Sahasranam Shantidhara

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र

स्वयं भुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि ।              स्वात्मनैव तथोद्भूदवृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये ॥1॥

नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्त्रे नमोऽस्तु ते ।        विदांवर नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥2॥

कर्मशत्रुहणं देवमामनन्तिमनीषिणः ।            त्वमानमत्सुरेण्मौलि-भा-मालाभ्यर्चिंत-क्रसम्‌ ॥3॥

ध्यान-दुर्घण-निभिन्न-घन-घाति महातरुः । अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीरनन्तजित्‌ ॥4॥

त्रैलोक्य-निर्जयावास-दुर्दर्प्पमतिदुर्जयम्‌ ।          मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन मृत्युंजयो भवान्‌ ॥5॥

 विधूताशेष-संसार-बन्धनो भव्य-बान्धवः ।        त्रिपुरारिस्त्वमीशोऽसि जन्म-मृत्युजरान्तकृत्‌ ॥6॥

त्रिकाल-विजयाशेष-तत्वभेदात्‌ त्रिधोत्थितम्‌  ।      केवलाख्यं दधच्चक्षुस्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशिता ॥7॥

त्वामन्धकान्तकं प्राहुर्मोहान्धासुर-मर्द्दनात्‌ ।      अर्द्ध ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यतः ॥8॥

शिवः शिव-पदाध्यासाद् दुरितारि-हरो हरः ।        शंकरः कृतशं लोके शम्भवस्त्वं भवन्सुखे ॥9॥

वृषभोऽसि जगज्जेयेष्ठः पुरुः पुरु-गुणोदयै । नाभेयो नाभि-सम्भूतेरिक्ष्वाकु-कुल-नन्दनः ॥10॥ त्वमेकः पुरुषस्कंधस्त्वं द्वे लोकस्य लोचने । त्वं त्रिधा बुद्ध-सन्मार्गस्त्रिज्ञस्त्रिज्ञान-धारकः ॥11॥

 चतुःशरण-मांगल्यूमूर्तिस्त्वं चतुरस्त्रधीः । पंच-ब्रह्ममयो देव पावनस्त्वं पुनिहि माम्‌ ॥12॥

स्वर्गावतारिणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नमः । जन्माभिषेक-वामाय वामदेव नमोऽस्तु ते ॥13॥

सन्निष्क्रान्तावद्योराय परं प्रशममीयुषे । केवलज्ञान-संसिद्धावीशानाय नमोऽस्तु ते ॥14॥

पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्त-पद-भाजिने । नमस्तत्पुरुषावस्थां भाविनीं तेऽद्य विभ्रते ॥15॥

ज्ञानावरणनिर्हासान्नामस्तेऽनन्तचक्षुषे । दर्शनावरणोच्छे दान्नमस्ते विश्वद्दश्वने ॥16॥

नमो दर्शनमोहध्ने क्षायिकामलद्दष्टये । नमश्वारित्रमोहध्ने विरागाय महौजसे ॥17॥

नमस्तेऽनन्त-वीर्याय नमोऽनन्त-सुखात्मने । नमस्तेऽनन्त-लोकाय लोकालोकावलोकिने ॥18॥

नमस्तेऽनन्त-दानाय नमस्तेऽनन्त-लब्धये । नमस्तेऽनन्त-भोगाय नमोऽनन्तोपगोभिने ॥19॥

नमः परम-योगाय नमस्तुभ्यमयोनये । नमः परम-पूताय नमस्ते परमर्षये ॥20॥

नमः परम-विद्याय नमः पर-मत-च्छिदे । नमः परम-तत्वाय नमस्ते परमात्मने ॥21॥

नमः परमारूपाय नमः परम-तेजसे । नमः परम-मार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ॥22॥

परमर्द्धिजुषे धाम्ने परम-ज्योतिषे नमः । नमः पारतेमः प्राप्तधाम्ने परतरात्मने ॥23॥

नमः क्षीण-कलंकाय क्षीण-बन्ध नमोऽस्तु ते । नमस्ते क्षीण-मोहाय क्षीण-दोषाय ते नमः ॥24॥

नमः सुगतये तुभ्यं शोभनां गतिमीयुषे । नमस्तेऽतीन्द्रिय-ज्ञान-सुखायानिन्द्रियात्मने ॥25॥

काय-बन्धननिर्मोक्षादकायाय नमोस्तु ते । नमस्तुम्यमयोगाय योगिनामधियोगिने ॥26॥

अवेदाय नमस्तुभ्यमकषायाय ते नमः । नमः परम-योगिन्द्र-वन्दितांघ्रि द्वयाय ते ॥27॥

नमः परम-विज्ञान नमः परम-संयम । नमः परद्दम्द्दष्ट-परमार्थाय तायिने ॥28॥

नमस्तुभ्यमलेश्याय शुक्ललेश्यांशक-स्पृशे । नमो भव्येतरावस्थाव्यतीताय विमोक्षिणे ॥29॥

संग्यसंज्ञिद्वयावस्था व्यतिरिक्तामलात्मने । नमस्ते वीतसंज्ञाय नमः क्षायिकद्दष्टये ॥30॥

अनाहाराय तृप्ताय नमः परमभाजुपे । व्यतीताशेषदोषाय भवाब्धेः पारमीयुषे ॥31॥

अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मिने । अमृत्येव नमस्तुभ्यमचलायाक्षरात्मने ॥32॥

अलमास्तां गुणस्त्रोतमनन्तास्तावका गुणाः । त्वां नामस्मृतिमात्रेण पर्युपासिसिपामहे ॥33॥

एवं स्तुत्वा जिनं देवं भक्त्या परमया सुधीः । पठे दष्टोतरं नाम्नां सहस्त्रं पाप-शान्तये ॥34॥

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 1 से 100

सिद्धाष्ट-सहस्रेद्धलक्षणं त्वां गिरां पतिम्‌ । नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ॥1॥

श्री मान्स्वयम्भूर्वृषभः शंभवः शंभुरात्मभूः । स्वयंप्रभः प्रभुर्भोक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥2॥

विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षरः ।विश्वविद्विश्वविद्येशो विश्वयोनिरनश्वरः ॥3॥

विश्वद्दश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचनः । विश्वव्यापी विधिर्वेधाः शाश्वतो विश्वतोमुखः ॥4॥

विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्तिर्जिनेश्वरः । विश्वद्दग्‌ विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वरः ॥5॥

जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पतिः । अनंत जिद चिन्त्यात्मा भव्यबंधुरबंधनः ॥6॥

युगादिपुरुषो ब्रह्मा पञ्चब्रह्ममयः शिवः । परः परतरः सूक्ष्मः परमेष्ठी सनातनः ॥7॥

स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिजः । मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वजः ॥8॥

प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वराचिंतः । ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वरः ॥9॥

शुद्धो बुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः । सिद्धः सिद्धांतविद् ध्येयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः॥10॥

सहिष्णुरच्युतोऽनन्तः प्रभविष्णुर्भवोद्धवः । प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्धीश्वरोऽव्ययः ॥11॥

विभावसुरसम्भूष्णुः स्वयंभूष्णुः पुरातनः । परमात्मा परंज्योतिस्रिजगत्परमेश्वरः ॥12॥

॥ इति श्रीमदादिशतम् ॥ 1 ॥

जिनसहस्रनाम एक हजार आठ उपवास विधि

शास्त्रों में अनेक प्रकार के व्रत करने का विधान है। “मराठी व्रत कथा संग्रह” में सहस्रनाम व्रत करने की विधि बतलाई गई है। इस व्रत में श्री जिनेन्द्रदेव के एक हजार आठ नामों के एक हजार आठ व्रत करने को कहा है। व्रत की उत्तम विधि उपवास है, मध्यम विधि में नीरस पेय आदि लेना चाहिए और जघन्यतर विधि में एकाशन करके भी व्रत किया जाता है। इस व्रत को “रानी चेलना” ने श्री गौतमस्वामी से ग्रहण करके किया था ऐसा “मराठी व्रत कथा संग्रह” में कहा है।

व्रत के दिन जिनप्रतिमा का अभिषेक करके श्री आदिनाथ भगवान की एवं सहस्रनाम की पूजन करना चाहिये। पुनः प्रत्येक व्रत में क्रम से एक-एक मंत्र को पूजा व जाप्य भी कर सकते हैं।

विशद जिनसहस्रनाम माण्डला

श्री जिन सहस्त्रनाम  1 से 100 सूत्र (उपवास Date , जैन तिथि , विक्रम संवत)

१- ॐ ह्रीं अर्हं   श्रीमते   नमः  -अनन्तचतुष्टाय रूप अंतरंग एवं अष्ट प्रातिहार्य रूप वहिर्ंग लक्ष्मी के स्वामी होने से , (11-Nov-19 कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी 2076)
२- ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंभूवे   नमः  -किसी गुरु द्वारा उपदेशित नही बल्कि स्वयमेव ही सम्बुद्ध  होने से (22-Dec-19 पौष कृष्ण तिथि एकादशी 2076)

३- ॐ ह्रीं अर्हं वृषभाय – नमः   -धर्म से सुशोभित होने से (26-Jan-20 माघ शुक्ल द्वितीया तिथि  2076)
४- ॐ ह्रीं अर्हं शम्भवाय   नमः   -अनंत सुख सम्पन्न अथवा संसार के अन्य अनेक प्राणियों को सुख देने  से, (20-Feb-20 फाल्गुन कृष्ण तिथि द्वादशी 2076)
५- ॐ ह्रीं अर्हं शंभवे – नमः  – परमानन्द सुख देने से शंभु/योगीश्वर ‘,(5-Mar-20 फाल्गुन शुक्ल पक्ष की दशमी 2076)
६- ॐ ह्रीं अर्हं आत्मभुवे – नमः   -अपनी आत्मा में ही अपना साक्षात्कार स्वयं करने से, (23-Mar-20 चैत्र मास कृष्ण चतुर्दशी तिथि 2076)
७- ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रभाय   नमः  – स्वयमेव ही प्रकाशमान होने से,(21-Apr-20 वैशाख, कृष्णा, चतुर्दशी 2077)
८- ॐ ह्रीं अर्हं प्रभवे  नमः   -समर्थ अथवा सब के स्वामी होने से ‘,(21-May-20 ज्येष्ठ कृष्णपक्ष चतुर्दशी  2077)
९- ॐ ह्रीं अर्हं भोक्त्रे  नमः   – अनंत आत्मोथ सुख का अनुभव करने, (28-Jun-20 आषाढ़ शुक्ल तिथि अष्टमी 2077)
१०- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वभुवे  नमः   -केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त अरहवा ध्यानादि से सब जगह प्रत्यक्ष  प्रकट होने से, (4-Jul-20 आषाढ़ शुक्ल तिथि चतुर्दशी  2077)

११- ॐ ह्रीं अर्हं अपुनर्भवाय  नमः   -पुन:संसार में जन्म नही लेंने से, (26-Aug-20  भाद्रपद पक्ष शुक्ल तिथि अष्टमी 2077)
१२- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वात्मने  नमः   -की आत्मा में संसार के समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित होने से,(1-Sep-20 भाद्रपद माह शुक्ल पक्ष चतुर्दशी 2077)
१३- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वलोकेशाय  नमः   -समस्त लोक के स्वामी होने से, (24-Sep-20 आश्विन शुक्ल पक्ष की अष्टमी 2077)
१४- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वतश्चक्षुषे  नमः    -ज्ञानदर्शन रूपी नेत्र  द्वारा संसार में सभी ओर अग्रतिहत होने से ,(23-Oct-20 आश्विन शुक्ल पक्ष की अष्टमी 2077)
१५- ॐ ह्रीं अर्हं अक्षराय  नमः   -अविनाशी होने से , ( 22-Nov-20 कार्तिक  शुक्ल पक्ष  अष्टमी तिथि 2077 )
१६- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविदे  नमः   -लोक के समस्त पदार्थों के ज्ञाता होने से, (8-Dec-20 मार्गशीर्ष  कृष्ण पक्ष  अष्टमी तिथि 2077)
१७- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविध्येशाय  नमः   -समस्त विद्याओं के स्वामी होने से ,(22-Dec-20 मार्गशीर्ष  शुक्ल पक्ष अष्टमी  2077)
१८- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वयोनये  नमः   -समस्त पदार्थों की उत्पत्ति में कारण अथवा उन के उपदेशक होने से,(6-Jan-21 पौष कृष्ण पक्ष अष्टमी, 2077)
१९- ॐ ह्रीं अर्हं अनश्वराय   नमः   -का स्वरुपकभी अनश्वर  होने से  ,(24-Jan-21 पौष शुक्ल की एकादशी 2077)
 २०- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वदृश्वने  नमः   -लोक के समस्त पदार्थों को देखने    से, (7-Feb-21 माघ कृष्ण पक्ष की एकादशी  2077)
२१- ॐ ह्रीं अर्हं विभवे नमः    -केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त हैअथवा सब जीवों को संसार से पार लगाने में सामर्थ्यवान (21-Feb-21 माघ शुक्ल की नवमी  2077)

22 ॐ हीं अर्ह धात्रे नमः नरकादि चारों गतियों में पड़नेवाले प्राणियों को उन गतियों से निकालकर मोक्षस्थान में स्थापन करते हैं (21-Mar-21 फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी 2077)
२३- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वेशाय   नमः   -समस्त जगत के ईश्वर होने से,(4-Apr-21 चैत्र कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि 2077)
२४- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वलोचनाय   नमः   -संसार के समस्त पदार्थों के दृष्टा   होने से,(18-Apr-21 चैत्र  शुक्ल पक्ष षष्ठी 2078)
२५ – ॐ ह्रीं अर्हं विश्वव्यापिने  नमः   -संसार के समस्त पदार्थों के ज्ञाता और उनका ज्ञान सर्वत्र  व्याप्त होने से, (2-May-21 वैशाख  कृष्ण पक्ष षष्ठी तिथि 2078)
२६- ॐ ह्रीं अर्हं विधये  नमः   -भगवान समीचीन मोक्षमार्ग के  विधान के कर्त्ता होने से, (23-May-21 वैशाख  शुक्ल पक्ष एकादशी  2078)
२७- ॐ ह्रीं अर्हं वेधसे  नमः   -धर्म रूप जगत की सृष्टि करने वाले होने से ,(9-Jun-21 ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष चतुर्दशी 2078)
२८- ॐ ह्रीं अर्हं शाश्वताय नमः   -सदैव विध्यमान रहने से शाश्वत,(29-Jun-21 आषाढ़ कृष्ण पक्ष पंचमी 2078)
२९- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वोतमुखाय   नमः    -के समवशरण में चारों दिशाओं में मुख दिखने से (16-Jul-21 आषाढ़  शुक्ल पक्ष सप्तमी  2078)
३०- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वकर्मणे  नमः    -कर्मभूमि की व्यवस्था करते समय लोगो की आजीविका हेतु;असी ,मसि आदि षट कार्यों के उपदेशक होने से, (23-Jul-21 आषाढ़  शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी  2078)
३१- ॐ ह्रीं अर्हं  जगज्ज्येष्ठाय   नमः   -जगत में सर्वश्रेष्ठ होने से, (7-Aug-21 श्रावण कृष्ण पक्ष चतुर्दशी 2078)
३२- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वमूर्तये  नमः   -अनन्तगुणमय अथवा  समस्त पदार्थों के आकार उनके  ज्ञान में प्रतिफलित होने से  ,(29-Aug-21 भाद्रपद कृष्ण पक्ष सप्तमी 2078)
३३- ॐ ह्रीं अर्हं जिनेश्वराय  नमः   -कर्म शत्रुओं को जीतने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के ईश्वर होने से ,(11-Sep-21 भाद्रपद शुक्ल पंचमी 2078)
३४- ॐ ह्रीं अर्हं विष्वदृशे  नमः   -का संसार के समस्त पदार्थों का सामान्यावलोकन करने से ,(14-Sep-21 भाद्रपद शुक्ल अष्टमी 2078)
३५- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वभूतेशाय  नमः    -समस्त प्राणियों के ईश्वर होने से, (16-Sep-21 भाद्रपद शुक्ल पक्ष दशमी 2078 )
३६- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वज्योतिषे   नमः   -की केवलज्ञान रुपी ज्योति अखिल संसार में व्याप्त होने से , ( 19-Sep-21 भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्दशी 2078 )
३७- ॐ ह्रीं अर्हं अनीश्वराय   नमः   -सबके स्वामी होने से  किन्तु उनका कोई स्वामी नही होने से ( 4-Oct-21 आश्विन कृष्ण पक्ष त्रयोदशी 2078)
३८ ॐ ह्रीं अर्हं जिनाय  नमः  – के घातिया कर्मरूपी शत्रुओं पर विजयी  होने  से, ( 20-Oct-21 आश्विन मास शुक्ल पक्ष पूर्णिमा  2078)
३९- ॐ ह्रीं अर्हं विष्णवे   नमः   -का कर्मरूपी शत्रुओं को जीतना ही शील / से , (11-Nov-21 कार्तिक मास  शुक्ल पक्ष  अष्टमी  2078)
४०- ॐ ह्रीं अर्हं अमेयात्मने   नमः   -की आत्मा अर्थात उनके अनंत गुणों को किसी के द्वारा भी नही जान सकने से , ( 17-Nov-21 कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष, त्रयोदशी 2078)
४१- ॐ ह्रीं अर्हं विश्वरीशाय  नमः   -पृथिवी के ईश्वर होने से, ( 3-Dec-21 मार्गशीर्ष मास कृष्ण पक्ष चतुर्दशी  2078)
४२- ॐ ह्रीं अर्हं जगतपतये  नमः   -तीनों लोको के स्वामी होने से ,( 17-Dec-21 मार्गशीर्ष मास शुक्ल पक्ष चतुर्दशी  2078 )
४३- ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तजिते  नमः   -अनंत संसार/मिथ्या दर्शन पर  विजेता होने से, (1-Jan-22 पौष कृष्ण पक्ष चतुर्दशी 2078)
४४- ॐ ह्रीं अर्हं अचिन्त्यात्मने  नमः   -की आत्मा का चिंतवन मन से भी नही किया जा सकने से ,( 10-Jan-22 पौष शुक्ल पक्ष अष्टमी  2078)
४५- ॐ ह्रीं अर्हं भव्यबन्धवे  नमः   -भव्य जीवों के हितैषी होने से , ( 25-Jan-22 माघ मास, कृष्ण पक्ष,अष्टमी तिथि  2078)
४६- ॐ ह्रीं अर्हं अबन्धनाय  नमः  -कर्म बंध से रहित होने से, ( 8-Feb-22 माघ मास, शुक्ल पक्ष, अष्टमी तिथि 2078)
४७- ॐ ह्रीं अर्हं युगादिपुरुषाय  नमः   -कर्मभूमि रुपी युग में प्रारम्भ में उत्पन्न होने से, ( 15-Feb-22 माघ मास, शुक्ल पक्ष  चतुर्दशी तिथि  2078)
४८- ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मणे  नमः   -के केवलज्ञानादि गुण वृह्णं अर्थात वृद्धि को प्राप्तहोने से  , ( 24-Feb-22 फाल्गुन मास  कृष्ण पक्ष अष्टमी 2078 )
४९- ॐ ह्रीं अर्हं पंच ब्रह्माय  नमः   -पंचपरमेष्ठी स्वरुप होने से  , ( 2-Mar-22 फाल्गुन मास  अमावस्या 2078 )
५०- ॐ ह्रीं अर्हं शिवाय   नमः   -आनंद स्वरुप होने से  , ( 13-Mar-22 फाल्गुन मास की  शुक्ल पक्ष की दशमी  2078)
५१- ॐ ह्रीं अर्हं पराय  नमः- समस्त जीवों के पालक  अथवा समस्त ज्ञान आदि गुणों  की प्राप्ति होने से, ( 17-Mar-22 फाल्गुन मास, शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी तिथि 2078)
५२- ॐ ह्रीं अर्हं परतराय   नमः -संसार में सर्वश्रेष्ठ होने से, ( 31-Mar-22 चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी 2078 )
५३- ॐ ह्रीं अर्हं सूक्ष्माय  नमः -का आकार इन्द्रियों द्वारा नही जानने से या नामकर्म के क्षय होने से सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होने से, ( 15-Apr-22 चैत्र मास, शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी तिथि 2079)
५४- ॐ ह्रीं अर्हं परमेष्ठिने  नमः -परमपद में स्थित होने से, ( 23-Apr-22 वैशाख मास, कृष्ण पक्ष,  अष्टमी तिथि 2079)
५५- ॐ ह्रीं अर्हं सनातनाय  नमः -सदा एक समान विध्यमान रहने से, ( 11-May-22 वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि  2079)
५६- ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंज्योतिषे नमः -स्वयं प्रकाशमान रहने से, ( 21-Jun-22 आषाढ़ मास वद (कृष्ण पक्ष) अष्टमी 2079)
५७- ॐ ह्रीं अर्हं अजाय नमः -संसार में पुन:उत्पन्न नही होने से, ( 21-Jul-22 श्रावण मास, कृष्ण पक्ष,  नवमी 2079)
५८- ॐ ह्रीं अर्हं अजन्मने  नमः -जन्मरहित होने से, ( 31-Aug-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   चतुर्थी 2079)
५९- ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मयोनये   नमः- ब्रह्म,अर्थात वेद(द्वादशांग शास्त्र) की उत्पत्ति में कारण होने से ( 1-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   पंचमी  2079)
६०- ॐ ह्रीं अर्हं अयोनिजाय  नमः- चौरासी लाख योनियों में जन्म नही लेने से , ( 2-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   षष्ठी 2079)
६१- ॐ ह्रीं अर्हं मोहरये  विजयिने    नमः -मोहरूपी शत्रु पर विजयी होने से , ( 3-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष  सप्तमी 2079)
६२- ॐ ह्रीं अर्हं जेत्रे  नमः -सर्वदा सर्वोत्कृष्ट रूप में विध्यमान होने से,,( 4-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   अष्टमी नवमी 2079)
६३-  ॐ ह्रीं अर्हं धर्मचक्रिणे  नमः -धर्म चक्र के प्रवर्तक होने से ( 5-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   दशमी 2079)
६४-  ॐ ह्रीं अर्हं दयाध्वजाय   नमः – दया की ध्वजा होने से ,( 6-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   एकादशी 2079)

