श्लोक 8

अब आचार्य चार श्लोकों में दयाधर्म का वर्णन करते हैं-

आद्या सव्रतसञ्चयस्य जननी, सौख्यस्य सत्सम्पदां, धर्मतरोरनश्वरपदा, रोहैकनिः श्रेणिका ।

मूलं कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो, नित्यं दया धार्मिकैः धिङ्‌नामाऽप्यदयस्य तस्य च परं, सर्वत्र शून्या दिशः ॥८॥

अर्थ-जो समस्त उत्तम व्रतों के समूह में मुख्य है तथा सच्चे सुख और श्रेष्ठ संपदाओं को उत्पन्न करने वाली है और जो धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है ( अर्थात् जिस प्रकार जड़ बिना वृक्ष नहीं ठहरता उसी प्रकार दया, बिना धर्म के भी नहीं ठहर सकती) तथा जो मोक्षरूपी महल के अग्रभाग में चढ़ने के लिए सीढ़ी के समान है ऐसे धर्मात्मा पुरुषों को समस्त प्राणियों पर दया अवश्य करनी चाहिए किन्तु जिस पुरुष के चित्त में लेशमात्र भी दया नहीं है उस पुरुष के लिए धिक्कार है तथा समस्त दिशा उसके लिए शून्य है अर्थात् जो निर्दयी है उसका कोई भी मित्र नहीं होता।

श्लोक 9

संसारे भ्रमतश्विरं तनुभृतः, के के न पित्रादयो, जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते, सर्वे भवन्त्याहताः ।

नन्वात्मापि हतो यदत्र निहतो, जन्मान्तरेषु ध्रुवं, हन्तारं प्रतिहन्ति हन्त बहुशः, संस्कारतो नु कुधः ॥९॥

अर्थ- चिरकाल से संसार में भ्रमण करते हुए इस दीन प्राणी के कौन-कौन माता पिता भाई आदिक नहीं हुए? अर्थात् सर्व हो चुके इसलिए यदि कोई प्राणी किसी जीव को मारे तो समझना चाहिए कि उसने अपने कुटुम्बी को ही मारा तथा अपनी आत्मा का भी उसने घात किया क्योंकि यह नियम है जो मनुष्य किसी दीन प्राणी को एकबार मारता है उस समय उस मरे हुए जीव के क्रोधादि की उत्पत्ति होती है तथा जन्मान्तर में उसका संस्कार बैठा रहता है इसलिए जिस समय कारण पाकर उस मृत प्राणी का संस्कार प्रकट हो जाता है उस समय वह हिंसक को (अर्थात् पूर्वभव में अपने मारने वाले जीव को) अनेक बार मारता है इसलिए ऐसे दुष्ट हिंसक के लिए धिक्कार हो।

श्लोक 10

त्रैलोक्यप्रभुभावतोऽपि सरुजोऽप्येकं निजं जीवितं, प्रेयस्तेन विना स कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः । निःशेषव्रतशीलनिर्मलगुणाधारात्ततो निश्चितं, जन्तोर्जीवितदानतस्त्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु ॥१०॥

अर्थ– यदि किसी दरिद्री से भी यह बात कही जावे कि भाई तू अपने प्राण दे दे तथा तीन लोक की संपदा ले ले तब वह यही कहता है कि मैं ही मर जाऊँगा तो उस संपदा को कौन भोगेगा। अतः तीन लोक की संपदा से भी प्राणियों को अपने प्राण प्यारे हैं। इसलिए समस्त व्रत तथा शीलादि निर्मल गुणों का स्थानभूत जो यह प्राणी का जीवित दान है उसकी अपेक्षा संसार में सर्व दान छोटे हैं यह बात भलीभाँति निश्चित है।

भावार्थ आहार, औषधि, अभय तथा शास्त्र इस प्रकार दान के चार भेद हैं उन सब में अभयदान सबसे उत्कृष्ट दान माना गया है तथा अभयदान उसी समय पल सकता है जब किसी जीव के प्राण न दुखाये जायें इसलिए इस उत्तम अभय दान के आकांक्षी मनुष्यों को किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए।

