:
शब्दार्थ :-देवा:-देव ,चतुर्णिकाया-चार निकाय के होते है
अर्थ-देवों के चार निकाय /भेद ;भवनवासी,व्यंतर,ज्योतिष्क और वैमानिक है !
भावार्थ -देवगति नामकर्म के उदय से देवगति में उत्पन्न होकर नाना द्वीप,समुद्रों और पर्वत आदि रमणीय स्थानो पर क्रीड़ा करते है उन्हें देव कहते है उन देवों के चार भेद ;भवनवासी,व्यंतर,ज्योतिष्क और वैमानिक है!
विशेष –
उर्ध्व लोक-अनादिनिधन त्रिलोक में मृदंग और तबले के आकार के,जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र के उत्तर और देवकुरु क्षेत्र में स्थित १०००४० महायोजन ऊँचे सुदर्शन समेंरू पर्वत की चूलिका से १ बाल के अंतराल से ७ राजू ऊँचे उर्ध्व लोक में वैमानिक देवो में इंद्र,देव सोलवे स्वर्ग,तक और उसके ऊपर नव ग्रैयविक,नव अनुदिशों और पांच अनुत्तरों में अहमिन्द्र निरंतर सांसारिक सुखों को भोगते है!सिद्ध शिला के ऊपर तनुवातवलय से शीर्ष स्पर्श करते हुए ५२५ धनुष मोटे और ४५ लाख योजन विस्तार वाले सिद्धालय में अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी अनंत चतुष्कक सहित आनंदपूर्वक अनंत कल तक विराजमान है!
भवनत्रिक देवों के लेश्या का विभाग –
आदितस्त्रिषुपीतान्तलेश्या:!!२!!
संधि विच्छेद -आदितस्+त्रिषु+ पीत+अंत + लेश्या:!!
शब्दार्थ-आदित पहले के, त्रषु-तीनों निकाय के,पीत+अंत-पीत तक,लेश्या:-लेश्याए होती है !
अर्थ-पहले के तीन निकायों के देवो की पीत लेश्या तक अर्थात कृष्ण,नील ,कापोत और पीत चारों लेश्याए होती है !
भावार्थ-आदि के तीन अर्थात भवनवासी,व्यंतर और ज्योतिष्क देवों के कृष्ण,नील,कापोत और पीत चार लेश्याए होती है!
विशेष-तीनों भवनत्रिक;भवनवासी,व्यंतर और ज्योतिष्क देवों की पर्याप्त अवस्था में सदा एक ही पीत लेश्या पायी जाती है!किन्तु नियम है कि कृष्ण,नील और कापोत लेश्या के मध्यमअंश के साथ मरे हुए कर्मभूमियाँ मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंच तथा पीत लेश्या के मध्यमअंश से मरे भोगभूमियाँ मिथ्यादृष्टि भवनत्रिक में उत्पन्न होते है,इसीलिए इनकी अपर्याप्त(विग्रहगति में निर्वतपर्याप्तक अवस्था की अपेक्षा) अवस्था में कृष्ण,नील और कापोत लेश्या होती है इसके अतिरिक्त इनकी पीत लेश्या ही होती है !इसीलिये यहाँ भवनत्रिको की चार लेश्याए बताई है !
निष्कर्ष-यहाँ भाव लेश्या की अपेक्षा वर्णन है द्रव्य लेश्या तो पीत ही होती है!कोई जीव मरण कर देवगति में गमन करता है तो अपर्याप्त अवस्था में देवों की वही लेश्या होती है जिसमे मरण हुआ है!परन्तु पर्याप्त अवस्था में सिर्फ पीत लेश्या होती है!
चार निकायों के देवों के प्रभेद-
दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पा:कल्पोपपन्न पर्यन्ता: !!३!!
संधि विच्छेद:-दश+अष्ट+पञ्च+द्वादश+विकल्पा:+कल्पोपपन्न+पर्यन्ता:
शब्दार्थ-
दश-दस,अष्ट-आठ,पञ्च-पांच,द्वादश-बारह,विकल्पा:-भेद से,कल्पोपपन्न-सोलहवे स्वर्ग ,पर्यन्ता:-तक
अर्थ-कल्पोपपन्न अर्थात १६ वे स्वर्ग तक देवों के क्रमश: दस, आठ,पांच और १२ भेद है!
भावार्थ- भवनवासी-दस,व्यतर-आठ,ज्योतिष्क-५ और वैमानिक देवों के (सोलहवे स्वर्ग तक) बारह भेद है!
शंका -१६वे स्वर्ग तक इन्द्रों की अपेक्षा बारह भेद कैसे होते है ?
समाधान- वैमानिक देवों के दो भेद है!
कल्पोपन्न-सोलहवे स्वर्ग तक उत्पन्न होने वाले देव और
कल्पातीत-सोलहवे स्वर्ग से ऊपर नव ग्रैवियक,अनुदिशो और पांच अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाले देव !
पहले के चार स्वर्गों और अंतिम के चार स्वर्गों में एक एक इंद्र होते है ,मध्य के आठ स्वर्गों में दो-दो स्वर्गों में एक-एक इंद्र होते है!इस प्रकार १६ स्वर्गों में बारह इन्द्रो की व्यवस्था है !१६ स्वर्गों में बारह ही प्रतीन्द्र है!
देवों के निकायोँ में सामान्य भेद –
इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विष्काश्चैकश:-!!४!!
संधि-विच्छेद-इन्द्र+सामानिक+त्रायस्त्रिंश+पारिषत्+आत्मरक्ष+लोकपाल+अनीक+प्रकीर्णक+आभियोग्य+किल्विष्का:+च+ एकश:-
शब्दार्थ
इन्द्र-इन्द्र,सामानिक-सामानिक,त्रायस्त्रिंश-त्रायस्त्रिंश,पारिषत्-पारिषद्,आत्मरक्ष-आत्मरक्ष,लोकपाल-लोक पाल,अनीक-अनिक,प्रकीर्णक-प्रकीर्णक,आभियोग्य-आभियोग्य,किल्विष्का:-किल्विषक,च+और,एकश:-प्रत्येक के !
अर्थ-उक्त चारों निकाय के देवों में,प्रत्येक के इंद्र,सामानिक,त्रायस्त्रिंश,पारिषद्,आत्मरक्ष,लोकपाल,अनिक, प्रकीर्णक,आभियोग्य,किल्विषिक दस दस भेद होते है!
भावार्थ-
१-इंद्र-अन्य देवों से भिन्न,अणिमादि ऋद्धियों के धारक एवं परमैश्वर्य को प्राप्त देवों के स्वामी को इंद्र कहते है !
२-सामानिक-आयु,शक्ति,परिवार,भोगोपभोग की अपेक्षा इंद्र के सामान किन्तु आज्ञा देने रूप ऐश्वर्य से रहित देवों सामानिक देव कहते है !
३-त्रायस्त्रिंश-आदर और सत्कार की अपेक्षा से जो ३३ देव पिता,मंत्री,पुरोहित या गुरु के तुल्य होते है उन्हें त्राय स्त्रिंश देव कहते है!
४-पारिषद्-इन्द्रों की सभा के सदस्य देवों को पारिषद् देव कहते है !
५-आत्मरक्ष-अंगरक्षक के समान रक्षा करने वाले देवों को आत्मरक्ष देव कहते है !
६-लोकपाल-कोतवाल के समान देवों को लोकपाल कहते है!
७-अनिक-पैदल आदि सात प्रकार की सेना में विभक्त देवों को अनिक देव कहते है!
८-प्रकीर्णक-नगर वासियों के तुल्य , निवासी जनता को प्रकीर्णक देव कहते है !
९-आभियोग्य-जो देव हत्थे,घोडा आदि विक्रिया कर देवों के रथ आदि को खींचते है वे आभियोग्य देव है ,जैसे जो देव ऐरावत हाथी बनते है वे आभियोग्य जाति के देव होते है !
१०-किल्विषिक-चांडालादि की भांति अस्पर्शीनीय,पापी देवों को किल्विषिक देव कहते है !
इनमे इंद्र ऐश्वर्य के द्योतक है!
व्यंतर और ज्योतिष्क देवों में दस से कम अर्थात आठ भेद होते है –
त्रायस्त्रिंशलोकपालवर्ज्याव्यन्तरज्योतिषिका: !!५!!
संधि विच्छेद-त्रायस्त्रिंश+लोकपाल+वर्ज्या+व्यन्तर+ज्योतिषिका:
शब्दार्थ-त्रायस्त्रिंश-त्रायस्त्रिंश,लोकपाल-लोकपाल,वर्ज्या-वर्जित है(नही होते),व्यन्तर-व्यन्तर,ज्योतिषिका: -ज्योतिष्क में !
भावार्थ-उक्त सूत्र ४ में, देवों के सामन्य १० भेद कहे किन्तु व्यंतर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते इन दो के अतिरिक्त आठ ही भेद होते है !
विशेष –
त्रायस्त्रिंश और लोकपाल पद हेतु देवों में, विशेष पुण्य के अभाव में,यथायोग्य विशेष गुणों के उत्पन्न नही होने से व्यंतर/ज्योतिष्कदेवों में उनका सर्वथा अभाव होता है!(सदर्भ-श्लोकवार्तकि विरचित आ,विद्यानन्द जी)
देवों में इन्द्रों की व्यवस्था –
पूर्वयोर्द्वीन्द्रा:-!!६!!
संधि विच्छेद-पूर्वयो :+द्वी +इंद्रा:-
शब्दार्थ -पूर्वयो:-पूर्व के दो निकायों अर्थात भवनवासी और व्यन्तर देवों में, द्वी-दो-दो इंद्रा:-इंद्र होते है
अर्थ-पूर्व के दो;भवनवासी और व्यन्तर देवों में दो-दो इंद्र होते है !
विशेषार्थ-
१-भवनवासी में १० भेदो में २० इंद्र और व्यन्तर के आठ भेदो में सोलह इंद्र होते है इतने ही प्रतीन्द्र होते है!
भवनवासी में असुरकुमार जाति के चामर और वैरोचन ,नाग कुमार के धरणानन्द -भूतानन्द,विद्युतकुमार के सुघोष-महाघोष ,सुपर्णकुमार के वेणु-वेणुधारी ,अग्निकुमार के अग्निशिख-अग्निवाहन,वाट कुमार के वैलम्ब-प्रभंजन,स्तनितकुमार के हरिषेण-हरिकांता,उद्विकुमार के जलप्रभ-जलकांत,द्वीपकुमार के पूर्ण-पूर्ण विशिष्ठ ,दिक्कुमार के अमितगति-अमित वाहन, ये कुल २० इंद्र भवनवासी के है !इसी प्रकार व्यंतर देवों के १६ इंद्र है
२-किसी एक निकाय में एक इंद्र का होना विशेष पुण्य का सूचक है किन्तु इन दो निकायों के देव इस विशेष पुण्य से रहित होते है इसलिए इनमे,दोनों इन्द्रो के मध्यस्थ सब कुछ ऐश्वर्य,सुखादि विभाजित होकर बट जाता है !
