तत्वार्थ सूत्र आचार्य उमास्वमि द्वारा विरचित
The name Tattvartha Sutra consists of three Sanskrit words: Tattva (true nature), artha (things or realities) and sutra (aphorisms of few words). It may, therefore, be called “Aphoristic Text on the true nature of realities” This indicates the contents of the text.
मंगलाचरण
मोक्ष मार्गस्य नेतारं,भेतारं कर्मभूभृत्ताम् !
ज्ञातारं विश्वतत्वानं,बन्दे तद् गुणलब्धये !!
अर्थ-(मोक्ष मार्गस्य नेतारं) मोक्ष मार्ग का प्रवर्तन करने वाले -हितोपदेशी) ,( भेतारं कर्मभूभृत्ताम् ) कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले-वीतराग ,(ज्ञातारं विश्वतत्वानं) विश्व तत्वों के ज्ञाता-सर्वज्ञ,( बन्दे तद् गुणलब्धये) को उनके गुणों की प्राप्ति के लिए वंदना करता हूँ!
जैन दर्शन की विशेषताए –
१-जैन दर्शन विश्व में –
१-एक मात्र दर्शन है जो कि व्यक्ति विशेष की वंदना ,पूजन ,अर्चना नही करता बल्कि उन अनन्तान्त अरिहंत और सिद्ध भगवंतों के गुणों की प्राप्ति के लिए करता है जो अनंत काल से सिद्ध होते आ रहे है,हो रहे है और होते रहेंगे !
२- एक मात्र दर्शन है जो प्रत्येक भव्य जीव में सिद्ध भगवान बनने की क्षमता की उद्घोषणा ही नही करता वरन ,उनके बनने के लिए मोक्षमार्ग का भी दिग्दर्शन कराता है!इसी कड़ी में मानव जाति, आचार्य उमास्वामी जी के सदैव ऋणी रहेंगी जिन्होंने ‘तत्वार्थ सूत्र ‘नामक इस ग्रन्थ को रचकर समस्त मानव जाति के लिए मोक्ष प्राप्ति के मार्ग का निर्देशन किया है!संसार के समस्त जीवों को इससे अधिकत्तम लाभान्वित होने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए!
३- जैन धर्म के सिद्धांत जैन कुल में उत्पन्न जीवों के लिए ही नही वरन समस्त मानवजाति के लिए है ,अत: इनसे भरपूर लाभ लीजिये ! ३५७, तत्वार्थ सूत्रों का संक्षिप्त एवं सरल अर्थ प्रस्तुत है!यहां आचार्य मोक्ष मार्गका १० अध्यायों में वर्णन करते हुए प्रथम अध्याय में बताते हुए कहते है
१ -सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:
समयग्दर्शन+ज्ञान +चरित्राणि)+मोक्षमार्ग:
अर्थ- सम्यग्दर्शन ,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनो की एकता (रत्नत्रय रूप ) मोक्ष मार्ग है (अलग अलग नही ) !सम्यक् का अर्थ भली भांति है/विपरीत अभिनिवेश दोष रहित !
सम्यग्दर्शन-पदार्थों का विपरीत अभिनिवेश /दोष रहित यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है
सम्यग्ज्ञान -संशय ,विपर्यय,और अनध्यवसाय रहित पदार्थों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है!संशय का अर्थ किसी तत्वार्थ में शक होना की जैसे जिनेन्द्र भगवान ने खा है वैसे ही है या नहे !विपर्यय का अर्थ जो उन्होंने खा उससे विपरीत मान्यता रखना !अनध्यवसाय का अर्थ है तत्व के स्वरुपको निर्णीत नही करना अथवा कर पाना!
सम्यक्चारित्र -सम्यग्दर्शन एवं सम्यज्ञान पूर्वक जीव के आचरण में मिथ्यात्व,अविरति,प्रमाद,कषायो योग रूप आस्रव-बंध के अभाव के लिए चारित्र धारण करना सम्यक्चारित्र है !
२ -तत्वार्थश्रद्धानंसम्यग्दर्शनम्
तत्वार्थ+श्रद्धानं+सम्यग्दर्शनम्
अर्थ- भली भांति तत्वार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है!(जीव,अजीव,आस्रव,बंध,संवर,निर्जरा और मोक्ष) तत्वों का जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित अर्थों /भावों के अनुसार दृढ श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है!जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है,उसी रूप उनका होना तत्व है!तत्व द्वारा वस्तु को निश्चित करना तत्वार्थ है!
३ -तन्निसर्गादधिगमाद्वा
तत्+निसर्गात्+अधिगमात्+वा
अर्थ-वह (सम्यग्दर्शन) निसर्गज और अधिगमज दो प्रकार का है !
निसर्गात् /निसर्गज सम्यग्दर्शन-यह स्वभाव से स्वयं के परिणामों से ,बिना किसी गुरु के उपदेश के होता है !जैसे जातिस्मरण ,देवदर्शन आदि से सम्यग्दर्शन होता है !
अधिगमात् /अधिगमज सम्यग्दर्शन -यह किसी गुरु के उपदेशों के निमित्त से, परिणामों में विशुद्धि होने पर होता है! जैसे दो आकाशगामी चारण ऋद्धि धारी मुनियों के उपदेश से, सिंह पर्याय में महावीर भगवान के जीव को हुआ था !
४ -जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षस्त्तत्वम्
जीव+अजीव+आस्रव+बन्ध+संवर+निर्जरा+मोक्षस्त्तत्वम्
अर्थ -जीव,अजीव,आस्रव,बन्ध,संवर,निर्जरा,मोक्ष,सात ही तत्व है !
इनमे प्रत्येक के द्रव्य और भाव दो दो भेद है
जीवतत्व -चेतना लक्षण वाला (एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त,सिद्ध भगवान )जो जी रहा था,जी रहा है और जीयेगा,वह जीव है!जीव तत्व का विश्लेषण व्यवहार और निश्चय दो नयों से किया जाता है !जो इन्द्रिय,बल,आयु और श्वासोच्छवास ;चार प्राणो से जीता है वह व्यवहार नय से जीव तत्व है;ऐसा कहना द्रव्य, जीव है तथा सत्ता ,सुख,बोध,चेतना इन चार निश्चय प्राणों रूप जीवतत्व कहना,भाव जीव है
अजीवतत्व-चेतना रहित संसार के समस्त जड़ रूप पुद्गल ,धर्म,अधर्म ,आकाश और काल कहना द्रव्य अजीव है!इनमे पुद्गल द्रव्य में स्पर्श,रस,गंध,वर्ण गुणों युक्त है,गति हेतुतुत्व धर्म का गुण,स्थिती हेतुत्व अधर्म का गुण ,अवगाहन हेतुत्व आकाश का गुण और वर्तना हेतुत्व काल का गुण कहना भाव अजीव है!
आस्रवतत्व- कर्मों का आत्मा की ओर आना आस्रवतत्व है !
जीव के रागादि भावों के निमित्त से पुद्गल परमाणुओं में ज्ञानावरणीय आदि अष्टकर्म रूप फल देने की शक्ति होना द्रव्यास्रव है और ५ मिथ्यात्व,१२ अविरति,२५ कषाय,१५ योगो रूप जीव के ५७ परिणाम भावास्रव है !
बन्ध-रागद्वेष का निमित्त पाकर आये कर्मों का आत्मा से बंधना /एक क्षेत्रावगाह रहना द्रव्य बंध, तत्व है!तथा आत्मा के रागादि परिणामों से कर्म रज को ग्रहण करना भाव बंध है
संवर-व्रत समिति गुप्ती आदि चारित्र धारण करने से उतपन्न परिणामों के फलस्वरूप आत्मा की ओर आते हुए कर्मो का रुक जाना ,द्रव्य संवर तत्व है तथा ५ समिति,५ व्रत, गुप्ती ,१२ भावना,१० धर्म,२२ परिषह जय ,इन ५७ भेद रूप जीव के परिणाम,भाव संवर है !
निर्जरातत्व -अनशन ,तप ,ध्यान,आदि द्वारा उत्पन्न विशुद्ध परिणामों के निमित्त से आत्मा से बंधित कर्मों का आत्मा से एक देश पृथक होना निर्जरा द्रव्य तत्व है तथा इसमें कारणभूत आत्मा के परिणाम भाव निर्जरा है मोक्षतत्व-आत्मा से समस्त कर्मों का पृथक होना मोक्ष तत्व है !
जीव के प्रदेशों से चार प्रकार (प्रकृति,स्थिति,अनुभाग और प्रदेश) कर्मों का सर्वथा क्षय होजाना द्रव्य मोक्ष है तथा मोह राग द्वेष रहित रत्नत्रय रूप परिणाम ,भाव मोक्ष है!
५-नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:!