श्लोक 11

स्वर्गायाऽव्रतिनोऽपि सार्द्रमनसः, श्रेयस्करी केवला, सर्वप्राणिदया तया तु रहितः, पापस्तपस्थोऽपि च।

तद्वानं बहु दीयतां तपसि वा, चेतः स्थिरं धीयतां, ध्यानञ्च क्रियतां जना न सफलं, किञ्चिद्यावर्जितम् ॥११॥

अर्थ-चाहे मनुष्य अव्रती व्रतरहित क्यों न होवे यदि उसका चित्त समस्त प्राणियों के प्राणों को किसी प्रकार दुख न पहुँचाना रूप दया से भीगा हुआ है तो समझना चाहिए कि उस पुरुष को वह दया स्वर्ग तथा मोक्ष रूप कल्याण को देने वाली है किन्तु यदि किसी पुरुष के हृदय में दया का अंश न हो तो चाहे वह कैसा भी तपस्वी क्यों न होवे तथा वह चाहे इच्छानुसार ही दान क्यों न देता हो अथवा वह कितना भी तप में चित्त को क्यों न स्थिर करता हो तथा वह कैसा भी ध्यानी क्यों न हो पापी ही समझा जाता है क्योंकि दया रहित कोई भी कार्य सफल नहीं होता।

श्लोक 12

अब आचार्य श्रावक धर्म का वर्णन करते हैं-

सन्तः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं, मुक्तेः परं कारणं, रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवन, प्रद्योति काये सति ।

वृत्तिस्तस्य यदन्नतः परमया, भक्त्यार्पिताज्जायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां, धर्मो न कस्य प्रियः ॥१२॥

अर्थ-जिस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी त्नत्रय की समस्त सुरेन्द्र तथा असुरेन्द्र भक्ति से पूजन करते हैं तथा जो मोक्ष का उत्कृष्ट कारण है अर्थात् जिसके बिना कदापि मुक्ति नहीं हो सकती तथा जो तीन लोक का प्रकाश करने वाला है ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को देह की स्थिरता रहते हुए ही मुनिगण धारण करते हैं तथा श्रद्धा-तुष्टि आदि गुणों से संयुक्त गृहस्थियों के द्वारा भक्ति से दिये हुए दान से उन उत्तम मुनियों के शरीर की स्थिति रहती है इसलिए ऐसे गृहस्थों का धर्म किसको प्रिय नहीं है अर्थात् सब ही उसको प्रिय मानते हैं।

श्लोक 13

(स्रग्धरा)

आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकैः प्रीतिरुच्चैः, पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्चकारुण्यबुद्ध्या।

तत्त्वाभ्यासः स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं तद्‌गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः ॥१३॥

अर्थ- तथा जिस गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्र भगवान् की पूजा उपासना की जाती है तथा निर्ग्रन्थ गुरुओं की भक्ति, सेवा आदि की जाती है और जिस गृहस्थाश्रम में धर्मात्मा पुरुषों का परस्पर में स्नेह से बर्ताव होता है तथा मुनि आदि उत्तमादि पात्रों को दान दिया जाता है तथा दुखी दरिद्रियों को जिस गृहस्थाश्रम में करुणा से दान दिया जाता है और जहाँ पर निरन्तर जीवादि तत्त्वों का अभ्यास होता रहता है तथा अपने-अपने व्रतों में प्रीति रहती है और जिस गृहस्थाश्रम में निर्मल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है वह गृहस्थाश्रम विद्वानों के द्वारा पूजनीय होता है किन्तु उससे विपरीत इस संसार में केवल दुख का देने वाला है तथा मोह का जाल है।

अब आचार्य श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं के नाम बताते हैं-

आदौ प्रोषध- दर्शनमुन्नतं व्रतमितः सामायिकं स्त्यागश्चैव सचित्तवस्तुनि दिवाभुक्तं तथा ब्रह्म च।

पद्मनन्दि पंचविंशतिका स्वाध्याय

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