६५-  ॐ ह्रीं अर्हं प्रशांतारये  नमः -कर्म शत्रु शांत होने से ( 7-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   द्वादशी 2079)
६६- ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तात्मने  नमः -की आत्मा ,सभी के असमर्थ होने से ( 8-Sep-22 भाद्रपद मास  शुक्ल पक्ष   त्रयोदशी 2079)
६७- ॐ ह्रीं अर्हं योगीने   नमः -योग/ केवलज्ञानादि की अपूर्व प्राप्ति अथवा  ध्यान,,मोक्ष के हेतु सम्यग्दर्शन से युक्त  होने से ( 9-Sep-22 भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी  2079)
६८- ॐ ह्रीं अर्हं योगीश्वरार्चिताय  नमः -योगियों/मुनियों के आदिश्वरों द्वारा पूजित  होने से ( 22-Oct-22 कार्तिक मास, कृष्ण पक्ष, द्वादशी तिथि 2079)
६९- ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मविदे  नमः -ब्रह्म अर्थात शुद्ध आत्मस्वरूप के ज्ञाता  होने से, ( 16-Nov-22 मार्गशीर्ष मास, कृष्ण पक्ष, अष्टमी तिथि 2079)
७०- ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मतत्वज्ञाय नमः -ब्रह्मचर्य अथवा आत्मारूपी तत्वों के रहस्यों के ज्ञाता होने से  ,( 17-Dec-22 पौष मास, कृष्ण पक्ष, नवमी तिथि 2079)
७१- ॐ ह्रीं अर्हं ब्र्ह्मोद्याविदे   नमः -पूर्व ब्रह्मा द्वारा कहे हुए समस्त तत्वों / केवलज्ञानरूपी आत्म विद्या के ज्ञाता होने से ( 25-Jan-23 माघ मास,शुक्ल पक्ष, चतुर्थी तिथि 2079)
७२- ॐ ह्रीं अर्हं यतीश्वराय नमः -मोक्ष प्राप्ति में लीन मुनियों के स्वामी होने से ,( 4-Feb-23 माघ शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी 2079)

७३- ॐ ह्रीं अर्हं सिध्दाय   नमः -भावकर्मरूप  मल से रहित होने से, ( 4-Mar-23 फाल्गुन शुक्ल पक्ष,  द्वादशी 2079)
७४- ॐ ह्रीं अर्हं बुद्धाय नमः -संसार के समस्त पदार्थों के ज्ञाता और  केवलज्ञानरूपी बुद्धि से युक्त होने से, ( 16-Mar-23 फाल्गुन कृष्ण पक्ष अष्टमी 2079)
७५- ॐ ह्रीं अर्हं प्रबुद्धात्माने नमः – की आत्मा सदा शुद्ध ज्ञान से प्रकाशित रहने से, ( 23-Apr-23 बैसाख शुक्ल पक्ष चतुर्थी 2080)
७६- ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धार्थाय नमः -समस्त प्रयोजनो के  सिद्ध होने से, ( 12-May-23 ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अष्टमी 2080)
७७- ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धशासनाय  नमः -का शासन सिद्ध अर्थात प्रसिद्ध होने से , ( 11-Jun-23 आषाढ़ कृष्ण पक्ष अष्टमी 2080)
७८- ॐ ह्रीं अर्हं सिध्द नमः ( 26-Jun-23 आषाढ़ महीने शुक्ल पक्ष अष्टमी 2080)

७९- ॐ ह्रीं सिद्धांतविदे  नमः -द्वादशांग सिद्धांत के ज्ञाता होनेसे , (16-Jul-23 श्रावण मास, कृष्ण पक्ष, चतुर्दशी 2080)
८०- ॐ ह्रीं अर्हं ध्येयाय  नमः – सभी लोगो द्वारा ध्यान किये जाने से ,,( 15-Aug-23
दूसरा श्रावण मास, कृष्ण पक्ष, चतुर्दशी  2080)
८१- ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धसाध्याय  नमः – के समस्त सिद्ध होने योग्य कार्य सिद्ध होने से , (24-Aug-23 दूसरा श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, अष्टमी 2080)
८२- ॐ ह्रीं अर्हं जगद्धिताय  नमः – समस्त कार्य करने वाले होने से,(7-Sep-23 भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष, अष्टमी 2080)
८३- ॐ ह्रीं अर्हं सहिष्णवे नमः -सहनशील / क्षमा गुण के भंडार होने से , (19-Sep-23 भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष, चतुर्थी 2080)
८४- ॐ ह्रीं अर्हं अच्युताय नमः – ज्ञानादि गुणों से कभी  च्युत  नही होने से,,(21-Sep-23 भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष,  षष्ठी 2080)
८५- ॐ ह्रीं अर्हं अनंताय  नमः -भगवान विनाश रहित होने से ,(23-Sep-23 भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष, अष्टमी 2080)
८६- ॐ ह्रीं अर्हं प्रभविष्णवे  नमः -प्रभावशाली होने से ,(26-Sep-23 भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष, द्वादशी 2080)
८७- ॐ ह्रीं अर्हं भवोद्भवाय  नमः -संसार में  सर्वोत्कृष्ट जन्म होने से,,(28-Sep-23 भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी 2080)
८८- ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूष्णवे   नमः -शक्तिशाली होने से  ,(24-Oct-23 आश्विन मास, शुक्ल पक्ष, दशमी 2080)
८९- ॐ ह्रीं अर्हं अजराय नमः -वृद्धावस्था रहितहोने से ( 23-Nov-23 कार्तिक मास शुक्ल पक्ष एकादशी  2080)
९०- ॐ ह्रीं अर्हं अयज्याय  नमः -कभी जीर्ण नही होने से,,( 10-Dec-23 मार्गशीर्ष मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी 2080 )
९१- ॐ ह्रीं अर्हं भ्राजिष्णवे  नमः -ज्ञानादि गुणों से अतिशय देदीप्यमान  होने से,,(10-Jan-24 पौष मास कृष्ण पक्ष  चतुर्दशी 2080)
९२- ॐ ह्रीं अर्हं धीश्वराय  नमः -केवलज्ञानरूपी बुद्धि के ईश्वर होने से  ,( 3-Feb-24 माघ मास  कृष्ण पक्ष  अष्टमी 2080)
९३- ॐ ह्रीं अर्हं अव्ययाय   नमः – कभी नष्ट  नही होने से,,,( 3-Mar-24 फाल्गुन मास  कृष्ण पक्ष  अष्टमी 2080)
९४- ॐ ह्रीं अर्हं विभावसे नमः – मोहरूपी अन्धकार को नष्ट कर सूर्य के समान होने से,
९५- ॐ ह्रीं अर्हं असम्भूष्णवे  नमः पुन: उत्पन्न नही  होने से,,
९६- ॐ ह्रीं अर्हं स्वयम्भूषणवे   नमः -स्वयं इस अवस्था को प्राप्त होने से,,
९७- ॐ ह्रीं अर्हं पुरातनाय नमः – द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनदि सिद्ध होने से
 ९८- ॐ ह्रीं अर्हं परमात्मने  नमः -आत्मा अतिशय उत्कृष्ट होने से
९९- ॐ ह्रीं अर्हं परम ज्योतिषे  नमः  -उत्कृष्ट ज्योति स्वरुप होने से,
१००- ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगत् परमेश्वराय नमः -तीनों लोको के ईश्वर होने से ,

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 101 से 200

दिव्यभाषापतिर्दिव्यः पूतवाक्पूतशासनः । पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वरः ॥1॥

श्रीपतिर्भगवानर्हन्नरजा विरजाः शुचिः । तीर्थकृत्केवलीशानः पूजार्हः स्नातकोऽमलः ॥2॥

अनन्तदीप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयम्बुद्धः प्रजापतिः । मुक्तः शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वरः ॥3॥

 निरञ्जनो जगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिरनामयः । अचलस्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थः स्थाणुरक्षयः ॥4॥

अग्रणीर्ग्रामणीर्नेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत्‌ । शास्ता धर्मपतिर्धर्म्यो धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत्‌ ॥5॥

वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुधः । वृषो वृषपतिर्भर्ता वृषाभागों वृषोद्भवः ॥6॥

हिरण्यनाभिर्भूतात्मा भूतभृद् भूतभावनः । प्रभवो विभवो भास्वान्‌ भवो भावो भवान्तकः ॥7॥

हिरण्यगर्भः श्रीगर्भः प्रभूतविभवोऽभवः । स्वयंप्रभः प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्पतिः ॥8॥

सवादिः सर्वद्दक्‌ सार्वः सर्वज्ञः सर्वदर्शनः । सर्वात्मा सर्वलोकेशः सर्ववित्सर्वलोकजित्‌ ॥9॥

सुगतिः सुश्रुतः सुश्रुत्‌ सुवाक्‌ सूरिर्बहुश्रुतः । विश्रुतः विश्वतः पादो विश्वशीर्षः शुचिश्रवाः ॥10॥

सहस्रशीर्षः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्षः सहस्रपात्‌ । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्यामहेश्वरः ॥11॥

॥ इति दिव्यादिशतम्‌ ॥ 2 ॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  101 से 200 सूत्र

१०१- ॐ ह्रीं अर्हं दिव्यभाषापतये   नमः – दिव्यध्वनि के पति होने से ,
१०२-ॐ ह्रीं अर्हं दिव्याय नमः  -अत्यंत सुंदर होने से, 
१०३-ॐ ह्रीं अर्हं पूतवाचे  नमः  -भगवान के वचन अतिशय पवित्र होने से ,
१०४-ॐ ह्रीं अर्हं पूतशाशन – नमः शासन पवित्र होने से,
१०५-ॐ ह्रीं अर्हं पूतात्मने  नमः  -आत्मा पवित्र होने से ,
१०६-ॐ ह्रीं अर्हं परमज्योतिषे   नमः -उत्कृष्ट ज्योति स्वरुप होने से
१०७-ॐ ह्रीं अर्हं धर्माध्यक्षाय  नमः  -धर्म के अध्यक्ष होने से,
१०८-ॐ ह्रीं अर्हं दमीश्वराय  नमः -इन्द्रियों के विजेताओं में श्रेष्ठ होने से,
१०९-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीपतये नमः  -मोक्षरूपी लक्ष्मी के अधिपति होने से,
११०-ॐ ह्रीं अर्हं भगवते  नमः  -अष्टप्रातिहार्य रूप उत्तम ऐश्वर्य  युक्त होने से,
१११-ॐ ह्रीं अर्हं अर्हते  नमः  -सभी के द्वारा पूजनीय होने से,
११२-ॐ ह्रीं अर्हं अरजसे  नमः  -कर्मरूपी मल रहित होने से
११३-ॐ ह्रीं अर्हं विरजसे  नमः  -दर्शनावरण एवं ज्ञानावरण से रहित और भव्य जीवों के कर्ममल को दूर करने से 
११४-ॐ ह्रीं अर्हं शुचये  नमः  -अतिशय पवित्र होने से
११५-ॐ ह्रीं अर्हं तीर्थकृते  नमः  -धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तक होने से,
११६-ॐ ह्रीं अर्हं केवलिने  नमः  -केवलज्ञान युक्त होने से,
११७-ॐ ह्रीं अर्हं ईशानाय  नमः   -अनंत सामर्थ्य युक्त होने से,
११८-ॐ ह्रीं अर्हं पूजार्हाय  नमः  -पूजनीय होने से,
११९-ॐ ह्रीं अर्हं स्नातकाय  नमः  -घातिया कर्मों के नष्ट होने से अथवा पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने से, 
१२०-ॐ ह्रीं अर्हं अमलाय नमः  -शरीर मल एवं आत्मा रागद्वेषादि दोषों से रहित होने से
१२१ॐ ह्रीं अर्हं अनंतदीप्तये – नमःकेवलज्ञान रूपी अनंत दीप्ति और शरीर की अपरिमित प्रभा के धारक होने से,
१२२-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानात्मने  नमः  -आत्मा ज्ञानस्वरूप होने से,
१२३-ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंबुद्धाय  नमः  -गुरु की सहायता के बिना समस्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने से अथवा  स्वयं  विरक्त होकर मोक्ष मार्ग में प्रवृत होने से
१२४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रजापतये  नमः  -समस्त जनसमूह के रक्षक होने से’ ,
१२५-ॐ ह्रीं अर्हं मुक्ताय  नमः  -कर्म बन्धन रहित होने से ,
१२६-ॐ ह्रीं अर्हं शक्ताय  नमः   -अनंत बल युक्त होने से,
१२७-ॐ ह्रीं अर्हं निराबाधाय  नमः  -बाधा-उपसर्ग से रहित होने से,
१२८-ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलाय   नमः   -माया रहित होने से,
१२९-ॐ ह्रीं अर्हं भुवनेश्वराय  नमः   -तीनों लोक के ईश्वर होने से ,
१३०-ॐ ह्रीं अर्हं निरंजनाय   नमः  -कर्मरूपी अंजन से रहित होने से’,
१३१-ॐ ह्रीं अर्हं जगज्ज्योतिषे  नमः   -जगत को प्रकाशित करने वाले होने से,
१३२-ॐ ह्रीं अर्हं निरोक्तोक्तये  नमः  – के वचन सार्थक और पूर्वापर विरोध से रहित होने से,
१३३-ॐ ह्रीं अर्हं निरामयाय   नमः   -रोगरहित होने से ,
१३४-ॐ ह्रीं अर्हं अचलस्थितये  नमः  -की स्थिति अचल होने से,
१३५-ॐ ह्रीं अर्हं अक्षोभ्याय  नमः  -क्षोभ को प्राप्त नही होने से,
१३६-ॐ ह्रीं अर्हं कूटस्थाय  नमः   -नित्य होने से’,
१३७-ॐ ह्रीं अर्हं स्थाणवे  नमः  – गमनागमन रहित होने से,
१३८-ॐ ह्रीं अर्हं अक्षयाय  नमः  -क्षयरहित होने से,
१३९-ॐ ह्रीं अर्हं अग्रण्यै  नमः  -त्रिलोक में सर्वश्रेष्ठ होने से,
१४०-ॐ ह्रीं अर्हं ग्रामण्ये  नमः  -भव्य जीवों के  मोक्ष दाता होने से,
१४१-ॐ ह्रीं अर्हं नेत्रे  नमः  -जीवों के मार्ग के लिए  हितोपदेशक होने से 
१४२-ॐ ह्रीं अर्हं प्रणेत्रे  नमः  -द्वादशांग रूप शास्त्रों के रचियता होने से ,
१४३-ॐ ह्रीं अर्हं न्यायशास्त्रकृते  नमः  -न्यायशास्त्र के उपदेशक होने से,
१४४-ॐ ह्रीं अर्हं शास्त्रे  नमः  -हितोपदेशी होने से,
१४५-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मपतये  नमः  -उत्तम क्षमादि धर्मों के स्वामी होने से,
१४६-ॐ ह्रीं अर्हं धर्म्याय  नमः  -धर्म युक्त होने से,
१४७-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मात्माने  नमः  -आत्मा धर्मरूप अथवा धर्म से उपलक्षित होने से,
१४८-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मतीर्थकृते  नमः  -धर्मतीर्थ के प्रवर्तक होने से,
१४९-ॐ ह्रीं अर्हं वृषध्वजाय  नमः    -(ऋषभदेव जी)  की ध्वजा में वृष (बैल)का चिन्ह अथवा /धर्म ही ध्वजा होने से,
१५०-ॐ ह्रीं अर्हं वृषाधीशाय  नमः  -वृष /धर्म के पति होने से,,
१५१-ॐ ह्रीं अर्हं वृषकेतवे  नमः   -धर्म की पताका रूप  होने से,
१५२ -ॐ ह्रीं अर्हं वृषायुधाय   नमः-कर्मशत्रुओं को नष्ट करने के लिए धर्मरूप शास्त्र को धारण करने से 
१५३-ॐ ह्रीं अर्हं वृषाय   नमः -धर्मरूप  होने से,
१५४-ॐ ह्रीं अर्हं वृषपतये    नमः  -धर्म के स्वामी होने से,
१५५-ॐ ह्रीं अर्हं भर्त्रे    नमः  -समस्त जीवों के पोषक  होने से,,
१५६-ॐ ह्रीं अर्हं वृषभांकाय  नमः  -वृषभ /बैल चिन्ह अंकित  होने से,,,
१५७-ॐ ह्रीं अर्हं वृषोद्भवाय  नमः  – पूर्व पर्यायों में उत्तम धर्म धारण कर ही  तीर्थंकर होकर उत्पन्न  होने से,,
१५८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्यनाभये  नमः  -की सुंदर नाभि होने से ,
१५९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतात्मने   नमः  -की आत्मा सत्यरूप  होने से,,
१६०- ॐ ह्रीं अर्हं भूतभृते   नमः  -समस्त जीवों के रक्षक  होने से,
१६१-ॐ ह्रीं अर्हं भूतवानाय  नमः  -अतिउत्तम  भावनाये हो ने से,,
१६२-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभवाय   नमः  मोक्ष प्राप्ति में कारण अथवा  जन्म प्रशंसनीय होने से,
१६३-ॐ ह्रीं अर्हं विभवाय   नमः  -संसार से रहित होने से,,
१६४- ॐ ह्रीं अर्हं भास्वते   नमः  -देदीप्यमान होने से,
१६५-ॐ ह्रीं अर्हं भवाय   नमः  -ध्रौव्य रूप से सदा विध्यमान होने  से,
१६६-ॐ ह्रीं अर्हं भावाय  नमः  -अपने चैतन्य रूप भाव में लीन होने से,
१६७-ॐ ह्रीं अर्हं भवान्तकाय  नमः  -संसार भ्रमण का अंत  भावनाये
१६८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्य गर्भाय नमः  -के गर्भ में रहते हुए  पृथिवी स्वर्णमय  होने और  आकाश से देवों द्वारा  स्वर्ण की वर्षा करने से,,
१६९-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगर्भाय   नमः  -अंतरंग में अनंत चतुष्टाय रूपलक्ष्मी देदीप्यमान रहने से,
१७०-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतविभवाय   नमः  -अत्यंत वैभवशाली होने से,
१७१-ॐ ह्रीं अर्हं अभवाय   नमः -जन्मरहित होने से,
१७२-ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रभाय नमः  – स्वयं समर्थ होने से,
१७३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतात्माने  नमः -केवल ज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त  होने से,,
१७४-ॐ ह्रीं अर्हं भूतनाथाय नमः  -समस्त जीवों के स्वामी होने से ,
१७५-ॐ ह्रीं अर्हं जगत्प्रभवे    नमः  -तीनो लोक के स्वामी होने से,
१७६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वादये नमः   -सब से मुख्य होने से,
१७७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदृशे   नमः  -सभी पदार्थों को देखने वाले होने से ,
१७८-ॐ ह्रीं अर्हं सार्वाय   नमः -सब का हित करने वाले होने से,
१७९-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वज्ञाय  नमः  -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,,
१८०- ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदर्शनाय   नमः  -का सम्यक्त्व/दर्शन /केवलदर्शन पूर्ण अवस्था को प्राप्त होने से,
१८१-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वात्मने नमः  -सब के  हितैषी /सबको अपने समान समझते है /संसार के समस्त पदार्थ उनके आत्मा में प्रतिबिंबितहोने से,
१८२-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकेशाय   नमः  -सभी  लोगो के स्वामी होने से,
१८३-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविदे नमः  -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,
१८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकजिताय नमः   -समस्त लोकों के विजेता होने से,
१८५-ॐ ह्रीं अर्हं सुगतये नमः   -की मोक्ष रुपी गति अतिशय सुंदर है,/ज्ञान सर्वोत्तम  होने से,
१८६-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुताय    नमः  – उत्तम शास्त्रों के धारक  होने से,
१८७-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुते   नमः   -सभी जीवों की प्रार्थना सुनते है अत:,
१८८-ॐ ह्रीं अर्हं सुवाचे नमः  – वचन अति उत्तम ने से,
१८९-ॐ ह्रीं अर्हं सूरये नमः   -समस्त विद्याओं को प्राप्त करने से,
१९०-ॐ ह्रीं अर्हं बहुश्रुताय   नमः   -सभी शास्त्रों के परिगामी होने से,
१९१-ॐ ह्रीं अर्हं विश्रुताय   नमः   -बहुत प्रसिद्द है अथवा उन्हें  केवलज्ञान प्राप्ति से क्षयोपशमिक श्रुतज्ञान का क्षय होने से,
१९२-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वत:पादाय   नमः   -केवलज्ञान रूपी किरणे संसार में सर्वत्र व्याप्त  होने से,
१९३-ॐ ह्रीं अर्हं विशवशीर्षाय नमः   -लोकशिखर पर विराजमान  होने से,
१९४-ॐ ह्रीं अर्हं शुचिश्रवसे   नमः   -श्रवण शक्ति अत्यंत पवित्र  होने से,
१९५-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रशीर्षाय  नमः   -अनंत सुख की प्राप्ति से होने से,
१९६-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेत्रज्ञाय  नमः  – क्षेत्र  अर्थात आत्मा को जानने से क्षेत्रज्ञ,
१९७-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्राक्षाय नमः   -अनंत पदार्थों को जानने से ,
१९८-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रपादे   नमः  -अनंत बल के धारक होने से ,
१९९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतभव्य भवद्  भर्त्रे  नमः   -भूत,भविष्य और वर्तमान काल के स्वामी होने से,
२००-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविद्यामहेश्वराय नमः   -समस्त विद्याओं के प्रधान स्वामी होने से

