आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा पद्यानुवाद एवं विवेचना

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गाथा 6

उत्थानिका–  इसी लौकिकसुख के स्वरूप सम्बन्धी कथन को आगे बढ़ाते हुए कहा जा रहा है कि यह सुख वासनामात्र है सुखाभास है-

वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् ।

तथा ह्युद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ॥६॥

अन्वयार्थ : (देहिनाम्) संसारी जीवों के (एतत् सुखं) ये इन्द्रिय सुख (च) और (दुःखं) दुःख (वासनामात्रं एव) भ्रम मात्र ही है (तथा हि) इसलिए (एते भोगा:) ये इन्द्रियों के भोग (आपदि) आपत्ति के समय (रोगाः इव) रोगों की तरह (उद्द्वेजयन्ति) व्याकुल करते हैं।

तन-धारी जीवों का सुख तो, मात्र वासना का जल है,

दुख ही दुख है सुख-सा लगता, मृग मरीचिका का जल है।

संकट की घड़ियों में जिस विध, रोग भयंकर, उस विध हैं,

 भोग सताते भोक्ताओं को, भोग हितंकर किस विध हैं? ॥६॥

The experiences of pleasures and pains of the samsari jivas (uneman- cipated souls) are purely imaginary; for this reason the sense produced pleasures give rise, like disease, to uneasiness on the approach of trouble.

Note – If the pleasures and pains of the world were not the product of imagination they would be lasting, unchanging and eternal. But we see that what is the cause of pleasures today becomes a source of disturbance and pain as soon as trouble arises or calamity overtakes the enjoyer, Hence the acharya points out that sense-produced pleasures and pain are purely imagi- nary in their nature, notwithstanding that the infatuated humanity regard them as real and run after them. By the use of the word imaginary it is not to be taken that the acharya denies the reality of the experiences altogether, what he is aiming at in reality is only an emphasis on the nature of true happiness to be described later.

विवेचना– संसारी जीवों का यह सुख वासना मात्र है। वासना मात्र का अर्थ है-‘तृष्णा’ यह एक लोलुपता है, वस्तुतः सुख नहीं है। देहिनाम् एतत् सुखं तु वासनामात्रं वस्तुतः एतत् दुःखमेव वा । संसारी प्राणी का यह सुख तो वासना मात्र है। वास्तव में तो यह दुःख ही है। आचार्य-पूज्यपाद स्वामी जी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में ‘प्रवीचार’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा- ‘वेदनाप्रतिकारः प्रवीचारः “अर्थात् यह पीड़ा का प्रतिकार मात्र है। प्रवीचार वास्तव में सुख नहीं है। दुख का प्रतिकार मात्र है। इसमें सुख मानना यह आपकी मान्यता हो सकती है। देखो! घर में क्या होता है? किसी को क्षुधा है तो क्षुधा में पीड़ा है। किसी को पिपासा है तो उसमें भी पीड़ा है। इनका प्रतिकार आवश्यक होता है। क्षुधा सम्बन्धी पीड़ा का प्रतिकार करने के लिए भोजन देते हैं, पिपासा की पीड़ा का प्रतिकार करने हेतु पानी देते हैं। आप स्वयं दृष्टि लगाना चाहें, विचार करना चाहें तो कीजिए कि आपने तो पीड़ा का प्रतिकार किया, इसमें यदि कोई सुख का अनुभव करना चाहता है, उसमें सुख मानने लगता है तो यह मान्यता मात्र है, जो कि गलत है। वेदना हो रही थी, भूख सता रही थी, किसी ने लड्डु खा लिया, किसी ने वाटी खा ली, किसी ने रोटी खा ली, किसी ने और कुछ खा लिया, क्या किया ? वेदना हो रही थी उसे शान्त कर दिया। किसी को रोटी का स्वाद आया, किसी को लड्डू का, किसी को बाटी का, लेकिन तीनों ने भिन्न-भिन्न पदार्थों के स्वाद से भूख को ही शान्त किया है। वेदना का प्रतिकार मात्र ही तो हुआ है। हमेशा के लिए भूख ही समाप्त हो गई हो, ऐसा तो नहीं है, जिससे आप सुखी हो रहे हो। ऐसा है क्या? नहीं।