३- पूर्वयो द्विवचन में है इसलिए पूर्व के दो निकाय भवनवासी और वयंतर देवों को ग्रहण किया गया है
देवों में कामसेवन की विधि-
कायप्रवीचाराआऐशानात् !!७!!
संधि विच्छेद -काय+प्रवीचारा+आ+ऐशानात्
शब्दार्थ-काय-शरीर द्वारा ,प्रवीचारा-काम सेवन,आ-पर्यन्त ,ऐशानात् -ऐशान स्वर्ग
अर्थ-ऐशान स्वर्ग के देव काय से काम सेवन करते है !
भावार्थ-भवनवासी,व्यंतर,ज्योतिष्क और ऐशान स्वर्ग तक के देव अपनी अपनी देवियों के साथ मनुष्य एवं तिर्यन्चों के समान शरीर से काम सेवन (मैथुन) करते है !
शंका-वैक्रयिकशरीर में सप्त धातुओं का अभाव होता है फिर मनुष्यों/तिर्यन्चों की भांति कामसेवन कैसे संभव है?
समाधान-उनके शरीर में धातु के अभाव में भी मनुष्यवत् क्रियाएँ होती है जिनसे उन्हें मनुष्यवत् काम सुख की अनुभूति होती है !देवों का वैक्रयिक शरीर धातु रहित होता है!
नोट – किसी भी शास्त्र जी में नहीं लिखा है की वैक्रयिक शरीर में धातु होती ही नहीं बल्कि आचार्यों ने तो लिखा ही कि नारकियों के शरीर सड़े रुधिर मांस आदि से निर्मित होता है!(सदर्भ रतनलाल जैन बैनाड़ा जी पाठशाला )!
माघ शुक्ल नवमी ,१६ -२-१६
शेष स्वर्गों में कामसेवन की रीति –
शेषा:स्पर्शरूपशब्दमन:प्रवीचारा: !!८!!
संधि विच्छेद -शेषा:+स्पर्श+ रूप+ शब्द+ मन:+ प्रवीचारा:
शब्दार्थ -शेषा:-शेष,स्पर्श-स्पर्श, रूप -रूप,शब्द-शब्द , मन:-मन,प्रवीचारा-काम सेवन कर लेते है !
अर्थ-दुसरे ऐशान्त स्वर्ग से ऊपर के स्वर्गों में क्रमश:देव;
१-देवियों के स्पर्श मात्र से,
२-उनके मात्र रूप अवलोकन कर
३-उनके शब्दों मात्र को सुनने से और
४- उनका मन में मात्र चिंतन करने से कामसेवन करते है !
भावार्थ १-तीसरे-सनत्कुमार और चौथे-माहेंद्र स्वर्ग के देव,अपनी अपनी देवियों के आलिंगन मात्र से,
२-पांचवे-ब्रह्म,छठे-,ब्रह्मोत्तर,सातवे-लान्तिव और आठवें-कापिष्ट स्वर्गों के देव अपनी अपनी देवियों का मात्र रूप देख कर ,
३-नौवे-शुक्र,१०-महाशुक्र,११वे-शातार और १२-सहस्रार स्वर्गों के देव अपनी अपनी देवियों के मात्र शब्द सुन कर और
४-१३वे-आनत,१४वे-प्राणत,१५वे आरणव,और १६वे अच्युत स्वर्ग के देव अपनी अपनी देवियों का मात्र मन में
चिंतन कर प्रवीचार से ही तृप्त हो जाते है !
विशेष-
१-देवियाँ प्रथम दो स्वर्गों में ही उत्पन्न होती है!पहले स्वर्ग में पहिले,विषम संख्या के तथा दुसरे स्वर्ग मेंसम संख्या के स्वर्ग के देवों की देवियों उत्पन्न होती है!अपने अपने स्वर्गों में अपनी अपनी देवियों की उत्पत्ति का अवधि ज्ञान द्वारा पता लगने पर उन्हें देव आकर अपने अपने स्वर्गो में ले जाते है !
२-भवनवासी,व्यंतर,और ज्योतिष्क देवों की देवियों उनके भवनों/विमानों में ही उत्पन्न होती है !
कल्पातीत देवों में प्रवीचार का निषेध
परेऽप्रवीचाराः॥९॥
संधि विच्छेद-परे+अप्रवीचाराः
शब्दार्थ-परे- वहां से आगे(सोलहवे स्वर्ग से ऊपर) ,अप्रवीचाराः-कामसेवन नहीं है
अर्थ:-सोलहवे स्वर्ग से ऊपर अर्थात ९ ग्रैवियक,९अनुदिशों और ५ अनुत्तरों के कल्पातीत देवों में काम सेवन नहीं होता है !
भावार्थ-१६ वे स्वर्ग से ऊपर ९ ग्रैवियक,९ अनुदिशों और ५ अनुत्तरों के देवों में काम सेवन नहीं होता है क्योकि कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता,वहां देवियाँ ही नहीं होती है इसलिए इच्छा ही नहीं होती !
विशेष-
१-ब्रह्मलोक के ब्रह्मऋषि;लौकांतिक देवों के भी काम प्रवीचार नहीं होता है उनके निकट भी देवियों का प्रवेश निषेध है !पुरुषवेद का उदय नौवे गुणस्थान के मध्य तक रहता है किन्तु इन जीवों में उसका मंद उदय होने से उसके निराकरण की इन्हे आवश्यकता ही नहीं होती है!
भवनवासिनोऽसुरनाग-विद्यत् सुपर्णाग्नि वात स्तनितोदधि द्वीप दिक्कुमारा: !!१०!!
सन्धि विच्छेद –
भवनवासिन:+असुर+नाग+विद्यत्+सुपर्ण+अग्नि+वात+स्तनित+उदधि+ द्वीप+ दिक्कुमारा:
शब्दार्थ-
भवनवासिन:-भवनवासी देवों के,असुर,नाग,विद्यत्,सुपर्ण,अग्नि,वात,स्तनित,उदधि, द्वीप और दिक्कुमारा:
अर्थ:-भवनवासी देवों के,असुरकुमार ,नागकुमार,विद्यत्कुमार,सुपर्णकुमार,अग्निकुमार,वातकुमार,स्तनितकुमार,उदधि, उदधिकुमार ,द्वीप कुमार और दिक्कुमारा ,दस भेद है!
विशेष :-
१-इनकी वेश भूषा,शस्त्र,यान,वाहन,क्रीड़ादि कुमारों की भांति होती है तथा आयु पर्यन्त स्वभाव से अवस्थित है इसलिए सभी भवनवासी को कुमार कहते है !
२-ये देव,अधोलोक में रत्नमणियों से मंडित ७ करोड़ ७२ लाख भवनो में उत्पन्न होकर रहते है,इसलिए इन्हे भवनवासी देव कहते है!प्रत्येक भवन में एक-एक अकृत्रिम जिनचैत्यालय है,अधोलोक में कुल ७ करोड़ ७२ लाख जिनचैत्यालय है,प्रत्येक में १०८ रत्नों से जड़ित भव्य,अति सुंदर,मनोहर अकृत्रिम जिन बिम्ब विराज मान है !
३-रत्न प्रभा पृथ्वी के प्रथम खर भाग में ऊपर और नीचे के १००० योजन मोटे भाग छोड़कर;शेष १४००० योजन में असुर कुमार के अतिरिक्त;नौ प्रकार के भवनवासियों के भवन में जन्म होता है ! और व्यंतर देव ऊपर और नीचे के १०००-१००० योजन के भाग में ऊपर नीचे के १००-१०० योजन छोड़कर अर्थात ८०० योजन भाग में राक्षस के अतिरिक्त शेष ७ व्यंतरदेव जन्म लेकर वहां के भवनो में रहते है!
असुर कुमार -भवनवासी और राक्षस जाति – के व्यंतर देव ८४००० योजन मोटे पंकभाग में स्थित भवनों में जन्म लेकर वही रहते है!असुर कुमार प्रथम से तीसरे नरकों तक जाकर वहां के नारकियों को लड़वाकर आनंदित होते है!
इसके अतिरिक्त व्यंतर देवों के निवास मध्यलोक में ,पहाड़ों,नदियों,तालाबों आदि विविध स्थानों पर भी है! इनके भवनो को जमीन के अंदर भवन ,उसके ऊपर भवनपुर,और पहाड़ो के ऊपर आवास कहते है !
४–भवनवासी देवों;असुरकुमार,नागकुमार,विद्यत्कुमार,सुपर्णकुमार,अग्निकुमार,वातकुमार,स्तनितकुमार,
उदधिकुमार,द्वीपकुमार और दिक्कुमार के मुकट पर क्रमश:चूड़ामणि,सर्प,गरुड़,हाथी,मगर,घड़ा,वज्र,सिह, कलश,अश्व के चिन्ह होते है !
५-असुरकुमार देव की २५ धनुष और शेष भवनवासी और व्यंतर देवों की उचाई१० धनुष होती है !
व्यंतर देवों के भेद –
व्यन्तरा:किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचा: !!११!!
संधि विच्छेद-
व्यन्तरा:+किन्नर+किम्पुरुष +महोरग +गन्धर्व+ यक्ष+राक्षस+भूत+पिशाचा:
शब्दार्थ –
व्यन्तरा:-व्यन्तर देवों के,किन्नर,किम्पुरुष,महोरग,गन्धर्व,यक्ष,राक्षस,भूत और पिशाच,आठ भेद है
अर्थ:-व्यन्तर देवों के,किन्नर,किम्पुरुष,महोरग,गन्धर्व,यक्ष,राक्षस,भूत और पिशाच,आठ भेद है !
विशेष –
१-जो देव निरंतर भ्रमण करते हुए यत्र तत्र विचरण में लीन रहते है उन्हें व्यंतर देव कहते है !ये पवित्र वैक्रयिक शरीर के धारक होते है कभी भी औदारिक शरीर वाले मनुष्यो न का ग्रहण नही करते !कभी मांसाहार नही करते !मानस आहार करते है !
2 -व्यंतर देवों के असंख्यात भवन है,प्रत्येक भवन में अकृत्रिम जिन चैत्यालय है,अत: व्यंतर देवों के असंख्यात अकृत्रिम जिनचैत्यालय है,प्रत्येक जिन चैत्यालय में १०८ जिन विराजमान है !
४-भूत-पिशाच आदि देव पूर्वभव के बैर के वशीभूत किसी मनुष्यों को परेशान करने में सामर्थ्यवान होते है !तदानुसार वे उन्हें अपने अच्छे बुरे प्रभाव से प्रभावित कर सकते है,वातावरण को प्रभावित कर सकते है!किन्तु वर्तमान में जो धारणा है की किसी को ऊपरा हो गया,यह वास्तव में मानसिक तनाव के कारण कुछ लोग पागल से हो जाते है!व्यंतरदेव अपनी इच्छानुसार चमत्कार दिखा सकते है,किन्तु ये सभी पूर्व कर्म जनित है अन्यथा किसी को वे क्यों परेशान करेंगे?