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 201 से 300

स्थविष्ठः स्थविरो जेष्ठः पृष्ठः प्रष्ठो वरिष्ठधीः। स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठः श्रेष्ठोऽणिष्ठो गरिष्ठगीः ॥1॥

विश्वमृद्विश्वसृड् विश्वेड् विश्वभुग्विश्वनायकः । विश्वाशीर्विश्वरूपात्मा विश्वजिद्विजितान्तक। ॥2॥

विभवो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन्‌। विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सरः ॥3॥

 विनेयजनताबन्धुविलीनाशेषकल्मषः। वियोगो योगविद्विद्वान्विधाता सुविधिः सुधीः ॥4॥

क्षान्तिभाक्पृथिवीमूर्तिः शान्तिभाक्‌ सलिलात्मकः । वायुमूर्तिसंगात्मा वह्निमूर्तिरधर्मधक्‌ ॥5॥

सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्रामपूजितः । ऋत्विग्यज्ञपतिर्यज्ञो यज्ञागंगममृतं हविः ॥6॥

व्योममूर्तिरमूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोऽचलः। सोममूर्तिः सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्तिर्महाप्रभः ॥7॥

मन्त्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्रमूर्तिरन्नतगः । स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वन्तः कृतान्तान्तः कृतान्तकृत्‌ ॥8॥

कृती कृतार्थः सत्कृत्यः कृतकृत्यः कृतक्रतुः । नित्यो मृत्युंज्जयोऽमृत्युस्मृतात्माऽमृतोद्भवः ॥9॥

ब्रह्मनिष्ठः परंब्रह्म ब्रह्मत्मा ब्रह्मसंभवः । महाब्रह्मपतिर्ब्रह्मेड् महाप्रह्मपदेश्वरः ॥10॥

सुप्रसन्नः प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्मदमप्रभुः। प्रशमात्मा प्रशान्तामा पुराणपुरुषोत्तमः ॥11॥

॥ इति स्थविष्ठादिशतम्‌ ॥ 3 ॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  201 से 300 सूत्र


२०१-ॐ ह्रीं अर्हं स्थविष्ठ- नमः समीचीन गुणों की अपेक्षा अतिशय स्थूल  होने से,’,
२०२- ॐ ह्रीं अर्हं स्थविर  – नमः ज्ञानादि गुणों द्वारा वृद्ध  होने से,
२०३-ॐ ह्रीं अर्हं ज्येष्ठ- नमः तीनोलोकों में अतिशय प्रशस्त होने से ‘,
२०४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रष्ठ- नमः सबके अग्रगामी होने से ,
२०५-ॐ ह्रीं अर्हं प्रेष्ठ’- नमः सबको अतिशय प्रिय  होने से,
२०६-ॐ ह्रीं अर्हं वरिष्ठधी नमः बुद्धि अतिशय श्रेष्ठ  होने से,
२०७-ॐ ह्रीं अर्हं स्थेष्ठ  – नमःस्थिर अर्थात नित्यहोने से,
२०८-ॐ ह्रीं अर्हं गरिष्ठ- नमः अत्यंत गुरु होने से,
२०९-ॐ ह्रीं अर्हं बंहिष्ठ- नमःगुणों की अपेक्षा अनेक रूप धारण करने से
२१०-ॐ ह्रीं अर्हं श्रेष्ठ- नमःअतिशय प्रशस्त  होने से,
२११-ॐ ह्रीं अर्हं अनिष्ठ- नमःअतिशय सूक्ष्म होने से ,
२१२-ॐ ह्रीं अर्हं गरिष्ठगी – नमः वाणी अतिशय से गौरवपूर्ण  होने से,,
२१३-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वमुट- नमःचतुर्गतिरूप संसार का क्षय  होने से, ,
२१४-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वसृट- नमः समस्त  संसार  की व्यवस्थापक होने से ,
२१५-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वेट- नमः सर्व लोक के  ईश्वर  होने से,, 
२१६-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वमुक- नमःसमस्त संसार के रक्षक होने से ,
२१७-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वनायक  – नमःअखिल लोक के स्वामी होने से,,
२१८-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वासी – नमः समस्त संसार में व्याप्त(केवलज्ञान की अपेक्षा) होने से,,
२१९-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वरूपात्म- नमः केवलज्ञान स्वरुप ह/आत्मा अनेक रूप है अत:
२२०-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वजित- नमः सबको जीतने वाले है अत:
२२१-ॐ ह्रीं अर्हं विजितान्तक- नमःमृत्यु   पर  विजयी होने से,
२२२-ॐ ह्रीं अर्हं विभव- नमः संसार भ्रमण समाप्त होने से,
२२३-ॐ ह्रीं अर्हं विभय   – नमः भय रहि त  होने से,,
२२४-ॐ ह्रीं अर्हं वीर- नमः अनंत बलशाली होने से,
२२५-ॐ ह्रीं अर्हं विशोक- नमः शोक रहित   होने से,
२२६-ॐ ह्रीं अर्हं विजर– नमः वृद्धावस्था से रहित  होने से,,
२२७-ॐ ह्रीं अर्हंजरन- नमः सबसे प्राचीन होने से ,
२२८-ॐ ह्रीं अर्हं विराग- नमः रागरहित होने से ,
२२९-ॐ ह्रीं अर्हं विरत- नमः समस्त पापों से विरत होने से,
२३०-ॐ ह्रीं अर्हं असंग- नमः परिग्रह रहित  होने से,’,
२३१-ॐ ह्रीं अर्हं विवक्त  – नमः पवित्र  होने से’,
२३२-ॐ ह्रीं अर्हं वीतमत्सर- नमः मात्सर्य रहित   होने से
२३३-ॐ ह्रीं अर्हं विनेयजनता – नमःबंधु-अपने शिष्य जनों  हितैषी होने से’
२३४-ॐ ह्रीं अर्हं विलीनाशेषकल्मष- नमः समस्त कर्मों  के क्षय  होने से
२३५-ॐ ह्रीं अर्हं वियोग- नमः मन   ,वचन, काय के निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द   हित होने से,
२३६-ॐ ह्रीं अर्हं योगविद्- नमः योग/ध्यान के स्वरुप के ज्ञाता होने से योगविद’,
२३७-ॐ ह्रीं अर्हं विद्वान- नमः समस्त पदाथों के ज्ञाता होने से,
२३८-ॐ ह्रीं अर्हं विधाता- नमः धर्म रूप सृष्टि के कर्ता होने से,
२३९-ॐ ह्रीं अर्हं सुविधि- नमः के कार्य अति उत्तम  होने से,
२४०-ॐ ह्रीं अर्हं सुधि- नमः उत्तम  बुद्धि के धारक होने से ,
२४१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तिभाक् – नमः उत्तम क्षमा धारण करने से ,
२४२-ॐ ह्रीं अर्हं पृथ्वीमूर्ती – नमः पृथिवी के समान सहनशील  होने से,
२४३-ॐ ह्रीं अर्हं शांतिभाव- नमः शांति के उपासक होने से ,
२४४-ॐ ह्रीं अर्हं सलिलात्मक   – नमः जल के समान शीतलता प्रदायक  होने से,
२४५-ॐ ह्रीं अर्हं वायुमूर्ती – नमः वायु के समान पर पदार्थों के संसर्ग रहित होने से’,
२४६-ॐ ह्रीं अर्हं असंगात्मा- नमः परिग्रह रहित होने से 
२४७-ॐ ह्रीं अर्हं वहग्निमूर्ती- नमः अग्नि के समान कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले होने से,
२४८-ॐ ह्रीं अर्हं अधर्मधक  – नमः अधर्म को जलाने वाले होने से ‘,
२४९-ॐ ह्रीं अर्हं सुयज्वा – नमः कर्मरूपी सामग्री को भली प्रकार   होम करने से ,
२५०-ॐ ह्रीं अर्हं यजमानात्मा- नमःनिज  स्वभाव के आराधक होने से
२५१- ॐ ह्रीं अर्हं सुत्वने  नमः  – आत्म सुख रूप सागर में अभिषेक करने से ,
२५२- ॐ ह्रीं अर्हं सूत्रामपूजिताय   – नमः   – इन्द्रों   द्वारा  पूजित होने से,
२५३- ॐ ह्रीं अर्हं ऋत्विजे    नमः   – ज्ञान रुपी  यज्ञ करने  में आचर्य ,
२५४- ॐ ह्रीं अर्हं यज्ञपतये  नमः    -यज्ञ के प्रधान अधिकारी होने से
२५५- ॐ ह्रीं अर्हं यज्ञाय  नमः     -पूजानीय होने से,,
२५६- ॐ ह्रीं अर्हं यज्ञांगाय  नमः    -यज्ञ के अंग  होने से,
२५७- ॐ ह्रीं अर्हं अमृताय  नमः   -विषयतृष्णा के नष्ट होने से,  
२५८- ॐ ह्रीं अर्हं हविषे  नमः    -ज्ञानयज्ञ में अपनी  ही अशुद्ध परिणीति को  होम करने,
२५९ – ॐ ह्रीं अर्हं व्योममूर्तये  नमः   -आकाश के समान निर्मल  केवलज्ञान  की अपेक्षा लोक-अलोक में   व्याप्त होने से,,
२६०- ॐ ह्रीं अर्हं अमूर्तात्माने  नमः   – रूप,रस,गंध एवं स्पर्श  रहित होने से, 
२६१- ॐ ह्रीं अर्हं निर्लेपाय  नमः   -कर्म रूप लेप रहित होने से,
२६२- ॐ ह्रीं अर्हं निर्मलाय  नमः  – कर्म  मल रहित होने से निर्मल ,
२६३- ॐ ह्रीं अर्हं अचलाय  नमः    -सदैव एक रूप मे विध्यमान होने से,
२६४- ॐ ह्रीं अर्हं सोममूर्तये  नमः    -चंद्रमा के समान शांत, कांतिमान   और प्रकाशमान रहने से ,
२६५- ॐ ह्रीं अर्हं सुसौम्यात्मने  नमः   – की आत्मा अतिशय सौम्य होने से,
२६६- ॐ ह्रीं अर्हं सूर्यमूर्तये  नमः   -सूर्य समान तेजस्वी होने से ,
२६७- ॐ ह्रीं अर्हं महाप्रभाय  नमः    -अतिशय प्रभा के  धारक होने से,
२६८- ॐ ह्रीं अर्हं मन्त्रवितदे  नमः    -मंत्रो के ज्ञाता होने से मन्त्रवित् ,
२६९- ॐ ह्रीं अर्हं मन्त्रकृते नमः    -अनेक मंत्रो के करने वाले होने,
२७०- ॐ ह्रीं अर्हं मंत्रिणे  नमः    -मन्त्रो से युक्त  होने से, 
२७१- ॐ ह्रीं अर्हं मन्त्रमूर्तये  नमः    -मंत्र रूप  होने से,
२७२- ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तगाय   नमः    -अनंत पदार्थों  के ज्ञाता होने से
२७३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वतंत्राय  नमः    -कर्मं रहित होने  से,
२७४- ॐ ह्रीं अर्हं तंत्रकृते  नमः    -शास्त्रों के करता होने से,
२७५- ॐ ह्रीं अर्हं स्वंताय  नमः    -उत्तम  अंत:करण धारक होने से ,
२७६- ॐ ह्रीं अर्हं कृतन्ताय  नमः    -यमराज की  मृत्यु  कर,देने से ,
२७७- ॐ ह्रीं अर्हं कृतान्तकृते  नमः    -आगम के  रचियेता होने से
२७८- ॐ ह्रीं अर्हं कृतिने नमः    -अत्यंत कुशल अथवा पुण्यवान  होने से,
२७९- ॐ ह्रीं अर्हं कृतार्थाय नमः    – आत्मा के समस्त पुरुषार्थ सिद्ध   करने से ,
२८०-ॐ ह्रीं अर्हं सत्कृत्याय  नमः   -संसार के समस्त  जीवों द्वारा सत्कार  योग्य  होने से,
२८१-ॐ ह्रीं अर्हं कृतकृत्याय नमः   -समस्त कार्य सम्पन्न  कर चुकने से,
२८२-ॐ ह्रीं अर्हं कृतक्रतवे   नमः   -ज्ञान अथवा तपश्चरणरूपी यज्ञ  सम्पन्न कर चुकने से,
२८३-ॐ ह्रीं अर्हं नित्याय नमः   -सदैव विध्यमान रहने से,
२८४-ॐ ह्रीं अर्हं मृत्युंजयाय  नमः   -मृत्यु पर विजेता होने से,
२८५-ॐ ह्रीं अर्हं अमृत्यवे  नमः   -मृत्यु रहित   होने से ,
२८६-ॐ ह्रीं अर्हं  अमृतात्मने नमः   -अमृत  आत्मा शांतिदायक होने से,
२८७-ॐ ह्रीं अर्हं अमृतोद्भवाय   नमः  -मोक्ष में उत्कृष्ट उत्पत्ति होने से,
२८८-ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मनिष्ठाय  नमः   -सदैव शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन रहने से,
२८९-ॐ ह्रीं अर्हं  परब्रह्मणे  नमः   -उत्कृष्ट ब्रह्मरूप   होने से,
२९०-ॐ ह्रीं अर्हं  ब्रह्मात्मने  नमः  -का ज्ञान अथवा ब्रह्मचर्य स्व  रूप  ही होने से,

२९१-ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मसम्भवाय नमः   – शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति होने से तथा उनके द्वारा  दूसरो को भी प्राप्ति कराने से,
२९२-ॐ ह्रीं अर्हं महाब्रह्मपतये  नमः   -गणधरादि महाब्रह्माओं के अधिपति होने से,
२९३-ॐ ह्रीं अर्हं ब्रह्मेटे  नमः   -केवलज्ञान के स्वामी होने से,
२९४-ॐ ह्रीं अर्हं महा ब्रह्म पदेशवराय  नमः   -महाब्रह्मपद अर्थात  आर्हन्त्य और सिद्धत्व अवस्था के ईश्वर  होने से,
२९५-ॐ ह्रीं अर्हं सुप्रसन्नाय  नमः   -सदैव प्रसन्न रहने से ,
२९६ ॐ ह्रीं अर्हं प्रसन्नात्मने  नमः   -की आत्मा में कषायों का अभाव होने से सदैव प्रसन्न   रहने से,
२९७-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानधर्मदमप्रभवे  नमः  -उत्तम क्षमादि धर्म और इन्द्रिय निग्रह रूप दम के स्वामी होने से,
२९८-ॐ ह्रीं अर्हं प्रश्मात्मने  नमः   -की आत्मा उत्कृष्ट शांति सहित  होने से,
२९९-ॐ ह्रीं अर्हं प्रशान्तात्मने  नमः    -आत्मामें  कषायों का अभाव होने से अतिशय शांत होकर  
३००- ॐ ह्रीं अर्हं पुराणपुरुषोत्तमाय नमः   – शलाका पुरुषों में सर्वोत्तम  होने से

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 301 से 400

महाशोकध्वजोऽशोकः कः स्रष्टा पद्मविष्टरः। पद्मेशः पद्मसम्भूतिः पद्मनाभिरनुत्तरः ॥1॥

 पद्मयोनिर्जगद्योनिरित्यः स्तुत्यः स्तुतीश्वरः। स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेयः कृतक्रियः ॥2॥

 गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्यः पुण्यो गणाग्रणीः । गुणाकरो गुणाम्भोधिर्गुणज्ञो गुणनायकः ॥3॥

 गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः । शरण्यः पुण्यवाक पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥4॥

 अगण्यः पुण्यधीर्गुण्यः पुण्यकृत्पुण्यशासनः। धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः ॥5॥

 पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मषः । निर्द्वन्द्वो निर्मदः शान्तो निर्मोहो निरुपद्रवः ॥6॥

निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लवः । निष्कलंगो निरस्तैना निर्धूतागा निरास्रव : ॥7॥

विशालो विपुलज्योतिरतुलोऽचिन्त्यवैभवः । सुसंवृतः सुगुप्ता मा सुभूत्‌ सुनयतत्त्ववित्‌ ॥8॥

एकविद्यो महाविद्यो मुनिः परिवृढः पतिः। धीशो विद्यानिधिः साक्षी विनेता विहतान्तकः ॥9॥

 पिता पितामहः पाता पवित्रः पावनो गतिः। त्राता भिषग्वरो वर्यो वरदः परमः पुमान्‌ ॥10॥

 कविः पुराण पुरुषो वर्षीयान्वृषभः पुरुः। प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनैकपितामहः ॥11॥

॥ इति महाशोकध्वजादिशतम्‌ ॥ 4 ॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  301 से 400 सूत्र