अर्थ-नाम+स्थापना+द्रव्य+भाव+तत्+न्यास:
नाम-नाम,स्थापना-स्थापना,द्रव्य-द्रव्य,भाव्-भावसे ,तत्-उन(साततत्वों और सम्यग्दर्शनादि ) का ,(न्यास)- निक्षेप अर्थात लोक में व्यवहार होता है!
निक्षेप-प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित हुए लोकव्यवहार को निक्षेप कहते है,जो प्रकरण को स्पष्ट करे!
नाम निक्षेप-गुण,जाति,द्रव्य और क्रिया की अपेक्षा रहित लोकव्यवहार के लिए किसी का कोई नाम रखने को कहते है जैसे अपने पुत्र में बिना इन्द्र के किसी भी विध्यमान गुण के नाम इंद्र रखना! अत: वह पुत्र नाम मात्र को ही इंद्र है !
स्थापना निक्षेप-धातु,काष्ठ,पाषाण,आदि के चित्रो /मूर्ती अथवा अन्य पदार्थ में’यह वह है’इस प्रकार मान्यता,स्थापना निक्षेप है जैसे मंदिर में भगवान की मूर्ती में भगवान मान लेना!
यह दो प्रकार की होती है !
१-तदाकार-तदाकार उसी आकारवान की मान्यता करना जैसे मूर्ती में महावीर भगवान की मूर्ती मानना !
२-अतदाकार-भिन्न आकारवान् पदार्थ में भिन्न आकारवान की मान्यता अतदाकार स्थापना है जैसे पूजन करते समय हाथ में चटक में नैवेद्य की कल्पना करन,शतरंज की मोहरों में पैदा, वजीर मानना !
नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेप में अंतर -नाम निक्षेप में पूजनीय/सम्मानीय भाव नहीं आता किन्तु स्थापना निक्षेप में पूजनीय/सम्मानीय भाव होता है !
द्रव्य निक्षेप-भूत एवं भविष्य की पर्याय की मुख्यता से वर्तमान में कहना,द्रव्य निक्षेप है!जैसे राजा के पुत्र राजकुमार को,वर्तमान में राजा कहना क्योकि भविष्य में वही राजा होगा!किसी निवर्तमान प्रबंधक को वर्तमान में प्रबंधक कहना आदि !
भाव निक्षेप-वर्तमान पर्याय युक्त वस्तु को भाव निक्षेप कहते है जैसे देवो के स्वामी,साक्षात् इंद्र को इंद्र कहना !
६-प्रमाणनयैरधिगम:
संधि विच्छेद-प्रमाण+नयै+अधिगम:
शब्द्दार्थ-प्रमाण-प्रमाणों ,नयै-नयों से ,अधिगम:-ज्ञान होता है
भावार्थ-सात तत्वों,और रत्नत्रय;सम्यग्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का ज्ञान प्रमाण और नयो से होता है –
प्रमाण-जो ज्ञान वस्तु के सर्वदेश को जानता है उस ज्ञान को प्रमाण कहते है!
प्रमाण के दो भेद है-
१-प्रत्यक्ष प्रमाण-जो ज्ञान किसी अन्य (इन्द्रियादिक) की सहायता के बिना पदार्थ को स्पष्ट, आत्मा से जानता है उस ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते है जैसे केवलज्ञान !
२-परोक्ष प्रमाण-जो वस्तु को इन्द्रियों,प्रकाश आदि अन्य की सहयता से जानता है वह परोक्ष प्रमाण (ज्ञान) है जैसे मति ,श्रुत ज्ञान !मति ज्ञान इन्द्रियों के अवलंबन से होता है तथा श्रुत ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है !
नय -वस्तु के एक देश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते है !द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के दो भेद है !
१-द्रव्यार्थिकनय-जो नय द्रव्य को जानता है उसे द्रव्यार्थिकनय कहते है !नैगमनय,संग्रहनय और व्यवहारनय! जैसे मैं शुद्ध आत्मा हूँ !
२-पर्यायार्थिकनय-जो नय पर्याय को जानता है वह पर्यायार्थिकनय है जैसे ऋजुसूत्रनय,शब्द नय,सँभिरूढनय,एवंभूतनय !जैसे मेरे रिश्तेदार,वर्तमान शरीर आदि सभी पर्याय की अपेक्षा से है !
७-निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधांत:
संधि विच्छेद-निर्देश+स्वामित्व+साधन+अधिकरण+स्थिति+विधानत:-
भावार्थ-निर्देश,स्वामित्व,साधन,अधिकरण,स्थिति और विधानत:,इन छ:अनुयोगों के द्वारा भी सात तत्वों और रत्नत्रय का ज्ञान या लोकव्यवहार होता है!इनके दवारा किसी वस्तु का ज्ञान किया जाता है
निर्देश-वस्तु के स्वरुप या नाम के कथन को निर्देश कहते है! जैसे सम्यग्दर्शन क्या है?जीवादि सात तत्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ऐसा कथन करना निर्देश है !
स्वामित्व-वस्तु के स्वामीपन को स्वामित्व कहते है जैसे सामान्य से सम्यग्दर्शन किसे होता है ?सम्यग्दर्शन सामान्यत:जीव के होता है अर्थात सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव है !
साधन-वस्तु की उत्पत्ति के कारण को साधन कहते है,जैसे सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारण-साधन दो;अभ्यंतर और बाह्य है!दर्शन मोहनीय का उपशम,क्षय या क्षयोपशम अभ्यंतर साधन है!बाह्य साधन में नारकियों के तीसरे नरक तक तीन कारण जाति स्मरण,धर्मश्रवण और वेदना अनुभव है और चौथे से सातवे नरक तक केवल जातिस्मरण और वेदना अनुभव है !
मनुष्यो और तिर्यन्चों के बाह्य साधन सम्यग्दर्शन के जाति स्मरण,जिनबिम्ब दर्शन एवं धर्म श्रवण है!
देवों में प्रथम से १२वे स्वर्ग तक जाति स्मरण,धर्मश्रवण,जिन महिमा दर्शन,और देवऋषि दर्शन है! १३वे से १६वे स्वर्ग तक जातिस्मरण,जिनमहिमा दर्शन और धर्मश्रवण है,नौ ग्रैवीको तक जातिस्मरण और धर्म स्मरण है!अनुदिशो और अनुतर विमानों में यह कल्पना नहीं है क्योकि वहां सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते है !
अधिकरण-वस्तु के आधार को अधिकरण कहते है!सम्यग्दर्शन का अधिकरण/आधार क्या है?सम्यग्दर्शन का बाह्य और अभ्यंतर दो प्रकार का अधिकरण है!जिस सम्यग्दर्शन का जो स्वामी है वही उसका अभ्यंतर अधिकरण है !बाह्य अधिकरण एक राजू चौड़ी और १४ राजू लम्बी लोक नाड़ी है !
स्थिति -वस्तु के ठहरने के काल की मर्यादा को स्थिति कहते है !
औपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मूर्हत है !
क्षायिक सम्यग्दर्शन की संसारी जीव की जघन्य स्थिति अंतर्मूर्हत और उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अंतर्मूर्हत कम दो पूर्व कोटि अधिक ३३ सागर है !
मुक्त जीव के आदि अनन्त है !
क्षयोपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अंतर्मूर्हत है व् उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम है !
विधान-वस्तु के कितने भेद है!सामान्य से सम्यग्दर्शन का एक भेद है!निसर्गज और अधिगमज के अपेक्षा से दो भेद है!औपशमिक,क्षायिक और क्षयोपशमिक की अपेक्षा से तीन भेद है !शब्दों की अपेक्षा संख्यात भेद है !
८-सात तत्वों और रत्न त्रय को जाननेका उपायान्तर –
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च -८
सत्+संख्या+क्षेत्र+स्पर्शन+काल+अन्तर+भाव+अल्पबहुत्व+च
भावार्थ-सत्,संख्या,क्षेत्र,स्पर्शन,काल,अन्तर,भाव,(च)और अल्पबहुत्व,इन आठ अनुयोगो के द्वारा भी सात तत्वों और रत्नत्रय का( च सूत्र ६ में अधिगम) ज्ञान या लोकव्यवहार होता है!
सम्यग्दर्शन में इन आठ अनुयोगो को दर्शाते है !
सत्-वस्तु के अस्तित्व(मौजदगी) को सत् कहते है!
सम्यक्त्व आत्मा का गुण /धर्म है इसलिए शक्ति की अपेक्षा सब जीवों में पाया जाता है किन्तु भव्य जीवों में ही प्रकट होता है !
संख्या-वस्तु के भेदो की गिनती,संख्या कहते है!
सम्यग्दृष्टि कितने है इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन की संख्या बताई जाती है!संसार में सम्यग्दृष्टि पल्य के असंख्यातवे भाग प्रमाण है और मुक्त सम्यग्दृष्टि अनन्त है !
क्षेत्र-वस्तु के वर्तमान निवास स्थान को क्षेत्र कहते है !
