आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा पद्यानुवाद एवं विवेचना
उत्थानिका – इस कथन को सुनकर शिष्य कहता है कि भगवन् । यदि सुयोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप सामग्री मिलने मात्र से ही परमात्मस्वरूप की प्राप्ति होती है, तब फिर व्रत, समिति आदि का पालन करना निष्फल हो जायेगा। अतः व्रतों का पालन करने हेतु व्यर्थ में ही शरीर को कष्ट देने से क्या लाभ ? उसी प्रश्न का समाधान देते हुए आचार्य आगे का श्लोक कहते हैं-
वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्वत नारकं ।
छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् || 3 ||
अन्वयार्थ – (व्रतैः) व्रतों के द्वारा (दैवं पदं) देवपद पाना (वरं) अच्छा है (किन्तु) (वत) खेद है! (अव्रतैः) अव्रतों के द्वारा (नारकं) नरक में उत्पन्न होना (न) अच्छा नहीं है क्योंकि (छायातपस्थयोः) छाया और धूप में स्थित व्यक्तियों के समान (प्रतिपालयतोः) प्रतीक्षारत पुरुषों में (महान् भेदः) बड़ा भारी अन्तर है ।
व्रत-पालन से सुर-पुर में जा, सुर-पद पाना इष्ट रहा,
पर व्रत बिन नरकों में गिरना, खेद! किसे वह इष्ट रहा।
घनी छाँव में, घनी धूप में, थित हो अन्तर पहिचानो,
अरे! हितैषी व्रताव्रतों में कितना अन्तर तुम मानो ॥३॥
Observance of vows leads to birth in the heavens, therefore their ob- servance is proper, the vowless life drags one to a birth in the hells, which is painful; therefore, vowlessness should be avoided, when two persons are waiting for the arrival of another person, but one of them waits in the heat of the sun and the other in the shade, great is the difference between the conditions; precisely the same difference is to be found between the condi tion of him who leads a life regulated by the vows and of him whose life is not so regulated.
Note – In the last verse divinity is said to be the natural attribute of the soul which arises from within its own self on the occurrence of the helpful causes of Self-realization. Naturally enough the question now arises: Why should one take the trouble of observing vows and otherwise subjecting oneself to a life of austerities and hardships, considering that Divinity be obtained without undergoing penances and without vows? The reply is given here in this verse. Painful, at times very painful, indeed, is the life which results from the non-observance of vows. One might even descend into hells which is the most undsirable condition of existence. On the other hand, the observance of vows leads to very happy and desirable conditions, including a birth in the heavens. Therefore the acharya says that the differ- ence between the soul that leading a well regulated life and the one whose life is not so regulated is precisely that between the condition of the map who is waiting for the arrival of a companion in the heat of the day, exposed to hot winds and the burning glare of the sun, and of him who is also await- ing the arrival of the same person but in a cool and shady grove.
Metaphysically of course, the helpful potent causes themselves in- clude the observance of vows and the suffering of hardships at a certain stage of advancement, for without them the kormic filth cannot be sepa- rated from the soul. But the great thing to note about the observance of vows and the suffering of hardships is this that they appear to be irksome and unpleasant only when thought of or looked at from a distance. When one is imbued with the right Faith one realises at once the necessity of a well-regulated life and actually longs for the perfection of character through suffering and self-denial, And the task does not then appear to be burden- some, but is cheerfully accepted as the surest means of the acquisition of that joyous feeling of self-elevation which is dear to the heart of every aspirant on the path. That virtue is its own reward, is a saying the truth of which is not realized except by him whose life is characterzed by self- imposed suffering in the name of Duty and Dharma.