ज्योतिष्क देव के भेद –
ज्योतिष्का:सूर्या चद्रमसौ ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारकाश्च: !!१२!!
संधिविच्छेद :-ज्योतिष्का:+सूर्या +चद्रमसौ ग्रह +नक्षत्र +प्रकीर्णक +तारका:+च
शब्दार्थ -ज्योतिष्का:-ज्योतिष्क देव सूर्या,चद्रमा,ग्रह,नक्षत्र,प्रकीर्णक -फैले हुए,तारका:-तारे +च -और
अर्थ -पांच ज्योतिष्क देव सूर्य,चन्द्रमा,गृह,नक्षत्र और फैले हुए तारे है !
विशेषार्थ-
१-पांचों ज्योतिष्क देव ज्योति स्वभाव अर्थात प्रकाशमान है इसीलिए इन्हे ज्योतिष्क कहा है !
२-सूत्र में,सूर्य-प्रतीन्द्र और चद्रमा-इन्द्र का ,गृह नक्षत्र और तारों से अधिक प्रभावशाली दर्शाने के उद्देश्य से एक साथ रखाहै!इन पांचो ज्योतिष्क देवों के प्रकाशवान चमकते सूर्यों,चंद्रमाओं,ग्रहों ,नक्षत्रों और तारो के ज्योतिमान असंख्यातविमान है !
३-सभी ज्योतिष्क देव के विमान मध्य लोक मेंचित्रा पृथिवी की सतह से ७९० महायोजन से ९०० महायोजन की ऊंचाई के मध्यस्थ है; ७९० महायोजन ऊंचाई -तारे,८००महायोजन ऊंचाई-सूर्य,८८० महायोजन ऊंचाई-चन्द्रमा,८८४ महायोजन-नक्षत्र,८८८ महायोजनऊंचाई-बुध,८९१महायोजन ऊंचाई-शुक्र,८९४महायोजन ऊंचाई-गुरु,८९७महायोजन ऊंचाई- मंगल और ९०० महायोजन ऊंचाई-शनि केविमान है !अर्थात ११० महा योजन मोटे आकाश क्षेत्र में है इन ज्योतिष्क देवों के विमान सुदर्शन समेरू पर्वत की ११२१ योजन दूर रहते हुए निरंतर अपनी अपनी गति से परिक्रमा करते है!ये ज्योतिष्क देव लोकांत तक असंख्यात द्वीप समुद्र तक है!ढाई द्वीप से आगे स्वयंभूरमण समुद्र तक के देव अवस्थित है अर्थात गमन नहीं करते है
४-प्रत्येक विमान में संख्यात ज्योतिष्क देव रहते है ,प्रत्येक विमान में एक एक अकृत्रिम जिनालय है इस अपेक्षा से मध्यलोक में असंख्यात अकृत्रिम जिंनालय है !
५-गृह /नक्षत्र चमकते हुए ज्योतिष्क देवों के विमान के नाम है,इसलिए यह हमे सुखी/ दुखी कर प्रभावित करने में सक्षम नही है!सुख दुःख जीव को अपने कर्मानुसार सातावेदनीय / असाता वेदनीय कर्म के उदय से मिलते है!ज्योतिष्क विद्या में प्रवीण ज्योतिष इन ज्योतिष्क विमान के गमन के आधार पर जीवों के भविष्य की सही भविष्यवाणी कर सकते है किन्तु उनका यह कहना की गृह/नक्षत्र हमारे सुख /दुःख के कारण है सर्वथा गलत है !
६-आजकल मंदिरों में अनेक स्थानो पर शनिवार को मुनिसुव्रत भगवान की पूजा -शनिग्रह के प्रकोप के निवारण लिए,पार्श्वनाथ भगवान की पूजा संकटों के निवारण के लिए,शांतिनाथ भगवान की पूजा शांति प्रदान करने के लिए करी जाने लगी है;जो कि सर्वथा मिथ्यात्व के बंध का कारण है क्योकि आगमानुसार सिद्धालय में विराजमान सभी सिद्ध आत्माए,शक्ति की अपेक्षा समान है,जो कार्य मुनिसुव्रत भगवान/शांतिनाथभगवान/पार्श्वनाथ भगवान कर सकते है,वह अन्यसिद्ध भगवान भी कर सकते है !दूसरी बात सिद्ध भगवान/आत्माए वीतरागी,सिद्धालय में अनंतकाल के लिए अनंतचतुष्क सहित स्व आत्मा में \लीन है,वे किसी भी प्राणी के सुख /दुःख में कुछ नही कर सकते है और नहीं करते है!इतना अवश्य होता है कि किसी भी भगवान की पूजादि करने से जीव के अशुभकर्मों का आस्रव बंध कम और शुभ आस्रव/बंध अधिक होता है और असातावेदनीय कर्म का संक्रमण भी सातावेदनीय कर्म में होता है ,इस कारण सांसारिक सुखो की अनुभूति पूजादि धार्मिक अनुष्ठानो से स्वत:जीव के पुण्य का अनुभाग बढ़ने से होती है!
६-भवनत्रिक देवों में सबसे कम भवनवासी देव है,उनसे अधिक व्यन्तर और सर्वाधिक ज्योतिष्क देव है !
७-जम्बूद्वीपमें २ सूर्य २ चन्द्रमा,लवण समुद्र में ४ सूर्य ४ चन्द्रमा,धातकीखंड में १२ सूर्य १२ चन्द्रमा,कालोदधि समुद्र में ४२ सूर्य ४२ चन्द्र,पुष्करार्ध द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ चन्द्रमा है! इस प्रकार ढाई द्वीप में १३२ सूर्य और १३२चन्द्रमा है!बाह्य पुष्करार्ध द्वीप में इतने ही ज्योतिष्क देव है!पुष्करवर समुद्र मेंइससे चौगनी संख्या है!उसे आगे प्रत्येक द्वीप समुद्र में लोकांत तक क्रमश: दुगने दुगने सूर्य और चन्द्रमा इनके परिवार सहित है !
८-चन्द्रमा के परिवार में १ प्रतीन्द्र सूर्य ८८ गृह २८ नक्षत्र ,६६९७५ कोडकोडी तारे है!
चन्द्र विमान,चित्र पृथ्वी के तल से ८८० योजन ऊपरआकाश में , ऊर्ध्वमुख रूप से अवस्थित अर्द्ध गोलक सदृश है !उनकी अलग अलग १२००० किरणे अतिशय शीतल एवं मंद है !सभी ज्योतिष्क देवों के विमान का स्वरुप यही है !चन्द्र विमानों में विध्यमान पृथ्वीकायिक जीव उद्योत नाम कर्म के उदय से संयुक्त है अत: वे प्रकाशमान अतिशय शीतल और मंद किरणों से संयुक्त है ! चद्र विमान के उपरिम तल का विस्तार ५६/६१ और बाहुल्य (मोटाई ) २८/६१ योजन (१ योजन =४००० मील) ,परिधि २ योजन ३ कोस कुछ कम १२२५ धनुष है !प्रत्येक विमान की तट वेदी चार गोपुरों से संयुक्त होती है,उसके बीच में उत्तम वेदी सहित राजाङ्गण होता है ! राजाङ्गण के ठीक बीचो बीच उत्तम रत्नमय दिव्य कूट और उन कूटों के ऊपर वेदी और चार तोरणों से संयुक्त जिन मंदिर अवस्थित है !सभी मंदिर मोती और स्वर्ण की मालाओं से रमणीक और उत्तम वज्रमय किवाड़ों से संयुक्त होते हुए दिव्य चन्दोवों से सुशोभित रहते है !वे जिन भवन देदीप्यमान रत्नदीपकों और अष्ट महामंगल द्रव्यों से परिपूर्ण , वन्दन माला,चंवर तथा कष्द्र घंटिकाओं के समूह से शोभायमान होते हैं !इन जिन भवनों में स्थान स्थान पर विचित्र रत्नों से निर्मित नाट्यसभा ,अभिषेक सभा और विचित्र क्रीड़ाशालाये सुशोभित होती है !वे जिन भवन समुद्र सदृश गंभीर शब्द नित्य मृदंग, मर्दल आदि विविध वादित्रों से नित्य शब्दायमान होता रहता है !उन जिन भवनों में ३ छत्र,सिंहासन ,भामंडल और चमरों से संयुक्त रत्नमयी जिन प्रतिमाये विराजमान है !जिन बिम्ब के पार्श्व में श्री देवी ,श्रुत देवी सर्वाण्हयक्ष और सनत्कुमार यक्ष की मनोहर मूर्तियां शोभायमान होती है !सभी चन्द्र देव गाढ़ भक्ति से उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की जल ,चंदन,तंदुल,फूल ,उत्तम नैवैद्य ,डीप,धुप औरर फलों से पूजा करते है !चन्द्र ज्योतिष्क देव के विमान /प्रसाद –
जिन मंदिरों के कूटों के चारों ओर से समचतुष्कोण लम्बे और अनेक प्रकार के विन्यासों से रमणीय,मरक्तवर्ण,स्वर्ण वर्ण,मूंगे सदृश वर्ण वाले,कन्दपुष्प चन्द्र ,हार,एवं बर्फ जैसे वर्ण सदृश चंद्रों के प्रसाद होते है !इन भवनों ,में उप्पाद मंदिर,अभिषेकपुर,भूषण गृह ,मैथुनशाला,क्रीड़ाशाला,मंत्रशाला,और सभा शालाएं होती है ! सभी प्रसाद उत्तम कोटों ,तथा विचित्र गोपुरों से संयुक्त मणिमय तोरणों से रमणीय,दीवारों पर नाना प्रकार के चित्रों से सुशोभित,विचित्र रूपवाली उपवन वापिकाओं से सुशोभित और स्वर्णमय खम्बों से युक्त है तथा श्यानासनों आदि से परिपूर्ण है !धुप की सुगंध से व्याप्त ये दिव्य प्रसाद शब्द,रस ,गंध रूप उर स्पर्श से विविध अनुपम सुखदायक है !उन भवनों में कूटों से विभूषित और प्रकाशमान रत्न -किरण पंक्तियों से संयुक्त ७-८ आदि भूमियाँ शोभायमान है!इन मंदिरों के बीच में चन्द्र देव सिंहासन पर विराजमान रहते है !प्रत्येक चन्द्र !चन्द्राभा ,सुसीमा प्रभङ्करा,और अर्चिमालिनी ४ -४ पट(अग्र महिषियां) देवियाँ होती है,प्रत्येक अग्र देवी की ४००० परिवार देवियाँ होती हैं वे अपने अपने परिवार के साथ अर्थात ४०००-४००० रूपों की विक्रियां धारण करती है !चन्द्र देवों के आठ;प्रतीन्द्र (सूर्य), सामानिक(संख्यात),तनुरक्ष,(संख्यात),तीनों पारिषद,प्रकीर्णक ,सात अनीक,अभियोग्य और किल्विषिक ,परिवार देव होते है !उत्तम रत्नों से विभूषित और प्रकाशमान तेज को धारक समस्त परिवार देवों प्रासाद राजांङ्गण बाहर होते है ! प्रत्येक चन्द्र के चारो दिशाओं में ४०००-४००० ,कुल १६००० अभियोग्य जाति के स्वर्णमयी वर्ण सदृश देव;,नित्य सिंह,हाथी,बैल,जटा युक्त घोड़ों के रूप विक्रिया करके क्रमश पूर्व,दक्षिण , उत्तर दिशा में विराजमान हो कर चन्द्र विमानों वहन करते है -उनके र गमन में निमित्त होते है!प्रत्येक चन्द्र इंद्र के; एक-एक प्रतीन्द्र सूर्य होते है ! सदर्भ त्रियोपण्णत्ती गाथा ३६ -६४