आचार्यों ने मुनियों की आहारचर्या में पाँच प्रकार की वृत्तियाँ बतलाई हैं। उनमें से एक ‘अक्षम्रक्षन’ नामक वृत्ति है। इसका क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है कि जैसे-मानलो आपको गाड़ी चलाना है, तो गाड़ी की धुरा में ओंगन देना आवश्यक होता है, चाहे वह तेल का हो, ग्रीस हो, उसे लगा दो तो गाड़ी चलने लगती है। ओंगन कोई घी का नहीं दिया जाता। कोई कहे अठ-पहरा घी लगा दो, तो नहीं, वह आवश्यक नहीं है। अतः तेल या ग्रीस लगाते हैं। कोई-कोई तो डामर भी लगा देते हैं जिससे आवाज न हो। इसी प्रकार मुनिराज भी जब भीतर पेट से आवाज आने लग जाती है, तो उसे बन्द करने के लिए ओंगन के समान भोजन देते हैं। तात्पर्य यह है कि पीड़ा के प्रतिकार के लिए जिन वस्तुओं को नियुक्त किया गया है उनमें सुख ढूँढ़ना मूर्खता नहीं तो क्या है? मूलतः क्या किया जा रहा है इस बात पर ध्यान दो, फिर “एतत् सुखं वासनामात्रमेव” यह सुख वासना मात्र है यह समझ में आ जायेगा। अतः यह सुख नहीं सुखाभास है, यह भी समझ में आ जायेगा।

आचार्य आगे कहते हैं कि ये समस्त भोग कैसे हैं? ये भोग आपको उत्तेजित करते हैं। जैसे कि आपत्तिकाल में रोग आपको उत्तेजित करते हैं। जिस समय आपत्ति अर्थात् दरिद्रता हो और भयानक रोग हो जाये तो उस समय एक-एक क्षण निकालना मुश्किल हो जाता है, उसी प्रकार ये भोग भी आपको उद्वेजित करते हैं। इनका कोई अन्त नहीं होता। ‘योगसार’ अथवा ‘परमात्मप्रकाश’ ग्रन्थ में आचार्य योगीन्दुदेव ने लिखा है कि राम, पाण्डव आदि जो सम्यग्दृष्टि हैं वे विचार करते हैं, प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे भगवन्! ऐसा पुण्य न बंधे, जिस पुण्य के द्वारा विषय सामग्री की ओर मन चला जाये। आप लोग सोचते हैं कि भगवान् हमारे यहाँ ऐसा पुण्य आ जाये, बस फिर क्या? भगवान् को ही भूल जायें। यह वैभव, भोग-सामग्री भगवान् को ही भुला देने वाली होती है। इसके बीच रहते हुए, इसमें सुख मानते हुए आत्मा की ओर दृष्टि लगाने की भी कोई गुंजाइश नहीं होती। कुछ कमी रहती है तो धर्मध्यान, आत्म-चिंतन, आत्मध्यान, विपाकविचय धर्मध्यान आदि कर लेता है, अन्यथा नहीं। बल्कि आत्मध्यान समाप्त होने के ही अवसर होते हैं। शरीर को पूरा का पूरा भोजन मिल जाये तो फिर वह आत्म-चिन्तन को छोड़कर निद्रा में या अन्य किसी चिन्ता में खो जाये तो आत्मध्यान समाप्त हो जाता है। इसलिए विषयों के बीच रहते हुए भी यदि अपनी दृष्टि विषयों की ओर न जाकर आत्मा की ओर चली जाये तो ये सारे के सारे कार्यक्रम सफल हो सकते हैं। अन्यथा “यह सब वासना मात्र है”। “रत्नकरण्डक श्रावकाचार’ ग्रन्थ में भी आचार्य समन्तभद्र स्वामी जी लिखते हैं कि-