सम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवे भाग प्रमाण में पाये जाते है!इसलिए सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवा भाग प्रमाण हुआ!किन्तु केवली समुद्घात के समय यह जीव सब लोक को भी व्याप्त क़र लेता है,इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन का क्षेत्र सर्व लोक है!
स्पर्शन-वस्तु के तीनों काल संबंधी निवास स्थान स्पर्शन कहते है !
सम्यग्दृष्टि ने लोक के असंख्यातवे भाग क्षेत्र का,त्रस नाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्र का और सयोगकेवली की अपेक्षा सर्वलोक का स्पर्शन करा है !
काल-वस्तु के ठहरने की मर्यादा को काल कहते है!
एक जीव की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का काल सादि-सान्त और अनादि-अनन्त है क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा पाये जाते है,!
अन्तर- वस्तु के विरह काल को अंतर कहते है !
नाना जीवों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन में अंतर नहीं है क्योकि सम्यग्दृष्टि सदा होते है!
एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर,अंतर्मूर्हत और उत्कृष्ट कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल प्रमाण है !
भाव-औपशमिक,क्षायिक,आदि परिणामों को कहते है !
सम्यग्दृष्टि का औपशमिक,क्षायिक ,क्षयोपशमिक भाव है !
अल्पबहुत्व-अन्य पदार्थों की अपेक्षा किसी वस्तु की हीनाधिकता के वर्णन को अल्पबहुत्व कहते है !
औपशमिक सम्यग्दृष्टि सबसे कम है!
उनसे संसारी क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यात गुणे है!
उनसे क्षायोपशमिक समयगदृष्टि असंख्यातगुणे है!
उनसे मुक्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि अनंन्त गुणे है !
सम्यग्ज्ञान के भेद –
मतिश्रुतावधि मन:पर्यय केवलानि ज्ञानम् -९
संधि विच्छेद-मति+श्रुत+अवधि+मन:पर्यय+केवलानि ज्ञानम्
अर्थ:- मति ,श्रुत,अवधि,मन:पर्यय और केवलज्ञान ,सम्यग् ज्ञान है !
मतिज्ञान-इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते है !जैसे मेज है,तत्वार्थ सूत्र है मति ज्ञान है
श्रुतज्ञान-मतिज्ञान से ज्ञात पदार्थो का जो विशेष रूप से ज्ञान होता है श्रुतज्ञान कहलाता है!तत्वार्थ सूत्र में कितने अध्याय है ,उनमे क्या वर्णन है, यह श्रुत ज्ञान है! यह पंखा है मतिज्ञान है उसके कीमत जानना श्रुतज्ञान है
अवधिज्ञान-द्रव्य,क्षेत्र,काल,भाव की मर्यादा लिए हुए रुपी पदार्थों का इन्द्रियादिक की सहायता के बिना जो ज्ञान आत्मा से रुपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह अवधि ज्ञान है !
मन:पर्यय ज्ञान-द्रव्य,क्षेत्र ,काल और भाव की मर्यादा लिए हुए पर के मनोगत चिंतित और अचिंतित रुपी पदार्थो को जो ज्ञान जानता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते है !
यशोधर मुनि महाराज ने श्रेणिक के मन आये विचार कि मैं अपना गला काट लू, को मनपर्यय ज्ञान से जानकर उन्हें ऐसा करने से रोक लिया !
केवलज्ञान-सब द्रव्यों को उनकी सब पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते है !
वर्तमान काल में हमें मति व् श्रुत ज्ञान है!सम्यग्दृष्टि है तो मति व् श्रुत ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि है तो कुमति और कुश्रुत ज्ञान होता है!कल्की के काल में मुनिराज को अवधि ज्ञान होता है !नरक गति में पहिले ३ ज्ञान हो सकते है !संसारी जीव के मति और श्रुत ज्ञान प्रत्येक जीव के होता है !
प्रमाण के भेद –
तत् प्रमाणे -१०
शब्दार्थ -तत्- वह(पांच प्रकार का ज्ञान),प्रमाणे -दो प्रमाण रूप है!
प्रमाण-जो ज्ञान वस्तु के सर्वदेश को जानता है उस ज्ञान को प्रमाण कहते है !अत: सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते है !उसके दो भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष है !
परोक्ष प्रमाण के भेद –
आद्ये परोक्षम् -११
शब्दार्थ -आध्ये-आदि के दो अर्थात मति और श्रुत ,परोक्षम् -परोक्ष प्रमाण है !
भावार्थ -मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण है !प्रकाश ,इन्द्रियादि से ये ज्ञान होते है
प्रत्यक्ष मन्यत् -१२
शब्दार्थ-अन्यत् -अन्य तीन अर्थात अवधि,मन:पर्यय और केवल ज्ञान प्रत्यक्षम् -प्रत्यक्ष प्रमाण है !
अर्थ – अवधि,मन:पर्यय और केवल ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से नहीं होते, आत्मा से ही होते है
मतिज्ञान के पर्यायवाची –
मति:स्मृति :संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् -१३
संधि विच्छेद -मति:+स्मृति+:संज्ञा+ चिन्ता+अभिनिबोध+इति +अनर्थान्तरम् –
अर्थ-मति,स्मृति,संज्ञा,चिंता,अभिनिबोध अन्य पदार्थ नहीं है,मति ज्ञान के ही नामांतर /पर्यायवाची है !
मति-इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान मति ज्ञान है !
स्मृति-पूर्व में जाने गए पदार्थ के स्मरण को स्मृति कहते है !
संज्ञा-वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर कहना यह वही है ,इस प्रकार स्मरण और प्रयक्ष के जोड़ रूप ज्ञान को संज्ञा कहते है !
चिंता-व्याप्ति के ज्ञान को चिंता कहते है जैसे कही धूम देखने पर वहां अग्नि के ज्ञान का निश्चित रूप से होना !
अभिनिबोध-साधन से साध्य के ध्यान को अभिनिबोध कहते है !इसका दूसरा नाम अनुमान भी है!जैसे कही धुँआ उठने पर अनुमान लगा लेने का वहां अग्नि भी है !ये सब मति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते है इसलिए निमित्त सामान्य की अपेक्षा से सबको एक कहा है ,परन्तु इन सब में स्वरुप भेद अवश्य है ! वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की टीका धवला जी में मति ज्ञान को अभिनिबोध ज्ञान ही कहा है !
मति ज्ञान की निमित्त की अपेक्षा उत्पत्ति के कारण
तदिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम् -१४
संधि विच्छेद -तत् +इन्द्रिय+अनिन्द्रिय -निमित्तम्
शब्दार्थ -तत् -वह (मति ज्ञान) इन्द्रिय इन्द्रियों ,अनिन्द्रिय -मन के निमित्तम्-निमित्त से होता है !
अर्थ-वह मतिज्ञान पांच (स्पर्शन ,रसना ,घ्राण,चक्षु एवं कर्ण ) इन्द्रियों और मन के निमित्त से होता है !
भावार्थ-मति ज्ञान सैनी पंचेन्द्रिय जीव के पांच इन्द्रियों और मन,असैनी के पंचेन्द्रिय ,चतुर इन्द्रिय को स्पर्शन रसना घ्राण और चक्षु,त्रि इन्द्रिय को स्पर्शना ,रसना,घ्राण ;द्वीन्द्रिय को स्पर्शन और रसना तथा एकेन्द्रिय को मात्र स्पर्शन इंद्री से होता है !प्रत्येक संसारी जीव,निगोदिया के (अक्षर के अनंतवे भाग प्रमाण) भी मति एवं श्रुत ज्ञान होता अवश्य है !
यहाँ निमित्त की अपेक्षा मति ज्ञान के भेद बताये है !
मतिज्ञान के भेद –
अवग्रहेहावय धारणा:-१५
संधि विच्छेद-अवग्रह+ईहा+आवय+धारणा:
अर्थ -मतिज्ञान के अवग्रह,ईहा,आवाय और धारणा चार भेद है !
दर्शन-वस्तु की सत्ता मात्र के ग्रहण या सामान्य अवलोकन को दर्शन कहते है जैसे दूर आकाश में किसी वस्तु के होने का आभास होता है,जब तक हम उस वस्तु का ज्ञान नहीं कर लेते कि वह क्या है तब तक आत्मा का दर्शन में उपयोग होता है ,दर्शन होता है और जब हम उसे जान लेते है की क्या वस्तु है तब ज्ञान होता है,आत्मा का उपयोग ज्ञानोपयोग कहलाता है !दर्शन अत्यंत सूक्ष्म क्रिया है,इससे समझना अत्यंत कठिन है!आपके पीछे कोई वस्तु है ,आप गर्दन मोड़कर जब तक उसे देख नहीं लेते तब तक आत्मा का दर्शनोपयोग होता है ,जैसे ही उसे देखकर जान लेते है वस्तु है तब आत्मा का ज्ञानोपयोग होता है !