३०१-ॐ ह्रीं अर्हं महाशोकध्वजाय नमः   -का बड़ा भारी  अशोकवृक्ष चिन्ह   होने से,
३०२-ॐ ह्रीं अर्हं अशोकाय  नमः   -शोक रहित  होने से,
३०३-ॐ ह्रीं अर्हं काय नमः   -सबको सुख दाता होने से,
३०४-ॐ ह्रीं अर्हं सृष्टे  नमः   -स्वर्ग एवं मोक्षमार्ग की सृष्टि कर्त्ता होने से,
३०५-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मविष्टराय नमः   -कमलाकर   आसान पर विराजमान  होने से,
३०६-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मेशाय नमः   -पद्मा अर्थात लक्ष्मी(मोक्ष) के स्वामी होने से,
३०७-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मसम्भूतये नमः   – विहार के समय देवतागण द्वारा उनके चरणों के नीचे स्वर्ण कमलों  की रचना करने से,
३०८-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मनाभाय नमः   -नाभी -कमलाकर  होने से,
३०९-ॐ ह्रीं अर्हं अनुत्तराय नमः   -से श्रेष्ठतमहोने से,
३१०-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मयोनये नमः   – शरीर माता के पद्माकर गर्भाशय में उत्पन्न  होने से,
३११-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्योनये नमः   -धर्म रूप जगत के उत्पत्ति में कारण  होने से,
३१२-ॐ ह्रीं अर्हं इत्याय  नमः   -को भव्य जीव तपश्चरण द्वारा प्राप्त करने से ‘
३१३-ॐ ह्रीं अर्हं स्तुत्याय  नमः   – इन्द्रों द्वारा स्तुति करने योग्य  होने से,
३१४-ॐ ह्रीं अर्हं स्तुतिश्वराय   नमः   -स्तुतियों के स्वामी होने से  , 
३१५-ॐ ह्रीं अर्हं स्तवनार्हाय नमः   – स्तवन किये जाने  योग्य होने से ,
 ३१६-ॐ ह्रीं अर्हं ह्रृषीकेशाय  नमः  -इन्द्रियों को वश में कर  उनके स्वामी होने से,
३१७-ॐ ह्रीं अर्हं जितजेयाय  नमः   -समस्त मोहनीय आदि कर्म  शत्रुओं पर विजयी  होने से,
३१८-ॐ ह्रीं अर्हं कृतक्रियाय  नमः   -समस्त करने योग्य क्रियाएँ को  कर चुकने से,
३१९- ॐ ह्रीं अर्हं गणाधिपाय  नमः   – १२ सभाओंरूप गण के स्वामी होने से,
३२०-ॐ ह्रीं अर्हं गणज्येष्ठाय नमः    -समस्त गणों  के ज्येष्ठ होने से,
३२१-ॐ ह्रीं अर्हं गण्याय  नमः    -त्रिलोक में गणना करने  योग्य  होने से,
३२२-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्याय  नमः   -पवित्र  होने से,
३२३-ॐ ह्रीं अर्हं गणाग्रण्यै नमः   -सभा में उपस्थित सभी प्राणियों को कल्याण मार्ग पर लगाने वालेहोने से,
३२४-ॐ ह्रीं अर्हं गुणाकारय नमः   -गुणो की खान होने से,
३२५-ॐ ह्रीं अर्हं गुणोम्भोधये नमः   -गुणों के समूह होने से ,
३२६-ॐ ह्रीं अर्हं गुणज्ञाय  नमः   -गुणों  के ज्ञाता होने से,
३२७-ॐ ह्रीं अर्हं गुणनायकाय  नमः    -गुणों के स्वामी होने से,
३२८-ॐ ह्रीं अर्हं गुणादरिणे  नमः   -गुणों का आदर करने से ,
३२९-ॐ ह्रीं अर्हं गुणोच्छेदिने  नमः  -विभावीक गुणों का क्षय   करने से,
३३०-ॐ ह्रीं अर्हं  निर्गुणाय  नमः   -वैभविक भावो से रहित  होने से,
३३१-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यगिरे  नमः    -पवित्र वाणी के धारक होने से ,
३३२-ॐ ह्रीं अर्हं  गुणाय  नमः   -गुणों से युक्त  होने से,
३३३- ॐ ह्रीं अर्हं शरण्याय नमः   -जीवों के रक्षक होने से,
३३४-ॐ ह्रीं अर्हं पूतवाचे नमः    -वचन पवित्र होने से ,
३३५-ॐ ह्रीं अर्हं पूताय    नमः      -पवित्र  होने से,
३३६-ॐ ह्रीं अर्हं वरेण्याय नमः     -श्रेष्ट होने से,
३३७-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यनायकाय नमः   -पुण्य के अधिपति होने से,
३३८-ॐ ह्रीं अर्हं अगण्याय  नमः    – गणनारहित होने से ,
३३९-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यधीये  नमः    -पवित्र   बुद्धि  धारक  होने से,
३४०-ॐ ह्रीं अर्हं गुण्याय  नमः    -गुणों सहित  होने से,
३४१-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यकृते  नमः    – पुण्य करने वाले होने से,
३४२-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यशासनाय  नमः  – शाशन पवित्र,पुण्यरूप  होने से,
३४३-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मारामाय नमः    -धर्म के उपवन स्वरुप होने से,
३४४- ॐ ह्रीं अर्हं गुणग्रामाय  नमः   – अनेक गुणों के समूह  होने से,
३४५ ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यापुण्यनिरोधकाय    नमः    -शुद्धोपयोग में लीन  ,पाप और पुण्य  दोनों का निरोध करने से ,
३४६-ॐ ह्रीं अर्हं पापापेताय   नमः    -हिंसादि पापों रहित होने से,
३४७-ॐ ह्रीं अर्हं विपापात्मने   नमः   -आत्मा से समस्त पापो के विगत होने से
३४८-ॐ ह्रीं अर्हं विपाप्मने  नमः   -समस्त पापों को नष्ट करने से ,
३४९ ॐ ह्रीं अर्हं वीतकल्मषाय  नमः   – के समस्त कल्मष अर्थात रागद्वेष रूपी भावकर्म रुपी मल नष्ट होने से,
३५०-ॐ ह्रीं अर्हं निर्द्वन्द्वाय  नमः   -परिग्रह रहित  होने से,,
३५१-ॐ ह्रीं अर्हं निर्मदाय  नमः   -शंकर रहित   होने से,
३५२-ॐ ह्रीं अर्हं  शान्ताय   नमः   -शांति प्राप्त करने से’,
३५३-ॐ ह्रीं अर्हं निर्मोहाय  नमः   -मोह  रहित  होने से,
३५४ -ॐ ह्रीं अर्हं निरुपद्रवाय  नमः   -उपसर्ग आदि रहित  होने से,
३५५-ॐ ह्रीं अर्हं निनिर्मेषाय नमः   – पलको के नही झपकने से,
३५६-ॐ ह्रीं अर्हं निराहाराय  नमः   -कवलाहार ग्रहण नही करने से ,
३५७ -ॐ ह्रीं अर्हं निष्क्रियाय   नमः  -सांसारिक क्रियाओं रहित  होने से,
३५८-ॐ ह्रीं अर्हं निरुपप्लवाय नमः  -बाधारहित  होने से,
३५९-ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकाय नमः   -कलंक  रहित होने से, 
३६०-ॐ ह्रीं अर्हं निरस्तैनसे  नमः    -समस्त एनस अर्थात पापो को दूर करने से ,
३६१-ॐ ह्रीं अर्हं निर्धूतागसे  नमः    -समस्त अपराधों को दूर करने से ,
३६२-ॐ ह्रीं अर्हं निरास्रव नमः   -कर्मों के आस्रव रहित  होने से,
३६३-ॐ ह्रीं अर्हं विशालाय नमः   -विशालतम होने से ,
३६४-ॐ ह्रीं अर्हं विपुलज्योतिषे नमः   -केवलज्ञानरूपी विशाल ज्योति के  धारक होने से’,
३६५-ॐ ह्रीं अर्हं अतुलाय नमः   -उपमा रहित होने से,
३६६-ॐ ह्रीं अर्हं अचिंत्यवैभवाय नमः   – अचिन्त्यवैभव  होने से’,
३६७-ॐ ह्रीं अर्हं सुसंवृताय नमः   -नवीन कर्मों  आस्रव को रोककर पूर्ण संवर होने  से,
३६८-ॐ ह्रीं अर्हं सुगुप्तात्मने  नमः   -की आत्मा अतिशय सुरक्षित  होने  से अथवा  गुप्तियों युक्त होने से
३६९-ॐ ह्रीं अर्हं सुभुते   नमः  -समस्त पदार्थों के  भली प्रकार ज्ञाता  होने से,
३७०-ॐ ह्रीं अर्हं सुनयतत्वविदे  नमः   -समीचीन नयों के यथार्थ रहस्यों के ज्ञाता होने से,
३७१ॐ ह्रीं अर्हं एकविद्याय नमः   -केवलज्ञानरूपी एक विद्या के धारक होने से,
३७२-ॐ ह्रीं अर्हं महाविद्याय  नमः   -बड़ी बड़ी विद्याओं के  धारक होने से, 
३७३ -ॐ ह्रीं अर्हं मुनये  नमः   -प्रत्यक्षज्ञानी होने से,
३७४-ॐ ह्रीं अर्हं परिवृढाय   नमः  -सबके स्वामी होने से,
३७५-ॐ ह्रीं अर्हं पतये   नमः   -संसार के समस्त जीवों के रक्षक  होने  से,

३७६-ॐ ह्रीं अर्हं धीशाय  नमः   -बुद्धि के स्वामी  होने से ,
३७७-ॐ ह्रीं अर्हं विद्यानिधये  नमः   -विद्याओं  के भंडार  होने  से,
३७८-ॐ ह्रीं अर्हं साक्षिणे नमः   -समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञाता होने  से ;
३७९- ॐ ह्रीं अर्हं विनेत्रे  नमः   -मोक्षमार्ग  को प्रकट करने वाले होने  से,
३८०-ॐ ह्रीं अर्हं विहतान्तकाय  नमः    -मृत्यु को नष्ट करनेवाले  होने  से,
३८१-ॐ ह्रीं अर्हं पित्रे  नमः   -चतुर्गति के समस्त   जीवों  रक्षक  होने  से
३८२- ॐ ह्रीं अर्हं पितामहाय  नमः   -समस्त जीवों के गुरु होने से,
३८३ -ॐ ह्रीं अर्हं पात्रे  नमः   -समस्त जीवों के पालन करने  से ,
३८४-ॐ ह्रीं अर्हं पवित्राय  नमः   -अतिशय शुद्  होने  से
३८५- ॐ ह्रीं अर्हं पावनाय  नमः   -सबको शुद्ध  करने  से
३८६- ॐ ह्रीं अर्हं गतये  नमः   -के अनुरूप सभी भव्यजीव तपश्चरण द्वारा होने से ,
३८७-ॐ ह्रीं अर्हं त्रात्रे  नमः   -खंडाकार छेद निकाल कर गतिरहित होने से, 
३८८-ॐ ह्रीं अर्हं भिषग्वराय नमः   -जन्म-जरा-मृत्यु रूप रोगो को नष्ट करने के लिए उत्तम वैद्य होने ,
३८९-ॐ ह्रीं अर्हं वर्याय  नमः   -श्रेष्ठ होने से,
३९०-ॐ ह्रीं अर्हं वरदाय  नमः   – इच्छानुकूल पदार्थों को प्रदान करने वाले होने से
३९१ -ॐ ह्रीं अर्हं परमाय  नमः   – ज्ञानादि लक्ष्मी अतिशय श्रेष्ठ  होने से
३९२ -ॐ ह्रीं अर्हं पून्से नमः   -आत्मा और परपुरुषों को पवित्र करने के कारण  होने से,
३९३-ॐ ह्रीं अर्हं कवये  नमः   -द्वादशांग का वर्णन करने वाले होने से
३९४-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणपुरुषाय नमः    -अनादिकाल से होनेसे 
३९५-ॐ ह्रीं अर्हं वर्षीयसे  नमः    -गुणों की अपेक्षा अतिशय वृद्ध होने से,
३९६-ॐ ह्रीं अर्हं वृषभाय  नमः   -श्रेष्ठ होने से,
३९७-ॐ ह्रीं अर्हं पुरवे  नमः   -आदिपुरुष होने से,
३९८-ॐ ह्रीं अर्हं प्रतिष्ठाप्रभवाय    नमः   -सम्मान अथवा स्थिरता  के कारण,
३९९-ॐ ह्रीं अर्हं हेतवे  नमः   -समस्त उत्तम   कार्यों के कारण  होने से
४००-ॐ ह्रीं अर्हं भुवनैकपितामहाय नमः   -संसार के  एकमात्र गुरु होने से,

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 401 से 500

श्री वृक्षलक्षणः श्लक्ष्णो लक्षण्यः शुभलक्षणः। निरक्षः पुण्डरीकाक्षः पुष्कलः पुष्करेक्षणः ॥1॥

सिद्धिदः सिद्धसंकल्पः सिद्धात्मा सिद्धसाधनः। बुद्धबोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो महर्द्धिकः ॥2॥

 वेदांदो वेदविद्वेद्यो जातरूपो विदांवरः । वेदवेद्यः स्वयंवेद्यो विवेदो वदतांवरः ॥3॥

अनादिनिधनोऽव्यक्तो व्यक्तवाख्यक्तशासनः । युगादिकृद्युगाधारो युगादिर्जगदादिजः ॥4॥

अतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थद्दक्‌। अनिन्द्रियोऽहमिन्द्रार्च्यो महेन्द्रमहितो महान्‌ ॥5॥

उद्धवः कारणं कर्ता पारगो भवतारकः। अग्रह्मो गहनं गुह्मं परार्ध्यः परमेश्वरः ॥6॥

अनन्तर्द्धिरमेयर्द्धिरचिन्त्यर्द्धिः समग्रधीः। प्राग्र्‌यः प्राग्रहरोऽभ्यग्रः प्रत्यग्रोऽग्र्‌योग्रिमोऽग्रजः ॥7॥

महातपा महातेजा महोदर्को महोदयः । महायशा महाधामा महासत्त्वो महाधृतिः ॥8॥

 महाधैर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबलः । महाशक्तिर्महाज्योतिर्महाभूतिर्महाद्युतिः ॥9॥

 महामतिर्महानीतिर्महाक्षान्तिर्महादयः । महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकविः ॥10॥

 महामहा महाकीर्तिर्महाकान्तिर्महावपुः । महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुणः ॥11॥

महामहपतिः प्राप्त महाकल्याणपंचकः । महाप्रभुर्महाप्रातिहार्याधीशो महेश्वरः ॥12॥

॥ इति श्रीवृक्षादिशतम्‌ ॥ 5 ॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  401 से 500 सूत्र

४०१-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवृक्षलक्षणाय नमः   -श्री वृक्ष चिन्ह से  चिन्हित  होने से,
४०२-ॐ ह्रीं अर्हं सूक्ष्मलक्षणाय  नमः   -सूक्ष्मरूप होने से,
४०३-ॐ ह्रीं अर्हं लक्षण्याय  नमः   -लक्षणों सहित होने से ,
४०१-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीवृक्षलक्षणाय नमः   -श्री वृक्ष चिन्ह से  चिन्हित  होने से,
४०२-ॐ ह्रीं अर्हं सूक्ष्मलक्षणाय  नमः   -सूक्ष्मरूप होने से,
४०३-ॐ ह्रीं अर्हं लक्षण्याय  नमः   -लक्षणों सहित होने से ,
४०४-ॐ ह्रीं अर्हं शुभलक्षणाय  नमः    -शरीर में अनेक(१००८) शुभ लक्षण चिन्हित  होने से,
४०५-ॐ ह्रीं अर्हं निरीक्षाय  नमः   -समस्त पदार्थों का निरीक्षण करने वाले होने से /नेत्रेंद्रियों द्वारा दर्शन क्रिया नही करने से ,
४०६-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्डरीकाक्षाय नमः   – नेत्र पुण्डरीक कमल  समान सुंदर  होने से
४०७-ॐ ह्रीं अर्हं पुष्कलाय  नमः   -आत्मगुणों  परिपुष्ट होने से,
४०८-ॐ ह्रीं अर्हं पुष्करेक्षणाय नमः   -कमलदल के समान लम्बे नेत्रों के होने से,
४०९-ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धिदाय  नमः    -सिद्धि देने वाले होने से
४१०-ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धसंकल्पाय नमः   – समस्त  विकल्प सिद्ध हो चुकने से 
४११-ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धात्मने    नमः   -की आत्मा सिद्धावस्था प्राप्त करने से,
४१२-ॐ ह्रीं अर्हं सिद्धसाधनाय  नमः    – रत्नत्रय रूप मोक्ष साधन प्राप्त होने से,
४१३-ॐ ह्रीं अर्हं बुद्धबोध्याय  नमः    -को सब पदार्थों का ज्ञान   होने से,
४१४-ॐ ह्रीं अर्हं महाबोधय नमः   -की रत्नत्रय रुपी विभूति अत्यंत प्रशंसनीय  होने से,
४१५-ॐ ह्रीं अर्हं वर्धमानाय नमः   -के गुण उत्तरोत्तर वृद्धि गत होने से,
४१६-ॐ ह्रीं अर्हं महर्द्धिकाय  नमः   -महा ऋद्धि धारक होने से,
४१७-ॐ ह्रीं अर्हं वेदांगाय  नमः   -अनुयोग रूपी वेदो के अंग अर्थात कारण होने से,
४१८-ॐ ह्रीं अर्हं वेदविदे नमः   -वेदो के ज्ञाता होने से ,,
४१९-ॐ ह्रीं अर्हं वैद्याय नमः   -ऋषियों द्वारा जाने होने से,
४२०-ॐ ह्रीं अर्हं जातरूपाय नमः   -दिगंबर रूप होने से,
४२१-ॐ ह्रीं अर्हं विदांवराय  नमः    -जानने वालो में श्रेष्ठ होने से,
४२२-ॐ ह्रीं अर्हं वेदवेद्याय नमः   -आगम/केवलज्ञान के  द्वाराजानने योग्य होने से]
४२३-ॐ ह्रीं अर्हं स्वसंवेद्याय नमः   -अनुभवगम्य होने से,
४२४-ॐ ह्रीं अर्हं विवेदाय नमः   -तीनो(पुरुष,स्त्री,नपुंसक ) वेदों से रहित होने से ‘,
४२५-ॐ ह्रीं अर्हं वदतांवराय नमः   – वक्ताओं में श्रेष्ठ होने से ,
४२६-ॐ ह्रीं अर्हं अनादिनिधनाय नमः  -अनादि और अंत रहित होने से,
४२७-ॐ ह्रीं अर्हं व्यक्ताय नमः  -ज्ञान के द्वारा अत्यंत स्पष्ट होनेसे ,
४२८-ॐ ह्रीं अर्हं व्यक्तवाचे  नमः  -वचन  अतिशय स्पष्ट होने से,
४२९-ॐ ह्रीं अर्हं व्यक्तशासनाय  नमः   -का शासन अत्यंत स्पष्ट/प्रकट  होने से
४३०-ॐ ह्रीं अर्हं युगादिकृते  नमः   -कर्मभूमि रूप युग   के आदि (आदिनाथ भगवान ) व्यवस्थापक होने से ,
४३१-ॐ ह्रीं अर्हं युगाधाराय नमः   -युग  की समस्त   व्यवस्था करने वाले होने से
४३२-ॐ ह्रीं अर्हं युगादये   नमः   -आदिनाथ द्वारा कर्मभूमि युग का प्रारम्भ   होने से,
४३३-ॐ ह्रीं अर्हं जगदादिजाय   नमः   -जगत के प्रारम्भ में उत्पन्न  होने से,
४३४-ॐ ह्रीं अर्हं अतीन्द्राय नमः  -ने अपने प्रभाव/ऐश्वर्य से इन्द्रों को अतिक्रांत कर दिया है अत:
४३५-ॐ ह्रीं अर्हं अतीन्द्रियाय नमः   -इन्द्रिय गोचर नही होने से ,
४३६-ॐ ह्रीं अर्हं धीन्द्राय  नमः   – बुद्धि के स्वामी होने से,,
४३७-ॐ ह्रीं अर्हं महेंद्राय नमः   -परम ऐश्वर्य को अनुभव होने  से,
४३८-ॐ ह्रीं अर्हं अतीन्द्रियार्थदृशे नमः    -अतीन्द्रिय सूक्ष्म,अंतरित,दूरार्थ ) पदार्थों  देखने से,
४३९-ॐ ह्रीं अर्हं अनिन्द्रियाय नमः   -इन्द्रियों से रहित होने से 
४४०-ॐ ह्रीं अर्हं अहमिन्द्राच्र्याय नमः    -अहमिन्द्र द्वारा पूजित होने से,
४४१-ॐ ह्रीं अर्हं महेंद्रमहिताय नमः   -बड़े बड़े इन्द्रों द्वारा पूजित होने से ,
४४२-ॐ ह्रीं अर्हं महते  नमः   -स्वयं विशालतम   होने से,
४४३- ॐ ह्रीं अर्हं उद्भवाय नमः   -संसार में  उत्कृष्टतम  होने से 
४४४- ॐ ह्रीं अर्हं कारणाय नमः   -मोक्ष के कारण   होने से,
४४५- ॐ ह्रीं अर्हं कर्त्रे  नमः   – शुद्ध भावों करने से ,
४४६- ॐ ह्रीं अर्हं पारगाय नमः   -संसार रूपी सागर   को पार करने वाले होने से,
४४७- ॐ ह्रीं अर्हं भवतारकाय नमः   -भव्य जीवों को  संसार सागर से तारने वाले होने से ,’,
४४८- ॐ ह्रीं अर्हं अगाह्याय  नमः    -किसी के द्वारा अवगाहन करने योग्य नही होने से ,/के गुणों को कोई नही समझ सकने से,
४४९-ॐ ह्रीं अर्हं गहनाय  नमः    -का स्वरुप   अतिशय गंभीर या कठिन  होने से ,
४५०- ॐ ह्रीं अर्हं गुह्माय नमः   -गुप्त रूप होने से,
४५१-ॐ ह्रीं अर्हं पराध्यार्य  नमः   -उत्कृष्टतम होने से,
४५२-ॐ ह्रीं अर्हं परमेश्वराय  नमः  -सबसे अधिक समर्थ होने से,
४५३-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तर्धये नमः  -की ऋद्धियाँ अनन्त  होने से,
४५४-ॐ ह्रीं अर्हं अभयर्धर्ये  नमः  – की  ऋद्धियाँ  अभेय  होने से ,
४५५-ॐ ह्रीं अर्हं अचिंत्यर्धर्ये  नमः  -ऋद्धियाँ अचिन्त्य होने से ,
४५६-ॐ ह्रीं अर्हं समग्रधीये   नमः  -की बुद्धि पूर्णावस्था प्राप्त  होने से,
४५७-ॐ ह्रीं अर्हं प्राग्याय   नमः   -प्रमुखतम होने से,
४५८-ॐ ह्रीं अर्हं प्राग्रहराय  नमः  -मांगलिक कार्यों में स्मरणीय  होने से,
४५९-ॐ ह्रीं अर्हं अभ्यग्राय  नमः  -लोक के अग्रभाग को प्राप्त करने के सम्मुख  होने से
४६०-ॐ ह्रीं अर्हं प्रत्यग्राय  नमः   -सबसे विलक्षण /नवीन  होने से
४६१-ॐ ह्रीं अर्हं अग्रयाय  नमः   -सबके स्वा7gn7मी ‘होने से,
४६२-ॐ ह्रीं अर्हं अग्रिमाय  नमः   -सबसे  अग्रेसर   होने से ,
४६३-ॐ ह्रीं अर्हं अग्रजाय   नमः   -ज्येष्ठतम होने से,
४६४-ॐ ह्रीं अर्हं महातपसे  नमः   -अत्यंत  कठिन  तपश्चरण करने से ‘
४६५-ॐ ह्रीं अर्हं महातेजसे  नमः   -का महान तेज  व्याप्त होने से,
४६५-ॐ ह्रीं अर्हं महोदर्काय  नमः   –के तपश्चरण का फल बहुत बड़ा होने से,,
४६५-ॐ ह्रीं अर्हं महोदयाय  नमः   -का दया होने से 
४६८-ॐ ह्रीं अर्हं महायशसे  नमः    -का यश होने से 
४६९-ॐ ह्रीं अर्हं महाधाम्ने  नमः   -विशाल तेज -प्रताप/ज्ञान के धारक होने से,
४७०-ॐ ह्रीं अर्हं महासत्त्वाय   नमः -अपरम्पार  शक्तियुक्त होने से ,
४७१-ॐ ह्रीं अर्हं महाधृतये नमः   -महान धीरज होने से,
४७२-ॐ ह्रीं अर्हं महाधैर्याय   नमः  – अत्यंत धैर्यवान,कभी अधीर नही होते से  ‘,
४७३-ॐ ह्रीं अर्हं महावीर्याय  नमः   -अनंत वीर्य धारक होने  से ‘,
४७४-ॐ ह्रीं अर्हं महासम्पदे  नमः  -समवशरण रूप अद्वितीय विभूति के धारक होने से,
४७५-ॐ ह्रीं अर्हं महाबलाय  नमः   -अत्यंत बलवान होने से,
४७६-ॐ ह्रीं अर्हं महाशक्तये नमः   -महान शक्ति धारक होने से  ,
४७७-ॐ ह्रीं अर्हं महाज्योतिषे नमः   -अतिशयकान्ति/केवलज्ञान युक्त होने से’,
४७८-ॐ ह्रीं अर्हं महाभूतये  नमः   – अपार  वैभव होने से,
४७९-ॐ ह्रीं अर्हं महाद्युतये नमः   -शरीर अत्यंत   द्युति वान   होने से,
४८०-ॐ ह्रीं अर्हं महामतये  नमः   अतिशय बुद्धिमान होने से,
४८१-ॐ ह्रीं अर्हं महानीतये नमः   – अतिशय न्यायवान होने से ,
४८२-ॐ ह्रीं अर्हं महाक्षांतये नमः   -अतिशय क्षमावान होने से 
४८३-ॐ ह्रीं अर्हं महादयाय   नमः   -अतिशय दयालु होने से,
४८४ -ॐ ह्रीं अर्हं महाप्राज्ञाय नमः   -अत्यंत विवेकवान होने से,
४८५ -ॐ ह्रीं अर्हं महाभागाय  नमः   -अत्यंत भाग्यशाली होने से,
४८६-ॐ ह्रीं अर्हं महानन्दाय   नमः   -अत्यंत आनंद होने से,
४८७-ॐ ह्रीं अर्हं महाकवये  नमः    -श्रेष्टतम कवि होने से ‘महाकवि’,
४८८-ॐ ह्रीं अर्हं महामहसे  नमः   -अत्यंत तेजस्वी होने से,
४८९-ॐ ह्रीं अर्हं महाकीर्तिये नमः   -विशाल कीर्ति धारक होने से,
४९०-ॐ ह्रीं अर्हं महाकान्तये  नमः   -अद्भुत कांति के धारक   होने से’,
४९१-ॐ ह्रीं अर्हं महावपुषे  नमः   -उतुंग शरीर होने से, 
४९२-ॐ ह्रीं अर्हं महादानाय  नमः   -बड़े दानी होने से ,
४९३-ॐ ह्रीं अर्हं महाज्ञानाय  नमः   -केवलज्ञान होने से’,
४९४-ॐ ह्रीं अर्हं महयोगाय  नमः   -बड़े ध्यानी होने से,
४९५-ॐ ह्रीं अर्हं महागुणाय  नमः   -महानतम गुणों धारक  होने से ‘,
४९६-ॐ ह्रीं अर्हं महामहपतये नमः   -अत्यंत विशाल उत्सवों  स्वामी होने से,
४९७–ॐ ह्रीं अर्हं प्राप्तमहापन्च कल्याणकाय  नमः   – गर्भादिक पांच कल्याणकों के होने से, 
४९८-ॐ ह्रीं अर्हं महाप्रभवे   नमः   -सबसे बड़े स्वामी होने से,
४९९-ॐ ह्रीं अर्हं महाप्रातिहार्याधीशाय   नमः    -अशोकवृक्षादि अष्ट महाप्रातिहार्य के  स्वामी होने से
५००- ॐ ह्रीं अर्हं महेश्वराय  नमः   -सब देवों के अधीश्वर होने से