सूर्य(मंडलकी प्रारूपण) ज्योतिष्क देव के विमान- [Image: 00328.jpg]
त्रियोपण्णत्ती गाथा ६५- ८१
चित्र पृथ्वी के उपरिमतल से ८०० योजन ऊपर आकाश में नित्य (शाश्वत) नगर तल स्थित है! सूर्य के मणि मय विमान,उर्ध्व अवस्थित,अर्द्ध -गोलक सदृश है,उनकी अलग अलग १२०० किरणे प्रकाशमान उष्णतर होती है क्योकि सूर्य विमानों मे स्थित पृथ्वीकायिक जीव ,आतप नामकर्म के उदय से संयुक्त होते है! उन सूर्य विमानों से प्रत्येक,अनदिनिधन अकृत्रिम सूर्य बिम्ब के उपरिम तल का विस्तार ४८/ ६१योजन ,बाहुल्य २४/६१ योजन और इनकी अलग अलग परिधियां २ योजन १ कोस कुछ कम १९०७ धनुष है !प्रत्येक सूर्य विमान की तट वेदी ,चार गोपुर द्वारों से सुंदर होती है !उसके मध्य, उत्तम वेदी से संयुक्त राजांङ्गण होता है,जिसके मध्य में उत्तम कूट होते है ,उनमे सूर्यकांत मणिमय जिन-भवन स्थित हैं ! ये जिन मंदिर एवं उनमे विराजमान जिन प्रतिमाये तथा उनकरे देवोब द्वारा अष्ट द्रव्यों द्वारा पूजा की विधि, चन्द्र पुरों के कूटों पर स्थित जिनभवनो एवं प्रतिमाओं सदृश्य ही है!इन कूटों के चारो ओर जो सूर्य प्रसाद है वे भी चन्द्र प्रासादों सदृश है! उन भवनों के मध्य में उत्तम छत्र -चँवरों से युक्त और अतिशय दिव्य तेज को धारण धारण करने वाले सूर्य देव दिव्य सिंहासन पर स्थित होते है !प्रत्येक सूर्य की ध्युतिश्रुति, प्रभङ्करा,सूर्यपप्रभा और अर्चिमालिनी ,४ अगर देवियाँ होती है !प्रत्येक अग्र देवी की ४००० परिवार देवियाँ होती हैं वे अपने अपने परिवार के साथ अर्थात ४०००-४००० रूपों की विक्रियां धारण करती है ! सूर्य देवों के सात; सामानिक,तनुरक्षक,तीनों पारिषाद,प्रकीर्णक अनीक,अभियोग्य और किल्विषिक ,परिवार देव होते है !उत्तम रत्नों से विभूषित और प्रकाशमान तेज को धारक समस्त परिवार देवों प्रासाद राजांङ्गण बाहर होते है ! प्रत्येक सूर्य के चारो दिशाओं में ४०००-४००० ,कुल १६००० अभियोग्य जाति के स्वर्णमयी वर्ण सदृश देव;,नित्य सिंह,हाथी,बैल,जटा युक्त घोड़ों के रूप विक्रिया करके क्रमश पूर्व,दक्षिण , उत्तर दिशा में विराजमान हो कर सूर्य -नगर तालों का गमन में निमित्त होते है!
९-तारे के टूटने का वर्णन –
पद्मपुराण के रचियता महान आचार्य रविसैन जी के अनुसार पदमपुराण में कहते है कि जब हनुमान जी यात्रा कर लौटते वे पर्वत पर विश्राम के लिए लेटे हुए ,आकाश से एक टूटता हुआ तारा देखते है!उन्होंने इस घटना का स्पष्टीकरण देते हुए कहा है कि”सम्भवत: उस समय कोई देव प्रकाशवान चमकते हुए वैक्रयिक शरीर से सम्पन्न विचरण कर रहे होगे जिनका शरीर,आयु पूर्ण होने के कारण,बिखर गया हो”जो की चमकीला होने के कारण तारे के टूटना जैसा लगता हो क्योकि तारे अकृत्रिम अनादिकालीन है वे टूट नहीं सकते,उनकी संख्या हीनाधिक नहीं हो सकती !
ज्योतिष्क देवों का गमन-
मेरुप्रदिक्षणानित्यगतयोनृलोके -!!१३!!
सन्धिविच्छेद -मेरु +प्रदिक्षणा+ नित्य +गतयो +नृ+ लोके
शब्दार्थ-मेरु-मेरु , प्रदिक्षणा -परिक्रमा ,नित्य -सदैव ,गतयो- गतिमान रहकर भ्रमण करते है ,नृ-मनुष्य ,लोके-लोक में !
अर्थ-वे ज्योतिष्क देव मनुष्य लोक में,सुदर्शन मेरु पर्वत की परिक्रमा लेते हुए सदा भ्रमण करते है !
भावार्थ-मनुष्य लोक अर्थात ढाई द्वीप में, मानुषोत्तर पर्वत तक, ४५लख योजन क्षेत्रमें पांचों ज्योतिष्क देव सदैव सुदर्शन समेरू पर्वत की परिक्रमा,उससे ११२१ महायोजन की दूरी पर रहते हुए लेते है!ये मेरु के चारों ओर सदा भ्रमण करते रहते है!
ज्योतिष्क देवों के गमन का काल पर प्रभाव-
तत्कृत:कालविभाग: !!१४ !!
संधि-विच्छेद -तत्कृत:+काल+विभाग
शब्दार्थ_-तत्कृत:-उन(ज्योतिष्क देवों )के द्वारा काल-काल ,विभाग-विभाग होता है !
अर्थ – उन गतिशील ज्योतिष्क देवों के द्वारा काल का , व्यवहार काल दिनरात आदि में विभाजन होता है !
भावार्थ-मनुष्यलोक -ढाई द्वीप में समय, आंवली, ,सैकंड, मिनट, घड़ी,, मूर्हत, ,घंटे, दिन , रात, पक्ष, माह, ऋतू,अयन,वर्ष,युग,सहस्र,वर्ष,लक्ष वर्ष,पूर्वांग ,पूर्व से लेकर अचल तक, यह व्यवहार काल , ज्योतिष्क देवों के निरंतर मेरु की प्रदिक्षणा लेने के कारण होते है !
विशेष-
१-ढाई द्वीप के बाहर लोकांत तक स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त ज्योतिष्क देव अवस्थित है अर्थात वे गमन नहीं करते,इसलिय वहमनुष्य लोक की भांति व्यवहार काल समय मिनट दिन रात आदि नहीं है !वहां कल्पवृक्षों के प्रकाश से सदा प्रकाश ही रहता है अन्धकार नहीं होता है ! !
२-सभी देवों से संयम और व्रत रखने की अपेक्षा मनुष्य ही उंच्च है क्योकि देव व्रत संयम आदि रखने में सक्षम नही है !
३-पूजनीय नव देवता-पांच परमेष्ठी (अरिहंत,सिद्ध,आचर्य,उपाध्याय एवं साधु ),जिनागम/ जिनवाणी , जिन बिम्ब,जिनधर्म जिन चैत्यालय! भवनवासी ,व्यंतर ,ज्योतिष्क सूर्य /चादर आदि और वैमानिक देव पूजनीय नहीं है क्योकि नव देवताओं के अंतर्गत नहीं है !ये जन्म से ही मिथ्या दृष्टि होते है क्योकि सम्यग्दृष्टि इनमे जन्म नहीं लेते!इनको पूजना अथवा जल आदि अर्पित करना मिथ्यात्व है !एक भवतारी वैमानिक देव भी पूजनीय नहीं है !ये कभी सामने आ जाए तो जैजिनेन्द्र करने योग्य है !
४-एक सूर्य को जम्बूद्वीप की पूरी प्रदिक्षणा लेने में २ दिन रात लगते है ,चन्द्रमा को इससे कुछ अधिक समय लगता है !चंद्रोदय में न्यूनाधिकता इसी लिए आती है !यहाँ २ सूर्य और २ चद्र है !वैसे तो सूर्य और चद्रमा का गमन स्वाभाविक है किन्तु अभियोग्य जाति के ज्योतिष्क देव इनके विमानों को निरंतर ढोते है !इन देवों में विक्रिया द्वारा प्राप्त सिहाकार देव का मुख -पूर्व दिशा में,गजाकर का मुख -दक्षिण दिशा में,,वृषभाकार का मुख -पश्चिम दिशा में ,और अश्वकार देव का मुख उत्तर दिशा में होता है !
४-व्यवहार काल की विभिन्न इकाइयों में संबंध-
असंख्यातसमय=१आवलि ,संख्यातआवलि=१प्राण/(उच्छवास),७उच्छवास=१स्तोक,७स्तोक =१लव,३८.५लव= १घड़ी,२घड़ी=१मूर्हत,३०मूर्हत=१दिन,१५दिन=१पक्ष,२पक्ष=१माह,२माह=१ऋतू,३ऋतू =१आयन,२आयन=१वर्ष , ५ वर्ष=१युग,२युग=१०वर्ष,१०x१०वर्ष=शतवर्ष,10xशतवर्ष=१ सहस्र वर्ष,१० सहस्र वर्ष=दस सहस्र वर्ष,१० x १० सहस्रवर्ष=१लक्षवर्ष,१पूर्वांग =८४लक्षवर्ष ,१पूर्व=८४लक्ष पूर्वांग =५०७६x १० की घात दस वर्ष,१ पूर्व कोटि =५०७६ x१० की घात१५!इसी क्रम मेंअंतिम संख्यात संख्या १ अचल =८४ की घात ३१x१० की घात ८०, अचल से १ अधिक होने पर असंख्यात आरम्भ हो जाता है (आदिपुराण पृष्ठ ६५ )
मनुष्य लोक से बाहर ज्योतिष्क देवों की गति स्थित-
बहिरवस्थिता:!१५ !!
संधि विच्छेद-बहि:+अवस्थिता:
शब्दार्थ :-बहि:-बाहर ,मनुष्य लोक से ,अवस्थित: -स्थिर है !