अवग्रह- दर्शन के बाद हुए शुक्ल, कृष्ण आदि रूप विशेष ज्ञान को अवग्रह कहते है !जैसे की दूर आकाश में कोई सफ़ेद अथवा काली वस्तु दिखती है तो यह अवग्रह मतिज्ञान है !
ईहा-अवग्रह से ज्ञात पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा ईहा है !जैसे उक्त उद्धाहरण में वह सफ़ेद /काली वस्तु क्या है जानने की इच्छा,वह बगुला है या पताका,ईहा मतिज्ञान है !
आवाय-विशेष चिन्हो द्वारा यथार्थ वस्तु का निर्णय होने को आवय कहते है जैसे वह वस्तु बगुला ही है जान लेना आवाय मति ज्ञान है !
धारणा-निश्चित हुई वस्तु को कालांतर में नहीं भूलना धारणा मति ज्ञान है !जैसे कुछ समय बाद शुक्ल पदार्थ में पंखो को फड़ -फाड़ना और उड़ना देख बगुला को देखकर जान लेना की बगुला है !यह धारणा मति ज्ञान है
अवग्रह आदि के वशीभूत पदार्थ –
बहुबहुविधक्षिप्रानि:सृतानुक्तध्रुवाणाम् सेतराणाम् – १६
संधि विच्छेद -बहु+बहुविध+क्षिप्रानि:+सृतानुक्त+ध्रुवाणाम् सेतराणाम्
शब्दार्थ-सेतराणाम्-अपने प्रतिपक्षी एक,एकविध,अक्षिप्र ,नि:सृत ,उक्त और अध्रुव भेदों सहित बहु,बहुविध,क्षिप्र,अनि:सृत,अनुक्त और ध्रुव इन बारह प्रकार के पदार्थों के (अवग्रह,ईहा आवय ,धरणा ) ज्ञान होते है !अथवा अवग्रह आदि से इन बारह पदार्थों का ज्ञान होता है !
बहु बहुत वस्तुओं के ग्रहण को बहुज्ञान कहते है जैसे सेना ,वन को एक समूह रूप जानना !
एक-एक अथवा अल्प का ज्ञान एक/अल्प ज्ञान है जैसे एक मनुष्य अथवा एक तृण का ज्ञान !
बहुविध -बहुत प्रकार की वस्तुओं क ग्रहण को बहुविध ज्ञान कहते है जैसे सेना में हाथी ,घोडा ,इत्यादि तथा वन में आम ,महुआ आदि भेड़ो को जानना !
एकविध-एक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान एकविध ज्ञान है जैसे एक सदृश गेहूं को जानना !
क्षिप्र-शीघ्रता से जाती हुई वस्तुओं को जानना जैसे तेज़ चलती गाड़ी को या उसमे बैठकर बहार की वस्तुओं को जानना !
अक्षिप्र -धीरे धीरे चलते घोड़ो को जानना अक्षिप्र ज्ञान है !
अनि :सृत -वस्तु के एक भाग को जानकर उसे पूर्णतया जानना अनि:सृत ज्ञान है जैसे जल में डूबे हाथी की सूंड को देखकर हाथी का ज्ञान होना !
नि :सृत -वस्तु के सम्पूर्ण भाग को जानकर जानना जैसे जल से हाथी के पूर्णतया निकल कर उसे जानने को नि :सृत ज्ञान कहते है !
अनुक्त -बिना कहे अभिप्राय से ही जानना अनुक्त ज्ञान है
उक्त -कहने पर जानना उक्त ज्ञान है !
ध्रुव-बहुत दिनों तक स्थिर रहने वाले पर्वत आदि को जानना ध्रुव ज्ञान है
अध्रुव-चंचल बिजली आदि को जानना अध्रुव ज्ञान है !
बहु विध आदि किसके विशेषण है?
बहु विध आदि को जानने वाले अवग्रहादि रूप २८८ भेद किसके विशेषण है?
अर्थस्य -१७
ये पदार्थो के भेद है !
प्रगट, व्यक्त रूप वस्तु के संबंध में;बहु ,बहु विध ,क्षिप्र,नि:सृत,उक्त ,ध्रुव और इनके विपरीत कुल १२ प्रकार के पदार्थ, ५ इन्द्रियों और मन के विषय बन कर अवग्रह,ईहा,आवाय और धारणा ४ ज्ञान द्वारा ज्ञात होते हैं!नेत्रादि इन्द्रियों के विषय अर्थ है,बहु-बहुविध आदि उनके विशेषण है ! ये २८८ भेद द्रव्य की अर्थ पर्याय को जानते है व्यञ्जन पर्याय को नही जानते !इस सूत्र का यही प्रयोजन है !
व्यञ्जनस्यावग्रह : -१८
संधि विच्छेद -व्यञ्जनस्य +अवग्रह :
शब्दार्थ -व्यञ्जनस्य -अस्पष्ट शब्द का,अवग्रह :- का केवल अवग्रह ज्ञान होता है !
भावार्थ -अस्पष्ट शब्दों का केवल अवग्रह ज्ञान होता है ,ईहा,आवय और धारणा ज्ञान नहीं होते !
विशेषार्थ-अवग्रह के दो भेद १-व्यजनावग्रह और २-अर्थावग्रह है
अस्पष्ट पदार्थ के ज्ञान को व्यंजावग्रह कहते है !जैसे कान में एक साधारण सी आवाज़ का आभास होकर रह गया किन्तु बाद कुछ भी नहीं पता लगा कि क्या था !ऐसी अवस्था में केवल व्यंजनावग्रह ही होकर रह जाता है !परन्तु धीरे धीरे वह आवाज़पष्ट हो जाए तो अर्थावग्रह और फिर ईहा आदि ज्ञान भी हो जाते है !इसलिए अस्पष्ट पदार्थों का केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है और स्पष्ट पदार्थों के चारो ज्ञान होते है !व्यञ्जन अवग्रह के
अर्थावग्रह -स्पष्ट पदार्थों के ज्ञान को कहते है !
व्यंजावग्रह की विशेषता
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् -१९
संधि विच्छेद -न चक्षुर+अनिन्द्रिय+आभ्याम्
शब्दार्थ- चक्षुर-चक्षु(नेत्र) और अनिन्द्रियाभ्याम् -मन से -न-नहीं होता है
भावार्थ -व्यंजनावग्रह ज्ञान चक्षु -नेत्र इंद्री और मन से नहीं होता शेष चारो इन्द्रियों से होता है !
अर्थात १२-१२ प्रकार का प्रत्येक अवग्रह,ईहा,आवय और धारणा ज्ञान हुआ इस प्रकार १२X ४ =४८ भेद मति ज्ञान के हुए। प्रत्येक पांच इन्द्रियों और १ मन अर्थात कुल ६ से होता है इसलिए मति ज्ञान के भेद ४८X ६=२८८ हुए !इसमें व्यंजनावग्रह के १२X४ (क्योकि चक्षु और मन से यह नहीं होता ,शेष चारों इन्द्रियों से होता है)=४८ जोड़ने पर कुल मति ज्ञान के ३३६ भेद होते है
श्रुत ज्ञान और उसके भेद –
श्रुतंमतिपूर्वंद्वयनेकद्वादशभेदम् !-२०
संधि विच्छेद -श्रुतं+मति+पूर्वं+द्वि+अनेक +द्वादश +भेदम्
-शब्दार्थ -श्रुतं-श्रुतज्ञान ,मति-मतिज्ञान ,पूर्वं-पूर्वक होता है ,द्वि-दो,अनेक-अनेक और द्वादश -बारह ,भेदम् -भेद है
अर्थ -श्रुतज्ञान से पूर्व मति ज्ञान होता है अर्थात पहला श्रुत ज्ञान मति ज्ञान पूर्वक होता है उसके (श्रुतज्ञान के ) दो,अनेक और बारह भेद है !
श्रुत ज्ञान के दो भेद अंग प्रविष्ट और आंग बाह्य है !
श्रुत ज्ञान के विस्तारपूर्वक भेद के इच्छुक सहधर्मी कृपया निम्न लिंक पर अवलोकन कर सकते है
भव प्रत्ययोऽर्वधिर्देव नारकाणाम्-२१
संधि विच्छेद-
भव प्रत्ययो:+अवधि:+देव+नारकाणाम्
शब्दार्थ-भवप्रत्यय-भव प्रत्ययो (कारण),अवधि-अवधि ज्ञान ,देव +नारकाणाम्-देवों और नारकीयों को होता है !
अर्थ-देवों और नारकीयों को भव प्रत्यय(कारण) अवधिज्ञान होता है!
अवधिज्ञान के भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय दो भेद है ! भव प्रत्यय देव और नारकी के पर्याय के निमित्त से अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और गुण प्रत्यय व्रत नियम आदि के द्वारा अवधि ज्ञानावरण के क्षोपशम के निमित्त से होता है !
