आर्यिका रत्न पूर्णमति माताजी द्वारा रचयित श्री पंचपरमेष्ठी विधान
मंगलाचरण
दोहा
पंचम गति की प्राप्ति हित, पंच परम पद ध्याय। परिवर्तन पाँचों नशें, मंगलकर सुखदाय ।। 1 ।।
चौबोला छंद
जय-जय पंच परम परमेष्ठी, आप सर्व जग हितकारी। वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, पूर्णज्ञान के हो धारी।।
काल अनंता बीत गया है, भवकानन में भटक रहे। मोक्षपंथ ना सूझा अब तक, मोह जाल में अटक रहे। ।2।।
पुण्योदय का उदय हुआ है, जिन कुल में आ जनम लिया। वीतराग अरिहंत प्रभु का, श्रद्धा पूर्वक दरश किया।।
घाति रहित शत इंद्र पूज्य सब, अरहंतों को नमन करूँ । सिद्धप्रभु का ध्यान धरूँ मैं, सिद्धक्षेत्र को गमन करूँ ।। 3 ।।
मुनिगण नायक आतम ज्ञायक, आचारज उपकारी हैं। दीक्षा दाता सूरीश्वर के, पद में धोक हमारी है।।
अंगपूर्वधर उपाध्याय को, पूर्णज्ञान हित वंदन है। आत्मसाधना लीन मुनि का, भावों से अभिनंदन है।।4।।
स्व – पर तत्त्व का ज्ञान नहीं मैं, आत्म ज्ञान पाने आया। कर्म फलों से लिप्त हुआ प्रभु, अब विरक्त होने आया।।
गुरुवर मुख से सुना है मैंने, जो जिन भक्ति करता है। पाप पुण्य को शीघ्र नाशकर, मोक्षलक्ष्मी को वरता है। ।5।।
पंच परम पद की भक्ति से, सब संकट मिट जाते हैं। पाप-पुण्य में संक्रम करता, रोग शोक नश जाते हैं।।
इसीलिए मंगल कार्यों में, परमेष्ठी पद ध्यान धरूँ। वीतरागता की भक्ति से, इष्ट परम पद प्राप्त करूँ । ।6।।
जब तक श्वास रहे इस तन में, महामंत्र का स्मरण करूँ। मंगलमय हो जीवन सारा, अंत समाधीमरण करूँ।।
कर्म मुझे भव-भव दुख देते, हे जिन ! इनका नाश करो। मैं हूँ निर्बल भक्त आपका, अतः हृदय मम वास करो। ।7।।
पंच परमेष्ठी पूजन
स्थापना
चौबोला छंद घातिकर्म से रहित पूज्य श्री, अरिहंतों को वंदन है। बंध मुक्त सिद्धालय वासी, सिद्धों का अभिनंदन है।।
यतिनायक आचार्य सुगुरु को, श्रद्धा से मैं नमन करूँ। अंग पूर्व के पाठी मुनिवर, उपाध्याय को हृदय धरूँ।।1।।
आत्म साधना लीन साधु का, सुमिरन कर निज को जानूँ । इष्ट परम पद पाने हेतु, आत्म शक्ति को पहचानूँ ।।
भाव सुमन लेकर आया हूँ, हृदय कमल पर वास करो। परम पंच परमेष्ठी मेरे, सब विभाव का नाश करो। । 211
ॐ ह्रीं पंचपरमेष्ठिजिनसमूह ! अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननम् ।
ॐ ह्रीं पंचपरमेष्ठिजिनसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं पंचपरमेष्ठिजिनसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
द्रव्यार्पण
(तर्ज :- नंदीश्वर श्री जिन….)
हे नाथ अनंतों बार, तन मल को धोया। आतम में भरें विकार, शुद्ध न कर पाया।। परमेष्ठी पंच महान, पूजन सुखकारी। दो ज्ञानामृत का दान, जिनवर उपकारी।। 1 ।।
मैं ह्रीं पंचपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं….।
भव ताप विजेता नाथ, बनने मैं आया। शुचि चंदन श्रद्धा साथ, लेकर मैं आया।। परमेष्ठी पंच महान, पूजन सुखकारी। दो समता रस का दान, जिनवर उपकारी।।2।।
मैं ह्रीं पंचपरमेष्ठिभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं…. ।
अब तक जो पाया नाथ, सबका नाश हुआ। प्रभु शाश्वत शुभ्र स्वभाव, लख निज भान हुआ।।
Shri Panch Parmeshthi Vidhan Composition by Aryika Ratna Purnamati Mataji
Beginning of the Panch Parmeshthi Vidhan
Invocation
Couplet (Doha):
Achieve the fifth state, contemplate the supreme status of the Panch Parmeshthi. Let go of all transformations, bestow auspiciousness and happiness.
Quatrain (Chaupai) in meter Chobola:
Hail the supreme lords of the Panch Parmeshthi, benefactors of the entire world. Victorious over attachments, omniscient and benevolent, holders of complete knowledge.
Time is infinite, passing through the cycle of existence. Lost in the forest of worldly affairs, unaware of the path to liberation, ensnared in the net of delusion.
The rise of virtue has occurred, born into the lineage of Jinas. With reverence, beheld the omniscient Lord of the victors, Arihants.
Worship all one hundred and eight Indras without harm, pay homage to the Arihants. Meditate on the Siddha Lords, journey to the land of the liberated.
The leaders of the ascetic community are guides to self-realization, dispensers of righteous conduct. The bestower of initiation, Lord Sureshwar, deceives us in this position.
Salutations to the Upadhyayas, who uphold complete knowledge for the benefit. Commendation of the ascetic absorbed in self-realization with devotion.
I have no knowledge of self – the ultimate truth, I have come to attain self-knowledge. The Lord, entangled in the consequences of actions, now comes to detachment.
I have heard from the mouth of the Guru, whoever worships the Jinas. Quickly destroys sin and virtue, and obtains the wealth of liberation.
Through devotion to the Panch Parm Pad, all difficulties are dispelled. Transcending sin and virtue, diseases and sorrows are destroyed.
Therefore, in auspicious tasks, I meditate on the position of the Parmeshthi. Through devotion to detachment, I attain the desired supreme status.
As long as breath remains in this body, I remember the great mantra. Let all of life be auspicious, and finally merge in samadhi.
Actions cause me suffering in every birth, O Jina! Destroy them. I am your feeble devotee, hence reside in my heart.