मंगलाचरण

श्लोक 1

(स्त्रग्धरा)

कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपतिर्नाभिसूनुर्महात्मा मध्यान्हे यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजतेस्मोग्रमूर्तिः चक्रं कर्मेन्धनानामतिबहुदहतो दूरमौदास्यवात- स्फूर्यत्सद्ध्यानवतेरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फुलिङ्गः ॥१॥

अर्थ-दोपहर के समय जिस आदीश्वर भगवान् के ऊपर रहा हुआ तेजस्वी सूर्य ज्ञानावरणादि कर्मरूपी ईंधन को पल भर में भस्म करने वाली तथा वैराग्यरूपी पवन से जलायी हुई, ध्यानरूपी अग्नि से उत्पन्न हुए मनोहर फुलिंगा के समान जान पड़ता है ऐसे कायोत्सर्ग सहित विस्तीर्ण शरीर के धारी तथा अष्टकर्मों के जीतने वाले उत्तम पुरुषों के स्वामी महात्मा श्रीनाभिराजा के पुत्र श्रीऋषभदेव भगवान् सदा जयवन्त हैं।

भावार्थ-इस श्लोक में उत्प्रेक्षालंकार है इसलिए ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि जिस प्रकार पवन से चेताई हुई अग्नि जिस समय काष्ठ के समूह को जलाती है उस समय जैसे उसके फुलिंगे आकाश में उड़कर जाते हैं। उसी प्रकार श्रीऋषभदेव भगवान् ने भी अपनी वैराग्यरूपी अग्नि से ज्ञानावरणादि कर्मों के समूह को जलाया था तथा उसके भी फुलिंगे आकाश में उड़कर गये थे उन फुलिंगाओं में से ही यह सूर्य भी एक फुलिंगा है।

सारार्थ-भगवान् की ध्यानरूपी अग्नि सूर्य से भी अधिक तेजवाली थी।

श्लोक 2

हाथों को नीचे किये तथा निश्चल और नासाग्रदृष्टि तथा एकान्तस्थान में ध्यानी भगवान् को अपने मन में ध्यान कर ग्रन्थकार फिर भी उत्प्रेक्षा करते हैं।

(शार्दूलविक्रीडित)

नो किञ्चित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किञ्चिदृशो- दृश्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न । तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रहः संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिनः॥२॥

अर्थ-भगवान् को हाथ से करने योग्य कोई कार्य नहीं रहा है इसलिए तो उन्होंने हाथों को नीचे लटका दिया है तथा जाने के लायक कोई स्थान नहीं रहा है इसलिए वे निश्चल खड़े हुए हैं और देखने योग्य कोई पदार्थ नहीं रहा है इसलिए भगवान् ने नाक के ऊपर अपनी दृष्टि दे रखी है तथा एकान्तवास इसलिए किया है कि भगवान् को पास में रहकर कोई बात सुनने के लिए नहीं रही है इसलिए इस प्रकार अत्यन्त निराकुल तथा ध्यानरस में लीन भगवान् सदा लोक में जयवन्त हैं।

श्लोक 3

रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तमोहग्रहा- दस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वषोऽपि सम्भाव्यते ।

तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणा- मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन् सदा पातु वः ॥३॥

अर्थ-मोह तथा परिग्रह के नाश हो जाने के कारण न तो किसी पदार्थ में जिस अर्हत का राग ही प्रतीत होता है तथा अर्हत भगवान् ने समस्त शस्त्र आदि को छोड़ दिया है इसलिए विद्वानों को किसी में जिस अर्हत का द्वेष भी देखने में नहीं आता तथा द्वेष के न रहने के कारण जो शान्तस्वभावी है तथा शान्तस्वभावी होने के ही कारण जिस अर्हत ने अपनी आत्मा को जान लिया है तथा आत्मा का ज्ञाता होने के कारण जो अर्हत कर्मों से रहित है तथा कर्मों से रहित होने के ही कारण जो आनन्द आदि गुणों का आश्रय है ऐसे अर्हत भगवान् मेरी सदा रक्षा करें अर्थात् ऐसे अर्हत भगवान् का मैं सदा सेवक हूँ।

भावार्थ-जो रागी तथा द्वेषी है और जो निरन्तर स्त्रियों में रमण करता है तथा जो मोही है और शत्रु से भयभीत होकर जो निरन्तर शस्त्र को अपने पास रखता है तथा कर्मों का मारा नाना प्रकार की गतियों में भ्रमण करता रहता है ऐसा स्वयं दुखी दूसरे की क्या रक्षा कर सकता है? किन्तु जो वीतराग हैं तथा काम-मोह आदि जिसके पास भी नहीं फटकने पाते, जो जन्म-मरणादि से रहित है और कर्मों का जीतने वाला है वही दूसरे की रक्षा कर सकता है इसलिए ऐसे ही अर्हन्त के में शरण हूँ।

श्लोक 4

इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखरशिखारत्लार्क भासानख- श्रेणीतेक्षणबिम्बशुम्भदलिभृगुरोल्लसत्पाटलम्