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के भेद/स्वामी –
क्षयोपशम निमित्त: षड्विकल्प: शेषाणाम्-२२
अर्थ-वह (अवधिज्ञान ),क्षयोपशम-क्षयोपशम के,निमित्त:-निमित्त से षड्विकल्प:-छ:भेदो सहित,शेषाणाम्-शेष जीवों अर्थात तिर्यंच और मनुष्यो को होता है
भावार्थ -क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छ:भेदो वाला तिर्यंच और मनुष्यो को होता है!
अवधि ज्ञान -जो द्रव्य ,क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा अर्थात सीमा से युक्त अपने विषयभूत रुपी पदार्थ के ज्ञान को जाने वह अवधि ज्ञान है ! गुण प्रत्यय अवधि ज्ञान के ३ भेद -देशावधि,परमावधि,सर्वावधि है !
देशावधि ज्ञान-देश का अर्थ सम्यक्त्व है,क्योकि वह संयम का अवयव है, जिस ज्ञान की अवधि/सीमा/मर्यादा हो वह देशावधि ज्ञान है !
१-देशावधि के भेद- अनुगामी ,अननुगामी,वर्धमान,हीयमान,अवस्थित,अनवस्थित छ भेद है !
अनुगामी देशावधि ज्ञान-जो अवधि ज्ञान सूर्य के भांति दुसरे भवों या क्षेत्रों में जीव के साथ बना रहे वह क्रमश:भवानुगामी और क्षेत्रानुगामी अवधिज्ञान है और जो अन्य भवों तथा क्षेत्रों में नहीं जाता वह भव अननुगामी और क्षेत्र अननुगामी अवधिज्ञान है !
क्षेत्रभवानुगामी अवधिज्ञान -जो भरत ,ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रों में तथा देव नारक मनुष्य और तिर्यंच भव में भी साथ जाता है वह क्षेत्रभवानुगामी अवधिज्ञान है और जो इन क्षेत्रो और भवों में नहीं जाता वह शेत्रभव अननुगामी अवधिज्ञान है
वर्धमान देशावधि ज्ञान- जो अवधि ज्ञान,शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कलाओं के समान बढ़ता रहता है वर्धमान देशावधि ज्ञान है !
हीयमानदेशावधिज्ञान-जो अवधि ज्ञान कृष्ण पक्ष के चन्द्रमाँ की कलाओं के समान घटता रहता है वह हीयमान देशवधि ज्ञान है !
अवस्थितदेशावधिज्ञान-जो अवधि ज्ञान सूर्य या तिल के समान एक सा रहता है वह अवस्थितदेशावधिज्ञान है !
अनवस्थितदेशावधिज्ञान -जो अवधिज्ञान हवा से जल की तरंगो की तरह घटता बढ़ता है,एक समान नही रहता,अनवस्थित देशावधिज्ञान है!
२-परमावधि ज्ञान-परम अर्थात असंख्यात लोकमात्र संयम भेद ही जिस ज्ञान की अवधि अर्थात मर्यादा है वह परमावधि ज्ञान कहलाता है !
३- सर्वावधि ज्ञान – सर्व का अर्थ है केवलज्ञान ,उसका विषय जो जो अर्थ होता है ,वह भी उपचार से सर्व कहलाता है !सर्व अवधि अर्थात मर्यादा जिस ज्ञान की होती है वह सर्वावधि ज्ञान है !
देशावधि और परमावधि ज्ञान के जघन्य,उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट तीन तीन भेद है सर्वावधि ज्ञान का एक ही भेद है! परमवधि और सर्वावधि उसी भव से मोक्षगामी दिगंबर तपस्वी जीवों के होते है !
मन:पर्यय ज्ञान के भेद –
ऋजुविपुलमति मन:पर्यय :-२३
अ र्थ -ऋजु मति और विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान के भेद है !
ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान- त्रियोग की सरलता से स्पष्ट विचारे गए दुसरे के मन में स्थित रुपी पदार्थ को जानने वाला ऋजुमति मन: पर्यय ज्ञान कहलाता है!
विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान-दुसरे के मन में गूढ़ अथवा जटिल रूप में स्थित रुपी पदार्थों को जानने वाला विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान कहलाता है !
ऋजुमति और विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान में अंतर –
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:२४
संधि विच्छेद -विशुद्धि +अप्रतिपाता +आभ्याम् +तद्विशेष:
अर्थ -विशुद्धि और अप्रितिपात से उनमे (ऋजुमति और विपुलमति) में विशेषता है !
विशुद्धि-मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में जो उज्जवलता होती है उसे विशुद्धि कहते है !
अप्रतिपाता -संयम परिणाम की वृद्धि होने से उसमे गिरावट नहीं होना अप्रतिपात कहलाता है !
ऋजुमति से विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है!तथा ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान होकर छूट भी सकता है किन्तु विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान केवल ज्ञान होने तक बराबर बना रहता है !
अवधि और मन:पर्यय ज्ञान में अंतर –
विशुद्धि क्षेत्र स्वामि विषयेभ्योऽवधि मन:पर्ययो:-२५
विशुद्धि+ क्षेत्र+ स्वामि+ विषय+इ भ्यो+अवधि +मन:पर्ययो:
अर्थ-अवधि और मन: पर्यय ज्ञान में; विशुद्धि ,क्षेत्र , स्वामी और विषय की अपेक्षा विशेषता होती है!
विशुद्धि -परिणामों की उज्ज्वलता है,क्षेत्र-जहाँ वस्तु स्थित है वह उसका क्षेत्र है,स्वामी–जिसकी वस्तु है वह उसका स्वामी है !क्षेत्र में स्थित ज्ञेय पदार्थ विषय है इभ्य :- अपेक्षा से अवधि +मन:पर्यय में विशेषता,है
अवधिज्ञान अपेक्षाकृत कम विशुद्ध , बड़ा क्षेत्र (तीनो लोक) अधिक स्वामी औ र स्थूल विश्वान होता है!किन्तु मन:पर्यय ज्ञान विशुद्ध ,अल्पस्वामी,और सूक्ष्म विषयवान है !
अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान विशुद्धतर है क्योकि मन: पर्यय ज्ञान का विषय सूक्ष्म है !अवधिज्ञान का क्षेत्र सर्वलोक है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान का क्षेत्र ढाई द्वीप(४५लाख योजन प्रमाण) ही है!मन:पर्यय ज्ञान प्रमत्त से क्षीणकषाय गुणस्थान तक उत्कृष्ट चारित्र गुणों से युक्त दिगंबर मुनिराज के ही पाया जाता है किन्तु अवधि ज्ञान चारो गतियों के जीवों के पाया जाता है !
मतिज्ञान,श्रुतज्ञान,और अवधि ज्ञान चौथे गुणस्थान से १२ वे गुण स्थान तक के जीवों के होता है !
केवल ज्ञान १३ वे गुणस्थान से १४ वे गुणस्थानव्रती एवं सिद्ध भगवान के होता है
मति और श्रुत ज्ञान के विषय का नियम –
२६-मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्याय़ेषु !
संधि विच्छेद -मतियो +श्रुतयो:+निबन्ध: +द्रव्येषु +असर्वपर्याय़ेषु
शब्दार्थ-मतियो -मतिज्ञान,श्रुतयो:- श्रुतज्ञान,निबन्ध-: के विषय (सूत्र २५ से लिया गया है) का नियम, द्रव्येषु -सब द्रव्यों की,असर्वपर्याय़ेषु-(अनन्तानन्त पर्यायों में से )कुछ पर्यायों जानता है !
अर्थ- मति और श्रुत ज्ञान के विषय में नियम है कि वह सब द्रव्यों (जीव,पुद्गल,धर्म,अधर्म ,आकाश और काल ) में प्रत्येक की अनन्तान्त पर्यायों में से कुछ को ही जानता है !
अवधि ज्ञान के विषय का नियम-
२७-रुपिष्ववधे:
संधि विच्छेद -रुपिषु + अवधे :
शब्दार्थ-रुपिषु -रूपि,(पुद्गल), अवधे :-अवधि ज्ञान
अर्थ – अवधि ज्ञान के विषय का नियम है कि वह ,रुपी पुद्गल की अनन्तान्त पर्यायों में से कुछ को जानता है !
नोट -यहा विषय २५वे सूत्र से और निबंध:-नियम व असर्वपर्याय़ेषु -सब पर्यायों में नही सूत्र २६ से ग्रहण किया है !
रुपी से अर्थ पुद्गल द्रव्य से है किन्तु इसमें कर्मों से बंधित संसारी जीव द्रव्य भी लेना है,शुद्ध मुक्त जीवद्रव्य को नही !