अर्थ -मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिष्क देव स्थिर है ,गमन नहीं करते
भावार्थ-ढाई द्वीप ,मनुष्य लोक से बाहर के ज्योतिष्क देव स्थिर है गमन नहीं करते !
शंका–इस सूत्र की क्या आवश्यकता थी क्योकि सूत्र १४ में तो कहा गया है कि मनुष्य लोक में ही ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत की परिक्रमा लेते हुए गमन करते है ,जिससे स्पष्ट हो जाता है कि इससे बाहर के ज्योतिष्क देव गमन नहीं करते स्थिर है !
समाधान -सूत्र १४ में मनुष्य लोक से बाहर ज्योतिष्क देवों का अस्तित्व अभी तक प्रमाणित नहीं होता , इसी लिए इस सूत्र की आवश्यकता है !उनके अस्तित्व और स्थिरता को बताने के लिए यह सूत्र रखा है !
वैमानिक देवों का वर्णन-
वैमानिका: !!१६!!
अर्थ-अब वैमानिक देवों का वर्णन करते है !
विशेष-
१-विशेष पुण्य के उदय से उत्पन्न होने वाले पुण्यशाली जीवो के निवास स्थान को विमान कहते है!उन विमानों में जन्म लेने वाले देवों को वैमानिक देव कहते है !
२- विमान के इन्द्रक,श्रेणीबद्ध और पुष्प प्रकीर्णक तीन भेद है !जो इंद्र की तरह अन्य विमानों के बीच में रहते है उन्हें इन्द्रक,जो उसकी चारो दिशा इ कतारबद्ध होते है उन्हें श्रेणी बढ़ और जो विदिशाऔ में फूलों के समान यत्र तत्र बिखरे होते है उन्हें पुष्प प्रकीर्णक विमान कहते है !
वैमानिक देवों के भेद-
कल्पोपन्ना:कल्पातीताश्च !!१७!
संधि विच्छेद-कल्पोपन्ना:+कल्पातीत:+च
शब्दार्थ- कल्पोपन्ना:-जहा १६ स्वर्गों में कल्पो (इन्द्रादि के १० भेदो ) की कल्पना है +कल्पातीत-कल्पातीत ,जहाँ कल्पो(इन्द्रादि १० भेदों की की कल्पना नहीं है, च -और
अर्थ वैमानिक देवों के कल्पोपन्न-जहाँ १६ स्वर्गों-कल्प में इन्द्रादि के १० भेदो की कल्पना होती है,उनमे उत्पन्न होने वाले देवों को कल्पोपन्न वैमानिक देव कहते है, और
जहाँ इन्द्रों आदि १० भेदों की कल्पना नहीं है ,उन्हें कल्पातीत (९ ग्रैवियिक,९ अनुदिदशो और ५ अनुत्तरों) में उतपन्न होने होने वाले देवों को वैमानिक देवों को कल्पातीत देव कहते है !
विशेष-जिन कल्पो में १२ प्रकार के इंद्र रहते है वे कल्प १६ है उसमे से सौधर्मेन्द्र कल्प मेरु पर्वत के उप्र अवस्थित है जो की दक्षिण दिशा में फैला हुआ है !इस कल्प के ऋजु विमान और समरू पर्वत की चूलिका में १ बाल मात्र का अंतराल है!इसके समान आकाश प्रदेश में उत्तर दिशा में ऐशान कल्प है!
कल्पों की स्थित का क्रम –
उपर्युपरि !!१८!!
अर्थ -ये कल्पादि क्रमश: ऊपर ऊपर है !सोलह स्वर्गों के आठ युगल ,नव ग्रैवेयिक,नव अनुदिश और पांच अनुत्तर ये सब क्रम से ऊपर ऊपर है !
विशेष-ये कल्पोपण और कल्पातीत वैमानिक देव ज्योतिष्क देवों के समान तिरच्छे या वियंत्र देवों के समान विषम रूप से नहीं रहते बल्कि क्रम से ऊपर ऊपर रहते है !सभी स्वर्गो में परस्पर समीपता नहीं है,उनमे असंख्यात योजनों का अंतर है !कल्पातीत देवों को अहमिन्द्र कहते है !
वैमानिक देवों के निवास स्थान –
सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणा- च्युतयोर्नवसुग्रैवेयकेषुविजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषुसर्वार्थसिद्धौच !!१९!!
संधिविच्छेद- सौधर्म-ऐशान+सानत्कुमार-माहेन्द्र+ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर+लान्तव-कापिष्ठ+शुक्र-महाशुक्र+शतार-सहस्रार+आनत- प्राणत+आरण-अच्युत+योर्नवसु +ग्रैवेयकेषु +विजय +वैजयन्त +जयन्ता +पराजितेषु +सर्वार्थसिद्धौ +च
अर्थ-सौधर्म-ऐशान,सानत्कुमार-माहेन्द्र,ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर,लान्तव-कापिष्ठ,शुक्र-महाशुक्र,शतार-सहस्रार, आनत- प्राणत,आरण-अच्युत आठ स्वर्गो के युगलों में देवो निवास स्थान विमान है तथा नौ ग्रैवेयक,(र्नवसु)नौ अनुदिश ,विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित और सर्वाथसिद्धि अनुत्तर विमानो मे अहमिन्द्र कल्पातीत देव रहते है।
विशेष-१-उर्ध्व लोक मे, मध्यलोक चित्रा पृथ्वी के भूमि तल से ९९०४० महायोजन ऊंचाई पर सुदर्शन मेरु की चूलिका से १ बाल अंतराल पर ,सौधर्मेन्द्र -ऐशान कल्प (स्वर्ग पहिला स्वर्ग का युगल)आरम्भ होता है !इसपर प्रथम इन्द्रक विमान ऋजु , ढाई द्वीप के विस्तार के बराबर ४५ लाख महायोजन विस्तार का है !इसकी चारों दिशाओं में ६२-६२ श्रेणीबद्ध विमान और विदिशाओं में बहुत सारे प्रकीर्णक विमान है ,इनके ऊपर असंख्यात पटल छोड़कर दूसरा पटल है.उसके मध्य में इन्द्रक विमान और चारों दिशाओं में ६१-६१ विमान है तथा विदिशाओं में असंख्यात प्रकीर्णक विमान है !इसी प्रकार योजनो के अंतराल पर १,५ राजू उंचाई तक क्रमश ३१ पटल है !३१ वे पटल से असंख्यात योजन अंतराल पर सनत्कुमार और महेंद्र कल्प आरम्भ होता है उनके ७ पटल १.५ राजू की ऊंचाई तक है ! इसी प्रकार १/२ -१/२ राजू के अंतराल पर क्रमश तीसरा कल्प ब्रह्म ब्रह्मोत्तर (४पटल), चौथा कल्प लांतव-कापिष्ट (२ पटल ),पांचवा कल्प शुक्र और महा शुक्र (१ पटल )और छठा कल्प शतार – सहस्रार (१ पटल),सातवा कल्प आनत -प्रणत(३ पटल) ,आठवां कल्प आरण-अच्युत(३ पटल) लोक की कुल ६ राजू ऊंचाई तक १६ स्वर्ग! इनके कुल ५२ पटल है !आठवे स्वर्ग के युगल से ऊपर लोक के अंत तक लगभग १ राजू ऊंचाई तक क्रमशः ,नव ग्रैवेयक के ९ पटल है,उसके ऊपर नव अनुदिशों का एक पटल और इसके ऊपर ५ अनुत्तरों विमान के एक पटल में है !इस प्रकार ऊर्ध्व लोक में कुल ६३ पटल है!इन स्वर्गों के ८ कल्प युगलों के १२ इन्द्रों में सौधर्मेन्द्र,सनत्कुमार,ब्रह्म,शुक्र,आनत और आरण ६ इंद्र दक्षिणेन्द्र और ६;ऐशान ,माहेन्द्र ,लांतव ,शतार, प्राणत और अच्युत उत्तरेन्द्र है !
२ -पांच अनुत्तारों में सर्वार्थ सिद्धि के विमान से १२ योजन ऊपर ८ योजन मोटी ,इष्टतागार ,अष्टम पृथ्वी में चंद्रकार सिद्धशिला है!उसके ऊपर क्रमशः घनोदधि,घनवात और तनुवात वलय है,सिद्ध भगवान् के प्रदेश मनुष्यकार कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन आकार में, इस तनुवातवलय के अंत को शीर्ष स्पर्श करते हुए ५२५ धनुष मोटे और ४५लाख योजन विस्तार के सिद्धालय में विराजमान रहते है! स्वर्गों में ८४९७०२३ देवों के विमान है,प्रत्येक में, एक एक जिनचैत्यालय ,प्रत्येक में १०८ रत्नमयी जिन बिम्ब विराजमान है !
सूत्र में सर्वार्थ सिद्धि को अलग से इसलिए रखा है क्योकि यहाँ पर उत्पन्न देव एक भव ,में मनुष्य पर्याय पाकर मोक्ष प्राप्त करते है!
३-नवग्रैवेयिक;१-सुदर्शन,२-अमोध,३-सुप्रबद्ध,४-यशोधर,५-सुभद्र,६-सुविशाल,७-सुमनस,८-सोमप्रभ,९-प्रीतिकर है !
४-नवअनुदिश;१-आदित्य,२-अर्चि ,३-अर्चिमाली,४-बैरोचन ,५-प्रभास,६-अर्चिप्रभ,७-अर्चिमध्य ,८-अर्चिरावर्त ,९ -अर्चि विशिष्ट है
वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर अधिकता –
स्थितिप्रभावसुखद्युति लेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयोतोऽधिका: !!२० !!
संधि विच्छेद -स्थिति+प्रभाव+सुख+द्युति+लेश्या +विशुद्धि +इन्द्रियाविषयात:+अवधिविषयत:+अधिका:
शब्दार्थ-स्थिति-आयु,प्रभाव-प्रभाव,सुख-सुख,द्युति-कांति लेश्याविशुद्धि-लेश्या की विशुद्धि ,इन्द्रियाविषयात:इन्द्रिय का विषय और अवधिविषयत:-अवधि ज्ञान का विषय ,अधिका:-अधिक अधिक है
अर्थ – ऊपर ऊपर के देवों की आयु,प्रभाव,सुख,कांति ,लेश्या विशुद्धि,इन्द्रिय विषय और अवधि ज्ञान के विषय क्रमश उत्तरोत्तर वृद्धिगत होते है !
विशेष-
१-आयु-नीचे से ऊपर के देवों की आयु बढ़ती जाती है ;प्रथम स्वर्ग में उत्कृष्ट आयु २अगर से कुछ अधिक है जबकि सर्वार्थ सिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ३३ सागर है ,बीच के स्वर्गों और /ग्रैविकों अनुदिश और अनुत्तर में इनके बीच पहले स्वर्ग युगल से बढ़ती हुई है !