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 501 से 600

महामुनिर्महामौनी महाध्यानी महादमः। महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामखः ॥1॥

महाव्रतपतिर्मह्यो महाकान्तिधरोऽधिपः । महामैत्री महादेयो महोपायो महोमयः ॥2॥

महाकारुणिको मन्ता महोमन्त्रो महायतिः। महानादो महाघोषो महेज्यो महासांपतिः ॥3॥

महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यो महिष्ठवाक्‌। महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदयः ॥4॥

महाक्लेशांकुशः शूरो महाभूतपतिर्गुरुः। महापराक्रमोऽनन्तो महाक्रोधरिपुर्वशी ॥5॥

महाभवाब्धि सन्तारिर्महामोहाद्रिसूदनः । महागुणाकरः क्षान्तो महायोगीश्वरः शमी ॥6॥

महाध्यानपतिर्ध्यातमहाधर्मा महाव्रतः । महकर्मारिहाऽऽत्मज्ञो महादेवो महेशित ॥7॥

सर्वक्लेशापहः साधुः सर्वदोषहरो हरः। असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकरः ॥8॥

सर्वयोगीश्वरोऽचिन्त्यः श्रुतात्मा विष्टरश्रवाः । दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वगः ॥9॥

प्रधानमात्मा प्रकृतिः परमः परमोदयः। प्रक्षीणबन्धः कामारिः क्षेमकृत्क्षेमशासनः ॥10॥

प्रणवः प्रणयः प्राणः प्राणदः प्रणतेश्वरः। प्रमाणं प्रणिधिर्दक्षो दक्षिणोध्वर्युरध्वरः ॥11॥

आनन्दो नन्दनो नन्दो वन्द्योऽनिन्द्योऽभिनन्दनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुररिञ्जयः ॥12॥

॥ इति महामुन्यादिशतम्‌ ॥ 6 ॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  501 से 600 सूत्र


५०१-ॐ ह्रीं अर्हं महामुनये  नमः   -सभी मुनियों में सर्वोत्तम होने से ‘महामुनि’,
५०२-ॐ ह्रीं अर्हं महामौनिने  नमः   -वचनलाप रहित होने से ‘महामौनी ‘,
५०३-ॐ ह्रीं अर्हं महाध्यानिने  नमः    -शुक्ल ध्यान के ध्यानेसे ,
५०४-ॐ ह्रीं अर्हं महादमाय  नमः    -अतिशय जितेन्द्रिय होने से ,
५०५-ॐ ह्रीं अर्हं महाक्षमाय नमः   -अतिशय समर्थ /शांत होने से
५०६-ॐ ह्रीं अर्हं महाशीलाय  नमः   -उत्तम शील युक्त होने से
५०७-ॐ ह्रीं अर्हं महायज्ञाय नमः   -तपश्चरण रुपी अग्नि में अष्ट कर्मों को होम करने से,
५०८-ॐ ह्रीं अर्हं महामखाय  नमः   -पूज्य होने से,
५०९-ॐ ह्रीं अर्हं महाव्रतपतये  नमः   – ५-महाव्रतों के स्वामी होने स
५१०-ॐ ह्रीं अर्हं मह्याय  नमः    -जगत्पूज्य होने से
५११- ॐ ह्रीं अर्हं महाकांतिधराय नमः    -(विशाल कांति धारक होने से ),
५१२-ॐ ह्रीं अर्हं अधिपाय    नमः   -(सबके स्वामी  होने से  ),
५१३-ॐ ह्रीं अर्हं महामैत्रीमयाय  नमः   -(सब के साथ मैत्रीभाव   होने से ),
५१४-ॐ ह्रीं अर्हं अमेयाय   नमः   -अपरिमित  गुणों के धारक    होने से ,
५१५-ॐ ह्रीं अर्हं महोपायाय नमः    -(मोक्ष के सर्वोत्तम  उपायों सहित    होने से ),
५१६-ॐ ह्रीं अर्हं महोमयाय नमः   -(तेज स्वरुप  होने से ),
५१७-ॐ ह्रीं अर्हं महाकारुण्यकाय नमः   -अत्यंत दयालु होने से  , 
५१८-ॐ ह्रीं अर्हं मन्त्रे  नमः    -सब  पदार्थों केज्ञाता   होने से  ,
५१९-ॐ ह्रीं अर्हं महामंत्राय  नमः    -अनेक मंत्रों के स्वामी  होने से 
५२०-ॐ ह्रीं अर्हं महायतये   नमः    -यतियों  श्रेष्ठ  होने से 
५२१-ॐ ह्रीं अर्हं महानादाय   नमः    -गंभीर दिव्य ध्वनि के धारक  होने से ,
५२२-ॐ ह्रीं अर्हं महाघोषाय  नमः   -दिव्यध्वनि का गंभीर उच्चारण होने से,
५२३-ॐ ह्रीं अर्हं महेज्याय   नमः    -बड़ी बड़ी पूजाओं के अधिकारी होने से ,
५२४-ॐ ह्रीं अर्हं महसांपतये   नमः    -समस्त तेज/प्रताप के स्वामी है,
५२५-ॐ ह्रीं अर्हं महाध्वरध्रराय  नमः    -ज्ञानरूपी विशाल यज्ञ के  धारक   होने से  ,
५२६-ॐ ह्रीं अर्हं धुर्याय   नमः    -कर्मभूमि का समस्त  भार संभालने अथवा सर्वश्रेष्ठ  होने से,
५२७-ॐ ह्रीं अर्हं महौदार्याय   नमः   -अतिशय उदार होने से  ,
५२८-ॐ ह्रीं अर्हं महेष्ठ्वाचे   नमः   -श्रेष्ठ वचनों से युक्त होने से ,
५२९-ॐ ह्रीं अर्हं महात्मने  नमः   -महान आत्मा होने से  ,
५३०-ॐ ह्रीं अर्हं महासांधाम्ने   नमः   -समस्त तेज के स्थान   होने से ,
५३१-ॐ ह्रीं अर्हं महर्षये   नमः   -ऋषियों में प्रधान   होने से 
५३२-ॐ ह्रीं अर्हं महितोदयाय  नमः   -प्रशस्त जन्म के धारक   होने से ,
५३३-ॐ ह्रीं अर्हं महाक्लेशांकुशाय  नमः   – बड़े बड़े क्लेशों  के नष्ट करने के लिए अंकुश  समान  होने से ,
५३४-ॐ ह्रीं अर्हं शूराय नमः   -कर्मरुपी शत्रुओं क्षय करने में शूर-वीर  होने से 
५३५- ॐ ह्रीं अर्हं महाभूतपतये नमः   -गंधरादि बड़े-बडे प्राणियों के स्वामी होने से ,,
५३६-ॐ ह्रीं अर्हं गुरुवे  नमः   -त्रिलोक में श्रेष्टम   होने से  
५३७-ॐ ह्रीं अर्हं महापराक्रमाय  नमः   -विशल पराक्रम के धारक  होने से 
५३८-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्ताय  नमः   -अन्त रहित   होने से,
५३९-ॐ ह्रीं अर्हं महाक्रोधरिपवे  नमः  -क्रोध के बड़े शत्रु  होने से ,
५४०-ॐ ह्रीं अर्हं वशीने  नमः   -समस्त इन्द्रियों को नियंत्रित रखने से, ,
५४१-ॐ ह्रीं अर्हं महाभवाब्धिसंतारीणे   नमः   -संसार रूपी महासागर पार करने से ,
५४२-ॐ ह्रीं अर्हं महामोहाद्रिसूदना य   नमः   – मोहरूपी महाचल के भेदक    होने से ,,
५४३-ॐ ह्रीं अर्हं महागुणाकराय नमः   -सम्यग्दर्शन आदि बड़े बड़े गुणों से युक्त होने से  ,
५४४-ॐ ह्रीं अर्हं क्षांताय  नमः   -क्रोधादि कषायों के विजयता  होने से ,
५४५-ॐ ह्रीं अर्हं महयोगीश्वराय  नमः   -बड़े बड़े योगियों मुनियों के स्वामी  होने से ,
५४६-ॐ ह्रीं अर्हं शमीने  नमः    -अतिशय शांत परिणामी  होने से 
५४७-ॐ ह्रीं अर्हं महाध्यानपतये  नमः   -महान  शुक्लध्यान के ध्याता होने से  ,
५४८-ॐ ह्रीं अर्हं ध्यानमहाधर्मणे  नमः -अहिंसारूपी महाधर्म के ध्याता होने से 
५४९-ॐ ह्रीं अर्हं महाव्रताय  नमः   -महान व्रतों के धारण करने से 
५५०-ॐ ह्रीं अर्हं महाकर्मारिघ्ने  नमः   -कर्मरूपी महाशत्रुओंके विनाशक   होने से,
५५१-ॐ ह्रीं अर्हं आत्मज्ञाय  नमः   -आत्नस्वरूप के ज्ञाता होने से ,
५५२-ॐ ह्रीं अर्हं महादेवाय  नमः   -सभी देवों  में प्रधान होने से,
५५३-ॐ ह्रीं अर्हं महेशित्रे  नमः   -महान सामर्थ्य युक्त होने से ,
५५४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वक्लेशपहाय  नमः   -समस्रत क्लेशों से मुक्त होने से,
५५५-ॐ ह्रीं अर्हं साधवे  नमः   -आत्मकल्याण सिद्ध करने से,
५५६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदोषहराय  नमः    -समस्त दोषों का निवारण करने से,
५५७-ॐ ह्रीं अर्हं हराय  नमः    -समस्त पापों का  क्षय करने से ,
५५८-ॐ ह्रीं अर्हं असंख्येयाय  नमः    -असंख्यात गुणों के धारक होने से,
५५९-ॐ ह्रीं अर्हं अप्रेयात्मने  नमः    -अपरिमित शक्ति  धारक होने से,
५६०-ॐ ह्रीं अर्हं शमात्मने  नमः    -शांतस्वरूप होने से ,
५६१-ॐ ह्रीं अर्हं प्रशमाकराय  नमः    -उत्तम शांति के भंडार होने से,
५६२-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वयोगीश्वराय  नमः   -सब मुनियों के स्वामी होने से ,
५६३-ॐ ह्रीं अर्हं अचिन्त्याय  नमः   -किसी के चिंतवन में नही आने से ,
५६४-ॐ ह्रीं अर्हं श्रुतात्मने  नमः    -भावश्रुतरूप होने से,
५६५-ॐ ह्रीं अर्हं विष्टरश्रवसे  नमः   -लोक के समस्त पदार्थों को जानने से ,
५६६-ॐ ह्रीं अर्हं दान्तात्मने  नमः    -मन को वश में रखने से ,
५६७-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मतीर्थेशाय  नमः   -संयम रूप तीर्थों के स्वामी होने से,
५६८-ॐ ह्रीं अर्हं योगात्माने  नमः   -योगमय होने से,
५६९-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानसर्वंज्ञाय  नमः    -ज्ञान द्वारा सब जगह व्याप्त होने से ,
५७०-ॐ ह्रीं अर्हं प्रधानाय  नमः    -आत्मा का एकाग्रतापूर्वक ध्यान करने अथवा तीनों लोक में प्रमुख होने से ,
५७१-ॐ ह्रीं अर्हं आत्मने  नमः    -ज्ञानस्वरूप होने से ,
५७२-ॐ ह्रीं अर्हं प्रकृतये  नमः    -प्रकृष्ट कार्यों के होने से ,
५७३-ॐ ह्रीं अर्हं परमाय  नमः    -उत्कृष्ट लक्ष्मी के धारक होने से,
५७४- ॐ ह्रीं अर्हं परमोदयाय  नमः  –उत्कृष्ट उदय अर्थात जन्म या वैभव के धारक होने से ,
५७५-ॐ ह्रीं अर्हं प्रक्षीणबंधाय  नमः    -कर्म बंधन क्षीण होने से,
५७६-ॐ ह्रीं अर्हं कामरये  नमः    -कामदेव के  शत्रु होने से,
५७७-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमकृते  नमः    -कल्याणकारी होने से,
५७८-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमशासनाय  नमः   -मंगलमय उपदेशक होने से,
५७९-ॐ ह्रीं अर्हं प्रणवाय  नमः   -ओमकार  रूप होने से,
५८०ॐ ह्रीं अर्हं प्रणताय   नमः   -सबसे नमस्कृत होने से ,
५८१-ॐ ह्रीं अर्हं प्राणाय  नमः    -जगत के प्राणियों को जीवित रखने से,
५८२-ॐ ह्रीं अर्हं प्राणदाय  नमः    -समस्त जीवों के प्राणदाता/रक्षक होने से ,
५८३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रण्तेश्वराय  नमः    -भव्य जीवों के स्वामी होने से ,
५८४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रमाणाय  नमः   -ज्ञानमय होने से ,
५८५-ॐ ह्रीं अर्हं प्रणिधये   नमः    -अनंतज्ञानादि निधियों के होने से,
५८६-ॐ ह्रीं अर्हं दक्षाय  नमः   -समर्थ अर्थात प्रवीण होने से,
५८७-ॐ ह्रीं अर्हं दक्षिणाय  नमः   -सरल होने से,
५८८-ॐ ह्रीं अर्हं अध्वर्यवे नमः    -ज्ञानरूप यज्ञ करने से,
५८९-ॐ ह्रीं अर्हं अध्वराय   नमः    -समीचीन मार्ग के दर्शकहोने से ,
५९०-ॐ ह्रीं अर्हं आनन्दाय  नमः    -सदैव सुखरूप रहने से ,
५९१-ॐ ह्रीं अर्हं नन्दनाय   नमः    -सबको आनंद प्रदान करने से,
५९२-ॐ ह्रीं अर्हं नन्दाय  नमः    -सदा समृद्धिमान होते रहने  से,
५९३-ॐ ह्रीं अर्हं वन्द्याय  नमः     -इन्द्रादि द्वारा वंदनीय होने से,
५९४-ॐ ह्रीं अर्हं अनिन्द्याय  नमः    -निंदा रहित होने से,
५९५-ॐ ह्रीं अर्हं अभिनंदनाय नमः    -प्रशंशनीय  होने से,
५९६-ॐ ह्रीं अर्हं कामघ्ने  नमः    -कामदेव को नष्ट करने से,
५९७-ॐ ह्रीं अर्हं कामदाय   नमः    -अभिलषित पदार्थों के देने से,
५९८-ॐ ह्रीं अर्हं काम्याय  नमः    -सबके द्वारा चाहने योग्य है।,
५९९-ॐ ह्रीं अर्हं कामधेनवे  नमः    -सबके मनोरथ पूर्ण करने वाले होने से,
६००-ॐ ह्रीं अर्हं अरिंजयाय  नमः    -कर्मशत्रुओं विजय प्राप्त करने से,

