मतिज्ञान के चार प्रकार हैं- अवग्रहेहावय धारणा तत्वार्थ सूत्र – अध्याय १ –१५
1. अवग्रह (Sensation )
इंद्रिय ज्ञान की उत्पत्ति के क्रम में सर्व प्रथम इंद्रिय और पदार्थ का सन्निकर्ष होते ही जो एक झलक मात्र सी प्रतीत होती है, उसे अवग्रह कहते हैं। तत्पश्चात् उपयोग की स्थिरता के कारण ईहा व अवाय के द्वारा उसका निश्चय होता है। ज्ञान के ये तीनों अंग बड़े वेग से बीत जाने के कारण प्रायः प्रतीति गोचर नहीं होते ।
इन्द्रिय और मन से होने वाला मतिज्ञान से होने वाले ज्ञान की भांति समर्थ नहीं होता इसलिए इसमें क्रमिक ज्ञान होता है। इस क्रम में सर्वप्रथम अनुग्रह आता है। अवग्रह का सामान्य अर्थ है- ज्ञान ( Knowing)। जब रूप, रस, गंध आदि विषय इन्द्रियों के उचित सामीप्य को प्राप्त करते हैं तब प्रथम क्षण में मात्र उसकी सत्ता का सामान्य बोध होता है, उसे ‘दर्शन’ कहा जाता है। दर्शन (सामान्य बोध) के बाद जब ज्ञाता उस विषय के विशेष धर्मों को जानने में प्रवृत्त होता है तो उस प्रवृत्ति का प्रथम चरण अवग्रह है। अवग्रह के द्वारा वस्तु के जो धर्म जाने जाते हैं उनमें जाति, द्रव्य, गुण आदि की कल्पना का अभाव रहता है अर्थात् अवग्रह में वस्तु का ज्ञान करते समय हम यह नहीं जान पाते कि यह किस जाति का है या इसका द्रव्य और गुण क्या है? जाति, द्रव्य, गुण आदि से वस्तु का उल्लेख न कर पाने के कारण यह विशेष ज्ञान भी सामान्य जैसा ही होता है।
विषय और विषयी के संबंध के बाद होने वाले प्रथम ग्रहण को अवग्रह कहते हैं। विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है । उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है।
अवग्रह, अवधान, सान, अवलंबना और मेधा ये अवग्रह के पर्यायवाची नाम हैं।
विषय व विषयी का संपात होने के अनंतर जो प्रथम ग्रहण होता है, वह अवग्रह है। रस आदिक अर्थ विषय हैं, छहों इंद्रियाँ विषयी है, ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयी का संपात है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारण भूत परिणाम विशेष की संतति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अंतर्मूहूर्त काल स्थायी है। इसके बाद जो वस्तु का प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यथा-चक्षु के द्वारा `यह घट है, यह घट है’ ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। जहाँ घटादि के बिना रूप, दिशा, और आकार आदि विशिष्ट वस्तु मात्र ज्ञान के द्वारा अनध्यवसाय रूप से जानी जाती है, वहाँ भी अवग्रह ही है, क्योंकि, अनवगृहीत अर्थ में ईहादि ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
अवग्रह के प्रकार (Types of Sensation)
सूत्र में अवग्रह के दो प्रकार बताये गये हैं
व्यंजनावग्रह (Indeterminate Cognition of the Object )
इसमें दो शब्द है व्यंजन और अवग्रह। शब्द, रूप, रस आदि विषयों के साथ इन्द्रिय का संबंध होना व्यंजन है किंतु उसके द्वारा जो शब्द, रूप आदि का अस्पष्ट बोध होता है, वह व्यंजनावग्रह है। यह अव्यक्त ज्ञान सुप्त मन और मूर्च्छित पुरुष के ज्ञान जैसा है।
अर्थावग्रह
इसमें व्यंजनावग्रह की अपेक्षा कुछ स्पष्टता होती है किंतु यह भी पदार्थ का जाति, द्रव्य, गुण आदि की कल्पना से रहित ज्ञान हैं। व्यंजनावग्रह में श्रोत्र आदि इन्द्रियां जब शब्द आदि द्रव्यों से आपूरित हो (भर) जाती हैं तब द्रव्य और इन्द्रिय का परस्पर संसर्ग होता है और उसके बाद जो नाम, जाति आदि से रहित वस्तु का ग्रहण होता है, वह अर्थावग्रह है।