२-प्रभाव – देवों के श्राप देने या उपकार करने की क्षमता को उनका प्रभाव कहते है !यह भीनीचे से ऊपर स्वर्गों के डिवॉन में वृद्धिगत है !किन्तु ऊपर ऊपर के डिवॉन में अहंकार कम कम होता जाता है इसलिए इस प्रभाव को वे कभी प्रयोग में नहीं ला ते है!
३-सुख -इन्द्रियों के द्वारा उनके विषयों का अनुभव करना सुख है !यद्यपि ऊपर ऊपर के डिवॉन का नदी,पर्वत ,अटवी आदि में विहार करना क्रमश कम होता जाता है ,देवियों की संख्या व् परिग्रह क्रमश कम होता जाता भी सुख की उन्हें क्रमश अधिक अनुभूति होती है !
४-द्युति-शरीर ,वस्त्र ,आभरण की छटा द्युति है !उप्र २ के देवों का शरीर छोटा है ,वस्त्र और आभरण भी कम होता जाता है,किन्तु इन सबकी द्युति क्रमश वृद्धिगत होती हैं !
५-लेश्या विशुद्धि-ऊपर के स्वर्गों में देवों की लेश्या विशुद्धि वृद्धिगत होती है ,उनकी लेश्या निर्मल होती जाती है !
६-इन्द्रियविषय -प्रत्येक इन्द्रिय का जघन्य और उत्कृष्ट विषय बतलाया है ! उस से अपेक्षा नीचे के देवों से ऊपर के देवों के इन्द्रिय विषय वृद्धिगत है !अर्थात ऊपर पर के देवों की द्वारा विषय को ग्रहण करने सामर्थ्य उत्तरोत्तर वृद्धिगत है !
७-अवधि विषय-ऊपर के देवों की अवधि ज्ञान की सामर्थ्य भी क्रमश वृद्धिगत है!प्रथम व् दुसरे कल्प के देव अवधिज्ञान द्वारा प्रथम , ३ सरे -४थे कल्प के देव दुसरे ,५ वे से ८ वे कल्प तक के देव तीसरी,९वे से १२ वे कल्प तक के देव चौथी ,१३ वे से१६वे तक के देव पांचवी , नव ग्रैवेयक के देव छठी नरक भूमि तक और नव अनुदिशों और अनुत्तरों के देव पूरी लोक नाड़ी को जानते है !
गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना: !!२१!!
संधि विच्छेद -गति+शरीर+परिग्रहा+अभिमानतो +हीना:
शब्दार्थ -गति-शरीर-परिग्रह- अभिमानतो हीना: क्रमश कम कम
अर्थ – नीचे के स्वर्गों से ऊपर ऊपर के स्वर्गों के देवों में गति,शरीर,परिग्रह,अभिमान क्रमश हीन हीन होता है !विशेष-
१-गति-जिससे प्राणी एक स्थान से दुसरे स्थान को जाता है वह गति है !यह गति ऊपर ऊपर के विमानों के देवों में क्रमश कम कम होती जाती है यद्यपि शक्ति की अपेक्षा अधिक सामर्थ्य होती है किन्तु वे प्रमाद वश ही कही आते जाते नहीं !सोलहवे स्वर्ग से ऊपर के देव अपना विमान छोड़कर कही नहीं जाते है !इनके शरीर में दुर्गन्ध,मल मूत्र,रुधिर,चर्बी आदि नहीं होता है !
२-शरीर -शरीर की अवगाह्न्ना अर्थात ऊंचाई क्रमश ऊपर के स्वर्गों में कम कम होती जाती है !डिवॉन का शरीर वैक्रयिक होता है जिसको वे अपनी इच्छानुसार छोटा बड़ा कर सकते है !तीर्थंकरों के जन्मोत्सव के समय जो १ लाख योजन ऐरावत हाथी का कथन आता है वह वैक्रयिक शरीर आभियोग्य जाती के देव का होता है !यह विक्रिया करने की शक्ति उत्तरोत्तर नीचे से ऊपर के स्वर्गों में क्रमश घटती जाती है !
३-परिग्रह-लोभ कषाय के उदय वश जो इन्द्रिय विषयों में ममत्व भाव होता है,उसे परिग्रह कहते है !यह उत्तरोत्तर नीचे से ऊपर के स्वर्गों के डिवॉन में क्रमश कम कम होता है !
४-अभिमान-मान कषाय के उदय से उत्पन्न होने वाले अहंकार ,अभिमान है !स्थिति,प्रभाव ,शक्ति आदि के निमित्त से अभिमान उत्त्पन्न होता है किन्तु ऊपर ऊपर के डिवॉन में मान कषाय क्रमश घटती है इसलिए
अभिमान भी घटता हुआ होता है संवेग परिणामों की उत्तरोत्तर अधिकता होने से अभिमान में हानि होती है !
५-शवासोच्छवास व आहार – देवों की जितने सागर की आयु होती है ,उतने पक्षों के अंतराल पर श्वासोच्छ्वास लेते है और उतने सहस्र वर्ष के अंतराल पर आहार विषयक विकल्प होते ही कंठ से अमृत झड़ता है,इसी को लेकर तृप्त हो जाते है !
पूर्व भव की कषायों का देव गति में जन्म लेने पर प्रभाव –
असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच अपने शुभ परिणामों से पुण्य कर्म का बंध कर भवनवासी और व्यंतर देवों में और सैनी पर्याप्त कर्म भूमियाँ मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच भवनत्रिक में उत्पन्न हो सकते है और सम्यग्दृष्टि प्रथम स्वर्ग युगल तक जन्म ले सकते है !
कर्मभूमिया मिथ्यदृष्टि /सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य भवनवासी से उपरिम ग्रैवियक तक उत्पन्न हो सकते है,किन्तु जो द्रव्य से जिन लिंगी ही ग्रैवियक तक उत्पन्न हो सकते है !
अभव्य मिथ्यादृष्टि जिन लिंग धारण कर,तप के प्रभाव से,मरकर उप्रीम ग्रैवियक तक में उत्पन्न हो सकते है !
परिव्राजक तपस्वी मरकर ५ वे स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते है !आजीविक सम्प्रदाय के साधु १२ वे स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते है !१२वे स्वर्ग से ऊपर अन्य लिंगी साधु उत्पन्न नहीं हो सकते !
निर्ग्रन्थ लिंग के धारक यदि द्रव्य लिंगी है तो उपरिम ग्रैवियक तक और भावलिंगी _सर्वार्थ सिद्धि तक उत्पन्न हो सकते है !श्रावक पहिले से सोलवे स्वर्ग तक ही जन्म ले सकते है!
इस प्रकार कषायों की मंदता के साथ ही मरने पर ऊपर ऊपर के स्वर्गों में जन्म होता है !,उसी प्रकार ऊपर के देवों में कषायों की मंदता होती है !\
वैमानिक देवों की लेश्याए –
पीतपद्मशुक्ललेश्याद्वित्रिशेषेषु २२
सन्धिविच्छेद -पीत+ पद्म+शुक्ल+ लेश्या+ द्वि+ त्रि +शेषेषु
शब्दार्थ- पीत , पद्म शुक्ल लेश्या, द्वि -दोयुगलों में ,त्रि-तीनयुगलों में , शेषेषु-शेष ससत विमानों में
अर्थ-प्रथम दो युगलों में ,तीन युगलों में और शेष समस्त विमानों में देवों की क्रमश पीत ,पढम और शुक्ल लेश्याए होती है !भावार्थ- प्रथम युगल सौधर्मेन्द्र-ईशांत स्वर्गोंके विमानों में देवों की पीत लेश्या है ,द्वित्य स्वर्ग युगल सानात्कुमार-माहेन्द्र में देवों की नीचे पीत और ऊपर के देवों की पद्म लेश्या है, ५वे से ८वे स्वर्गों के युग्ल.९वे से १२वे युग्ल में नीचे तक पद्म लेश्या है और ऊपर शुक्ल लेश्या है!१३वे से १६ वे स्वर्ग के युगलों में देवों की शुक्ल लेश्या है! शेषेषु- अर्थात ग्रैवेयक तक के देवों की शुक्ललेश्या है !
विशेष
१-अनुदिशों और अनुत्तरों में परम शुक्ल लेश्या है ,किन्तु राजवार्तिक के अनुसार परम शुक्ल लेश्या मात्र अनुत्तरों में है !
२-वैमानिक देवो के भाव लेश्या के समान द्रव्य लेश्या होती है किंतु उनके द्वारा बनाये गये वैक्रियिक शरीर की छ:लेश्यारूप वर्णमय है।अर्थात मूल शरीर एक ही द्रव्य लेश्यारूप है किंतु उत्तर शरीर सभी द्रव्य लेश्यारूप है!
शंका-देवों में आयु का बंध मात्र कापोत और पीत लेश्या मे होता है,किन्तु पांचवे स्वर्ग से ऊपर देवो के पद्म लेश्या और ११वे स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि तक ऊपर शुक्ल व परम शुक्ल लेश्या है फिर देवो की आयु का बंध कैसे होता है।
समाधान – उनकी त्रिभंगी आयु के बंध के समय, उनके परिणाम कापोत या पीत लेश्या रूप हो जाते है जिससे उनके भाव उस समय आयु बंध के अनुकूल हो जाते है।अतः निमित नैमित्तक संबंध मिलने से आयु का बंध हो जाता है।अन्य समयो मे,स्वर्गानुसार निर्दिष्ट लेश्याएँ जीवन पर्यंत रहती है।गोम्मेटसार के अनुसार ऐसा ही नरक मे भी रहता है।
कल्प कहाँ तक है –
प्राग्ग्रैवेयकेभ्यःकल्पाः २३
संधि विच्छेद -प्राक्+ग्रैवेयकेभ्य:+कल्प:
शब्दार्थ -प्राक -पाहिले तक, ग्रैवेयकेभ्यः -ग्रैवेयक से ,कल्पाः-कल्प है !
अर्थ- ग्रैवेयको से पहिले अर्थात १६ वे स्वर्ग तक कल्प कहते है क्योकि वही तक के देवों में इन्द्रादिक दस भेदो की कल्पना है !
विशेष -१६ वे स्वर्ग से ऊपर समस्त ग्रैवेयक ,अनुदिश और अनुत्तोर कल्पातीत है क्योकि यहाँ देवो मे कोई भेद नहीं है , अह्मिन्द्र है !
लौकांतिक देवों का लक्षण –
ब्रह्म-लोकालया लौकान्तिका: !!२४!!
संधि विच्छेद-ब्रह्म+लोक+आलया+ लौकान्तिका:
शब्दार्थ ब्रह्म-लोक -ब्रह्म लोक ,आलया -निवासहै, स्थान लौकान्तिका:-लौकांतिक देवो का
अर्थ –ब्रह्म लोक ,पांचवे स्वर्ग के निवासी देव लौकांतिक देव कहलाते है !