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 601 से 700

असंस्कृत सुसंस्कारः प्राकृतो वैकृतान्तकृत्‌। अन्तकृत्कान्तगुः कान्तश्चिन्तामणिभीष्टदः ॥1॥

अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासनः । जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तकः ॥2॥

जिनेन्द्रः परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभिस्वनः । महेन्द्रवन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दनः ॥3॥

नाभेयो नाभिजोऽजातः सुब्रतो मनुरुत्तमः । अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरुः सुधीः ॥4॥

सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुकः । विशिष्टः शिष्टभुक्‌ शिष्टः प्रत्ययः कामनोऽनघः ॥5॥

क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्यः क्षेमधर्मपतिः क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तरः ॥6॥

सुकृती धातुरिज्यार्हः सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मखः ॥7॥

सत्यात्मा सत्यविज्ञानः सत्यवाक्यसत्यशासनः। सत्याशीः सत्यसन्धानः सत्यः सत्य परायणः ॥8॥

स्थेयान्स्थवीयान्नेदीयान्दवीयान्‌ दूरदर्शनः । अणोरणीयाननणुर्गुरुराद्यो गरीयसाम्‌ ॥9॥

सदायोगः सदाभोगः सदातृप्तः सदाशिवः। सदागतिः सदासौख्यः सदाविद्यः सदोदयः॥10॥

सुघोषः सुमुखः सौम्यः सुखदः सुहितः सुहृत्‌। सुगुप्तो गुप्तिभृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वरः ॥11॥

॥ इति असंस्कृतादिशतम्‌ ॥ 7 ॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  601 से 700 सूत्र


६०१-ॐ ह्रीं अर्हं  असंस्कृत सुसंस्काराय  नमः   -किसी के  द्वारा संस्कृत हुए बिना ही  स्वयं उत्तम संस्कारों धारण करने से,
६०२-ॐ ह्रीं अर्हं प्राकृताय  नमः   -स्वाभाविक होने से,
६०३-ॐ ह्रीं अर्हं वैकृतान्तकृताय नमः   -रागादि विकारों के नष्ट होने से,
६०४-ॐ ह्रीं अर्हं अन्तकृते  नमः   -अंत अर्थात धर्म अथवा जन्म-मरण रूप संसार  अवसान करने वाले होने से
६०५-ॐ ह्रीं अर्हं कान्तगवे  नमः   -सुंदर कांति ,वचन/इन्द्रियों के  धारक होने से ,
६०६-ॐ ह्रीं अर्हं कान्ताय  नमः   -अत्यंत सुंदर होने से,
६०७-ॐ ह्रीं अर्हं चिंतामणये  नमः   -इच्छित पदार्थों देने से,
६०८-ॐ ह्रीं अर्हं अभीष्टदाय   नमः   -भव्य जीवों के लिए अभीष्ट -स्वर्ग मोक्ष को देने से,
६०९-ॐ ह्रीं अर्हं अजिताय  नमः   -किसी के  द्वारा जीते नही जाने से,
६१०-ॐ ह्रीं अर्हं जितकामरये  नमः   -कामरूप शत्रुओं को जीतने से , कहलाते  है
६११-ॐ ह्रीं अर्हं अमिताय  नमः   -अवधिरहित होने से,
६१२-ॐ ह्रीं अर्हं अमितशासनाय  नमः   -अनुपम धर्म उपदेशक होने से,
६१३-ॐ ह्रीं अर्हं जितक्रोधाय  नमः   -क्रोधको जीतने से,
६१४-ॐ ह्रीं अर्हं जितमित्राय  नमः   -शत्रुओं पर जीत पाने से,
६१५-ॐ ह्रीं अर्हं जित क्लेशाय  नमः   -क्लेशों पर विजयी होने से,
६१६-ॐ ह्रीं अर्हं जितान्तकाय  नमः   -यमराज पर विजयी होने से,
६१७-ॐ ह्रीं अर्हं जिनेन्द्राय  नमः   -कर्मरूप शत्रुओं पर विजेताओं में सर्वश्रेष्ठ होने से,
६१८-ॐ ह्रीं अर्हं परमानन्दाय  नमः   -उत्कृष्ट आनन्द के धारक होने से,
६१९-ॐ ह्रीं अर्हं मुनीन्द्राय  नमः    -मुनियों के साथ होने से ,
६२०-ॐ ह्रीं अर्हं दुन्दुभिस्वनाय  नमः   -दुन्दुभि के समान गंभीर होने से,
६२१-ॐ ह्रीं अर्हं महेन्द्रवन्द्याय   नमः   -बड़े बड़े इन्द्रों द्वारा बंदनीय होने से,
६२२-ॐ ह्रीं अर्हं योगीन्द्राय  नमः   -योगियों के स्वामी होने से,
६२३-ॐ ह्रीं अर्हं यतीन्द्राय  नमः   -यतियों के स्वामी होने से,
६२४-ॐ ह्रीं अर्हं नाभिनन्दनाय  नमः   -नाभिमहाराज के पुत्र होने से,
६२५-ॐ ह्रीं अर्हं नाभेयाय  नमः   -नाभिराज महाराज की संतान होने से,
६२६-ॐ ह्रीं अर्हं नाभिजाय  नमः   -नाभिमहाराज से उत्पन्न होने से,
६२७-ॐ ह्रीं अर्हं जातसुव्रताय   नमः -द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा जन्म रहित होने से,
६२८ – ॐ ह्रीं अर्हं मनवे नमः   -कर्मभूमि की समस्त व्यवस्था बताने अथवा मनन-ज्ञानरूप रूप होने से
६२९-,ॐ ह्रीं अर्हं उत्तमाय  नमः   -उत्कृष्ट होने से,
६३०-ॐ ह्रीं अर्हं अभेद्याय  नमः   -किसी के भी द्वारा भेद्न करने नही होने से,
६३१-ॐ ह्रीं अर्हं अनत्ययाय  नमः   -विनाशरहित होने से,
६३२-ॐ ह्रीं अर्हं अनाश्वासे नमः   -तपश्चरण करने से ,
६३३-ॐ ह्रीं अर्हं अधिकाय  नमः   -सर्वश्रेष्ठ होने / वास्तविक सुख प्राप्त करने से,
६३४-ॐ ह्रीं अर्हं अधिगुरुवे  नमः   -श्रेष्ठ गुरु होने से,
६३५-ॐ ह्रीं अर्हं सुगिरे  नमः   -उत्तम वचन के धारक होने से,
६३६-ॐ ह्रीं अर्हं सुमेधसे  नमः   -उत्तम बुद्धि के धारक होने से,
६३७-ॐ ह्रीं अर्हं स्वामिने  नमः   -पराक्रमी होने से,
६३८-ॐ ह्रीं अर्हं अधिपति नमः   -सबके स्वामीहोने से,
६३९-ॐ ह्रीं अर्हं दुरधर्षाय  नमः   -किसी के द्वारा अनादर ,हिंसा/निवारण आदि नही किये जाने से,
६४०-ॐ ह्रीं अर्हं निरुत्सकाय  नमः  -सांसारिक विषयकोंकी उतकंठा से रहित होने से,
६४१-ॐ ह्रीं अर्हं विशिष्टाय  नमः    -विशेष रूप होने से,
६४२-ॐ ह्रीं अर्हं शिष्टभुजे  नमः   -शिष्ट पुरुषों का पालन करने से ,
६४३-ॐ ह्रीं अर्हं शिष्टाय  नमः   -सदाचारपूर्ण होने से,
६४४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रत्ययाय  नमः  -ज्ञानरूप होने से,
६४५-ॐ ह्रीं अर्हं कॉमनाय  नमः   -मनोहर होने से
६४६-ॐ ह्रीं अर्हं अनघाय  नमः   -पाप से रहित होने से
६४७-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमीणे  नमः   -कल्याण से युक्त होने से,
६४८-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमंकराय  नमः   -भव्य जीवों का कल्याण करने से,
६४९-ॐ ह्रीं अर्हं अक्षय्याय  नमः   -क्षय रहित होने से,
६५०-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमधर्मपतये  नमः   -कल्याणकारी धर्म के स्वामी होने से,
६५१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षमिणे  नमः   -क्षमा से युक्त होने से , 
६५२- ॐ ह्रीं अर्हं अग्राह्याय  नमः   -अल्पज्ञानियों केग्रहण में नही आने से, 
६५३-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञाननिग्राहाय  नमः   -सम्यज्ञान द्वारा ग्रहण करने योग्य होने से, 
६५४-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानगम्याय  नमः   -ध्यान द्वारा जानने योग्य होने से,
६५५-ॐ ह्रीं अर्हं निरुत्तराय  नमः   -उत्कृष्तम होने से,
६५६-ॐ ह्रीं अर्हं सुकृतिने  नमः   -पुण्यवान होने से,
६५७-ॐ ह्रीं अर्हं धातवे  नमः   -शब्दों के उत्पादक होने से
६५८-ॐ ह्रीं अर्हं इज्यार्हाय  नमः   -पूजा योग्य होने से,
६५९-ॐ ह्रीं अर्हं सुनयाय  नमः   -समीचीनी नयों सहित होने से,
६६०-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनिवासाय  नमः   -लक्ष्मी के निवास होनेसे,
६६१-ॐ ह्रीं अर्हं चतुराननाय नमः   -समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,
६६२-ॐ ह्रीं अर्हं चतुर्वक्त्राय  नमः –  समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,
६६३-ॐ ह्रीं अर्हं चतुरास्याय  नमः   -समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,
६६४-ॐ ह्रीं अर्हं चतुर्मुखाय  नमः   -समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,
६६५-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यात्मने  नमः   -सत्यस्वरूप होने से,
६६६-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यविज्ञानाय  नमः   -यथार्थ विज्ञान युक्त होने से,
६६७-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यवाचे  नमः   -सत्यवचन होने से,
६६८-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यशासनाय  नमः   -सत्यधर्म के उपदेशक होने से,
६६९-ॐ ह्रीं अर्हं सत्याशिषे  नमः   -सत्यशीर्वाद होने से,
६७०-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यसन्धानाय  नमः   -सत्यप्रतिज्ञ होने से,
६७१-ॐ ह्रीं अर्हं सत्याय  नमः   -सत्यरूप होने से,
६७२-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यपरायणाय  नमः  -सत्य में निरंतर ततपर रहने से,
६७३-ॐ ह्रीं अर्हं स्थेयसे  नमः   -अत्यंत स्थिर होने से,
६७४-ॐ ह्रीं अर्हं स्थवीयसे नमः   -अतिशय स्थूल होने से,
६७५-ॐ ह्रीं अर्हं नेदीयासे  नमः   -भक्तों केसमीपवर्ती होने से,
६७६-ॐ ह्रीं अर्हं द्वीयसे नमः   -पापों से दूर रहने से,
६७७-ॐ ह्रीं अर्हं दूरदर्शनाय  नमः   -दूर से ही दर्शन होने से,
६७८-ॐ ह्रीं अर्हं अणवे   नमः   -अणु रूप होने से,
६७९-ॐ ह्रीं अर्हंअणीयसे  नमः   -परमाणु से भी सूक्ष्म होने से,
६८०-ॐ ह्रीं अर्हं अनणवे नमः   -अणु रूप होने से,
६८१-ॐ ह्रीं अर्हं गरीयसामाद्य गुरुवे  नमः  -गुरुओंमें श्रेष्टतम गुरु होने से,

यहां पर गरीयसामाद्य और गरीयसां दो नाम भी निकलते है किन्तु इस पक्ष में और ६२८ इन दोनों स्थान पर ‘जातस्रुवत ‘नाम माना जाता है!

६८२-ॐ ह्रीं अर्हं सदायोगाय  नमः   -सदा योग रूप होने से ,
६८३-ॐ ह्रीं अर्हं सदाभोगाय  नमः   -सदा आनंद के भोक्ता होने से ,
६८४-ॐ ह्रीं अर्हं सदातृप्ताय  नमः   सदा संतुष्ट रहने से ,
६८५-ॐ ह्रीं अर्हं सदाशिवाय  नमः   -सदा कल्याणरूप होने से
६८६-ॐ ह्रीं अर्हं सदागतये नमः   -सदा ज्ञान रूप होने से,
६८७-ॐ ह्रीं अर्हं सदासौख्याय  नमः   -सदा सुख रूप रहने से,
६८८-ॐ ह्रीं अर्हं सदाविद्याय  नमः   -सदा केवलज्ञान रूप विद्या से युक्त होने से,
६८९-ॐ ह्रीं अर्हं सदोदयाय नमः   -सदा उदय रूप रहने से,
६९०-ॐ ह्रीं अर्हं सुमुघोषाय  नमः   -उत्तम ध्वनि होने से,,
६९१-ॐ ह्रीं अर्हं सुमुखाय  नमः   -सुंदर मुख के धारक होने से,
६९२-ॐ ह्रीं अर्हं सौम्याय  नमः  -शान्तरूप होने से,
६९३-ॐ ह्रीं अर्हं सुखदाय  नमः    -समस्त जीवों केसुखदाताहोने से,
६९४-ॐ ह्रीं अर्हं सुहिताय  नमः   -सबके हितैषी होने से,
६९५-ॐ ह्रीं अर्हं सुहृदे   नमः   -उत्तम हृदय के धारक होने से,
६९६-ॐ ह्रीं अर्हं सुगुप्ताय  नमः   -सुरक्षित अथवा मिथ्यादृष्टियों के लिए गूढ़ होने से,
६९७-ॐ ह्रीं अर्हं गुप्तिभृते  नमः   -गुप्तियों के धारक होने से,
६९८-ॐ ह्रीं अर्हं गोप्त्रे  नमः   -सब के रक्षक होने से,
६९९-ॐ ह्रीं अर्हं लोकाध्यक्षाय  नमः   -त्रिलोक का साक्षात्कार करने से ,
७००-ॐ ह्रीं अर्हं दमेश्वराय  नमः   -इन्द्रिय विजय रूपी दम के स्वामी होने से ,

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 701 से 800

बृहद्बृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदारधीः । मनीषी धिषणो धीमांञ्चेमुषीशो गिरांपतिः ॥1॥

नैकरूपो नयोत्तुंगो नैकात्मा नैकधर्मकृत्‌। अविज्ञेयोऽप्रतर्क्यात्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः ॥2॥

ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भः प्रभास्वरः । पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भः सुदर्शनः ॥3॥

लक्ष्मीवांस्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता। मनोहरो मनोज्ञांगो धीरो गंभीरशासनः ॥4॥

धर्मयूपो दयायागो धर्मनेमिर्मुनीश्वरः । धर्मचक्रायुधो देवः कर्महा धर्मघोषण : ॥5॥

अमोघवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघशासनः । सुरुपः सुभगस्त्यागी समयज्ञः समाहित : ॥6॥

सुस्थितः स्वास्थ्यभाक्स्वस्थो नीरजस्को निरुद्धवः। अलेपो निष्कलंकात्मा वीतरागो गतस्पृहः ॥7॥

वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा निःसपत्नो जितेन्द्रियः। प्रशान्तोऽनन्तधामर्षिर्मंगलं मलहानघः ॥8॥

अनीदृगुपमाभूतो दृष्टिर्दैवमगोचरः। अमूर्तो मूर्तिमानेको नैको नानैकतत्त्वदृक्‌ ॥9॥

अध्यात्मगम्यो गम्यात्मा योगविद्योगिवन्दितः । सर्वत्रगः सदाभावी त्रिकालविषयार्थदृक्‌ ॥10॥

शंकरः संवदो दान्तो दमी शान्तिपरायणः ।अधिपः परमानन्दः परात्मज्ञः परात्परः ॥11॥

त्रिजगद्वल्लभोऽभ्यर्च्यस्रिजगन्मंगलोदयः । त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रिस्रिलोकाग्रशिखामणिः ॥12॥

॥ इति बृहदादिशतम्‌ ॥ 8 ॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  701 से 800 सूत्र

७०१-ॐ ह्रीं अर्हं वृहद्बृहस्पतये  नमः   -इन्द्रों के गुरु होने से,
७०२-ॐ ह्रीं अर्हं वाग्मिने  नमः   -प्रशस्त वचनों के धारक होने से,
७०३-ॐ ह्रीं अर्हं वाचस्पतये   नमः   -वचनों के स्वामी होने से।,
७०४-ॐ ह्रीं अर्हं उदारधिये  नमः   -उत्कृष्ट बुद्धि धारक होने से
७०५-ॐ ह्रीं अर्हं मनीषिणे  नमः   -शक्तियों युक्त होने से,
७०६-ॐ ह्रीं अर्हं धिषणाय   नमः   -चतुर्यपूर्ण बुद्धि युक्त होने से,
७०७-ॐ ह्रीं अर्हं धीमते  नमः   -धारणपुट बुद्धि युक्त होने से,
७०८-ॐ ह्रीं अर्हं शेमुषीशाय  नमः   -बुद्धि के स्वामी होने से,
७०९-ॐ ह्रीं अर्हं गिराम्पतये  नमः  -समस्त वचनों के स्वामी होने से ,
७१०-ॐ ह्रीं अर्हं नैकरूपाय  नमः   -अनेकरूप होने से,
७११-ॐ ह्रीं अर्हं नयोत्तुंगाय   नमः   -नयो द्वारा उत्कृष्टावस्था  प्राप्त करने से,
७१२-ॐ ह्रीं अर्हं नैकात्मने  नमः   -अनेक गुणों के धारक ,
७१३-ॐ ह्रीं अर्हं नैकधर्मकृतये  नमः   -वस्तु के अनेक धर्मों के उपदेशक,
७१४-ॐ ह्रीं अर्हं अविज्ञेयाय  नमः    -साधारण पुरुषों द्वारा जानने के अयोग्य होने से,
७१५-ॐ ह्रीं अर्हं अप्रतकर्यात्मने   नमः   – तर्क-वितर्क रहित स्वरुप युक्त होने से ,
७१६-ॐ ह्रीं अर्हं कृतज्ञाय   नमः  -समस्त कृतज्ञ जानने से,
७१७-ॐ ह्रीं अर्हं कृतलक्षणाय   नमः   – समस्त पदार्थों का लक्षणस्वरूप बताने से,
७१८-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानगर्भाय  नमः   -अंतरंग में ज्ञान होने से,
७१९-ॐ ह्रीं अर्हं दयागर्भाय  नमः  – दयालु हृदय होने से,
७२०-ॐ ह्रीं अर्हं रत्नगर्भाय  नमः  -रत्नत्रय युक्त होने से अथवा गर्भकल्याणक में रत्नवृष्टि होने से,
७२१-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभास्वराय  नमः   -देदीप्यमान होने से,
७२२-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मगर्भाय  नमः   -कमलाकार गर्भाशय में स्थित होने से,
७२३-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्गर्भाय  नमः   -ज्ञान में के प्रतिबिंबित होने से,
७२४-ॐ ह्रीं अर्हं हेमगर्भाय   नमः   -गर्भवास के समय पृथिवी के स्वर्णमय अथवा सुवर्णमय वृष्टि होने से,
७२५-ॐ ह्रीं अर्हं सुदर्शनाय  नमः   -सुंदर दर्शन होने से,
७२६-ॐ ह्रीं अर्हं लक्ष्मीवते  नमः   -अंतरंग एवं बहिरंग लक्ष्मी से  युक्त होने से,
७२७- ॐ ह्रीं अर्हं त्रिदशाध्यक्षाय  नमः -देवों के स्वामी होने से,
७२८-ॐ ह्रीं अर्हं दृढीयसे  नमः   -अत्यंत दृढ होने से,
७२९-ॐ ह्रीं अर्हं इनाय  नमः   -सबके स्वामी होने से, 
७३०-ॐ ह्रीं अर्हं ईशित्रे  नमः   – सामर्थ्यशाली होने से,
७३१-ॐ ह्रीं अर्हं मनोहराय  नमः   -भव्यजीवों का मन हरण करने से,
७३२-ॐ ह्रीं अर्हं मनोज्ञांगाय  नमः – सुंदर अंगों के धारक होने से, 
७३३-ॐ ह्रीं अर्हं धीराय  नमः   -धैर्यवान होने से,
७३४-ॐ ह्रीं अर्हं गम्भीरशासनाय    नमः   -शासन की गंभीरता से,
७३५-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मयूपाय  नमः   -धर्म  स्तम्भरूप होने से,
७३६-ॐ ह्रीं अर्हं दयायागाय   नमः -द्यारूप यज्ञ  के करने वाले होने से,
७३७-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मनेमये  नमः  -धर्मरूपी रथ की चक्रधारा होने से,
७३८-ॐ ह्रीं अर्हं मुनीश्वराय  नमः – मुनियों के स्वामी होने से,
७३९-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मचक्रायुधाय  नमः   -धर्मचक्ररूपी शस्त्र के धारक होने से,
७४०-ॐ ह्रीं अर्हं देवाय  नमः -आत्मगुणों में क्रीड़ा करने से,
७४१-ॐ ह्रीं अर्हं कर्मघ्ने  नमः  -कर्मों के क्षय करने से,
७४२-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मघोषणाय नमः   – धर्म उपदेशक होने से ,
७४३-ॐ ह्रीं अर्हं अमोघवाचे नमः   -के  वचन व्यर्थ नही जाने से,
७४४-ॐ ह्रीं अर्हं अमोघाज्ञाय   नमः   – की आज्ञा निष्फल नही होने से,
७४५-ॐ ह्रीं अर्हं निर्मलाय  नमः   – मलरहित होने से,
७४६- ॐ ह्रीं अर्हं अमोघशासनाय   नमः  -का शासन सदा सफल होने से,
७४७-ॐ ह्रीं अर्हं सुरूपाय  नमः   -सुंदर होने  से,
७४८- ॐ ह्रीं अर्हं सुभगाय   नमः   -ऐश्वर्य युक्त होने से,
७४९- ॐ ह्रीं अर्हं त्यागिने  नमः   -समस्त पर का त्याग करने से,
७५०- ॐ ह्रीं अर्हं समयज्ञाय  नमः   -सिद्धांत,समय अथवा आचार्य के ज्ञाता होने से,
७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय  नमः  -समाधानरूप होने से,
७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय  नमः  -सुखपूर्वक स्थित होने से,
७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे   नमः   -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,
७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय  नमः   -आत्मस्वरूप में स्थित होने से
७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय  नमः  -समाधानरूप होने से,
७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय  नमः   -सुखपूर्वक स्थित होने से,
७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे  नमः   -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,
७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय  नमः   -आत्मस्वरूप में स्थित होने से,
७५५-ॐ ह्रीं अर्हं नीरजस्काय  नमः   – कर्मरूप रज रहित होने से,
७५६- ॐ ह्रीं अर्हं निरुद्धवाय  नमः   -सांसारिक उत्सवों रहित होने से,
७५७- ॐ ह्रीं अर्हं अलेपाय  नमः   -कर्मरूपी लेप रहित होने से,
७५८-ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकात्माने  नमः   -कलंकरहित आत्मा से युक्त होने से,
७५९-ॐ ह्रीं अर्हं वीतरागाय  नमः   -रागद्वेष रहित होने से,
७६०-ॐ ह्रीं अर्हं गतस्पृहाय   नमः   -विषयों की   इच्छा से रहित होने से
७६१-ॐ ह्रीं अर्हं वश्येन्द्रीयाय  नमः   -इन्द्रियों को वश में होने से,
७६२-ॐ ह्रीं अर्हं विमुक्तात्मने  नमः   – आत्माकर्मबन्धनो से मुक्त  होने से,
७६३-ॐ ह्रीं अर्हं नि: सप्तनाय  नमः   -कोई शत्रु अथवा प्रतिद्वंदी नही होने से,
७६४-ॐ ह्रीं अर्हं जितेन्द्रियाय  नमः   -इन्द्रियों पर विजयी होने से,
७६५-ॐ ह्रीं अर्हं प्रशांताय   नमः   -शान्त होने से,,
७६६-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तधामर्षये  नमः   -अनन्त तेज के धारक होने से,
७६७-ॐ ह्रीं अर्हं मंगलाय  नमः   -मंगलरूप होने से,
७६८-ॐ ह्रीं अर्हं मलघ्ने  नमः   -मल नष्ट करने से,
७६९-ॐ ह्रीं अर्हं अनपाय  नमः -व्यसनों अथवा दुखो से रहित होने से,

