आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा पद्यानुवाद एवं विवेचना
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उत्थानिका : अब आगे वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिन भावों से मुक्ति मिलती है, उनसे यदि कदाचित् मुक्ति न भी मिल पाए तो स्वर्ग नियम से मिलता ही है। स्वर्ग मिलने पर उस धर्मात्मा को स्वर्ग-सुख कैसा मिलता है? इसे बताते हैं-
हृषीकज-मनातङ्क दीर्घ-कालोपलालितम् ।
नाके नाकौकसां सौख्यं नाके नाकौकसामिव ॥५॥
अन्वयार्थ : (नाके) स्वर्ग में (नाकौकसाम्) देवों का (हृषीकजं) इन्द्रियों से उत्पन्न (अनातङ्के) दुःख रहित और (दीर्घकालोपलालितम्) दीर्घकाल तक सेव्य (सौख्यं) सुख (नाके) स्वर्ग में (नाकौकसाम् इव) देवों के समान ही होता है।
पंचेन्द्रिय-सुख होकर भी जो आतंकों से दूर रहा,
युग-युग तक अगणित वर्षों तक, लगातार भर-पूर रहा।
सुर-सुख तो बस सुरसुख जिसको, अनुभवते सुर-पुर-वासी,
कहे कहाँ तक? किस विध? किसको? आखिर हम तो वनवासी ॥५॥
The happiness that is enjoyed by the residents of heavens appertains to the senses, is free from disturbance (literally, disease) enjoyable for very very long periods of time, and is without a parallel outside the heavens!
Note – The pleasures of a heavenly life are but sense-produced, though they are not to be found outside the heavenly region and are exceedingly delightful. The duration of the life, too is incomparably longer in the heaven than on the earth, and it is therefore true that the heavenly pleasures are enjoyable for much longer periods than the pleasures of this world.
विवेचना– यहाँ पर आचार्य कहते हैं-‘हृषीकजं’ अर्थात् इन्द्रियों से उत्पन्न जो विषय हैं, पदार्थ हैं। वे कैसे हैं? दिव्य हैं। उन दिव्य पदार्थों की इस मर्त्यलोक के पदार्थों से उपमा नहीं दी जा सकती, क्योंकि दिव्य का अर्थ है कि जो स्वर्ग में होते हैं। स्वर्ग के पदार्थों की मर्त्यलोक के पदार्थों से उपमा दी भी नहीं जा सकती इसलिए यहाँ के कोई भी रंग-रंगीन पदार्थों को उदाहरण के रूप में नहीं चुना।
यहाँ मर्त्यलोक में जब महापुरुषों या तीर्थंकरों का अवतार होता है, उस समय उन महापुरुषों के लिए दिव्य पदार्थों का योग मिलता है और उनके भोग का अवसर प्राप्त होता है। चक्रवर्ती, अर्द्धचक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और तीर्थंकर आदि महापुरुषों को विशेष तौर पर दिव्य वस्तुओं का प्रबन्ध होता है। स्वर्ग से प्रायः बहुत सी दिव्य सामग्री आती है। इन्द्रिय के दिव्य विषय आते हैं। वहाँ पर किसी भी प्रकार के व्यवधान नहीं होते। इसलिए ‘अनातङ्के’ कहा है। देवों को जीवन के आदि से लेकर अन्त तक दिव्य इन्द्रिय विषय उपलब्ध होते हैं। देवों को इसलिए ‘दीर्घकालोपलालितं’ विशेषण दिया है। अर्थात् स्वगों में दीर्घकाल तक विषय-सुख एक-सा बना रहता है। अन्य गति में जीवों के सुखमय जीवन में और स्वर्गीय जीवन में यही अन्तर है कि स्वर्गीय सुख उत्पन्न होने के उपरान्त से जीवन के अन्त तक ज्यों का त्यों बना रहता है, कोई अन्तर नहीं आता।
भावों में अन्तर आ जाये यह अलग बात है, लेकिन सामग्री एवं दिव्य सामग्री से उत्पन्न सुख में कोई अन्तर नहीं आता। जबकि अन्य गतियों में, जहाँ इन्द्रिय विषय सुख है, उसमें कमी-वेशी होती है और सामग्री में भी अन्तर आता रहता है। नरकगति में प्रतिपल जीवन के आदि से लेकर अन्त तक निरंतर दुःख ही दुःख बना रहता है। यह सब कमाँ की एक व्यवस्था है।
