पारसनाथ भगवान का जन्म व तप कल्याणक पर दीपक के साथ कल्याण मंदिर स्तोत्र

मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर जी के द्वारा पद्यानुवाद

कल्याणमन्दिर मुदार मवद्य-भेदि भीताभय प्रद-मनिन्दित मछि-पद्यम् ।

संसार-सागर निमज्ज दशेष-जन्तु पोतायमान मभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥

कल्याणों के मन्दिर दाता अभय प्रदाता हैं निर्दोष

श्री जिनवर के चरण कमल ही जगत् पूज्य हर लेते दोष।

भव-सागर में डूबे जन को तव पद ही प्रभु एक जहाज

भक्ति भाव से अभिवन्दन है शुरु करूँ स्तुति का काज ॥ 1 ॥

ॐ ह्रीं भव-समुद्र पतज्जन्तु तारणाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय श्री पार्श्वनाथाय नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि ।1।

सिद्धिदायक स्तुति

यस्य स्वयं सुरगुरु गरिमाम्बुराशेः स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् ।

तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय धूमके तो- स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥ २ ॥

सुरगुरु सम विस्तृति मति वाले करने को जिनका गुणगान

सदा रहे असमर्थ सदा से उन प्रभु का मैं करता गान।

दुष्ट कमठ के मान कर्म की भस्म बनाने अनल स्वरूप

तीर्थेश्वर श्री पार्श्व प्रभु की गरिमा सम ना दूजा रूप ॥ 2 ॥

ॐ ह्रीं अनन्त गुणाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय श्री पार्श्वनाथाय नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (2)

असमर्थ को समर्थ करने की शक्ति प्रदायी स्तुति

सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप- मस्मादृशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः ।

धृष्टोऽपि कौशिक-शिशुर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥ ३ ॥

रवि प्रकाश के उदय समय में उल्लू हो जाता है अन्ध अन्ध बना फिर कैसे रवि का रूप बताये वह मतिमन्द ।

त्यों प्रभु धीठ हुए हम जैसे कैसे तेरे गुण गाने लायक हो सकते वर्णन को जो थोडा भी ना जाने ॥ ३ ॥

ॐ ह्रीं चिद्रूपाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय श्री पार्श्वनाथाय नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि।

अतिगहन आत्म गुणों की प्राप्तिदायक स्तुति

मोह-क्षया-दनुभवन्नपि नाथ! मर्यो नूनं गुणान् गणयितुं न तव क्षमेत ।

कल्पान्त-वान्त-पयसः प्रकटोऽपि यस्मान्- मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४॥

नाश हुआ हो मोह कर्म का प्रकट हुआ हो आतम ज्ञान फिर भी गुण रत्नाकर के गुण गिनने में है किसकी शान।

प्रलय पवन ने जिस समुद्र का जल फेंका हो दूर बहुत उस समुद्र के रलों को भी क्या गिन सकता मानव मुग्ध ॥ 4 ॥

ॐ ह्रीं गहन-गुणाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय श्री पार्श्वनाथाय नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि।

उत्कृष्ट पद प्रदायी स्तुति

अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ! जडाशयोऽपि कर्तुं स्तवं लस-दसंख्य-गुणाकरस्य ।

बालोऽपि किं न निज बाहु-युगं वितत्य विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥

आप असंख्य गुणों से शोभित में जड़ बुद्धि निरा अभिमान

फिर भी मैं तैयार हुआ हूँ संस्तुति करने को नादान।

शक्ति न रहने पर भी बालक बिना विचारे निज मति से

क्या समुद्र को नहीं नापता दोनों कर फैला रति से ॥ 5 ॥

ॐ ह्रीं परमानन्त गुणाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय श्री पार्श्वनाथाय नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि।

असाध्य कार्य साधक गुण स्तुति

ये योगिना-मपि न यान्ति गुणास्तवेश!

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