नोट-यद्यपि ६४७ वां नाम भी अनघ है अत: ७६९ वां अनघ नाम पुनरुक्त सा !’अघ’ शब्द के ‘अघं तु व्यसने दुःखे दुरिते च नपुंसकम्’ अनेक अर्थ होने से पुनरुक्ति दोष दूर हो जाता है 

७७०-ॐ ह्रीं अर्हं अनीदृशे  नमः   -के समान अन्य कोई नही है अत:
७७१-ॐ ह्रीं अर्हं उपमाभूताय  नमः   -सबके लिए उपमा देने योग्य होने से,
७७२-ॐ ह्रीं अर्हं दिष्टये  नमः   -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से ,
७७३-ॐ ह्रीं अर्हं दैवाय नमः  -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से,
७७४-ॐ ह्रीं अर्हं अगोचर नमः   -इन्द्रियों द्वारा जाने नही जा सकते अथवा केवलज्ञान होने  के  बाद  पृथ्वी पर’गो’ अर्थात विहार नही करते अत:

७७५-ॐ ह्रीं अर्हं अमूर्ताय  नमः   -रूप,रस,गंध ,स्पर्श रहित होने से,

७७६-ॐ ह्रीं अर्हं मूर्तिमते  नमः   -संसार में शरीर सहित है इसलिए ,
७७७-ॐ ह्रीं अर्हं एकस्मै  नमः   -अद्वितीय होने से,
७७८-ॐ ह्रीं अर्हं नैकस्मै  नमः -अनेक गुणों सहित होने से,
७७९-ॐ ह्रीं अर्हं नानैकतत्वकदृशे नमः    -आत्मा के अतिरिक्त अन्य अनेक   परपदार्थों को नही देखते , उन   में तल्लीन नही होने से,
७८०-ॐ ह्रीं अर्हं अध्यात्मगम्याय  नमः   – अध्यात्म शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य होने से, 
७८१-ॐ ह्रीं अर्हं अगम्यात्मने  नमः   – मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा जानने योग्य नही होने से,
७८२-ॐ ह्रीं अर्हं योगविदे  नमः  -योगों के ज्ञाता होने से,
७८३-ॐ ह्रीं अर्हं योगिवन्दिताय  नमः   -योगियों द्वारा वन्दित होने से,
७८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वत्रगाय   नमः  -केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त होने से,
७८५-ॐ ह्रीं अर्हं सदभावीने   -सदा विद्यमान रहने से,
७८६-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिकालविषार्थकदृशे  नमः   -समस्त पदार्थों को देखने से ,
७८७-ॐ ह्रीं अर्हं शंकराय  नमः  -सबको सुख प्रदाता होने से,
७८८-ॐ ह्रीं अर्हं शंवदाय  नमः   -सुख बतलाने वाले होने से,
७८९-ॐ ह्रीं अर्हं दान्ताय  नमः  -मन को वश में करने से,
७९०-ॐ ह्रीं अर्हं दमीने नमः   – इन्द्रियों का दमन करने से,
७९१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तिपरायणाय नमः    -क्षमा धारण करने में ततपर रहने से,
७९२-ॐ ह्रीं अर्हं अधिपाय नमः  -सबके स्वामी होने से,
७९३-ॐ ह्रीं अर्हं परमानन्दाय  नमः  -उत्कृष्ट आनंद रूप होने से ,
७९४-ॐ ह्रीं अर्हं परात्मज्ञाय नमः   -उत्कृष्ट अथवा पर और निज की आत्मा को जानने से ,
७९५-ॐ ह्रीं अर्हं परात्पराय नमः   -श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होने से,
 ७९६-ॐ ह्रीं अर्हं  त्रिजगद्वल्लभाय नमः  -त्रिलोक के स्वामी अथवा प्रिय होने से,
७९७-ॐ ह्रीं अर्हं अभ्यचर्याय  नमः   -पूजनीय होने से,
७९८-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगन्मंगलोदयाय  नमः    -त्रिलोक में मंगलदाता होने से,
७९९-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगत्पतिपूजयाङ्घ्रये  नमः   -तीनोंलोकों के इन्द्रों द्वारा पूजनीय चरणों से युक्त होने से,
८००-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिलोकाग्र शिखामणये  नमः   -कुछ  समय बाद त्रिलोक  अग्रभाग पर चूड़ामणि के समान विराजमान होने से,

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 801 से 900

त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढ़व्रतः । सर्वलोकातिगः पूज्यः सर्वलोकैकसारथिः ॥1॥

पुराणः पुरुषः पूर्वः कृतपूर्वांगविस्तरः। आदिदेवः पुराणाद्यः पुरुदेवोऽधिदेवता ॥2॥

युगमुख्यो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशकः । कल्याणवर्णः कल्याणः कल्यः कल्याणलक्षणः ॥3॥

कल्याणप्रकृतिर्दीप्रकल्याणात्मा विकल्मषः । विकलंकः कलातीतः कलिलघ्नः कलाधरः ॥4॥

देवदेवो जगन्नाथो जगद्बन्धुर्जगद्विभुः । जगद्धितैषी लोकज्ञः सर्वगो जगदग्रजः ॥5॥

चराचरगुरुर्गोप्पो ग़ूढ़ात्मा गूढ़गोचरः । स्योजातः प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभः ॥6॥

आदित्यवर्णो भर्माभः सुप्रभः कनकप्रभः। सुवर्णवर्णो रुक्माभः सूर्यकोटिसमप्रभः ॥7॥

तपनीय निभस्तुंगो बालार्काभोऽनलप्रभः । सन्ध्याभ्रवभ्रुर्हेमामस्तप्तचामीकरच्छविः ॥8॥

निष्टप्तकनकच्छायाः कनत्काञ्चनसन्निभः । हिरण्यवर्णः स्वर्णाभः शातकुम्भनिभप्रभः ॥9॥

द्युम्नाभो जातरुपाभस्तप्तजाम्बू नदद्युतिः । सुधौतकलधौतश्रीः प्रदीप्तो हाटकद्युति। ॥10॥

शिष्टेष्यः पुष्टिहः पुष्टः स्पष्टः स्पष्टाक्षरः क्षमः । शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघः प्रशास्ता शासिता स्वभूः ॥11॥

शान्तिनिष्ठो मुनिज्ज्येष्ठः शिवतातिः शिवप्रदः । शान्तिदः शान्तिकृच्छान्तिः कान्तिमान्कामितप्रदः ॥12॥

शेयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः। सुस्थिरः स्थावरः स्थाणुः प्रथीयान्प्रथितः पृथुः ॥13॥

॥ इति त्रिकालदर्श्यादिशतम्‌ ॥ 9 ॥ अर्घ्यम्‌॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  801 से 900 सूत्र

८०१-ॐ ह्रीं अर्हं  त्रिकाल दर्शिने नमः  – तीनों काल संबंधी समस्त   पदार्थों को देखने  वाले  है इसलिए ,
८०२-ॐ ह्रीं अर्हं  लोकेशाय  नमः – लोकों के स्वामी होने से,
८०३-ॐ ह्रीं अर्हं लोकधात्रे  नमः – जीवों के पोषक एवं  रक्षक होने से ,
८०४-ॐ ह्रीं अर्हं दृढ़व्रताय  नमः -व्रतों को स्थिर रखने से,
८०५-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकातिगाय  नमः  -त्रिलोक मेंसर्वश्रेष्ठ होने से
८०६-ॐ ह्रीं अर्हं पूज्याय नमः  -पूजा योग्य  होने से,
८०७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकैकसारथये नमः  -सब  लोगो को मुख्यरूप से अभीष्ट स्थान तक पहुचने में  सामर्थ्यवान होने से,
८०८-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाय  नमः -प्राचीनतम होने से,
८०९-ॐ ह्रीं अर्हं पुरुषाय  नमः -आत्मा के श्रेष्ठ   गुणों को  प्राप्त होने से,
८१०-ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वाय नमः  -सर्व प्रथम होने से कहलाते है! 
८११-ॐ ह्रीं अर्हं कृतपूर्वांगविस्ताराय  नमः  -अंग और पूर्वों का विस्तार करने से,
८१२-ॐ ह्रीं अर्हं आदिदेवाय   नमः  -देवो में मुख्य होने से,
८१३-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाद्याय  नमः -पुराणों में प्रथम होने से ,
८१४ -ॐ ह्रीं अर्हं पुरुदेवाय नमः  -महान अथवा प्रथम तीर्थंकर(ऋषभदेव) होने से ,
८१५-ॐ ह्रीं अर्हंअधिदेवाय नमः -देवो के देव होने से,

८१६-ॐ ह्रीं अर्हं युगमुख्याय  नमः  -इस अवसर्पिणी काल के मुख्य पुरुष होने से ,
८१७-ॐ ह्रीं अर्हं युगज्येष्ठाय  नमः -इसी युग में सबसे बड़े होने से,
८१८-ॐ ह्रीं अर्हं युगादिंस्थितिदेशकाय नमः -कर्मभूमिरूप युग के प्रारम्भ में तत्कालोचित मर्यादा के उपदेशक होने से ,
८१९-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणवर्णाय नमः -कल्याण अथवा सुवर्ण समान कांति धारक होने से,
८२०-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणाय नमः -कल्याण रूप होने से,
८२१-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याय  नमः  -मोक्ष प्राप्ति में सज्ज /तत्पर रहने अथवा निरामय निरोग होने से,
८२२-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणलक्षणाय  नमः  -कल्याणकारी लक्षणों से युक्त होने से,
८२३-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याण प्रकृतये  नमः  -स्वभाव कल्याण रूप होने से ,
८२४-ॐ ह्रीं अर्हं दीप्रकल्याणात्मने नमः  -देदीप्यमान सुवर्ण के समान निर्मल होने से,
८२५-ॐ ह्रीं अर्हं विकल्मषाय   नमः  -कर्म कलिमा से रहित होने से,
८२६-ॐ ह्रीं अर्हं विकलंकाय  नमः  -कलंक रहित होने से,
८२७-ॐ ह्रीं अर्हं कालातीताय  नमः  -शरीर रहित होने से,
८२८-ॐ ह्रीं अर्हं कलिलघ्नाय  नमः  -पापों के क्षय करता होने से,
८२९-ॐ ह्रीं अर्हं कलाधराय  नमः  -अनेक कलाओं के धारक होने से,
८३०-ॐ ह्रीं अर्हं देवदेवाय  नमः  -देवो के देव होने से ,
८३१-ॐ ह्रीं अर्हं जगन्नाथाय  नमः -जगत के स्वामी होने से,
८३२-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्बन्धवे नमः  -जगत के भाई होने से,-
८३३-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्विभवे  नमः -जगत के स्वामी होने से,
८३४-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्धितैषिणे  नमः  -जगत के हितैषी होने से,
८३५-ॐ ह्रीं अर्हं लोकज्ञाय  नमः  -लोक के ज्ञाता होने से,
८३६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वांगाय  नमः -सब जगह केवल ज्ञान की अपेक्षा व्याप्त होने से,
८३७-ॐ ह्रीं अर्हं जगदग्रजाय  नमः  -जगत में ज्येष्ठतमहोने से,
८३८-ॐ ह्रीं अर्हं चराचरगुरुवे  नमः  -चर और स्थावर के गुरु होने से,
८३९-ॐ ह्रीं अर्हं गोप्याय नमः  -अत्यंत सावधानी पूर्वक हृदय में रखने से ,
८४०-ॐ ह्रीं अर्हं गूढात्मने  नमः  -गूढ स्वरुप के धारक होने से,
८४१-ॐ ह्रीं अर्हं गूढ गोचराय  नमः  -अत्यंत गूढ़ विषयो के ज्ञाता होने से,
८४२-ॐ ह्रीं अर्हं सद्योजाताय  -तत्कालों में उत्पन्न हुए के समान निर्विकार होने से,
८४३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रकाशात्मने  नमः  -प्रकाश रूप होने से,
८४४-ॐ ह्रीं अर्हं ज्वलज्ज्वलनसत्प्रभाय   नमः  -जलती अग्नि के समान शरीर की प्रभा के धारक होने से ,
८४५-ॐ ह्रीं अर्हं आदित्यवर्णाय नमः  -सूर्य के समान तेजस्वी होने से,
८४६ -ॐ ह्रीं अर्हं भर्माभाय   नमः  -सुवर्ण समान कांतवान होने से,
८४७ -ॐ ह्रीं अर्हं सुप्रभाय  नमः  -उत्तम प्रभा से युक्त होने से ,
८४८-ॐ ह्रीं अर्हं कनकप्रभाय   नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से,
८४९-ॐ ह्रीं अर्हं सुवर्णवर्णाय   नमः   -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से
८५०-ॐ ह्रीं अर्हं रुक्माभाय  नमः  -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से
८५१-ॐ ह्रीं अर्हं सूर्यकोटिसमप्रभाय   नमः   -करोड़ो सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभा केधारक होने से,
८५२-ॐ ह्रीं अर्हं तपनीयनिभाय  नमः  -सुवर्म समान भास्वर होने से,
८५३-ॐ ह्रीं अर्हं तुंगाय  नमः  -ऊँचा शरीर होने से, 
८५४-ॐ ह्रीं अर्हं बालर्कारभाय नमः   -प्रात:कालीन सूर्य के समान बाल प्रभा के धारक होने से,
८५५-ॐ ह्रीं अर्हं अनलप्रभाय  नमः  -अग्नि के समान कान्तियुक्त होने से,
८५६-ॐ ह्रीं अर्हं संध्याभ्रवभ्रवे  नमः  -सांध्यकालीन मेघों के समान सुंदर लगने वाले,
८५७-ॐ ह्रीं अर्हं हेमाभाय  नमः   -स्वर्ण समान आभा से युक्त ,

८५८-ॐ ह्रीं अर्हं तप्तचामीकरप्रभाय  नमः  -तपाये स्वर्ण के समान प्रभा युक्त , 
८५९-ॐ ह्रीं अर्हं निष्टप्तकनकच्छायाय  नमः   -अत्यंत तपाये स्वर्ण के समान कांतिवान,
८६०-ॐ ह्रीं अर्हं कनत्कांचनसन्निभाय   नमः  -देदीप्यमान स्वर्ण के समान उज्ज्वल होने से ,
८६१-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्यवर्णाय  नमः   -स्वर्ण समान वर्ण होने से,
८६२-ॐ ह्रीं अर्हं स्वर्णाभाय  नमः  -स्वर्ण समान वर्ण होने से
८६३-ॐ ह्रीं अर्हं शातकुंभनिभप्रभाय   नमः  -स्वर्ण समान वर्ण होने से,
८६४-ॐ ह्रीं अर्हं द्योनाभाय  नमः  -स्वर्ण समान वर्ण होने से,
८६५-ॐ ह्रीं अर्हं जातरूपाभाय  नमः  – स्वर्ण समान वर्ण होने से,
८६६-ॐ ह्रीं अर्हं तप्तजाम्बूनदद्युतये  नमः  -स्वर्ण समान वर्ण होने से
८६७-ॐ ह्रीं अर्हं सुधौतकलधौतश्रीये  नमः  -स्वर्ण समान वर्ण होने से
८६८-ॐ ह्रीं अर्हं हाटकद्युतये  नमः  -स्वर्ण समान वर्ण होने से
८६९-ॐ ह्रीं अर्हं प्रदीप्ताय  नमः  -देदीप्यमान होने से ,
८७०-ॐ ह्रीं अर्हं शिष्टेष्टाय  नमः  -शिष्ट अर्थात उत्तम पुरुषों के इष्ट होने से,
८७१-ॐ ह्रीं अर्हं पुष्टिदाय  नमः -पुष्टि दाता होने से,
८७२-ॐ ह्रीं अर्हं पुष्टाय  नमः   -बलवान होने से अथवा लाभांतराय कर्म के क्षय होने से प्रत्येक समय प्राप्त होने वाली अनंत शुभ पुद्गल वर्गणाओं से परमौदारिक शरीर के पुष्ट होने से ,
८७३-ॐ ह्रीं अर्हं स्पष्टाय  नमः  -प्रकट दिखाई देने से,
८७४-ॐ ह्रीं अर्हं स्पष्टाक्षराय  नमः  -स्पष्ट अक्षर होने क्ससे,
८७५-ॐ ह्रीं अर्हं क्षमाय  नमः  -समर्थ होने से,
८७६-ॐ ह्रीं अर्हं शत्रुघ्नाय  नमः  -कर्म रूप शत्रुओं का क्षय करने से,
८७७-ॐ ह्रीं अर्हं अप्रतिघाय  नमः  -शत्रु रहित होने से,
८७८-ॐ ह्रीं अर्हं अमोघाय  नमः  -सफल होने से,
८७९-ॐ ह्रीं अर्हं प्रशास्नो  नमः   -उत्तम उपदेशक होने से,
८८०-ॐ ह्रीं अर्हं शासित्रे  नमः   -रक्षक होने से,
८८१-ॐ ह्रीं अर्हं स्वभूवे  नमः   -स्वयं उत्पन्न होने से,
८८२- ॐ ह्रीं अर्हं शांतिनिष्टाय  नमः  -शांत होने से,
८८३-ॐ ह्रीं अर्हं मुनिज्येष्ठाय  नमः   -मुनियो मे श्रेष्टम होने से ,
८८४-ॐ ह्रीं अर्हं शिवतातये  नमः   -कल्याण परम्परा के प्राप्त होने से,
८८५-ॐ ह्रीं अर्हं शिवप्रदाय  नमः   -कल्याण अथवा मोक्ष प्रदाता होने से
८८६-ॐ ह्रीं अर्हं शांतिदाय  नमः   -शांति प्रदाता होने से
८८७-ॐ ह्रीं अर्हं शांतिकृते  नमः   -शांति के कर्ता होने से,
८८८-ॐ ह्रीं अर्हं शांतये  नमः   -शांत स्वरुप होने से,
८८९-ॐ ह्रीं अर्हं कांतिमते नमः   -कांतियुक्त होने से,
८९०-ॐ ह्रीं अर्हं कामितप्रदाय  नमः  -इच्छित पदार्थों के प्रदाता होने से,
८९१-ॐ ह्रीं अर्हं श्रेयो निधये  नमः  – कल्याण के भंडार होने से,
८९२-ॐ ह्रीं अर्हं अधिष्ठानाय  नमः  -धर्म के आधार होने से,
८९३-ॐ ह्रीं अर्हं अप्रतिष्ठाताय  नमः   -अन्यकृत प्रतिष्ठा से रहित होने से ,
८९४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रतिष्ठिताय  नमः  -प्रतिष्ठा अर्थात कीर्ति से युक्त होने से 
८९५-ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिराय  नमः  -अतिशय स्थिर होने से ,
८९६-ॐ ह्रीं अर्हं स्थविराय  नमः   -समवशरण में गमन रहित होने से ,
८९७-ॐ ह्रीं अर्हं स्थाणवे  नमः   -अचल होने से,
८९८-ॐ ह्रीं अर्हं प्रथीयसे  नमः   -अत्यंत विस्तृत होने से,
८९९-ॐ ह्रीं अर्हं प्रथिताय  नमः   -प्रसिद्ध होने से ,
९००- ॐ ह्रीं अर्हं पृथवे  नमः   -ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा महान होने से,

