आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा पद्यानुवाद एवं विवेचना

स्वाध्याय गाथा सं 1 & 2

उत्थानिका-ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण स्वरूप प्रथम कारिका में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वप्रथम ‘परमात्मा’ को नमन किया है। जो जिस गुण की प्राप्ति की भावना करता है वह उन्हीं गुणयुक्त परमात्मा को नमन करता है। परमात्मा के गुणों को चाहने वाले आचार्य पूज्यपाद स्वामी स्वयं उक्त भावना से परमात्मा को नमस्कार करते हुए ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हैं-

स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः।

यस्य तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥

अन्वयार्थ – (यस्य) जिस भगवान् के (कृत्स्नकर्मणः) समस्त कर्मों का (अभावे) अभाव हो जाने पर (स्वयं) अपने आप (स्वभावाप्तिः) स्वभाव की प्राप्ति हो गयी है (तस्मै) उस (संज्ञानरूपाय) अनन्तज्ञान स्वरूप (परमात्मने) परमात्मा के लिए (नमः अस्तु) नमस्कार हो।

जिस जीवन में पूर्ण रूप से, सब कर्मों का विलय हुआ, उसी समय पर सहज रूप से, स्वभाव रवि का उदय हुआ। जिसने पूरण पावन परिमल, ज्ञानरूप को वरण किया, बार-बार बस उस परमातम, को इस मन ने नमन किया ॥१॥

He who has attained the purity of his nature by the destruction of all his karmas by his own effort to such an Omniscient Paramatman salutation is offered.

Note – Omniscience is the attribute of the Pure and Perfect soul, and is the most essential of qualities, which are all implied in it. In Jainism saluta- tion is offered to Divinity not because the devotee expects any boons from the object of his veneration and worship, not because salutation is pleasing to Him who is the embodiment of all divine attributes, not even because such salutation is itself, in any sense, the aim and object of worship, but because, the Paramatman is the Ideal of Perfection for the devotee, who want to realize it in. His own self, and because the adoration of Him who represents the Perfection of Divinity in His own pure being is the only means of attaining to it. at least in the earlier stages of the path.

विवेचना-आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने ८४ पाहुड लिखे थे। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने प्रायः अध्यात्म-प्रधान ग्रन्थों की रचना की है। उन्हीं के ‘आध्यात्मिक साहित्य’ का अनुकरण करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी जी ने ‘सारभूत-अध्यात्म’ को ‘इष्टोपदेश’ ग्रन्थ की कारिकाओं में लिपिबद्ध किया है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने साक्षात् अध्यात्म को प्रधान करके ‘समयसार’ आदि ग्रन्थों की रचना की है जबकि आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने अध्यात्म की नीतियों को प्रधान करके ग्रन्थ रचना की है। भेद‌विज्ञान क्या है? स्व-पर भेदविज्ञान को कैसे सीखें ? भेद‌विज्ञान के साथ-साथ अध्यात्म को कैसे पहचाने ? जैसे प्रश्नों के उत्तर उनके साहित्य में मिलते हैं।

इस ‘इष्टोपदेश’ नामक लघु ग्रन्थ में ५१ छन्दों द्वारा अध्यात्मतत्त्व का वर्णन किया है। किसी भी ग्रन्थ के लेखन व पठन-पाठन के पूर्व मंगलाचरण करने की प्राचीन काल से पूर्वाचायाँ द्वारा परम्परा रही है। मंगलाचरण करना ‘ग्रन्थ-लेखन’ या ‘पठन-पाठन’ की प्रारंभिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया या परम्परा का निर्वाह करना अर्वाचीन आचार्यों का और वर्तमान लेखकों या पाठकों का परम कर्तव्य होता है। अतः ग्रन्थ-रचना के पूर्व आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने भी मंगला चरण करते हुए परमात्मा को नमन किया है। कैसे ‘परमात्मा’ को नमन किया है? जिन्होंने सम्पूर्ण कमाँ के अभाव होने पर स्वयं ही, स्वभाव की प्राप्ति की है, उस सम्यग्ज्ञान स्वरूप परमात्मा को नमन किया है।

इस कारिका के प्रथम चरण में “यस्य स्वयं स्वभावाप्तिः” का अर्थ ध्यान देने योग्य है। उसमें भी ‘स्वयं’ एक शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है। केवलज्ञान स्वरूप परमात्म-पद को जिन्होंने स्वयं प्राप्त किया है अर्थात् साधना के पथ पर चलकर ‘स्वयं’ श्रम करके साध्य को प्राप्त किया है। स्वयं में परमात्म-पद को उद्घाटित किया है।

इस प्रसंग में शिष्यों को जिज्ञासा होती है कि आत्मा को स्वयं ही सम्यक्त्व केवलज्ञान आदि अष्ट गुणों की अभिव्यक्ति रूप स्वभाव की प्राप्ति किस उपाय से होती है? तथा स्वयं ही स्वरूप की प्राप्ति को सिद्ध करने वाला कोई दृष्टयन्त नहीं मिलता और दृष्टान्त के बिना उक कथन समझ में भी नहीं आता, इसलिए इस विषय को स्पष्ट करने के लिए कोई दृष्टान्त बताइये।