किसी ने एक प्रश्न किया कि देव मरते नहीं हैं क्या ? यदि मरते हैं तो उनका नाम अमर क्यों रखा ? समाधान उसका यह है कि देवों का मरण नहीं होता इसलिए अमर कहलाते हों, लेकिन ऐसा नहीं है, किन्तु उनका मरण बहुत समय के उपरान्त होता है। वे बहुत जल्दी-जल्दी नहीं मरते इसलिए उनकी अपने जैसे मरने में गिनती नहीं आती। जबकि यहाँ तो आप लोगों के लोक को ही ‘मर्त्यलोक’ नाम दिया गया क्योंकि यहाँ पर लोग मरते ही रहते हैं। यहाँ तक कि हम लोग तो बात- बात पर मरते रहते हैं लेकिन उनका बहुत काल तक मरने का नम्बर ही नहीं आता, इसलिए अमर नाम रखा है। दूसरी बात यह भी है कि मर्त्यलोक में जैसा मरण होता है वैसा वहाँ नहीं होता अर्थात् पीड़ा के साथ, रोगों के साथ, बुढ़ापे के साथ, जीर्ण-शीर्ण अवस्था के साथ मरण नहीं होता। जन्म है तो मरण भी होता है, लेकिन जन्म-मरण के बीच जरा अवस्था नहीं आती। सोचने से भी यह एक अद्भुत बात विदित होती है कि जन्म में भी दुःख नहीं होता, मरण में भी दुःख नहीं होता और जरा तो है ही नहीं। इस दृष्टि से भी देवों को अमर कह सकते हैं। अजर भी कह सकते हैं क्योंकि जन्म, जरा, मरण से जो रहित होते हैं उन्हें अजर, अमर कहते हैं, चूँकि देवों के जन्म मरण तो है लेकिन तत्सम्बन्धी दुःख नहीं है इस अपेक्षा से देवों को अजर-अमर कहने में कोई बाधा नहीं आती।
हाँ, यह बात अवश्य है कि मरने की कला और मृत्यु को जीतने की कला, मृत्यु को अपने आधीन करने की कला देवों के पास नहीं मनुष्यों के पास ही होती है इसलिए मनुष्यों को मर्त्य भी कहते हैं। आगे स्वर्ग को ही अपने रहने का स्थान बना लिया है, जिन्होंने उन्हें स्वर्ग का सुख स्वर्ग में रहने वाले देवों के सुख के समान ऐसा है, ऐसा बतलाने के लिए कहा है-“नाके नाकौकसां सौख्यम्” कहने का तात्पर्य यह है कि स्वर्ग के मुख की अथवा वहाँ के वैभव की उपमा इस मर्त्यलोक के किसी भी पदार्थ के द्वारा नहीं दी जा सकती।
सुख का वर्णन करते हुए यदि हम विषय सुख प्राप्त करने वालों का वर्गीकरण करते हुए विचार करेंगे कि यहाँ सबसे ज्यादा सुख किसको है? यह तुलनात्मक दृष्टि से देखना होगा। कि यहाँ पर सामान्य रूप से तिर्यन्चों की अपेक्षा मनुष्यों को ज्यादा सुख मिलता है। मनुष्यों में भी राजा, महाराजाओं को ज्यादा सुख मिलता है। मांडलीक, महामांडलीक, नारायण, प्रतिनारायण, बलदेव, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि इनको क्रमशः बढ़ता हुआ अधिक-अधिक सुख प्राप्त होता है यह तो कर्मभूमिज मनुष्यों की बात है। यहाँ पर कर्म करने के उपरान्त भोजन का सुख मिलता है। सिगड़ी जलाओ, भोजन पकाओ तब भोजन करने का आनन्द पाओ, लेकिन भोगभूमि में यह सब करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। उन्हें कल्पवृक्ष से सीधा भोजन मिलता है। अन्य सभी आवश्यक भोग-सामग्री भी प्राप्त होती है। जघन्य भोगभूमि में भी मनुष्यों को चक्रवर्ती से भी ज्यादा सुख मिलता है। जघन्य भोगभूमि की अपेक्षा मध्यम भोगभूमि में और मध्यम भोगभूमि की अपेक्षा उत्कृष्ट भोगभूमि में सुख की मात्रा बढ़ाती जाती है लेकिन सुख की सामग्री की मात्रा प्रमाण की अपेक्षा घटती चली जाती है। जैसे जघन्य भोगभूमि में किसी को लड्डू मिलता है, तो वह कैसा मिलता है? बड़ा मिलता है लेकिन राजगिर का लड्डू मिलता है। इसके उपरान्त मध्यम भोगभूमि में नुक्की का लड्डू। लड्डू मिलता है, उत्तम भोगभूमि में मावे का का मिलता है। गुलाब जामुन या रसगुल्ला मिलता है अतः इनके अनुपात में तो कमी आई लेकिन लड्डू की क्वालिटी बढ़ती चली गई, मिठास बढ़ता चला जाता है। यहाँ तक तो मनुष्यों की सुख सम्बन्धी चर्चा पूर्ण हुई।