अवधिज्ञान जीव की पौद्गलिक औपशमिक , और क्षयोपशमिक भाव रूप पर्याय को जानता है किन्तु मुक्त जीव और क्षायिक तथा पारिणामिक भाव को नही जानता
मन:पर्यय ज्ञान के विषय का नियम-
२८-तदनन्तभागे मनपर्यस्य
संधि विच्छेद -तत् +अंनतभागे +मन: पर्ययस्य
शब्दार्थ-तत्-उस (अवधिज्ञान),अंनतभागे-अनंतवभाग,मन: पर्ययस्य-मन: पर्यय ज्ञान है
अर्थ -मन: पर्यय ज्ञान के विषय में नियम है कि वह रुपी पुद्गल द्रव्य में अवधिज्ञान के अनंतवे भाग को कुच्छ पर्यायों तक जानता है !
नोट -१-यहा विषय २५वे सूत्र से और निबंध:-नियम व असर्वपर्याय़ेषु -सब पर्यायों में नही सूत्र २६ से ग्रहण किया है !रुपी ,२७वे सूत्र से ग्रहण किया है !
२–रुपी पुद्गल द्रव्य में सर्वावधि ज्ञान का विषय सूक्ष्मत: परमाणु है!उसके अनन्त भाग करने पर उसके एक भागमें मन:पर्यय ज्ञान की प्रवृत्ति होती है !यह अति सूक्ष्म द्रव्य को जानता है!परमावधि के विषयभूत पुद्गल स्कंध के अनंतवे भागमय परमाणु को सर्वावधि ज्ञान; परमाणु के अनंतवे भाग को ऋजुमति और उसके भी अनंतवे भाग को विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान जानता है !
जिज्ञासा-परमाणु को पुद्गल स्कंध का सूक्ष्मत: अविभाज्य खंड परिभाषित किया है ,फिर सर्वावधि और मन:पर्यय ज्ञान के विषय उस परमाणु के अनंतवे ,और उसके भी अनंतवे भाग कैसे संभव है ?
समाधान-एक ही पुद्गल में स्पर्श,गंध,रस और वर्ण आदि संबंधी अनन्तानन्त अविभागी प्रतिच्छेद होते है!उनके घटने बढ़ने की अपेक्षा अनंत से भाजित करना सम्भवहै,इसे :पर्यय ज्ञान जान लेता है !परन्तु इतना विशेष है कीएक परमाणु में विध्यमान स्पर्शादि अनेक पर्यायों में सर्वावधि ,वर्तमान पर्याय को जानता है तथा मन:पर्यय वर्तमान ,अतीत और अनागत रूप अनेक पर्यायों को जानता है !अविभागी प्रतिच्छेद किसी गुण जैसे गंध ,स्पर्श ,रस,वर्ण सूक्ष्मत इकाई है !
नोट-सभी सहधर्मी ,धर्मानुरागी भाइयों एवं बहिनो से विनम्र निवेदन है कि तत्वार्थ सूत्र जी के सूत्रों के अर्थों समझकर उन्हें कंठस्थ करने का प्रयास कीजिये!आप सूत्रों में संस्कृत शब्दों का संधि विच्छेद कर उनके अर्थों को सरलता से समझकर कंठस्त करने में सफल निश्चय ही होंगे !
इस महान ग्रन्थ के पूर्ण होते होते आपके भाव विशुद्धि की चर्म सीमा का स्पर्शन करने लगेंगे जो कि आपके इह और पर लोक के आध्यात्मिक उत्थान एवं आत्मिक कल्याण में निमित्त प्रमाणित होंगे !
केवलज्ञान के विषय का नियम:-
२९-सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य
संधि विच्छेद-सर्व+द्रव्य+पर्यायेषु+ केवलस्य
शब्दार्थ-सर्व-सभी (द्रव्य-द्रव्यों की, पर्यायेषु-पर्याय), केवलस्य-केवल (ज्ञान के विषय का नियम है )
अर्थ -केवलज्ञान के विषय का नियम है ,वह समस्त द्रव्यों की, सभी (अनन्तान्त त्रिकालवर्ती ) पर्याय को युगपत् प्रत्यक्ष एक ही समय (काल) में जानता है!
नोट -१-यहा विषय २५वे सूत्र से और निबंध:-नियम सूत्र २६ से ग्रहण किया है!
२-जीव द्रव्य अनन्तानन्त है,पुद्गल द्रव्य के अनन्तानन्त गुणे है, अधर्म,धर्म और आकाश द्रव्य एक एक है ,काल के काल अणु असंख्यात है!असंख्यात है !इन सभी द्रव्यों की अतीत,अनागत और वर्तमान रूप पृथक पृथक अनन्तान्त पर्याय है!उन सभी द्रव्यों और उनकी सभी पर्यायों को केवलज्ञान जानता है ! इसकी उत्कृष्तम विशुद्धि के कारण, इसमें बिना इच्छा करे, स्वत: ही ज्ञेय युगपत प्रत्यक्ष प्रगट हो जाते है
केवल ज्ञान की सिद्धि-
लोक में जीवों में हीनाधिक ज्ञान देखा जाता है अत:किसी जीव में सम्पूर्ण ज्ञान भी हो सकता है !अत:केवल ज्ञान की पुष्टि अनुमान से होती है !
केवल ज्ञान के पर्यायवाची-
केवल,परिपूर्ण,समग्र,असाधारण,निरपेक्ष,विशुद्ध,सर्भावव्यापक लोकालोक विषय अनंत पर्याय,अप्रतिम आदि है !
किसी जीव में एक साथ सम्यग्ज्ञान कितने हो सकते
३०-एकादिनी भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्य:
संधि विच्छेद-
एका+आदिनी+ भाज्यानि +युगपत् एकस्मिन्न् आचतुर्भ्य:
शब्दार्थ-एका-एक से ,आदिनी-आदि/प्रारम्भ कर ,भाज्यानि-विभक्त करने योग्य हो सकते है, युगपत् -एक काल में एक साथ,एकस्मिन्न्-एक जीव/आत्मा में,आ-लेकर ,चतुर्भ्य:-चार ज्ञान तक
अर्थ-एक जीव/आत्मा में एक काल में युगपत् एक साथ एक,दो,तीन अथवा चार ज्ञान हो सकते है !
भावार्थ-एक ज्ञान हो गया तो असहाय,क्षायिक केवल ज्ञान होगा उसके साथ अन्य चारो क्षयोपशमिक ज्ञान नही हो सकते !दो होंगे तो मति और श्रुत ज्ञान होगा! तीन होंगे तो मतिश्रुत अवधि अथवा मति ,श्रुत मन:पर्यय ज्ञान होगा ,चार ज्ञान होंगे तो चार, क्षयोपशमिक मति,श्रुत,अवधि और मन: पर्यय ज्ञान होंगे !पाँचों ज्ञान एकसाथ नही हो सकते क्योकि चार क्षयोपशमिक है और एक क्षायिक क्रेवल ज्ञान है !
जिज्ञासा १ -क्षयोपशमिक ज्ञान क्रमवर्ती होने से,एक काल में,एक ही सकता है चारों ज्ञान युगपत कैसे सम्भव है ?
समाधान-चारों मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म के एक साथ क्षयोपशम होने से,चारों ज्ञानो संबंधी जानने की शक्ति रूप लब्धि तो एक काल में हो जाती है किन्तु उपयोग एक काल में एक ही होसकता है !एक ज्ञेय में उपयुक्त होने से उसकी स्थिति भी अन्तर्मुर्हूत की है ,बाद में उपयोग ज्ञेयान्तर हो जाता है!इस प्रकार लब्धि की अपेक्षा चार ज्ञान जीव में युगपत हो सकते है !
२- यदि ऐसा है तो उपयोग की अपेक्षा भी एक काल में अनेक वस्तुओं का ज्ञान संभव है जैसे मिठाई का भक्षण करते समय रूपादि,पांचों का ज्ञान एक साथ होता है;उसका रंग दिख रहा है,स्वाद भी ले रहे है,गंध,स्पर्श भी जान रहे है,भक्षण करते समय शब्द भी सुनते है !
समाधान-ऐसा नही है,मात्र उपयोग की शीघ्रता से हमे काल भेद ज्ञात नही होता है !जैसे नोट की गद्दी में सुई डालते समय काल भेद नही होता है !
मति श्रुत और अवधि ज्ञान में मिथ्यात्व-
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च-३१
संधि विच्छेद –
मति+श्रुत +अवधिय: +विपर्यय:+ च !
शब्दार्थ-मति+श्रुत +अवधिय मति ,श्रुत और अवधि ज्ञान ,विपर्यय -मिथ्या/विपरीत च-भी होते है
अर्थ -मति श्रुत ,अवधि ज्ञान सम्यक तो होते है किन्तु मिथ्या भी होते है !इन्हे क्रमश: कुमति,कुश्रुत और कुअवधि (विभंगावधि) ज्ञान कहते है !
सूत्र में ” च” का अभिप्राय १- ये(मति श्रुत और अवधि )ज्ञान मिथ्या भी होते है और तीसरे,मिश्रगुणस्थान में जीव के; मति श्रुत और अवधि ज्ञान सम्यक और मिथ्यात्व दोनों रूप होते है !