व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह किस प्रकार होते हैं अथवा इन्द्रिय का विषय के साथ सम्पर्क होने पर ज्ञान का क्रम कितना धीरे-धीरे आगे बढ़ता है – इसे समझाने के लिए दो दृष्टान्त दिये जाते हैं।
सुषुप्त का दृष्टान्त
एक व्यक्ति गहरी नींद में सोया हुआ है। दूसरा व्यक्ति उसे जगाने के लिए बार-बार आवाज देता है। वह सोया हुआ व्यक्ति पहली बार आवाज देने पर नहीं जागता। दूसरी बार आवाज देने पर भी नहीं जागता । इस प्रकार र-बार आवाज देने पर जब उसके कान उन ध्वनि-पुद्गलों से पूरी तरह भर जाते हैं, तब वह अवबोध सूचक यह शब्द करता है। ध्वनि-पुद्गलों से कान के आपूरित होने में असंख्य समय लगता है। इन्द्रिय और विषय का यह असंख्य समय वाला प्राथमिक संबंध व्यंजनावग्रह है। इसके पश्चात् व्यंजनावग्रह से कुछ व्यक्त किंतु अव्यक्त ‘ का ग्रहण अर्थावग्रह है। इसमें जाति, द्रव्य, गुण की कल्पना से रहित वस्तु का ग्रहण होता है। इसलिए अर्थावग्रह अव्यक्त ज्ञान कहा जाता है। व्यंजनावग्रह में असंख्य समय एवं अर्थावग्रह में एक समय लगता है।
सकोरे का दृष्टान्त
दूसरा दृष्टान्त मल्लक (सकोरे) का है। जब सकोरे को पकाने के भट्टे पर से उतारा जाता है, उस समय वह अत्यन्त गर्म एवं रुक्ष होता है। एक व्यक्ति उसे गीला करने के लिए जल की एक बूंद डालता है। वह बूंद वहीं भस्म हो जाती है। वह दूसरी बूंद डालता है, वह भी नष्ट हो जाती है। तीसरी, चौथी, पांचवीं और इसी क्रम से अनेक बूंदें डाली जाती हैं पर उनकी भी वही गति हो जाती है। बूंदें डालते – डा एक समय ऐसा आता है जब कोई बूंद से वह सकोरा गीला दिखाई देने लगता है। बूंदें डालने का क्रम बराबर चलता रहे तो वह भर भी सकता है। जिस प्रकार पहली बूंद उस नये सकोरे को गीला नहीं कर सकती उसी प्रकार एक शब्द पुद्गल कान में जाने से अवग्रह का कारण नहीं बन सकता। प्रचुर मात्रा में जल की बूंदे डालने पर सकोरा हो जाता है उसी प्रकार पर्याप्त मात्रा में ध्वनिपुद्गलों का कान के साथ संयोग होने पर शब्द का अवग्रह होता है। बात कान की भांति अन्य इन्द्रियों पर भी लागू होती है। इस प्रकार व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह दोनों ही अव्यक्त ज्ञान हैं, पर अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त है। अर्थावग्रह को दर्पण के दृष्टान्त से समझ सकते
दर्पण का दृष्टान्त
अर्थाविग्रह को समझने लिए दर्पण का दृष्टान्त उपयोगी है। जैसे दर्पण के सामने कोई भी वस्तु आती है तो तुरन्त ही उसमें उसका प्रतिविम्ब जाता है और वह वस्तु दर्पण में दिखाई देने लगती है। वस्तु का दर्पण के साथ संयोग होना आवश्यक नहीं है। प्रकार आंखों के सामने कोई भी वस्तु जाती है तो वह तुरन्त ही सामान्य रूप से दिखाई दे जाती है। इसके लिए नेत्र और उस पदार्थ के साक्षात् संयोग की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे कि कान और शब्द में साक्षात् संयोग की अपेक्षा रहती है। नेत्र से ज्ञान करने के लिए पदार्थ के साथ साक्षात् संयोग की आवश्यकता नहीं रहती इसलिए नेत्र से सीधा अर्थावग्रह ही होता है, व्यंजनावग्रह नहीं। नेत्र की भांति मन को भी पदार्थ का ज्ञान करने के लिए साक्षात् संबद्ध होने की आवश्यकता नहीं रहती अतः नेत्र की भांति मन के भी व्यंजनावग्रह नहीं होता, सीधा अर्थावग्रह होता है। शेष चार इन्द्रियों – स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय का अपने-अपने विषय के साथ साक्षात् संयोग अपेक्षित होता है अत: इन चारों इन्द्रियों के पहले व्यंजनावग्रह होता है, उसके बाद अर्थावग्रह होता है।