अब आगे देवों के पास देखिए! देवों में दो पदार्थ नहीं पाए जाते जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। अभी तक कवलाहार की बात हुई लेकिन देवों में कवलाहार नहीं पाया जाता। वहाँ तो मानसिक आहार होता है। वहाँ तो देवों के कंठ से अमृत झरता है। अमृत की उपमा मर्त्यलोक की किसी भी वस्तु से नहीं दी जा सकती। अमृत देवों की खुराक है और लड्डू, गुलाबजामुन आदि मर्त्यलोक की खुराक है।
कर्म व्यवस्था भी चार प्रकार की है-कमाँ में फल देने वाली अनुभाग शक्ति के लिए चार दृष्टान्त दिए हैं-गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृत। जैसे इन पदाथों के अंदर मिठास की शक्ति बढ़ती हुई होती है वैसे ही कमाँ के विभाग हैं सुखों की अपेक्षा से। देवों में सुख की अपेक्षा विचार करें तो सर्वप्रथम उत्तम भोगभूमि से भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में क्रमशः सुख बढ़ता हुआ है ज्योतिष्क देवों के उपरान्त सर्वप्रथम स्वर्ग में सुख के बारे में विचार करें तो जो दस प्रकार के देव है इन्द्र, सामानिक त्रायस्त्रिंश आदि इनका क्रमशः घटता-घटता सुख होता सबसे ज्यादा सुख झ्न्द्र को होता है, लेकिन इसमें भी आगे-आगे के स्वगों में सुख एवं सुख की सामग्री अधिक-अधिक होती है। जैसे-जैसे ऊपर-ऊपर जायेंगे वैसे-वैसे सुख बढ़ता चला जाता है। सम्यादर्शन व मिथ्यादर्शन से कोई मतलब नहीं है कर्मकृत फल प्राप्त होता है। सोलह स्वगौ के उपरान्त नव मैवेयक होते हैं। उनमें भी नीचे की अपेक्षा मध्यम मैवेयकों में, मध्यम की अपेक्षा ठपरिम मैवेयकों में सुख बढ़ता जाता है। उनके आभरणों के रंग-रोगन बढ़ते जाते हैं। उनके संगीत की सामग्री भी क्वालिटी की अपेक्षा बढ़ती जाती है। उनके शरीर का वर्ण भी सुन्दर होता जाता है। उनके वस्त्र, आभूषण भी अलग ही क्वालिटी के हुआ करते हैं। जैसे मुनीम जी भी सफेद कपड़े पहनते हैं और मालिक भी सफेद कपड़े पहनते हैं, लेकिन दोनों के कपड़ों में बहुत फर्क होता है। देखने में सफेद हैं लेकिन हाथ लगाकर देखो, इसके उपरान्त लाइट करके देखो कितना चमकता रहता है। चमक के साथ- साथ मृदुता भी रहती है। मृदुता एवं चमक के साथ-साथ उनकी कीमत भी अधिक होती है। मालिक के कपड़ों की बाहर से कीमत अधिक है इसका मतलब ही यह है कि वह भीतर से भी अच्छी क्वालिटी का है।
इसी प्रकार एक गाड़ी में ड्राइवर भी बैठा है साथ में मालिक भी है। दोनों में से किसको ज्यादा आनन्द आता है? नौकर को या मालिक को। मालिक को ज्यादा आनन्द आता हैं। क्यों ? गाड़ी मालिक की है, नौकर गाड़ी चला रहा है, मालिक चल रहा है, घूम रहा है। घूमने का आनन्द भी मुनीम जी को नहीं मालिक को आता है। इसी प्रकार स्वगों में भी प्रथम स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में सुख अधिक-अधिक होता है, सुख-समृद्धि का उपसंहार सर्वार्थसिद्धि में होता है। किल्विष जाति के देवों का सुख नौकर के समान, तो इन्द्र का सुख मालिक के समान समझना चाहिए। लेकिन आचार्य कहते हैं कि “यह जितना भी सुख है ये तो लौकिक पद्धति से तुलनात्मक सुख है, अलौकिकदृष्टि से देखोगे, समझोगे, सुनोगे तो यह सुख कोई सुख नहीं है, बल्कि सुखाभास है या यूँ कहें कि दुःख का मूल यही है।
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