२- इसके साथ संशय ,अनध्यवसाय को भी ग्रहण करना है
इन तीनो ज्ञान में; मिथ्यादर्शन के उदय में जीव के परिणाम मिथ्यात्व रूप होजाते है !उनके श्रद्धान में विपरीतता होने से इसे एकता विपर्यय कहते है !कुमति,कुश्रुत ज्ञान परोक्ष ज्ञान होने से इनमे तीनों; संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय पाये जाते है किन्तु कुअवधि ज्ञान प्रत्यक्ष होने से संशय नही होता !देशावधि ज्ञान में ही विपर्यय और अनध्यवसाय होता है !परमावधि और सर्वावधि केवल सम्यग्दृष्टि के होने से विपरीतता रहित है !
अनध्यवसाय -वस्तु स्वरुप का निर्णय करनी की आवश्यकता नही लगना अनध्यवसाय !
उद्दाहरण – दो व्यक्तियों से अलग अलग पूछा जाए की पुत्र किस का है ? यद्यपि दोनों का उत्तर होगा ” पुत्र मेरा है ” किन्तु सम्यग्दृष्टि का अभिप्राय होगा की क्योकि वह उससे उत्पन्न होने से उसका है ,किन्तु भेदज्ञान से उसका अपना नही मानेगा क्योकि पुत्र आदि सब ‘पर’ है!मिथ्यादृष्टि का अभिप्राय होगा की क्योकि उसने उसको जन्म दिया है इसलिए वह पुत्र उसी का है उसे ‘स्व’ और ‘पर’ का भेद ज्ञान नहीं होगा ,अत: दुसरे व्यक्ति का ज्ञान अभिप्राय की अपेक्षा मिथ्या और पहिले का सम्यक है !
ज्ञानो का मिथ्या होने का कारण –
सदसतोरवि शेषाद् -यदृच्छोप लब्धेरुन्मतवत्-३२
संधि विच्छेद –
सद+असतो:+अविशेषात्+यदृच्छोप+लब्धे:+उन्मतवत्
शब्दार्थ-सत्-सत्य/विध्यमान ,असतो:-असत्य/अविद्यमान ,अविशेषात्-अंतर या भेद नहीं होने से,यदृच्छोप-अपनी इच्छानुसार,लब्धे:-जानने के कारण,उन्मतवत् -पागल मनुष्य के उन्मत्तवता के कारण ज्ञान विपर्यय अर्थात मिथ्यादृष्टि का ज्ञान ,मिथ्या ज्ञान होता है !
अर्थ- सत् -विध्यमान वस्तु को सर्वथा विध्यमान रूप’ही’ जानना,असत्-अविध्यमान वस्तु को सर्वथा अविध्यमान रूप ‘ही’ जानना ,सत्-असत् के विशेष को जाने बिना ,एक समान रूप से ,अपनी इच्छानुसार उन्मत्त पागलो की भांति पदार्थों का ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है !
जिज्ञासा सम्यग्दृष्टि अपने यथार्थ मति,श्रुत,अवधि ज्ञान द्वारा पदार्थ को जैसा जानता है वैसा ही मिथ्यादृष्टि,मिथ्या(मति ,श्रुत और अवधि) द्वारा पदार्थों को जानता है फिर मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्या क्यों कहा गया है ?
समाधान -मदिरा के नशे में व्यक्ति को अपनी माँ,बहिन और पत्नी में भेद का जैसे ज्ञान नहीं होता है कभी वह उस लड़की को अपनी माँ ,कभी पत्नी और कभी बहिन कहता है,यदि वह ठीक रिश्ता भी बता रहा है तब भी उसका ज्ञान मिथ्या होता है क्यकि उसको निश्चितता नहीं है,विश्वस्नीयता नही है अपने ज्ञान की !अर्थात उसे वस्तु की वास्तविकता (सत्यता ) और अवास्तविकता (असत्यता) का अंतर नहीं मालूम !इसलिए उसका ज्ञान मिथ्या है ! इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव, घट पट को जानता है किन्तु मिथ्यात्व के उदय में उसे कभी घट और कभी पट कहता है ,उसे वस्तु के स्वरुप का ज्ञान नहीं होता !
मोक्ष-जीव की मुक्ति कुछ अन्य धर्मों में भी मानी गई है ,जैसे एक धर्म में आत्मा शरीर को छोड़ते ही मुक्त हो जाती है ,कुछ अन्य धर्म मानते ही की अपने आराध्य देवो की आराधना करने से मुक्ति मिल जाती है!किन्तु जैन धर्म स्पष्ट घोषणा करता है की आत्मा मुक्त स्वयं के पुरुषार्थ से अष्ट कर्मों का क्षय करने से होती है !इसका मार्ग भी वीतरागी,सर्वज्ञ,हितोपदेशी अरिहंत भगवंतों ने अपने अनुभव के आधार से अपनी दिव्यध्वनि के माध्यम से बताया है ,गणधर देवों ने उसको द्वादशांग रूप ११अङ्ग और १४ पूर्वों में गुथा है,श्रु त केवली और सत्य महाव्रतधारी आचार्यों के पहले मौखिक रूप से ,तत्पश्चात लिपि बध होकर आज भी हम तक पहुँच रहा है !यही सम्यक मोक्ष मार्ग है क्योकि वीतरागी भगवन्तो द्वारा सम्यक विधि से प्रणीत है ,जबकि अन्य धर्मो में मोक्ष के सन्दर्भ में आये कथन; अनुभवहीन रागी ,राग- द्वेष में लिप्त देवों के बताये है ,इसलिए वह मिथ्या मार्ग है !यहाँ देखने के बात है की सभी ने मोक्ष बताया है किन्तु जैन धर्म में प्रणीत ही सम्यक है !यहाँ ‘यदृच्छोप लब्धेरुन्मतवत्’ कथन प्रमाणित हो जाता है कि उन्मत्तता के कारण अन्य मति अपनी इच्छानुसार मुक्ति की विधि बताते है !मिथ्यादृष्टि की लोक के सदर्भ में मिथ्याकल्पना –
रूपादि की उत्पत्ति का कारण
1- अद्वैत ब्रह्मवादी; एक,अमूर्तिक ,नित्य ब्रह्म को’ ही’ मानते है
२-सांख्यमति;एक,अमूर्तिक,नित्य प्रकृति को मानते है!
३- नैयायिक,वैशेषिकं मति ;पृथ्वी आदि के परमाणुओं में जाति भेद मानते है!वे पृथ्वी में चारो स्पर्श ,रस ,गंध, वर्ण ,जल में तीन ; स्पर्श,रस,वर्ण ,अग्नि में दो ;स्पर्श,वर्ण तथा वाय में एक;स्पर्श को ही मानते है !ये चारों अपनी पृथक पृथक जाती के स्कंध रूप कार्य को उत्पन्न करते है !
४-नास्तिकमती;पृथ्वी के परमाणु में कठोर आदि गुण ,जलीय परमाणु में शीतलादि गुण ,अग्नि के परमाणु में उक्षण गुण ,पवनीय परमाणु में प्रवाहित होने का गुण मानते है तथा इनसे पृथ्वीादि स्कन्धों की उतपत्ति बताते है !यह उनकी घट पट के समान, कारण विपरीतता है !
मिथ्यादृष्टि जीव इनके संबंध में भेदाभेद विपरीतता भी करता है !कोई अन्यवादी कारण से कार्य को सर्वथा पृथक कहते है,जैसे पृथ्वी आदि के नित्य परमाणुओं से उत्पन्न हुआ स्कंध रूप कार्य सर्वथा पृथक ही है गुण से गुणी पृथक ही है इत्यादि !कोई अन्यवादी कारण से कार्य को सर्वथा अभिन्न मानते है जैसे घट,पटादि ,वन, पर्वतादि ;,ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण स्वयं ब्रह्मरूप है!यह घट-पट संबंधी उनकी भेदाभेद विपरीतता है !वस्तु को सर्वथा भेद रूप,सर्वथा अभेद रूप,भेद को अभेद रूप या अभेद को भेद रूप मानना इसका स्वरुप है !
सूत्र ६ ,६-प्रमाणनयैरधिगम: अर्थात प्रमाण और नय से वस्तु का ज्ञान होता है,प्रमाण के विषय में तो उक्त सूत्रों से मालूम हो गया किन्तु नयों के विषय में आचर्य से शिष्य के प्रश्न करने पर वे कहते है –
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतानयाः-३३
संधि विच्छेद –
नैगम+संग्रह+व्यवहार+ऋजूसूत्र+शब्द+समभिरूढ+एवंभूत+नयाः
अर्थ-नैगम,संग्रह,व्यवहार,ऋजूसूत्र,शब्द,समभिरूढ और एवंभूत, सात नय है !