विशेष –
१- लौकांतिक देव देवऋषि कहलाते है!लौकांतिक देवों में मनुष्य आयु पूर्ण कर वे ही दिगंबर निर्ग्रन्थ, शरीर से नि:स्पृह, मुनि उत्पन्न होते है जो मनुष्य भव में सर्वपरिग्रहों के त्यागी और घोर तपश्चरण द्वारा सुख दुःख,मित्रता शत्रुता आदि में संमभावी होते है !
२-ये लौकांतिक देव ब्रह्म स्वर्ग के अंत के दिशा और विदिशाओं के विमानों में रहते है!
३-ये द्वादशांग के पाठी ,ब्रह्मचारी और एक भवावतारी अर्थात अगले भाव में मनुष्य पर्याय में जन्म लेकर मुक्त होते है !
४-इनके विमानों में देवियों का प्रवेश वर्जित है !इनकी देवांगनाएँ नहीं होती है !
५-ये केवल तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणकों में दीक्षा की अनुमोदना के लिए दीक्षा स्थल पर जाते है
लौकांतिक देवों के भेद /नाम –
सारस्वातादित्य बहन्यरुण गर्दतोय तुषितावया बाधारिष्टाश्च !!२५!!
संधि विच्छेद-
सारस्वात+आदित्य + वहिन +अरुण + गर्दतोय +तुषित +अवयाबाध+ अरिष्ट:+ च
शब्दार्थ-
सारस्वत आदित्य वहि्न अरुण गर्दतोय तुषित अवयाबाध अरिष्ट: च (यहाँ च से सूचित होता है कि प्रत्येक के बीच २-२ लौकांतिक देव और है !
अर्थ-लौकांतिक देवों के सारस्वत,आदित्य,वहि्न,अरुण,गर्दतोय,तुषित,अवयाबाध और अरिष्ट आठ भेद नाम है !यहाँ च से सूचित होता है कि प्रत्येक के बीच २-२ लौकांतिक देव और है !
विशेष –
१ –उपर्युक्त आठों लौकांतिक देव ब्रह्म लोक की प्रत्येक दिशा में क्रमश एक एक होते है!
सारस्वत देव(७००) के विमान पूर्वोत्तर दिशा (ईशान ) में ,पूर्व दिशा में आदित्य देव (७००),वहि्न देवों(७००७) के पूर्व दक्षिण दिशा में,अरुण देवों(७००७) के दक्षिण दिशा में ,गर्दतोय देवों (९००९) के दक्षिण-पश्चिम दिशा में, तुषित देवों (९००९)पश्चिम दिशा में,अवयाबाध देवों (११०११)के पश्चिम उत्तर दिशा में और अरिष्ट:देवों (११०११) के विमान उत्तर दिशा में है सदर्भ सर्वार्थ सिद्धि पृष्ठ-१९३
ये लौकांतिक देव, इन्ही नाम कर्मों के उदय के कारण,इन्ही नामों से लौकांतिक देवो में जन्म लेते है!ये सभी एक समान होते है कोई छोटा बड़ा नहीं होता है ,किसी इंद्र के आधीन नहीं होते है !,ये समस्त विषयों से विरक्त होते है इसलिए इन्हे देवऋषि कहते है!अन्य देवों के बीच इनकी बहुत प्रतिष्ठा होती है !ये सभी अगले भव से मुक्त होने वाले होते है !
२ सूत्र में ” च” से सूचित होता है कि प्रत्येक के बीच २-२ लौकांतिक देव प्रकार है !
सारस्वत-आदित्य के बीच अगन्य और सूर्यप्रभ,
आदित्य-वहि्न के बीच चन्द्रभ और सत्यप्रभ ,
वहि्न-अरुण के बीच श्रेयस्कर और क्षेमप्रभ ,
अरुण-गर्दतोय के बीच वृषभेष्ठ और कामचोर ,
गर्दतोय-तुषितदेवों के बीच निर्माण और रजस,
तुषित-अवयाबाध देवों के बीच आत्मरक्षित और सर्वरक्षित,
अवयाबाध-अरिष्ट देवों के बीच मरुत और वायु, तथा
अरिष्ट-सारस्वत के बीच अश्व और विश्व देव है !
इस प्रकार २४ लौकांतिक देव ये है
अनुदिशों और अनुत्तरों देव वासियों में मोक्ष प्राप्ति का नियम
विजयादिषुद्विचरमा: !!२६ !!
संधि विच्छेद -विजय+आदिषु+द्विचरमा:
शब्दार्थ-विजय+आदिषु-विजय आदि में,द्विचरमा:-द्वी भवतारी
अर्थ-नव अनुदिश के नौ और ४ अनुत्तरों; विजय ,वैजयंत,जयंत,अपराजित के देव उत्कृष्टता से दो भवतारी होते है !
भावार्थ-नवअनुदिश और चार अनुत्तरों के;१३ देव अधिकतम २ भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेते है!अर्थात देव इस भव की आयु से च्युत होकर ,मनुष्य भव में उत्पन्न होकर संयमादि धारण कर पुन:विजयादि में उत्पन्न होकर अगला भव पुन: मनुष्य भव पाकर मोक्ष प्राप्त करते है !
विशेष-
१-नवअनुदिशों और ५ अनुत्तरों में ,मिथ्यादृष्टि नहीं केवल सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते है!
२-सूत्र में,सर्वार्थसिद्धि के देवों को नहीं लिया क्योकि वे उत्कृष्टतम विशुद्धि के धारक एक भवतारी ही होते है अर्थात यहाँ से च्युत होकर,मनुष्य पर्याय में उपन्न होकर नियम से मोक्ष प्राप्त करते है ! इनके अतिरिक्त दक्षिणेन्द्र,सौधर्मेन्द्र की इन्द्राणी,सौधर्मेन्द्र स्वर्ग के लोकपाल,और लौकांतिक देव भी एक भवतारी होते है !
३- नवअनुदिशों और ४ अनुत्तरों के ये १३ देव एक भव में भी मोक्ष प्राप्त कर सकते है किन्तु नियम से दूसरी बार मनुष्य भव में उत्पन्न होकर तो निश्चित रूप से मुक्त हो जाते है !
तिर्यंच का लक्षण
औपपादिकमनुष्येभ्य:शेषास्तिर्यग्योनय:!!२७!!
सन्धिविच्छेद :-औपपादिक +मनुष्येभ्य:+शेषा:+तिर्यञ्च+योनय :
शब्दार्थ -औपपादिक-उपपाद जन्म वाले ,मनुष्येभ्य:-मनुष्यों,शेषा:-के अतिरिक्त सभी, तिर्यंच :-तिर्यंच, योनय:-योनी वाले है
अर्थ-उपपाद जन्म वाले देवों ,नारकियों और मनुष्यों के अतिरिक्त सभी तिर्यंच योनी के जीव है !
भावार्थ -देव नारकी और मनुष्यों के अतिरिक्त समस्त जीव तिर्यंच है !
विशेष-
१-एकेन्द्रिय जीव भी तिर्यंच ही है जो की समस्त लोक में व्याप्त है!इसलिए इनका कोई अलग से लोक नहीं है !
२-त्रस जीव मात्र लोकनाड़ी में रहते है !
भवनवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति
स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणाम्सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिता:!!२८!
सन्धिविच्छेद :-स्थिति+असुर+नाग+सुपर्ण+द्वीप+शेषाणाम्+सागरोपम+त्रि+पल्योपम+अर्द्ध+हीनमिता:
शब्दार्थ-स्थिति-आयु,असुर,नाग,सुपर्ण,द्वीप+शेषाणाम्-बाकियों की,सागरोपम-सागर त्रि-तीन,पल्योप-पल्य+अर्द्ध-आधा-आधा,हीनम् -कम कम +इताSadअर्थात आधा आधा पल्य कम ,क्रमश २.५ ,२.०,१.५ पल्य है
अर्थ- भवनवासी देवों में असुरकुमार की आयु १ सागर ,नाग कुमार की ३ पल्य , सुपर्ण कुमार की २.५ पल्य ,द्वीप कुमार की २ पल्य तथा शेष छ देवोँ विद्युतकुमार,अग्निकुमार,वातकुमार ,स्तनिक कुमार ,उदधि कुमार और दिक्कुमार की १.५ पल्य है!
सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्ग में उत्कृष्टायु –
सौधर्मैशानयो:सागरोपमेअधिक !!२९!!
संधि-विच्छेद -सौधर्म+ऐशानयो:+सागरोपमे+अधिक
शब्दार्थ-सौधर्म-सौधर्म,ऐशानयो-:और ऐशान स्वर्गों में, सागरोपमे- दो सागरसे, अधिक-अधिक (कुछ)
अर्थ-सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्गों के देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागर से कुछ अधिक है !
भावार्थ-सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्गों में देवो की उत्कृष्ट आयु साधारणतया २ सागर है !किन्तु घातायुष्क सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा उत्कृष्ट आयु २ सागर से आधा सागर अधिक अर्थात ढाई सागर है !
विशेष-
१-घातायुष्क-उस जीव को कहते है जो पहले आयु बंध के अपकर्ष काल में विशुद्ध परिणामों के कारण अधिक आयु की स्थिति बंध कर किसी उपरिम स्वर्ग की आयु का बंध करता है किन्तु किसी बाद के अपकर्ष काल में परिणामों की विशुद्धता में कमी आने के कारण कम स्थिति करलेता है यह उस जीव की घातायुष्क कहलाती है !
२-किसी जीव ने यदि २ सागर की आयु का वैमानिक देव की गति का बंध किया तो वह प्रथम युगल में २ सागर की आयु के साथ जन्म लेगा और यदि २ सागर से १ समय अधिक का बंध किया तो वह दुसरे युगल अर्थात सनत्कुमार-महेंद्र में २ सागर १ समय की आयु के साथ उत्पन्न होगा !
किन्तु यदि कोई मुनिराज पाहिले नव ग्रैवेयिक की आयु ३१ सागर का बंध करते है किन्तु बाद में विशुद्धि के गिरने के कारण प्रथम स्वर्गों की २ सागर का बंध कर लेते है तब वे घातायुष्क सम्यग्दृष्टि है, उनका उत्कृष्तायु का बंध इस स्वर्गों के युगल में वह ढाई सागर से १ अंतर्मूर्हत कम का होगा,न की २ सागर का
सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों में देवों की उत्कृष्टायु –
सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: सप्त !!३०!!
संधि विच्छेद-सानत्कुमार+माहेन्द्रयो:+सप्त
शब्दार्थ-सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: -सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में,सप्त -सात सागर से कुछ अधिक उत्कृष्ट आयु है
अर्थ -सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट आयु सात सागर है !घातायुष्क सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा सात सागर से आधा सागर अधिक अंतर्मूर्हत कम है !
त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानितु !!३१!!
संधि विच्छेद -त्रि+सप्त+नव+ऐकादश त्रयोदश +पञ्चदशभि:+अधिकानि+ तु
शब्दार्थ-त्रि-तीन,सप्त-सात,नव-नौ,ऐकादश-ग्यारह, त्रयोदश-तरह,पञ्चदशभि:-पंद्रह ,अधिकानि-(सात से) अधिक , तु-बार्वे स्वर्ग से आगे इन से आधा सागर अधिक आयु नहीं है !