विवेचना-आचार्य पूज्यपाद स्वामी जी उक्त शंका का परिहार करते हुए एवं अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करते हुए कहते हैं कि जब तक उपादान में योग्यता नहीं होती, तब तक कार्य की सिद्धि नहीं होती। जैसे ही यह कथन किया गया तो सहज ही प्रश्न उठता है कि यदि ऐसा है तो व्रतादि पालन रूप साधना का पुरुषार्थ करने की क्या जरूरत है? उपादान की योग्यता होगी तो आत्मा परमात्मा बन जायेगा ? शिष्य के इस कथन पर आचार्य कहते हैं कि वस्तु व्यवस्था इस प्रकार नहीं है, किन्तु वस्तु व्यवस्था तो यह है कि उपादान के साथ-साथ निमित्तरूप व्रतादि पालन करने की साधना या पुरुषार्थ भी आवश्यक है क्योंकि बिना साधना के साध्य की सिद्धि नहीं होती।
उपादान का अर्थ कार्य नहीं है, किन्तु कार्य रूप ढलने की योग्यता है। जिसे अन्तरंग कारण कहते हैं तथा कार्य रूप ढलने में जो भी अन्य सामग्री सहयोगी होती है उसे निमित्त या बहिरंग कारण कहते हैं। इन दोनों कारणों की संगति होने पर ही कार्य सिद्ध होता है।
आचार्य महाराज शिष्य से पुनः कहते हैं कि हे वत्स ! तुमने जो यह शंका की है कि व्रतादिकों का परिपालन निरर्थक हो जायेगा, ऐसा कहना उचित नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि व्रतादिकों का पालन करने से नवीन पुण्यबन्ध तो होता है, साथ में पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का एकदेश क्षय अर्थात् निर्जरा भी होती है। यह निर्जरा परम्परा से मुक्ति का कारण होती है। व्रतादिकों के पालन से नवीन पाप का आस्रव भी रुकता है। अतः तत्सम्बन्धी संवर भी परम्परा से मुक्ति का कारण होता है। इसलिए जब तक मोक्ष नहीं होता तब तक मोक्ष का साक्षात् कारण शुद्धोपयोग और शुद्धोपयोग का कारण व्रतादि पालन रूप शुभोपयोग का होना भी अनिवार्य है। इसके बिना शुद्धोपयोग की भूमिका भी नहीं बनती। इसलिए व्रतादि का पालन करने से स्वर्ग जाना फिर भी श्रेष्ठ है किन्तु अविरति के साथ, असंयम के साथ नरक में जाना श्रेष्ठ नहीं है। इसी बात को एक दृष्टान्त द्वारा समझने का प्रयास किया गया है।
जैसे-कोई दो पथिकों ने अपने कार्यवश नगर के अंदर जाने का विचार किया। अपने-अपने कार्यवश दोनों पथिक नगर की ओर जाते हैं। गर्मी का मौसम है। चलते-चलते थक जाते हैं। अपने कार्यवश वापस लौटने वाले तृतीय मित्र की प्रतीक्षा में दोनों पथिक रुक जाते हैं। जब तक तृतीय मित्र आता है तब तक के लिए दोनों पथिकों में से एक तो वृक्ष की छाँव में सुख-पूर्वक विश्राम करता है। दूसरा कष्ट के साथ धूप की पीड़ा सहते हुए धूप में ही खड़ा रहता है। जिस प्रकार इन दोनों पथिकों के बीच प्रतीक्षा करने के स्थान का चयन करने में महान् अन्तर है। उसी प्रकार जब तक संसारी भव्य प्राणी की मुक्ति प्राप्ति में कारणभूत योग्य उत्तम द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव आदि की प्राप्ति नहीं होती, तब तक उनकी प्रतीक्षा हेतु सुगति या दुर्गति कहीं भी रह सकता है। लेकिन असंयम, पाप आदि का आश्रय लेकर दुःखमय नरक में दुःख पूर्वक रहने की अपेक्षा व्रत, संयम, समिति आदि का परिपालन करके स्वर्ग में सुख पूर्वक रहना श्रेष्ठ है।