भावार्थ-नय-वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म की मुख्यता कर,अन्य धर्मों का विरोध नहीं करते हुए,उन्हें केवल उस समय गौण करते हुए ,पदार्थों का जानना नय है !वक्ता के अभिप्राय या वस्तु के एकांश ग्राही(दृष्टि कोण-पॉइंट ऑफ़ व्यू ) ज्ञान को नय तथा वस्तु के सम्पूर्ण ज्ञान को प्रमाण कहते है !प्रमाण ,अनेक धर्मों को युगपत ग्रहण करने के कारण अनेकान्तरूप सकलादेशी है किन्तु नय,एक धर्म को ग्रहण करने के कारण एकांत रूप व विकलादेशी है! नैगम,संग्रह,व्यवहार,ऋजूसूत्र,शब्द,समभिरूढ और एवंभूत, सात नय है !
नैगमनय-वर्तमान में अपने सामने सम्पूर्ण ,सर्वांग वस्तु नही होने पर भी, अपने ज्ञान में ऐसा संकल्प करे की यह वस्तु वर्तमान में ही विध्यमान है,नैगमनय है अर्थात जो नय,अनिष्पन्न अर्थ के संकल्प मात्र को ग्रहण करता है उसे नैगमनय कहते है!जैसे कोई व्यक्ति,लकड़ी,पानी,चावल आदि एकत्र कर रहा हो,उसे पूछने पर की वह क्या कर रहा है ?यद्यपि अभी वह भात नहीं पका रहा है,किन्तु उत्तर देता है कि मैं भात पका रहा हूँ!यह नैगम नय का दृष्टांत है !नैगम नय के काल की अपेक्षा :-
१-अतीतनैगमनय -अतीत में हुई दशा को वर्तमान के समान कहना ,
२-अनागतनैगमनय-भविष्य में होने योग्य दशा को वर्तमान में कहना तथा
३-वर्तमाननैगमनय-वर्तमान में कुछ निष्पन्न और कुछ अनिष्पन्न वस्तु को निष्पन्न कहना ,तीन भेद है!
वस्तु की अपेक्षा नैगम न य के ३ भेद,उपभेद ९ है-
१-द्रव्य नैगमनय-शुद्ध और अशुद्ध दो भेद है
२-पर्याय नैगम नय;अर्थ पर्याय,व्यंजन पर्याय,और अर्थ-व्यंजन पर्याय तीन भेद,
३ -द्रव्य-पर्याय नैगमनय- के ४ भेद ;शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय ,अशुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय,शुद्ध द्रव्य-व्यंजन पर्याय,अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है!
संग्रहनय-जो नय अपनी जाति का विरोध नहीं कर एकत्व अनेक पदार्थों को ग्रहण करता है उसे संग्रह नय कहते है!जैसे;सत कहने से समस्त द्रव्यों का क्योकि सभी द्रव्यों का सत लक्षण है , द्रव्य कहने से समस्त ६ द्रव्यों का क्योकि गुणपर्याय सहित जीव-अजीव रूप छ द्रव्य ,,जीव कहने से समस्त षट्काय जीवों का और पुद्गल कहने से समस्त पुद्गलों, का संग्रह होता है !ये संघ्रह नय है !संग्रह नय सामान्य से सत कहता है !उसे विशेष से भेद कर व्यवहार न य कहता है !
व्यवहारनय-जो नय,संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गए ज्ञात पदार्थों का विधिपूर्वक व्यवहरण /भेद करता है वह व्यवहार नय है!जैसे द्रव्य के ६ भेद करना ,जीव के संसारी और मुक्त भेद करना ,संसारी में षट्काय जीवों के भेद करना! पुद्गल के परमाणु और स्कंध भेद करना!यह नय जहाँ तक संभव हो वहां तक भेद करता है !
ऋजुसूत्रनय-जो वस्तु की वर्तमान पर्याय को ग्रहण करे वह ऋजुसूत्रनय है !
ऋजु-सरल/सीधी,सूत्रपति-व्याख्यान करने वाली ,पूर्व/भूतकालीन पर्याय नष्ट हो गई है ,अपर/आगामी पर्याय अभी उत्पन्न नही हुई तो व्यवहार योग्य नही है!ऋजुसूत्रनय के दो भेद है- स्थूल और सूक्ष्म पर्यायों का ही ग्रहण करे वह क्रमश: स्थूलऋजुसूत्र और सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है !
शब्द नय-जो नय लिंग,संख्या,कारक आदि के व्यभिचार को दूर करता है वह शब्दनय है!व्याकरण की त्रुटियाँ को नहीं ग्रहण करता!जैसे जब मुनि मौन विराजते है तब ही उन्हें मुनि मानता है,जब वे तपस्या कर रहे होते है तब उन्हें तपस्वी मानता है और जब आहार विहार कर रहे होते है तब ही साधु मानता है!आचार्य आ रहे है,यद्यपि व्याकरण की अपेक्षा त्रुटि पूर्ण वक्तव्य है क्योकि आचार्य तो एक लिंगी होते है न की बहु लिंगी,किन्तु ‘रहे है’, सम्मान की अपेक्षा वक्तव्य है इसलिए शब्दनय की अपेक्षा ग्रहणीय है !
सँभिरूढ नय-
सम -अन्य अर्थों को सम-छोड़कर,अभिरूढ -प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ करना,संभीरुढ़ है !`जो नय नाना अर्थों का उल्लंघन कर रूढ़ि से एक अर्थ को ग्रहण करता है उसे सँभिरूढ़नय कहते है!यह नय पर्याय के भेद से अर्थ को भेद रूप ग्रहण करता है!जैसे इंद्र,शुक्र,पुरंदर तीनो इंद्र के नाम है!परन्तु यह नय तीनों के भिन्न भिन्न धर्मों की अपेक्षा भीं भिन्न अर्थों को ग्रहण करता है !आज्ञा ,ऐश्वर्यवान इंद्र है,सामर्थ्यशाली ‘शक्र ‘ है,पुरो/नगरो का दारुण करने वाला ‘पुरन्दर’है !इसप्रकार इन तीनों के अर्थ विभिन्न होने पर वे पर्यायवाची नही है !
एवंभूत नय- एवं-इस प्रकार,भूत -होना एवंभूतंय है !जिस शब्द का जिस क्रिया रूप अर्थ है उसी क्रिया रूप परिणमे पदार्थ को ग्रहण करता है उसे एवंभूत नय कहते है!जैसे पुजारी को पूजा करते समय ही पुजारी कहना,इस नय का काम है,अन्यथा पुजारी नही कहना !जैसे जब इंद्र आज्ञा ऐश्वर्य वाला है तभी उसे इंद्र कहना,अभिषेक अथवा हुए नही ,सामर्थ्य रूप परिणमित होते हुए शक्र ;पुरों का भेदन करते समय पुरंदर कहना ,गाय को गमन करते समय ही गाय कहना ,सोते बैठते समय नही !अथवा आत्मा जिस समय जिस ज्ञानरूप में परिणमित है ,उसी समय उसका उस रूप निश्चय करने वाला एवंभूत न य है!जैसे इंद्र संबंधी ज्ञानरूप परिणमित आत्मा इंद्र है ,अग्निसंबंधी ज्ञानरूप परिणमित आत्मा अग्नि है इत्यादि !
साम्यत सात नय है किन्तु विशेष विवक्षा में शब्दों की अपेक्षा नए संख्यात है !क्योकि जितने शब्द भेद है उतने ही नय है !इन्हे अति संक्षेप में कहने से वस्तु का ज्ञान नही होता और अधिक विस्तार से कहने पर अल्पबुद्धिवनों को ग्रहण नही होता। अत:मध्यम वृत्ति के लिए ७ ही कहे है !
नयो के सामान्य से दो भेद है
१-व्यवहारनय-संयोगीरूप बाह्य को विषय करने वाला,(नैगम,संग्रह,व्यवहार और ऋजुसूत्र नय )! और
२-निश्चयनय-अंतरंग स्वभाव को विषय करने वाला;शब्द,सँभिरूढ और एवंभूत है
वक्ता के अभिप्राय की अपेक्षा –
१-द्रव्यार्थिक-वस्तु के द्रव्य को विषय करने वाला (नैगम,संग्रह और व्यवहार)
२- पर्यायार्थिक-वस्तु की पर्याय को विषय करने वाला(ऋजुसूत्र, शब्द ,सँभिरूढ और एवंभूत नय )
पदार्थ की तीन कोटियों की अपेक्षा नयों के भेद -नय
१-अर्थनय-अर्थात्मक अर्थात वस्तुरूप – संग्रह ,व्यवहार ,ऋजुसूत्र नय , कुछ आचार्य नैगम,संग्रह और व्यवहार नय को अर्थनय मानते है
२-शब्दनय -शब्दात्मक अर्थात वाचक रूप – शब्द ,सँभिरूढ और एवंभूत नय
३-ज्ञाननय -ज्ञानात्मक अर्थात प्रतिभास रूप-नैगमनय
Animations and Visualizations.
मुनि श्री 108 प्रणम्यसागरजी तत्वार्थ सूत्र with Animation
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