अर्थ- तीसरे युगल, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में देवों की उत्कृष्ट आयु ७+३ अर्थात १० सागर से कुछ अधिक (अंतर्मूर्हत कम आधा सागर अधिक ,
चौथे युगल लांतव-लापिष्ट स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट आयु ७+७ =१४ सागर से कुछ अधिक (अंतर्मूर्हत कम आधा सागर ),
पांचवे युगल शुक्र और महाशुक्र में देवों की उत्कृष्टायु ७+९=१६ सागर में कुछ अधिक (अंतर्मूर्हत कम आधा सागर ),
छठे युगल शतार -सहस्रार स्वर्गों में देवों की उत्कृष्टायु ७+११ =१८ सागर से कुछ अधिक (अंतर्मूर्हत कम आधा सागर ),
सातवे युगल -आणत -प्राणात स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट आयु ७+१३=२२ सागर और
आठवे युगल आरं-अच्युत स्वर्गों में देवों की उत्कृष्टायु ७+१५=२२ सागर है !
विशेष- घातायुष्क जीव १२ स्वर्गों तक ही उत्पन्न होते है !
ग्रैवेयिक ,अनुदिशों और अनुत्तरों में उत्कृष्टायु –
आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेनवसुग्रैवेयिकेषुविजयादिषुसर्वार्थसिद्धौच !!३२!!
संधि विच्छेद –
आरण +अच्युतात्+ऊर्ध्वम् ज़+एकैके+नवसु+ग्रैवेयिकेषु+विजयादिषु+सर्वार्थसिद्धौ+च –
शब्दार्थ-आरण-आरण,अच्युतात्-अच्युत से ,ऊर्ध्वम्-ऊपर के,एकैके-(एक-एक सागर),नवसु-नवअनुदिशों, ग्रैवेयिकेषु-नव ग्रैवेयिक,विजयादिषु-विजयादि ,सर्वार्थसिद्धौ-सर्वार्थ सिद्धि , च -और सर्वार्थ सिद्धि में ३३सागर ही जघ्य व् उत्कृष्ट आयु है !
अर्थ-आरण और अच्युत स्वर्गों के आठवे युगल से ऊपर नव अनुदिश ,और विजयादि चार अनुत्तरों और सर्वार्थसिद्धि में देवों की उत्कृष्ट आयु क्रमश १ -१ सागर वृद्धिगत है !
भावार्थ -पहले ग्रैवेयिक में उत्कृष्ट आयु देवों की २३ सागर है जो की प्रत्येक ग्रैवेयिक में एक एक सागर अधित होते होते अंतिम ग्रैवियेयिक में ३१ सागर है ,नव अनुदिशों में ३२ सागर और पांचों अनुत्तरों में ३३सागर है
उक्त सूत्र में सर्वार्थ सिद्धि को च से अन्य अनुत्तरों से अलग दर्शाने का कारण है की यहाँ उत्कृष्ट ही आयु ३३ सागर ही है !
सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्ग में देवों की जघन्यायु –
अपरा पल्योपममधिकम्॥३३॥
संधि विच्छेद-अपरा+ पल्योपमम् +अधिकम्
शब्दार्थ -अपरा-जघन्य आयु , पल्योपमम्- पल्योपम , अधिकम्-से कुछ अधिक है
अर्थ-सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्ग में देवों की जघन्यायु एक पल्य है !
परत:परत:पूर्वापूर्वा ऽनन्तरा॥३४॥
संधि विच्छेद-परत:+परत:+पूर्वा+पूर्वा +अनन्तरा
शब्दार्थ-परत:परत:-अगले अगले स्वर्गों में देवों की है, पूर्वापूर्वा -पहिले -पहिले स्वर्गों के देवों की उत्कृष्टायु , अनन्तरा-जघन्यायु है !
अर्थ-स्वर्गों में अगले स्वर्ग युगल के देवों की जघन्यायु पाहिले-पाहिले स्वर्ग युगल के देवों के उत्कृष्टायु से एक समय अधिक है !
भावार्थ-सौधर्मेन्द्र-ऐशान स्वर्ग युगल में उत्कृष्टायु २ सागर से कुछ अधिक,सनत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग युगल के देवों की जघन्यायु २ सागर से कुछ अधिक से १ समय अधिक है ,इसी प्रकार सनत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों मे देवों की उत्कृष्तायु ७ सागर से कुछ अधिक में १ समय अधिक जघन्यायु, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गों के देवों की है !इसी प्रकार आगे के स्वर्गों के देवों की भी है,सर्वार्थ सिद्धि मे जघन्यायु नहीं होती !
द्वित्यादि नरको में नारकियों की जघन्यायु –
नारकाणां च द्वित्यादिषु !!३५!!
संधि विच्छेद -नारकाणां +च+ द्वित्यादिषु
शब्दार्थ-नारकाणांनरकों में भी, च-देवों के समान है , द्वित्यादिषु-द्वित्यादि नरकों में नारकीयों की जघन्यायु
अर्थ- पाहिले नरक में नारकियों की उत्कृष्टायु १ सागर है,दुसरे नरक मे जघन्यायु १ सागर समय नारकियों की है उत्कृष्टायु ३ सागर है ,तीसरे नरक की जघन्यायु ३सागर से १ समय है,उत्कृष्तायु ७ सागर है !चौथे नरक में जघन्यायु ७ सागर १ समय और उत्कृष्टायु १० सागर है ,पांचवे नरक में जघन्यायु १० सागर १ समय और उत्कृष्ट १७ सागर है,छठे नरक में जघन्य आयु १७ सागर १ समय है,उत्कृष्टायु २२ सागर , सातवे में जघन्यायु २२ सागर से एक समय अधिक है और उत्कृष्ट आयु ३३ सागर है
विशेष-नारके भी देवों की भांति जितने सागर की आयु का बंध होता है उतने ही पक्ष में नारकी श्वासोच्छ्वास लेते है !
प्रथम नरक में जघन्यायु –
दशवर्षसहस्राणिप्रथमायाम् !!३६!!
संधि -विच्छेद -दश+वर्ष+सहस्राणि +प्रथमायाम्
शब्दार्थ-दश-दस ,वर्ष-वर्ष,सहस्राणि-हज़ार, प्रथमायाम्-प्रथम नरक में है
अर्थ-प्रथम नरक में नारकी की जघन्यायु दस हज़ार वर्ष है !
भवनवासी देवों की जघन्य आयु –
भवनेषु च !!३७!!
शब्दार्थ -भवनेषु -भवनों में,च-भी (दस हज़ार वर्ष आयु है )
अर्थ-भवनवासी देवों की जघन्यायु भी १० हज़ार वर्ष है !
व्यंतर देवों की जघन्यायु-
व्यन्तराणां च !!३८!!
संधि विच्छेद -व्यन्तर+अणां +च
शब्दार्थ -व्यन्तर-व्यन्तर, अणां -वासियों में ,च-भी (१० हज़ार वर्ष है )
अर्थ -व्यन्तर देवों की भी दस हज़ार वर्ष जघन्यायु है!
व्यन्तर देवों की उत्कृष्टायु –
परा पल्योपममधिकम् !!३९!!
शब्दार्थ-परा -उत्कृष्तायु,पल्योपममधिकम्- पल्य से कुछ अधिक है !
अर्थ – व्यन्तर देवों की उत्कृष्टायु पल्य से कुछ अधिक है,पल्य असंख्यात वर्षों का होता है !१० कोडाकोड़ी पल्य का १ सागर होता है
ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्टायु –
ज्योतिष्काणां च !!४०!!
अर्थ- ज्योतिष्क देवों की भी उत्कृष्टायु १ पल्य से कुछ अधिक होती है !
विशेष-चन्द्रमा की १ लाख वर्ष अधिक एक पल्य है!सूर्य की १००० वर्ष अधिक १ पल्य है !शुक्र की १०० वर्ष अधिक १ पल्य है !वृहस्पति की उत्कृष्ट स्थिति मात्र १ पल्य है !
ज्योतिष्क देवों की जघन्यायु –
तदष्ट-भागो ऽपरा !!४१!!
शब्दार्थ-तदष्ट -वह आठवा ,भागो-भाग, ऽपरा -ऊपर कहे पल्य का है
अर्थ- ज्योतिष्क देवों में जघन्यायु एक पल्य का आठवा भाग है !
विशेष-चन्द्र,सूर्य,शुक्र,वृहस्पति,की जघन्यायु १/४ पल्य ,तारों,नक्षत्र,बुद्ध की १/८ पल्य है !
लौकांतिक देवों की आयु-
लौकान्तिकानामष्टौसागरोपमाणिसर्वेषाम् !!४२ !!
संधि विच्छेद -लौकान्तिकानाम+अष्टौ+ सागरोपम+,अणि+ सर्वेषाम्
शब्दार्थ-लौकान्तिकानाम-लौकांतिक देवों में , अष्टौ-आठ , सागरोपम-सागर ,आणि-अस्ति है,, सर्वेषाम्-समान
अर्थ- लौकांतिक देवों की एक समान;जघन्यायु और उत्कृष्टायु ८ सागर है प्रमाण ही है !
विशेष -सभी लौकांतिक देवों की ऊंचाई ५ हाथ प्रमाण होती है और शुक्ललेश्याधारी होते है !ये ब्रह्मऋषि कहलाते है!इनकी देवांगनाएँ नहीं होती !
देवों का स्वरूप –
१-सभी देवों का शरीर का आकार सुंदर,अंग-उपांग अति सुन्दर,मनोहर ,समचतुर संस्थान सहित सप्त धातुओं(रस,लहू,हड्डि,मांस,मेद,मज्जा,वीर्य,/शुक्र)पसीने आदि से रहित महा सुगंधित,भव प्रत्यय से वैक्रयिक होता है।
२-इनके शरीर के वैक्रयिक पुद्गल परमाणुमय है!बाल ,नाखून आदि बढ़ते नही !दाढ़ी -मूछें ,नेत्रों में पलके आदि होती नहीं है !
३- देवों के बाल्यावस्था और वृद्धावस्था नहीं होती ,अपने जन्म से च्युत होने तक युवा ही रहते है!
४-इनके बल,वीर्य,प्रभाव,वैभव,परिवार रूप सम्पदा में हीन अधिक्ता नहीं होती सदा एक समान रहते है !
५-देवों को आहार की जब वांछा होती हैं ,तब इनके कंठ से अमृत झर कर इनकी तुरंत तृप्ति हो जाती है! इनका मानसिक आहार होता है मनुष्यों की भांति कवलाहार नहीं होता है ! है की देवगति संयम नहीं हो पाता है !
६- देव गति में जीव के पहले चार गुणस्थान होते है !
Animations and Visualizations.
मुनि श्री 108 प्रणम्यसागरजी तत्वार्थ सूत्र with Animation
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