यदि कोई कहे कि व्रतादि का पालन करने से पुण्य का अर्जन होता है अथवा पुण्यबन्ध होता है और अव्रत, असंयम आदि के निमित्त से पाप का बन्ध होता है अतः बन्ध की विवक्षा में देखा जाये, तो दोनों में साम्यता है, क्योंकि दोनों ही बन्ध तत्त्व से दूर नहीं हैं। दोनों ही संसार में हैं, दोनों की ही मुक्ति नहीं होगी, दोनों ही कर्मों के फल का अनुभव कर रहे हैं। आगे भी सुख या दुःख का अनुभव करेंगे। अतः दोनों में समानता है। ऐसा कहने वालों के प्रति आचार्य पूज्यपाद स्वामी जी ने ‘वत’ शब्द से खेद प्रकट किया है। साथ में उक्त दृष्टान्त द्वारा समझाने का प्रयास भी किया है। अतः व्रतादिक का पालन करना निरर्थक नहीं है, किन्तु सार्थक है।
हालाँकि मुक्ति प्राप्त करने का जिसका लक्ष्य है उसे स्वर्ग-नरक दोनों में शांति नहीं है। फिर भी मैं आप लोगों से पूछता हूँ कि आपके एक हाथ में घी का घट है और दूसरे हाथ में छाछ का घट है। आप दोनों हाथों में घट लेकर मार्ग में चल रहे हैं। चलते-चलते पैरों में पत्थर की ठोकर लग गई। आप गिर गये। दोनों हाथों से दोनों घट भी गिर गये। अब आप मुझे बताइये कि उन गिरे हुए दोनों घड़ों में से आप सर्वप्रथम किस घड़े को सम्हालोगे ? सोचो, विचार करो और मुझे उत्तर दीजिये। पहले छाछ के घड़े को सम्हालोगे क्या ? नहीं महाराज ? ये तो सभी लोग जानते हैं कि पहले घी का घड़ा सम्हालेंगे, इसमें पूछने की कोई बात ही नहीं है, यह तो एक छोटा सा बालक भी जानता है। उसी प्रकार जब मोक्ष प्राप्त होगा तो होगा। लेकिन जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो रहा तब तक आपके सामने दो प्रकार के जीवन हैं। एक तो व्रत, संयम, सदाचार आदि के द्वारा सुख सुविधा युक्त स्वर्ग की प्राप्ति करना और दूसरा अनादि काल से चले आ रहे असंयम, पाप, अनाचार, अत्याचार आदि के द्वारा दुःख दुविधाओं से सहित नारकी जीवन को पाना। इन दोनों में से आप कौन सा जीवन प्राप्त करना चाहोगे ? आचार्य महाराज! हम सभी एक मत से कहते हैं कि हम लोगों को जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होगा उसके बीच आनन्दमय एवं सुख सुविधा वाले स्वर्ग सम्बन्धी जीवन प्राप्त हो ऐसा चाहते हैं। आप ही बताइये महाराज! कि कौन ऐसा मूर्ख है जो नरक के जीवन को चाहेगा ? इसीलिए तो आचार्य पूज्यपाद महाराज कह रहे हैं कि यदि स्वर्ग प्राप्त करना चाहते हो तो व्रतादि का पालन करो इसी में जीवन की सार्थकता है क्योंकि स्वर्ग प्राप्त करने के लिए पुण्य चाहिए। पुण्य की प्राप्ति व्रतादि के पालने से होती है। अतः व्रतों का परिपालन निरर्थक नहीं है लेकिन जो व्रतादि के परिपालन को निरर्थक बताते हैं, यह उनका अज्ञान हो सकता है। एक विशेष बात और ध्यान रखना कि व्रतादि पालन से मात्र पुण्यबन्ध नहीं होता किन्तु मुक्ति प्राप्ति में कारणभूत पाप का संवर एवं उसकी निर्जरा भी होती है अतः व्रतादि का पालन परम्परा से मोक्ष का कारण भी होता है।
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