आचार्य पूज्यपादस्वामी विरचितः

इष्टोपदेश

आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा पद्यानुवाद एवं विवेचना

इष्टोपदेश गाथा 1

स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। यस्य तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥

अन्वयार्थ : जिनको सम्‍पूर्ण कर्मों के अभाव होने पर स्‍वयं ही स्‍वभाव की प्राप्ति हो गई है, उस सम्‍यग्‍ज्ञानरूप परमात्‍मा को नमस्‍कार हो ।

इष्टोपदेश गाथा 2

योम्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता । द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनो ऽप्यात्मता मता ॥२॥

अन्वयार्थ : योग्‍य उपादान कारण के संयोग से जैसे पाषाण-विशेष स्‍वर्ण बन जाता है, वैसे ही सुद्रव्‍य सुक्षेत्र आदि रूप सामग्री के मिलने पर जीव भी चैतन्‍य-स्‍वरूप आत्‍मा हो जाता है ।

इष्टोपदेश गाथा 3

वरं व्रतै: पदं दैवं, नाव्रतैर्वत नारकम् छायातपस्थयो र्भेद: प्रतिपालयतोर्महान् ॥३॥

अन्वयार्थ : व्रतों के द्वारा देव-पद प्राप्‍त करना अच्‍छा है, किन्‍तु अव्रतों के द्वारा नरक-पद प्राप्‍त करना अच्‍छा नहीं है । जैसे छाया और धूप में बैठनेवालों में अन्‍तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत और अव्रत के आचरण व पालन करनेवालों में फर्क पाया जाता है ।

इष्टोपदेश गाथा 4

यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी । यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्धे किं स सीदति ?॥४॥

अन्वयार्थ : आत्‍मा में लगा हुआ जो परिणाम भव्‍य प्राणियों को मोक्ष प्रदान करता है, उस मोक्ष देने में समर्थ आत्‍म-परिणाम के लिये स्‍वर्ग कितना दूर है ?

इष्टोपदेश गाथा 5

हृषीकज-मनातङ्क दीर्घ-कालोपलालितम् । नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ॥५॥

इष्टोपदेश गाथा 6

वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथा ह्युद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि ॥६॥

इष्टोपदेश स्वाध्याय

स्वाध्याय गाथा सं 3 & 4

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