आत्मा तीन प्रकार का है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। अनादिकाल से यह आत्मा स्वयं के द्वारा अर्जित कर्मों के प्रभाव से शरीर और आत्मा के प्रति एकत्व बुद्धि को पुष्ट करता आया है। इसी एकत्व बुद्धि के कारण संसारी प्राणी शारीरिक स्तर का जीवन जीता है। शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ही तत्पर रहता है। यही कारण है कि संसारी प्राणी अनेक प्रकार की भौतिक सामग्री एवं भौतिक सम्पदाओं के पीछे दौड़ लगाता रहता है। इसके फलस्वरूप चतुर्गति परिभ्रमण करता रहता है। लेकिन जब गुरु उपदेश से शरीर और आत्मतत्त्व के प्रति भेदज्ञान जागृत होता है। शरीर और आत्मा का पृथक् पृथक् वास्तविक परिचय प्राप्त होता है फलतः वह बहिरात्मा से अन्तरात्मा बनता है। अन्तरात्मा आन्तरिक आत्मतत्त्व के प्रति गाढ़ श्रद्धान करता चला जाता है। अब वह भौतिक सम्पदा नहीं किन्तु ‘आध्यात्मिक सम्पदा’ के पीछे दौड़ लगाता है। ‘आत्म- वैभव’ क्या है? यह समझने का प्रयास करता है। वह अपने जीवन में ‘परमात्मा’ बनने का प्रयास करता है। इसके लिए हमेशा परमात्मा का ध्यान करता है। परमात्मा शब्द परम और आत्मा इन दो शब्दों से मिलकर बना है। परम का अर्थ श्रेष्ठ या उत्कृष्ट। आत्मा का अर्थ चैतन्यतत्व। अर्थात् जिसका चैतन्य तत्त्व कर्मों के प्रभाव से रहित, उत्कृष्ट शुद्ध, स्वाभाविक केवलज्ञान अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा कहलाता है।

इन तीनों में बहिरात्मा हेय तत्त्व है, अन्तरात्मा उपाय स्वरूप उपेय तत्त्व और परमात्मा उपादेय तत्त्व है। छहढालाकार ने भी तृतीय ढाल में उक्त कथन किया है-

बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आत्तम हुजै।
परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै ॥६॥

आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश ग्रन्थ में पूर्ण, उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान से युक्त परमात्मा रूपी इष्ट को नमस्कार किया है।

वैसे देखा जाये तो एकेन्द्रिय से लेकर संसार की सभी अवस्थाओं में रहने वाले जीवों का स्वभाव ज्ञान-स्वरूप है। ” सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ” ” द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से कहा भी है कि सभी जीव शुद्ध हैं। सभी जीव ज्ञान-स्वभावी है लेकिन वर्तमान में संसारी जीवों का ज्ञान, ज्ञानावरण-कर्म के प्रभाव से आच्छादित है और मोहनीय कर्म के प्रभाव से मलिन है। फिर भी सिद्धों जैसा पुरुषार्थ करें, तो हम भी सिद्ध सम शुद्ध, केवलज्ञान स्वरूप परमात्म तत्व की अभिव्यक्ति कर सकते हैं। परमानन्द का लाभ ले सकते हैं।

आज हम भी वैभाविक-प्रणाली में रहकर स्वाभाविक प्रणाली का श्रद्धान तो कर सकते हैं लेकिन वर्तमान में उसकी अनुभूति संभव नहीं हो सकती। जैसे-दरिद्र होकर भी हम सेठ-साहुकार बनने का श्रद्धान तो कर सकते हैं परन्तु सेठ साहूकारी अवस्था का अनुभव तो नहीं कर सकते, क्योंकि जिसके पास दरिद्र अवस्था में एक कौड़ी भी न हो अथवा जो दरिद्र अवस्था में एक काँड़ी का भी अधिपति न हो और वह करोड़पतित्व का अनुभव करे, यह कैसे संभव है? यह तो तीन काल में भी संभव नहीं हो सकता। हाँ, करोड़पति बनने का विश्वास किया जा सकता है। उसी प्रकार हम भी अपने ज्ञान को समीचीन ज्ञान में परिवर्तित करके, उसको केवलज्ज्ञान के रूप में अनुभूत कर सकते हैं, ऐसा विश्वास कर सकते हैं। हमारा ज्ञान भी केवलज्ञान स्वरूप परमात्म-पद में स्थित हो इसी भावना से यहाँ मंगलाचरण में संज्ञान-स्वरूप परमात्मा को नमन किया है।

किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने के पूर्व इष्ट देवता का स्मरण करना एक शिष्यचार माना गया है। इष्ट देवता का स्मरण हमारे जीवन में पाप को या कलुषता को नष्ट कर पुण्य को या पवित्रता को प्रदान करता है। साथ ही इष्ट देव का स्मरण किसी भी कार्य की सानन्द सम्पन्नता में कारण होता है। उक्त समस्त हेतुओं का ध्यान रखते हुए मंगलाचरण किया जाता है। अतः इस ग्रन्थ में मंगल स्वरूप प्रथम कारिका प्रस्तुत की गई है।

इष्टोपदेश ग्रन्थ की इस मंगलमय कारिका में स्वयं ही स्वभाव की प्राप्ति होती है इस विषय पर चर्चा की गई है। इसे समझने के लिए शिष्यों की ओर से दृष्टान्त की अपेक्षा निवेदित है। उस

निवेदन पर ध्यान देते हुए आचार्य भगवन्! आगे विषय को स्पष्ट करते हैं।

गाथा 2

इष्टोपदेश Ishtopadesh

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