कर्मपरवशे सान्ते  दुःखै-रन्तरितोदये ।

पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥१२॥

अर्थात् ये पंचेन्द्रिय सम्बन्धी सुख ‘कर्मपरवशे’ यानि कर्मोदय पर आश्रित हैं, आधारित हैं। ये हमेशा नहीं बने रहते, किन्तु ‘सान्ते’ अर्थात् अन्त सहित हैं। इन सुखों को जब भी भोगेंगे तब भोगते, समय तो ये अच्छे लगेंगे लेकिन इनका परिपाक अच्छा नहीं होता। ‘दुःखैरन्तरितोदये’ अर्थात् ये सुख भीतर से दुःख से घुले हुए हैं। इन्हें आचार्य समन्तभद्र स्वामी’ शुगरकोटेड’ कहते हैं।

जिस प्रकार किसी रोगी को कड़वी औषधि देना है, लेकिन रोगी यदि सीधे, वह खाता नहीं इसलिए गले में से सरका दो। कड़वी है कैसे सरका दें ? नहीं सरकती, तो चबा लो। लेकिन चबाने से तो और अधिक कड़वी लगती है। मुँह कड़वा हो जाता है। उल्टी हो सकती है, अतः ऐसे व्यक्तियों के पेट में गोली पहुँचाने के लिए उसे ‘शुगरकोटेड’ कर दिया जाता है। अर्थात् ऊपर से मिश्री का लेप कर दिया जाता है, अंदर से कड़वी दवाई भरी रहती है। ऊपर से खाते हैं तो मीठी लगती है। अब वह पेट में पहुँच जाती है और भीतर जाकर घुल जाती है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय के विषय भी ‘शुगरकोटेड’ हैं। ‘दुःखैरन्तरितोदये भीतर से बहुत कड़वे हैं, दुःख से मिश्रित हैं। पाप के बीज स्वरूप हैं अर्थात् इनका सेवन करने से पाप का बन्ध होता है, पुण्य का नहीं। भगवान् की भक्ति करते समय पुण्य का बन्ध होता है, लेकिन भोजन करते समय पाप का बन्ध होता है। वह भी आसक्ति के साथ हो तो ज्यादा अनुभाग बंधता है। इसलिए मुनिराज भी आहारचर्या करने के उपरान्त प्रतिक्रमण करते हैं और चौबीस घंटों के लिए प्रत्याख्यान करते हैं। बीच में भोजन कथा भी नहीं करते, क्योंकि वह   पाप कथा है, विकथा  है। विशेष कथा नहीं। आत्म-कथा को बाधा पहुँचाने वाली होती है। देखो! विचार करो, बार-बार विचार करो कि पंचेन्द्रियों के सुख पाप के बीज हैं, दुःख से मिश्रित हैं। आप जैसे बीज बोयेंगे वैसे फल काटोगे। बबूल के बीज बोयेंगे तो आम के फल तीन काल में नहीं पा पायेंगे। पंचेन्द्रियों के विषयों के माध्यम से, उपभोग के माध्यम से जो कर्मबन्ध होगा वह पाप का बन्ध होगा। बबूल के पेड़ की जड़ मजबूत होती है, जब वह फलता है तो कांटों के साथ ही फलता है। उसकी छाया भी बहुत कम होती है, कोई पथिक यदि उस छाया में बैठ जाये तो बैठते ही काँटे लग जाते हैं, नीचे पैर में भी लग सकता, ऊपर से भी गिर सकता है, ऐसी कष्टमय स्थिति बनती है कि असहनीय हो जाती है। इसी तरह पंचेन्द्रिय के विषयों की स्थिति बनती है। अतः इस प्रकार के सुख में आस्था नहीं करना चाहिए। रुचि नहीं करना चाहिए। यह निष्कांक्षित अंग का स्वरूप है। सम्यग्दृष्टि के ८ अंगों में से यह एक अंग है।

शरीर में जिस प्रकार आठ अंग होते हैं, उनको एक-एक करके यदि पृथक् कर दिये जाये तो शेष क्या रह जाता है? कुछ नहीं। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के एक-एक अंग की यदि कमी होती जायेगी तो सम्यग्दर्शन कोई वस्तु नहीं रह जायेगी। सम्यग्दर्शन की चर्चा तो हम बहुत करते हैं,

स्वाध्याय गाथा सं 6 & 7

इष्टोपदेश स्वाध्याय

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