श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्र 901 से 1008

दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बरः। निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः ॥1॥

तेजोराशिरनन्तौजा ज्ञानाब्धिः शीलसागरः । तेजोमयोऽमितज्योतिर्ज्योतिमूर्तिस्तमोपहः ॥2॥

जगच्चूड़ामणिर्दीप्तः शंवान्विघ्नविनायकः । कलिघ्नः कर्मशत्रुघ्नो लोकालोकप्रकाशकः ॥3॥

अनिद्रालुरतन्द्रालुर्जागरुकः प्रमामयः। लक्ष्मीपतिर्जगज्ज्योतिर्धर्मराजः प्रजाहितः ॥4॥

मुमुक्षुर्बन्धमोक्षज्ञो जिताज्ञो तितन्मथः। प्रशान्तरसशैलूषो भव्यपेटकनायकः ॥5॥

मूलकर्ताऽखिलज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणम्‌। आप्तो वागीश्वरः श्रेयाञ्छ्रायसोक्तिर्निरुक्तवाक्‌ ॥6॥

प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वभाववित्‌। सुतनुस्तनुनिर्मुक्तः सुगतो हतदुर्नयः ॥7॥

श्रीशः श्रीश्रितपादाब्जो वीतभीरभयंकरः। उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सलः ॥8॥

लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुरपारधीः । धीरधीर्बुद्धसन्मार्गः शुद्धः सूनृतपूतवाकः ॥9॥

प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिर्नियमितेन्द्रियः । भदन्तो भद्रकृद्भद्रः कल्पवृक्षो वरप्रदः ॥10॥

समुन्मूलितकर्मारिः कर्मकाष्ठाशुशुक्षणिः । कर्मण्यः कर्मठः प्रांशुर्हेयादेयविचक्षणः ॥11॥

अनन्तशक्तिरच्छेद्यस्रिपुरारिस्रिलोचनः । त्रिनेत्रस्त्र्यम्बकस्त्र्यक्षः केवलज्ञानवीक्षणः ॥12॥

समन्तभद्रः शान्तारिर्धर्माचार्यो दयानिधिः । सूक्ष्मदर्शी जतानंगः कृपालुर्धर्मदेशकः ॥13॥

शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो जगत्पालां धर्मसाम्राज्यनायकः ॥14॥

॥ इति दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम्‌ ॥ 10 ॥ अर्घ्यम्‌॥

श्री जिन सहस्त्रनाम  901 से 1008 सूत्र

९०१-ॐ ह्रीं अर्हं दिग्वाससे  नमः  -दिशा रूप वस्त्रों को धारण करने/दिगंबर रहने से ,
९०२-ॐ ह्रीं अर्हं वातरशनाय  नमः   -वायु रूप करधनों को धारण करने से,
९०३-ॐ ह्रीं अर्हं निर्ग्रन्थेशाय  नमः   -निर्ग्रन्थ मुनियों के स्वामी होने से,
९०४-ॐ ह्रीं अर्हं दिगम्बराय   नमः   -निर्वस्त्र होने से,
९०५-ॐ ह्रीं अर्हं निष्किंचनाय   नमः   -परिग्रह रहित होने से,
९०६-ॐ ह्रीं अर्हं निराशंसाय   नमः    -इच्छा रहित होने से,
९०७-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानचक्षुषे  नमः   -ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक होने से ,
९०८-ॐ ह्रीं अर्हं अमोमुहाय  नमः   -मोहरहित होने से ,
९०९-ॐ ह्रीं अर्हं तेजोराशाय  नमः   -तेज के समूह होने से,
९१०-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तौजसे  नमः   -अनंत प्रताप के धारक होने से,
९११-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानाब्धये  नमः   -ज्ञान के सागर होने से,
९१२-ॐ ह्रीं अर्हं शीलसागराय  नमः   -शील के सागर होने से,
९१३-ॐ ह्रीं अर्हं तेजोमयाय   नमः   -तेज का समूह होने से,
९१४-ॐ ह्रीं अर्हं अमितज्योतिषे  नमः   -अपरिमितज्योति के धारक होने से,
९१५-ॐ ह्रीं अर्हं ज्योतिर्मूर्तये  नमः   -भास्वर शरीर होने से,
९१६-ॐ ह्रीं अर्हं तमोपहाय  नमः  -अज्ञानता रूप अन्धकार को नष्ट करने से,
९१७-ॐ ह्रीं अर्हं जगच्चूड़ामणये  नमः   -तीनों लोक के मस्तक पर रत्न के समान अतिशय ,श्रेष्ठ होने से,
९१८-ॐ ह्रीं अर्हं दीप्ताय नमः   -देदीप्यमान होने से,
९१९- ॐ ह्रीं अर्हं  शंवते  नमः  -सुखी/शांत होने से,
९२०-ॐ ह्रीं अर्हं विघ्नविनायकाय  नमः   -विघ्नों के नाशक होने से,
९२१-ॐ ह्रीं अर्हं कलिघ्नाय  नमः   -क्लेशों/पापो के नाशक होने
९२२-ॐ ह्रीं अर्हं कर्मशत्रुघ्नाय  नमः   -कर्म शत्रुओं के घातक होने से,
९२३-ॐ ह्रीं अर्हं लोकलोकप्रकाशकाय नमः   -लोक और अलोक को प्रकाशित करने से,
९२४-ॐ ह्रीं अर्हं अनिन्द्रालवे  नमः   -निंद्रा रहित होने से,
९२५-ॐ ह्रीं अर्हं अतन्द्रालवे  नमः   -आलस्य/प्रमाद रहित होने से
९२६-ॐ ह्रीं अर्हं जागरूकाय  नमः -सदा जागृत रहने से,रहने से,
९२७-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभामयाय  नमः   -ज्ञानमय होने,से
९२८-ॐ ह्रीं अर्हं लक्ष्मीपतये  नमः   -अनन्त चतुष्टाय रूप लक्ष्मी के स्वामी होने से,
९२९-ॐ ह्रीं अर्हं जगज्ज्योतिषे  नमः   -जगत को प्रकाशित करने से
९३०- ॐ ह्रीं अर्हं धर्मराजाय नमः  – धर्महोने ,राज-अहिंसा धर्म के राजा होने से,
९३१-ॐ ह्रीं अर्हं प्रजाहिताय   नमः   -प्रजा के हितैषी होने से,
९३२-ॐ ह्रीं अर्हं मुमुक्षुवे  नमः   -मोक्ष के इच्छुक होने से,
९३३-ॐ ह्रीं अर्हं बंध मोक्षज्ञाय  नमः   -बंध और मोक्ष के स्वरुप के ज्ञाता होने से,
९३४-ॐ ह्रीं अर्हं जिताक्षाय  नमः   -इन्द्रियों को जीतने से,
९३५-ॐ ह्रीं अर्हं जितमन्मथाय  नमः   -काम पर विजेता होने से
९३६-ॐ ह्रीं अर्हं प्रशांतरसशैलूषाय  नमः  -अत्यंत शान्तरूपी रस प्रदर्शित करने के लिए नट के समान होने से,
९३७-ॐ ह्रीं अर्हं भवयपेटकनायकाय  नमः   -भव्य जीवों के समूह के स्वामी होने से,
९३८- ॐ ह्रीं अर्हं मूलकत्रै नमः  -धर्म के आद्य वकता होने से,
९३९-ॐ ह्रीं अर्हं अखिलज्योतिषे  नमः   -पदार्थों को प्रकाशित करने से,
९४०-ॐ ह्रीं अर्हं मलघ्नाय  नमः -कर्ममल नष्ट करने से,
९४१-ॐ ह्रीं अर्हं मूलकारणाय  नमः -मोक्षमार्ग के मुख्य कारण होने से,
९४२-ॐ ह्रीं अर्हं आप्ताय  नमः -यथार्थ वक्ता होने से,
९४३-ॐ ह्रीं अर्हं वागीशवराय  नमः -वचनो के स्वामी होने से,
९४४-ॐ ह्रीं अर्हं श्रेयसे  नमः   -कल्याणरूप होने से,
९४५-ॐ ह्रीं अर्हं श्रायसोक्तये  नमः   -कल्याण रूप वाणी के होने से,
९४६-ॐ ह्रीं अर्हं निरुक्त्तवाचे  नमः   -सार्थक वचन होने से,
९४७-ॐ ह्रीं अर्हं प्रवक्त्रे  नमः   -श्रेष्ठ वक्ता होने से,
९४८-ॐ ह्रीं अर्हं वचसामीशाय  नमः   -वचनों के स्वामी होने से,
९४९-ॐ ह्रीं अर्हं मारजिते  नमः   -कामदेव को जीतने से,
९५०-ॐ ह्रीं अर्हं विष्वभावविदे  नमः   -संसार के समस्त पदार्थों के ज्ञाता होने से,
९५१-ॐ ह्रीं अर्हं सुतनवे   नमः   -उत्तम शरीर के धारक होने से,
९५२-ॐ ह्रीं अर्हं तनुनिर्मुक्ताय   नमः   -शीघ्र ही शरीर बंधन से रहित होकर मोक्ष प्राप्त करने से करने से,
९५३- ॐ ह्रीं अर्हं सुगताय  नमः   -प्रशस्त विहायोगगति केउदय में,आकाश में उत्तम गमन करने से/आत्मस्वरूप में तल्लीन रहने से /उत्तमज्ञानमय होने से,
९५४-ॐ ह्रीं अर्हं हतदुर्नयाय  नमः   -मिथ्यानयों को नष्ट करने से,
९५५-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीशाय  नमः   -लक्ष्मी के ईश्वर होने से,
९५६-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीश्रितपादाब्जाय  नमः   -लक्ष्मी द्वारा चरणो की सेवा होने से,:
९५७-ॐ ह्रीं अर्हं वीतये  नमः   -भयरहित होने से,
९५८-ॐ ह्रीं अर्हं अभयंकराय  नमः   -दूसरों के भय को नष्ट करने वाले होने से,: 
९५९- ॐ ह्रीं अर्हंउत्सन्नदोषाय  नमः   -समस्त दोषों रहित होने से,
९६०-ॐ ह्रीं अर्हं निर्विघ्नाय   नमः    -समस्त विघ्नो से रहित
९६१-ॐ ह्रीं अर्हं निश्चलाय  नमः   -स्थिर होने से,
९६२-ॐ ह्रीं अर्हं लोक वत्सलाय  नमः –  लोगो के स्नेह पात्र होने से,
९६३-ॐ ह्रीं अर्हं लोकोत्तराय  नमः   -समस्त लोक में उत्कृष्टतम होने से,
९६४-ॐ ह्रीं अर्हं लोकपतये  नमः   -तीनों लोक स्वामी होने से,
९६५-ॐ ह्रीं अर्हं लोकचक्षुषे  नमः   -समस्त लोगो के नेत्रस्वरूप होने से,
९६६-ॐ ह्रीं अर्हं अपारधिये  नमः   -असीमित बुद्धि के धारक होने से,
९६७-ॐ ह्रीं अर्हं धीरधि ये नमः -सदा स्थिर बुद्धि के धारक होने से,
९६८-ॐ ह्रीं अर्हं बुद्धसन्मार्गाय नमः  -समीचीन मार्ग के ज्ञाता होने से,
९६९- ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धाय  नमः -कर्ममल रहित होने से,
९७०-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यसूनृतपूतवाचे  नमः   -सत्य एवं पवित्र वचन बोलने से,
९७१-ॐ ह्रीं अर्हं प्रज्ञापारमिताय  नमः   -बुद्धि की पराकाष्ठा प्राप्त करने से,
९७२- ॐ ह्रीं अर्हं प्राज्ञाय  नमः -अतिशय बुद्धिमा न होने से,
९७३-ॐ ह्रीं अर्हं यतिविषये  नमः  – कषायों से उपरत होने से,
९७४-ॐ ह्रीं अर्हं नियमितेन्द्रियाय  नमः   – इन्द्रियों को वश में करने से,
९७५- ॐ ह्रीं अर्हं भदन्ताय  नमः   -पूज्य होने से,
९७६-ॐ ह्रीं अर्हं भद्रकृते  नमः   -सब जीवों का भला करने से,
९७७-ॐ ह्रीं अर्हं भद्राय  नमः   -कल्याणरूप होने से,
९७८-ॐ ह्रीं अर्हं कल्पवृक्षाय  नमः   -मन वांच्छित वस्तुओं के दाता होने से,
९७९-ॐ ह्रीं अर्हं वरप्रदाय  नमः   -इच्छित वर प्रदाता होने से,
९८०-ॐ ह्रीं अर्हं समुन्मूलितकर्मारये  नमः   -कर्म शत्रुओं को मूल से उखाड़ फेंकने से,
९८१-ॐ ह्रीं अर्हं कर्मकाष्ठाशुशुक्षणये  नमः   -कर्म रूप ईंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान होने से,
९८२-ॐ ह्रीं अर्हं कर्मण्याय  नमः  – कार्यों को करने में निपुण होने से,
९८३- ॐ ह्रीं अर्हं कर्मठाय  नमः   -समर्थ होने से,
९८४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रांशवे  नमः   -उत्कृष्ट /उन्नत होने से,
९८५-ॐ ह्रीं अर्हं हेयादेयविचक्षणाय  नमः   -हेय और उपादय पदार्थों के विद्वान ज्ञाता होने से,
९८६-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तशक्तये  नमः   -अनन्तशक्तियों के धारक होने से
९८७-ॐ ह्रीं अर्हं अच्छेद्याय  नमः   -किसी के द्वारा भी छिन्न भिन्न करने योग्य नही होने से,
९८८-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिपुरारये  नमः   -जन्म,जरा,एवं मरण ,तीनों का नाश करने से,
९८९-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिलोचनाय  नमः   -त्रिकालवर्ती पदार्थों के ज्ञाता होने से,
९९०-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिनेत्राय  नमः   -त्रिकालवर्ती पदार्थों के ज्ञाता होने से,
९९१-ॐ ह्रीं अर्हं त्रयंबकाय नमः -त्रिकालवर्ती पदार्थों के ज्ञाता होने से,
९९२-ॐ ह्रीं अर्हं त्रयक्षाय  नमः   -त्रिकालवर्ती पदार्थों के ज्ञाता होने से,
९९३-ॐ ह्रीं अर्हं केवलज्ञानविक्षणाय  नमः  -केवल ज्ञान रुपी नेत्रों सहित त्रिकालवर्ती पदार्थों के ज्ञाता होने से,,
९९४-ॐ ह्रीं अर्हं  समन्तभद्राय   नमः -सब ओर मंगलरूप होने से,
९९५-ॐ ह्रीं अर्हं  शांतारये  नमः  -कर्मरूप शत्रुओं के शांत होने से,
९९६-ॐ ह्रीं अर्हं धर्माचार्याय  नमः  -धर्म व्यवस्थापक होने से,
९९७-ॐ ह्रीं अर्हं दयानिधये  नमः  -दया के भंडार के भंडार होने से
९९८- ॐ ह्रीं अर्हं सूक्ष्मदर्शिने  नमः   -सूक्ष्म पदार्थों को देखने से,
९९९-ॐ ह्रीं अर्हं जितानङ्गाय  नमः   -काम देव को जीतने से,
१०००-ॐ ह्रीं अर्हं कृपालवे  नमः   -कृपयुक्त होने से,
१००१-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मदेशकाय  नमः   -धर्म के उपदेशकहोने से,
१००२-ॐ ह्रीं अर्हं शुभंयवे  नमः   -शुभयुक्त होने से,
१००३-ॐ ह्रीं अर्हं सुखसाद्भूताय  नमः   -सुख के आधीनहोने से,,
१००४-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यराशये  नमः   – पुण्य के समूह होने से,
१००५-ॐ ह्रीं अर्हं अनामयाय  नमः   -रोगरहित होने से,,
१००६-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मपालाय   नमः   -धर्म के रक्षक होने से,
१००७-ॐ ह्रीं अर्हं जगत्पालाय  नमः   -जगत के रक्षक होने से,,
१००८-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मसाम्राज्यनायकाय  नमः   -धर्मरूपी साम्राज्य से कहलाते है

धाम्नां पते तवामूनि नामान्यागमकोविदैः । समुच्चितान्यनुध्यायन्पुमान्पूतस्मृतिर्भवेत्‌ ॥1॥

गोचरोऽपि गिरामासांत्वमवाग्गोचरो मतः । स्तोता तथा प्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं भजेत्‌ ॥2॥

त्वमतोऽसि जगद्बन्धुस्त्वमतोऽसि जगद्विषक्‌। त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ॥3॥

त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्विरुपोपयोगभाक्‌। त्वं त्रिरुपैकमुक्त्यंगः स्वोत्थानन्तचतुष्टयः ॥4॥

त्वं पञ्चब्रह्मतत्त्वात्मा पञ्चकल्याणनायकः । षड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः ॥5॥

दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवललब्धिकः। दशावतारनिर्धार्यो माँ पाहि परमेश्वर ॥6॥

युष्मन्नामावली दृब्धविलसत्स्तोत्रमालया। भवन्तं परिवस्यामः प्रसीदानुगृहाण नः ॥7॥

इदं स्तोत्रमनुः मृत्य पूतो भवति भाक्तिकः।यः संपाठं पठत्येनं स स्यात्कल्याणभाजनम्‌ ॥8॥

ततः सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठति पुण्यधीः ।पौरुहूतीं श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुकः ॥9॥

स्तुत्वेति मघवा देवं चराचरजगद्गुरुम्‌ ।ततस्तीर्थविहारस्य व्यधात्प्रस्तावनामिमाम्‌ ॥10॥

स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तोता भव्यः प्रसन्नधीः ।निष्ठितार्थो भवांस्तुत्यः फलं नैश्रेयसं सुखम्‌ ॥11॥

यः स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुनः स्तोता स्वयं कस्यचित्‌।ध्येयोयोगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वयं कस्यचित्‌ ॥

यो नेतृन्‌ नयते नमस्कृतिमलं नन्तव्यपक्षेक्षणःस श्रीमान्‌ जगतां त्रयस्य च गुरुर्देवः पुरुः पावनः ॥12॥

तं देवं त्रिदशाधिपार्चितपदं धार्तिक्षयानन्तर-प्रोत्थानन्तचतुष्टयं जिनमिनं भव्याब्जिनीनामिनम्‌।

मानस्तम्भविलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकीपतिंप्राप्त चिन्त्यबहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवन्दामहे ॥13॥

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4 thoughts on “Shri Jin-Sahasranam Stotra 

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