प्रतिष्ठाचार्य ब्र. सूरजमल जैन

पूजा

प्रथम वलय

द्वितीय वलय

त्रिभङ्गी छन्द १६ अर्ध्य

शाश्वत दर्शन ज्ञान सुखामृत बल अनन्त प्रभु धारत है । योग रूढ़ हो आत्म महाबल घातिकर्म को टारत है ॥

ऐसे जिनवर शाँति प्रभु को इन्द्र यतीन्द्र नरेन्द्र भजे । हम पूजें उन पद पंकज को रोग शोक दारिद्र भजे ||1||

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे भरतैरावत विदेहादिशतेकसप्ततिक्षेत्रार्यखंडे भूत भविष्यत्वर्तमानर्हत्परमेष्टि पद पंकजे सन्मति तद्भक्त्युपेतामलतर खंडोज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्री शाँतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||1 ||

अष्ट कर्म से रहित जिनेश्वर अष्ट महा गुण पावत है । दुष्ट महावैभाविक परिणति रहित स्वभाव सु राजत है ॥

ऐसे वे त्रैकालिक सिद्ध नित्य निरंजन राजे हैं स्तवन करें उन सिद्ध समूह का पूजें सब दुःख भाजे हैं ||2||

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवेभरतैरावत विदेहादिशतक सप्ततिक्षेत्राय खंडे भूत भविष्यत वर्तमान सिद्ध परमेष्ठिपदपंकजे सन्मति सद्भक्तियुपेतामलतर- खंडोज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥2॥

सुन्दर मन से पालन करते पंच महाव्रत धारी है । पलवाते हैं करुणा शिष्यों से व्रत जो सुखकारी है ॥

कुसुम बाण मदमर्दन करते उज्ज्वल गुण सु प्रचारी है । पद आचार्य सुशोभित गुरुवर शतशत नमन हमारी है ||3||

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे भरतैरावत विदेहादिशतैक सप्ततिक्षेत्रार्य खंडे भूत भविष्यत वर्तमानचार्य परमेष्ठि पद पंकजे सन्मति सद्भक्तियुपेतामलतर- खंडोज्झित निदानबंधनाय कृतेज्याय श्री शाँतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||3||

द्वादशांग के ज्ञानी मुनिवर वृहस्पति बुधि धारी है । दुर्मत-पर्वत मत्त जनों के वचन सु वज्र विदारी है ॥

नित्य निरंजन सिद्ध अमिट सुख शिवमग देश न हारी है । ऐसे गुण के धारक पाठक तिन पद ढोक हमारी है ||4||

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे भरतैरावतविदेहादिशतक सप्ततिक्षेत्राय खंडे भूत भविष्यत वर्तमान पाठक परमेष्ठिपद पंकजे सन्मतिसद् भक्तियुपेतामलतर- खंडोज्झित निदानबंधनाय कृतेज्याय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||4||

शिव सुख कारण महामुनीश्वर धर्म ध्यान तप लीन रहे । चपल कुघोटक इन्द्रिय पाँचों दमन करे अरु काम दहे ॥

आतम ज्योति जगावे मुनिवर सब विषयों से रहित रहे । अमिट महासुख पावे भविजन पूजे ध्यावे भक्ति गहे ||5||

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे भरतैरावत विदेहादिशतक सप्तति क्षेत्रार्य खडे भूत भविष्यत वर्तमान सर्व साधुपरमेष्ठिपद पंकजे सन्मतिसद् भक्तियुपेतामलतर-खंडोज्झित निदानबंघनाय कृतेज्याय श्री शाँतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||5||

घातिकर्म निर्मुक्त महा जिन देव अठारह दोष रहित । कर्म कृपाणी जिनवर वाणी द्वादशांग है लोकमहित ॥

परमपूज्य निर्ग्रन्थ गुरु जो सप्त तत्त्व श्रद्धान सहित । सम्यग्दर्शन पूजो भविजन मुक्त दोष अष्टांग सहित ||6||

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे शुद्धसम्यक्त्वामलतर खंडोज्झित निदान बंधनाय कृतैज्याय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥6॥

मतिज्ञान के भेद तीन सो छत्तीसी जिनवर ने कहा । द्वादशांग अरु पूर्व चतुर्दश नाम महा श्रुत हिये लहा ||

अवधिज्ञान मनपर्यय केवल-ज्ञान सदा सब जग्गमगा । वसु विधि अर्घ्य बनाकर पूजे सबही मन के छोड़ देगा ||7||

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे सम्यज्ञानामलतर खंडोज्झित निदान बंधनाय कृतैज्याय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||7||