श्रीसद्याङ्गियुगं जिनस्य दधदप्यम्भोजसाम्यं रज- स्त्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतोऽर्पितं शर्मणे ॥४॥

अर्थ-जिस प्रकार कमलों पर भ्रमर गुंजार करते हैं उसी प्रकार भगवान् के चरण कमलों को बड़े-बड़े इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं तथा उनके मुकुट के अग्रभाग में लगे हुए जो रत्न उनकी प्रभा सहित भगवान् के चरणों के नखों में उन इन्द्रों के नेत्रों के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं इसलिए भगवान् के चरणों पर भी इन्द्रों के नेत्ररूपी भौर निवास करते हैं तथा जिस प्रकार कमल कुछ सफेदी लिए लाल होते हैं उस ही प्रकार भगवान् के चरण कमल भी कुछ सफेदी लिए हुए लालवर्ण हैं तथा जिस प्रकार कमलों में लक्ष्मी रहती है उस ही प्रकार भगवान् के चरण कमल भी लक्ष्मी के स्थान हैं अर्थात् चरण कमलों के आराधन करने से भव्य जीवों को उत्तम मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसलिए यद्यपि कमल तथा भगवान् के चरणकमल इन गुणों से समान हैं तथापि कमल धूलि सहित है तथा जड़ हैं और भगवान् के चरणकमल धूलि (पाप) रहित हैं तथा जड़ता के दूर करने वाले हैं अतः कमलों से भी उत्कृष्ट भगवान् के चरणकमल सदा मेरे मन में स्थित रहें तथा कल्याण करें।

भावार्थ-रज का अर्थ धूलि भी होता है तथा पाप भी होता है इसलिए कमल तो धूलि सहित है किन्तु भगवान् के चरणकमल धूलि रहित हैं अर्थात् चरण कमलों की सेवा करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है तथा कमल सर्वधा जड़ हैं किन्तु भगवान् के चरणकमलों में अंशमात्र भी जड़ता नहीं है अर्थात् चरणकमलों की आराधना करने से समस्त प्रकार की जड़ता नष्ट हो जाती।

श्लोक 5

(मालिनी)

जयति जगदधीशः शान्तिनाथो यदीयं स्मृतमपि हि जानानां पापतापोपशान्त्यै ।

विबुधकुलकिरीटप्रस्फुरन्नीलरत्न द्युतिचलमधुपालीचुम्बितं पादपद्यम् ॥५॥

अर्थ-नाना प्रकार के देवताओं के मुकुट, उनमें लगी हुई नीलमणि उनकी जो प्रभा वही चलती हुई भ्रमरों की पंक्ति से सहित जिस शान्तिनाथ भगवान् के चरणकमल स्मरण किए हुए समस्त जनों के पाप तथा संताप को दूर कर देते हैं ऐसे वे तीनलोक के स्वामी श्रीशांतिनाथ भगवान् सदा जयवंत रहें।

श्लोक 6

स जयति जिनदेवो सर्वविद्विश्वनाथोऽवितथवचनहेतुक्रोधलोभादिमुक्तः ।

शिवपुरपथपांथप्राणिपाथेयमुच्वैर्जनितपरमशर्मा येन धर्मोऽभ्यधायि ॥६॥

अर्थ-सबके जानने वाले तथा तीनलोक के स्वामी और क्रोध लोभादि से रहित इसीलिए सत्य वचन के बोलने वाले श्रीजिनदेव सदा जयवंत हैं, जिन श्रीजिनदेव ने मोक्षमार्ग को गमन करने वाले प्राणियों को पाथेय (टोसा) स्वरूप तथा उत्तम कल्याण के करने वाले उत्कृष्ट धर्म का निरूपण किया है।

प्रथम ही धर्म कितने प्रकार का है इस बात को बतलाते हैं-

श्लोक 7

(शार्दूलविक्रीडित)

धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनो, भेदाद्विधा च त्रयं, रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः।

मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता, वागङ्गसङ्गोज्झिता, शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥७॥

अर्थ-समस्त जीवों पर दया करना इसी का नाम धर्म है अथवा एकदेश गृहस्थ का धर्म तथा सर्वदेश मुनियों का धर्म इस प्रकार उस धर्म के दो ही भेद हैं अथवा उत्कृष्ट रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र) ही धर्म है अथवा उत्तमक्षमा मार्दव-आर्जव आदिक दश प्रकार भी धर्म है अथवा मोह से उत्पन्न हुए समस्त विकल्पों से रहित तथा जिसको वचन से निरूपण नहीं कर सकते ऐसी जो शुद्ध तथा आनन्दमय आत्मा की परिणति उसी का नाम उत्कृष्ट धर्म है इस प्रकार सामान्यतया धर्म का लक्षण तथा भेद इस श्लोक में बतलाये गये हैं।

पद्मनन्दि पंचविंशतिका स्वाध्याय

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