पंच महाव्रत पंच समीति गुप्तित्रय चरित्रलहा 1 शुक्ल ध्यान सिद्धि के कारण धारण करते भव्य महा ॥ सम्यक्चारित बिना न मुक्ति हुई कभी जिनवर ने कहा । चारित्र सम्यक धारो याते मुक्ति गमन को पंथ महा ||8ll

ॐ ह्रीं श्री जगदापद्विनाशनहेतवे सम्यक्त्वचारित्रा मलतर खंडोज्झित निदानबंधनाय कृतैज्याय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा || 8 ||

( कामिनि मोहन छन्द )

ज्ञान वर्ण कर्म पंच भेद युक्त है सही। न होन देत ज्ञान गुण आत्म दुक्ख पावही ॥

कर्मनाश हेतु दया-सिन्धु-शांतिनाथ को । अष्ट द्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ॥9॥

ॐ ह्रीं श्री ज्ञानावर्णकर्म महाबन्ध बन्धन कृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||9||

दर्शवर्णकर्मभेद नव प्रकृति जानिए । न होन देत दर्श गुण मन में यह ठानिए ॥

कर्म नाश हेतु दया-सिन्धु-शाँतिनाथ को । अष्टद्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ||10||

ॐ ह्रीं श्री दर्शनावर्णकर्मबन्ध बन्धन कृते सति तत्कर्मविपाकोदमवोपद्रवनिवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||10||

वेदनीय कर्म दोय भेद युक्त है सही। न होन देत सुख कभी कहत जिन देव ही  ।।

कर्म नाश हेतु दयासिन्धु – शांतिनाथ को । अष्ट द्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ||11||

ॐ ह्रीं श्री वेदनीयकर्मबन्ध बन्धन कृते सतितत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ||11||

मोहनीय कर्म दुष्ट बीस आठ है सही। होय न सम्यक्त्व सौख्य आत्म दुःख पाव ही ||

कर्म नाश हेतु दया- सिन्धु शांतिनाथ को । अष्ट द्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ||12||

ॐ ह्रीं श्री प्रचंड मोहनीय कर्मबन्ध बन्धन कृते सतितत्कर्म विपाकोद्भवोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||12||

आयु कर्म चार भेद अशुभ जिन भासिया । होय न अवगाह गुण कर्म यह खासिया ||

कर्म नाश हेतु दया- सिन्धु शांतिनाथ को । अष्ट द्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ||13||

ॐ ह्रीं श्री आयु कर्मबन्ध बन्धन कृते सतितत्कर्म विपाकोद्भवोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय

जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||13||

तैरानु भेद युक्त यह नाम कर्म है बली । सूक्ष्मत्व गुण यही न हो न देत है छली ॥

कर्म नाश हेतु दया सिन्धु शान्तिनाथ को । अष्ट द्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ||14||

ॐ ह्रीं श्री नाम कर्मबन्ध बन्धन कृते सतितत्कर्म विपाकोद्भवोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय

जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||14||

ऊँच नीच है यह गोत्र कर्म जानिए। अगुरु लघु गुण महा न होन देत मानिए ।

कर्म नाश हेतु दया सिन्धु शांतिनाथ  को । अष्ट द्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ||15||

ॐ ही श्री गोत्र कर्मबन्ध बन्धन कृते सतितत्कर्मविपाकोमवोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अयं निर्वपामीति स्वाहा ||15 ||

अन्तराय कर्म बली पाँच भेद है सही। अनन्तशक्ति हो न देत कहत जिन देव ही ॥

कर्म नाश हेतु दया सिन्धु शाँतिनाथ को । अष्ट द्रव्य पूजते नमाय निज माथ को ||16||

ॐ ह्रीं श्री अंतरायकर्मबन्ध बन्धन कृते सतितत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रव निवारकाय श्री शांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||16 ||

पूर्णार्घ्यं (गीता)

अरहन्त सिद्धाचार्य पाठक साधु परमेष्ठी कहे। द्रग ज्ञान चारित युत सदावर ध्यान में ही लग रहे || पूजते वसु द्रव्य लेकर शुद्ध मन वच काय से । तार दो भव सिन्धु हमको वीनती जिन राय से ||१७||

दोहा – पंच परमेष्ठि सदा, कर्म विनाशक जान | जो ध्यावे श्रद्धा सहित, मिले मुक्ति शुभ थान ॥

ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिपददायक दर्शन ज्ञान चारित्र कारक कर्माष्टकवारक श्री शांतिनाथाय षोडशांगे द्वितीय वलयमध्ये पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।

अथ तृतीय वलयमध्येद्वाविंशति कोष्ठोपरिपुष्पांजलिक्षिपेत् ॥

तृतीय वलय 1 से 16 अर्घ्य

तृतीय वलय-17 से 32 अर्घ्य

चतुर्थ वलय -1 से 16 अर्घ्य

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